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!! वेदान्तदशश्लोकी !!

!! वेदान्तदशश्लोकी !!


   

ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम् |
अणुम् हि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यदनन्तमाहु: ||१||

आनादिमायापरियुक्तरूपं त्वेनं विदुर्वै भगवत्प्रसादात् |
मुक्तन्च बद्धं किल बद्धमुक्तं प्रभेदबाहुल्यमथापि बोध्यम् ||२||


अप्राकृतं प्राकृतरुपकञ्चं कालस्वरूपं तदचेतनं मतम् |
मायाप्रधानादिपदप्रवाच्यं शुक्लादिभेदाश्च समे-अपि तत्र ||३||

स्वभावतोअपास्तसमस्तदोष—मशेषकल्याणगुनैकराशिम् |
व्युहाङ्गिनम् ब्रह्म परं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलक्षेणम् हरिम् ||४||

अङ्गे तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमानामनुरूपसौभगाम् |
सखिसहस्त्रै: परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम् ||५||

उपासनीयं नितरां जनैः सदा प्रहाण्येअज्ञानतमोअनुवृत्ते: |
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिस्तथोक्तं श्रीनारदयाखिलतत्वसाक्षिणे ||६||
 
सर्वं हि विज्ञानमतो यथार्थकंश्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुनः |
ब्रह्मात्मकत्वादिति वेदविन्मतं त्रिरुपताअपि श्रुतिसुत्रसाधिता ||७||

नान्या गतिः कृष्ण पदारविन्दात संदृश्यते ब्रह्मशिवादिवन्दितात |
भक्तेच्छयोपात्तसुचिन्त्यविग्रहा-चिन्त्यशक्तेरविचिन्त्यसाशयात ||८||

कृपास्य दैन्यदियुजि प्रजायते यया भवेत्प्रेमविशेषलक्षणा |
भक्तिर्हानन्याधिपतेर्महात्मन: सा चोत्तमा साधनरूपिकापरा ||९||

उपास्य रूपं तादुपासकस्य च कृपाफलं भक्तिरसस्ततः परम् |
विरोधिनो रुपमथैतदाप्ते  ज्ञेर्या इमेअर्था अपि पञ्चसाधुभिः ||१०||

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