संदेश

मार्च, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला

||दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला|| दुर्गा दुर्गार्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी। दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी || दुर्गतोद्धारिणी दुर्गानिहन्त्री दुर्गमापहा। दुर्गमज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला॥ दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरुपिणी। दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता॥ दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी। दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थंस्वरुपिणी॥ दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी। दुर्गमाङ्गी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्र्वरी॥ दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी। नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानवः॥ पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न संशयः॥ ॥इति दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला संपूर्णा॥

श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्

||श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्|| ईश्वर उवाच: शतनाम प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्व कमलानने। यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥१॥ ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी। आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥२॥ पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः। मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरुपा चिता चितिः॥३॥ सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरुपिणी। अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥४॥ शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा। सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी॥५॥ अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती। पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी॥६॥ अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सरसुन्दरी। वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गीमुनिपूजिता॥७॥ ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा। चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः॥८॥ विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा। बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना॥९॥ निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी। मधुकैटभहन्त्री चण्डमुण्डविनाशिनी॥१०॥ सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी। सर्वशास्त्रमयी चैव सर्वास्त्रधारिणी तथा॥११॥ अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धा

अर्चाविग्रह की पूजा विधि

अर्चाविग्रह की पूजा विधि श्रीमद् भागवत (*स्कन्ध ११ अध्याय २७*) में भगवान् कृष्ण, उद्धव के पूछने पर अर्चविग्रह की नियत तथा विशिष्ट विधि का वर्णन इस प्रकार करते हैं : भगवान् के अर्चविग्रह रूप का आठ प्रकारों में अर्थात “पत्थर, काष्ठ, धातु, मिटटी, चित्र, बालू, मन या रत्न” में प्रकट होना बतलाया गया है | समस्त जीवों के शरण रूप भगवान् का अर्चविग्रह दो प्रकारों से स्थापित किया जा सकता है, अस्थायी अथवा स्थायी रूप से | किन्तु हे उद्धव, स्थायी अर्चविग्रह का आवाहन हो चुकने पर उसका विसर्जन नही किया जा सकता | जो अर्चविग्रह अस्थायी रूप से स्थापित किया गया हो उसका आवाहन और विसर्जन विकल्प रूप में किया जा सकता है किन्तु ये दोनों अनुष्ठान तब अवश्य करने चाहिए जब अर्चविग्रह को जमीन पर अंकित किया गया हो | अर्चविग्रह को जल से स्नान कराना चाहिए यदि वह मिटटी या काष्ठ से न बनाया गया हो | ऐसा होने पर जल के बिना ही ठीक से सफाई करनी चाहिए | हे उद्धव! मनुष्य को चाहिए कि उत्तम से उत्तम साज Prabhupada_Installationसामग्री भेंट करके मेरे अर्चविग्रह रूप में मेरी पूजा करे | किन्तु भौतिक इच्छा से पूर्णतया मुक्त भक

राधा जी के सोलह नाम

ब्रह्मवैवर्त पुराण में नारद जी द्वारा राधा जी के 16 नाम बताये गये हैं! आप सभी भक्तों के दर्शनार्थ उन नामों का अर्थ इस प्रकार है - १.राधा---राधेत्येवं च संसिद्धौ राकारो दानवाचकः स्वयं निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता २. रासेश्वरी --रासेसेश्वरस्यपत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी ३. रासवासिनी -रासेसेश्वरस्य पत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी ४. रसिकेश्वरी -सर्वासां रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा प्रवदन्ति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम् ५. कृष्णप्राणाधिका-प्राणाधिका प्रेयसी सा कृष्णस्य परमात्मनः कृष्णप्राणाधिकासा च कृष्णेन परिकीर्तिता ६. कृष्णप्रिया -कृष्णास्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वास्याः प्रियः सदा सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृता ७. कृष्णस्वरूपिणी -कृष्णरूपं संनिधातुं या शक्ता चावलीलया सर्वांशैः कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी ८. कृष्ण वामाङ्ग सम्भूता -वामाङ्गार्धेन कृष्णस्य या सम्भूता परा सती कृष्ण वामाङ्ग सम्भूता तेन कृष्णेन कीर्तिता ९. परमान्दरूपिणी -परमानन्दराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती श्रुतिभिः क

