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राजा पुरंजन की कथा

संत नारदजी कहते हैं- एक पुरंजन नाम का राजा था, पुरंजन के सखा का नाम था अविज्ञात, मैं जरा स्पस्ट करता चलूं, आप सभी पुरंजन है और मैं भी पुरंजन हूँ और हमारे सखा का नाम है अविज्ञात, "न ज्ञातुं यः सः अविज्ञात" जो किसी के द्वारा जाना नहीं जा सकता, उसे अविज्ञान कहते है।
एक बार इस पुरंजन राजा ने अविज्ञात सखा को साथ में लिया और किसी सुंदरनगर की तलाश में निकला, कोई नगर इसे पसंद नहीं आया, तब उसने हिमालय की दक्षिण दिशा में एक नौ दरवाजे वाले नगर को देखा, गीता में लिखा है- "नवद्वारे पुरेदेहि" नौ दरवाजे का नगर ही हमारा शरीर है।

शरीर मैं नौ द्वार होते हैं- दो कान, दो आंखे, दो नासाछिद्र, एक मुख और उपस्थ, इन्द्रि (मलद्वार मूत्र द्वार) है, इस प्रकार शरीर में नौ द्वार है, इस पुरंजन नाम के जीव ने शरीर रूपी नगर में प्रवेश किया, जैसे ही नगर के अन्दर गया, एक परम सुन्दरी नारी को देखा, नगर के भीतर बैठी थी।
जीव ने पूछा- देवी, आपका परिचय क्या है? नारी बोली- मेरा क्या परिचय है ये तो मैं भी नहीं जानती, लेकिन मुझे अपने साथ में रखोगे तो मैं तुम्हारा सहयोग जरूर करूंगी, तो उस पुरंजन जीव ने उसका नाम रख दिया पुरंजनी, उसी नारी को हम कहते है बुद्धि, ये बुद्धि हमारे नगर की स्वामिनी है, लेकिन अकेली नहीं थी, उस नारी के साथ दस सहेलीयां है।

पांच ज्ञानेन्दरियां और पांच करमेंन्द्रियां, नगर में जब अन्दर गया तो डंडा लेकर बैठा था विशूचीन, जिसे हम मन कहते है, जब जीव ने बुद्धि रूपी पुरंजनी से विवाह कर लिया तो वो खाती तो खाता, वो रोती तो रोता, वो सोती तो सोता उसके वश में हो गया पुरंजन नाम का जीव, नगर में वास कर रहा है।
रात्रि में इस देह रूपी नगरी में रहने वाले सब लोग सो जाते है, बुद्धि और उसकी दस सहेलियां भी, पर इस नगर का प्रधान द्वार है न इस पर एक पांच फण का नाग बैठा रहता है, ये कभी सोता नहीं है, इस पांच फण के नाग का नाम है पंचप्राण! प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान।
रात्रि में जब हम सो जाते है तो सब इन्द्रियां भी सो जाती है, लेकिन ये प्राण कभी नहीं सोते और यदि ये एक मिनट के लिए भी सो जाये न तो फिर बेटा भी कहेगा, जल्दी नीचे उतारो दुर्गन्धि आ जायेगी, जल्दी ले चलो, एक मिनट भी घर में नहीं रखना चाहते।

नगरी के सामने एक राजा रहता है, उस राजा का नाम है चंडवेगा, चंडवेग कहते है काल को, इसने पूरी सेना लेकर नगर पर चढ़ाई कर दी, सेना में सात सौ बीस गंधर्व और गंधर्वियां है, सालभर के जो तीन सौ साठ दिन है वो गंधर्व है, तीन सौ साठ रात्रियां ही गंधर्वियां है, इन सभी को लेकर चंडवेग राजा ने देह नगरी पर चढ़ाई की।
लेकिन पंचफण का नाग जो पंचप्राण है अकेला लड़ता रहा, नगर को लुटने नहीं दिया, चंडवेग ने कहा- बड़ी विचित्र बात है, ये लुटता ही नहीं, तब एक और काम हुआ, चंडवेग की बेटी का नाम है जरा, जरा यानि बुढ़ापा, उसने अपनी बेटी जरा से कहा- बेटी ये नगर बड़ा मजबूत है, इसे जरा कमजोर बनाओं, जरा, जो बुढ़ापा थी वो गयी।

अब देखो- बूढ़ा बनना कोई चाहता थोड़ी है, ये तो जबरदस्ती आता है, बड़े-बड़े प्रयास किये जाते है बूढ़े नहीं हो जायें लेकिन जबर्दस्ती होते है, मौत की चार घंटी बजती हैं, कौन-कौन सी? मौत की पहली घंटी बजती है- बाल सफेद हो जाना, यदि बाल सफेद हो जायें तो समझो पहली घंटी बज गयी।

मौत कहती है- बड़ा सुगंधी तेल लगाया था, बड़ी जुल्फें निकाली थी, बड़े केशों को संवारा था, अब तो सफेदी आ गयी, माला हाथ में लेकर भजन करों, पर जीव नहीं मानता सज्जनों! ऐसा बढ़िया तेल लगावेगा जो सफेद भी काले हो जायें, कई लोग काली मेंहदी लगाते है, न जाने क्या-क्या? कि कहीं सफेदी न आ जाये, बड़े-बड़े प्रयास करते है, पर भजन नहीं करते।

