रविवार, 25 मार्च 2018

दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला

||दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला||


दुर्गा दुर्गार्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी।
दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी ||

दुर्गतोद्धारिणी दुर्गानिहन्त्री दुर्गमापहा।
दुर्गमज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला॥

दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरुपिणी।
दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता॥

दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी।
दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थंस्वरुपिणी॥

दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी।
दुर्गमाङ्गी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्र्वरी॥

दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी।
नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानवः॥
पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न संशयः॥

॥इति दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला संपूर्णा॥

श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्

||श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्||


ईश्वर उवाच:
शतनाम प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्व कमलानने।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥१॥

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥२॥
पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरुपा चिता चितिः॥३॥

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरुपिणी।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥४॥
शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी॥५॥

अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती।
पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी॥६॥
अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सरसुन्दरी।
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गीमुनिपूजिता॥७॥

ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः॥८॥
विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना॥९॥

निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी।
मधुकैटभहन्त्री चण्डमुण्डविनाशिनी॥१०॥
सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी।
सर्वशास्त्रमयी चैव सर्वास्त्रधारिणी तथा॥११॥

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवति यतिः॥१२॥
अप्रोढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा।
महोदरी मुक्तकेशी घोररुपा महाबला॥१३॥

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरित्रिस्तपस्विनी।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी॥१४॥
शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी॥१५॥

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्।
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति॥१६॥
धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च।
चतुर्वंर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम्॥१७॥

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्।
पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम्॥१८॥
तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि।
राजानो दासातां यान्ति राज्यश्रियमवाप्रुयात्॥१९॥

गोरोचना-ऽलक्तक-कुङ्कुमेन
सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण।
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो
भवेत् सदा धारयते पुरारिः॥२०॥
भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते।
विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत्‌ सम्पदां पदम्॥२१॥

इति श्रीविश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्तम्।

रविवार, 18 मार्च 2018

अर्चाविग्रह की पूजा विधि

अर्चाविग्रह की पूजा विधि


श्रीमद् भागवत (*स्कन्ध ११ अध्याय २७*) में भगवान् कृष्ण, उद्धव के पूछने पर अर्चविग्रह की नियत तथा विशिष्ट विधि का वर्णन इस प्रकार करते हैं :

भगवान् के अर्चविग्रह रूप का आठ प्रकारों में अर्थात “पत्थर, काष्ठ, धातु, मिटटी, चित्र, बालू, मन या रत्न” में प्रकट होना बतलाया गया है | समस्त जीवों के शरण रूप भगवान् का अर्चविग्रह दो प्रकारों से स्थापित किया जा सकता है, अस्थायी अथवा स्थायी रूप से | किन्तु हे उद्धव, स्थायी अर्चविग्रह का आवाहन हो चुकने पर उसका विसर्जन नही किया जा सकता | जो अर्चविग्रह अस्थायी रूप से स्थापित किया गया हो उसका आवाहन और विसर्जन विकल्प रूप में किया जा सकता है किन्तु ये दोनों अनुष्ठान तब अवश्य करने चाहिए जब अर्चविग्रह को जमीन पर अंकित किया गया हो | अर्चविग्रह को जल से स्नान कराना चाहिए यदि वह मिटटी या काष्ठ से न बनाया गया हो | ऐसा होने पर जल के बिना ही ठीक से सफाई करनी चाहिए |

हे उद्धव! मनुष्य को चाहिए कि उत्तम से उत्तम साज Prabhupada_Installationसामग्री भेंट करके मेरे अर्चविग्रह रूप में मेरी पूजा करे | किन्तु भौतिक इच्छा से पूर्णतया मुक्त भक्त मेरी पूजा, जो भी वस्तु मिल सके उसी से करे, यहाँ तक कि वह अपने हृदय के भीतर मानसिक साज सामग्री भी से मेरी पूजा कर सकता है |

हे उद्धव! मदिर के अर्चविग्रह की पूजा में स्नान कराना तथा सजाना सर्वाधिक मनोहारी भेंट हैं | तिल तथा जौ को घी में सिक्त करके जो आहुतियाँ दी जाती हैं, उन्हें यज्ञ की अग्नि भेंट से अधिक अच्छा माना जाता है | वस्तुतः मेरे भक्त द्वारा श्रद्धापूर्वक मुझे जो कुछ भी अर्पित किया जाता है, भले ही वह थोडा सा जल ही क्यों न हो, मुझे अत्यन्त प्रिय है | बड़ी से बड़ी  ऐश्वर्यपूर्ण भेंट भी मुझे तुष्ट नही कर पाती यदि वे अभक्तों द्वारा प्रदान की जाएँ | किन्तु मैं अपने प्रेमी भक्तों द्वारा प्रदत्त तुच्छ भेंट से भी प्रसन्न हो जाता हूँ और जब सुगंधित तेल, अगरु, फूल तथा स्वादिष्ट भोजन की उत्तम भेंट प्रेमपूर्वक चढाई जाती है, तो मैं निश्चय ही सर्वाधिक प्रसन्न होता हूँ |

हे उद्धव! मनुष्य को चाहिए कि पहले वह अपने दांत साफ़ कर, स्नान करे अपना शरीर शुद्ध बनाये | सारी सामग्री एकत्र करके पूजक को चाहिए कि अपना आसन कुशो को पूर्वाभिमुख करके बनाये अन्यथा यदि अर्चविग्रह किसी स्थान पर स्थिर है तो अर्चविग्रह के सामने मुख करके बैठे |  भक्त को चाहिए कि अपने शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श करके तथा मंत्रोच्चार करते हुए उन्हें पवित्र बनाये | उसे मेरे अर्चविग्रह रूप के साथ भी ऐसा ही करना चाहिए | अर्चविग्रह पर चढ़े पुराने फूलों तथा अन्य भेंटों को हटाना चाहिए |

हे उद्धव! पूजा करने वाले को चाहिए की जल से भरे तीन पात्रो को शुद्ध करे | भगवान् के चरण पखारने के लिए जल वाले पात्र को हृदयाय नमःमन्त्र से पवित्र करे; अर्ध्य के लिए जल-पात्र को शिर से स्वाहा मन्त्र से तथा भगवान् का मुख धोने वाले जल के पात्र को शिखाये वषट मन्त्र का उच्चारण करके पवित्र बनाये | पूजा करने वाले को चाहिए कि वह मेरे आसन को आठ पंखड़ियों वाले कमल के रूप में मान ले | वह चरण पखारने का जल, मुख साफ़ करने का जल, अर्ध्य तथा पूजा की अन्य वस्तुएँ मुझे अर्पित करे | इस विधि से उसे भौतिक भोग तथा मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है |

हे उद्धव! मनुष्य को चाहिए कि भगवान् के सुदर्शन चक्र, पाच्चजन्य शंख, गदा, तलवार, धनुष, बाण तथा हल, मूसल, कौस्तुभ मणि, फूलमाला तथा उनके वक्षस्थल के केश-गुच्छ श्रीवत्स की पूजा इसी क्रम से करे | नन्द, सुनन्द, गरुड, प्रचण्ड तथा चण्ड, महाबल तथा बल एवं कुमुद तथा कुमुदेक्षण नामक भगवान् के पार्षदों की पूजा करे |

हे उद्धव! पूजा करने वाले को अपनी आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार प्रतिदिन अर्चविग्रह को स्नान करने के लिए चन्दन लेप, उशीर, कपूर, कुंकुम तथा अगरु से सुंगधित किये गए जल का प्रयोग करे | मेरे भक्त को चाहिए कि वह मुझे वस्त्रों, जनेऊ, विविध आभूषणों, तिलक तथा मालाओं से अच्छी तथा अलंकृत करे और मेरे शरीर पर प्रेमपूर्वक सुगन्धित तेल का लेप करे | अपने साधनों के ही अन्तर्गत भक्त मुझे गुड, खीर, घी, शष्कुली (चावल के आटे, चीनी तथा तिल से बनी व घी में तली गई पूड़ी), आपूप (मीठा व्यंजन), मोदक, संयाव (आटा,घी तथा दूध से बनी आयताकार रोटी जिस पर चीनी व मसाला चुपड़ा हो), दही, शाक-शोरबा तथा अन्य स्वादिष्ट भोजन भेंट करने के लिए व्यवस्था करे |   

हे उद्धव! विशेष अवसरों पर और यदि संभव हो तो नित्यप्रति अर्चविग्रह को उबटन लगाया जाय, दर्पण दिखाया जाय, दांत साफ़ करने के लिए नीम की दातून दी जाय, पंचामृत से नहलाया जाय, विविध कोटि के व्यंजन भेंट किये जाए तथा गायन व नृत्य से मनोरंजन किया जाय | (श्रील श्रीधर स्वामी के अनुसार विशेष अर्चापूजन के लिए एकादशी की तिथि सर्वोपयुक्त है ) |

हे उद्धव! बुद्धिमान भक्त को चाहिए कि वह भगवान् के उस रूप का ध्यान करे जिसका रंग पिघले सोने जैसा, जिसकी चारों भुजायें शंख, चक्र, गदा तथा कमल-फूल से शोभायमान हैं, जो सदैव शान्त रहता है और कमल के तन्तुओ जैसा रंगीन वस्त्र पहने रहता है | उनका मुकुट, कंगन, करघनी तथा बाजूबन्द खूब चमकते रहते हैं | उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह, चमकीली कौस्तुभ मणि तथा जंगली फूलों की माला रहती है |  भगवान् के अर्चविग्रह का मूल मन्त्र मन ही मन जपे और भगवान् नारायण के रूप में परम सत्य का स्मरण करे | भोजन के बाद अर्चविग्रह को मुख धोने के लिए जल दे तथा सुगन्धित पान का बीड़ा दे |

हे उद्धव! भक्त दूसरों के साथ गाते हुए, जोर से कीर्तन करते तथा नाचते हुए, मेरी दिव्य लीलाओं का अभिनय करते हुए तथा मेरे विषय में कथाएँ सुनते व सुनाते हुए कुछ समय के लिए आनंदमग्न हो जाए | भक्त को चाहिए कि पुराणों व शास्त्रों के अनुसार स्तुतियों तथा प्रार्थनाओं से अपनी श्रद्धा अर्पित करे|“हे प्रभु, मुझ पर दयालु हों” ऐसी प्रार्थना करते हुए प्रथ्वी पर दण्ड की तरह गिर कर नमस्कार करे |

हे उद्धव!  अर्चविग्रह के चरणों पर अपना सिर रख कर और तब भगवान् के समक्ष हाथ जोड़े खड़े होकर उसे प्रार्थना करनी चाहिए “हे प्रभु, मैं आपकी शरण में हूँ, कृपा मेरी रक्षा करें | मैं इस भवसागर से अत्यन्त भयभीत हूँ क्योंकि मैं मृत्यु के मुख पर खड़ा हूँ” | इस प्रकार प्रार्थना करता हुआ भक्त मेरे द्वारा प्रदत्त उचिछ्ष्ठ को आदर सहित अपने सिर पर रखे |

हे उद्धव! भक्त को चाहिए कि सुन्दर बगीचों सहित मंदिर बनवाकर मेरे अर्चविग्रह को ठीक से स्थापित करे | जो व्यक्ति अर्चविग्रह पर भूमि, बाजार, शहर तथा गांव की भेंट चढ़ाता है, जिससे अर्चविग्रह की नियमित तथा विशेष त्योहारों पर पूजा निरन्तर चलती रहे, वह मेरे ही तुल्य ऐश्वर्य प्राप्त करता है | अर्चविग्रह की स्थापना करने से मनुष्य सारी प्रथ्वी का राजा बन जाता है; भगवान् के लिए मंदिर बनवाने से तीनों लोकों का शासक बन जाता है; अर्चविग्रह की पूजा व सेवा करने से वह ब्रह्मलोक को जाता है और इन तीनों कार्यों को करने से वह मुझ जैसा ही दिव्य स्वरुप प्राप्त करता है | किन्तु जो व्यक्ति कर्मफल पर विचार किये बिना, भक्ति में लगा रहता है, वह मुझे प्राप्त करता है | इस तरह जो कोई भी मेरे द्वारा वर्णित विधि के अनुसार मेरी पूजा करता है, वह अन्ततः मेरी शुद्ध भक्ति प्राप्त करता है |

राधा जी के सोलह नाम

ब्रह्मवैवर्त पुराण में नारद जी द्वारा राधा जी के 16 नाम बताये गये हैं!
आप सभी भक्तों के दर्शनार्थ उन नामों का अर्थ इस प्रकार है -
१.राधा---राधेत्येवं च संसिद्धौ राकारो दानवाचकः स्वयं निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता
२. रासेश्वरी --रासेसेश्वरस्यपत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी
३. रासवासिनी -रासेसेश्वरस्य पत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी
४. रसिकेश्वरी -सर्वासां रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा प्रवदन्ति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम्
५. कृष्णप्राणाधिका-प्राणाधिका प्रेयसी सा कृष्णस्य परमात्मनः कृष्णप्राणाधिकासा च कृष्णेन परिकीर्तिता
६. कृष्णप्रिया -कृष्णास्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वास्याः प्रियः सदा सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृता
७. कृष्णस्वरूपिणी -कृष्णरूपं संनिधातुं या शक्ता चावलीलया सर्वांशैः कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी
८. कृष्ण वामाङ्ग सम्भूता -वामाङ्गार्धेन कृष्णस्य या सम्भूता परा सती कृष्ण वामाङ्ग सम्भूता तेन कृष्णेन कीर्तिता
९. परमान्दरूपिणी -परमानन्दराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती श्रुतिभिः कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी
१०.कृष्णा -कृषिर्मोक्षार्थ वचनो न एतोत्कृष्ट वाचकः आकारो दातृवचनस्तेन कृष्णा प्रकीर्तिता
११. वृन्दावनी -अस्ति वृन्दावनं यस्यास्तेन वृन्दावनी स्मृता वृन्दावनस्याधि देवी तेन वाथ प्रकीर्तिता
१२. वृन्दा-सङ्घःसखीनां वृन्दः स्यादकारोऽप्यस्ति वाचकः सखिवृन्दोऽस्ति यस्याश्च सा वृन्दा परिकीर्तिता
१३. वृन्दावन विनोदिनी -वृन्दावने विनोदश्च सोऽस्या ह्यस्ति च तत्र वै वेदा वदन्ति तां तेन वृन्दावन विनोदिनीम्
१४. चन्द्रावली -नखचन्द्रावली वक्त्रचन्द्रोऽस्ति यत्र संततम् तेन चन्द्रवली सा च कृष्णेन परिकीर्तिता
१५. चन्द्रकान्ता -कान्तिरस्ति चन्द्रतुल्या सदा यस्या दिवानिशम् सा चन्द्रकान्ता हर्षेण हरिणा परिकीर्तिता
१६.शतचन्द्रप्रभानना -शरच्चन्द्र प्रभा यस्स्याश्चाननेऽस्ति दिवानिशम् मुनिना कीर्तीता तेन शरच्चन्द्रप्रभानना
"जय जय श्री राधे "

युद्ध के दौरान अपने पुत्र के हाथों मारे गए थे अर्जुन, जानें रहस्य

अर्जुन महाराज पाण्डु एवं रानी कुंती के तीसरे पुत्र थे। ये महाभारत के मुख्य पात्र में से एक व द्रोणाचार्य के शिष्य थे। इनकी माता कुंती का एक नाम पृथा था, जिस कारण अर्जुन 'पार्थ' भी कहलाए। बहुत से लोगों को पता होगा कि अर्जुन की मृत्यु स्वर्ग की यात्रा के दौरान हुई थी। परंतु इसके पहले भी एक बार अर्जुन की मृत्यु हुई और वे पुनः जीवित हुए, इसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। तो आईए आज हम आपको महायोद्धा अर्जुन से जुड़ी इस पूरी कहानी के बारे में बताएं-