युद्ध के दौरान अपने पुत्र के हाथों मारे गए थे अर्जुन, जानें रहस्य

अर्जुन महाराज पाण्डु एवं रानी कुंती के तीसरे पुत्र थे। ये महाभारत के मुख्य पात्र में से एक व द्रोणाचार्य के शिष्य थे। इनकी माता कुंती का एक नाम पृथा था, जिस कारण अर्जुन 'पार्थ' भी कहलाए। बहुत से लोगों को पता होगा कि अर्जुन की मृत्यु स्वर्ग की यात्रा के दौरान हुई थी। परंतु इसके पहले भी एक बार अर्जुन की मृत्यु हुई और वे पुनः जीवित हुए, इसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। तो आईए आज हम आपको महायोद्धा अर्जुन से जुड़ी इस पूरी कहानी के बारे में बताएं- अश्वमेध यज्ञ महाभारत युद्घ के समाप्त होने के उपरांत एक दिन महर्षि वेदव्यास जी और श्री कृष्ण के कहने पर पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ करने का विचार बनाया। शुभ मुहूर्त देखकर यज्ञ का शुभारंभ किया गया और अर्जुन को रक्षक बना कर घोड़ा छोड़ दिया। वह घोड़ा जहां भी जाता, अर्जुन उसके पीछे जाते। अनेक राजाओं ने पांडवों की अधीनता स्वीकार कर ली वहीं कुछ ने मैत्रीपूर्ण संबंधों के आधार पर पांडवों को कर देने की बात मान ली। मणिपुर का राजा था अर्जुन का पुत्र किरात, मलेच्छ व यवन आदि देशों के राजाओं द्वारा यज्ञ को घोड़े में रोकना चाहा तो अर्जुन ने उनके साथ

वाणासुर वध

ठाकुर श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के एक विवाह की कथा श्री शुकदेव जी महाराज से सुनने के पश्चात् राजा परीक्षित ने पूछा - हे मुनीश्वर! मैंने सुना है कि अनिरुद्ध जी ने बाणासुर की पुत्री ऊषा से विवाह किया था और इस सब लीला-प्रसंग में भगवान श्रीकृष्ण और शंकर जी का बहुत बड़ा घमासान युद्ध हुआ था। आप कृपा करके यह वृत्तांत भी विस्तार से सुनाइए। श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं - हे राजन! दैत्यराज बलि की कथा तो तुम सुन ही चुके हो, उन्हीं के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ था यह औरसपुत्र - बाणासुर। सदा शिवभक्ति में रत रहने वाला, अपनी बात का धनी, उदारता और बुद्धिमत्ता से भरा हुआ, अटल-प्रतिज्ञ बाणासुर का समाज में बड़ा आदर था, जो कि परम सुंदर नगरी शोणितपुर में राज्य करता था। एक बार भगवान शंकर को तांडव करते समय इसने अपनी हज़ार भुजाओं से विभिन्न प्रकार के वाद्य-यंत्र बजाकर भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक आशुतोष भगवान को प्रसन्न कर लिया और भोलेनाथ बोले - “तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो” तो बाणासुर ने कहा, ‘हे प्रभु! आप मेरे नगर की रक्षा करते हुए यहीं रहा करें।’ राजन! एक बार का प्रसंग, बाणासुर अपने बल-पौरुष के म

नवरात्रि विशेष -जरूर पढ़े

१८ मार्च २०१८ रविवार के शुभ मुहूर्त जैसे घटस्थापन, कलश-पूजन श्रीदुर्गा पूजादि करना चा‍हिए। १८ मार्च २०१८ रविवार घटता हुआ मुहूर्त समय.. ०६:२३ से ०७:४५ अवधि .. १ घण्टे २२ मिनट.. प्रतिपदा की तारीख प्रारम्भ... १७ मार्च २०१८ को १८:४१ बजे। प्रतिपदा तिथि समाप्ति १८ मार्च २०१८ को १८:३१ बजे। नवरात्रका प्रयोग प्रारम्भ करनेके पहले सुगन्धयुक्त तैलके उद्वर्तनादिसे मङ्गलस्त्रान करके नित्यकर्म करे और स्थिर शान्तिके पवित्र स्थानमें शुभ मृत्तिकाकी वेदी बनाये । उसमें जौ और गेहूँ – इन दोनोंको मिलाकर बोये । वहीं सोने, चाँदी, ताँबे या मिट्टीके कलशको यथाविधि स्थापन करके गणेशादिका पूजन और पुण्याहवाचन करे और पीछे देवी ( या देव ) के समीप शुभासनपर पूर्व या उत्तर मुख बैठकर.... “मम महामायाभगवती वा मायाधिपति भगवत प्रीतये आयुर्बलवित्तारोयसमादरादिप्राप्तये वा नवरात्रव्रतमहं करिष्ये । यह संकल्प करके मण्डलके मध्यमें रखे हु‌ए कलशपर सोने, चाँदी, धातु, पाषाण, मृत्तिका या चित्रमय मूर्ति विराजमान करे और उसका आवाहन आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्त्रान, वस्त्र, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन, ताम्बू

