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अहिल्या का उद्धार

देवी अहिल्या जिन्हे स्वयम ब्रह्म देव ने बनाया था अतः उनकी काया बहुत सुन्दर थी और उन्हें वरदान था की उनका यौवन सदा बना रहेगा ! उनकी सुंदरता के आगे स्वर्ग की अप्सराये कुछ नहीं थी ! अहिल्या ब्रह्मदेव की मानस पुत्री थी उन्होंने इसके विवाह के समय एक परीक्षा रखी की जो परीक्षा का विजेता होगा उसके साथ ही अहिल्या का विवाहोगा ! इस परीक्षा को ऋषि गौतम ने जीता और विवाह संपन्न हुआ !
अहिल्या की सुंदरता पर स्वयं इंद्र देव मोहित थे और एक दिन प्रेमवासना कामना केसाथ अहिल्या से मिलने पृथ्वी लोक आये ! इसके लिए इंद्र एवं चंद्रदेव ने एक युक्ति निकाली ! महृषि गौतम ब्रह्म काल में गंगा स्नान को जाया करते थे ! इस बात का संज्ञान लेकर दोनों ने मायावी विद्या का प्रयोग कर अर्ध रात्रि को ही मुर्गे की बांग दे दी ! इससे भ्रमित महृषि अर्धरात्रि में ही स्नानं को चल दिए !
महृषि के जाते ही इंद्रदेव ने ऋषि का मायावी रूप धारण किया और कुटिया में प्रवेश किया ! चंद्र देव बाहर पहरा देते रहे !
दूसरी तरफ ऋषि को गलत समय का आभाष हुआ तो गंगा मईया ने सारे षड्यंत्र के बारे में पोल खोल दी ! यह सुनते ही ऋषि क्रोध से भरकर कुटिया की तरफ भागे और उन्होंने चंद्र देव को पहरा देते देखा ! उन्होंने चंद्र देव को श्राप दिया की तुझ पर हमेशा " राहु " की कुदृष्टि रहेगी और उन्होंने अपना कमंडल मारा जिससे चंद्रदेव पर दाग दीखते है !
इधर इंद्र को भी महृषि के आने का आभास हो गया और वह भागने लगा ! ऋषि ने उसे "नपुंसक " होने एवं अखंड भाग होने का श्राप दिया ! इस कारण से ना ही इंद्र की पूजा होती है और ना सम्मान प्राप्त होता है !
भागते हुए इंद्र को देख देवी अहल्या को अपने ठगे जाने का अहसास हुआ ! परन्तु अनहोनी हो चुकी थी ! ( एक अन्य कथा के अनुसार देवी अहल्या इंद्र के मायावी रूप को पहचान गई थी पर अपनी सुंदरता के अभिमान में देवराज का प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया था !) महृषि गौतम अत्यंत क्रोधित थे इस कारण से उन्होंने उसे "शिला" ( जड़ यानि संवेदनहीन) होने का श्राप दिया ! क्रोध शांत होने पर ऋषि को एहसास हुआ की इस घटनाक्रम में देवी अहल्या की उतनी बड़ी गलती नहीं है जितना बड़ा श्राप दे दिया है ! तब उन्होंने श्राप को वापिस ना लेकर उससे मुक्ति हेतु शिला को कहा की जब कोई दिव्यात्मा तुम्हे छुएगी तब तुम्हारा उद्धार हो जाएगा !
त्रेता युग में भगवान् राम ऋषि विश्वामित्र के साथ उस निर्जन वन से जा रहे थे तो प्रभु राम की नजर उस कुटिया पर पड़ी ! मनुष्य रूप में अवतार लिए हुए प्रभु राम ने ऋषि से उस सुनसान भव्य ऋषि कुटिया के बारे में पूछा तो ऋषि ने सारा वृतांत सुनाते हुए कहा ये कुटिया आपकी ही प्रतीक्षा में है ! जाओ और देवी अहल्या को उसके मूल रूप में वापिस लाओ ! प्रभु ने अपने चरणों की धुल के साथ उस शिला को छुआ ! देवी अहल्या फिर से अपने मूल रूप में आगयी और प्रभु के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद स्वरुप अपने पति का प्रेम पुनः प्राप्त करने की याचना की ! प्रभु ने "तथास्तु " कहते हुए कहा की ऋषि भी स्वयं दुखी है अतः तुम्हे फिर से उनका प्रेम प्राप्त होगा !
विशेष ,,,,,, इस कहानी से मेरे मत से अनेक शिक्षाएं मिलती है की अगले जन्मो के लिए प्रारब्ध ( भाग्य ) में संचित दुःख ये है !
१. परायी स्त्री के साथ कुकर्म करने वाले को कर्म फल के सिद्धांत के अनुसार " नपुंसक " होने का श्राप लगता है !
२. स्त्री को संवेदन हीन होने का श्राप लगता है !
३. सहयता करने वाले को ( चन्द्रमा ) भय सताता है , इसीलिए तो चन्द्रमा राहु से भय खाता  है !
अतः अपनी इन्द्रयों को नियंत्रण में रखो ! इसके लिए गौ माता की शरण में जाओ जिसके दूध में १२ आदित्य एवं ११ रूद्र है जो आपके चरित्र की रक्षा करने में सक्षम है ! फलाहार भी आपको ब्रह्मचर्य के पालन में सहायक होगा !
" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है ! अतः ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त " दिव्यदृष्टि " या दूरदृष्टि का अधिकारी नहीं बन सकता एवं अनेको दिव्य सिद्धियों एवं निधियों को प्राप्त नहीं कर पाता या खो देता है !

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