रविवार, 27 जनवरी 2019

पीपल पूजन से पहले रखें सावधानी

पीपल पूजन से पहले रखें सावधानी, अनजाने में पाप के भागीदार तो नहीं बन रहे?
हमारे शास्त्रों के अनुसार कल्पवृक्ष के नीचे खड़े होकर जिस वस्तु की भी कामना की जाती है वह अवश्य पूरी हो जाती है। कलियुग में लोगों के लिए कल्पवृक्ष तो सुलभ नहीं है परंतु सर्वदेवमय वृक्ष पीपल (अश्वत्थ) पर सच्चे भाव से संकल्प लेकर नियमित रूप से जल चढ़ाने, पूजा एवं अर्चना करने से मनुष्य वह सब कुछ सरलता से पा सकता है जिसे पाने की उसकी इच्छा हो।
इसीलिए पीपल को कलियुग का कल्पवृक्ष माना जाता है। पीपल एकमात्र पवित्र देववृक्ष है जिसमें सभी देवताओं के साथ ही पितरों का भी वास रहता है।

श्रीमद्भगवदगीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि ‘अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम, मूलतो ब्रहमरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे, अग्रत: शिवरूपाय अश्वत्थाय नमो नम:’ अर्थात मैं वृक्षों में पीपल हूं।

पीपल के मूल में ब्रह्मा जी, मध्य में विष्णु जी तथा अग्र भाग में भगवान शिव जी साक्षात रूप से विराजित हैं। स्कंदपुराण के अनुसार पीपल के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में भगवान श्री हरि और फलों में सभी देवताओं का वास है।
भारतीय जन जीवन में वनस्पतियों और वृक्षों में भी देवत्व की अवधारणा की गई है और धार्मिक दृष्टि से पीपल को देवता मान कर पूजन किया जाता है। किसी भी धार्मिक कार्य को पूर्ण करने के लिए पीपल पर जल चढ़ाने की परम्परा है क्योंकि पूजन के समय सभी देवताओं की पूजा पीपल पर जल चढ़ाने से ही पूर्ण होती है और हवन यज्ञ के माध्यम से वनस्पतियों को प्रफुल्लित करने की कामना भी की जाती है। पीपल को जल से सींचने से सभी पापों का जहां नाश हो जाता है वहीं पितर भी प्रसन्न होकर जीव पर कृपा करते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि से पीपल : विश्व भर के सभी वृक्ष दिन में आक्सीजन छोड़ते हैं तथा कार्बनडाइआक्साईड ग्रहण करते हैं और रात को सभी वृक्ष कार्बन-डाइआक्साईड छोड़ते हैं तथा आक्सीजन लेते हैं, इसी कारण यह धारणा है कि रात को कभी भी पेड़ों के निकट नहीं सोना चाहिए।
वैज्ञानिकों के अनुसार पीपल का पेड़ ही एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो कभी कार्बन डाईआक्साइड नहीं छोड़ता वह रात दिन के 24 घंटों में सदा ही आक्सीजन छोड़ता है इसलिए यह मानव उपकारी वृक्ष है।

क्या है पुण्यफल : पीपल के पेड़ का सिंचन, पूजन और परिक्रमा करने से जहां जीव की सभी कामनाओं की पूर्ति होती है वहीं शत्रुओं का नाश भी होता है। यह सुख सम्पत्ति, धन-धान्य, ऐश्वर्य, संतान सुख तथा सौभाग्य प्रदान करने वाला है। इसकी पूजा करने से ग्रह पीड़ा, पितरदोष, काल सर्प योग, विष योग तथा अन्य ग्रहों से उत्पन्न दोषों का निवारण हो जाता है।

अमावस्या और शनिवार को पीपल के पेड़ के नीचे हनुमान जी की पूजा-अर्चना करते हुए हनुमान चालीसा का पाठ करने से कष्ट निवृत्ति होती है। प्रात: काल नियम से पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर जप, तप एवं प्रभु नाम का सिमरण करने से जीव को शारीरिक एवं मानसिक लाभ प्राप्त होता है।
पीपल के पेड़ के नीचे वैसे तो प्रतिदिन सरसों के तेल का दीपक जलाना उत्तम कर्म है परंतु यदि किसी कारणवश ऐसा संभव न हो तो शनिवार की रात को पीपल की जड़ के पास दीपक जरूर जलाएं क्योंकि इससे घर में सुख समृद्धि और खुशहाली आती है, कारोबार में सफलता मिलती है, रुके हुए काम बनने लगते हैं।

तांबे के लोटे में जल भरकर भगवान विष्णु जी के अष्टभुज रूप का स्मरण करते हुए पीपल की जड़ में जल चढ़ाना चाहिए। वृक्ष की पांच परिक्रमाएं नियम से करनी चाहिएं। जो लोग पीपल के वृक्ष का रोपण करते हैं उनके पितृ नरक से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
क्या न करें :  शास्त्रानुसार शनिवार को पीपल पर लक्ष्मी जी का वास माना जाता है तथा उस दिन जल चढ़ाना जहां श्रेष्ठ है वहीं रविवार को पीपल पर जल चढ़ाना निषेध है। शास्त्रों के अनुसार रविवार को पीपल पर जल चढ़ाने से जीव दरिद्रता को प्राप्त करते हैं।

पीपल के वृक्ष को कभी काटना नहीं चाहिए। ऐसा करने से पितरों को कष्ट मिलते हैं तथा वंशवृद्धि की हानि होती है। किसी विशेष प्रयोजन से विधिवत नियमानुसार पूजन करने तथा यज्ञादि पवित्र कार्यों के लक्ष्य से पीपल की लकड़ी काटने पर दोष नहीं लगता।

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

हिदु धर्म और पीपल

!!! हिदु धर्म और पीपल !!!


पीपल को वृक्षों का राजा कहते है। इसकी वंदना में एक श्लोक देखिए:-

मूलम् ब्रह्मा, त्वचा विष्णु,
सखा शंकरमेवच ।
पत्रे-पत्रेका सर्वदेवानाम,
वृक्षराज नमोस्तुते ।।

हिदु धर्म में पीपल के पेड़ का बहुत महत्व माना गया है। शास्त्रों के अनुसार इस वृक्ष में सभी देवी-देवताओं और हमारे पितरों का वास भी माना गया है।

पीपल वस्तुत: भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप ही है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है की वृक्षों में मैं पीपल हूँ।

पुराणो में उल्लेखित है कि,

मूलतः ब्रह्म रूपाय मध्यतो विष्णु रुपिणः।
अग्रतः शिव रुपाय अश्वत्त्थाय नमो नमः।।

अर्थात्, इसके मूल में भगवान ब्रह्म, मध्य में भगवान श्री विष्णु तथा अग्रभाग में भगवान शिव का वास होता है।

शास्त्रों के अनुसार पीपल की विधि पूर्वक पूजा-अर्चना करने से समस्त देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं।

कहते है पीपल से बड़ा मित्र कोई भी नहीं है, जब आपके सभी रास्ते बंद हो जाएँ, आप चारो ओर से अपने को परेशानियों से घिरा हुआ समझे, आपकी परछांई भी आपका साथ ना दे, हर काम बिगड़ रहे हो तो,

आप पीपल के शरण में चले जाएँ, उनकी पूजा अर्चना करे , उनसे मदद की याचना करें, नि:संदेह कुछ ही समय में आपके घोर से घोर कष्ट दूर जो जायेंगे।

धर्म शास्त्रों के अनुसार हर व्यक्ति को जीवन में पीपल का पेड़ अवश्य ही लगाना चाहिए । पीपल का पौधा लगाने वाले व्यक्ति को जीवन में किसी भी प्रकार संकट नहीं रहता है।

पीपल का पौधा लगाने के बाद उसे रविवार को छोड़कर नियमित रूप से जल भी अवश्य ही अर्पित करना चाहिए।

जैसे-जैसे यह वृक्ष बढ़ेगा आपके घर में सुख-समृद्धि भी बढ़ती जाएगी।  पीपल का पेड़ लगाने के बाद बड़े होने तक इसका पूरा ध्यान भी अवश्य ही रखना चाहिए, लेकिन ध्यान रहे कि, पीपल को आप अपने घर से दूर लगाएं, घर पर पीपल की छाया भी नहीं पड़नी चाहिए।

मान्यता है कि, यदि कोई व्यक्ति पीपल के वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित करता है तो उसके जीवन से बड़ी से बड़ी परेशानियां भी दूर हो जाती है।

पीपल के नीचे शिवलिंग स्थापित करके उसकी नित्य पूजा भी अवश्य ही करनी चाहिए। इस उपाय से जातक को सभी भौतिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति होती है।

सावन मास की अमवस्या की समाप्ति और सावन के सभी शनिवार को पीपल की विधि पूर्वक पूजा करके इसके नीचे भगवान हनुमान जी की पूजा अर्चना / आराधना करने से घोर से घोर संकट भी दूर हो जाते है।

यदि पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर रविवार को छोड़कर नित्य हनुमान चालीसा का पाठ किया जाए तो यह चमत्कारी फल प्रदान करने वाला उपाय है।

पीपल के नीचे बैठकर पीपल के ११ पत्ते तोड़ें और उन पर चन्दन से भगवान श्रीराम का नाम लिखें। फिर इन पत्तों की माला बनाकर उसे प्रभु हनुमानजी को अर्पित करें, सारे संकटो से रक्षा होगी।

*** पीपल के चमत्कारी उपाय !

शास्त्रानुसार प्रत्येक पूर्णिमा पर प्रातः १० बजे पीपल वृक्ष पर मां लक्ष्मी का फेरा लगता है।

इसलिए जो व्यक्ति आर्थिक रूप से मजबूत होना चाहते है वो, इस समय पीपल के वृक्ष पर फल, फूल, मिष्ठान चढ़ाते हुए धूप अगरबती जलाकर मां लक्ष्मी की उपासना करें, और माता लक्ष्मी के किसी भी मंत्र की एक माला भी जपे ।

इससे जातक को अपने किये गए कार्यों के सर्वश्रेष्ठ फल मिलते है और वह धीरे धीरे आर्थिक रूप से सक्षम हो जाता है ।

पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त है कि, जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उस पर लक्ष्मी की अपार कृपा रहेगी और उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा।

व्यापार में वृद्धि हेतु प्रत्येक शनिवार को एक पीपल का पत्ता लेकर उस पर चन्दन से स्वस्तिक बना कर उसे अपने व्यापारिक स्थल की अपनी गद्दी / बैठने के स्थान के नीचे रखे । इसे हर शनिवार को बदल कर अलग रखते रहे ।

ऐसा ७ शनिवार तक लगातार करें फिर ८ वें शनिवार को इन सभी पत्तों को किसी सुनसान जगह पर डाल दें और मन ही मन अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए प्रार्थना करते रहे, शीघ्र पीपल की कृपा से आपके व्यापार में बरकत होनी शुरू हो जाएगी ।

जो मनुष्य पीपल के वृक्ष को देखकर प्रणाम करता है, उसकी आयु बढ़ती है | जो इसके नीचे बैठकर धर्म-कर्म करता है, उसका कार्य पूर्ण हो जाता है।

*** पीपल के वृक्ष को काटना !

जो मूर्ख मनुष्य पीपल के वृक्ष को काटता है, उसे इससे होने वाले पाप से छूटने का कोई उपाय नहीं है। (पद्म पुराण, खंड ७ अ १२)

हर रविवार पीपल के नीचे देवताओं का वास न होकर दरिद्रा का वास होता है। अत: इस दिन पीपल की पूजा वर्जित मानी जाती है

यदि पीपल के वृक्ष को काटना बहुत जरूरी हो तो उसे रविवार को ही काटा जा सकता है।

*** शनि दोष में पीपल !

शनि की साढ़ेसाती और ढय्या के बुरे प्रभावों को दूर कर, शुभ प्रभावों को प्राप्त करने के लिए हर जातक को प्रति शनिवार को पीपल की पूजा करना श्रेष्ठ उपाय है।

यदि रोज (रविवार को छोड़कर) पीपल पर पश्चिममुखी होकर जल चढ़ाया जाए तो शनि दोष की शांति होती है l

शनिवार की सुबह गुड़, मिश्रित जल चढ़ाकर, धूप अगरबत्ती जलाकर उसकी सात परिक्रमा करनी चाहिए, एवं संध्या के समय पीपल के वृक्ष के नीचे कड़वे तेल का दीपक भी अवश्य ही जलाना चाहिए। इस नियम का पालन करने से पीपल की अदृश्य शक्तियां उस जातक की सदैव मदद करती है।

ब्रह्म पुराण' के ११८ वें अध्याय में शनिदेव कहते हैं-

'मेरे दिन अर्थात् शनिवार को जो मनुष्य नियमित रूप से पीपल के वृक्ष का स्पर्श करेंगे, उनके सब कार्य सिद्ध होंगे तथा  उन्हें ग्रहजन्य पीड़ा नहीं होगी।'

शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष का दोनों हाथों से स्पर्श करते हुए 'ॐ नमः शिवाय।' का १०८ बार जप करने से दुःख, कठिनाई एवं ग्रहदोषों का प्रभाव शांत हो जाता है।

हर शनिवार को पीपल की जड़ में जल चढ़ाने और दीपक जलाने से अनेक प्रकार के कष्टों का निवारण होता है ।

*** ग्रहों के दोषों में पीपल !

ज्योतिष शास्त्र में पीपल से जुड़े हुए कई आसान किन्तु अचूक उपाय बताए गए हैं, जो हमारे समस्त ग्रहों के दोषों को दूर करते हैं। जो किसी भी राशि के लोग आसानी से कर सकते हैं। इन उपायों को करने के लिए हमको अपनी किसी ज्योतिष से कुंडली का अध्ययन करवाने की भी आवश्यकता नहीं है।

पीपल का पेड़ रोपने और उसकी सेवा करने से पितृ दोष में कमी होती है । शास्त्रों के अनुसार पीपल के पेड़ की सेवा मात्र से ही न केवल पितृ दोष वरन जीवन के सभी परेशानियाँ स्वत: कम होती जाती है

पीपल में प्रतिदिन (रविवार को छोड़कर) जल अर्पित करने से कुंडली के समस्त अशुभ ग्रह योगों का प्रभाव समाप्त हो जाता है। पीपल की परिक्रमा से कालसर्प जैसे ग्रह योग के बुरे प्रभावों से भी छुटकारा मिल जाता है। (पद्म पुराण)

*** असाध्य रोगो में पीपल !

पीपल की सेवा से असाध्य से असाध्य रोगो में भी चमत्कारी लाभ होता देखा गया है ।

यदि कोई व्यक्ति किसी भी रोग से ग्रसित है, वह नित्य पीपल की सेवा करके अपने बाएं हाथ से उसकी जड़ छूकर उनसे अपने रोगो को दूर करने की प्रार्थना करें तो जातक के रोग शीघ्र ही दूर होते है। उस पर दवाइयों का जल्दी / तेज असर होता है ।

यदि किसी बीमार व्यक्ति का रोग ठीक ना हो रहा हो तो उसके तकिये के नीचे पीपल की जड़ रखने से बीमारी जल्दी ठीक होती है ।

नि:संतान दंपती संतान प्राप्ति हेतु पीपल के एक पत्ते को प्रतिदिन सुबह लगभग एक घंटे पानी में रखे, बाद में उस पत्ते को पानी से निकालकर किसी पेड़ के नीचे रख दें और पति पत्नी उस जल का सेवन करें तो शीघ्र संतान प्राप्त होती है ।

ऐसा लगभग २-३ माह तक लगातार करना चाहिए |

                              

