हम कितने भाग्यशाली हैं कि हमें भारत की पवित्र भूमि पर जन्म मिला इसका व्याख्यान विष्णुपुराण में है ।
विष्णु पुराण के रचनाकार पराशर ऋषि थे, ये महर्षि वसिष्ठ के पौत्र थे, इस पुराण में पृथु, ध्रुव और प्रह्लाद के प्रसंग अत्यन्त रोचक हैं। 'पृथु' के वर्णन में धरती को समतल करके कृषि कर्म करने की प्रेरणा दी गई है, कृषि-व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करने पर ज़ोर दिया गया है, घर-परिवार, ग्राम, नगर, दुर्ग आदि की नींव डालकर परिवारों को सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई है।
इसी कारण धरती को पृथ्वी नाम दिया गया, ध्रुव के आख्यान में सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति आदि को क्षण भंगुर अर्थात् नाशवान समझकर आत्मिक उत्कर्ष की प्रेरणा दी गई है, प्रह्लाद के प्रकरण में परोपकार तथा संकट के समय भी सिद्धांतों और आदर्शों को न त्यागने की बात कही गई है।
विष्णु पुराण में भगवान् श्रीकृष्ण के समाज सेवी, प्रजा प्रेमी, लोक रंजक तथा लोक हिताय स्वरूप को प्रकट करते हुए उन्हें महामानव की संज्ञा दी गई है, श्रीकृष्ण ने प्रजा को संगठन-शक्ति का महत्त्व समझाया और अन्याय का प्रतिकार करने की प्रेरणा दी, अधर्म के विरुद्ध धर्म-शक्ति का परचम लहराया, महाभारत में कौरवों का विनाश और कालिया दहन में नागों का संहार उनकी लोकोपकारी छवि को प्रस्तुत करता है,
भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन की लोकोपयोगी घटनाओं को अलौकिक रूप देना उस महामानव के प्रति भक्ति-भावना की प्रतीक है, इस पुराण में श्रीकृष्ण चरित्र के साथ-साथ भक्ति और वेदान्त के उत्तम सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन हुआ है, विष्णु पुराण में आत्मा को जन्म-मृत्यु से रहित, निर्गुण और अनन्त बताया गया है, समस्त प्राणियों में उसी आत्मा का निवास है।
ईश्वर का भक्त वही होता है जिसका चित्त शत्रु और मित्र और मित्र में समभाव रखता है, दूसरों को कष्ट नहीं देता, कभी व्यर्थ का गर्व नहीं करता और सभी में ईश्वर का वास समझता है, वह सदैव सत्य का पालन करता है और कभी असत्य नहीं बोलता, इस पुराण में प्राचीन काल के राजवंशों का वृत्तान्त लिखते हुए कलियुगी राजाओं को चेतावनी दी गई है कि सदाचार से ही प्रजा का मन जीता जा सकता है, पापमय आचरण से नहीं,
जो सदा सत्य का पालन करता है, सबके प्रति मैत्री भाव रखता है और दुख-सुख में सहायक होता है वही राजा श्रेष्ठ होता है, राजा का धर्म प्रजा का हित संधान और रक्षा करना होता है, जो राजा अपने स्वार्थ में डूबकर प्रजा की उपेक्षा करता है और सदा भोग-विलास में डूबा रहता है, उसका विनाश समय से पूर्व ही हो जाता है, इस पुराण में स्त्रियों, साधुओं और शूद्रों को श्रेष्ठ माना गया है।
जो स्त्री अपने तन-मन से पति की सेवा तथा सुख की कामना करती है, उसे कोई अन्य कर्मकाण्ड किये बिना ही सद्गति प्राप्त हो जाती है, इसी प्रकार शूद्र भी अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए वह सब प्राप्त कर लेते हैं, जो ब्राह्मणों को विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड और तप आदि से प्राप्त होता है, कहा गया है-
शूद्रोश्च द्विजशुश्रुषातत्परैद्विजसत्तमा:।
तथा द्भिस्त्रीभिरनायासात्पतिशुश्रुयैव हि।।
अर्थात शूद्र ब्राह्मणों की सेवा से और स्त्रियां प्रति की सेवा से ही धर्म की प्राप्ति कर लेती हैं, विष्णु पुराण के अन्तिम तीन अध्यायों में आध्यात्मिक चर्चा करते हुए त्रिविध ताप, परमार्थ और ब्रह्मयोग का ज्ञान कराया गया है, मानव-जीवन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, इसके लिए देवता भी लालायित रहते हैं, जो मनुष्य माया-मोह के जाल से मुक्त होकर कर्त्तव्य पालन करता है, उसे ही इस जीवन का लाभ प्राप्त होता है।