अश्वमेध यज्ञ
महाभारत युद्घ के समाप्त होने के उपरांत एक दिन महर्षि वेदव्यास जी और श्री कृष्ण के कहने पर पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ करने का विचार बनाया। शुभ मुहूर्त देखकर यज्ञ का शुभारंभ किया गया और अर्जुन को रक्षक बना कर घोड़ा छोड़ दिया। वह घोड़ा जहां भी जाता, अर्जुन उसके पीछे जाते। अनेक राजाओं ने पांडवों की अधीनता स्वीकार कर ली वहीं कुछ ने मैत्रीपूर्ण संबंधों के आधार पर पांडवों को कर देने की बात मान ली।

मणिपुर का राजा था अर्जुन का पुत्र
किरात, मलेच्छ व यवन आदि देशों के राजाओं द्वारा यज्ञ को घोड़े में रोकना चाहा तो अर्जुन ने उनके साथ युद्ध कर उन्हें पराजित किया। इस तरह विभिन्न देशों के राजाओं के साथ अर्जुन को कई बार युद्ध करना पड़ा। यज्ञ का घोड़ा घूमते-घूमते मणिपुर पहुंच गया। यहां की राजकुमारी चित्रांगदा अर्जुन की पत्नी थी और उनके पुत्र का नाम बभ्रुवाहन था। बभ्रुवाहन ही उस समय मणिपुर का राजा था।

उलूपी द्वारा युद्ध के लिए बभ्रुवाहन को गया उकसाया
जब बभ्रुवाहन को अपने पिता अर्जुन के आने का समाचार मिला तो उनका स्वागत करने के लिए वह नगर के द्वार पर आया। अपने पुत्र बभ्रुवाहन को देखकर अर्जुन ने कहा कि मैं इस समय यज्ञ के घोड़े की रक्षा करता हुआ तुम्हारे राज्य में आया हूं। इसलिए तुम मुझसे युद्ध करो। जिस समय अर्जुन बभ्रुवाहन से यह बात कह रहा था, उसी समय नागकन्या उलूपी भी वहां आ गई। उलूपी भी अर्जुन की पत्नी थी। उलूपी ने भी बभ्रुवाहन को अर्जुन के साथ युद्ध करने के लिए उकसाया।

अपने ही पुत्र के हाथों मारे गए अर्जुन
अपने पिता अर्जुन व सौतेली माता उलूपी के कहने पर बभ्रुवाहन युद्ध के लिए तैयार हो गया। अर्जुन और बभ्रुवाहन में भयंकर युद्ध होने लगा। अपने पुत्र का पराक्रम देखकर अर्जुन बहुत प्रसन्न हुए। बभ्रुवाहन उस समय युवक ही था। अपने बाल स्वभाव के कारण बिना परिणाम पर विचार कर उसने एक तीखा बाण अर्जुन पर छोड़ दिया। उस बाण को चोट से अर्जुन बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े।

बभ्रुवाहन भी उस समय तक बहुत घायल हो चुका था, वह भी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। तभी वहां बभ्रुवाहन की माता चित्रांगदा भी आ गई। अपने पति व पुत्र को घायल अवस्था में धरती पर पड़ा देख उसे बहुत दुख हुआ। चित्रांगदा ने देखा कि उस समय अर्जुन के शरीर में जीवित होने के कोई लक्षण नहीं दिख रहे थे। अपने पति को मृत अवस्था में देखकर वह फूट-फूट कर रोने लगी। उसी समय बभ्रुवाहन को भी होश आ गया।

पुनर्जीवित हुए अर्जुन
जब बभ्रुवाहन ने देखा कि उसने अपने पिता की हत्या कर दी है तो वह भी शोक करने लगा। अर्जुन की मृत्यु से दुखी होकर चित्रांगदा और बभ्रुवाहन दोनों ही आमरण उपवास पर बैठ गए। जब नागकन्या उलूपी ने देखा कि चित्रांगदा और बभ्रुवाहन आमरण उपवास पर बैठ गए हैं तो उसने संजीवन मणि का स्मरण किया। उस मणि के हाथ में आते ही उलूपी ने बभ्रुवाहन से कहा कि यह मणि अपने पिता अर्जुन की छाती पर रख दो। बभ्रुवाहन ने ऐसा ही किया। वह मणि छाती पर रखते ही अर्जुन जीवित हो उठे।

उलूपी ने बताई पूरी घटना
अर्जुन द्वारा पूछने पर उलूपी ने बताया कि यह मेरी ही मोहिनी माया थी। उलूपी ने बताया कि छल पूर्वक भीष्म का वध करने के कारण वसु (एक प्रकार के देवता) आपको श्राप देना चाहते थे। जब यह बात मुझे पता चली तो मैंने यह बात अपने पिता को बताई। उन्होंने वसुओं के पास जाकर ऐसा न करने की प्रार्थना की। तब वसुओं ने प्रसन्न होकर कहा कि मणिपुर का राजा बभ्रुवाहन अर्जुन का पुत्र है यदि वह बाणों से अपने पिता का वध कर देगा तो अर्जुन को अपने पाप से छुटकारा मिल जाएगा। आपको वसुओं के श्राप से बचाने के लिए ही मैंने यह मोहिनी माया दिखलाई थी। इस प्रकार पूरी बात जान कर अर्जुन, बभ्रुवाहन और चित्रांगदा भी प्रसन्न हो गए। अर्जुन ने बभ्रुवाहन को अश्वमेध यज्ञ में आने का निमंत्रण दिया और पुन: अपनी यात्रा पर चल दिए।

वाणासुर वध

ठाकुर श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के एक विवाह की कथा श्री शुकदेव जी महाराज से सुनने के पश्चात् राजा परीक्षित ने पूछा - हे मुनीश्वर! मैंने सुना है कि अनिरुद्ध जी ने बाणासुर की पुत्री ऊषा से विवाह किया था और इस सब लीला-प्रसंग में भगवान श्रीकृष्ण और शंकर जी का बहुत बड़ा घमासान युद्ध हुआ था। आप कृपा करके यह वृत्तांत भी विस्तार से सुनाइए।

श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं - हे राजन! दैत्यराज बलि की कथा तो तुम सुन ही चुके हो, उन्हीं के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ था यह औरसपुत्र - बाणासुर। सदा शिवभक्ति में रत रहने वाला, अपनी बात का धनी, उदारता और बुद्धिमत्ता से भरा हुआ, अटल-प्रतिज्ञ बाणासुर का समाज में बड़ा आदर था, जो कि परम सुंदर नगरी शोणितपुर में राज्य करता था।
एक बार भगवान शंकर को तांडव करते समय इसने अपनी हज़ार भुजाओं से विभिन्न प्रकार के वाद्य-यंत्र बजाकर भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक आशुतोष भगवान को प्रसन्न कर लिया और भोलेनाथ बोले - “तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो” तो बाणासुर ने कहा, ‘हे प्रभु! आप मेरे नगर की रक्षा करते हुए यहीं रहा करें।’

राजन! एक बार का प्रसंग, बाणासुर अपने बल-पौरुष के मद में भरकर शिव जी के पास आया और कहने लगा -भगवन! ऐसा कौन-सा वर है जो आप नहीं दे सकते परंतु मुझे लगता है मुझे हज़ार भुजाओं का वर देकर आपने मेरा भार बढ़ा दिया है। मैं इन भुजाओं के बल से परास्त करूँ भी तो किसे? आपके अलावा कोई भी मेरे बल को जान-देखकर मुझसे युद्ध नहीं करता, एक बार तो मुझे बाज़ुओं में इतनी खुजलाहट हुई कि मैं दिग्गजों को ढूँढने निकला परंतु जब कोई न मिला तो मैंने बाँहों की चोट से कई पहाड़ों को फोड़ डाला।
यह सुनकर *भगवान शंकर ने तनिक लीला-क्रोध की दृष्टि में भरकर कहा - ‘रे मूढ़! जिस समय तेरी ध्वजा टूटकर गिर जाएगी, उस समय मेरे ही समान योद्धा से तेरा युद्ध होगा और वह युद्ध तेरा घमंड चूर-चूर कर देगा।’* वह मूढ़-माति भगवान शिव की बात सुनकर सहर्ष अपने नगर को लौट आया और प्रभु के आदेशानुसर उस युद्ध की प्रतीक्षा करने लगा।
*युद्ध की क्या कही जाए, अपनी मृत्यु की बाट देखने लगा।*

*बंधुओं! संकल्प के ठीक न होने से कितना विनाशकारक स्तिथि उत्पन्न होने की आशंका हो जाती है, आप देख लीजिए।* बाणासुर ने बल के संकल्प से हज़ार भुजाएँ माँग ली और अब प्रकृति के प्रति विरोध उत्पन्न करने लगा। कभी पर्वत फोड़ देता, वृक्षों से द्वन्द करता आदि। दैत्यकुल में उत्पन्न होने से इसकी बुद्धि में तामसिकता थी लेकिन दैत्यों की इच्छाशक्ति बहुत प्रबल होती है तो प्रबल इच्छाशक्ति से तप किया परंतु तामसिकता के कारण भक्ति न माँगकर ज़रूरत से अधिक और विनाशकरी बल माँग लिया। *ज़रूरत से अधिक किसी भी वस्तु का हो जाना विनाशकारी ही सिद्ध होता है, शास्त्रों में कथा हैं आप पढ़कर देख सकते हैं।*
इसलिए मैं आपसे निवेदन करूँ - मन में यदि संकल्प करना भी है तो कोई सत-संकल्प कीजिए जिससे सबका कल्याण हो, *प्रभु की भक्ति का संकल्प कीजिए, उनके अखंड नाम-जप का संकल्प कीजिए, देश से ग़रीबी और दरिद्रता चली जाए - ऐसा संकल्प कीजिए, प्रभु का चिंतन बना रहे - ऐसा संकल्प कीजिए।*
*बल के आधिक्य से हुआ क्या? अंतत: बाणासुर अपनी ही मौत की परीक्षा कर रहा है, और एक हैं राजा परीक्षित जिन्हें पट लग चुका है कि मेरी मृत्यु निश्चित हो चुकी है तो प्रभु के भोजन का मार्ग चुना, वहीं बाणासुर मृत्यु का इंतज़ार कर रहा है। यही अंतर है राजसी और तामसी प्रवृत्ति में, इसलिए हमें संकल्प लेना है कि हम केवल प्रभु समर्पित सतकर्म ही करेंगे।

शनिवार, 17 मार्च 2018

नवरात्रि विशेष -जरूर पढ़े

१८ मार्च २०१८ रविवार के शुभ मुहूर्त जैसे घटस्थापन, कलश-पूजन श्रीदुर्गा पूजादि करना चा‍हिए।
१८ मार्च २०१८ रविवार घटता हुआ
मुहूर्त समय.. ०६:२३ से ०७:४५
अवधि .. १ घण्टे २२ मिनट..

प्रतिपदा की तारीख प्रारम्भ...
१७ मार्च २०१८ को १८:४१ बजे।

प्रतिपदा तिथि समाप्ति
१८ मार्च २०१८ को १८:३१ बजे।

नवरात्रका प्रयोग प्रारम्भ करनेके पहले सुगन्धयुक्त तैलके उद्वर्तनादिसे मङ्गलस्त्रान करके नित्यकर्म करे और स्थिर शान्तिके पवित्र स्थानमें शुभ मृत्तिकाकी वेदी बनाये । उसमें जौ और गेहूँ – इन दोनोंको मिलाकर बोये । वहीं सोने, चाँदी, ताँबे या मिट्टीके कलशको यथाविधि स्थापन करके गणेशादिका पूजन और पुण्याहवाचन करे और पीछे देवी ( या देव ) के समीप शुभासनपर पूर्व या उत्तर मुख बैठकर....

“मम महामायाभगवती वा मायाधिपति भगवत प्रीतये आयुर्बलवित्तारोयसमादरादिप्राप्तये वा नवरात्रव्रतमहं करिष्ये ।

यह संकल्प करके मण्डलके मध्यमें रखे हु‌ए कलशपर सोने, चाँदी, धातु, पाषाण, मृत्तिका या चित्रमय मूर्ति विराजमान करे और उसका आवाहन आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्त्रान, वस्त्र, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल, नीराजन, पुष्पाञ्जलि, नमस्कार और प्रार्थना आदि उपचारोंसे पूजन करे ।

स्त्री हो या पुरुष, सबको नवरात्र करना चाहिये । यदि कारणवश स्वयं न कर सकें तो प्रतिनिधि ( पति पत्नी, ज्येष्ठ पुत्र, सहोदर या ब्राह्मण ) द्वारा करायें । नवरात्र नौ रात्रि पूर्ण होनेसे पूर्ण होता है । इसलिये यदि इतना समय न मिले या सामर्थ्य न हो तो सात, पाँच, तीन या एक दिन व्रत करे और व्रतमें भी उपवास, अयाचित, नक्त या एकभुक्त जो बन सके यथासामर्थ्य वही कर ले ।

यदि सामर्थ्य हो तो नौ दिनतक नौ ( और यदि सामर्थ्य न हो तो सात, पाँच, तीन या एक ) कन्या‌ओंको देवी मानका उनको गन्ध – पुष्पादिसे अर्चित करके भोजन कराये और फिर आप भोजन करे । व्रतीको चाहिये कि उन दिनोंमें भुशयन, मिताहार, ब्रह्मचर्यका पालन, क्षमा, दया, उदारता एवं उत्साहदिकी वृद्धि और क्रोध, लोभ, मोहादिका त्याग रखे ।

चैत्रके नवरात्रमें शक्तिकी उपासना तो प्रसिद्ध ही हैं, साथ ही शक्तिधरकी उपासना भी की जाती है । उदाहरणार्थ एक ओर देवीभागवत कालिकापुराण, मार्कण्डेयपुराण, नवार्णमन्त्नके पुरश्चरण और दुर्गापाठकी शतसहस्त्रायुतचण्डी आदि होते हैं

*कलश स्थापना विधि:* 🌸

नवरात्रि में कलश स्थापना देव-देवताओं के आह्वान से पूर्व की जाती है। कलश स्थापना करने से पूर्व आपको कलश और खेतरी को तैयार करना होगा जिसकी सम्पूर्ण विधि नीचे दी गयी है

सबसे पहले मिट्टी के बड़े पात्र में थोड़ी सी मिट्टी डालें। और उसमे जवारे के बीज डाल दें।

अब इस पात्र में दोबारा थोड़ी मिटटी और डालें। और फिर बीज डालें। उसके बाद सारी मिट्टी पात्र में दाल दें और फिर बीज डालकर थोडा सा जल डालें।

(ध्यान रहे इन बीजों को पात्र में इस तरह से लगाएं की उगने पर यह ऊपर की तरफ उगें। यानी बीजों को खड़ी अवस्था में लगायें। और ऊपर वाली लेयर में बीज अवश्य डालें।

अब कलश और उस पात्र की गर्दन पर मोली बांध दें। साथ ही तिलक भी लगाएं।

इसके बाद कलश में गंगा जल भर दें।

इस जल में सुपारी, इत्र, दूर्वा घास, अक्षत और सिक्का भी दाल दें।

अब इस कलश के किनारों पर ५ अशोक के पत्ते रखें। और कलश को ढक्कन से ढक दें।

अब एक नारियल लें और उसे लाल कपडे या कल चुन्नी में लपेट लें। चुन्नी के साथ इसमें कुछ पैसे भी रखें।

इसके बाद इस नारियल और चुन्नी को रक्षा सूत्र से बांध दें।

तीनों चीजों को तैयार करने के बाद सबसे पहले जमीन को अच्छे से साफ़ करके उसपर मिट्टी का जौ वाला पात्र रखें। उसके ऊपर मिटटी का कलश रखें और फिर कलश के ढक्कन पर नारियल रख दें।

आपकी कलश स्थापना सम्पूर्ण हो चुकी है। इसके बाद सभी देवी देवताओं का आह्वान करके विधिवत नवरात्रि पूजन करें। इस कलश को आपको नौ दिनों तक मंदिर में ही रखे देने होगा। बस ध्यान रखें की खेतरी में सुबह शाम आवश्यकतानुसार पानी डालते रहें।

*चैत्र नवरात्रि २०१८ की महत्वपूर्ण तिथियां:*

नवरात्रि का दिन तारीख (वार) तिथि
देवी का पूजन

*नवरात्रि दिन १ :* 💮
१८ मार्च २०१८ (रविवार)
प्रतिपदा शैलपुत्री पूजा, कलश स्थापना

*नवरात्रि दिन २ :* 💮
१९ मार्च २०१८ (सोमवार) द्वितीया
ब्रह्मचारिणी पूजा

*नवरात्रि दिन ३ :* 💮
२० मार्च २०१८ (मंगलवार) तृतीया
चंद्रघंटा पूजा

*नवरात्रि दिन ४ :* 💮
२१ मार्च २०१८ (बुधवार) चतुर्थी
कुष्मांडा पूजा

*नवरात्रि दिन ५ :* 💮
२२ मार्च २०१८ (गुरुवार) पंचमी
स्कंदमाता पूजा

*नवरात्रि दिन ६ :* 💮
२३ मार्च २०१८ (शुक्रवार) षष्ठी
कात्यायनी पूजा

*नवरात्रि दिन ७ :* 💮
२४ मार्च २०१८ (शनिवार) सप्तमी, अष्टमी
कालरात्रि पूजा, महागौरी पूजा

*नवरात्रि दिन ८ :* 💮
२५ मार्च २०१८ (रविवार) अष्टमी, नवमी
*राम नवमी*

*नवरात्रि दिन ९ :* 💮
२६ मार्च २०१८ (सोमवार) दशमी
नवरात्रि पारण

नवरात्री में नौ देवियों की पूजा होती है ये नौ देवियाँ है....