गुरुवार, 24 जनवरी 2019

नरक

गरुड़ पुराण में वर्णन है 36 नर्क का, जानिए किसमें कैसे दी जाती है सजा
हिंदू धर्म ग्रंथों में लिखी अनेक कथाओं में स्वर्ग और नर्क के बारे में बताया गया है। पुराणों के अनुसार स्वर्ग वह स्थान होता है जहां देवता रहते हैं और अच्छे कर्म करने वाले इंसान की आत्मा को भी वहां स्थान मिलता है, इसके विपरीत बुरे काम करने वाले लोगों को नर्क भेजा जाता है, जहां उन्हें सजा के तौर पर गर्म तेल में तला जाता है और अंगारों पर सुलाया जाता है।
यह भी पढ़े- गरुड़ पुराण- इन 5 कामों से कम होती है उम्र
हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों में 36 तरह के मुख्य नर्कों का वर्णन किया गया है। अलग-अलग कर्मों के लिए इन नर्कों में सजा का प्रावधान भी माना गया है। गरूड़ पुराण, अग्रिपुराण, कठोपनिषद जैसे प्रामाणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। आज हम आपको उन नर्कों के बारे में संक्षिप्त रूप से बता रहे हैं-
1. महावीचि- यह नर्क पूरी तरह रक्त यानी खून से भरा है और इसमें लोहे के बड़े-बड़े कांटे हैं। जो लोग गाय की हत्या करते हैं, उन्हें इस नर्क में यातना भुगतनी पड़ती है।
2. कुंभीपाक- इस नर्क की जमीन गरम बालू और अंगारों से भरी है। जो लोग किसी की भूमि हड़पते हैं या ब्राह्मण की हत्या करते हैं। उन्हें इस नर्क में आना पड़ता है।
3. रौरव- यहां लोहे के जलते हुए तीर होते हैं। जो लोग झूठी गवाही देते हैं उन्हें इन तीरों से बींधा जाता है।
4. मंजूष- यह जलते हुए लोहे जैसी धरती वाला नर्क है। यहां उनको सजा मिलती है, जो दूसरों को निरपराध बंदी बनाते हैं या कैद में रखते हैं।
5. अप्रतिष्ठ- यह पीब, मूत्र और उल्टी से भरा नर्क है। यहां वे लोग यातना पाते हैं, जो ब्राह्मणों को पीड़ा देते हैं या सताते हैं।
6. विलेपक- यह लाख की आग से जलने वाला नर्क है। यहां उन ब्राह्मणों को जलाया जाता है, जो शराब पीते हैं।
7. महाप्रभ- इस नर्क में एक बहुत बड़ा लोहे का नुकीला तीर है। जो लोग पति-पत्नी में फूट डालते हैं, पति-पत्नी के रिश्ते तुड़वाते हैं वे यहां इस तीर में पिरोए जाते हैं।
8. जयंती- यहां जीवात्माओं को लोहे की बड़ी चट्टान के नीचे दबाकर सजा दी जाती है। जो लोग पराई औरतों के साथ संभोग करते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।
9. शाल्मलि- यह जलते हुए कांटों से भरा नर्क है। जो औरत कई पुरुषों से संभोग करती है व जो व्यक्ति हमेशा झूठ व कड़वा बोलता है, दूसरों के धन और स्त्री पर नजर डालता है। पुत्रवधू, पुत्री, बहन आदि से शारीरिक संबंध बनाता है व वृद्ध की हत्या करता है, ऐसे लोगों को यहां लाया जाता है।
10. महारौरव- इस नर्क में चारों तरफ आग ही आग होती है। जैसे किसी भट्टी में होती है। जो लोग दूसरों के घर, खेत, खलिहान या गोदाम में आग लगाते हैं, उन्हें यहां जलाया जाता है।
11. तामिस्र- इस नर्क में लोहे की पट्टियों और मुग्दरों से पिटाई की जाती है। यहां चोरों को यातना मिलती है।
12. महातामिस्र- इस नर्क में जौंके भरी हुई हैं, जो इंसान का रक्त चूसती हैं। माता, पिता और मित्र की हत्या करने वाले को इस नर्क में जाना पड़ता है।
13. असिपत्रवन- यह नर्क एक जंगल की तरह है, जिसके पेड़ों पर पत्तों की जगह तीखी तलवारें और खड्ग हैं। मित्रों से दगा करने वाला इंसान इस नर्क में गिराया जाता है।
14. करम्भ बालुका- यह नर्क एक कुएं की तरह है, जिसमें गर्म बालू रेत और अंगारे भरे हुए हैं। जो लोग दूसरे जीवों को जलाते हैं, वे इस कुएं में गिराए जाते हैं।
15. काकोल- यह पीब और कीड़ों से भरा नर्क है। जो लोग छुप-छुप कर अकेले ही मिठाई खाते हैं, दूसरों को नहीं देते, वे इस नर्क में लाए जाते हैं।
16. कुड्मल- यह मूत्र, पीब और विष्ठा (उल्टी) से भरा है। जो लोग दैनिक जीवन में पंचयज्ञों ( ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्य यज्ञ) का अनुष्ठान नहीं करते वे इस नर्क में आते हैं।
17. महाभीम- यह नर्क बदबूदार मांस और रक्त से भरा है। जो लोग ऐसी चीजें खाते हैं, जिनका शास्त्रों ने निषेध बताया है, वो लोग इस नर्क में गिरते हैं।
18. महावट- इस नर्क में मुर्दे और कीड़े भरे हैं, जो लोग अपनी लड़कियों को बेचते हैं, वे यहां लाए जाते हैं।
19. तिलपाक- यहां दूसरों को सताने, पीड़ा देने वाले लोगों को तिल की तरह पेरा जाता है। जैसे तिल का तेल निकाला जाता है, ठीक उसी तरह।
20. तैलपाक- इस नर्क में खौलता हुआ तेल भरा है। जो लोग मित्रों या शरणागतों की हत्या करते हैं, वे यहां इस तेल में तले जाते हैं।
21. वज्रकपाट- यहां वज्रों की पूरी श्रंखला बनी है। जो लोग दूध बेचने का व्यवसाय करते हैं, वे यहां प्रताड़ना पाते हैं।
22. निरुच्छवास- इस नर्क में अंधेरा है, यहां वायु नहीं होती। जो लोग दिए जा रहे दान में विघ्न डालते हैं वे यहां फेंके जाते हैं।
23. अंगारोपच्य- यह नर्क अंगारों से भरा है। जो लोग दान देने का वादा करके भी दान देने से मुकर जाते हैं। वे यहां जलाए जाते हैं।
24. महापायी- यह नर्क हर तरह की गंदगी से भरा है। हमेशा असत्य बोलने वाले यहां औंधे मुंह गिराए जाते हैं।
25. महाज्वाल- इस नर्क में हर तरफ आग है। जो लोग हमेशा ही पाप में लगे रहते हैं वे इसमें जलाए जाते हैं।
26. गुड़पाक- यहां चारों ओर गरम गुड़ के कुंड हैं। जो लोग समाज में वर्ण संकरता फैलाते हैं, वे इस गुड़ में पकाए जाते हैं।
27. क्रकच- इस नर्क में तीखे आरे लगे हैं। जो लोग ऐसी महिलाओं से संभोग करते हैं, जिसके लिए शास्त्रों ने निषेध किया है, वे लोग इन्हीं आरों से चीरे जाते हैं।
28. क्षुरधार- यह नर्क तीखे उस्तरों से भरा है। ब्राह्मणों की भूमि हड़पने वाले यहां काटे जाते हैं।
29. अम्बरीष- यहां प्रलय अग्रि के समान आग जलती है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, वे इस आग में जलाए जाते हैं।
30. वज्रकुठार- यह नर्क वज्रों से भरा है। जो लोग पेड़ काटते हैं वे यहां लंबे समय तक वज्रों से पीटे जाते हैं।
31. परिताप- यह नर्क भी आग से जल रहा है। जो लोग दूसरों को जहर देते हैं या मधु (शहद) की चोरी करते हैं, वे यहां जलाए जाते हैं।
32. काल सूत्र- यह वज्र के समान सूत से बना है। जो लोग दूसरों की खेती नष्ट करते हैं। वे यहां सजा पाते हैं।
33. कश्मल- यह नर्क नाक और मुंह की गंदगी से भरा होता है। जो लोग मांसाहार में ज्यादा रुचि रखते हैं, वे यहां गिराए जाते हैं।
34. उग्रगंध- यह लार, मूत्र, विष्ठा और अन्य गंदगियों से भरा नर्क है। जो लोग पितरों को पिंडदान नहीं करते, वे यहां लाए जाते हैं।
35. दुर्धर- यह नर्क जौक और बिच्छुओं से भरा है। सूदखोर और ब्याज का धंधा करने वाले इस नर्क में भेजे जाते हैं।
36. वज्रमहापीड- यहां लोहे के भारी वज्र से मारा जाता है। जो लोग सोने की चोरी करते हैं, किसी प्राणी की हत्या कर उसे खाते हैं, दूसरों के आसन, शय्या और वस्त्र चुराते हैं, जो दूसरों के फल चुराते हैं, धर्म को नहीं मानते ऐसे सारे लोग यहां लाए जाते हैं।
नमः शिवाय

बुधवार, 23 जनवरी 2019

माघ स्नान का महत्व

.                       "माघ स्नान माहात्म्य"


          'पद्म पुराण' के उत्तर खण्ड में माघ मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि व्रत, दान व तपस्या से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी माघ मास में ब्राह्ममुहूर्त में उठकर स्नानमात्र से होती है।

               व्रतैर्दानस्तपोभिश्च  न  तथा  प्रीयते  हरिः।
               माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशवः।।

          अतः सभी पापों से मुक्ति व भगवान की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ-स्नान व्रत करना चाहिए। इसका प्रारम्भ पौष की पूर्णिमा से होता है।
          माघ मास की ऐसी विशेषता है कि इसमें जहाँ कहीं भी जल हो, वह गंगाजल के समान होता है। इस मास की प्रत्येक तिथि पर्व हैं। कदाचित् अशक्तावस्था में पूरे मास का नियम न ले सकें तो शास्त्रों ने यह भी व्यवस्था की है तीन दिन अथवा एक दिन अवश्य माघ-स्नान व्रत का पालन करें। इस मास में स्नान, दान, उपवास और भगवत्पूजा अत्यन्त फलदायी है।
          माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी 'षटतिला एकादशी' के नाम से जानी जाती है। इस दिन काले तिल तथा काली गाय के दान का भी बड़ा माहात्म्य है।
1. तिल मिश्रित जल से स्नान, 2. तिल का उबटन, 3. तिल से हवन, 4. तिलमिश्रित जल का पान व तर्पण, 5. तिलमिश्रित भोजन, 6. तिल का दान। ये छः कर्म पाप का नाश करने वाले हैं।
          माघ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या 'मौनी अमावस्या' के रूप में प्रसिद्ध है। इस पवित्र तिथि पर मौन रहकर अथवा मुनियों के समान आचरणपूर्वक स्नान दान करने का विशेष महत्त्व है।
          अमावस्या के दिन (04 फरवरी) सोमवार का योग होने पर उस दिन देवताओं को भी दुर्लभ हो ऐसा पुण्यकाल होता है, क्योंकि गंगा, पुष्कर एवं दिव्य अंतरिक्ष और भूमि के जो सब तीर्थ हैं, वे 'सोमवती (दर्श) अमावस्या' के दिन के जप, ध्यान, पूजन करने पर विशेष धर्मलाभ प्रदान करते हैं।
          मंगलवारी चतुर्थी, रविवारी सप्तमी, बुधवारी अष्टमी, सोमवारी अमावस्या, ये चार तिथियाँ सूर्यग्रहण के बराबर कही गयी हैं। इनमें किया गया स्नान, दान व श्राद्ध अक्षय होता है।
          माघ शुक्ल पंचमी अर्थात् 'वसंत पंचमी' को माँ सरस्वती का आविर्भाव-दिवस माना जाता है। इस दिन (10 फरवरी) प्रातः सरस्वती-पूजन करना चाहिए। पुस्तक और लेखनी (कलम) में भी देवी सरस्वती का निवास स्थान माना जाता है, अतः उनकी भी पूजा की जाती है।
          शुक्ल पक्ष की सप्तमी को 'अचला सप्तमी' कहते हैं। षष्ठी के दिन एक बार भोजन करके सप्तमी (12 फऱवरी) को सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से पापनाश, रूप, सुख-सौभाग्य और सदगति प्राप्त होती है।
          ऐसे तो माघ की प्रत्येक तिथि पुण्यपर्व है, तथापि उनमें भी माघी पूर्णिमा का धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है। इस दिन (19 फरवरी) स्नानादि से निवृत्त होकर भगवत्पूजन, श्राद्ध तथा दान करने का विशेष फल है। जो इस दिन भगवान शिव की विधिपूर्वक पूजा करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर भगवान विष्णु के लोक में प्रतिष्ठित होता है।
          माघी पूर्णिमा के दिन तिल, सूती कपड़े, कम्बल, रत्न, पगड़ी, जूते आदि का अपने वैभव के अनुसार दान करके मनुष्य स्वर्गलोक में सुखी होता है। 'मत्स्य पुराण' के अनुसार इस दिन जो व्यक्ति 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' का दान करता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है

यज्ञ - पात्र

यज्ञ-पात्र

(श्री पं. दौलत राम जी गौड़, वेदाचार्य, बनारस)
श्रौत-स्मार्त यज्ञों में विविध प्रयोजनों के लिये विभिन्न यज्ञ पात्रों की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार कुँड मंडप आदि को विधि पूर्वक निर्धारित माप के अनुसार बनाया जाता है, उसी प्रकार इन यज्ञ पात्रों को निश्चित वृक्षों के काष्ठ से, निर्धारित माप एवं आकार का बनाया जाता है। विधि पूर्वक बने यज्ञ पात्रों का होना यज्ञ की सफलता के लिये आवश्यक है। नीचे कुछ यज्ञ पात्रों का परिचय दिया जा रहा है। इनका उपयोग विभिन्न यज्ञों में, विभिन्न शाखाओं एवं सूत्र-ग्रन्थों के आधार पर दिया जाता है।

1.अन्तर्धानकट:—वारण काष्ठ का आधा अंगुल मोटा, बारह अंगुल का अर्द्ध चन्द्राकार पात्र। गार्हपत्य कुण्ड के ऊपर पत्नी संयाज के समय देव पत्नियों को आढ़ करने के लिए इसका उपयोग होता है।

2. पशु-रशना:—तीन मुख वाली बारह हाथ की पशु बाँधने की रस्सी।

3. मयूख:—गूलर का एक अंगुल मोटा, बारह अंगुल का वत्स-बन्धन के लिये शकु मयूख होता है।

4. वसा हवनी:—पाक भाण्ड स्थित स्नेह-वसा हवन करने का जूहू सदृश घाऊ का स्रुक।

5. वेद:—दर्शपूर्णमासादि में 50 कुशाओं से रचित वेणी सदृश कुशमुष्टि।

6. कर्पूर:—चातुर्मास्यादि यज्ञ में बड़े गर्त्तवाला धान भूँजने का पात्र।

7. अनुष्टुव्धि:—जुहू सदृश पीपल का स्रुक।

8. विष्टुति:—उद्गाता द्वारा साम मन्त्रों की गिनती के लिये, नीचे चतुरस्र ऊपर गोल, दश अंगुल की शलाका।

9. पूर्ण पात्र:—दर्शादि इष्टि में यजमान के मुख धोने के लिये जल रखने की स्मार्त प्रोक्षणी।

10. शराव:—पायस रखने के लिए मृत्तिका का बड़े मुख एवं छोटे गर्त्त वाला पात्र।

11. उशकट:—सोम को रखने के लिए वारण काष्ठ का ढाई हाथ लम्बा त्रिकोण, डेढ़ हाथ चौड़ा दो हाथ ऊँचा शकट, जिसमें एक हाथ ऊँचे दो चक्र हों।

12. परिप्लवा:—कलश से सोमरस निकालने वाला काष्ठ का बना स्रुक, दस अंगुल लंबा हंसमुख सदृश नालीदार पाँच अंगुल गोलाई में बना हुआ।

13. पशुकुम्भी:—पशु श्रवण के लिये तैजस पात्र।

14. मुसल:—खैर काष्ठ का बना, मध्य में कुछ मोटा दस अंगुल का मूसल।

15. ऋतुग्रह पात्र:—काष्मरी या पीपल का बना प्रोक्षणी पात्र जिसमें हंसमुख सदृश नलिका होती हैं।

16. आज्यस्थाली:—घृत गर्म करने का मृण्मय पात्र

17. उपवेष:—अंगारों को दूर करने के लिये वारण काष्ठ का बना हाथ के सदृश पाँच अँगुल बना हुआ दण्ड।

18. स्थाली:—सोमरस रखने की सरामयी थाली।

19. इडापात्री:— ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु, अग्नीत् और यजमान के भाग रखा जाने वाला पात्र।

20. मेक्षण:—चरू इष्टि में इससे चरू का ग्रहण और होम होता है।

21. पृषदाज्य ग्रहणी:—पीपल का स्रुक, जिससे दधि मिश्रित घी ग्रहण किया जाता है।

22. प्रचरणी:—सोम यान में वैकंगत काष्ठ का बना जुहू सदृश स्रुक जिसका होम करने में उपयोग होता है।