निष्काम कर्म और ज्ञान मार्ग का उपदेश भी इस पुराण में दिया गया है, लौकिक कर्म करते हुए भी धर्म पालन किया जा सकता है, कर्म मार्ग और धर्म मार्ग दोनों को ही श्रेष्ठ माना गया है, कर्त्तव्य करते हुए व्यक्ति चाहे घर में रहे या वन में, वह ईश्वर को अवश्य प्राप्त कर लेता है, भारतवर्ष को कर्मभूमि कहकर उसकी महिमा का सुंदर बखान करते हुए पुराणकार कहता है।
इत: स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्तश्च गम्यते।
न खल्वन्यत्र मर्त्यानां कर्मभूमौ विधीयते।।
अर्थात यहीं से स्वर्ग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा पाताल लोक पाया जा सकता है, इस देश के अतिरिक्त किसी अन्य भूमि पर मनुष्यों पर मनुष्यों के लिए कर्म का कोई विधान नहीं है, इस कर्मभूमि की भौगोलिक रचना के विषय में कहा गया है- "उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र संतति" अर्थात समुद्र कें उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो पवित्र भूभाग स्थित है, उसका नाम भारतवर्ष है, भारत भूमि की वन्दना के लिए विष्णु पुराण का यह पद विख्यात है।
गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।।
कर्माण्ड संकल्पित तवत्फलानि संन्यस्य विष्णौ परमात्मभूते।
अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते तस्मिंल्लयं ये त्वमला: प्रयान्ति।।
अर्थात देवगण निरन्तर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग् पर चलने के लिए भारतभूमि में जन्म लिया है, वे मनुष्य हम देवताओं की अपेक्षा अधिक धन्य तथा भाग्यशाली हैं, जो लोग इस कर्मभूमि में जन्म लेकर समस्त आकांक्षाओं से मुक्त अपने कर्म परमात्मा स्वरूप भगवान् श्रीविष्णु को अर्पण कर देते हैं।
वे पाप रहित होकर निर्मल हृदय से उस अनन्त परमात्म शक्ति में लीन हो जाते हैं, ऐसे लोग धन्य होते हैं, विष्णु पुराण में कलयुग में भी सदाचरण पर बल दिया गया है, विष्णु पुराण का आकार छोटा अवश्य है, परंतु मानवीय हित की दृष्टि से यह पुराण अत्यन्त लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण है ।
विष्णु पुराण के रचनाकार पराशर ऋषि थे, ये महर्षि वसिष्ठ के पौत्र थे, इस पुराण में पृथु, ध्रुव और प्रह्लाद के प्रसंग अत्यन्त रोचक हैं। 'पृथु' के वर्णन में धरती को समतल करके कृषि कर्म करने की प्रेरणा दी गई है, कृषि-व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करने पर ज़ोर दिया गया है, घर-परिवार, ग्राम, नगर, दुर्ग आदि की नींव डालकर परिवारों को सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई है।
इसी कारण धरती को पृथ्वी नाम दिया गया, ध्रुव के आख्यान में सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति आदि को क्षण भंगुर अर्थात् नाशवान समझकर आत्मिक उत्कर्ष की प्रेरणा दी गई है, प्रह्लाद के प्रकरण में परोपकार तथा संकट के समय भी सिद्धांतों और आदर्शों को न त्यागने की बात कही गई है।
विष्णु पुराण में भगवान् श्रीकृष्ण के समाज सेवी, प्रजा प्रेमी, लोक रंजक तथा लोक हिताय स्वरूप को प्रकट करते हुए उन्हें महामानव की संज्ञा दी गई है, श्रीकृष्ण ने प्रजा को संगठन-शक्ति का महत्त्व समझाया और अन्याय का प्रतिकार करने की प्रेरणा दी, अधर्म के विरुद्ध धर्म-शक्ति का परचम लहराया, महाभारत में कौरवों का विनाश और कालिया दहन में नागों का संहार उनकी लोकोपकारी छवि को प्रस्तुत करता है,
भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन की लोकोपयोगी घटनाओं को अलौकिक रूप देना उस महामानव के प्रति भक्ति-भावना की प्रतीक है, इस पुराण में श्रीकृष्ण चरित्र के साथ-साथ भक्ति और वेदान्त के उत्तम सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन हुआ है, विष्णु पुराण में आत्मा को जन्म-मृत्यु से रहित, निर्गुण और अनन्त बताया गया है, समस्त प्राणियों में उसी आत्मा का निवास है।