१. *शैलपुत्री* 🚩

“शैल” का अर्थ है पहाड़। चूंकि माँ दुर्गा पर्वतों के राजा, हिमालय के यहाँ पैदा हुई थीं, इसी वजह से उन्हे पर्वत की पुत्री यानि “शैलपुत्री” कहा जाता है।

२. *ब्रह्मचारिणी* 🚩

इसका तात्पर्य है- तप का पालन करने वाली या फिर तप का आचरण करने वाली। इसका मतलब यह भी होता है, कि एक में ही सबका समा जाना। इसका यह भी अर्थ निकलता है,कि यह सम्पूर्ण संसार माँ दुर्गा का एक छोटा सा अंश मात्र ही है।

३. *चंद्रघंटा* 🚩

माता के इस रूप में उनके मस्तक पर घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र अंकित है। इसी वजह से माँ दुर्गा का नाम चंद्रघण्टा भी है।

४. *कूष्मांडा* 🚩

इसका अर्थ समझने के लिए पहले इस शब्द को थोड़ा तोड़ा जाए। ‘कू’ का अर्थ होता है- छोटा। ‘इश’ का अर्थ-  ऊर्जा एवं ‘अंडा’ का अर्थ- गोलाकार। इन्हें अगर मिलाया जाए तो इनका यही अर्थ है, कि संसार की छोटी से छोटी चीज़ में विशाल रूप लेने की क्षमता होती है।

५. *स्कंदमता* 🚩

दरअसल भगवान शिव और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का एक अन्य नाम स्कन्द भी है। अतः भगवान स्कन्द अर्थात कार्तिकेय की माता होने के कारण मां दुर्गा के इस रूप को स्कन्दमाता के नाम से भी लोग जानते हैं।

६. *कात्यायनी* 🚩

एक कथा के अनुसार महर्षि कात्यायन की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर उनके वरदान स्वरूप माँ दुर्गा उनके यहाँ पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं। चूंकि महर्षि कात्यायन ने ही सबसे पहले माँ दुर्गा के इस रूप की पूजा की थी, अतः महर्षि कात्यायन की पुत्री होने के कारण माँ दुर्गा कात्यायनी के नाम से भी जानी जाती हैं।

७. *कालरात्रि* 🚩

मां दुर्गा के इस रूप को अत्यंत भयानक माना जाता है, यह सर्वदा शुभ फल ही देता है, जिस वजह से इन्हें शुभकारी भी कहते हैं। माँ का यह रूप प्रकृति के प्रकोप के कारण ही उपजा है।

८. *महागौरी* 🚩

माँ दुर्गा का यह आठवां रूप उनके सभी नौ रूपों में सबसे सुंदर है। इनका यह रूप बहुत ही कोमल, करुणा से परिपूर्ण और आशीर्वाद देता हुआ रूप है, जो हर एक इच्छा पूरी करता है.

९. *सिद्धिदात्री* 🚩

माँ दुर्गा का यह नौंवा और आखिरी रूप मनुष्य को समस्त सिद्धियों से परिपूर्ण करता है। इनकी उपासना करने से उनके भक्तों की कोई भी इच्छा पूर्ण हो सकती है। माँ का यह रूप आपके जीवन में कोई भी विचार आने से पूर्व ही आपके सारे काम को पूरा कर सकता है।

पूजा का कृत्य प्रारम्भ। प्रातःकाल नित्य स्नानादि कृत्य से फुरसत होकर पूजा के लिए पवित्र वस्त्र पहन कर उपरोक्त पूजन सामग्री व श्रीदुर्गासप्तशती की पुस्तक ऊँचे आसन में रखकर, पवित्र आसन में पूर्वाविमुख या उत्तराभिमुख होकर भक्तिपूर्वक बैठे और माथे पर चन्दन का लेप लगाएं, पवित्री मंत्र बोलते हुए पवित्री करण, आचमन, आदि को विधिवत करें। तत्पश्चात् दायें हाथ में कुश आदि द्वारा पूजा का संकल्प करे। आज ही नवरात्री मे नवदुर्गा पूजन हेतु अपना स्थान सुरक्षित करे |

*सभी प्रकार की कामनाओ हेतु :*

*०१)* 🌸
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यषो देहि द्विषो जहि।।

अगर आप की अनावश्यक विलम्ब हो रहा है तो इस मंत्र का प्रयोग करते हुए पाठ करे

*०२)* 🌸
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्।।

*रोग से छुटकारा पाने के लिए:*

*०३)* 🌸
रोगानषेषानपहंसि तुष्टा रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।

*पूजन करने की विधि:* 🌸
मंत्रों से तीन बार आचमन करें।

*०४)* 🌸
मंत्र ॐ केशवाय नमः,
ॐ नारायणाय नमः,
ॐ माधवाय नमः

*०५)* 🌸
हृषिकेषाय नमः बोलते हुए हाथ धो लें।

*०६) आसन धारण के मंत्र:* 🌸
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरू चासनम्।।

*०७) पवित्रीकरण हेतु मंत्र:* 🌸
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षंतद्बाह्याभ्यन्तरं शुचि।।

*०८) चंदन लगाने का मंत्रः* 🌸
ॐ आदित्या वसवो रूद्रा विष्वेदेवा मरूद्गणाः। तिलकं ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये।।

रक्षा सूत्र मंत्र (पुरूष को दाएं तथा स्त्री को बांए हाथ में बांधे)

*०९) मंत्रः* 🌸
ॐ येनबद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।तेनत्वाम्अनुबध्नामि रक्षे माचल माचल ।।

*१०) दीप जलाने का मंत्रः* 🌸
ॐ ज्योतिस्त्वं देवि लोकानां तमसो हारिणी त्वया। पन्थाः बुद्धिष्च द्योतेताम् ममैतौ तमसावृतौ।।

*११) संकल्प की विधिः* 🌸
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः, ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरूषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपराद्र्धे श्रीष्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे- ऽष्टाविंषतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे

श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुकषर्मा अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतोल

आदि मंत्रो को शुद्धता से बोलते हुए शास्त्री विधि से पूजा पाठ का संकल्प लें।

प्रथमतः श्री गणेश जी का ध्यान, आवाहन, पूजन करें।

*१२) श्री गणश मंत्र:* 🌸
ॐ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ।
निर्विध्नं कुरू मे देव सर्वकायेषु सर्वदा।।

*कलश स्थापना के नियम :–*

पूजा हेतु कलश सोने, चाँदी, तांबे की धातु से निर्मित होते हैं, असमर्थ व्यक्ति मिट्टी के कलश का प्रयोग करत सकते हैं। ऐसे कलश जो अच्छी तरह पक चुके हों जिनका रंग लाल हो वह कहीं से टूटे-फूटे या टेढ़े न हो, दोष रहित कलश को पवित्र जल से धुल कर उसे पवित्र जल गंगा जल आदि से पूरित करें। कलश के नीचे पूजागृह में रेत से वेदी बनाकर जौ या गेहूं को बौयें और उसी में कलश कुम्भ के स्थापना के मंत्र बोलते हुए उसे स्थाति करें। कलश कुम्भ को विभिन्न प्रकार के सुगंधित द्रव्य व वस्त्राभूषण अंकर सहित पंचपल्लव से आच्छादित करें और पुष्प, हल्दी, सर्वोषधी अक्षत कलश के जल में छोड़ दें। कुम्भ के मुख पर चावलों से भरा पूर्णपात्र तथा नारियल को स्थापित करें। सभी तीर्थो के जल का आवाहन कुम्भ कलश में करें।

*कलश स्थापन मुहूर्त।*  🌸
सूर्योदय: ०६, १९ ,,
सूर्यास्त: १८ ,,२३

चन्द्रोदय: ०६ ,,५३
चन्द्रास्त: १९,,१४

१८ मार्च सन् २०१८ विक्रमी संवत् २०७५,
दिन रविवार, प्रात: ०६:२३ से ०७:४५ ,,
समय १ घण्टा १, २२

के बाद अभिजीत मुहूर्त मे लगभग दोपहर ११:५७ से १२:४७ तक रहेगा।

*१३) आवाहन मंत्र करें:* 🌸
ॐ कलषस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रूद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः।।

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरू ।।

*षोडषोपचार पूजन प्रयोग विधि –* 🌸

*१४) आसन (पुष्पासनादि):* 🌸
ॐ अनेकरत्न-संयुक्तं नानामणिसमन्वितम्। कात्र्तस्वरमयं दिव्यमासनं प्रतिगृह्यताम्।।

*१५) पाद्य (पादप्रक्षालनार्थ जल):* 🌸
ॐ तीर्थोदकं निर्मलऽचसर्वसौगन्ध्यसंयुतम्। पादप्रक्षालनार्थाय दत्तं तेप्रतिगृह्यताम्।।

*१६) अघ्र्य (गंध पुष्प्युक्त जल):* 🌸
ॐ गन्ध-पुष्पाक्षतैर्युक्तं अध्र्यंसम्मपादितं मया।गृह्णात्वेतत्प्रसादेन अनुगृह्णातुनिर्भरम्।।

*१७) आचमन (सुगन्धित पेय जल):* 🌸
ॐ कर्पूरेण सुगन्धेन वासितं स्वादु षीतलम्। तोयमाचमनायेदं पीयूषसदृषं पिब।।

*१८) स्नानं (चन्दनादि मिश्रित जल):* 🌸
ॐ मन्दाकिन्याः समानीतैः कर्पूरागरूवासितैः।पयोभिर्निर्मलैरेभिःदिव्यःकायो हि षोध्यताम्।।

*१९) वस्त्र (धोती-कुत्र्ता आदि):* 🌸
ॐ सर्वभूषाधिके सौम्ये लोकलज्जानिवारणे। मया सम्पादिते तुभ्यं गृह्येतां वाससी षुभे।।

*२०) आभूषण (अलंकरण):* 🌸
ॐ अलंकारान् महादिव्यान् नानारत्नैर्विनिर्मितान्। धारयैतान् स्वकीयेऽस्मिन् षरीरे दिव्यतेजसि।।

*२१) गन्ध (चन्दनादि):* 🌸
ॐ श्रीकरं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम्। वपुषे सुफलं ह्येतत् षीतलं प्रतिगृह्यताम्।।

*२२) पुष्प (फूल):* 🌸
ॐ माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि भक्त्तितः।
मयाऽऽहृतानि पुष्पाणि पादयोरर्पितानि ते।।

*२३) धूप (धूप):* 🌸
ॐ वनस्पतिरसोद्भूतः सुगन्धिः घ्राणतर्पणः।सर्वैर्देवैः ष्लाघितोऽयं सुधूपः प्रतिगृह्यताम्।।

*२४) दीप (गोघृत):* 🌸
ॐ साज्यः सुवर्तिसंयुक्तो वह्निना द्योतितो मया।गृह्यतां दीपकोह्येष त्रैलोक्य-तिमिरापहः।।

*२५) नैवेद्य (भोज्य)* 🌸
ॐ षर्कराखण्डखाद्यानि दधि-क्षीर घृतानि च। रसनाकर्षणान्येतत् नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम्।।

*२६) आचमन (जल)* 🌸
ॐ गंगाजलं समानीतं सुवर्णकलषस्थितम्। सुस्वादु पावनं ह्येतदाचम मुख-षुद्धये।।

*२७) दक्षिणायुक्तताम्बूल(द्रव्य पानपत्ता):* 🌸
ॐ लवंगैलादि-संयुक्तं ताम्बूलं दक्षिणां तथा। पत्र-पुष्पस्वरूपां हि गृहाणानुगृहाण माम्।।

*२८) आरती (दीप से):* 🌸
ॐ चन्द्रादित्यौ च धरणी विद्युदग्निस्तथैव च। त्वमेव सर्व-ज्योतींषि आर्तिक्यं प्रतिगृह्यताम्।।

*२९) परिक्रमाः* 🌸
ॐ यानि कानि च पापानि जन्मांतर-कृतानि च। प्रदक्षिणायाः नष्यन्तु सर्वाणीह पदे पदे।।

भागवती एवं उसकी प्रतिरूप देवियों की एक परिक्रमा करनी चाहिए।यदि चारों ओर परिक्रमा का स्थान न हो तो आसन पर खड़े होकर दाएं घूमना चाहिए।

*३०) क्षमा प्रार्थना:* 🌸
ॐ आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि भक्त एष हि क्षम्यताम्।। अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम। तस्मात्कारूण्यभावेन भक्तोऽयमर्हति क्षमाम्।। मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं तथैव च। यत्पूजितं मया ह्यत्र परिपूर्ण तदस्तु मे।।

*३१ )* 🌸
*ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।* *सर्वे भद्राणि पष्यन्तु मा कष्चिद् दुःख-भाग्भवेत्*