23. परशु:—खदिर काष्ठ का बना हुआ परशु।

24. अग्निहोत्र हवणी:—श्रौत अग्निहोत्र में वंक काष्ठ का बना, जुहू के सदृश बाहुमात्र लंबा स्रुक।

25. अभ्रि:—वारण काष्ठ की बनी नुकीली अभ्रि का वेदी खनन में उपयोग होता है।

26. दोहन पात्र:—वैकंकत का प्रणाली रहित सदंड प्रोक्षणी पात्र सदृश आकार होता है।

27. दर्वी:—दंड सहित कलछी ही दर्वी है।

28. अधिषवण-फलक:—वारण काष्ठ के बने सोमलता कूटने का एक हाथ लम्बा, बारह अंगुल चौड़ा दो काष्ठ फलक होते हैं।

29. असिद:—कुशा काटने के लिये खैर का छुरा।

30. अन्वाहार्य पात्र:—दर्शपूर्ण-मास में, ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु और अग्नीघ्र को दक्षिणा में दिया जाने वाला ओदन जिस पात्र में पकाया जाता है।

31—ग्रावा:- पत्थर का बना सोलह अंगुल का मूसल, जिससे सोम लता कूटी जाती है।

32—उपभृत:- पीपल की जुहू सदृश स्रुक उपभृत होती है।

33—उत्पवन पात्र:- प्रोक्षणी पात्र सदृश होता है।

34—उपाँश सवन:- उपाँश नामक सोमलता को जिस पाषाण से कूटा जाता है।

35—उलूखल:- पलास,खैर, धारण का जानु प्रमाण ऊखल।

36—एक धन:- सोमरस को बढ़ाने वाले जल।

37—मूरशल:- वारण, पलास, खैर का दश अंगुल का मूरशल।

38—जुहू:- श्रौत कर्म में जिस स्रुक से हवन किया जाता है।

39—चमस:- चौकोर प्रणीता पात्र सदृश सोमरस को रखने, होम करने, और पानी के लिये चमस होते हैं। से दस भाँति के होते हैं।

40—यजमानाभिषेकासन्दी:- वाजपेय यज्ञ में यजमान को बैठने के लिये मूञ्ज की बिनी हुई एक हाथ लम्बी चौड़ी चतुष्कोण:- लघु खाट।

41—यूपरशना:- आठ हाथ लम्बी दूनी कुश की रस्सी, यूप में लपेटने के लिये यूपरशना होती है।

42—शृतावदान:- पितृ यज्ञ में पक्व पुरोडाश तोड़ने के लिये विकंकत-काष्ठ का होता है।

43—वूते भृत:- सोम रस धारण करने वाले स्वर्ण या मृण्मय-कलश।

44—पुरोडाश पात्री:- वारण काष्ठ की पुरोडाश के स्थान में प्रयुक्त होने वाली पात्री।

45—पिन्वन:- वारण का स्रुक मुख सदृश बना बिना दंड का पात्र।

46—पान्तेजन कलश:- पशु अंगों को प्रक्षालन करने का जल जिस कलश में रखा जाता है।

47—परिशास:- कलछी मुख के सदृश महावीर पात्र को पकड़ने लायक गूलर के बने पात्र।

48—सन्नहन:- इध्म और वर्हि बाँधने के लिये कुशा की वेण्याकार गूँथी रस्सी।

49—होतृ सदन:- वरना काष्ठ की बनी होता के बैठने की पीठ।

50—सोमासन्दी:- गूलरकी बनी चार पाँवों वाली मुञ्ज की रस्सी से बीनी हुई सोम रखने के लिए बनी आसन्दी

51—सोम पर्याणहन:- वस्त्र से बन्धे सोम को ढाँकने का वस्त्र।

52—संभरणी:- वारण काष्ठ का बना सोम रखने का कटोरा।

53—शंकु:- गूलर का दश अंगुल लम्बा अग्निष्टोमादि यज्ञ में दीक्षिता पत्नी के कन्डूवनादि में उपयुक्त होने वाला।

54—उदत्रवन:- सोम याग में अम्भृण पात्रों से जल निकालने के लिये मिट्टी का पात्र (पुरवा)

55—उपयमनी:- उदुम्बर की दो हाथ लम्बी, स्रुकी के मुख से दूने मुख की, जुहू सदृश स्रुक।

56—इध्म:- पलाश की एक हाथ लम्बी, सीधी, सुन्दर त्वचा सहित,एक शाखा वाली समिधा।

57—वर्हि:- असंस्कृत तथा असंख्यात कुशा।

58—सम्भरण पात्र:- वाजपेय यज्ञ में हवन किये जाने वाले सत्रह प्रकार के अन्नों को जिस पात्र में रखा जाता है।

59—वाजिन भाण्ड:- फटे दूध के द्रव भाग (वाजिन) को जिस भाण्ड में रखा जाता है।

60—उपसर्जनी पात्र:- यजमान के लिये गार्हपत्य अग्नि में जल को इस पात्र में गर्म किया जाता है।

61—रौहिणकपाल:- मृत्तिका का वना पकाया पात्र जो रौहिणक पुरोडाश पकाने के लिये बनाया जाता है।

62—योक्त्र:- दर्शपूर्ण मासादि यज्ञ में यजमान पत्नी के कटि प्रदेश में बाँधने के लिये तीन लड़ी, मुञ्ज की बनी वेणी सदृश रस्सी।

63—उद्गात्रासन्दी:- गवामयन यज्ञ में उद्गाता बैठने के एक हाथ लम्बी चौड़ी मुञ्ज से बिनी भीढ।

64—विघन:- पीपल का एक हाथ का शंकु।

65—विकंकत शकल:- विकंकत काष्ठ की दश अँगुल समिधा।

66—दंड:- सोमयाग में यजमान तथा मैत्रावरुण के लिये मुख तक लम्बाई का गूलर का बना दंड।

67—दधि धर्म:- प्रर्ग्वयमें दस अंगुल का दधि को ग्रहण तथा हवन के लिये गूलर का बना पात्र।

68—दारुपात्री:- कात्यायनों की इड़ापात्री।

69—धवित्:- मृगचर्म से बना पंखा।

70—धृष्टि—अंगार-भस्मादि हटाने के लिये विकेकत काष्ठ का बना पात्र।

71—कृष्ण विषाणा-कृष्ण मृग का शृंग।

72—वाजिनचमस-फटे दूध के द्रव भाग को रखने का प्रणीता सदृश पात्र।

73—गलप्राही- ताँबा या पीतल की एक हाथ की संड़सी।

74—स्रुक-विकंकत काष्ठ का बना बाहु प्रमाण लंबा हवन करने का हंसमुख सदृश चोंचदार पात्र।

75—यूप-खैर का बना लंबा शंकु। इसकी लंबाई भिन्न भिन्न यज्ञों में भिन्न भिन्न रखी जाती है।

76—ग्रह-विकंकत काष्ठ का बना उलूखल सदृश सोमरस तथा होमोपयोगी वस्तु रखने का पात्र।

77—स्फ्य-अग्रवेदी को खोदने रेखा करने के लिये एक हाथ लंबा चार अँगुल चौड़ा खैर काष्ठ का वज्र-दंड।

78—स्रुक—होम करने के लिये खैर काण्ड का बना गोल छिद्र संयुक्त एक हाथ लंबा पात्र।

79—ऋतु पात्र ग्रह कार्ष्मय:—पीपल के प्रोक्षणी पात्र सदृश दोनों तरफ हंसमुख सदृश सोमरस ग्रहण करने का पात्र।

80—प्रोक्षणधानी:- जुहू के सदृश बना स्रुक।

81—शूल—वारण काष्ठ का बना, अभ्रि सदृश शूल होता है।

82—प्राशिब्रहरण:- ब्रह्मा को हुत शेव, इस चार अँगुल लम्बे चौड़े वारण काष्ठ से बने चौकोर पात्र द्वारा दिया जाता है।

83—निश्रेणी:- वाजपेय यज्ञ में सत्रह हाथ यूप से ऊपर जाने के लिये धारण काष्ठ से बनी सीढ़ी।

84—नेत्र:- सन और गौपुच्छ के बालों से बनाई गयी चार हाथ की तीन लड़ वाली गूँथी हुई वेणी।

85—निदान:—सोमयाग में गौ तथा बछड़े को बाँधने के लिये बनी रस्सी।

86—चात्र उपमन्थ:- अरणि मन्थन के लिये आठ अँगुल का बना काष्ठ शंकु।

87—वषाल:- सोमयाग में पलास का दश अँगुल लम्बा एक अँगुल गोल-आर पार छिद्र वाला पात्र विशेष।

88—शम्या:- दर्शपूर्ण मासादि में सिल लोटी के कुट्टन आदि में प्रयुक्त होने वाला पात्र विशेष।

89—षडवत्तपात्र:- अग्नीघ्र ऋत्विक् को भाग देने के लिये वारण काष्ठ का बना एक विशेष प्रकार का पात्र।

90—सगर्त्तपुरोडाशपात्री:- सर्वहुत पुरोडाश के स्थापन और होमादि में प्रयुक्त होने वाला पात्र।

91—स्वरु:- पशुलला स्पर्श एवं होमादि में प्रयुक्त होने वाला दश अँगुल का खड्गाकार पात्र।

92—स्थूण:- गौ बाँधने के लिये बनी खूँटी।

93—सोमोपनहन:- सोमलता बाँधे जाने वाले दौहरे चौहरे वस्त्र।

94—दृषत उपला:- पुरोडाश के पोषण में प्रयुक्त होने वाले दश अँगुल लम्बे आठ अँगुल चौड़े पाषाण।

95—करम्भ पात्री:- दक्षिणाग्नि में पक्व सत्तु तथा दधि रखने का छोटे छोटे गोल पात्र।

96—पञ्चविलापात्री:- कृष्ण यजुर्वेदियों के काम आने वाला पात्र विशेष।

97—पिशीलक:- चातुर्मासान्तर्गत गृहमेधि में उपयोग होने वाला पायस रखने का धातु का बड़े मुख वाला पात्र।

98—परिवेचन घट:- आपस्तम्ब के लिये आधवनीय सदृश कलश।

99—त्रिविला पात्री:- वारण काष्ठ से बना एक विशिष्ट भाँति का बना पात्र।

100—दशा पवित्र:- जीवित भेड़ के ऊनों से बना सोमरस छानने के लिये बना हुआ छन्ना।

101—कूर्च:- सायं-प्रातः अग्निहोत्र के समय स्रुक रखने का वारण काष्ठ से बना पात्र विशेष।

102—ओबिली:- मन्थन दण्ड को दबाने के लिये खैर काष्ठ का बना उपमन्थ।

103-समित्:—पलासादि की दश अँगुल लम्बी सुन्दर अविशाखा लकड़ी।

104-महावीर:—सोमयाग में दीपक रखने के लिये मृत्तिका से बना एक विशिष्ट पात्र।

105—मेखला-यजमान के कटि प्रदेश में बाँधने के लिये चार हाथ की मुञ्ज से वेणी सदृश गुँथी रस्सी।

106—तानूनस्र चमस:- इष्टि के अनन्तर सोलहों ऋत्विक् जिस घृत का स्पर्श कर परस्पर अद्रोह की शपथ लेते हैं उस घी को रखने का पात्र।

107—धर्मासन्दी:- धर्म सम्बन्धी सभी पात्रों को रखने के लिये तीन हाथ ऊँचा गूलर का बना आसन विशेष।

108-ध्रवा—करण काष्ठ का बना जुहू के सदृश बाहुप्रमाण स्रुक, जो यज्ञ के अन्त तक रखी जाती है।

रविवार, 20 जनवरी 2019

इंक्यावन शक्तिपीठ

इक्यावन शक्तिपीठ की  पौराणिक कथा 


हिन्दू धर्म के अनुसार जहां सती देवी के शरीर के अंग गिरे वहां वहां शक्तिपीठ बना। यह अत्यन्त पावन तीर्थ कहलाए। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं।पुराणों के अनुसार सती के शव के विभिन्न अंगों से बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ था।

दक्ष प्रजापति ने कनखल हरिद्वार में 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया। लेकिन जान बूझकर अपने दामाद भगवान् शंकर को नहीं बुलाया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी यज्ञ में भाग लेने गईं।

यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती ने यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर के आदेश पर उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए इधर-उधर घूमने लगे। तदनंतर जहाँ सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहाँ बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिए घोर तपस्या कर शिवजी को पुन: पति रूप में प्राप्त किया।

इक्यावन शक्ति पीठों का संक्षिप्त विवरण,,,,

1. किरीट शक्तिपीठ :- किरीट शक्तिपीठ, पश्चिम बंगाल के हुगली नदी के तट लालबाग कोट पर स्थित है। यहां सती माता का किरीट यानी शिराभूषण या मुकुट गिरा था। यहां की शक्ति विमला अथवा भुवनेश्वरी तथा भैरव संवर्त हैं।
(शक्ति का मतलब माता का वह रूप जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है )

2. कात्यायनी शक्तिपीठ :- वृन्दावन, मथुरा के भूतेश्वर में स्थित है कात्यायनी वृन्दावन शक्तिपीठ जहां सती का केशपाश गिरा था। यहां की शक्ति देवी कात्यायनी हैं तथा भैरव भूतेश है।

3. करवीर शक्तिपीठ :- महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का त्रिनेत्र गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव क्रोधशिश हैं। यहां महालक्ष्मी का निज निवास माना जाता है।

4. श्री पर्वत शक्तिपीठ :- इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतान्तर है कुछ विद्वानों का मानना है कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ का मानना है कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती का दक्षिण तल्प यानी कनपटी गिरा था। यहां की शक्ति श्री सुन्दरी एवं भैरव सुन्दरानन्द हैं।

5. विशालाक्षी शक्तिपीठ :- उत्तर प्रदेश, वाराणसी के मीरघाट पर स्थित है शक्तिपीठ जहां माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहां की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं।

6. गोदावरी तट शक्तिपीठ :- आंध्रप्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का वामगण्ड यानी बायां कपोल गिरा था। यहां की शक्ति विश्वेश्वरी या रुक्मणी तथा भैरव दण्डपाणि हैं।

7. शुचीन्द्रम शक्तिपीठ :- तमिलनाडु, कन्याकुमारी के त्रिासागर संगम स्थल पर स्थित है यह शुची शक्तिपीठ, जहां सती के उफध्र्वदन्त (मतान्तर से पृष्ठ भागद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति नारायणी तथा भैरव संहार या संकूर हैं।

8. पंच सागर शक्तिपीठ :- इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है लेकिन यहां माता का नीचे के दान्त गिरे थे। यहां की शक्ति वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं।

9. ज्वालामुखी शक्तिपीठ :- हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां सती का जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा व भैरव उन्मत्त हैं।

10. भैरव पर्वत शक्तिपीठ :- इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतदभेद है। कुछ गुजरात के गिरिनार के निकट भैरव पर्वत को तो कुछ मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षीप्रा नदी तट पर वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं, जहां माता का उफध्र्व ओष्ठ गिरा है। यहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण हैं।

11. अट्टहास शक्तिपीठ :- अट्टहास शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। जहां माता का अध्रोष्ठ यानी नीचे का होंठ गिरा था। यहां की शक्ति पफुल्लरा तथा भैरव विश्वेश हैं।

12. जनस्थान शक्तिपीठ :- महाराष्ट्र नासिक के पंचवटी में स्थित है जनस्थान शक्तिपीठ जहां माता का ठुड्डी गिरी थी। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव विकृताक्ष हैं।

13. कश्मीर शक्तिपीठ या अमरनाथ शक्तिपीठ:- जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ में स्थित है यह शक्तिपीठ जहां माता का कण्ठ गिरा था। यहां की शक्ति महामाया तथा भैरव त्रिसंध्येश्वर हैं।

14. नन्दीपुर शक्तिपीठ :- पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है यह पीठ, जहां देवी की देह का कण्ठहार गिरा था। यहां कि शक्ति निन्दनी और भैरव निन्दकेश्वर हैं।

15. श्री शैल शक्तिपीठ :- आंध्रप्रदेश के कुर्नूल के पास है श्री शैल का शक्तिपीठ, जहां माता का ग्रीवा गिरा था। यहां की शक्ति महालक्ष्मी तथा भैरव संवरानन्द अथव ईश्वरानन्द हैं।

16. नलहटी शक्तिपीठ:- पश्चिम बंगाल के बोलपुर में है नलहटी शक्तिपीठ, जहां माता का उदरनली गिरी थी। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव योगीश हैं।