राधाषोडशनामस्तोत्रं

श्री नारायण उवाच राधा रासेश्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी ॥ १॥ कृष्णवामाङ्गसम्भूता परमान्दरूपिणी कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी ॥ ॥ चन्द्रावली चन्द्रकान्ता शतचन्द्रप्रभानना नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च ॥ ३॥ राधेत्येवं च संसिद्धौ राकारो दानवाचकः स्वयं  निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता ॥ ४॥ रासेसेश्वरस्य पत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी ॥ ५॥ सर्वासां  रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा प्रवदन्ति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम् ॥ ६॥ प्राणाधिका प्रेयसी सा कृष्णस्य परमात्मनः कृष्णप्राणाधिका सा च कृष्णेन परिकीर्तिता ॥ ७॥ कृष्णास्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वास्याः प्रियः सदा सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृता ॥ ८॥ कृष्णरूपं संनिधातुं या शक्ता चावलीलया सर्वांशैः कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी ॥ ९॥ वामाङ्गार्धेन कृष्णस्य या सम्भूता परा सती कृष्णवामाङ्गसम्भूता तेन कृष्णेन कीर्तिता ॥ १०॥ परमानन्दराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती श्रुतिभिः कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी ॥ ११॥ कृषिर्मोक्षार्

पापमोचनी एकादशी

महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से चैत्र (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार फाल्गुन ) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की तो वे बोले : ‘राजेन्द्र ! मैं तुम्हें इस विषय में एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे चक्रवर्ती नरेश मान्धाता के पूछने पर महर्षि लोमश ने कहा था ।’ मान्धाता ने पूछा : भगवन् ! मैं लोगों के हित की इच्छा से यह सुनना चाहता हूँ कि चैत्र मास के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है, उसकी क्या विधि है तथा उससे किस फल की प्राप्ति होती है? कृपया ये सब बातें मुझे बताइये । लोमशजी ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकाल की बात है । अप्सराओं से सेवित चैत्ररथ नामक वन में, जहाँ गन्धर्वों की कन्याएँ अपने किंकरो के साथ बाजे बजाती हुई विहार करती हैं, मंजुघोषा नामक अप्सरा मुनिवर मेघावी को मोहित करने के लिए गयी । वे महर्षि चैत्ररथ वन में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करते थे । मंजुघोषा मुनि के भय से आश्रम से एक कोस दूर ही ठहर गयी और सुन्दर ढंग से वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी । मुनिश्रेष्ठ मेघावी घूमते हुए उधर जा निकले और उस सुन्दर अप्सरा को इस प्रकार गान करते देख ब

!! वेदान्तदशश्लोकी !!

!! वेदान्तदशश्लोकी !!     ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम् | अणुम् हि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यदनन्तमाहु: ||१|| आनादिमायापरियुक्तरूपं त्वेनं विदुर्वै भगवत्प्रसादात् | मुक्तन्च बद्धं किल बद्धमुक्तं प्रभेदबाहुल्यमथापि बोध्यम् ||२|| अप्राकृतं प्राकृतरुपकञ्चं कालस्वरूपं तदचेतनं मतम् | मायाप्रधानादिपदप्रवाच्यं शुक्लादिभेदाश्च समे-अपि तत्र ||३|| स्वभावतोअपास्तसमस्तदोष—मशेषकल्याणगुनैकराशिम् | व्युहाङ्गिनम् ब्रह्म परं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलक्षेणम् हरिम् ||४|| अङ्गे तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमानामनुरूपसौभगाम् | सखिसहस्त्रै: परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम् ||५|| उपासनीयं नितरां जनैः सदा प्रहाण्येअज्ञानतमोअनुवृत्ते: | सनन्दनाद्यैर्मुनिभिस्तथोक्तं श्रीनारदयाखिलतत्वसाक्षिणे ||६||   सर्वं हि विज्ञानमतो यथार्थकंश्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुनः | ब्रह्मात्मकत्वादिति वेदविन्मतं त्रिरुपताअपि श्रुतिसुत्रसाधिता ||७|| नान्या गतिः कृष्ण पदारविन्दात संदृश्यते ब्रह्मशिवादिवन्दितात | भक्तेच्छयोपात्तसुचिन्त्यविग्रहा-चिन्त्यशक्तेरविचिन्त्यसा