गुरुवार, 15 मार्च 2018

राधाषोडशनामस्तोत्रं

श्री नारायण उवाच
राधा रासेश्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी
कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी ॥ १॥
कृष्णवामाङ्गसम्भूता परमान्दरूपिणी
कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी ॥ ॥
चन्द्रावली चन्द्रकान्ता शतचन्द्रप्रभानना
नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च ॥ ३॥
राधेत्येवं च संसिद्धौ राकारो दानवाचकः
स्वयं  निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता ॥ ४॥
रासेसेश्वरस्य पत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता
रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी ॥ ५॥
सर्वासां  रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा
प्रवदन्ति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम् ॥ ६॥
प्राणाधिका प्रेयसी सा कृष्णस्य परमात्मनः
कृष्णप्राणाधिका सा च कृष्णेन परिकीर्तिता ॥ ७॥
कृष्णास्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वास्याः प्रियः सदा
सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृता ॥ ८॥
कृष्णरूपं संनिधातुं या शक्ता चावलीलया
सर्वांशैः कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी ॥ ९॥
वामाङ्गार्धेन कृष्णस्य या सम्भूता परा सती
कृष्णवामाङ्गसम्भूता तेन कृष्णेन कीर्तिता ॥ १०॥
परमानन्दराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती
श्रुतिभिः कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी ॥ ११॥
कृषिर्मोक्षार्थवचनो न एतोत्कृष्टवाचकः
आकारो  दातृवचनस्तेन कृष्णा प्रकीर्तिता ॥ १२॥
अस्ति वृन्दावनं यस्यास्तेन वृन्दावनी स्मृता
वृन्दावनस्याधिदेवी तेन वाथ प्रकीर्तिता ॥ १३॥
सङ्घःसखीनां वृन्दः स्यादकारोऽप्यस्तिवाचकः
सखिवृन्दोऽस्ति यस्याश्च सा वृन्दा परिकीर्तिता ॥ १४॥
वन्दावने विनोदश्च सोऽस्या ह्यस्ति च तत्र वै
वेदा वदन्ति तां तेन वृन्दावनविनोदिनीम् ॥ १५॥
नखचन्द्रावली वक्त्रचन्द्रोऽस्ति यत्र संततम्
तेन चन्द्रवली सा च कृष्णेन परिकीर्तिता ॥ १६॥
कान्तिरस्ति चन्द्रतुल्या सदा यस्या दिवानिशम्
सा चन्द्रकान्ता हर्षेण हरिणा परिकीर्तिता ॥ १७॥
शरच्चन्द्रप्रभा यस्स्याश्चाननेऽस्ति दिवानिशम्
मुनिना कीर्तीता तेन शरच्चन्द्रप्रभानना ॥ १८॥
इदं षोडशनामोक्तमर्थव्याख्यानसंयुतम्
नारायणेन यद्दत्तं ब्रह्मणे नाभिपङ्कजे॥
ब्रह्मणा च पुरा दत्तं धर्माय जनकाय मे ॥ १९॥
धर्मेण कृपया दत्तं मह्यमादित्यपर्वणि
पुष्करे च महातीर्थे पुण्याहे देवसंसदि॥
राधाप्रभावप्रस्तावे सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ २०॥
इदं स्तोत्रं महापुण्यं तुभ्यं दत्तं मया मुने
निन्दकायावैष्णवाय न दातव्यं महामुने ॥ २१॥
यावज्जीवमिदं स्तोत्रं त्रिसंध्यं  यः पठेन्नरः
राधामाधवयोः पादपद्मे भक्तिर्भवेदिह ॥ २२॥
अन्ते लभेत्तयोर्दास्यं शश्वत्सहचरो भवेत्
अणिमादिकसिधिं च सम्प्राप्य नित्यविग्रहम् ॥ २३॥
तदानोपवाऐश्च सर्वर्नियमपूर्वकैः
चतुर्णां चैव वेदानां पाठैः  सर्वार्थसंयुतैः ॥ २४॥
सर्वेषां यज्ञतीर्थानां करणैर्विधिवोधितः
प्रदक्षिणेन भुमेश्च कृत्स्नाया एव सप्तधा ॥ २५॥
शरणागतरक्षायामज्ञानां ज्ञानदानतः
देवानां वैष्णवानां च दर्शनेनापि यत् फलम् ॥ २६॥
तदेव स्तोत्रपाठस्य कलां नार्हति षोडशीम्
स्तोत्रस्यास्य प्रभावेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ २७॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे श्रीनारायणकृतं राधाषोडशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

मंगलवार, 13 मार्च 2018

पापमोचनी एकादशी



महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से चैत्र (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार फाल्गुन ) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की तो वे बोले : ‘राजेन्द्र ! मैं तुम्हें इस विषय में एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे चक्रवर्ती नरेश मान्धाता के पूछने पर महर्षि लोमश ने कहा था ।’

मान्धाता ने पूछा : भगवन् ! मैं लोगों के हित की इच्छा से यह सुनना चाहता हूँ कि चैत्र मास के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है, उसकी क्या विधि है तथा उससे किस फल की प्राप्ति होती है? कृपया ये सब बातें मुझे बताइये ।

लोमशजी ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकाल की बात है । अप्सराओं से सेवित चैत्ररथ नामक वन में, जहाँ गन्धर्वों की कन्याएँ अपने किंकरो के साथ बाजे बजाती हुई विहार करती हैं, मंजुघोषा नामक अप्सरा मुनिवर मेघावी को मोहित करने के लिए गयी । वे महर्षि चैत्ररथ वन में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करते थे । मंजुघोषा मुनि के भय से आश्रम से एक कोस दूर ही ठहर गयी और सुन्दर ढंग से वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी । मुनिश्रेष्ठ मेघावी घूमते हुए उधर जा निकले और उस सुन्दर अप्सरा को इस प्रकार गान करते देख बरबस ही मोह के वशीभूत हो गये । मुनि की ऐसी अवस्था देख मंजुघोषा उनके समीप आयी और वीणा नीचे रखकर उनका आलिंगन करने लगी । मेघावी भी उसके साथ रमण करने लगे । रात और दिन का भी उन्हें भान न रहा । इस प्रकार उन्हें बहुत दिन व्यतीत हो गये । मंजुघोषा देवलोक में जाने को तैयार हुई । जाते समय उसने मुनिश्रेष्ठ मेघावी से कहा: ‘ब्रह्मन् ! अब मुझे अपने देश जाने की आज्ञा दीजिये ।’

मेघावी बोले : देवी ! जब तक सवेरे की संध्या न हो जाय तब तक मेरे ही पास ठहरो ।

अप्सरा ने कहा : विप्रवर ! अब तक न जाने कितनी ही संध्याँए चली गयीं ! मुझ पर कृपा करके बीते हुए समय का विचार तो कीजिये !

लोमशजी ने कहा राजन् ! अप्सरा की बात सुनकर मेघावी चकित हो उठे । उस समय उन्होंने बीते हुए समय का हिसाब लगाया तो मालूम हुआ कि उसके साथ रहते हुए उन्हें सत्तावन वर्ष हो गये । उसे अपनी तपस्या का विनाश करनेवाली जानकर मुनि को उस पर बड़ा क्रोध आया । उन्होंने शाप देते हुए कहा: ‘पापिनी ! तू पिशाची हो जा ।’ मुनि के शाप से दग्ध होकर वह विनय से नतमस्तक हो बोली : ‘विप्रवर ! मेरे शाप का उद्धार कीजिये । सात वाक्य बोलने या सात पद साथ साथ चलनेमात्र से ही सत्पुरुषों के साथ मैत्री हो जाती है । ब्रह्मन् ! मैं तो आपके साथ अनेक वर्ष व्यतीत किये हैं, अत: स्वामिन् ! मुझ पर कृपा कीजिये ।’

मुनि बोले : भद्रे ! क्या करुँ ? तुमने मेरी बहुत बड़ी तपस्या नष्ट कर डाली है । फिर भी सुनो । चैत्र कृष्णपक्ष में जो एकादशी आती है उसका नाम है ‘पापमोचनी ।’ वह शाप से उद्धार करनेवाली तथा सब पापों का क्षय करनेवाली है । सुन्दरी ! उसीका व्रत करने पर तुम्हारी पिशाचता दूर होगी ।

ऐसा कहकर मेघावी अपने पिता मुनिवर च्यवन के आश्रम पर गये । उन्हें आया देख च्यवन ने पूछा : ‘बेटा ! यह क्या किया ? तुमने तो अपने पुण्य का नाश कर डाला !’

मेघावी बोले : पिताजी ! मैंने अप्सरा के साथ रमण करने का पातक किया है । अब आप ही कोई ऐसा प्रायश्चित बताइये, जिससे पातक का नाश हो जाय ।

च्यवन ने कहा : बेटा ! चैत्र कृष्णपक्ष में जो ‘पापमोचनी एकादशी’ आती है, उसका व्रत करने पर पापराशि का विनाश हो जायेगा ।

पिता का यह कथन सुनकर मेघावी ने उस व्रत का अनुष्ठान किया । इससे उनका पाप नष्ट हो गया और वे पुन: तपस्या से परिपूर्ण हो गये । इसी प्रकार मंजुघोषा ने भी इस उत्तम व्रत का पालन किया । ‘पापमोचनी’ का व्रत करने के कारण वह पिशाचयोनि से मुक्त हुई और दिव्य रुपधारिणी श्रेष्ठ अप्सरा होकर स्वर्गलोक में चली गयी ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं राजन् ! जो श्रेष्ठ मनुष्य ‘पापमोचनी एकादशी’ का व्रत करते हैं उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । इसको पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है । ब्रह्महत्या, सुवर्ण की चोरी, सुरापान और गुरुपत्नीगमन करनेवाले महापातकी भी इस व्रत को करने से पापमुक्त हो जाते हैं । यह व्रत बहुत पुण्यमय है ।

व्रत खोलने की विधि :   द्वादशी को सेवापूजा की जगह पर बैठकर भुने हुए सात चनों के चौदह टुकड़े करके अपने सिर के पीछे फेंकना चाहिए । ‘मेरे सात जन्मों के शारीरिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हुए’ - यह भाव
ना करके सात अंजलि जल पीना और चने के सात दाने खाकर व्रत खोलना चाहिए ।
जय श्री कृष्णा।।

सोमवार, 12 मार्च 2018

!! वेदान्तदशश्लोकी !!

!! वेदान्तदशश्लोकी !!


   

ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम् |
अणुम् हि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यदनन्तमाहु: ||१||

आनादिमायापरियुक्तरूपं त्वेनं विदुर्वै भगवत्प्रसादात् |
मुक्तन्च बद्धं किल बद्धमुक्तं प्रभेदबाहुल्यमथापि बोध्यम् ||२||


अप्राकृतं प्राकृतरुपकञ्चं कालस्वरूपं तदचेतनं मतम् |
मायाप्रधानादिपदप्रवाच्यं शुक्लादिभेदाश्च समे-अपि तत्र ||३||

स्वभावतोअपास्तसमस्तदोष—मशेषकल्याणगुनैकराशिम् |
व्युहाङ्गिनम् ब्रह्म परं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलक्षेणम् हरिम् ||४||

अङ्गे तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमानामनुरूपसौभगाम् |
सखिसहस्त्रै: परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम् ||५||

उपासनीयं नितरां जनैः सदा प्रहाण्येअज्ञानतमोअनुवृत्ते: |
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिस्तथोक्तं श्रीनारदयाखिलतत्वसाक्षिणे ||६||
 
सर्वं हि विज्ञानमतो यथार्थकंश्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुनः |
ब्रह्मात्मकत्वादिति वेदविन्मतं त्रिरुपताअपि श्रुतिसुत्रसाधिता ||७||

नान्या गतिः कृष्ण पदारविन्दात संदृश्यते ब्रह्मशिवादिवन्दितात |
भक्तेच्छयोपात्तसुचिन्त्यविग्रहा-चिन्त्यशक्तेरविचिन्त्यसाशयात ||८||

कृपास्य दैन्यदियुजि प्रजायते यया भवेत्प्रेमविशेषलक्षणा |
भक्तिर्हानन्याधिपतेर्महात्मन: सा चोत्तमा साधनरूपिकापरा ||९||

उपास्य रूपं तादुपासकस्य च कृपाफलं भक्तिरसस्ततः परम् |
विरोधिनो रुपमथैतदाप्ते  ज्ञेर्या इमेअर्था अपि पञ्चसाधुभिः ||१०||

इन मंत्रो का जीवन में प्रयोग अवश्य करे

रामचरितमानस की चौपाइयों में ऐसी क्षमता है कि इन चौपाइयों के जप से ही मनुष्य बड़े-से-बड़े संकट में भी मुक्त हो जाता है।
इन मंत्रो का जीवन में प्रयोग अवश्य करे प्रभु श्रीराम आप के जीवन को सुखमय बना देगे।
1.रक्षा के लिए...
मामभिरक्षक रघुकुल नायक |
घृत वर चाप रुचिर कर सायक ||
2. विपत्ति दूर करने के लिए...
राजिव नयन धरे धनु सायक |
भक्त विपत्ति भंजन सुखदायक ||
3.सहायता के लिए...
मोरे हित हरि सम नहि कोऊ |
एहि अवसर सहाय सोई होऊ ||
4.सब काम बनाने के लिए...
वंदौ बाल रुप सोई रामू |
सब सिधि सुलभ जपत जोहि नामू ||
5.वश मे करने के लिए...
सुमिर पवन सुत पावन नामू |
अपने वश कर राखे राम ||
6.संकट से बचने के लिए...
दीन दयालु विरद संभारी |
हरहु नाथ मम संकट भारी ||
7. विघ्न विनाश के लिए...
सकल विघ्न व्यापहि नहि तेही |
राम सुकृपा बिलोकहि जेहि ||
8.रोग विनाश के लिए...
राम कृपा नाशहि सव रोगा |
जो यहि भाँति बनहि संयोगा ||
9.ज्वार ताप दूर करने के लिए...
दैहिक दैविक भोतिक तापा |
राम राज्य नहि काहुहि व्यापा ||
10.दुःख नाश के लिए...
राम भक्ति मणि उस बस जाके |
दुःख लवलेस न सपनेहु ताके ||
11.खोई चीज पाने के लिए...
गई बहोरि गरीब नेवाजू |
सरल सबल साहिब रघुराजू ||
12.अनुराग बढाने के लिए....
सीता राम चरण रत मोरे |
अनुदिन बढे अनुग्रह तोरे ||
13. घर मे सुख लाने के लिए...
जै सकाम नर सुनहि जे गावहि |
सुख सम्पत्ति नाना विधि पावहिं ||
14.सुधार करने के लिए...
मोहि सुधारहि सोई सब भाँती |
जासु कृपा नहि कृपा अघाती ||
15. विद्या पाने के लिए...
गुरू गृह पढन गए रघुराई |
अल्प काल विधा सब आई ||
16.सरस्वती निवास के लिए...
जेहि पर कृपा करहि जन जानी |
कवि उर अजिर नचावहि बानी ||
17.निर्मल बुद्धि के लिए...
ताके युग पदं कमल मनाऊँ |
जासु कृपा निर्मल मति पाऊँ ||
18. मोह नाश के लिए...
होय विवेक मोह भ्रम भागा |
तब रघुनाथ चरण अनुरागा ||
19.प्रेम बढाने के लिए...
सब नर करहिं परस्पर प्रीती |
चलत स्वधर्म कीरत श्रुति रीती ||
20. प्रीति बढाने के लिए...
बैर न कर काह सन कोई |
जासन बैर प्रीति कर सोई ||
21.सुख प्रप्ति के लिए...
अनुजन संयुत भोजन करही |
देखि सकल जननी सुख भरहीं ||
22.भाई का प्रेम पाने के लिए...
सेवाहि सानुकूल सब भाई |
राम चरण रति अति अधिकाई ||
23.बैर दूर करने के लिए...
बैर न कर काहू सन कोई |
राम प्रताप विषमता खोई ||
24.मेल कराने के लिए...
गरल सुधा रिपु करही मिलाई |
गोपद सिंधु अनल सितलाई ||
25. शत्रु नाश के लिए...
जाके सुमिरन ते रिपु नासा |
नाम शत्रुघ्न वेद प्रकाशा ||
26.रोजगार पाने के लिए...
विश्व भरण पोषण करि जोई |
ताकर नाम भरत अस होई ||
27.इच्छा पूरी करने के लिए...
राम सदा सेवक रूचि राखी |
वेद पुराण साधु सुर साखी ||
28.पाप विनाश के लिए...
पापी जाकर नाम सुमिरहीं |
अति अपार भव भवसागर तरहीं ||
29.अल्प मृत्यु न होने के लिए...
अल्प मृत्यु नहि कबजिहूँ पीरा |
सब सुन्दर सब निरूज शरीरा ||
30. दरिद्रता दूर के लिए...
नहि दरिद्र कोऊ दुःखी न दीना |
नहि कोऊ अबुध न लक्षण हीना ||
31. प्रभु दर्शन पाने के लिए...
अतिशय प्रीति देख रघुवीरा |
प्रकटे ह्रदय हरण भव पीरा ||
32.शोक दूर करने के लिए...
नयन बन्त रघुपतहिं बिलोकी |
आए जन्म फल होहिं विशोकी ||
33. क्षमा माँगने के लिए...
अनुचित बहुत कहहूँ अज्ञाता |
क्षमहुँ क्षमा मन्दिर दोऊ भ्राता ||
जय रामजी की //

भारत के 29 राज्यों के नाम.. *श्री. संत तुलसीदास* के इक दोहे में समाई हुई है।

कितने आश्चर्य की बात है....   भारत के 29 राज्यों के नाम.. *श्री. संत तुलसीदास* के इक दोहे में समाई हुई है।

*राम नाम जपते अत्रि मत गुसिआउ।*
*पंक में उगोहमि अहि के छबि झाउ।।*

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रा - राजस्थान      ! पं- पंजाब
म - महाराष्ट्र         ! क- कर्नाटक
ना - नागालैंड       ! मे- मेघालय
म - मणिपुर         ! उ- उत्तराखंड
ज - जम्मू कश्मीर  ! गो- गोवा
प - पश्चिम बंगाल   ! ह- हरियाणा
ते - तेलंगाना         ! मि- मिजोरम
अ - असम   !   अ- अरुणाचल प्रदेश
त्रि - त्रिपुरा     ! हि- हिमाचल प्रदेश
म - मध्य प्रदेश     ! के- केरल
त - तमिलनाडु     ! छ- छत्तीसगढ़
गु - गुजरात         ! बि- बिहार 
सि - सिक्किम     ! झा- झारखंड
आ- आंध्र प्रदेश   ! उ- उड़ीसा
उ - उत्तर प्रदेश    !