17. मिथिला शक्तिपीठ :- इसका निश्चित स्थान अज्ञात है। स्थान को लेकर मन्तारतर है तीन स्थानों पर मिथिला शक्तिपीठ को माना जाता है, वह है नेपाल के जनकपुर, बिहार के समस्तीपुर और सहरसा, जहां माता का वाम स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति उमा या महादेवी तथा भैरव महोदर हैं।

18. रत्नावली शक्तिपीठ :- इसका निश्चित स्थान अज्ञात है, बंगाज पंजिका के अनुसार यह तमिलनाडु के चेन्नई में कहीं स्थित है रत्नावली शक्तिपीठ जहां माता का दक्षिण स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति कुमारी तथा भैरव शिव हैं।
19. अम्बाजी शक्तिपीठ :- गुजरात गूना गढ़ के गिरनार पर्वत के शिखर पर देवी अम्बिका का भव्य विशाल मन्दिर है, जहां माता का उदर गिरा था। यहां की शक्ति चन्द्रभागा तथा भैरव वक्रतुण्ड है। ऐसी भी मान्यता है कि गिरिनार पर्वत के निकट ही सती का उध्र्वोष्ठ गिरा था, जहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण है।

20. जालंध्र शक्तिपीठ:- पंजाब के जालंध्र में स्थित है माता का जालंध्र शक्तिपीठ जहां माता का वामस्तन गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुरमालिनी तथा भैरव भीषण हैं।

21. रामागरि शक्तिपीठ :- इस शक्ति पीठ की स्थिति को लेकर भी विद्वानों में मतान्तर है। कुछ उत्तर प्रदेश के चित्राकूट तो कुछ मध्य प्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का दाहिना स्तन गिरा था। यहा की शक्ति शिवानी तथा भैरव चण्ड हैं।

22. वैद्यनाथ शक्तिपीठ:- झारखण्ड के गिरिडीह, देवघर स्थित है वैद्यनाथ हार्द शक्तिपीठ, जहां माता का हृदय गिरा था। यहां की शक्ति जयदुर्गा तथा भैरव वैद्यनाथ है। एक मान्यतानुसार यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था।

23. वक्त्रोश्वर शक्तिपीठ:- माता का यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है जहां माता का मन गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव वक्त्रानाथ हैं।

24. कण्यकाश्रम कन्याकुमारी शक्तिपीठ:- तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ीद्ध के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता का पीठ मतान्तर से उध्र्वदन्त गिरा था। यहां की शक्ति शर्वाणि या नारायणी तथा भैरव निमषि या स्थाणु हैं।

25. बहुला शक्तिपीठ:- पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता का वाम बाहु गिरा था। यहां की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं।

26. उज्जयिनी शक्तिपीठ :- मध्य प्रदेश के उज्जैन के पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी शक्तिपीठ। जहां माता का कुहनी गिरा था। यहां की शक्ति मंगल चण्डिका तथा भैरव मांगल्य कपिलांबर हैं।

27. मणिवेदिका शक्तिपीठ :- राजस्थान के पुष्कर में स्थित है मणिदेविका शक्तिपीठ, जिसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है यहीं माता की कलाइयां गिरी थीं। यहां की शक्ति गायत्री तथा भैरव शर्वानन्द हैं।

28. प्रयाग शक्तिपीठ :- उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्थित है। यहां माता की हाथ की अंगुलियां गिरी थी। लेकिन, स्थानों को लेकर मतभेद इसे यहां अक्षयवट, मीरापुर और अलोपी स्थानों गिरा माना जाता है। तीनों शक्तिपीठ की शक्ति ललिता हैं तथा भैरव भव है।

29. विरजाक्षेत्रा, उत्कल शक्तिपीठ:- उड़ीसा के पुरी और याजपुर में माना जाता है जहां माता की नाभि गिरा था। यहां की शक्ति विमला तथा भैरव जगन्नाथ पुरुषोत्तम हैं।

30. कांची शक्तिपीठ :- तमिलनाडु के कांचीवरम् में स्थित है माता का कांची शक्तिपीठ, जहां माता का कंकाल गिरा था। यहां की शक्ति देवगर्भा तथा भैरव रुरु हैं।

31. कालमाध्व शक्तिपीठ:- इस शक्तिपीठ के बारे कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है। परन्तु, यहां माता का वाम नितम्ब गिरा था। यहां की शक्ति काली तथा भैरव असितांग हैं।
32. शोण शक्तिपीठ:- मध्य प्रदेश के अमरकंटक के नर्मदा मन्दिर शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का दक्षिण नितम्ब गिरा था। एक दूसरी मान्यता यह है कि बिहार के सासाराम का ताराचण्डी मन्दिर ही शोण तटस्था शक्तिपीठ है। यहां सती का दायां नेत्रा गिरा था ऐसा माना जाता है। यहां की शक्ति नर्मदा या शोणाक्षी तथा भैरव भद्रसेन हैं।

33. कामाख्या शक्तिपीठ :- कामगिरि असम गुवाहाटी के कामगिरि पर्वत पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का योनि गिरा था। यहां की शक्ति कामाख्या तथा भैरव उमानन्द हैं।

34. जयन्ती शक्तिपीठ :- जयन्ती शक्तिपीठ मेघालय के जयन्तिया पहाडी पर स्थित है, जहां माता का वाम जंघा गिरा था। यहां की शक्ति जयन्ती तथा भैरव क्रमदीश्वर हैं।

35. मगध् शक्तिपीठ :- बिहार की राजधनी पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है जहां माता का दाहिना जंघा गिरा था। यहां की शक्ति सर्वानन्दकरी तथा भैरव व्योमकेश हैं।

36. त्रिस्तोता शक्तिपीठ :- पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के शालवाड़ी गांव में तीस्ता नदी पर स्थित है त्रिस्तोता शक्तिपीठ, जहां माता का वामपाद गिरा था। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव ईश्वर हैं।

37. त्रिपुरी सुन्दरी शक्तित्रिपुरी पीठ :- त्रिपुरा के राध किशोर ग्राम में स्थित है त्रिपुरे सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पाद गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुर सुन्दरी तथा भैरव त्रिपुरेश हैं।

38 . विभाष शक्तिपीठ :- पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक ग्राम में स्थित है विभाष शक्तिपीठ, जहां माता का वाम टखना गिरा था। यहां की शक्ति कापालिनी, भीमरूपा तथा भैरव सर्वानन्द हैं।

39. देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ :- हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ, जिसे श्रीदेवीकूप भद्रकाली पीठ के नाम से भी जाना जाता है। यहां माता के दहिने चरण (गुल्पफद्ध) गिरे थे। यहां की शक्ति सावित्री तथा भैरव स्थाणु हैं।

40. युगाद्या शक्तिपीठ, क्षीरग्राम शक्तिपीठ :- पश्चिम बंगाल के बर्दमान जिले के क्षीरग्राम में स्थित है युगाद्या शक्तिपीठ, यहां सती के दाहिने चरण का अंगूठा गिरा था। यहां की शक्ति जुगाड़या और भैरव क्षीर खंडक है।

41. विराट का अम्बिका शक्तिपीठ :- राजस्थान के गुलाबी नगरी जयपुर के वैराटग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहाँ सती के ‘दायें पाँव की उँगलियाँ’ गिरी थीं।। यहां की शक्ति अंबिका तथा भैरव अमृत हैं।

42. कालीघाट शक्तिपीठ:- पश्चिम बंगाल, कोलकाता के कालीघाट में कालीमन्दिर के नाम से प्रसिध यह शक्तिपीठ, जहां माता के दाएं पांव की अंगूठा छोड़ 4 अन्य अंगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव नकुलेश हैं।
43. मानस शक्तिपीठ :- तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना हथेली का निपात हुआ था। यहां की शक्ति की दाक्षायणी तथा भैरव अमर हैं।

44. लंका शक्तिपीठ :- श्रीलंका में स्थित है लंका शक्तिपीठ, जहां माता का नूपुर गिरा था। यहां की शक्ति इन्द्राक्षी तथा भैरव राक्षसेश्वर हैं। लेकिन, उस स्थान ज्ञात नहीं है कि श्रीलंका के किस स्थान पर गिरे थे।

45. गण्डकी शक्तिपीठ :- नेपाल में गण्डकी नदी के उद्गम पर स्थित है गण्डकी शक्तिपीठ, जहां सती के दक्षिणगण्ड(कपोल) गिरा था। यहां शक्ति `गण्डकी´ तथा भैरव `चक्रपाणि´ हैं।

46. गुह्येश्वरी शक्तिपीठ :- नेपाल के काठमाण्डू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुह्येश्वरी शक्तिपीठ है, जहां माता सती के दोनों जानु (घुटने) गिरे थे। यहां की शक्ति `महामाया´ और भैरव `कपाल´ हैं।

47. हिंगलाज शक्तिपीठ :- पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान प्रान्त में स्थित है माता हिंगलाज शक्तिपीठ, जहां माता का ब्रह्मरन्ध्र (सर का ऊपरी भाग) गिरा था। यहां की शक्ति कोट्टरी और भैरव भीमलोचन है।

48. सुगंध शक्तिपीठ :- बांग्लादेश के खुलना में सुगंध नदी के तट पर स्थित है उग्रतारा देवी का शक्तिपीठ, जहां माता का नासिका गिरा था। यहां की देवी सुनन्दा है तथा भैरव त्रयम्बक हैं।

49. करतोयाघाट शक्तिपीठ:- बंग्लादेश भवानीपुर के बेगड़ा में करतोया नदी के तट पर स्थित है करतोयाघाट शक्तिपीठ, जहां माता का वाम तल्प गिरा था। यहां देवी अपर्णा रूप में तथा शिव वामन भैरव रूप में वास करते हैं।

50. चट्टल शक्तिपीठ :- बंग्लादेश के चटगांव में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना बाहु यानी भुजा गिरा था। यहां की शक्ति भवानी तथा भेरव चन्द्रशेखर हैं।

51. यशोर शक्तिपीठ :- बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है माता का यशोरेश्वरी शक्तिपीठ, जहां माता का बायीं हथेली गिरा था। यहां शक्ति यशोरेश्वरी तथा भैरव चन्द्र हैं।

शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

मत्स्य अवतार


 मत्स्य अवतार भगवान विष्णु के प्रथम अवतार है। मछली के रूप में अवतार लेकर भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नाव की रक्षा की। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया।
 एक दूसरी मन्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर की अथाह गहराई में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया।

 मत्स्य अवतार की कथा
एक बार ब्रह्माजी की असावधानी के कारण एक बहुत बड़े दैत्य ने वेदों को चुरा लिया। उस दैत्य का नाम हयग्रीव था। वेदों को चुरा लिए जाने के कारण ज्ञान लुप्त हो गया। चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैल गया और पाप तथा अधर्म का बोलबाला हो गया। तब भगवान विष्णु ने धर्म की रक्षा के लिए मत्स्य रूप धारण करके हयग्रीव का वध किया और वेदों की रक्षा की। भगवान ने मत्स्य का रूप किस प्रकार धारण किया।
 इसकी विस्मयकारिणी कथा इस प्रकार है-
 कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार हृदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछली बोली- राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए। सत्यव्रत के हृदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है। सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया। यहाँ भी मछली का शरीर रात भर में ही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरे दिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है। तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल दिया। आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।
 अब सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला- मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं?

मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया- राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुँचेगी। आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्त ऋषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूँगा और आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान प्रदान करूँगा। सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। समुद्र भी उमड़कर अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में सारी पृथ्वी पर जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्त ऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए। उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए। 

नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्य रूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्त ऋषि गण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे
भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीते जी ही जीवन मुक्त हो गए। प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने हयग्रीव को मारकर उससे वेद छीन लिए। भगवान ने ब्रह्माजी को पुनः वेद दे दिए। इस प्रकार भगवान ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों का उद्धार तो किया ही, साथ ही संसार के प्राणियों का भी अमित कल्याण किया। अवतार भगवान विष्णु के प्रथम अवतार है। मछली के रूप में अवतार लेकर भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नाव की रक्षा की। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया।
 एक दूसरी मन्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर की अथाह गहराई में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया।

 मत्स्य अवतार की कथा
एक बार ब्रह्माजी की असावधानी के कारण एक बहुत बड़े दैत्य ने वेदों को चुरा लिया। उस दैत्य का नाम हयग्रीव था। वेदों को चुरा लिए जाने के कारण ज्ञान लुप्त हो गया। चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैल गया और पाप तथा अधर्म का बोलबाला हो गया। तब भगवान विष्णु ने धर्म की रक्षा के लिए मत्स्य रूप धारण करके हयग्रीव का वध किया और वेदों की रक्षा की। भगवान ने मत्स्य का रूप किस प्रकार धारण किया।
 इसकी विस्मयकारिणी कथा इस प्रकार है-
 कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार हृदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछली बोली- राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए। सत्यव्रत के हृदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है। सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया। यहाँ भी मछली का शरीर रात भर में ही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरे दिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है। तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल दिया। आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।
 अब सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला- मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं?

मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया- राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुँचेगी। आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्त ऋषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूँगा और आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान प्रदान करूँगा। सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। समुद्र भी उमड़कर अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में सारी पृथ्वी पर जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्त ऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए। उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए। 

नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्य रूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्त ऋषि गण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे
भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीते जी ही जीवन मुक्त हो गए। प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने हयग्रीव को मारकर उससे वेद छीन लिए। भगवान ने ब्रह्माजी को पुनः वेद दे दिए। इस प्रकार भगवान ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों का उद्धार तो किया ही, साथ ही संसार के प्राणियों का भी अमित कल्याण किया।

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

आइए जानें इन 14 अखाड़ों के बारे में

*आइए जानें इन 14 अखाड़ों के बारे में🚩🙏🏻👇🏻👇🏻👇🏻*


*1. अटल अखाड़ा👉🏻* इनके ईष्ट देव भगवान गणेश हैं. इस अखाड़े में केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य दीक्षा ले सकते हैं और कोई अन्य इस अखाड़े में नहीं आ सकता है. यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है।।🚩

*2. अवाहन अखाड़ा-👉🏻* इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन दोनो हैं. इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है।।🚩

*3. निरंजनी अखाड़ा👉🏻-* यह अखाड़ा सबसे ज्यादा शिक्षित अखाड़ा है. इस अखाड़े में करीब 50 महामंडलेश्र्चर हैं. इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिक हैं. इस अखाड़े की स्थापना 826 ईसवी में हुई थी।।🚩

*4. पंचाग्नि अखाड़ा 👉🏻* इस अखाड़े में केवल ब्रह्मचारी ब्राह्मण ही दीक्षा ले सकते है. इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है.🚩

*5. महानिर्वाण अखाड़ा-👉🏻* महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा का जिम्‍मा इसी अखाड़े के पास है. इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं. इनकी स्थापना 671 ईसवी में हुई थी।।🚩

*6. आनंद अखाड़ा- 👉🏻* इस अखाड़े की स्थापना 855 ईसवी में हुई थी. इस अखाड़े के आचार्य का पद ही प्रमुख होता है. इसका केंद्र वाराणसी है।।🚩

*7. निर्मोही अखाड़ा👉🏻-* वैष्णव संप्रदाय के तीनों अणि अखाड़ों में से इसी में सबसे ज्यादा अखाड़े शामिल हैं. इस अखाड़े की स्थापना रामानंदाचार्य ने 1720 में की थी. इस अखाड़े के मंदिर उत्तर प्रदेश, मध्या प्रदेश, गुजरात, बिहार, राजस्थान आदि जगहों पर स्थित हैं।।🚩

*8. बड़ा उदासीन पंचायती अखाड़ा👉🏻* इस अखाड़े की शुरुआत 1910 में हुई थी. इस अखाड़े के संस्थापक श्रीचंद्रआचार्य उदासीन हैं. इस अखाड़े उद्देश्‍य सेवा करना है🚩.