इन मंत्रो का जीवन में प्रयोग अवश्य करे

रामचरितमानस की चौपाइयों में ऐसी क्षमता है कि इन चौपाइयों के जप से ही मनुष्य बड़े-से-बड़े संकट में भी मुक्त हो जाता है। इन मंत्रो का जीवन में प्रयोग अवश्य करे प्रभु श्रीराम आप के जीवन को सुखमय बना देगे। 1.रक्षा के लिए... मामभिरक्षक रघुकुल नायक | घृत वर चाप रुचिर कर सायक || 2. विपत्ति दूर करने के लिए... राजिव नयन धरे धनु सायक | भक्त विपत्ति भंजन सुखदायक || 3.सहायता के लिए... मोरे हित हरि सम नहि कोऊ | एहि अवसर सहाय सोई होऊ || 4.सब काम बनाने के लिए... वंदौ बाल रुप सोई रामू | सब सिधि सुलभ जपत जोहि नामू || 5.वश मे करने के लिए... सुमिर पवन सुत पावन नामू | अपने वश कर राखे राम || 6.संकट से बचने के लिए... दीन दयालु विरद संभारी | हरहु नाथ मम संकट भारी || 7. विघ्न विनाश के लिए... सकल विघ्न व्यापहि नहि तेही | राम सुकृपा बिलोकहि जेहि || 8.रोग विनाश के लिए... राम कृपा नाशहि सव रोगा | जो यहि भाँति बनहि संयोगा || 9.ज्वार ताप दूर करने के लिए... दैहिक दैविक भोतिक तापा | राम राज्य नहि काहुहि व्यापा || 10.दुःख नाश के लिए... राम भक्ति मणि उस बस जाके | दुःख लवलेस न सपनेहु ताके |

भारत के 29 राज्यों के नाम.. *श्री. संत तुलसीदास* के इक दोहे में समाई हुई है।

कितने आश्चर्य की बात है....   भारत के 29 राज्यों के नाम.. *श्री. संत तुलसीदास* के इक दोहे में समाई हुई है। *राम नाम जपते अत्रि मत गुसिआउ।* *पंक में उगोहमि अहि के छबि झाउ।।* ----------------------!------------------    रा - राजस्थान      ! पं- पंजाब म - महाराष्ट्र         ! क- कर्नाटक ना - नागालैंड       ! मे- मेघालय म - मणिपुर         ! उ- उत्तराखंड ज - जम्मू कश्मीर  ! गो- गोवा प - पश्चिम बंगाल   ! ह- हरियाणा ते - तेलंगाना         ! मि- मिजोरम अ - असम   !   अ- अरुणाचल प्रदेश त्रि - त्रिपुरा     ! हि- हिमाचल प्रदेश म - मध्य प्रदेश     ! के- केरल त - तमिलनाडु     ! छ- छत्तीसगढ़ गु - गुजरात         ! बि- बिहार  सि - सिक्किम     ! झा- झारखंड आ- आंध्र प्रदेश   ! उ- उड़ीसा उ - उत्तर प्रदेश    ! अत्यंत आश्चर्यजनक...👌🌺🙏🏻🌺

( नवधा भक्ति )

                   (  नवधा भक्ति ) , प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के नौ प्रकार बताए गए हैं। जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।  श्रवणम् कीर्तनं विष्णुः  स्मरणं पादसेवनम् ।  अर्चनं   वंदनं  दास्यं  साख्यमात्मनिवेदनम् ।।       श्रवण( परीक्षित ), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रहलाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।       श्रवण  :- ईश्वर की लीला, कथा महत्व शक्ति स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।  कीर्तन  :-  ईश्वर के गुण चरित्र नाम पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।   स्मरण  :-  निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उसके महत्व और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।   पादसेवन  :-  ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना।   अर्चन  :-  मन, वचन और कर्म के द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।   वंदन  :-  भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राम्हण, गुरुजन, माता- पिता