अत्यंत आश्चर्यजनक...👌🌺🙏🏻🌺

मंगलवार, 6 मार्च 2018

( नवधा भक्ति )

                   (  नवधा भक्ति )


, प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के नौ प्रकार बताए गए हैं। जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

 श्रवणम् कीर्तनं विष्णुः  स्मरणं पादसेवनम् ।
 अर्चनं   वंदनं  दास्यं  साख्यमात्मनिवेदनम् ।।

      श्रवण( परीक्षित ), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रहलाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

      श्रवण  :- ईश्वर की लीला, कथा महत्व शक्ति स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

 कीर्तन  :-  ईश्वर के गुण चरित्र नाम पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

  स्मरण  :-  निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उसके महत्व और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

  पादसेवन  :-  ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना।

  अर्चन  :-  मन, वचन और कर्म के द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

  वंदन  :-  भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राम्हण, गुरुजन, माता- पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ परम पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

  दास्य  :-  ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

  सख्य  :-  ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पित कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

 आत्मनिवेदन   :-अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता ना रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई है।

रविवार, 4 मार्च 2018

अहिल्या का उद्धार

देवी अहिल्या जिन्हे स्वयम ब्रह्म देव ने बनाया था अतः उनकी काया बहुत सुन्दर थी और उन्हें वरदान था की उनका यौवन सदा बना रहेगा ! उनकी सुंदरता के आगे स्वर्ग की अप्सराये कुछ नहीं थी ! अहिल्या ब्रह्मदेव की मानस पुत्री थी उन्होंने इसके विवाह के समय एक परीक्षा रखी की जो परीक्षा का विजेता होगा उसके साथ ही अहिल्या का विवाहोगा ! इस परीक्षा को ऋषि गौतम ने जीता और विवाह संपन्न हुआ !
अहिल्या की सुंदरता पर स्वयं इंद्र देव मोहित थे और एक दिन प्रेमवासना कामना केसाथ अहिल्या से मिलने पृथ्वी लोक आये ! इसके लिए इंद्र एवं चंद्रदेव ने एक युक्ति निकाली ! महृषि गौतम ब्रह्म काल में गंगा स्नान को जाया करते थे ! इस बात का संज्ञान लेकर दोनों ने मायावी विद्या का प्रयोग कर अर्ध रात्रि को ही मुर्गे की बांग दे दी ! इससे भ्रमित महृषि अर्धरात्रि में ही स्नानं को चल दिए !
महृषि के जाते ही इंद्रदेव ने ऋषि का मायावी रूप धारण किया और कुटिया में प्रवेश किया ! चंद्र देव बाहर पहरा देते रहे !
दूसरी तरफ ऋषि को गलत समय का आभाष हुआ तो गंगा मईया ने सारे षड्यंत्र के बारे में पोल खोल दी ! यह सुनते ही ऋषि क्रोध से भरकर कुटिया की तरफ भागे और उन्होंने चंद्र देव को पहरा देते देखा ! उन्होंने चंद्र देव को श्राप दिया की तुझ पर हमेशा " राहु " की कुदृष्टि रहेगी और उन्होंने अपना कमंडल मारा जिससे चंद्रदेव पर दाग दीखते है !
इधर इंद्र को भी महृषि के आने का आभास हो गया और वह भागने लगा ! ऋषि ने उसे "नपुंसक " होने एवं अखंड भाग होने का श्राप दिया ! इस कारण से ना ही इंद्र की पूजा होती है और ना सम्मान प्राप्त होता है !
भागते हुए इंद्र को देख देवी अहल्या को अपने ठगे जाने का अहसास हुआ ! परन्तु अनहोनी हो चुकी थी ! ( एक अन्य कथा के अनुसार देवी अहल्या इंद्र के मायावी रूप को पहचान गई थी पर अपनी सुंदरता के अभिमान में देवराज का प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया था !) महृषि गौतम अत्यंत क्रोधित थे इस कारण से उन्होंने उसे "शिला" ( जड़ यानि संवेदनहीन) होने का श्राप दिया ! क्रोध शांत होने पर ऋषि को एहसास हुआ की इस घटनाक्रम में देवी अहल्या की उतनी बड़ी गलती नहीं है जितना बड़ा श्राप दे दिया है ! तब उन्होंने श्राप को वापिस ना लेकर उससे मुक्ति हेतु शिला को कहा की जब कोई दिव्यात्मा तुम्हे छुएगी तब तुम्हारा उद्धार हो जाएगा !
त्रेता युग में भगवान् राम ऋषि विश्वामित्र के साथ उस निर्जन वन से जा रहे थे तो प्रभु राम की नजर उस कुटिया पर पड़ी ! मनुष्य रूप में अवतार लिए हुए प्रभु राम ने ऋषि से उस सुनसान भव्य ऋषि कुटिया के बारे में पूछा तो ऋषि ने सारा वृतांत सुनाते हुए कहा ये कुटिया आपकी ही प्रतीक्षा में है ! जाओ और देवी अहल्या को उसके मूल रूप में वापिस लाओ ! प्रभु ने अपने चरणों की धुल के साथ उस शिला को छुआ ! देवी अहल्या फिर से अपने मूल रूप में आगयी और प्रभु के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद स्वरुप अपने पति का प्रेम पुनः प्राप्त करने की याचना की ! प्रभु ने "तथास्तु " कहते हुए कहा की ऋषि भी स्वयं दुखी है अतः तुम्हे फिर से उनका प्रेम प्राप्त होगा !
विशेष ,,,,,, इस कहानी से मेरे मत से अनेक शिक्षाएं मिलती है की अगले जन्मो के लिए प्रारब्ध ( भाग्य ) में संचित दुःख ये है !
१. परायी स्त्री के साथ कुकर्म करने वाले को कर्म फल के सिद्धांत के अनुसार " नपुंसक " होने का श्राप लगता है !
२. स्त्री को संवेदन हीन होने का श्राप लगता है !
३. सहयता करने वाले को ( चन्द्रमा ) भय सताता है , इसीलिए तो चन्द्रमा राहु से भय खाता  है !
अतः अपनी इन्द्रयों को नियंत्रण में रखो ! इसके लिए गौ माता की शरण में जाओ जिसके दूध में १२ आदित्य एवं ११ रूद्र है जो आपके चरित्र की रक्षा करने में सक्षम है ! फलाहार भी आपको ब्रह्मचर्य के पालन में सहायक होगा !
" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है ! अतः ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त " दिव्यदृष्टि " या दूरदृष्टि का अधिकारी नहीं बन सकता एवं अनेको दिव्य सिद्धियों एवं निधियों को प्राप्त नहीं कर पाता या खो देता है !

राधे राधे

||श्री राधा स्तुति||

त्वं देवी जगतां माता विष्णुमाया सनातनी, .
कृष्णप्राणाधिदेवि च कृष्णप्राणाधिका शुभा ||1||
कृष्णप्रेममयी शक्तिः कृष्णसौभाग्यरूपिणी .
कृष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मङ्गलप्रदे .. ||2||

||कृष्णाश्रय स्तुति||

विवेकधैर्यभक्त्यादिरहितस्य विशेषतः।
पापासक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम॥
सर्वसामर्थ्यसहितः सर्वत्रैवाखिलार्थकृत्।
शरणस्थमुद्धारं कृष्णं विज्ञापयाम्यहम्॥

भावार्थ :

हे प्रभु! मुझमें सत्य को जानने की सामर्थ्य नहीं है, धैर्य धारण करने की शक्ति नहीं है, आप की भक्ति आदि से रहित हूँ और विशेष रूप से पाप में आसक्त मन वाले मुझ दीनहीन के लिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों।

हे प्रभु! आप ही सभी प्रकार से सामर्थ्यवान हैं, आप ही सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं और आप ही शरण में आये हुए जीवों का उद्धार करने वाले हैं इसलिए मैं भगवान श्रीकृष्ण की वंदना करता हूँ।

||राधा कृष्ण स्तुति||

त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रविणम त्वमेव,
त्वमेव सर्वमम देव देवः।।

राधा राधा कृष्ण कन्हैया जय श्री राधा |
श्री राधा भव बाधा हारी, जय श्री राधा |
जग ज्योति, जगजननी माता, जय श्री रा्धा |
राधा राधा कृष्ण कन्हैया जय श्री राधा |

श्री कामाख्या शक्तिपीठ

नीलांचल पर्वत के बीचो-बीच स्थित कामाख्या मंदिर गुवाहाटी से करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मंदिर प्रसिद्ध 108 शक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि पिता द्वारा किए जा रहे यज्ञ की अग्नि में कूदकर सती के आत्मदाह करने के बाद जब महादेव उनके शव को लेकर तांडव कर रहे थे, तब भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को शांत करने के लिए अपना सुदर्शन चक्र छोड़कर सती के शव के टुकड़े कर दिए थे। उस समय जहां सती की योनि और गर्भ आकर गिरे थे, आज उस स्थान पर कामाख्या मंदिर स्थित है।

कामाख्या देवी की पौराणिक कथा –

पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान माँ भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। यह अपने आप में, इस कलिकाल में एक अद्भुत आश्चर्य का विलक्षण नजारा है। कामाख्या तंत्र के अनुसार –

“योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा।

रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥”

इस बारे में `राजराजेश्वरी कामाख्या रहस्य’ एवं `दस महाविद्याओं’ नामक ग्रंथ के रचयिता एवं मां कामाख्या के अनन्य भक्त ने बताया कि अम्बूवाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे विश्व से इस पर्व में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना हेतु सभी प्रकार की सिद्धियाँ एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटियों के तांत्रिकों-मांत्रिकों, अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है। तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है।

कामाख्या मंदिर अम्बुबाची पर्व  –

इस मंदिर में प्रतिवर्ष अम्बुबाची मेले का आयोजन किया जाता है।  विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिये वर्ष में एक बार पड़ने वाला अम्बूवाची योग पर्व वस्तुत एक वरदान है। इसमें देश भर के साधु और तांत्रिक हिस्‍सा लेते हैं। शक्ति के ये साधक नीलाचल पहाड़ की विभिन्न गुफाओं में बैठकर साधना करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ‘अंबुवासी मेले’ के दौरान माँ कामाख्या रजस्वला होती हैं। अंबुवासी मेले को असम की कृषि व्यवस्था से भी जोड़कर देखा जाता है। किसान पृथ्वी के ऋतुवती होने के बाद ही धान की खेती आरंभ करते हैं। इन तीन दिन में योनि कुंड से जल प्रवाह कि जगह रक्त प्रवाह होता है। अम्बुबाची मेले को कामरूपों का कुंभ कहा जाता है।

भैरव के दर्शन के बिना अधूरी है कामाख्या की यात्रा –

कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है, उमानंद भैरव ही इस शक्तिपीठ के भैरव हैं। यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में है। कहा जाता है कि इनके दर्शन के बिना कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है। कामाख्या मंदिर की यात्रा को पूरा करने के लिए और अपनी सारी मनोकामनाएं पूरी करने के लिए कामाख्या देवी के बाद उमानंद भैरव के दर्शन करना अनिर्वाय है।

मां कामाख्या देवी की रोजाना पूजा के अलावा भी साल में कई बार कुछ विशेष पूजा का आयोजन होता है।-

दुर्गा पूजा: –  हर साल सितम्बर-अक्टूबर के महीने में नवरात्रि के दौरान इस पूजा का आयोजन किया जाता है।

अम्बुबाची पूजा: – ऐसी मान्यता है किअम्बुबाची पर्व के दौरान माँ कामाख्या रजस्वला होती है इसलिए  तीन दिन के लिए मंदिर बंद कर दिया जाता है। चौथे दिन जब मंदिर खुलता है तो इस दिन विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।

पोहन बिया: –  पूसा मास के दौरान भगवान कमेस्शवरा और कामेशवरी की बीच प्रतीकात्मक शादी के रूप में यह पूजा की जाती है

दुर्गाडियूल पूजा: –  फाल्गुन के महीने में यह पूजा कामाख्या में की जाती है।

वसंती पूजा: –  यह पूजा चैत्र के महीने में कामाख्या मंदिर में आयोजित की जाती है।

मडानडियूल पूजा: –  चेत्र महीने में भगवान कामदेव और कामेश्वरा के लिए यह विशेष पूजा की जाती है।

दो ही उपाय हैं

"पूज्य श्रीराधाबाबा के दिव्य संदेश"
(दो ही उपाय हैं)

सच बताऊँ, दो ही उपाय हैं। तीसरा हो, तो मुझे मालूम नहीं।
1. जिस प्रकार मशीन चलती है, उसी तरह यदि जीभ से जागने से लेकर सोने तक नाम का निरन्तर उच्चारण हो, तो इतनी शीघ्रता से भगवान् के अस्तित्व में विश्वास होगा कि स्वयं चकित रह जाइयेगा। मन लगे, तब तो और भी जल्दी होगा। नहीं लगने पर भी सब उपायों की अपेक्षा इससे अत्यन्त शीघ्र यह बात हो जाएगी।

2. कोई महापुरुष सच्चा संत हो और उससे ह्रदय से प्रार्थना की जाए अथवा भगवान् के सामने ह्रदय से रोवें-नाथ ! मेरे मन में आपके अस्तित्व पर अखण्ड-अटूट विश्वास हो जाए, तो सच मानिए, अभी एक क्षण में मन की वृत्ति ऐसी आस्तिक बन जाएगी कि आपके पास रहने वाले भी आस्तिक बनने लग जाएँगे।

            बस, ये दो उपाय ही मैं जानता हूँ, और प्रार्थना की सुनवाई में तो देर भी हो, किन्तु यह प्रार्थना तो भगवान या संत अवश्य, अवश्य, अवश्य सुन लेंगे। अतएव, बस प्रार्थना करते चले जाइए।
"परम पूज्य श्रीराधाबाबा जी महाराज"