*9. नया उदासीन अखाड़ा👉🏻-* इस अखाड़े की शुरुआत 1710 में हुई थी. मान्यता है कि इस अखाड़े को बड़ा उदासीन अखाड़े के साधुओं ने बनाया था.🚩

*10. निर्मल अखाड़ा-👉🏻* इस अखाड़े की स्थापना श्रीदुर्गासिंह महाराज ने की थी, जिनके ईष्टदेव पुस्तक श्री गुरुग्रंथ साहिब हैं. कहा जाता है कि इस अखाड़े के लोगों को दूसरे अखाड़ों की तरह धूम्रपान करने की इजाजत नहीं है।।🚩

*11. वैष्णव अखाड़ा👉🏻-* इस अखाड़े की स्थापना मध्यमुरारी द्वारा की गई थी.🚩

*12. नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा👉🏻* इस अखाड़े की स्थापना 866 ईसवी में हुई, जिसके संस्थापक पीर शिवनाथ जी हैं.🚩

*13. जूना अखाड़ा👉🏻* इस अखाड़े के ईष्टदेव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं. हरिद्वार में इस अखाड़े का आश्रम है. इस अखाड़े के पीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी महाराज हैं🚩

*14. किन्नर अखाड़ा-👉🏻* अभी तक कुंभ में 13 अखाड़ों की पेशवाई होती थी, लेकिन इस बार कुंभ में किन्नर अखाड़ा भी शामिल हो चुका है. इस अखाड़े की महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी हैं।।🚩

'ब्रज चौरासी-कोस यात्रा'


वराह पुराण वर्णन है कि पृथ्वी पर 66 अरब तीर्थ
हैं और वे सभी चातुर्मास में ब्रज में आकर निवास करते हैं। यही वजह है कि व्रज यात्रा करने वाले इन दिनों यहाँ खिंचे चले आते हैं। हज़ारों-लाखों श्रद्धालु ब्रज के वनों में डेरा डाले रहते हैं।ब्रजभूमि की यह पौराणिक यात्रा हज़ारों साल पुरानी है।
चालीस दिन में पूरी होने वाली ब्रज चौरासी कोस यात्रा का उल्लेख वेद-पुराण व श्रुति ग्रंथ-संहिता में भी है। कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं से ही नहीं, सतयुग में भक्त ध्रुव  ने  यही आकर नारद जी से गुरू मंत्र लेकर  अखंड तपस्या की व ब्रज परिक्रमा की थी।
त्रेतायुग में प्रभु राम के लघु भ्राता शत्रुघ्न ने मधु पुत्र लवणासुर को मार कर ब्रज परिक्रमा की थी। गली बारी स्थित शत्रुघ्न मंदिर यात्रा मार्ग में अति महत्व का माना जाता है।
द्वापर युग में उद्धव जी ने गोपियों के साथ ब्रज परिक्रमा की।
कलियुग में जैन और बौद्ध धर्मों के स्तूप बैल्य संघाराम आदि स्थलों के सांख्य इस परियात्रा की पुष्टि करते हैं।14वीं शताब्दी में जैन धर्माचार्य जिन प्रभु शूरी की में ब्रज यात्रा का उल्लेख आता है।15वीं शताब्दी में माध्व सम्प्रदाय के आचार्य मघवेंद्र पुरी महाराज की यात्रा का वर्णन है..
तो16वीं शताब्दी में महाप्रभु वल्लभाचार्य, गोस्वामी विट्ठलनाथ, चैतन्य मत केसरी चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, नारायण भट्ट, निम्बार्क संप्रदाय के चतुरानागा आदि ने ब्रज यात्रा की थी।

●●● परिक्रमा मार्ग-

इसी यात्रा में मथुरा की अंतरग्रही परिक्रमा भी शामिल है। मथुरा से चलकर यात्रा सबसे पहले भक्त ध्रुव की तपोस्थली
1. मधुवन पहुँचती है और यहाँ से क्रमश:
2. तालवन,
3. कुमुदवन,
4. शांतनु कुण्ड,
5. सतोहा,
6. बहुलावन,
7. राधा-कृष्ण कुण्ड,
8. गोवर्धन
9. पूछरी
10. चन्द्र सरोवर,
11. जतीपुरा,
12. दीर्घपुर डीग का लक्ष्मण मंदिर,
13. साक्षी गोपाल मंदिर व
14. जल महल,
15. परमानन्द वन,
16. चरन पहाड़ी,चरण कुण्ड,
17.आदि बद्री ,केदारनाथ 18. काम्यवन
19. गोपाल कुण्ड, राधा रानी मंदिर, बरसाना
20. नंदगांव,
21. जावट,
22. कोकिलावन,
23. कोसी,
24. शेरगढ,
25. चीर घाट,
26. नौहझील,
27. श्री भद्रवन,
28. भांडीरवन,
29. बेलवन,
30. राया वन,
31. कबीर कुण्ड,
32. भोयी कुण्ड,
33. ग्राम पडरारी के वनखंडी में शिव मंदिर,
34. दाऊजी,
35. महावन,
36. ब्रह्मांड घाट, नन्द जी मंदिर,
37. चिंताहरण महादेव,
38. गोकुल,
39. रावल
40. लोहवन

●●●  दर्शनीय स्थल--

ब्रज चौरासी कोस यात्रा में दर्शनीय स्थलों की भरमार है। पुराणों के अनुसार उनकी उपस्थिति अब कहीं-कहीं रह गयी है। प्राचीन उल्लेख के अनुसार इस
यात्रा मार्ग में..
12 वन, दाऊजी मन्दिर, बलदेव 24 उपवन,चार कुंज,चार निकुंज,चार वनखंडी,चार ओखर,चार पोखर, मथुरा नाथ श्री द्वारिका नाथ, महावन
365 कुण्ड,चार सरोवर,दस कूप,चार बावरी,चार तट,चार वट वृक्ष,पांच पहाड़,चार झूला,33 स्थल रास लीला के तो हैं हीं,
इनके अलावा कृष्णकालीन अन्य स्थल भी हैं। चौरासी कोस यात्रा मार्ग मथुरा में ही नहीं, अलीगढ़, भरतपुर, गुड़गांव, फरीदाबाद की सीमा तक में पड़ता है, लेकिन इसका अस्सी फीसदी हिस्सा मथुरा में है।

●●● नियम--

36 नियमों का नित्य पालन ब्रज यात्रा के अपने नियम हैं इसमें शामिल होने वालों के प्रतिदिन 36 नियमों का कड़ाई से पालन करना होता है, इनमें प्रमुख हैं
धरती पर सोना, नित्य स्नान, ब्रह्मचर्य पालन, जूते-चप्पल का त्याग, नित्य देव पूजा, कथा संकीर्तन, फलाहार, क्रोध, मिथ्या, लोभ, मोह व अन्य दुर्गुणों का त्याग प्रमुख है ।

●●● ब्रज के प्रमुख स्थल--

मथुरा · वृन्दावन · गोवर्धन · बरसाना ·नन्दगाँव. महावन · गोकुल · बलदेव · काम्यवन · डीग .बनचारी होङल..

●●● ब्रज के वन--

कोटवन · काम्यवन · कुमुदवन · कोकिलावन · खदिरवन · तालवन · बहुलावन· बिहारवन · बेलवन ·भद्रवन · भांडीरवन · मधुवन · महावन · लौहजंघ वन ·
:
●●● मथुरा के दर्शनीय स्थल--

आदिवराह मन्दिर · कंकाली टीला · कंकाली देवी · कटरा केशवदेव मन्दिर · कालिन्दीश्वर महादेव · कृष्ण जन्मभूमि ·गताश्रम मन्दिर · गर्तेश्वर महादेव · गोकर्णेश्वर महादेव · गोपी नाथ जी मन्दिर · गोवर्धननाथ जी · गोविन्द देव मंदिर ·गौड़ीय मठ श्री केशव जी · चर्चिकादेवी मन्दिर · चामुण्डा देवी · जयगुरुदेव मन्दिर · दसभुजी गणेश जी · दाऊजी मन्दिर · दीर्घ विष्णु मन्दिर · द्वारिकाधीश मन्दिर · पद्मनाभजी का मन्दिर · पीपलेश्वर महादेव · बलदाऊ जी · बिरला मंदिर · बिहारी जी मन्दिर · भूतेश्वर महादेव · मथुरा देवी मन्दिर · मदन मोहन मंदिर · महाविद्या मन्दिर · यमुना के घाट · रंगेश्वर महादेव · राम मन्दिर · लक्ष्मीनारायण मन्दिर · वाटी कुंज मन्दिर · विजयगोविन्द मन्दिर · वीर भद्रेश्वर · श्रीनाथ जी भण्डार · श्रीनाथ जी ·सती बुर्ज · पोतरा कुण्ड · शिव ताल · राजकीय संग्रहालय · जैन संग्रहालय..
यमुना के घाट :-
अविमुक्ततीर्थ · असिकुण्ड तीर्थ · ऋषितीर्थ · कनखल तीर्थ · कोटि तीर्थ · गुह्म तीर्थ · घण्टाभरणक तीर्थ · चक्रतीर्थ ·तिन्दुक तीर्थ · दशाश्वमेध तीर्थ · धारापतन तीर्थ · ध्रुव तीर्थ · नवतीर्थ · नागतीर्थ · प्रयाग तीर्थ · बटस्वामीतीर्थ · बोधि तीर्थ · ब्रह्मतीर्थ · मोक्ष तीर्थ · विघ्नराज तीर्थ · विश्राम घाट · वैकुण्ठ तीर्थ · संयमन तीर्थ · सरस्वती पतनतीर्थ · सूर्य तीर्थ ·सोमतीर्थ..
श्री राधे श्याम मिलादे
●●● वृन्दावन दर्शनीय स्थल--

अष्टसखी कुंज · इस्कॉन मन्दिर · गोदा बिहारी जी · गोपी नाथ जी · गोपेश्वर महादेव · गोविन्द देव जी · गौरे लाल जी· जयपुर मन्दिर · जुगलकिशोर जी · बनखण्डी महादेव · बांके बिहारी जी · ब्रह्मचारी ठाकुर बाड़ी · मदन मोहन जी ·महारानी स्वर्णमयी मन्दिर · मीराबाई मन्दिर · मोहन बिहारी जी · रंग नाथ जी · रसिक बिहारी जी · राधादामोदर जी · राधारमण जी · राधावल्लभ जी · रूप सनातन गौड़ीय मठ · वर्द्धमान महाराज कुंज · शाहजी का मन्दिर · शाह बिहारी जी · श्री जी का मन्दिर · श्री टीकारी रानी की ठाकुर बाड़ी · श्री राधामाधव का मन्दिर · श्री राधाविनोद का मन्दिर · श्री लालाबाबू का मन्दिर ·श्री श्यामसुन्दर का मन्दिर · श्री साक्षी गोपाल का मन्दिर · सवामन शालग्राम · निधिवन · गरुड़ गोविन्द  · राधा स्नेह बिहारी..
कुण्ड :
दावानल कुण्ड- केवारिवन में · ब्रह्म कुण्ड · श्रीगजराज कुण्ड- श्रीरंग जी मन्दिर में · श्रीगोविन्द कुण्ड- वृन्दावन के पूर्व में श्रीरंग जी मन्दिर के निकट · ब्रह्म कुण्ड- रंगजी मन्दिर के उत्तर में · श्रीललिता कुण्ड- निकुंजवन (सेवा कुंज) में · श्रीविशाखा कुण्ड-निधिवन में..
यमुना के घाट :-
इमलीतला घाट · केशी घाट · चीर घाट..

●●● गोवर्धन--

कुसुम सरोवर · चकलेश्वर महादेव · जतीपुरा · दानघाटी · पूंछरी का लौठा · मानसी गंगा · राधाकुण्ड · श्याम कुण्ड · हरिदेव जी मन्दिर · उद्धव कुण्ड · ब्रह्म कुण्ड..

●●● काम्यवन--

फिसलनी शिला · भोजनथाली · व्योमासुर गुफा · गया कुण्ड · गोविन्द कुण्ड · घोषरानी कुण्ड · दोहनी कुण्ड · द्वारका कुण्ड · धर्म कुण्ड · नारद कुण्ड · मनोकामना कुण्ड · यशोदा कुण्ड · ललिता कुण्ड · लुकलुक कुण्ड · विमल कुण्ड · विहृल कुण्ड · सुरभी कुण्ड · सेतुबन्ध रामेश्वर ,लंका यशोदा कूप आदि..

●●● बरसाना--

राधा रानी मंदिर,गहवर वन,मान मन्दिर,मानगढ,दानगढ,भानगढ,विलासगढ,चित्रावन,नौबारी चौबारी,पीली पोखर ,भानोखर,सांकरीखोर,ब्रजेश्वर महादेव..

●●● नन्दगाँव--

नन्दबाबा जी मंदिर,रासबिहारी मन्दिर,नागा जी मन्दिर, नृसिंह मन्दिर,आशेश्वर महादेव मन्दिर,टेरकदम्ब वन,उद्धव क्यारी,नन्दबैठक,हाऊ-बिलाऊ,चरण पहाङी,वृन्दा देवी मन्दिर,महाप्रभु जी की बैठक,पावन सरोवर,कृष्ण कुण्ड, ललिता कुण्ड ,यशोदा कुण्ड, काजर कुण्ड, मधुसूदन कुण्ड, पनिहारी कुण्ड, छाछ कुण्ड, मोती कुण्ड, आशेश्वर कुण्ड, मोर कुण्ड, सूरज कुण्ड,  आदि 56 कुण्ड
:
कोकिलावन
बठैन
चरण पहाङी
रासौली ,दधिवन
कोटवन
चमेलीवन
हताना
शैषशायी वन
क्षरखत खरौंट..

●●● कोषस्थली कोसी--

गोमती सरोवर,रत्नाकर सरोवर,सत्यनारायण मन्दिर ,भगवती देवी मन्दिर

फालैन
पयगांव
खेलनवन शेरगढ
ऐचांदाऊ
अक्षयवट
तपोवन
बिहार वन
चीरघाट
बसई
वच्छवन
सेई
बालहारा
वंसीवट
भांडीर वन
भाण्डीर कूप
मांट गांव
बन्दी आनन्दी..

●●● बलदेव---

राधा कृष्ण मन्दिर
यमुना मन्दिर
कृष्ण बलदेव मन्दिर
बिहारी जी मन्दिर
श्री नाथ जी मन्दिर
काली मन्दिर
श्री बलभद्र शक्ति पीठ
महर्षि सौभरी वेद पाठशाला
क्षीर सागर
और
दाऊजी मन्दिर..

●●● महावन---

ब्रह्माण्ड घाट
84 खम्भा
पूतना खार
यमलार्जुन
उद्धार स्थली
रमणरेती...

●●● गोकुल----

नवनीत प्रिया मन्दिर
गोकुलनाथ जी मन्दिर
नन्दभवन
नन्दकिला
ठकुरानी घाट
गुसांई जी व महाप्रभु जी की बैठक..

चन्द्रावलि देवी
रावल गांव
और मथुरा में आकर यात्रा सम्पूर्ण ।

'बोलो ब्रज चौरासी-कोस मण्डल की जय'

"नन्द के लाला की जय"
"राधारानी की जय"

बुधवार, 16 जनवरी 2019

पारिजात वृक्ष

!!! पारिजात वृक्ष : इस वृक्ष के कारण हुआ था इंद्र और कृष्ण में युद्ध !!!