अहिल्या का उद्धार

देवी अहिल्या जिन्हे स्वयम ब्रह्म देव ने बनाया था अतः उनकी काया बहुत सुन्दर थी और उन्हें वरदान था की उनका यौवन सदा बना रहेगा ! उनकी सुंदरता के आगे स्वर्ग की अप्सराये कुछ नहीं थी ! अहिल्या ब्रह्मदेव की मानस पुत्री थी उन्होंने इसके विवाह के समय एक परीक्षा रखी की जो परीक्षा का विजेता होगा उसके साथ ही अहिल्या का विवाहोगा ! इस परीक्षा को ऋषि गौतम ने जीता और विवाह संपन्न हुआ ! अहिल्या की सुंदरता पर स्वयं इंद्र देव मोहित थे और एक दिन प्रेमवासना कामना केसाथ अहिल्या से मिलने पृथ्वी लोक आये ! इसके लिए इंद्र एवं चंद्रदेव ने एक युक्ति निकाली ! महृषि गौतम ब्रह्म काल में गंगा स्नान को जाया करते थे ! इस बात का संज्ञान लेकर दोनों ने मायावी विद्या का प्रयोग कर अर्ध रात्रि को ही मुर्गे की बांग दे दी ! इससे भ्रमित महृषि अर्धरात्रि में ही स्नानं को चल दिए ! महृषि के जाते ही इंद्रदेव ने ऋषि का मायावी रूप धारण किया और कुटिया में प्रवेश किया ! चंद्र देव बाहर पहरा देते रहे ! दूसरी तरफ ऋषि को गलत समय का आभाष हुआ तो गंगा मईया ने सारे षड्यंत्र के बारे में पोल खोल दी ! यह सुनते ही ऋषि क्रोध से भरकर कुटिया की त

राधे राधे

||श्री राधा स्तुति|| त्वं देवी जगतां माता विष्णुमाया सनातनी, . कृष्णप्राणाधिदेवि च कृष्णप्राणाधिका शुभा ||1|| कृष्णप्रेममयी शक्तिः कृष्णसौभाग्यरूपिणी . कृष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मङ्गलप्रदे .. ||2|| ||कृष्णाश्रय स्तुति|| विवेकधैर्यभक्त्यादिरहितस्य विशेषतः। पापासक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम॥ सर्वसामर्थ्यसहितः सर्वत्रैवाखिलार्थकृत्। शरणस्थमुद्धारं कृष्णं विज्ञापयाम्यहम्॥ भावार्थ : हे प्रभु! मुझमें सत्य को जानने की सामर्थ्य नहीं है, धैर्य धारण करने की शक्ति नहीं है, आप की भक्ति आदि से रहित हूँ और विशेष रूप से पाप में आसक्त मन वाले मुझ दीनहीन के लिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। हे प्रभु! आप ही सभी प्रकार से सामर्थ्यवान हैं, आप ही सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं और आप ही शरण में आये हुए जीवों का उद्धार करने वाले हैं इसलिए मैं भगवान श्रीकृष्ण की वंदना करता हूँ। ||राधा कृष्ण स्तुति|| त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या च द्रविणम त्वमेव, त्वमेव सर्वमम देव देवः।। राधा राधा कृष्ण कन्हैया जय श्री राधा |

श्री कामाख्या शक्तिपीठ

नीलांचल पर्वत के बीचो-बीच स्थित कामाख्या मंदिर गुवाहाटी से करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मंदिर प्रसिद्ध 108 शक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि पिता द्वारा किए जा रहे यज्ञ की अग्नि में कूदकर सती के आत्मदाह करने के बाद जब महादेव उनके शव को लेकर तांडव कर रहे थे, तब भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को शांत करने के लिए अपना सुदर्शन चक्र छोड़कर सती के शव के टुकड़े कर दिए थे। उस समय जहां सती की योनि और गर्भ आकर गिरे थे, आज उस स्थान पर कामाख्या मंदिर स्थित है। कामाख्या देवी की पौराणिक कथा – पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान माँ भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। यह अपने आप में, इस कलिकाल में एक अद्भुत आश्चर्य का विलक्षण नजारा है। कामाख्या तंत्र के अनुसार – “योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा। रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥” इस बारे में `राजराजेश्वरी कामाख्या रहस्य’ एवं `दस महाविद्याओं’ नामक ग्रंथ के रचयिता एवं मां कामाख्या के अनन्य भक्त ने बताया कि अ

