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राधाषोडशनामस्तोत्रं

श्री नारायण उवाच
राधा रासेश्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी
कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी ॥ १॥
कृष्णवामाङ्गसम्भूता परमान्दरूपिणी
कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी ॥ ॥
चन्द्रावली चन्द्रकान्ता शतचन्द्रप्रभानना
नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च ॥ ३॥
राधेत्येवं च संसिद्धौ राकारो दानवाचकः
स्वयं  निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता ॥ ४॥
रासेसेश्वरस्य पत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता
रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी ॥ ५॥
सर्वासां  रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा
प्रवदन्ति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम् ॥ ६॥
प्राणाधिका प्रेयसी सा कृष्णस्य परमात्मनः
कृष्णप्राणाधिका सा च कृष्णेन परिकीर्तिता ॥ ७॥
कृष्णास्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वास्याः प्रियः सदा
सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृता ॥ ८॥
कृष्णरूपं संनिधातुं या शक्ता चावलीलया
सर्वांशैः कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी ॥ ९॥
वामाङ्गार्धेन कृष्णस्य या सम्भूता परा सती
कृष्णवामाङ्गसम्भूता तेन कृष्णेन कीर्तिता ॥ १०॥
परमानन्दराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती
श्रुतिभिः कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी ॥ ११॥
कृषिर्मोक्षार्थवचनो न एतोत्कृष्टवाचकः
आकारो  दातृवचनस्तेन कृष्णा प्रकीर्तिता ॥ १२॥
अस्ति वृन्दावनं यस्यास्तेन वृन्दावनी स्मृता
वृन्दावनस्याधिदेवी तेन वाथ प्रकीर्तिता ॥ १३॥
सङ्घःसखीनां वृन्दः स्यादकारोऽप्यस्तिवाचकः
सखिवृन्दोऽस्ति यस्याश्च सा वृन्दा परिकीर्तिता ॥ १४॥
वन्दावने विनोदश्च सोऽस्या ह्यस्ति च तत्र वै
वेदा वदन्ति तां तेन वृन्दावनविनोदिनीम् ॥ १५॥
नखचन्द्रावली वक्त्रचन्द्रोऽस्ति यत्र संततम्
तेन चन्द्रवली सा च कृष्णेन परिकीर्तिता ॥ १६॥
कान्तिरस्ति चन्द्रतुल्या सदा यस्या दिवानिशम्
सा चन्द्रकान्ता हर्षेण हरिणा परिकीर्तिता ॥ १७॥
शरच्चन्द्रप्रभा यस्स्याश्चाननेऽस्ति दिवानिशम्
मुनिना कीर्तीता तेन शरच्चन्द्रप्रभानना ॥ १८॥
इदं षोडशनामोक्तमर्थव्याख्यानसंयुतम्
नारायणेन यद्दत्तं ब्रह्मणे नाभिपङ्कजे॥
ब्रह्मणा च पुरा दत्तं धर्माय जनकाय मे ॥ १९॥
धर्मेण कृपया दत्तं मह्यमादित्यपर्वणि
पुष्करे च महातीर्थे पुण्याहे देवसंसदि॥
राधाप्रभावप्रस्तावे सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ २०॥
इदं स्तोत्रं महापुण्यं तुभ्यं दत्तं मया मुने
निन्दकायावैष्णवाय न दातव्यं महामुने ॥ २१॥
यावज्जीवमिदं स्तोत्रं त्रिसंध्यं  यः पठेन्नरः
राधामाधवयोः पादपद्मे भक्तिर्भवेदिह ॥ २२॥
अन्ते लभेत्तयोर्दास्यं शश्वत्सहचरो भवेत्
अणिमादिकसिधिं च सम्प्राप्य नित्यविग्रहम् ॥ २३॥
तदानोपवाऐश्च सर्वर्नियमपूर्वकैः
चतुर्णां चैव वेदानां पाठैः  सर्वार्थसंयुतैः ॥ २४॥
सर्वेषां यज्ञतीर्थानां करणैर्विधिवोधितः
प्रदक्षिणेन भुमेश्च कृत्स्नाया एव सप्तधा ॥ २५॥
शरणागतरक्षायामज्ञानां ज्ञानदानतः
देवानां वैष्णवानां च दर्शनेनापि यत् फलम् ॥ २६॥
तदेव स्तोत्रपाठस्य कलां नार्हति षोडशीम्
स्तोत्रस्यास्य प्रभावेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ २७॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे श्रीनारायणकृतं राधाषोडशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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