पारिजात वृक्ष तो पुरे भारत में पाये जाते है, लेकिन किंटूर में पाया जाने वाला यह पारिजात वृक्ष अपने आप कई विशेषताए रखता है और यह अपनी तरह का पुरे भारत में इकलौता पारिजात वृक्ष है।

उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिला मुख्यालय से ३८ किलोमीटर कि दूरी पर किंटूर गाँव है।

इस जगह का नामकरण पाण्डवों कि माता कुन्ती के नाम पर हुआ है। यहाँ पर पाण्डवों ने माता कुन्ती के साथ अपना अज्ञातवास बिताया था।

इसी किंटूर गाँव में भारत का एक मात्र पारिजात का पेड़ पाया जाता है। कहते है कि पारिजात के वृक्ष को छूने मात्र से सारी थकान मिट जाती है |

*** पारिजात वृक्ष के बारे में -

आमतौर पर पारिजात वृक्ष १० फीट  से २५ फीट तक ऊंचे होता है, पर किंटूर में स्तिथ पारिजात वृक्ष लगभग ४५ फीट ऊंचा और ५० फीट मोटा है।

इस पारिजात वृक्ष कि सबसे बड़ी विशेषता यह है कि, यह अपनी तरह का  इकलौता पारिजात वृक्ष है, क्योंकि इस पारिजात वृक्ष पर बीज नहीं लगते है तथा इस पारिजात वृक्ष कि कलम बोने से भी दूसरा वृक्ष तैयार नहीं होता है।

पारिजात वृक्ष  पर जून के आस पास बेहद खूबसूरत सफ़ेद रंग के फूल खिलते है। पारिजात के फूल केवल रात कि खिलते है और सुबह होते ही मुरझा जाते है। 

इन फूलों का लक्ष्मी पूजन में विशेष महत्तव है। पर एक बात ध्यान रहे कि पारिजात वृक्ष के वे ही फूल पूजा में काम लिए जाते है जो वृक्ष से टूट कर गिर जाते है, वृक्ष से फूल तोड़ने कि मनाही है।

पारिजात वृक्ष का वर्णन हरिवंश पुराण में भी आता है। हरिवंश पुराण में इसे कल्पवृक्ष कहा गया है जिसकी उत्पत्ति समुन्द्र मंथन से हुई थी और जिसे इंद्र ने स्वर्गलोक में स्थपित कर दिया था।

हरिवंश पुराण के अनुसार इसको छूने मात्र से ही देव नर्त्तकी उर्वशी कि थकान मिट जाती थी।

*** पारिजात वृक्ष के किंटूर पहुंचने की कहानी !!!

एक बार देवऋषि नारद जब धरती पर कृष्ण से मिलने आये तो अपने साथ पारिजात के सुन्दर पुष्प ले कर आये।  उन्होंने वे पुष्प श्री कृष्ण को भेट किये।

श्री कृष्ण ने पुष्प साथ बैठी अपनी पत्नी रुक्मणि को दे दिए।

लेकिन जब श्री कृष्ण कि दूसरी पत्नी सत्य भामा को पता चला कि स्वर्ग से आये पारिजात के सारे पुष्प श्री कृष्ण ने रुक्मणि को दे दिए तो उन्हें बहुत क्रोध आया और उन्होंने श्री कृष्ण के सामने जिद पकड़ ली कि, उन्हें अपनी वाटिका के लिय  पारिजात वृक्ष चाहिए। 

श्री कृष्ण के लाख समझाने पर भी सत्य भामा नहीं मानी।

सत्यभामा कि ज़िद के आगे झुकते हुए श्री कृष्ण ने अपने दूत को स्वर्ग पारिजात वृक्ष लाने के लिए भेजा पर इंद्र ने पारिजात वृक्ष देने से मना कर दिया। 

दूत ने जब यह बात आकर श्री कृष्ण को बताई तो उन्होंने स्व्यं ही इंद्र पर आक्रमण कर दिया और इंद्र को पराजित करके पारिजात वृक्ष को जीत लिया।

इससे रुष्ट होकर इंद्र ने पारिजात वृक्ष को फल से वंचित हो जाने का श्राप दे दिया और तभी से पारिजात वृक्ष फल विहीन हो गया।

श्री कृष्ण ने पारिजात वृक्ष को ला कर सत्यभामा कि वाटिका में रोपित कर दिया, पर सत्यभामा को सबक सिखाने के लिया ऐसा कर दिया कि, जब पारिजात वृक्ष पर पुष्प आते तो गिरते वो रुक्मणि कि वाटिका में। 

और यही कारण है कि, पारिजात के पुष्प वृक्ष के नीचे न गिरकर वृक्ष से दूर गिरते है। इस तरह पारिजात वृक्ष , स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गया।

*** महाभारत काल से किंटूर के पारिजात वृक्ष का संबंध !!!

इसके बाद जब पाण्डवों ने किंटूर में अज्ञातवास किया तो उन्होंने वहाँ माता कुन्ती के लिए भगवन शिव के एक मंदिर कि स्थापना कि जो कि, अब कुन्तेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। 

कहते है कि, माता कुन्ती पारिजात के पुष्पों से भगवान् शंकर कि पूजा अर्चना कर सके इसलिए पांडवों ने सत्यभामा कि वाटिका से पारिजात वृक्ष को लाकर यहाँ स्थापित कर दिया और तभी से पारिजात वृक्ष यहाँ पर है।

*** अन्य किवंदतियां भी है पारिजात वृक्ष के बारे में !!!

एक अन्य मान्यता यह भी है कि, पारिजात नाम की एक राजकुमारी हुआ करती थी, जिसे भगवान सूर्य से प्रेम हो गया था।

लेकिन अथाग प्रयास करने पर भी भगवान सूर्य ने पारिजात के प्रेम कों स्वीकार नहीं किया, जिससे खिन्न होकर राजकुमारी पारिजात ने आत्महत्या कर ली।

जिस स्थान पर पारिजात की क़ब्र बनी, वहीं से पारिजात नामक वृक्ष ने जन्म लिया।

*** सरकार द्वारा पारिजात वृक्ष पर जारी डाक टिकट !!!

पारिजात वृक्ष के ऐतिहासिक महत्तव व इसकी दुर्लभता को देखते हुए सरकार ने इसे संरक्षित घोषित कर दिया है। भारत सरकार ने इस पर एक डाक टिकट भी जारी किया है।

*** औषधीय गुणों से भी भरपूर है पारिजात वृक्ष !!!

पारिजात को आयुर्वेद में हरसिंगार भी कहा जाता है। इसके फूल, पत्ते और छाल का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। इसके पत्तों का सबसे अच्छा उपयोग गृध्रसी (सायटिका) रोग को दूर करने में किया जाता है।

इसके फूल हृदय के लिए भी उत्तम औषधी माने जाते हैं। वर्ष में एक माह पारिजात पर फूल आने पर यदि इन फूलों का या फिर फूलों के रस का सेवन किया जाए तो हृदय रोग से बचा जा सकता है।

इतना ही नहीं पारिजात की पत्तियों को पीस कर शहद में मिलाकर सेवन करने से सूखी खाँसी ठीक हो जाती है।

इसी तरह पारिजात की पत्तियों को पीसकर त्वचा पर लगाने से त्वचा संबंधि रोग ठीक हो जाते हैं।

पारिजात की पत्तियों से बने हर्बल तेल का भी त्वचा रोगों में भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। पारिजात की कोंपल को यदि पाँच काली मिर्च के साथ महिलाएँ सेवन करें तो महिलाओं को स्त्री रोग में लाभ मिलता है।

वहीं पारिजात के बीज जहाँ बालों के लिए शीरप का काम करते हैं तो इसकी पत्तियों का जूस क्रोनिक बुखार को ठीक कर देता है।

पुत्रदा एकादशी



                   "पुत्रदा (पौष शुक्ल) एकादशी"

      पुत्रदा एकादशी व्रत हिंदूधर्म में मनाए जाने वालें महत्वपूर्ण व्रतों में से एक है। इस व्रत को पूरे भारत देश में बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। पुत्रदा एकादशी व्रत हिंदूपंचांग के अनुसार पौषमाह में मनाया जाता है। पश्चिमी पंचांग के अनुसार यह माह हर वर्ष जनवरी में पड़ता है।  कहा जाता है कि इस व्रत में भगवान विष्णु की उपासना की जाती है और उनकी आस्था में ही व्रत भी रखा जाता है। यह व्रत पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है।

                                 व्रत कथा

        महाराज युधिष्ठिर ने पूछा- "हे भगवन् ! कृपा करके यह बतलाइए कि पौष शुक्ल एकादशी का क्या नाम है उसकी विधि क्या है और उसमें कौन-से देवता का पूजन किया जाता है।" भगवान श्रीकृष्ण बोले- "हे राजन ! इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है। इसमें भी नारायण भगवान की पूजा की जाती है। इस चर और अचर संसार में पुत्रदा एकादशी के व्रत के समान दूसरा कोई व्रत नहीं है। इसके पुण्य से मनुष्य तपस्वी, विद्वान और लक्ष्मीवान होता है। इसकी मैं एक कथा कहता हूँ सो तुम ध्यानपूर्वक सुनो।"
       भद्रावती नामक नगरी में सुकेतुमान नाम का एक राजा राज्य करता था। उसके कोई पुत्र नहीं था। उसकी स्त्री का नाम शैव्या था। वह निपुत्री होने के कारण सदैव चिंतित रहा करती थी। राजा के पितर भी रो-रोकर पिंड लिया करते थे और सोचा करते थे कि इसके बाद हमको कौन पिंड देगा। राजा को भाई, बांधव, धन, हाथी, घोड़े, राज्य और मंत्री इन सबमें से किसी से भी संतोष नहीं होता था। वह सदैव यही विचार करता था कि मेरे मरने के बाद मुझको कौन पिंडदान करेगा। बिना पुत्र के पितरों और देवताओं का ऋण मैं कैसे चुका सकूँगा जिस घर में पुत्र न हो उस घर में सदैव अंधेरा ही रहता है। इसलिए पुत्र उत्पत्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जिस मनुष्य ने पुत्र का मुख देखा है, वह धन्य है। उसको इस लोक में यश और परलोक में शांति मिलती है अर्थात उनके दोनों लोक सुधर जाते हैं। पूर्व जन्म के कर्म से ही इस जन्म में पुत्र, धन आदि प्राप्त होते हैं। राजा इसी प्रकार रात-दिन चिंता में लगा रहता था।
       एक समय तो राजा ने अपने शरीर को त्याग देने का निश्चय किया परंतु आत्मघात को महान पाप समझकर उसने ऐसा नहीं किया। एक दिन राजा ऐसा ही विचार करता हुआ अपने घोड़े पर चढ़कर वन को चल दिया तथा पक्षियों और वृक्षों को देखने लगा। उसने देखा कि वन में मृग, व्याघ्र, सूअर, सिंह, बंदर, सर्प आदि सब भ्रमण कर रहे हैं। हाथी अपने बच्चों और हथिनियों के बीच घूम रहा है। इस वन में कहीं तो गीदड़ अपने कर्कश स्वर में बोल रहे हैं, कहीं उल्लू ध्वनि कर रहे हैं। वन के दृश्यों को देखकर राजा सोच-विचार में लग गया। इसी प्रकार आधा दिन बीत गया। वह सोचने लगा कि मैंने कई यज्ञ किए, ब्राह्मणों को स्वादिष्ट भोजन से तृप्त किया फिर क्यों मुझे दुख प्राप्त हुआ ?
       राजा प्यास के मारे अत्यंत दुखी हो गया और पानी की तलाश में इधर-उधर फिरने लगा। थोड़ी दूरी पर राजा ने एक सरोवर देखा। उस सरोवर में कमल खिले थे तथा सारस, हंस, मगरमच्छ आदि विहार कर रहे थे। उस सरोवर के चारों तरफ मुनियों के आश्रम बने हुए थे। उसी समय राजा के दाहिने अंग फड़कने लगे। राजा शुभ शकुन समझकर घोड़े से उतरकर मुनियों को दंडवत प्रणाम करके बैठ गया। राजा को देखकर मुनियों ने कहा- हे राजन! हम तुमसे अत्यंत प्रसन्न हैं। तुम्हारी क्या इच्छा है, सो कहो। राजा ने पूछा- महाराज आप कौन हैं, और किसलिए यहां आए हैं। कृपा करके बताइए। मुनि कहने लगे कि हे राजन! आज संतान देने वाली पुत्रदा एकादशी है, हम लोग विश्वदेव हैं और इस सरोवर में स्नान करने के लिए आए हैं। यह सुनकर राजा कहने लगा कि महाराज मेरे भी कोई संतान नहीं है, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो एक पुत्र का वरदान दीजिए। मुनि बोले- हे राजन! आज पुत्रदा एकादशी है। आप अवश्य ही इसका व्रत करें, भगवान की कृपा से अवश्य ही आपके घर में पुत्र होगा।
       मुनि के वचनों को सुनकर राजा ने उसी दिन एकादशी का व्रत किया और द्वादशी को उसका पारण किया। इसके पश्चात मुनियों को प्रणाम करके महल में वापस आ गया। कुछ समय बीतने के बाद रानी ने गर्भ धारण किया और नौ महीने के पश्चात उनके एक पुत्र हुआ। वह राजकुमार अत्यंत शूरवीर, यशस्वी और प्रजापालक हुआ।
       श्रीकृष्ण बोले- "हे राजन ! पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत करना चाहिए। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ता या सुनता है उसे अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।"

                       पुत्रदा एकादशी व्रत विधि

       पुत्र प्राप्ति की इच्छा से जो व्रत रखना चाहते हैं, उन्हें दशमी को एक बार भोजन करना चाहिए। एकादशी के दिन स्नानादि के पश्चात गंगा जल, तुलसी दल, तिल, फूल पंचामृत से भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए। इस व्रत में व्रत रखने वाले बिना जल के  रहना चाहिए। अगर व्रती चाहें तो संध्या काल में दीपदान के पश्चात फलाहार कर सकते हैं। द्वादशी तिथि को यजमान को भोजन करवाकर उचित दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद लें तत्पश्चात भोजन करें। ध्यान देने वाली बात यह है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा से जो यह एकादशी का व्रत रख रहे हैं उन्हें अपने जीवनसाथी के साथ इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए इससे अधिक पुण्य प्राप्त होता है।

                        एकादशी व्रत के नियम

         व्रत-उपवास करने का महत्व सभी धर्मों में बहुत होता है। साथ ही सभी धर्मों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। खास कर हिंदू धर्म के अनुसार एकादशी व्रत करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को दशमी के दिन से ही कुछ अनिवार्य नियमों का पालन करना चाहिए।
01. दशमी के दिन मांस, लहसुन, प्याज, मसूर की दाल आदि निषेध वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए।
02. रात्रि को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा भोग-विलास से दूर रहना चाहिए।
03. एकादशी के दिन प्रात: लकड़ी का दातुन न करें, नींबू, जामुन या आम के पत्ते लेकर चबा लें और अंगुली से कंठ साफ कर लें, वृक्ष से पत्ता तोड़ना भी ‍वर्जित है। अत: स्वयं गिरा हुआ पत्ता लेकर सेवन करें।
04. यदि यह संभव न हो तो पानी से बारह बार कुल्ले कर लें। फिर स्नानादि कर मंदिर में जाकर गीता पाठ करें या पुरोहितजी से गीता पाठ का श्रवण करें।
05. फिर प्रभु के सामने इस प्रकार प्रण करना चाहिए कि 'आज मैं चोर, पाखंडी़ और दुराचारी मनुष्यों से बात नहीं करूंगा और न ही किसी का दिल दुखाऊंगा। रात्रि को जागरण कर कीर्तन करूंगा।'
06. तत्पश्चात 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस द्वादश मंत्र का जाप करें। राम, कृष्ण, नारायण आदि विष्णु के सहस्रनाम को कंठ का भूषण बनाएं।
07. भगवान विष्णु का स्मरण कर प्रार्थना करें और कहे कि- हे त्रिलोकीनाथ! मेरी लाज आपके हाथ है, अत: मुझे इस प्रण को पूरा करने की शक्ति प्रदान करना।
08. यदि भूलवश किसी निंदक से बात कर भी ली तो भगवान सूर्यनारायण के दर्शन कर धूप-दीप से श्री‍हरि की पूजा कर क्षमा मांग लेना चाहिए।
09. एकादशी के दिन घर में झाड़ू नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है। इस दिन बाल नहीं कटवाना चाहिए। न नही अधिक बोलना चाहिए। अधिक बोलने से मुख से न बोलने वाले शब्द भी निकल जाते हैं।
10.इस दिन यथा शक्ति दान करना चाहिए। किंतु स्वयं किसी का दिया हुआ अन्न आदि कदापि ग्रहण न करें। दशमी के साथ मिली हुई एकादशी वृद्ध मानी जाती है।
11. वैष्णवों को योग्य द्वादशी मिली हुई एकादशी का व्रत करना चाहिए। त्रयोदशी आने से पूर्व व्रत का पारण करें।
12. एकादशी (ग्यारस) के दिन व्रतधारी व्यक्ति को गाजर, शलजम, गोभी, पालक, इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए।
13. केला, आम, अंगूर, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करें।
14. प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करना चाहिए।
15. द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्ठान्न, दक्षिणा देना चाहिए।
16. क्रोध नहीं करते हुए मधुर वचन बोलना चाहिए।
       इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है और उसके जीवन के सारे कष्ट समाप्त हो जाते हैं।