दो ही उपाय हैं

"पूज्य श्रीराधाबाबा के दिव्य संदेश" (दो ही उपाय हैं) सच बताऊँ, दो ही उपाय हैं। तीसरा हो, तो मुझे मालूम नहीं। 1. जिस प्रकार मशीन चलती है, उसी तरह यदि जीभ से जागने से लेकर सोने तक नाम का निरन्तर उच्चारण हो, तो इतनी शीघ्रता से भगवान् के अस्तित्व में विश्वास होगा कि स्वयं चकित रह जाइयेगा। मन लगे, तब तो और भी जल्दी होगा। नहीं लगने पर भी सब उपायों की अपेक्षा इससे अत्यन्त शीघ्र यह बात हो जाएगी। 2. कोई महापुरुष सच्चा संत हो और उससे ह्रदय से प्रार्थना की जाए अथवा भगवान् के सामने ह्रदय से रोवें-नाथ ! मेरे मन में आपके अस्तित्व पर अखण्ड-अटूट विश्वास हो जाए, तो सच मानिए, अभी एक क्षण में मन की वृत्ति ऐसी आस्तिक बन जाएगी कि आपके पास रहने वाले भी आस्तिक बनने लग जाएँगे।             बस, ये दो उपाय ही मैं जानता हूँ, और प्रार्थना की सुनवाई में तो देर भी हो, किन्तु यह प्रार्थना तो भगवान या संत अवश्य, अवश्य, अवश्य सुन लेंगे। अतएव, बस प्रार्थना करते चले जाइए। "परम पूज्य श्रीराधाबाबा जी महाराज"

जानिए क्यों, भगवान शकंर ने अपने भक्त को दिया श्रीकृष्ण को मारने का वर

जानिए क्यों, भगवान शकंर ने अपने भक्त को दिया श्रीकृष्ण को मारने का वर हिंदू धर्म के अनुसार काशी को पौराणिक नगरी माना जाता है। यह विश्व के सबसे पुरानी नगरों में से एक मानी जाता है। यह नगरी विश्वभर में अपनी प्राचीनता के कारण अति प्रसिद्ध है। जगत्प्रसिद्ध यह प्राचीन नगरी गंगा के उत्तर तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीचो बीच बसी हुई है। इस कारण ही हिंदू धर्म के लोगों के लिए यह नगरी आस्था का सबसे बड़ा व आकर्षक केंद्र है। पुराणों अनुसार इस नगरी को स्वयं भगवान शंकर ने बनाया था, इस बारे में तो ज्यादातार लोगों ने सुना ही होगा। परंतु एक समय में श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से, जो उन्हें भगवान शंकर से ही वरदान के रूप में प्राप्त हुआ था। उस से सारी काशी नगरी को जलाकर राख कर दिया था। तो आईए आज हम आपको बताते है कि इसके पीछे द्वापर युग की एक प्रचलित पौराणिक कथा- पौराण‍िक कथाओं के अनुसार द्वापर युग में मगध पर राजा जरासंध का राज था। उसके आतंक के कारण उसकी समस्त प्रजा उससे डरा करती थी। राजा जरासंध की क्रूरता और असंख्य सेना कि वजह से आस-पास के सभी

तुलसी कौन थी

*तुलसी कौन थी?* तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था. वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी. एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा - स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये। सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता । फिर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है। भगवान ने जलंधर क

रुद्राभिषेक से क्या क्या लाभ मिलता है ?

   शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा। श्लोक जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै। मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा। पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।। बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना। जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवप्रिया।। घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्। तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः। प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम। केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषतः। शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्। श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!! सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह! पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।। जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै। पुत्रार्थी शर्कर