जानिए क्यों, भगवान शकंर ने अपने भक्त को दिया श्रीकृष्ण को मारने का वर

जानिए क्यों, भगवान शकंर ने अपने भक्त को दिया श्रीकृष्ण को मारने का वर
हिंदू धर्म के अनुसार काशी को पौराणिक नगरी माना जाता है। यह विश्व के सबसे पुरानी नगरों में से एक मानी जाता है। यह नगरी विश्वभर में अपनी प्राचीनता के कारण अति प्रसिद्ध है। जगत्प्रसिद्ध यह प्राचीन नगरी गंगा के उत्तर तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीचो बीच बसी हुई है। इस कारण ही हिंदू धर्म के लोगों के लिए यह नगरी आस्था का सबसे बड़ा व आकर्षक केंद्र है।
पुराणों अनुसार इस नगरी को स्वयं भगवान शंकर ने बनाया था, इस बारे में तो ज्यादातार लोगों ने सुना ही होगा। परंतु एक समय में श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से, जो उन्हें भगवान शंकर से ही वरदान के रूप में प्राप्त हुआ था। उस से सारी काशी नगरी को जलाकर राख कर दिया था। तो आईए आज हम आपको बताते है कि इसके पीछे द्वापर युग की एक प्रचलित पौराणिक कथा-
पौराण‍िक कथाओं के अनुसार द्वापर युग में मगध पर राजा जरासंध का राज था। उसके आतंक के कारण उसकी समस्त प्रजा उससे डरा करती थी। राजा जरासंध की क्रूरता और असंख्य सेना कि वजह से आस-पास के सभी राजा-महाराजा भी खौफ में रहा करते थे। मगध के इस क्रूर राजा की दो बेटियां थीं। जिनका नाम अस्ति और प्रस्ति था। इन दोनों में से एक की शादी मथुरा के दुष्ट राजा से हुई थी और दूसरी की श्रीकृष्ण के मामा कंस से।
हम में से बहुत लोग यह जानते हैं कि राजा कंस को ये श्राप था कि उसकी बहन देवकी की आठवीं संतान ही उसक मृत्यु का कारण बनेगी। इस वजह से ही राजा कंस ने बहन देवकी और उसके पति को बंदी बनाकर रख लिया था। लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी वो देवकी की आठवीं संतान को जीवित रहने से नहीं रोक पाया। अपनी संतान को कंस से बचाने के लिए वासुदेव व देवकी न निर्णय करके अपना बच्चा यशोदा के घर में छोड़ दिया। माता यशोदा ने
वासुदेव व देवकी न निर्णय करके अपना बच्चा यशोदा के घर में छोड़ दिया। माता यशोदा ने ही श्री कृष्ण का पालन पोषण किया।
जब श्रीकृष्ण ने अपने मामा कंस का वध कर दिया तो इस बात की खबर मगध के राजा जरासंध तक जा पहंची। क्रोध में आकर उन्होंने श्री कृष्ण को मारने की योजना तक बना ली, लेकिन वो सफल न हो पाए। इसलिए जरासंध ने काशी के राजा के साथ मिलकर फिर से कृष्ण को मारने की योजना बनाई और कई बार मथुरा पर आक्रमण किया। इन आक्रमणों में मथुरा और भगवान कृष्ण को कुछ नहीं हुआ लेकिन काशी नरेश की मृत्यु हो गई।
अपने पिता की मृत्‍यु का बदला लेने के लिए काशी नरेश के पुत्र ने काशी के रचय‍िता भगवान शंकर की कठोर तपस्या की और भगवान को प्रसन्न करके उनसे श्रीकृष्ण का वध करने का वरदान पाया। वर में काशी नरेश पुत्र को एक कृत्या बनाकर दी और कहा कि इसे जहां मारोगे वह स्थान नष्ट हो जाएगा, लेकिन शंकर जी ने एक बात और कही कि यह कृत्या किसी ब्राह्मण भक्त पर मत फेंकना। ऐसा करने से इसका प्रभाव निष्फल हो जाएगा।
काशी नरेश पुत्र ने श्रीकृष्‍ण पर द्वारका में यह कृत्या फेंका. लेकिन वह ये भूल गए कि श्रीकृष्‍ण खुद एक ब्राह्मण भक्‍त हैं. इसी वजह से यह कृत्या द्वारका से वापस होकर काशी गिरने के लिए लौट गई। इसे रोकने के लिए श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र कृत्या के पीछे छोड़ दिया। काशी तक सुदर्शन चक्र ने कृत्या का पीछा किया और काशी पहुंचते ही उसे भस्म कर दिया। लेकिन सुदर्शन चक्र का वार अभी शांत नहीं हुआ इससे काशी नरेश के पुत्र के साथ-साथ पूरा काशी राख हो गई।

तुलसी कौन थी

*तुलसी कौन थी?*

तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था.
वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी.
एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा -
स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प
नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये।

सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता ।
फिर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है।

भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे
ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है?

उन्होंने पूँछा - आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये।

सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे
सती हो गयी।

उनकी राख से एक पौधा निकला तब
भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से
इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में
बिना तुलसी जी के भोग
स्वीकार नहीं करुगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में
किया जाता है.देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है !
हरेकृष्ण।

रुद्राभिषेक से क्या क्या लाभ मिलता है ?

   शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा।
श्लोक
जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै
दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै।
मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा।
पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।।
बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना।
जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवप्रिया।।
घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्।
तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः।
प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम।
केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषतः।
शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्।
श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!!
सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह!
पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।।
जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै।
पुत्रार्थी शर्करायास्तु रसेनार्चेतिछवं तथा।
महलिंगाभिषेकेन सुप्रीतः शंकरो मुदा।
कुर्याद्विधानं रुद्राणां यजुर्वेद्विनिर्मितम्।
अर्थात-
जल से रुद्राभिषेक करने पर —वृष्टि होती है।
कुशा जल से अभिषेक करने पर —रोग, दुःख से छुटकारा मिलती है।
दही से अभिषेक करने पर — पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।
गन्ने के रस से अभिषेक  करने पर — लक्ष्मी प्राप्ति
मधु युक्त जल से अभिषेक करने पर — धन वृद्धि के लिए।
तीर्थ जल से अभिषेकक करने पर — मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इत्र मिले जल से अभिषेक करने से- बीमारी नष्ट होती है ।
दूध् से अभिषेककरने से   — पुत्र प्राप्ति,प्रमेह रोग की शान्ति तथा  मनोकामनाएं  पूर्ण
गंगाजल से अभिषेक करने से — ज्वर ठीक हो जाता है।
दूध् शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से — सद्बुद्धि प्राप्ति हेतू।
घी से अभिषेक करने से — वंश विस्तार होती है।
सरसों के तेल से अभिषेक करने से —रोग तथा शत्रु का नाश होता है।
शुद्ध शहद रुद्राभिषेक करने से   —पाप क्षय हेतू।
इस प्रकार शिव के रूद्र रूप के पूजन और अभिषेक करने से जाने-अनजाने होने वाले पापाचरण से भक्तों को शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है और साधक में शिवत्व रूप सत्यं शिवम सुन्दरम् का उदय हो जाता है उसके बाद शिव के शुभाशीर्वाद सेसमृद्धि, धन-धान्य, विद्या और संतान की प्राप्ति
रुद्राभिषेक से क्या क्या लाभ मिलता है ?
शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा।
श्लोक
जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै
दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै।
मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा।
पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।।
बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना।
जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवप्रिया।।
घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्।
तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः।
प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम।
केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषतः।
शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्।
श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!!
सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह!
पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।।
जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै।
पुत्रार्थी शर्करायास्तु रसेनार्चेतिछवं तथा।
महलिंगाभिषेकेन सुप्रीतः शंकरो मुदा।
कुर्याद्विधानं रुद्राणां यजुर्वेद्विनिर्मितम्।
अर्थात-
जल से रुद्राभिषेक करने पर -वृष्टि होती है।
कुशा जल से अभिषेक करने पर — रोग, दुःख से छुटकारा मिलती है।
दही से अभिषेक करने पर —पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।
गन्ने के रस से अभिषेक  करने पर — लक्ष्मी प्राप्ति
मधु युक्त जल से अभिषेक करने पर — धन वृद्धि के लिए।
तीर्थ जल से अभिषेकक करने पर —मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इत्र मिले जल से अभिषेक करने से — बीमारी नष्ट होती है ।
दूध् से अभिषेककरने से   — पुत्र प्राप्ति,प्रमेह रोग की शान्ति तथा  मनोकामनाएं  पूर्ण
गंगाजल से अभिषेक करने से —ज्वर ठीक हो जाता है।
दूध् शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से — सद्बुद्धि प्राप्ति हेतू।
घी से अभिषेक करने से — वंश विस्तार होती है।
सरसों के तेल से अभिषेक करने से — रोग तथा शत्रु का नाश होता है।
शुद्ध शहद रुद्राभिषेक करने से   — पाप क्षय हेतू।
इस प्रकार शिव के रूद्र रूप के पूजन और अभिषेक करने से जाने-अनजाने होने वाले पापाचरण से भक्तों को शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है और साधक में शिवत्व रूप सत्यं शिवम सुन्दरम् का उदय हो जाता है उसके बाद शिव के शुभाशीर्वाद सेसमृद्धि, धन-धान्य, विद्या और संतान की प्राप्ति के साथ-साथ सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाते हैं।  साथ-साथ सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाते हैं।

विंध्यवासिनी देवी

(((((((( विंध्यवासिनी देवी ))))))))
द्वापर में भगवान श्रीविष्णु अपना पूर्णावतार श्रीकृष्ण के रूप में लेने वाले थे. उन्हें देवकी के गर्भ से उनकी आठवीं संतान के रूप में जन्म लेना था. इस कार्य में भगवान को कई असुरों का वध करना था.
भगवान श्रीहरि ने देवी योगमाया से इस कार्य में सहायता मांगी. उन्होंने योगमाया को आदेश दिया कि वह गोकुल में नंदराय जी के घर में उनकी पत्नी के गर्भ में समा जाएं.
फिर जब वह स्वयं देवकीजी की गर्भ से प्रकट होंगे तो योगमाया को यशोदाजी के गर्भ से प्रकट होना होगा. फिर उन्हें कंस को मानसिक रूप से पीड़ित करके विंध्य पर विराजमान होना होगा.
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भगवान ने कहा- हे देवी इस कार्य में मेरी सहायता के बाद आप पृथ्वी पर अनेक रूपों में पूजित होंगी. मेरी आराधना करने वाले भक्त आपके भिन्न-भिन्न शक्ति स्वरूपों की पूजा करेंगे. आप अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली होंगी.
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योगमाया ने वैसा ही किया. देवकी के साथ-साथ यशोदाजी भी गर्भवती हुईं. जिस समय देवकीजी के गर्भ से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ उसी समय यशोदाजी के गर्भ से योगमाया ने पुत्री रूप में जन्म लिया.
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प्रभु के आदेश पर वसुदेवजी बालरूपी भगवान श्रीकृष्ण को एक टोकरी में रखकर गोकुल के लिए चले. योगमाया ने कंस के कारागार के पहरेदारों की और गोकुल में भी सबकी निद्रा ही हर ली ताकि किसी को इस बात का पता न चल सके.
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वसुदेवजी शिशुओं की अदला-बदली के लिए श्रीकृष्ण को लेकर चले तो खूब बारिश हो रही थी. यमुना का जल उफन आया था. शेषजी भी गुप्त रूप से पीछे-पीछे छत्र बनाए चलने लगे. यमुना को तो श्रीकृष्ण के पांव पखारने थे.
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जैसे ही प्रभु के पैरों का स्पर्श मिला, यमुना का जल स्थिर हो गया. उसने वैसी ही राह दे दी जैसे भगवान श्रीराम को समुद्र ने दिया था. वसुदेव ने श्रीकृष्ण को यशोदाजी के बगल में लिटा दिया और उनकी कन्या को लेकर वापस चले आए.
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कारागार के फाटक स्वतः बंद हो गए. कन्या को देवकी के बगल में लिटाकर वसुदेव ने पैरों की बेड़ियां डाल लीं. योगमाया ने अपनी लीला आरंभ की. उन्होंने रोना शुरू किया.
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अचेत रक्षक जागे और कंस को जाकर देवकी की आठवीं संतान के बारे में सूचना दी. आठवीं संतान के बारे में सोचकर कंस को नींद ही न पड़ती थी. वह भागकर आया और कन्या को झपट लिया.
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देवकी ने विनती की- भैया तुमने सभी पुत्र मार डाले. यह तो कन्या है. इससे क्या भय ? इसे तो मुझे प्रदान कर दो. स्त्री का वध करने का पाप अपने सर पर मत लो. कंस नहीं माना.
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उसने कन्या के वध की नीयत से उसे पैरों से पकडा और चट्टान पर दे मारा. परंतु वह साधारण कन्या तो थी नहीं. कंस के हाथों से छूटकर हवा में उड़ीं और अपने वास्तविक रूप में आ गईं. आठ भुजाओं में आठ भयंकर आयुध लिए प्रकट हुईं.
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देवी के प्रकट होते ही ऐसा प्रकाश फैला कि सबकी आंखें चौंधिया गईं. कंस तो उन्हें देख भी न पाया. सिर्फ उनका ताप और उनकी हुंकार से उसने उनके क्रोध का आभास लगाया. देवी ने वसुदेव और देवकी जी को पूर्ण स्वरूप में दर्शन दिए.
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देवी ने क्रोध में आंखे लाल करके कंस को कहा- मुझे मारने की चेष्टा तुमने की. इस संसार के सभी चर-अचर की गति का निर्धारण मैं करती हूं. मैं अजन्मा हूं. अरे मूर्ख ! तेरा संहार करने वाला जन्म ले चुका है. तू निर्दोष बालकों की हत्या रोक दे.
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यब कहकर देवी वहां से अंतर्धान हो गईं और विंध्य पर्वत पर विराजमान हुईं. वहां वह माता विंध्यवासिनी के रूप में पूजी जाने लगीं. बाद में देवी ने शुंभ-निशुंभ का वध करके देवताओं की रक्षा की.
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भागवत पुराण के अतिरिक्त अन्य कई पुराणों में भी विंध्यवासिनी देवी के प्राकटय और महिमा की कथाएं आती हैं. श्रीराम द्वारा उनकी पूजा-अर्चना की भी कथा आती है. शिव पुराण में उन्हें सती का अंश बताया गया है.
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51 शक्तिपीठों में से विंध्यावासिनी माता को ही पूर्ण शक्तिपीठ कहा जाता है.

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  (((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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श्रीमद् भगवदगीता की महिमा

श्रीमद् भगवदगीता के विषय में जानने योग्य विचार

गीता मे हृदयं पार्थ गीता मे सारमुत्तमम्।
गीता मे ज्ञानमत्युग्रं गीता मे ज्ञानमव्ययम्।।
गीता मे चोत्तमं स्थानं गीता मे परमं पदम्।
गीता मे परमं गुह्यं गीता मे परमो गुरुः।।
गीता मेरा हृदय है | गीता मेरा उत्तम सार है | गीता मेरा अति उग्र ज्ञान है | गीता मेरा अविनाशी ज्ञान है | गीता मेरा श्रेष्ठ निवासस्थान है | गीता मेरा परम पद है | गीता मेरा परम रहस्य है | गीता मेरा परम गुरु है |
भगवान श्री कृष्ण
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।।
जो अपने आप श्रीविष्णु भगवान के मुखकमल से निकली हुई है वह गीता अच्छी तरह कण्ठस्थ करना चाहिए | अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या लाभ?
महर्षि व्यास
गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् ।
नेयं सज्जनसंगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम ।।
गाने योग्य गीता तो श्री गीता का और श्री विष्णुसहस्रनाम का गान है | धरने योग्य तो श्री विष्णु भगवान का ध्यान है | चित्त तो सज्जनों के संग पिरोने योग्य है और वित्त तो दीन-दुखियों को देने योग्य है |
श्रीमद् आद्य शंकराचार्य
गीता में वेदों के तीनों काण्ड स्पष्ट किये गये हैं अतः वह मूर्तिमान वेदरूप हैं और उदारता में तो वह वेद से भी अधिक है | अगर कोई दूसरों को गीताग्रंथ देता है तो जानो कि उसने लोगों के लिए मोक्षसुख का सदाव्रत खोला है | गीतारूपी माता से मनुष्यरूपी बच्चे वियुक्त होकर भटक रहे हैं | अतः उनका मिलन कराना यह तो सर्व सज्जनों का मुख्य धर्म है |
संत ज्ञानेश्वर
'श्रीमद् भगवदगीता' उपनिषदरूपी बगीचों में से चुने हुए आध्यात्मिक सत्यरूपी पुष्पों से गुँथा हुआ पुष्पगुच्छ है |
स्वामी विवेकानन्द
इस अदभुत ग्रन्थ के 18 छोटे अध्यायों में इतना सारा सत्य, इतना सारा ज्ञान और इतने सारे उच्च, गम्भीर और सात्त्विक विचार भरे हुए हैं कि वे मनुष्य को निम्न-से-निम्न दशा में से उठा कर देवता के स्थान पर बिठाने की शक्ति रखते हैं | वे पुरुष तथा स्त्रियाँ बहुत भाग्यशाली हैं जिनको इस संसार के अन्धकार से भरे हुए सँकरे मार्गों में प्रकाश देने वाला यह छोटा-सा लेकिन अखूट तेल से भरा हुआ धर्मप्रदीप प्राप्त हुआ है |
महामना मालवीय जी
एक बार मैंने अपना अंतिम समय नजदीक आया हुआ महसूस किया तब गीता मेरे लिए अत्यन्त आश्वासनरूप बनी थी | मैं जब-जब बहुत भारी मुसीबतों से घिर जाता हूँ तब-तब मैं गीता माता के पास दौड़कर पहुँच जाता हूँ और गीता माता में से मुझे समाधान न मिला हो ऐसा कभी नहीं हुआ है |
महात्मा गाँधी
जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए गीता ग्रंथ अदभुत है | विश्व की 578 भाषाओं में गीता का अनुवाद हो चुका है | हर भाषा में कई चिन्तकों, विद्वानों और भक्तों ने मीमांसाएँ की हैं और अभी भी हो रही हैं, होती रहेंगी | क्योंकि इस ग्रन्थ में सब देशों, जातियों, पंथों के तमाम मनुष्यों के कल्याण की अलौकिक सामग्री भरी हुई है | अतः हम सबको गीताज्ञान में अवगाहन करना चाहिए | भोग, मोक्ष, निर्लेपता, निर्भयता आदि तमाम दिव्य गुणों का विकास करने वाला यह गीता ग्रन्थ विश्व में अद्वितिय है |
पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज
प्राचीन युग की सर्व रमणीय वस्तुओं में गीता से श्रेष्ठ कोई वस्तु नहीं है | गीता में ऐसा उत्तम और सर्वव्यापी ज्ञान है कि उसके रचयिता देवता को असंख्य वर्ष हो गये फिर भी ऐसा दूसरा एक भी ग्रन्थ नहीं लिखा गया है |
अमेरिकन महात्मा थॉरो
थॉरो के शिष्य, अमेरिका के सुप्रसिद्ध साहित्यकार एमर्सन को भी गीता के लिए, अदभुत आदर था | 'सर्वभुतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि' यह श्लोक पढ़ते समय वह नाच उठता था |