मंगलवार, 15 जनवरी 2019

कुंभ (KUMBHA) 2019

2019 में संगम नगरी प्रयागराज (इलाहाबाद) में कुंभ मेला लग रहा है। कुंभ मेला हर 12 साल में एक बार लगता है हमारे हिंदू धर्म में इसका काफी महत्व है। इस दौरान लोग संगम में स्नान कर पुण्य के भागी बनते हैं। कुंभ के स्‍नान की तारीखों का भी ऐलान हो चुका है। शाही स्नान 14 जनवरी से शुरू होगा।
कुंभ स्नान से होती है मोक्ष की प्राप्ति:-
हमारे धर्म में कुंभ की धार्मिक मान्यता है और इसे एक महत्‍वपूर्ण पर्व के रूप में मनाया जाता है। कुंभ मेला हर 12 साल में आता है। दो बड़े कुंभ मेलों के बीच एक अर्धकुंभ भी लगता है। इस बार साल 2019 में आने वाला कुंभ मेला दरअसल, अर्धकुंभ ही है। प्रयाग में दो कुंभ मेलों के बीच 6 वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है। कुंभ का मेला मकर संक्रांति के दिन शुरु होता है। इस दिन जो योग बनता है उसे कुंभ स्नान-योग कहते हैं। हिंदू धार्मिक मान्‍यता के अनुसार किसी भी कुंभ मेले में पवित्र नदी में स्‍नान या तीन डुबकी लगाने से सभी पुराने पाप धुल जाते हैं और मनुष्‍य को मोक्ष की प्राप्‍ति होती है।
ग्रहों की चाल के कारण गंगा जल हो जाता है औषधिकृत:-
कहा जाता है कि इस दौरान ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी के पास गंगा जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है। यही कारण है ‍कि अपनी अंतरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहां जुटते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुंभ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है।
कुंभ मेले का ज्योतिषीय महत्व
ग्रह नक्षत्रों के विचरण के अनुसार, हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में सदियों से हर तीसरे वर्ष अर्ध या पूर्ण कुम्भ का आयोजन होता है। यह मूल रूप में बृहस्पति और सूर्य ग्रह की स्थिति के आधार पर विभिन्न स्थानों पर मनाया जाता है। खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है। इस दिन को विशेष मंगलिक माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन उच्च लोक के द्वार खुलते हैं और इस दिन कुंभ स्नान करने से आत्मा को उच्च लोक की प्राप्ति हो जाती है।
कुंभ मेला : पौराणिक मान्यता केअनुसार:-
कुंभ को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं जिनमें प्रमुख समुद्र मंथन के दौरान निकलनेवाले अमृत कलश से जुड़ा है। महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब भगवान विष्णु ने उन्हें दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। क्षीरसागर मंथन के बाद अमृत कुंभ के निकलते ही इंद्र के पुत्र ‘जयंत’ अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गए। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेश पर दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा कर उसे पकड़ लिया। अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक लगातार युद्ध होता रहा। इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक में कलश से अमृत बूंदें गिरी थीं। शांति के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर सबको अमृत बांटकर देव-दानव युद्ध का अंत किया। तब से जिस-जिस स्थान पर अमृत की बूंदें गिरीं थीं, वहां कुंभ मेले का अायोजन होता है।
कुंंभ मेला:2019- स्नान की तारीख
14-15 जनवरी 2019 : मकर संक्रांति (पहला शाही स्नान)
21 जनवरी 2019 : पौष पूर्णिमा
31 जनवरी 2019 : पौष एकादशी स्नान
04 फरवरी 2019 : मौनी अमावस्या (मुख्य शाही स्नान, दूसरा शाही स्नान)
10 फरवरी 2019 : बसंत पंचमी (तीसरा शाही स्नान)
16 फरवरी 2019 : माघी एकादशी
19 फरवरी 2019 : माघी पूर्णिमा
04 मार्च 2019 : महाशिवरात्रि

भगवान सूर्य के अष्टोत्तरशतनाम

🙏🌞🙏🌞🙏🌞

 🌞🌹🙏    *🙏🏻भगवान सूर्य के अष्टोत्तरशतनाम नाम (हिन्दी में)–ब्रह्माजी द्वारा बताए गए भगवान सूर्य के एक सौ आठ नाम जो स्वर्ग और मोक्ष देने वाले हैं, इस प्रकार हैं–*

१. सूर्य,
२. अर्यमा,
३. भग,
४. त्वष्टा,
५. पूषा (पोषक),
६. अर्क,
७. सविता,
८. रवि,
९. गभस्तिमान (किरणों वाले),
१०. अज (अजन्मा),
११. काल,
१२. मृत्यु,
१३. धाता (धारण करने वाले),
१४. प्रभाकर (प्रकाश का खजाना),
१५. पृथ्वी,
१६. आप् (जल),
१७. तेज,
१८. ख (आकाश),
१९. वायु,
२०. परायण (शरण देने वाले),
२१. सोम,
२२. बृहस्पति,
२३. शुक्र, २४. बुध,
२५. अंगारक (मंगल),
२६. इन्द्र, २७. विवस्वान्,
२८. दीप्तांशु (प्रज्वलित किरणों वाले),
२९. शुचि (पवित्र),
३०. सौरि (सूर्यपुत्र मनु),
३१. शनैश्चर, ३२. ब्रह्मा,
३३. विष्णु,
३४. रुद्र,
३५. स्कन्द (कार्तिकेय),
३६. वैश्रवण (कुबेर),
३७. यम,
३८. वैद्युताग्नि,
३९. जाठराग्नि,
४०. ऐन्धनाग्नि, 
४१. तेज:पति,
४२. धर्मध्वज,
४३. वेदकर्ता,
४४. वेदांग,
४५. वेदवाहन,
४६. कृत (सत्ययुग),
४७. त्रेता,
४८. द्वापर,
४९. सर्वामराश्रय कलि,
५०. कला, काष्ठा मुहूर्तरूप समय,
५१. क्षपा (रात्रि),
५२. याम (प्रहर),
५३. क्षण,
५४. संवत्सरकर,
५५. अश्वत्थ,
५६. कालचक्र प्रवर्तक विभावसु,
५७. शाश्वतपुरुष,
५८. योगी,
५९. व्यक्ताव्यक्त,
६०. सनातन,
६१. कालाध्यक्ष,
६२. प्रजाध्यक्ष,
६३. विश्वकर्मा,
६४. तमोनुद (अंधकार को भगाने वाले),
६५. वरुण,
६६. सागर,
६७. अंशु,
६८. जीमूत (मेघ),
६९. जीवन,
७०. अरिहा (शत्रुओं का नाश करने वाले),
७१. भूताश्रय,
७२. भूतपति,
७३. सर्वलोकनमस्कृत,
७४. स्रष्टा,
७५. संवर्तक,
७६. वह्नि,
७७. सर्वादि,
७८. अलोलुप (निर्लोभ),
७९.  अनन्त,
८०. कपिल,
८१. भानु,
८२. कामद,
८३. सर्वतोमुख, 
८४. जय, 
८५. विशाल,
८६. वरद,
८७. सर्वभूतनिषेवित,
८८. मन:सुपर्ण,
८९. भूतादि,
९०. शीघ्रग (शीघ्र चलने वाले),
९१. प्राणधारण,
९२. धन्वन्तरि,
९३. धूमकेतु,
९४. आदिदेव,
९५. अदितिपुत्र,
९६. द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों वाले),
९७. अरविन्दाक्ष,
९८. पिता-माता-पितामह,
९९. स्वर्गद्वार-प्रजाद्वार,
१००. मोक्षद्वार,
१०१. देहकर्ता,
१०२. प्रशान्तात्मा,
१०३. विश्वात्मा,
१०४. विश्वतोमुख,
१०५. चराचरात्मा,
१०६. सूक्ष्मात्मा,
१०७. मैत्रेय,
१०८. करुणान्वित (दयालु)।

   *सूर्य के नामों की व्याख्या*👇🏿👇🏿

*सूर्य के अष्टोत्तरशतनामों में कुछ नाम ऐसे हैं जो उनकीपरब्रह्मरूपता प्रकट करते हैं जैसे–अश्वत्थ, शाश्वतपुरुष, सनातन, सर्वादि, अनन्त, प्रशान्तात्मा, विश्वात्मा, विश्वतोमुख, सर्वतोमुख, चराचरात्मा, सूक्ष्मात्मा।*

*सूर्य की त्रिदेवरूपता बताने वाले नाम हैं–ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शौरि, वेदकर्ता, वेदवाहन, स्रष्टा, आदिदेव व पितामह। सूर्य से ही समस्त चराचर जगत का पोषण होता है और सूर्य में ही लय होता है, इसे बताने वाले सूर्य के नाम हैं–प्रजाध्यक्ष, विश्वकर्मा, जीवन, भूताश्रय, भूतपति, सर्वधातुनिषेविता, प्राणधारक, प्रजाद्वार, देहकर्ता और चराचरात्मा।*

*सूर्य का नाम काल है और वे काल के विभाजक है, इसलिए उनके नाम हैं–कृत, त्रेता, द्वापर, कलियुग, संवत्सरकर, दिन, रात्रि, याम, क्षण, कला, काष्ठा–मुहुर्तरूप समय।*

*सूर्य ग्रहपति हैं इसलिए एक सौ आठ नामों में सूर्य के सोम, अंगारक, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर व धूमकेतु  नाम भी हैं।*

*उनका ‘व्यक्ताव्यक्त’ नाम यह दिखाता है कि वे शरीर धारण करके प्रकट हो जाते हैं। कामद, करुणान्वित नाम उनका देवत्व प्रकट करते हुए यह बताते हैं कि सूर्य की पूजा से इच्छाओं की पूर्ति होती है।*

*सूर्य के नाम मोक्षद्वार, स्वर्गद्वार व त्रिविष्टप यह प्रकट करते हैं कि सूर्योपासना से स्वर्ग की प्राप्ति होती हैं। उत्तारायण सूर्य की प्रतीक्षा में भीष्मजी ने अट्ठावन दिन शरशय्या पर व्यतीत किए। गीता में कहा गया है–उत्तरायण में मरने वाले ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं। सूर्य के सर्वलोकनमस्कृत नाम से स्पष्ट है कि सूर्यपूजा बहुत व्यापक है।*

*अमित तेजस्वी, सुवर्ण एवं अग्नि के समान कान्ति वाले भगवान सूर्य–जो देवगण, पितृगण एवं यक्षों के द्वारा सेवित हैं तथा असुर, निशाचर, सिद्ध एवं साध्य के द्वारा वन्दित हैं–के कीर्तन करने योग्य एक सौ आठ नाम हैं जिनका उपदेश साक्षात् ब्रह्मजी ने दिया है।*

*सूर्योदय के समय इस सूर्य-स्तोत्र का नित्य पाठ करने से व्यक्ति स्त्री, पुत्र, धन, रत्न, पूर्वजन्म की स्मृति, धैर्य व बुद्धि प्राप्त कर लेता है। उसके समस्त शोक दूर हो जाते हैं व सभी मनोरथों को भी प्राप्त कर लेता है*
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सोमवार, 14 जनवरी 2019

नरेंद्र मोदी को मिला फिलिप कोटलर पुरस्कार

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को उनके "उत्कृष्ट नेतृत्व" के लिए पहली बार फिलिप कोटलर राष्ट्रपति पुरस्कार मिला। पुरस्कार समिति ने अपनी "अथक ऊर्जा" के साथ नेता की "भारत के प्रति निस्वार्थ सेवा" की सराहना की। पीएम मोदी को राजधानी में उनके सरकारी आवास, 7 लोक कल्याण मार्ग में कोटलर से सम्मानित किया गया। फिलिप कोटलर पुरस्कार तीन पहलुओं पर केंद्रित है - लोग, लाभ और ग्रह। यह पुरस्कार, यहां दिया जाएगा, प्रतिवर्ष एक राष्ट्र के नेता को दिया जाएगा।

पुरस्कार के उद्धरण में लिखा गया है: "श्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्र के लिए उनके उत्कृष्ट नेतृत्व के लिए चुना गया है। उनकी अथक ऊर्जा के साथ भारत के प्रति निस्वार्थ सेवा के कारण देश में असाधारण आर्थिक, सामाजिक और तकनीकी विकास हुआ है।"

प्रशस्ति पत्र में आगे कहा गया है कि प्रधान मंत्री के नेतृत्व में, भारत को मेक इन इंडिया का उल्लेख करते हुए नवाचार और मूल्य वर्धित विनिर्माण के केंद्र के रूप में पहचाना गया है। उद्धरण में आगे कहा गया है कि भारत पेशेवर सेवाओं जैसे सूचना प्रौद्योगिकी, लेखा और वित्त के लिए भी एक वैश्विक केंद्र बन गया है।
https://awneeshd.blogspot.com/2019/01/philip-kotler-award.html

मकर संक्रांति विशेष

मकर संक्रांति विशेष
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मकर संक्रांति का पौराणिक महत्व
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शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायण को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ऐसी धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है। इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है।

मकर संक्रांति से अग्नि तत्त्व  की शुरुआत होती है और कर्क संक्रांति से जल तत्त्व की. इस समय सूर्य उत्तरायण होता है अतः इस समय किये गए जप और दान का फल अनंत गुना होता है मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यन्त शुभ माना गया है। इस पर्व पर तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गयी है। सामान्यत: सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किन्तु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त फलदायक है। यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया छ:-छ: माह के अन्तराल पर होती है। भारत देश उत्तरी गोलार्ध में स्थित है। मकर संक्रान्ति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है अर्थात् भारत से अपेक्षाकृत अधिक दूर होता है। इसी कारण यहाँ पर रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है। किन्तु मकर संक्रान्ति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर आना शुरू हो जाता है। अतएव इस दिन से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गरमी का मौसम शुरू हो जाता है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अन्धकार कम होगा। अत: मकर संक्रान्ति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्य शक्ति में वृद्धि होगी।
       
मकर संक्रांं‍ति पूजा व‍िध‍ि
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भविष्यपुराण के अनुसार सूर्य के उत्तरायण के दिन संक्रांति व्रत करना चाहिए। पानी में तिल मिलाकार स्नान करना चाहिए। अगर संभव हो तो गंगा स्नान करना चाहिए। इस द‍िन तीर्थ स्थान या पवित्र नदियों में स्नान करने का महत्व अधिक है।इसके बाद भगवान सूर्यदेव की पंचोपचार विधि से पूजा-अर्चना करनी चाहिए इसके बाद यथा सामर्थ्य गंगा घाट अथवा घर मे ही पूर्वाभिमुख होकर यथा सामर्थ्य गायत्री मन्त्र अथवा सूर्य के इन मंत्रों का अधिक से अधिक जाप करना चाहिये।

मन्त्र 👉  १- ऊं सूर्याय नम: ऊं आदित्याय नम: ऊं सप्तार्चिषे नम:

२-  ऋड्मण्डलाय नम: , ऊं सवित्रे नम: , ऊं वरुणाय नम: , ऊं सप्तसप्त्ये नम: , ऊं मार्तण्डाय नम: , ऊं विष्णवे नम:

पूजा-अर्चना में भगवान को भी तिल और गुड़ से बने सामग्रियों का भोग लगाएं। तदोपरान्त ज्यादा से ज्यादा भोग प्रसाद बांटे।

इसके घर में बनाए या बाजार में उपलब्ध तिल के बनाए सामग्रियों का सेवन करें। इस पुण्य कार्य के दौरान किसी से भी कड़वे बोलना अच्छा नहीं माना गया है।

मकर संक्रांति पर अपने पितरों का ध्यान और उन्हें तर्पण जरूर देना चाहिए।

राशि के अनुसार दान योग्य वस्तु
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मेष🐐 गुड़, मूंगफली दाने एवं तिल का दान करें।
वृषभ🐂 सफेद कपड़ा, दही एवं तिल का दान करें।
मिथुन👫 मूंग दाल, चावल एवं कंबल का दान करें।
कर्क🦀 चावल, चांदी एवं सफेद तिल का दान करें।
सिंह🦁 तांबा, गेहूं एवं सोने के मोती का दान करें।
कन्या👩 खिचड़ी, कंबल एवं हरे कपड़े का दान करें।
तुला⚖️ सफेद डायमंड, शकर एवं कंबल का दान करें।
वृश्चिक🦂 मूंगा, लाल कपड़ा एवं तिल का दान करें।
धनु🏹 पीला कपड़ा, खड़ी हल्दी एवं सोने का मोती दान करें।
मकर🐊 काला कंबल, तेल एवं काली तिल दान करें।
कुंभ🍯 काला कपड़ा, काली उड़द, खिचड़ी एवं तिल दान करें।
मीन🐳 रेशमी कपड़ा, चने की दाल, चावल एवं तिल दान करें।
 