विंध्यवासिनी देवी

(((((((( विंध्यवासिनी देवी )))))))) द्वापर में भगवान श्रीविष्णु अपना पूर्णावतार श्रीकृष्ण के रूप में लेने वाले थे. उन्हें देवकी के गर्भ से उनकी आठवीं संतान के रूप में जन्म लेना था. इस कार्य में भगवान को कई असुरों का वध करना था. भगवान श्रीहरि ने देवी योगमाया से इस कार्य में सहायता मांगी. उन्होंने योगमाया को आदेश दिया कि वह गोकुल में नंदराय जी के घर में उनकी पत्नी के गर्भ में समा जाएं. फिर जब वह स्वयं देवकीजी की गर्भ से प्रकट होंगे तो योगमाया को यशोदाजी के गर्भ से प्रकट होना होगा. फिर उन्हें कंस को मानसिक रूप से पीड़ित करके विंध्य पर विराजमान होना होगा. . भगवान ने कहा- हे देवी इस कार्य में मेरी सहायता के बाद आप पृथ्वी पर अनेक रूपों में पूजित होंगी. मेरी आराधना करने वाले भक्त आपके भिन्न-भिन्न शक्ति स्वरूपों की पूजा करेंगे. आप अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली होंगी. . योगमाया ने वैसा ही किया. देवकी के साथ-साथ यशोदाजी भी गर्भवती हुईं. जिस समय देवकीजी के गर्भ से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ उसी समय यशोदाजी के गर्भ से योगमाया ने पुत्री रूप में जन्म लिया. . प्रभु के आदेश पर वसु

श्रीमद् भगवदगीता की महिमा

श्रीमद् भगवदगीता के विषय में जानने योग्य विचार गीता मे हृदयं पार्थ गीता मे सारमुत्तमम्। गीता मे ज्ञानमत्युग्रं गीता मे ज्ञानमव्ययम्।। गीता मे चोत्तमं स्थानं गीता मे परमं पदम्। गीता मे परमं गुह्यं गीता मे परमो गुरुः।। गीता मेरा हृदय है | गीता मेरा उत्तम सार है | गीता मेरा अति उग्र ज्ञान है | गीता मेरा अविनाशी ज्ञान है | गीता मेरा श्रेष्ठ निवासस्थान है | गीता मेरा परम पद है | गीता मेरा परम रहस्य है | गीता मेरा परम गुरु है | भगवान श्री कृष्ण गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।। जो अपने आप श्रीविष्णु भगवान के मुखकमल से निकली हुई है वह गीता अच्छी तरह कण्ठस्थ करना चाहिए | अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या लाभ? महर्षि व्यास गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् । नेयं सज्जनसंगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम ।। गाने योग्य गीता तो श्री गीता का और श्री विष्णुसहस्रनाम का गान है | धरने योग्य तो श्री विष्णु भगवान का ध्यान है | चित्त तो सज्जनों के संग पिरोने योग्य है और वित्त तो दीन-दुखियों को देने योग्य है | श्रीमद् आद्य शंकरा

सती जन्म तप तथा विवाह

सती जन्म तप तथा विवाह भगवान् शंकर की आज्ञा शिरोधार्य करके ब्रह्माजी ने सृष्टि का कार्य प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उन्होंने सूक्ष्मभूत, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नदी, समुद्र इत्यादि के साथ सप्तर्षियों तथा अपने मानस पुत्रों को उत्पन्न किया। तत्पश्चात अमिका एवं महादेवजीकी आज्ञा से उन्होने दक्ष और वीरिणी की सृष्टि की और उन्हें मैथुनी सृष्टि करने का आदेश किया। उन दोनों ने पहले हर्यश्व और शबलाश्व आदि नाम से सहस्रों पुत्र पैदा किये जो नारदजी के उपदेश से संन्यासी हो गये। बाद में उन्हें कल्पान्तर में साठ कन्याएँ हुईं, जिनका विवाहभृगु, शिव, मरीच आदि ऋषियों के साथ सम्पन्न हुआ। ब्रह्मा की आराधना संतुष्ट होकर परमेश्वर शम्भु की आदि शक्ति सतीदेवी ने लोकहितका कार्य सम्पादित करने के लिये दक्ष के यहाँ अवतार लिया। पुत्री का मनोहर मुख देखकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। दक्षने ब्राह्मणों तथा याचकों को दान-मान से संतुष्ट किया। भाँत-भाँति के मंगल-कृत्यों के साथ नृत्य और गान के सुन्दर आयोजन किये गये। दक्ष के महल में जैसे खुशियों का साम्राज्य ही उतर आया। देवताओंने पुष्पवर्षा की दक्ष ने अपनी उस दिव्य कन्या का ना

‘श्रीसुदर्शन-चक्र’