बाईबल का मैंने यथार्थ अभ्यास किया है | उसमें जो दिव्यज्ञान लिखा है वह केवल गीता के उद्धरण के रूप में है | मैं ईसाई होते हुए भी गीता के प्रति इतना सारा आदरभाव इसलिए रखता हूँ कि जिन गूढ़ प्रश्नों का समाधान पाश्चात्य लोग अभी तक नहीं खोज पाये हैं, उनका समाधान गीता ग्रंथ ने शुद्ध और सरल रीति से दिया है | उसमें कई सूत्र अलौकिक उपदेशों से भरूपूर लगे इसीलिए गीता जी मेरे लिए साक्षात् योगेश्वरी माता बन रही हैं | वह तो विश्व के तमाम धन से भी नहीं खरीदा जा सके ऐसा भारतवर्ष का अमूल्य खजाना है |
एफ.एच.मोलेम (इंग्लैन्ड)
भगवदगीता ऐसे दिव्य ज्ञान से भरपूर है कि उसके अमृतपान से मनुष्य के जीवन में साहस, हिम्मत, समता, सहजता, स्नेह, शान्ति और धर्म आदि दैवी गुण विकसित हो उठते हैं, अधर्म और शोषण का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है | अतः प्रत्येक युवक-युवती को गीता के श्लोक कण्ठस्थ करने चाहिए और उनके अर्थ में गोता लगा कर अपने जीवन को तेजस्वी बनाना चाहिए |

सती जन्म तप तथा विवाह

सती जन्म तप तथा विवाह


भगवान् शंकर की आज्ञा शिरोधार्य करके ब्रह्माजी ने सृष्टि का कार्य प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उन्होंने सूक्ष्मभूत, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नदी, समुद्र इत्यादि के साथ सप्तर्षियों तथा अपने मानस पुत्रों को उत्पन्न किया। तत्पश्चात अमिका एवं महादेवजीकी आज्ञा से उन्होने दक्ष और वीरिणी की सृष्टि की और उन्हें मैथुनी सृष्टि करने का आदेश किया। उन दोनों ने पहले हर्यश्व और शबलाश्व आदि नाम से सहस्रों पुत्र पैदा किये जो नारदजी के उपदेश से संन्यासी हो गये। बाद में उन्हें कल्पान्तर में साठ कन्याएँ हुईं, जिनका विवाहभृगु, शिव, मरीच आदि ऋषियों के साथ सम्पन्न हुआ।
ब्रह्मा की आराधना संतुष्ट होकर परमेश्वर शम्भु की आदि शक्ति सतीदेवी ने लोकहितका कार्य सम्पादित करने के लिये दक्ष के यहाँ अवतार लिया। पुत्री का मनोहर मुख देखकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई।
दक्षने ब्राह्मणों तथा याचकों को दान-मान से संतुष्ट किया। भाँत-भाँति के मंगल-कृत्यों के साथ नृत्य और गान के सुन्दर आयोजन किये गये। दक्ष के महल में जैसे खुशियों का साम्राज्य ही उतर आया। देवताओंने पुष्पवर्षा की दक्ष ने अपनी उस दिव्य कन्या का नाम ‘उमा’ रखा। परमेश्वर शिव की अभिन्न स्वरूपा होने के कारण वे बाल्यवस्था से ही उनके ध्यानमें निमग्न रहा करती थीं।
एक दिन देवर्षि नारद और पितामह ब्रह्माजी उस अद्भुत बालिका के दर्शन की इच्छा से दक्ष के यहाँ आये। ब्रह्माजी ने भगवती सती से कहा—‘जो केवल तुम्हें ही चाहते हैं और तुम्हारे मनमें भी जिनको पति रूप में प्राप्त करने की अभिलाषा है, उन्हीं महादेवजी की तुम्हें तपस्या करनी चाहिये।’ ऐसा कहकर ब्रह्माजी देवर्षि नारद के साथ अपने लोक को चले गये।
युवावस्था में प्रवेश करते ही भगवती सती अपनी माता वीरणी से अनुमति लेकर महेश्वर शिव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिये कठोर तपस्या करने लगीं। तपस्या करती हुई सती मूर्तिमती सिद्धि के समान दिखलायी देती थीं। भाँति-भाँति के उपचारों द्वारा महेश्वर की साधना में वे इस तरह लीन हो गयीं कि उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रही।
भगवान् विष्णु के साथ सभी देवताओं ने कैलास पहुँचकर भगवान् शिवसे कहा—‘महेश्वर ! महातेजस्विनी सती आपको पतिरूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप कर रही हैं। हमलोगों की प्रार्थना है कि आप उन्हें पत्नीस्वरूप स्वीकार करें।’
देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान् महादेव सती के समक्ष प्रकट हो गये। उनकी अंग कान्ति करोड़ों कामदेवों को लज्जित कर रही थी। भगवती सती ने सौन्दर्य के धाम महेश्वर शिवकी वन्दना की। उस समय उनका मुख नारीसुलभ लज्जा के कारण झुका हुआ था।
महादेवजी ने कहा—‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाली सती ! मैं तुमपर परम प्रसन्न हूँ। इसलिए तुम इच्छानुसार वर माँगो। शुभे ! तुम्हारा कल्याण हो।’
सती बोलीं—‘प्रभो ! यदि आप मुझपर सचमुच प्रसन्न हैं तो वैवाहिक विधि से मेरा पाणिग्रहण कर मुझ दासी को कृतार्थ करें।’ ‘ऐसा ही होगा’ कहकर परमेश्वर शिव अन्तर्धान हो गये।
तदनन्तर शुभ लग्न और मुहूर्त मे प्रजापति दक्ष ने हर्षपूर्वक अपनी पुत्री का हाथ भगवान् शंकर के हाथों में दे दिया। महेश्वर शिव को अपनी कन्या प्रदान करके दक्ष कृतार्थ हो गये। समस्त देवताओं और ऋषि-मुनियों के आनन्दकी सीमा न रही। विवाहोपरान्त दक्ष से विदा लेकर शिवा के साथ महादेव कैलास लौट आये। समस्त संसार सती और शिव के इस दिव्य मिलन से आनन्दित हो गया।

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

‘श्रीसुदर्शन-चक्र’

भगवान् विष्णु का प्रमुख आयुध है, जिसके माहात्म्य की कथाएँ पुराणों में स्थान-स्थान पर दिखाई देती है।

‘मत्स्य-पुराण’ के अनुसार एक दिन दिवाकर भगवान् ने विश्वकर्मा जी से निवेदन किया कि‘कृपया मेरे प्रखर तेज को कुछ कम कर दें,क्योंकि अत्यधिक उग्र तेज के कारण प्रायः सभी प्राणी सन्तप्त हो जाते हैं।’ विश्वकर्मा जी ने सूर्य को ‘चक्र-भूमि’ पर चढ़ा कर उनका तेज कम कर दिया। उस समय सूर्य से निकले हुए तेज-पुञ्जों को ब्रह्माजी ने एकत्रित कर भगवान् विष्णु के‘सुदर्शन-चक्र’ के रुप में, भगवान् शिव के ‘त्रिशूल′-रुप में तथा इन्द्र के ‘वज्र’ के रुप में परिणत कर दिया।

‘पद्म-पुराण’ के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के तेज से युक्त ‘सुदर्शन-चक्र’ को भगवान् शिव ने श्रीकृष्ण को दिया था। ‘वामन-पुराण’ के अनुसार भी इस कथा की पुष्टि होती है। ‘शिव-पुराण’ के अनुसार ‘खाण्डव-वन’ को जलाने के लिए भगवान् शंकर ने श्रीकृष्ण को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। इसके सम्मुख इन्द्र की शक्ति भी व्यर्थ थी।

‘वामन-पुराण’ के अनुसार दामासुर नामक भयंकर असुर को मारने के लिए भगवान् शंकर ने विष्णु को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। बताया है कि एक बार भगवान् विष्णु ने देवताओं से कहा था कि ‘आप लोगों के पास जो अस्त्र हैं, उनसे असुरों का वध नहीं किया जा सकता। आप सब अपना-अपना तेज दें।’ इस पर सभी देवताओं ने अपना-अपना तेज दिया। सब तेज एकत्र होने पर भगवान् विष्णु ने भी अपना तेज दिया। फिर महादेव शंकर ने इस एकत्रित तेज के द्वारा अत्युत्तम शस्त्र बनाया और उसका नाम ‘सुदर्शन-चक्र’ रखा। भगवान् शिव ने‘सुदर्शन-चक्र’ को दुष्टों का संहार करने तथा साधुओं की रक्षा करने के लिए विष्णु को प्रदान किया।

‘हरि-भक्ति-विलास’ में लिखा है कि ‘सुदर्शन-चक्र’ बहुत पुज्य है। वैष्णव लोग इसे चिह्न के रुप में धारण करें। ‘गरुड़-पुराण’ में ‘सुदर्शन-चक्र’का महत्त्व बताया गया है और इसकी पूजा-विधि दी गई है। ‘श्रीमद्-भागवत’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ की स्तुति इस प्रकार की गई है- ‘हे सुदर्शन! आपका आकार चक्र की तरह है। आपके किनारे का भाग प्रलय-कालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् विष्णु की प्रेरणा से सभी ओर घूमते हैं। जिस प्रकार अग्नि वायु की सहायता से शुष्क तृण को जला डालती है, उसी प्रकार आप हमारी शत्रु-सेना को तत्काल जला दीजिए।’
‘विष्णु-धर्मोत्तर-पुराण’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ का वर्णन एक पुरुष के रुप में हुआ है। इसकी दो आँखें तथा बड़ा-सा पेट है। चक्र का यह रुप अनेक अलंकारों से सुसज्जित तथा चामर से युक्त है।
वल्लभाचार्य कृत

‘सुदर्शन-कवच’
🔸🔸🔹🔸🔸
वैष्णवानां हि रक्षार्थं, श्रीवल्लभः-निरुपितः। सुदर्शन महामन्त्रो, वैष्णवानां हितावहः।।
मन्त्रा मध्ये निरुप्यन्ते, चक्राकारं च लिख्यते। उत्तरा-गर्भ-रक्षां च, परीक्षित-हिते-रतः।।
ब्रह्मास्त्र-वारणं चैव, भक्तानां भय-भञ्जनः। वधं च सुष्ट-दैत्यानां, खण्डं-खण्डं च कारयेत्।।
वैष्णवानां हितार्थाय, चक्रं धारयते हरिः। पीताम्बरो पर-ब्रह्म, वन-माली गदाधरः।।
कोटि-कन्दर्प-लावण्यो, गोपिका-प्राण-वल्लभः। श्री-वल्लभः कृपानाथो, गिरिधरः शत्रुमर्दनः।।
दावाग्नि-दर्प-हर्ता च, गोपीनां भय-नाशनः। गोपालो गोप-कन्याभिः, समावृत्तोऽधि-तिष्ठते।।
वज्र-मण्डल-प्रकाशी च, कालिन्दी-विरहानलः। स्वरुपानन्द-दानार्थं, तापनोत्तर-भावनः।।
निकुञ्ज-विहार-भावाग्ने, देहि मे निज दर्शनम्। गो-गोपिका-श्रुताकीर्णो, वेणु-वादन-तत्परः।।
काम-रुपी कला-वांश्च, कामिन्यां कामदो विभुः। मन्मथो मथुरा-नाथो, माधवो मकर-ध्वजः।।
श्रीधरः श्रीकरश्चैव, श्री-निवासः सतां गतिः। मुक्तिदो भुक्तिदो विष्णुः, भू-धरो भुत-भावनः।।
सर्व-दुःख-हरो वीरो, दुष्ट-दानव-नाशकः। श्रीनृसिंहो महाविष्णुः, श्री-निवासः सतां गतिः।।
चिदानन्द-मयो नित्यः, पूर्ण-ब्रह्म सनातनः। कोटि-भानु-प्रकाशी च, कोटि-लीला-प्रकाशवान्।।
भक्त-प्रियः पद्म-नेत्रो, भक्तानां वाञ्छित-प्रदः। हृदि कृष्णो मुखे कृष्णो, नेत्रे कृष्णश्च कर्णयोः।।
भक्ति-प्रियश्च श्रीकृष्णः, सर्वं कृष्ण-मयं जगत्। कालं मृत्युं यमं दूतं, भूतं प्रेतं च प्रपूयते।।
“ॐ नमो भगवते महा-प्रतापाय महा-विभूति-पतये, वज्र-देह वज्र-काम वज्र-तुण्ड वज्र-नख वज्र-मुख वज्र-बाहु वज्र-नेत्र वज्र-दन्त वज्र-कर-कमठ भूमात्म-कराय, श्रीमकर-पिंगलाक्ष उग्र-प्रलय कालाग्नि-रौद्र-वीर-भद्रावतार पूर्ण-ब्रह्म परमात्मने, ऋषि-मुनि-वन्द्य-शिवास्त्र-ब्रह्मास्त्र-वैष्णवास्त्र-नारायणास्त्र-काल-शक्ति-दण्ड-कालपाश-अघोरास्त्र-निवारणाय, पाशुपातास्त्र-मृडास्त्र-सर्वशक्ति-परास्त-कराय, पर-विद्या-निवारण अग्नि-दीप्ताय, अथर्व-वेद-ऋग्वेद-साम-वेद-यजुर्वेद-सिद्धि-कराय, निराहाराय, वायु-वेग मनोवेग श्रीबाल-कृष्णः प्रतिषठानन्द-करः स्थल-जलाग्नि-गमे मतोद्-भेदि, सर्व-शत्रु छेदि-छेदि,मम बैरीन् खादयोत्खादय, सञ्जीवन-पर्वतोच्चाटय, डाकिनी-शाकिनी-विध्वंस-कराय महा-प्रतापाय निज-लीला-प्रदर्शकाय निष्कलंकृत-नन्द-कुमार-बटुक-ब्रह्मचारी-निकुञ्जस्थ-भक्त-स्नेह-कराय दुष्ट-जन-स्तम्भनाय सर्व-पाप-ग्रह-कुमार्ग-ग्रहान् छेदय छेदय, भिन्दि-भिन्दि, खादय, कण्टकान् ताडय ताडय मारय मारय, शोषय शोषय, ज्वालय-ज्वालय, संहारय-संहारय, (देवदत्तं) नाशय नाशय, अति-शोषय शोषय, मम सर्वत्र रक्ष रक्ष,महा-पुरुषाय सर्व-दुःख-विनाशनाय ग्रह-मण्डल-भूत-मण्डल-प्रेत-मण्डल-पिशाच-मण्डल उच्चाटन उच्चाटनाय अन्तर-भवादिक-ज्वर-माहेश्वर-ज्वर-वैष्णव-ज्वर-ब्रह्म-ज्वर-विषम-ज्वर-शीत-ज्वर-वात-ज्वर-कफ-ज्वर-एकाहिक-द्वाहिक-त्र्याहिक-चातुर्थिक-अर्द्ध-मासिक मासिक षाण्मासिक सम्वत्सरादि-कर भ्रमि-भ्रमि,छेदय छेदय, भिन्दि भिन्दि, महाबल-पराक्रमाय महा-विपत्ति-निवारणाय भक्र-जन-कल्पना-कल्प-द्रुमाय-दुष्ट-जन-मनोरथ-स्तम्भनाय क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपी-जन-वल्लभाय नमः।।
पिशाचान् राक्षसान् चैव, हृदि-रोगांश्च दारुणान् भूचरान् खेचरान् सर्वे, डाकिनी शाकिनी तथा।।
नाटकं चेटकं चैव, छल-छिद्रं न दृश्यते। अकाले मरणं तस्य, शोक-दोषो न लभ्यते।।
सर्व-विघ्न-क्षयं यान्ति, रक्ष मे गोपिका-प्रियः। भयं दावाग्नि-चौराणां, विग्रहे राज-संकटे।।
।।फल-श्रुति।।
व्याल-व्याघ्र-महाशत्रु-वैरि-बन्धो न लभ्यते। आधि-व्याधि-हरश्चैव, ग्रह-पीडा-विनाशने।।
संग्राम-जयदस्तस्माद्, ध्याये देवं सुदर्शनम्। सप्तादश इमे श्लोका, यन्त्र-मध्ये च लिख्यते।।
वैष्णवानां इदं यन्त्रं, अन्येभ्श्च न दीयते। वंश-वृद्धिर्भवेत् तस्य, श्रोता च फलमाप्नुयात्।।
सुदर्शन-महा-मन्त्रो, लभते जय-मंगलम्।।
सर्व-दुःख-हरश्चेदं, अंग-शूल-अक्ष-शूल-उदर-शूल-गुद-शूल-कुक्षि-शूल-जानु-शूल-जंघ-शूल-हस्त-शूल-पाद-शूल-वायु-शूल-स्तन-शूल-सर्व-शूलान् निर्मूलय, दानव-दैत्य-कामिनि वेताल-ब्रह्म-राक्षस-कालाहल-अनन्त-वासुकी-तक्षक-कर्कोट-तक्षक-कालीय-स्थल-रोग-जल-रोग-नाग-पाश-काल-पाश-विषं निर्विषं कृष्ण! त्वामहं शरणागतः। वैष्णवार्थं कृतं यत्र श्रीवल्लभ-निरुपितम्।। ॐ

