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सती जन्म तप तथा विवाह

सती जन्म तप तथा विवाह


भगवान् शंकर की आज्ञा शिरोधार्य करके ब्रह्माजी ने सृष्टि का कार्य प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उन्होंने सूक्ष्मभूत, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नदी, समुद्र इत्यादि के साथ सप्तर्षियों तथा अपने मानस पुत्रों को उत्पन्न किया। तत्पश्चात अमिका एवं महादेवजीकी आज्ञा से उन्होने दक्ष और वीरिणी की सृष्टि की और उन्हें मैथुनी सृष्टि करने का आदेश किया। उन दोनों ने पहले हर्यश्व और शबलाश्व आदि नाम से सहस्रों पुत्र पैदा किये जो नारदजी के उपदेश से संन्यासी हो गये। बाद में उन्हें कल्पान्तर में साठ कन्याएँ हुईं, जिनका विवाहभृगु, शिव, मरीच आदि ऋषियों के साथ सम्पन्न हुआ।
ब्रह्मा की आराधना संतुष्ट होकर परमेश्वर शम्भु की आदि शक्ति सतीदेवी ने लोकहितका कार्य सम्पादित करने के लिये दक्ष के यहाँ अवतार लिया। पुत्री का मनोहर मुख देखकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई।
दक्षने ब्राह्मणों तथा याचकों को दान-मान से संतुष्ट किया। भाँत-भाँति के मंगल-कृत्यों के साथ नृत्य और गान के सुन्दर आयोजन किये गये। दक्ष के महल में जैसे खुशियों का साम्राज्य ही उतर आया। देवताओंने पुष्पवर्षा की दक्ष ने अपनी उस दिव्य कन्या का नाम ‘उमा’ रखा। परमेश्वर शिव की अभिन्न स्वरूपा होने के कारण वे बाल्यवस्था से ही उनके ध्यानमें निमग्न रहा करती थीं।
एक दिन देवर्षि नारद और पितामह ब्रह्माजी उस अद्भुत बालिका के दर्शन की इच्छा से दक्ष के यहाँ आये। ब्रह्माजी ने भगवती सती से कहा—‘जो केवल तुम्हें ही चाहते हैं और तुम्हारे मनमें भी जिनको पति रूप में प्राप्त करने की अभिलाषा है, उन्हीं महादेवजी की तुम्हें तपस्या करनी चाहिये।’ ऐसा कहकर ब्रह्माजी देवर्षि नारद के साथ अपने लोक को चले गये।
युवावस्था में प्रवेश करते ही भगवती सती अपनी माता वीरणी से अनुमति लेकर महेश्वर शिव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिये कठोर तपस्या करने लगीं। तपस्या करती हुई सती मूर्तिमती सिद्धि के समान दिखलायी देती थीं। भाँति-भाँति के उपचारों द्वारा महेश्वर की साधना में वे इस तरह लीन हो गयीं कि उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रही।
भगवान् विष्णु के साथ सभी देवताओं ने कैलास पहुँचकर भगवान् शिवसे कहा—‘महेश्वर ! महातेजस्विनी सती आपको पतिरूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप कर रही हैं। हमलोगों की प्रार्थना है कि आप उन्हें पत्नीस्वरूप स्वीकार करें।’
देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान् महादेव सती के समक्ष प्रकट हो गये। उनकी अंग कान्ति करोड़ों कामदेवों को लज्जित कर रही थी। भगवती सती ने सौन्दर्य के धाम महेश्वर शिवकी वन्दना की। उस समय उनका मुख नारीसुलभ लज्जा के कारण झुका हुआ था।
महादेवजी ने कहा—‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाली सती ! मैं तुमपर परम प्रसन्न हूँ। इसलिए तुम इच्छानुसार वर माँगो। शुभे ! तुम्हारा कल्याण हो।’
सती बोलीं—‘प्रभो ! यदि आप मुझपर सचमुच प्रसन्न हैं तो वैवाहिक विधि से मेरा पाणिग्रहण कर मुझ दासी को कृतार्थ करें।’ ‘ऐसा ही होगा’ कहकर परमेश्वर शिव अन्तर्धान हो गये।
तदनन्तर शुभ लग्न और मुहूर्त मे प्रजापति दक्ष ने हर्षपूर्वक अपनी पुत्री का हाथ भगवान् शंकर के हाथों में दे दिया। महेश्वर शिव को अपनी कन्या प्रदान करके दक्ष कृतार्थ हो गये। समस्त देवताओं और ऋषि-मुनियों के आनन्दकी सीमा न रही। विवाहोपरान्त दक्ष से विदा लेकर शिवा के साथ महादेव कैलास लौट आये। समस्त संसार सती और शिव के इस दिव्य मिलन से आनन्दित हो गया।

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