कुछ अन्य उपाय
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सूर्य और शनि का सम्बन्ध इस पर्व से होने के कारण यह काफी महत्वपूर्ण है
👉  कहते हैं इसी त्यौहार पर सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने के लिए आते हैं
👉 आम तौर पर शुक्र का उदय भी लगभग इसी समय होता है इसलिए यहाँ से शुभ कार्यों की शुरुआत होती है
👉 अगर कुंडली में सूर्य या शनि की स्थिति ख़राब हो तो इस पर्व पर विशेष तरह की पूजा से उसको ठीक कर सकते हैं
👉 जहाँ पर परिवार में रोग कलह तथा अशांति हो वहां पर रसोई घर में ग्रहों के विशेष नवान्न से पूजा करके लाभ लिया जा सकता है
👉 पहली होरा में स्नान करें,सूर्य को अर्घ्य दें
👉 श्रीमदभागवद के एक अध्याय का पाठ करें,या गीता का पाठ करें
👉 मनोकामना संकल्प कर नए अन्न,कम्बल और घी का दान करें
👉 लाल फूल और अक्षत डाल कर सूर्य को अर्घ्य दें
👉 सूर्य के बीज मंत्र का जाप करें
मंत्र  "ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः"
👉 संध्या काल में अन्न का सेवन न करें
👉 तिल और अक्षत डाल कर सूर्य को अर्घ्य दें
👉 शनि देव के मंत्र का जाप करें
👉 मंत्र  "ॐ प्रां प्री प्रौं सः शनैश्चराय नमः"
-👉 घी,काला कम्बल और लोहे का दान करें।

मकर संक्रांति १४ या १५ जनवरी को, शंका समाधान
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मकर संक्रांति का त्योहार हर साल सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के अवसर पर मनाया जाता है। बीते कुछ वर्षों से मकर संक्रांति की तिथि और पुण्यकाल को लेकर उलझन की स्थिति बनने लगी है। इस साल भी कुछ ज्योतिषी कह रहे हैं कि मकर संक्रांति १४ की नहीं बल्कि १५ जनवरी को मनाई जाएगी। आइए देखें कि यह उलझन की स्थिति क्यों बनी हैं और मकर संक्रांति का पुण्यकाल और तिथि मुहूर्त क्या है।
दरअसल इस उलझन के पीछे खगोलीय गणना है। गणना के अनुसार हर साल सूर्य के धनु से मकर राशि में आने का समय करीब २० मिनट बढ़ जाता है। इसलिए करीब ७२ साल के बाद एक दिन के अंतर पर सूर्य मकर राशि में आता है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि मुगल काल में अकबर के शासन काल के दौरान मकर संक्रांति १० जनवरी को मनाई जाती थी। अब सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का समय १४ और १५ के बीच में होने लगा क्योंकि यह संक्रमण काल है।

साल २०१२ में सूर्य का मकर राशि में प्रवेश १५ जनवरी को हुआ था इसलिए मकर संक्रांति इस दिन मनाई गई थी। आने वाले कुछ वर्षों में तथा इस साल भी मकर संक्रांति १५ जनवरी को ही मनाई जाएगी ऐसी गणना कहती है। इतना ही नहीं करीब पांच हजार साल बाद मकर संक्रांति फरवरी के अंतिम सप्ताह में मनाई जाने लगेगी

ज्योतिषीय गणना के अनुसार इस साल सूर्य का मकर राशि में प्रवेश सायं ०७:५० पर होगा। देवी पुराण के अनुसार संक्रांति से १५ घटी पहले और बाद तक का समय पुण्यकाल होता है। संक्रांति १४ तारीख की संध्या के समय होने की वजह से साल २०१९ में मकर संक्रांति का त्योहर १५ जनवरी को मनाया जाएगा और इसका पुण्यकाल १४ जनवरी मध्यान से लेकर १५ जनवरी मध्यान तक रहेगा जो बहुत ही शुभ संयोग है।

१५ जनवरी को उदया तिथि के कारण ही मकर संक्रांति १५ जनवरी को मनाई जाएगी। इस दिन मकर राशि में सूूर्योदय होने के कारण करीब ढ़ाई घंटे तक संक्रांति के पुण्यकाल का दान पुण्य करना भी शुभ रहेगा। इसलिए इस साल मेघ मेले में मकर संक्रांति का स्नान दोनों दिन यानी १४ और १५ जनवरी को होगा।

मकर संक्रांति फल
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भगवान सूर्य देव १४ जनवरी सोमवार को रात्रि ०७:५० बजे उतराषाढ़ा
नक्षत्र के दूसरे चरण मकर राशि में प्रवेश करेगें। उस समय चन्द्र देव
अश्विनी नक्षत्रमेष राशि में विचरण करेगें। इस अवधि में सिद्धि योग व
बवकरण रहेगा।  सक्रान्ति का वाहन सिंह (शेर) उप वाहन हाथी है वार नाम व
नक्षत्र नाम ध्वांक्षी है। जो उद्योगपतियों, व्यापारियों, आयात निर्यात
करने वालो, शेयर कारोबारियों के लिये सुख फलदायक है। सक्रान्ति का उत्तर
दिशा की और गमन एवं ईशान कोण पर दृष्टि है। जिसके प्रभाव से देश के
उत्तरी प्रांतों एवं उत्तरी क्षैत्रों  के लिए कष्टकारक योग बनेगें। देव
जाति की यह सक्रान्ति शरीर पर कस्तूरी का लेप लगाकर सफेद वस्त्र पहने,
पिरोज के आभूषण धारण कर पुनांग का पुष्प एवं माला पहने, हाथों में शस्त्र
भाला लेकर सोने का पात्र लिये हुये अन्न का भोजन कर वैश्य के घर में
प्रवेश कर रही है। जो ३० मुहूर्त वाली है जिससे सभी धान्य पदार्थो के भाव
स्थिर रहेगें चावल, फल-फूल, सब्जी, सुगन्धित पदार्थ, सुत, कपास, वस्त्र,
धातु, सोना-चांदी, सफेद वस्तुओं के भाव तेज होगें शेयर बाजार में तेजी
आयेगी। संक्रान्ति रात्रि एक याम व्यापिनी होने से आतंकवादियों, हिसंक
प्रवृत्ति वालों, देश द्रोहियों के लिये कष्ट कारक रहेगी।

वेदों में सूर्य उपासना को सर्वोपरि माना गया है। जो आत्मा,
जीव, सृष्टि का कारक एक मात्र देवता है जिनके हम साक्षात रूप से दर्शन
करते है। सूर्य देव कर्क से धनु राशि में ६ माह भ्रमण कर दक्षिणयान होते
है जो देवताओं की एक रात्रि होती है। सूर्य देव मकर से मिथुन राशि में ६
माह भ्रमण कर उत्तरायण होते है जो एक दिन होता है। जिसमें सिद्धि साधना
पुण्यकाल के साथ-साथ मांगलिक कार्य विवाह, ग्रह प्रवेश, जनेउ, संस्कार,
देव प्राण, प्रतिष्ठा, मुंडन कार्य आदि सम्पन्न होते है। सूर्य देव मकर
राशि में प्रवेश करते है इस सक्रमण को मकर सक्रान्ति कहा जाता है जिसमें
स्वर्ग के द्वार खुलते है। मुहुर्त चिंतामणी के अनुसार सूर्य सक्रान्ति
समय से १६ घटी पहले एवं १६ घटी बाद तक का पुण्य काल होता है निर्णय
सिन्धु के अनुसार मकर सक्रान्ति का पुण्यकाल सक्रान्ति से २० घटी बाद तक
होता है किन्तु सूर्यास्त के बाद मकर सक्रान्ति प्रदोष काल रात्रि काल
में हो तो पुण्यकाल दूसरे दिन माना जाता है। इस वर्ष सक्रान्ति का
शुभारंभ १४ सोमवार की रात्रि को ०७:५० बजे होने से पंचागों की गणना अनुसार
पुण्यकाल दिन में ०१:२६ बजे से होगा। किन्तु सक्रान्ति रात्रि एक याम
व्यापिनी होने से ग्रन्थों के अनुसार सक्रान्ति का पुण्यकाल १५ जनवरी
मंगलवार को सूर्योदय ०७:१९ बजे से दिन में ११:५० बजे तक रहेगा। जिसमें
अमृत सिद्धि योग दोपहर ०१:५४ बजे तक एवं उपरांत रवि योग का अदभुत संयोग
होगा। पुण्यकाल समय  में अमृत सिद्धि योग रवि योग में दान पुण्य स्नान
आदि समस्त कार्य करने से हजार गुना फल मिलेगा।

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रविवार, 13 जनवरी 2019

अभिलाष्टकम्

। अभिलाष्टकम् ।।
एकं ब्रह्मैवाद्वितीयं समस्तं सत्यं सत्यं नेह नानास्ति कित्र्चित् ।
एको रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे तस्मादेकं त्वां प्रपद्ये महेशम् ।।
कर्ता हर्ता त्वं हि सर्वस्य शम्भो नानारूपेष्वेकरूपोऽप्यरूप: ।
यद्वत्प्रत्यग्धर्म एकोऽप्यनेक स्तस्मान्नायं त्वा विनेशं प्रपद्ये ।।
रज्जौ सर्प: शुक्तिकायां च रौप्यं नैर: पूरस्तन्मृगाख्ये मरीचौ ।
यद्यत्सद्वद्विष्वगेव प्रपत्र्चो यस्मिन् ज्ञाते तं प्रपद्ये महेशम् ।।
तोये शैत्यं दाहकत्वं च वह्यौ तापो भानौ शीतभानौ प्रसाद: ।
पुष्पे गन्धो दुग्धमध्येऽपि सर्पिर्यत्तच्छम्भो त्वं ततस्त्वां प्रपद्ये ।।
शब्दं गृह्णास्यश्रावस्त्वं हि जिघ्रस्याघ्राणस्त्वं व्यंघ्रिरायासि दूरात् ।
व्यक्ष: पश्येस्त्वं रसज्ञोऽप्यजिह्व: कस्त्वां सम्यग्वेत्त्यतस्त्वां प्रपद्ये ।।
नो वेद त्वामीश साक्षाद्धि वेदो नो वा विष्णुर्नो विधाताखिलस्य ।
नो योगीन्द्रा नेन्द्रमुख्याश्र्च देवा भक्तो वेद त्वामतस्त्वां प्रपद्ये ।।
नो ते गोत्रं नेश जन्मापि नाख्या नो वा रूपं नैव शीलं न देश: ।
इत्थम्भूतोऽपीश्वरस्त्वं त्रिलोक्या: सर्वान्कामान्पूरयेस्त्वं भजे त्वाम् ।।
त्वत्त: सर्वं त्वं हि सर्वं स्मरारे त्वं गौरीशस्त्वं नग्नोऽतिशान्त: ।
त्वं वै वृद्धस्त्वं युवा त्वं च बालस्तत्त्वं यत्किं नान्यतस्त्वां नतोऽहम् ।।
- यह सब कुछ एक अद्वितीय ब्रह्म ही है और वही सत्य है - वही सत्य है और सर्वत्र उस ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नही है । वह ब्रह्म ही एकमात्र ही है और तो दूसरा कोई भी नही है इसीलिये हे महादेव मै एकमात्र आप ही की शरण प्राप्त करता हूँ ।
हे महादेव शम्भो एक आप ही सभी का सृजन तथा हरण करने वाले है । हे महादेव आप तो रूपविहीन हो कर भी अनेकों रूपों वाले हैं , जैसे आत्मधर्म एक होता हुआ भी अनेकों रूपों वाला है इसीलिये हे महादेव आप को छोड़ कर किसी अन्य की शरण प्राप्त नही करना चाहता हूँ ।
जिस प्रकार रस्सी मे साँप , सीपी मे चाँदी , मृगमरीचिका मे जल ( मिथ्या ) भासित होता है उसी प्रकार हे महादेव यह सारा का सारा प्रपंच आप मे ही भासित हो रहा है जिसे जान लेने पर इस प्रपंच का मिथ्यात्व भली भाँति ज्ञात हो जाता है इसीलिये मै उन्ही महादेव की शरण को प्राप्त करता हूँ ।
हे महादेव शम्भो ! जिस प्रकार जल मे शीतलता , अग्नि मे दाहकता , सूर्य मे ताप , चन्द्रमा मे आल्हादकत्व , फूलों मे गन्ध , दूध मे घी समाया हुआ रहता है उसी प्रकार हे महादेव आप ही आप सर्वत्र व्याप्त है अत: मै आप ही की शरण प्राप्त करता हूँ ।
हे महादेव आप कानों के बिना सुनते हैं , नाक के बिना सूँघते हैं , पैरों के बिना दूर से आते हैं , आँखों के बिना देखते हैं , जीभ के बिना रस लेते हैं । आप को भला कौन भली भाँति जान सकता है इसी प्रकार हे महादेव मै आपकी शरण प्राप्त करता हूँ ।
हे ईश ! आप को न तो साक्षात् वेद , न विष्णु , न सर्वस्त्रष्टा ब्रह्मा , न योगीन्द्र और न ही इन्द्रादि देवता गण ही जान सकते है । हे महादेव आप को तो केवल भक्त ही जान पाता है अत: हे महादेव मै आप की शरण प्राप्त करता हूँ ।
हे महादेव ! न तो आप का कोई गोत्र है , न जन्म ही है और न ही आप का कोई देश या नाम या रूप या शील ही है । ऐसा सब होते हुये भी आप तीनो लोकों के स्वामी है और आप ही समस्त मनोरथों को पूर्ण करते हैं , अत: हे महादेव मै तो आप ही का भजन करता हूँ ।
हे कामदेव के शत्रु महादेव सभी कुछ आप ही से है और ‘ आप ही सब कुछ हैं ‘ आप पार्वती पति हैं , आप दिगम्बर हैं , अत्यन्त शान्त हैं , वृद्ध हैं , युवा है , बालक हैं , ऐसा कौन सा पदार्थ है जो आप नही है अत: हे महादेव मै आप को नमस्कार करता हूँ ।
।। महादेव ।।

शनिवार, 12 जनवरी 2019

भगवान शिव के 35 रहस्य

भगवान शिव के 35 रहस्य


भगवान शिव अर्थात पार्वती के पति शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है, उनके बारे में यहां प्रस्तुत हैं 35 रहस्य।

1. आदिनाथ शिव

सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम 'आदिश' भी है।

2. शिव के अस्त्र-शस्त्र

शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।

3. शिव का नाग

शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।

4. शिव की अर्द्धांगिनी

शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।

5. शिव के पुत्र

शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है।

6. शिव के शिष्य

शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।

7. शिव के गण

शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। शिवगण नंदी ने ही 'कामशास्त्र' की रचना की थी। 'कामशास्त्र' के आधार पर ही 'कामसूत्र' लिखा गया।

8. शिव पंचायत

भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।

9. शिव के द्वारपाल

नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।

10. शिव पार्षद

जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।

11. सभी धर्मों का केंद्र शिव

शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में वि‍भक्त हो गई।

12. बौद्ध साहित्यके मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर।

13. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव

भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।

14. शिव चिह्न

वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।

15. शिव की गुफा

शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा 'अमरनाथ गुफा' के नाम से प्रसिद्ध है।

16. शिव के पैरों के निशान

श्रीपद- श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।

रुद्र पद- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्‍वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे 'रुद्र पदम' कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।

तेजपुर- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।

जागेश्वर- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।

रांची- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर 'रांची हिल' पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को 'पहाड़ी बाबा मंदिर' कहा जाता है।

17. शिव के अवतार

वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।

18. शिव का विरोधाभासिक परिवार

शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।

19. ति‍ब्बतस्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।

20.शिव भक्त :ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।

21.शिव ध्यान :शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।

22.शिव मंत्र :दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।

23.शिव व्रत और त्योहार :सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।

24.शिव प्रचारक :भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

25.शिव महिमा :शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।

26.शैव परम्परा :दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।

27.शिव के प्रमुख नाम :शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।

28.अमरनाथ के अमृत वचन :शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।

29.शिव ग्रंथ :वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।

30.शिवलिंग :वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।

31.बारह ज्योतिर्लिंग :सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है। दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्‍योतिर्लिंग में शामिल किया गया।
32.शिव का दर्शन :शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

33.शिव और शंकर :शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं– शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेष (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।

34.देवों के देव महादेव :देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।

35.शिव हर काल में :भगवान शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं। राम के समय भी शिव थे। महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है। भविष्य पुराण अनुसार राजा हर्षवर्धन को भी भगवान शिव ने दर्शन दिए थे।
🙏ॐ नमः शिवाय🙏।    हर हर महादेव जी।

गजासुर का वध

 ((((((( महादेव का वरदान ))))))) 🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸 गज और असुर के संयोग से एक असुर का जन्म हुआ. उसका मुख गज जैसा होने के कारण उसे गजासु...