ईश्वर का भक्त वही होता है जिसका चित्त शत्रु और मित्र और मित्र में समभाव रखता है, दूसरों को कष्ट नहीं देता, कभी व्यर्थ का गर्व नहीं करता और सभी में ईश्वर का वास समझता है, वह सदैव सत्य का पालन करता है और कभी असत्य नहीं बोलता, इस पुराण में प्राचीन काल के राजवंशों का वृत्तान्त लिखते हुए कलियुगी राजाओं को चेतावनी दी गई है कि सदाचार से ही प्रजा का मन जीता जा सकता है, पापमय आचरण से नहीं,
जो सदा सत्य का पालन करता है, सबके प्रति मैत्री भाव रखता है और दुख-सुख में सहायक होता है वही राजा श्रेष्ठ होता है, राजा का धर्म प्रजा का हित संधान और रक्षा करना होता है, जो राजा अपने स्वार्थ में डूबकर प्रजा की उपेक्षा करता है और सदा भोग-विलास में डूबा रहता है, उसका विनाश समय से पूर्व ही हो जाता है, इस पुराण में स्त्रियों, साधुओं और शूद्रों को श्रेष्ठ माना गया है।
जो स्त्री अपने तन-मन से पति की सेवा तथा सुख की कामना करती है, उसे कोई अन्य कर्मकाण्ड किये बिना ही सद्गति प्राप्त हो जाती है, इसी प्रकार शूद्र भी अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए वह सब प्राप्त कर लेते हैं, जो ब्राह्मणों को विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड और तप आदि से प्राप्त होता है, कहा गया है-
शूद्रोश्च द्विजशुश्रुषातत्परैद्विजसत्तमा:।
तथा द्भिस्त्रीभिरनायासात्पतिशुश्रुयैव हि।।
अर्थात शूद्र ब्राह्मणों की सेवा से और स्त्रियां प्रति की सेवा से ही धर्म की प्राप्ति कर लेती हैं, विष्णु पुराण के अन्तिम तीन अध्यायों में आध्यात्मिक चर्चा करते हुए त्रिविध ताप, परमार्थ और ब्रह्मयोग का ज्ञान कराया गया है, मानव-जीवन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, इसके लिए देवता भी लालायित रहते हैं, जो मनुष्य माया-मोह के जाल से मुक्त होकर कर्त्तव्य पालन करता है, उसे ही इस जीवन का लाभ प्राप्त होता है।
निष्काम कर्म और ज्ञान मार्ग का उपदेश भी इस पुराण में दिया गया है, लौकिक कर्म करते हुए भी धर्म पालन किया जा सकता है, कर्म मार्ग और धर्म मार्ग दोनों को ही श्रेष्ठ माना गया है, कर्त्तव्य करते हुए व्यक्ति चाहे घर में रहे या वन में, वह ईश्वर को अवश्य प्राप्त कर लेता है, भारतवर्ष को कर्मभूमि कहकर उसकी महिमा का सुंदर बखान करते हुए पुराणकार कहता है।
इत: स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्तश्च गम्यते।
न खल्वन्यत्र मर्त्यानां कर्मभूमौ विधीयते।।
अर्थात यहीं से स्वर्ग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा पाताल लोक पाया जा सकता है, इस देश के अतिरिक्त किसी अन्य भूमि पर मनुष्यों पर मनुष्यों के लिए कर्म का कोई विधान नहीं है, इस कर्मभूमि की भौगोलिक रचना के विषय में कहा गया है- "उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र संतति" अर्थात समुद्र कें उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो पवित्र भूभाग स्थित है, उसका नाम भारतवर्ष है, भारत भूमि की वन्दना के लिए विष्णु पुराण का यह पद विख्यात है।
गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।।
कर्माण्ड संकल्पित तवत्फलानि संन्यस्य विष्णौ परमात्मभूते।
अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते तस्मिंल्लयं ये त्वमला: प्रयान्ति।।
अर्थात देवगण निरन्तर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग् पर चलने के लिए भारतभूमि में जन्म लिया है, वे मनुष्य हम देवताओं की अपेक्षा अधिक धन्य तथा भाग्यशाली हैं, जो लोग इस कर्मभूमि में जन्म लेकर समस्त आकांक्षाओं से मुक्त अपने कर्म परमात्मा स्वरूप भगवान् श्रीविष्णु को अर्पण कर देते हैं।
वे पाप रहित होकर निर्मल हृदय से उस अनन्त परमात्म शक्ति में लीन हो जाते हैं, ऐसे लोग धन्य होते हैं, विष्णु पुराण में कलयुग में भी सदाचरण पर बल दिया गया है, विष्णु पुराण का आकार छोटा अवश्य है, परंतु मानवीय हित की दृष्टि से यह पुराण अत्यन्त लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण है ।
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