इसका नित्य प्रातः और रात्री में सोते समय पांच - पांच बार पाठ करने मात्र से ही समस्त शत्रुओं का नाश होता है और शत्रु अपनी शत्रुता छोड़ कर मित्रता का व्यवहार करने लगते है.

शुभमस्तु!
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मर्यादा के रक्षक श्रीराम ने आखिर बाली का वध पीछे से क्याें किया ?

मर्यादा के रक्षक श्रीराम ने आखिर बाली का वध पीछे से क्याें किया ?


श्री राम के द्वारा बाली के वध की कथा रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में मिलती है। यह एक विवादित प्रश्न रहा है कि मर्यादा के रक्षक श्रीराम ने बाली का वध पीछे से क्याें किया। तुलसीदासजी नेे एक चौपाई-
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं।
मारेहु मोहि ब्याध की नाईं।
के जरिए इस प्रश्न काेे उठाया हैै यानी बाली नेे मरते वक्त पूछा कि हे राम आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया, लेकिन मुझे शिकारी की तरह छुपकर क्याें मारा। इसका उत्तर अगली चाैपाई में रामजी देते हैं।

अनुज बधू भगिनी सुत नारी।सुनु सठ कन्या सम ए चारी।
इन्हहि कुदृष्टि बिलाकइ जोई। ताहि बंधें कुछ पाप न होई।

यानी रामजी बोले अरे मूर्ख सुन। छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्र की पत्नी और बेटी ये चारों समान हैं। इनको जो बुरी दृष्टि से देखता है उसे मारने में कोई पाप नहीं है। रामायण के अनुसार बाली ने सुग्रीव को न केवल राज्य से निकाला था, बल्कि उसकी पत्नी भी छीन लिया था। भगवान का क्रोध इसलिए था कि जो व्यक्ति स्त्री का सम्मान नहीं करता उसे सामने से मारने या छुपकर मारने में कोई अंतर नहीं है। मूल बात है उसे दंड मिले।

होलिका पर्व विशेष

पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई है इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है होलिका और प्रह्लाद की है। विष्णु पुराण की एक कथा के अनुसार प्रह्लाद के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने तपस्या कर देवताओं से यह वरदान प्राप्त कर लिया कि वह न तो पृथ्वी पर मरेगा न आकाश में, न दिन में मरेगा न रात में, न घर में मरेगा न बाहर, न अस्त्र से मरेगा न शस्त्र से, न मानव से मारेगा न पशु से। इस वरदान को प्राप्त करने के बाद वह स्वयं को अमर समझ कर नास्तिक और निरंकुश हो गया। उसने अपनी प्रजा को यह आदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति ईश्वर की वंदना न करे। अहंकार में आकर उसने जनता पर जुल्म करने आरम्भ कर दिए… यहाँ तक कि उसने लोगो को परमात्मा की जगह अपना नाम जपने का हुकम दे दिया।

कुछ समय बाद हिरण्यकश्यप के घर में एक बेटे का जन्म हुआ. उसका नाम प्रह्लाद रखा गया प्रह्लाद कुछ बड़ा हुआ तो, उसको पाठशाला में पढने के लिए भेजा गया पाठशाला के गुरु ने प्रह्लाद को हिरण्यकश्यप का नाम जपने की शिक्षा दी पर प्रह्लाद हिरण्यकश्यप के स्थान पर भगवान विष्णु का नाम जपता था वह भगवान विष्णु को हिरण्यकश्यप से बड़ा समझता था।

गुरु ने प्रह्लाद की हिरण्यकश्यप से शिकायत कर दी हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को बुला कर पूछा कि वह उसका नाम जपने के जगह पर विष्णु का नाम क्यों जपता है प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “ईश्वर सर्व शक्तिमान है, उसने ही सारी सृष्टि को रचा है.” अपने पुत्र का उत्तर सुनकर हिरण्यकश्यप को गुस्सा आ गया उसको खतरा पैदा हो गया कि कही बाकि जनता भी प्रह्लाद की बात ना मानने लगे उसने आदेश दिया कहा, “मैं ही सबसे अधिक शक्तिशाली हूं, मुझे कोई नहीं मर सकता मैं तुझे अब खत्म कर सकता हूँ” उसकी आवाज सुनकर प्रह्लाद की माता भी वहां आ गई उसने हिरण्यकश्यप का विनती करते हुए कहा, “आप इसको ना मारो, मैं इसे समझाने का यतन करती हूं” वे प्रह्लाद को अपने पास बिठाकर कहने लगी, “तेरे पिता जी इस धरती पर सबसे शक्तिशाली है उनको अमर रहने का वर मिला हुआ है इनकी बात मान ले ”प्रहलद बोला, “माता जी मैं मानता हूं कि मेरे पिता जी बहुत ताकतवर है पर सबसे अधिक बलवान भगवान विष्णु हैं जिसने हम सभी को बनाया है पिता जो को भी उसने ही बनाया है प्रह्लाद का ये उत्तर सुन कर उसकी मां बेबस हो गयी प्रहलद अपने विश्वास पर आडिग था ये देख हिरण्यकश्यप को और गुस्सा आ गया उसने अपने सिपाहियों को हुकम दिया कि वो प्रह्लाद को सागर में डूबा कर मार दें सिपाही प्रह्लाद को सागर में फेंकने के लिए ले गये और पहाड़ से सागर में फैंक दिया लेकिन भगवान के चमत्कार से सागर की एक लहर ने प्रह्लाद को किनारे पर फैंक दिया सिपाहियों ने प्रह्लाद को फिर सागर में फेंका… प्रह्लाद फिर बहार आ गया सिपाहियों ने आकर हिरण्यकश्यप को बताया फिर हिरण्यकश्यप बोला उसको किसी ऊंचे पर्वत से नीचे फेंक कर मार दो सिपाहियों ने प्रह्लाद को जैसे ही पर्वत से फेंका प्रह्लाद एक घने वृक्ष पर गिरा जिस कारण उसको कोई चोट नहीं लगी हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को एक पागल हाथी के आगे फैंका तो जो हाथी उसको अपने पैरों के नीचे कुचल दे पर हाथी ने प्रह्लाद को कुछ नहीं कहा लगता था जैसे सारी कुदरत प्रह्लाद की मदद कर रही हो।

हिरण्यकश्यप की एक बहन थी जिसका नाम होलिका था होलिका अपने भाई हिरण्यकश्यप की परेशानी दूर करना चाहती थी होलिका को वरदान था कि उसको आग जला नहीं सकती उसने अपने भाई को कहा कि वो प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर बैठ जाएगी वरदान के कारण वो खुद आग में जलने से बच जाएगी पर प्रह्लाद जल जायेगा लेकिन हुआ इसका उलट और आग में होलिका जल गयी पर प्रह्लाद बच गया होलिका ने जब वरदान में मिली शक्ति का दुरूपयोग किया, तो वो वरदान उसके लिए श्राप बन गया रंगों वाली होली (धुलंडी) के एक दिन पूर्व होलिका दहन होता है। होलिका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाता है, परंतु यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि हिरण्यकश्यप की बहन होलिका का दहन बिहार की धरती पर हुआ था। जनश्रुति के मुताबिक तभी से प्रतिवर्ष होलिका दहन की परंपरा की शुरुआत हुई।

मान्यता है कि बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में ही वह जगह है, जहां होलिका भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर दहकती आग के बीच बैठी थी।इसी दौरान भगवान नरसिंह का अवतार हुआ था, जिन्होंने हिरण्यकश्यप का वध किया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, सिकलीगढ़ में हिरण्यकश्य का किला था।यहीं भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए एक खंभे से भगवान नरसिंह अवतार लिए थे। भगवान नरसिंह के अवतार से जुड़ा खंभा (माणिक्य स्तंभ) आज भी यहां मौजूद है। कहा जाता है कि इसे कई बार तोड़ने का प्रयास किया गया। यह स्तंभ झुक तो गया, पर टूटा नहीं।

अन्य कथा के अनुसार
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वैदिक काल में इस होली के पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था। पुराणों के अनुसार ऐसी भी मान्यता है कि जब भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से होली का प्रचलन हु‌आ। होलिका दहन की रात्रि को तंत्र साधना की दृष्टि से हमारे शास्त्रों में महत्वपूर्ण माना गया है | और यह रात्रि तंत्र साधना व लक्ष्मी प्राप्ति के साथ खुद पर किये गए तंत्र मंत्र के प्रतिरक्षण हेतु सबसे उपयुक्त मानी गई है|

तंत्र शास्त्र के अनुसार होली के दिन कुछ खास उपाय करने से मनचाहा काम हो जाता है। तंत्र क्रियाओं की प्रमुख चार रात्रियों में से एक रात ये भी है।         

मान्यता है कि होलिका दहन के समय उसकी उठती हुई लौ से कई संकेत मिलते हैं। होलिका की अग्नि की लौ का पूर्व दिशा ओर उठना कल्याणकारी होता है, दक्षिण की ओर पशु पीड़ा, पश्चिम की ओर सामान्य और उत्तर की ओर लौ उठने से बारिश होने की संभावना रहती है।

शास्त्रों में उल्लेख है कि फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को प्रदोषकाल में दहन किया जाता है।

होलिका दहन में आहुतियाँ देना बहुत ही जरुरी माना गया है, होलिका में कच्चे आम, नारियल, भुट्टे या सप्तधान्य, चीनी के बने खिलौने, नई फसल का कुछ भाग गेंहूं, उडद, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर. आदि की आहुति दी जाती है है|

सावधानी
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होलिका दहन की रात्रि तंत्र साधना की रात्रि होने के कारण इस रात्रि आपको कुछ सावधानियां रखनी चाहियें

सफेद खाद्य पदार्थो के सेवन से बचें👉 होलिका दहन वाले दिन टोने-टोटके के लिए सफेद खाद्य पदार्थों का उपयोग किया जाता है। इसलिए इस दिन सफेद खाद्य पदार्थों के सेवन से बचना चाहिये।

सिर को ढक कर रखें👉 उतार और टोटके का प्रयोग सिर पर जल्दी होता है, इसलिए सिर को टोपी आदि से ढके रहें।

कपड़ों का विशेष ध्यान रखें👉 टोने-टोटके में व्यक्ति के कपड़ों का प्रयोग किया जाता है, इसलिए अपने कपड़ों का ध्यान रखें।

विशेष👉 होली पर पूरे दिन अपनी जेब में काले कपड़े में बांधकर काले तिल रखें। रात को जलती होली में उन्हें डाल दें। यदि पहले से ही कोई टोटका होगा तो वह भी खत्म हो जाएगा।

होलिका दहन पूजा विधि
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हिन्दु धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार, होलिका दहन, जिसे होलिका दीपक और छोटी होली के नाम से भी जाना जाता है, को सूर्यास्त के पश्चात प्रदोष के समय, जब पूर्णिमा तिथि व्याप्त हो, करना चाहिये। होली से ठीक एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को ‘एरंड’ या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है।

पूजन करते समय आपका मुख उत्तर या पूर्व दिशा में हो। सूर्यास्त के बाद प्रदोष काल में होलिका में सही मुहर्त पर अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी जाती है। अग्नि प्रज्ज्वलित होते ही डंडे को बाहर निकाल लिया जाता है। यह डंडा भक्त प्रहलाद का प्रतीक है।

इसके पश्चात नरसिंह भगवान का स्मरण करते हुए उन्हें रोली , मौली , अक्षत , पुष्प अर्पित करें।

इसी प्रकार भक्त प्रह्लाद को स्मरण करते हुए उन्हें रोली , मौली , अक्षत , पुष्प अर्पित करें।

होलिका धहन से पहले होलिका के चारो तरफ तीन या सात परिक्रमा करे और साथ में कच्चे सूत को लपेटे।

होलिका पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

“अहकूटा भयत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम:”

इस मंत्र का उच्चारण एक माला, तीन माला या फिर पांच माला विषम संख्या के रुप में करना चाहिए।

इसके पश्चात् हाथ में असद, फूल, सुपारी, पैसा लेकर पूजन कर जल के साथ होलिका के पास छोड़ दें और अक्षत, चंदन, रोली, हल्दी, गुलाल, फूल तथा गूलरी की माला पहनाएं। विधि पंचोपचार की हो तो सबसे अच्छी है। पूजा में सप्तधान्य की पूजा की जाती है जो की गेहूं, उड़द, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर। होलिका के समय गेंहू एवं चने की नयी फसले आने लग जाती है अत: इन्हे भी पूजन में विशेष स्थान दिया जाता है।
होलिका की लपटों से इसे सेक कर घर के सदस्य खाते है और धन धन और समृधि की विनती की जाती है।

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...