भगवान् विष्णु का प्रमुख आयुध है, जिसके माहात्म्य की कथाएँ पुराणों में स्थान-स्थान पर दिखाई देती है। ‘मत्स्य-पुराण’ के अनुसार एक दिन दिवाकर भगवान् ने विश्वकर्मा जी से निवेदन किया कि‘कृपया मेरे प्रखर तेज को कुछ कम कर दें,क्योंकि अत्यधिक उग्र तेज के कारण प्रायः सभी प्राणी सन्तप्त हो जाते हैं।’ विश्वकर्मा जी ने सूर्य को ‘चक्र-भूमि’ पर चढ़ा कर उनका तेज कम कर दिया। उस समय सूर्य से निकले हुए तेज-पुञ्जों को ब्रह्माजी ने एकत्रित कर भगवान् विष्णु के‘सुदर्शन-चक्र’ के रुप में, भगवान् शिव के ‘त्रिशूल′-रुप में तथा इन्द्र के ‘वज्र’ के रुप में परिणत कर दिया। ‘पद्म-पुराण’ के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के तेज से युक्त ‘सुदर्शन-चक्र’ को भगवान् शिव ने श्रीकृष्ण को दिया था। ‘वामन-पुराण’ के अनुसार भी इस कथा की पुष्टि होती है। ‘शिव-पुराण’ के अनुसार ‘खाण्डव-वन’ को जलाने के लिए भगवान् शंकर ने श्रीकृष्ण को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। इसके सम्मुख इन्द्र की शक्ति भी व्यर्थ थी। ‘वामन-पुराण’ के अनुसार दामासुर नामक भयंकर असुर को मारने के लिए भगवान् शंकर ने विष्णु को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। बताया है

मर्यादा के रक्षक श्रीराम ने आखिर बाली का वध पीछे से क्याें किया ?

मर्यादा के रक्षक श्रीराम ने आखिर बाली का वध पीछे से क्याें किया ? श्री राम के द्वारा बाली के वध की कथा रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में मिलती है। यह एक विवादित प्रश्न रहा है कि मर्यादा के रक्षक श्रीराम ने बाली का वध पीछे से क्याें किया। तुलसीदासजी नेे एक चौपाई- धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं। के जरिए इस प्रश्न काेे उठाया हैै यानी बाली नेे मरते वक्त पूछा कि हे राम आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया, लेकिन मुझे शिकारी की तरह छुपकर क्याें मारा। इसका उत्तर अगली चाैपाई में रामजी देते हैं। अनुज बधू भगिनी सुत नारी।सुनु सठ कन्या सम ए चारी। इन्हहि कुदृष्टि बिलाकइ जोई। ताहि बंधें कुछ पाप न होई। यानी रामजी बोले अरे मूर्ख सुन। छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्र की पत्नी और बेटी ये चारों समान हैं। इनको जो बुरी दृष्टि से देखता है उसे मारने में कोई पाप नहीं है। रामायण के अनुसार बाली ने सुग्रीव को न केवल राज्य से निकाला था, बल्कि उसकी पत्नी भी छीन लिया था। भगवान का क्रोध इसलिए था कि जो व्यक्ति स्त्री का सम्मान नहीं करता उसे सामने से मारने या छुपकर मारने में कोई अंतर नहीं

होलिका पर्व विशेष

पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई है इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है होलिका और प्रह्लाद की है। विष्णु पुराण की एक कथा के अनुसार प्रह्लाद के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने तपस्या कर देवताओं से यह वरदान प्राप्त कर लिया कि वह न तो पृथ्वी पर मरेगा न आकाश में, न दिन में मरेगा न रात में, न घर में मरेगा न बाहर, न अस्त्र से मरेगा न शस्त्र से, न मानव से मारेगा न पशु से। इस वरदान को प्राप्त करने के बाद वह स्वयं को अमर समझ कर नास्तिक और निरंकुश हो गया। उसने अपनी प्रजा को यह आदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति ईश्वर की वंदना न करे। अहंकार में आकर उसने जनता पर जुल्म करने आरम्भ कर दिए… यहाँ तक कि उसने लोगो को परमात्मा की जगह अपना नाम जपने का हुकम दे दिया। कुछ समय बाद हिरण्यकश्यप के घर में एक बेटे का जन्म हुआ. उसका नाम प्रह्लाद रखा गया प्रह्लाद कुछ बड़ा हुआ तो, उसको पाठशाला में पढने के लिए भेजा गया पाठशाला के गुरु ने प्रह्लाद को हिरण्यकश्यप का नाम जपने की शिक्षा दी पर प्रह्लाद हिरण्यकश्यप के स्थान पर भगवान विष्णु का नाम जपता था वह भगवान विष्णु को हिरण्यकश्यप से बड़ा समझता था। गुरु ने प्रह्लाद की हिरण्यकश्यप स