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शबरी पर कृपा, नवधा भक्ति उपदेश

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नवधा भक्ति कहेउ तोहि पाही।
        सावधान सुनी धरु मन माहि।।🚩

      निर्मल मन जन सो मोय पावा
       मोय कपट छल छिद्र न भावा।🚩

      सरसिज लोचन बाहु बिसाला।
        जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥🚩

            स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
                 सबरी परी चरन लपटाई॥4॥🚩

           प्रेम मगन मुख बचन न आवा।
            पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥🚩
     
         अधम ते अधम अधम अति नारी।
                तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥🚩

         कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
              मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥🚩

         सादर जल लै चरन पखारे।
             पुनि सुंदर आसन बैठारे॥🚩

🚩➖शबरी पर कृपा, नवधा भक्ति उपदेश➖🚩

इस प्रसंग में तुलसीदासजी ने श्रीरामचरित मानस में प्रभु श्री राम और शवरी का मिलन और शवरी को नवधा भक्ति का उपदेश बड़े सरल भाषा में अपनी चौपाइयों के द्वारा बर्णन किया है । जो इस प्रसंग को अपने दिल से पढ़ता और सुनता है उसका मन माया से हटकर प्रभु के चरणों में भक्ति में लगने लगता है ।प्रयेक व्यक्ति को नवधा भक्ति को जरूर पढ़ना चाहिए।🚩

ताहि देइ गति राम उदारा।
       सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
        सबरी देखि राम गृहँ आए।
            मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥🚩

भावार्थ : उदार श्री रामजी उसे गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचंद्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया॥॥🚩

 सरसिज लोचन बाहु बिसाला।
        जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
            स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
                 सबरी परी चरन लपटाई॥4॥🚩

भावार्थ : कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं॥🚩

 प्रेम मगन मुख बचन न आवा।
       पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
          सादर जल लै चरन पखारे।
             पुनि सुंदर आसन बैठारे॥॥🚩

भावार्थ : वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुंदर आसनों पर बैठाया॥॥

दोहा :
* कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥॥🚩

भावार्थ : उन्होंने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया॥🚩

 पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी।
      प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥
        केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी।
          अधम जाति मैं जड़मति भारी॥1॥🚩

भावार्थ : फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गईं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। (उन्होंने कहा-) मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ॥1॥🚩

 अधम ते अधम अधम अति नारी।
             तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
         कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
         मानउँ एक भगति कर नाता॥॥🚩

भावार्थ : जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ॥2॥🚩

 जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
      धन बल परिजन गुन चतुराई॥
            भगति हीन नर सोहइ कैसा।
                  बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥🚩

भावार्थ : जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है॥॥

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
          सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
             प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
                 दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥॥🚩

भावार्थ : मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥🚩

दोहा :
* गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥🚩

भावार्थ : तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥॥🚩

चौपाई :
 मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
       पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
       छठ दम सील बिरति बहु करमा।
             निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥🚩

भावार्थ : मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥🚩

सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
       मोतें संत अधिक करि लेखा॥
          आठवँ जथालाभ संतोषा।
              सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥॥🚩

भावार्थ : सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥🚩

नवम सरल सब सन छलहीना।
          मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
        नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
            नारि पुरुष सचराचर कोई॥॥🚩

भावार्थ : नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥🚩

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।
        सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
        जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।
           तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥॥🚩

भावार्थ : हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥🚩

*मम दरसन फल परम अनूपा।
      जीव पाव निज सहज सरूपा॥
           जनकसुता कइ सुधि भामिनी।
                जानहि कहु करिबरगामिनी॥॥🚩

भावार्थ : मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता॥5॥🚩

 पंपा सरहि जाहु रघुराई।
     तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
      सो सब कहिहि देव रघुबीरा।
        जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥॥🚩

भावार्थ : (शबरी ने कहा-) हे रघुनाथजी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइए। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं!॥6॥🚩
*बार बार प्रभु पद सिरु नाई।
     प्रेम सहित सब कथा सुनाई॥॥🚩

भावार्थ : बार-बार प्रभु के चरणों में सिर नवाकर, प्रेम सहित उसने सब कथा सुनाई॥7॥🚩

छंद :
* कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥
भावार्थ : सब कथा कहकर भगवान्‌ के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत- ये सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो।🚩

छंद :
* जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥36॥
भावार्थ : जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभु को भूलकर सुख चाहता है?॥॥🚩

🚩जय हो प्रभु राम की➖ जय हो दीनानाथ🚩

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