मौत कहती है पहली घंटी बजी, फिर भी माला हाथ में नहीं ली, मृत्यु देवी की दूसरी घंटी क्या बजी सज्जनों! आँखों से दीखना कम हो गया, मौत कहती है- तुमने बड़ी दुनियां की रंगरेलियां देखीं, बड़े सिनेमा देखे, सुख-दुख देखा, सुनो अब बाहर देखना बंद करो, जरा अन्दर देखना शुरू करो, मैं अन्दर क्या हूँ।
पर जीव नहीं मानता- ऐसा चश्मा लगाता है, लेंस लगवा लेता है, चश्मा की टेक्नोलॉजी तो पुरानी हो गयी, अभी तो लेंस आँखों में ही फिटिंग हो जाता है, चश्मा की जरूरत नहीं, पहले से भी बढ़िया दिखता है पर नहीं करेंगे भजन और नहीं करेंगे कीर्तन, नहीं लेंगे माला, तो मृत्यु देवी की तीसरी घंटी बजी, तीसरी घंटी क्या बजी? बत्तीसों दांत निकलकर बाहर आ गये।

मौत कहती है- तुमने मिर्ची वडा बहुत खाया है, बड़ा चनाजोर गर्म खाता था, अब तो दांत नहीं रहे, दलिया खाकर भजन करो, अब तो गाय का दूध पीकर भजन करो, सात्विक भोजन लेकर भजन करो, परन्तु जीव नहीं मानता- ऐसा बढ़िया सेट बंधवाता है कि मूल दांतो से भी सुन्दर, लेकिन भजन नहीं करता, तो मृत्यु देवी की चौथी घंटी बजी।

चौथी घंटी क्या बजी? कमर तीन जगह से टेढ़ी हो गयी, मौत कहती है बड़े छाती तानकर चलते थे, मैं राजा हूँ, मैं सेठ हूँ, मैं पण्डित हूँ, छाती तानकर दुनियां के सामने चलते थे, भैया- अब कमर झुक गयी, बुढ़ापा आ गया, अब तो झुकना सीखो, अब तो सभी में राम देखकर प्रणाम करना सीखो, कीर्तन शुरू करो गोविन्द का।
लेकिन जीव नहीं मानता सज्जनों! वो च्यवनप्राश खाना शुरू कर देता है, वो शीलाजीत खाता है, स्वर्णभस्म खाता है, मोतीपिस्टी खाता है, नहीं बनूंगा वृद्ध, नहीं करूंगा भजन, चार घंटी बजने के बाद भी जब अक्ल नहीं आयी तो सज्जनों! पाँचवी घंटी बजते ही चला ••• "टेढ़े होकर चलता करते मान गुमान, सो महल खाली पड़े जाय रहे समसान"
जाना है रहना नहिं, जामे फेर न फार।
जन दरिया भय मान के, अपना राम सम्भार।।

नारदजी ने राजा प्राचीनबहि को कहा- यही परिस्थिति राजा पुरंजन की बनी, मृत्यु के समय स्त्री की याद करते मर गया, मरने के बाद उसे स्त्री बनना पड़ा, अपने पति की मृत्यु के बाद जब सती होने को तैयार हुआ तो वही अविज्ञात नाम का सहयात्री सखा आया, आकार उसे समझाते हुए बोला, भले आदमी- न तुम पुरंजन हो ना ही तुम पुरंजनी हो, तुम तो मेरे सखा हो।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखरासी।
सो माया बस भयहुं गोसाई, बंध्यो कीट मर्कट की नांई।।
पुनः नारदजी कहते हैं- जिस पुरंजन की बात मैं तुमसे कह रहा हूँ, ये कोई पुरंजन नहीं प्राचीनबहि तुम्हीं पुरंजन राजा हो, परमात्मा को भूलकर संसार में पड़े हो, इसलिये अपने शरीर के लिए तुम इतने बड़े अत्याचार भी कर लेते हो, जीवों की हत्या भी कर लेते हो।

प्रत्येक परिस्थिति में परमात्मा को याद करो, परमात्मा ने शरीर जो दिया वो केवल विषयों को भोगने को नहीं मिला, ये शरीर मिला है गोविन्द के चिन्तन के लिये, गोविन्द की याद के लिये, इसको बेकार में गुजारोगे तो इससे बड़ी नासमझी क्या हो सकती है? प्रत्येक परिस्थिति में गोविन्द की याद करों।
जिस देश में, जिस वेश में, परिवेश में रहो।
राधा रमन, राधा रमन, राधा रमन कहो।।

नारदजी ने राजा प्राचीनबहि को ऐसा सुन्दर उपदेश किया और वहां से चले गये, राजा को अक्ल आ गई, उसने सदा-सदा के लिए जीवों को मारना छोड़ दिया, इस आख्यान से हमें भी शिक्षा लेनी चाहिये कि हम हिंसा नहीं करें, आचार्य शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! श्री मैत्रेय मुनि के मुंह से, इन समस्त प्रसंगों को सुनकर विदुरजी को परमानन्द की अनुभूति हुई, उसके बाद विदुरजी मैत्रेयजी को प्रणाम कर वहां से चले गये।

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