सोमवार, 31 दिसंबर 2018

रामायण का एक अनजान सत्य

रामायण का एक अनजान सत्य! केवल लक्ष्मण ही मेघनाद का वध कर सकते थे,क्या कारण था ?..पढिये पुरी कथा।

 हनुमानजी की रामभक्ति की गाथा संसार में भर में गाई जाती है। लक्ष्मणजी की भक्ति भी अद्भुत थी। लक्ष्मणजी की कथा के बिना श्री रामकथा पूर्ण नहीं है अगस्त्य मुनि अयोध्या आए और लंका युद्ध का प्रसंग छिड़ गया ।

 भगवान श्रीराम ने बताया कि उन्होंने कैसे रावण और कुंभकर्ण जैसे प्रचंड वीरों का वध किया और लक्ष्मण ने भी इंद्रजीत और अतिकाय जैसे शक्तिशाली असुरों को मारा॥

अगस्त्य मुनि बोले- श्रीराम बेशक रावण और कुंभकर्ण प्रचंड वीर थे, लेकिन सबसे बड़ा वीर तो मेघनाध ही था ॥ उसने अंतरिक्ष में स्थित होकर इंद्र से युद्ध किया था और बांधकर लंका ले आया था॥

ब्रह्मा ने इंद्रजीत से दान के रूप में इंद्र को मांगा तब इंद्र मुक्त हुए थे ॥ लक्ष्मण ने उसका वध किया इसलिए वे सबसे बड़े योद्धा हुए ॥

 श्रीराम को आश्चर्य हुआ लेकिन भाई की वीरता की प्रशंसा से वह खुश थे॥ फिर भी उनके मन में जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर अगस्त्य मुनि ऐसा क्यों कह रहे हैं कि इंद्रजीत का वध रावण से ज्यादा मुश्किल था ॥

अगस्त्य मुनि ने कहा- प्रभु इंद्रजीत को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता था जो.....

चौदह वर्षों तक न सोया हो, जिसने चौदह साल तक किसी स्त्री का मुख न देखा हो और,चौदह साल तक भोजन न किया हो ॥

श्रीराम बोले- परंतु मैं बनवास काल में चौदह वर्षों तक नियमित रूप से लक्ष्मण के हिस्से का फल-फूल देता रहा॥

मैं सीता के साथ एक कुटी में रहता था, बगल की कुटी में लक्ष्मण थे, फिर सीता का मुख भी न देखा हो, और चौदह वर्षों तक सोए न हों, ऐसा कैसे संभव है ॥

अगस्त्य मुनि सारी बात समझकर मुस्कुराए॥ प्रभु से कुछ छुपा है भला! दरअसल, सभी लोग सिर्फ श्रीराम का गुणगान करते थे लेकिन प्रभु चाहते थे कि लक्ष्मण के तप और वीरता की चर्चा भी अयोध्या के घर-घर में हो ॥

अगस्त्य मुनि ने कहा – क्यों न लक्ष्मणजी से पूछा जाए ॥

लक्ष्मणजी आए प्रभु ने कहा कि आपसे जो पूछा जाए उसे सच-सच कहिएगा॥

 प्रभु ने पूछा- हम तीनों चौदह वर्षों तक साथ रहे फिर तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा ?, फल दिए गए फिर भी अनाहारी कैसे रहे ?, और १४ साल तक सोए नहीं ? यह कैसे हुआ ?

लक्ष्मणजी ने बताया- भैया जब हम भाभी को तलाशते ऋष्यमूक पर्वत गए तो सुग्रीव ने हमें उनके आभूषण दिखाकर पहचानने को कहा ॥ 
 
 आपको स्मरण होगा मैं तो सिवाए उनके पैरों के नुपूर के कोई आभूषण नहीं पहचान पाया था क्योंकि मैंने कभी भी उनके चरणों के ऊपर देखा ही नहीं।

 चौदह वर्ष नहीं सोने के बारे में सुनिए – आप औऱ माता एक कुटिया में सोते थे. मैं रातभर बाहर धनुष पर बाण चढ़ाए पहरेदारी में खड़ा रहता था. निद्रा ने मेरी आंखों पर कब्जा करने की कोशिश की तो मैंने निद्रा को अपने बाणों से बेध दिया था॥

निद्रा ने हारकर स्वीकार किया कि वह चौदह साल तक मुझे स्पर्श नहीं करेगी लेकिन जब श्रीराम का अयोध्या में राज्याभिषेक हो रहा होगा और मैं उनके पीछे सेवक की तरह छत्र लिए खड़ा रहूंगा तब वह मुझे घेरेगी ॥

आपको याद होगा राज्याभिषेक के समय मेरे हाथ से छत्र गिर गया था।

अब मैं १४ साल तक अनाहारी कैसे रहा! मैं जो फल-फूल लाता था आप उसके तीन भाग करते थे. एक भाग देकर आप मुझसे कहते थे लक्ष्मण फल रख लो॥

आपने कभी फल खाने को नहीं कहा- फिर बिना आपकी आज्ञा के मैं उसे खाता कैसे?

मैंने उन्हें संभाल कर रख दिया॥ सभी फल उसी कुटिया में अभी भी रखे होंगे ॥ प्रभु के आदेश पर लक्ष्मणजी चित्रकूट की कुटिया में से वे सारे फलों की टोकरी लेकर आए और दरबार में रख दिया॥ फलों की गिनती हुई, सात दिन के हिस्से के फल नहीं थे॥

 प्रभु ने कहा- इसका अर्थ है कि तुमने सात दिन तो आहार लिया था?

     लक्ष्मणजी ने सात फल कम होने के बारे बताया- उन सात दिनों में फल आए ही नहीं :-

१-जिस दिन हमें पिताश्री के स्वर्गवासी होने की सूचना मिली, हम निराहारी रहे॥

२--जिस दिन रावण ने माता का हरण किया उस दिन फल लाने कौन जाता॥

३--जिस दिन समुद्र की साधना कर आप उससे राह मांग रहे थे, ।

४--जिस दिन आप इंद्रजीत के नागपाश में बंधकर दिनभर अचेत रहे,।

५--जिस दिन इंद्रजीत ने मायावी सीता को काटा था और हम शोक मेंरहे,।

६--जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी,

७--और जिस दिन आपने रावण-वध किया ॥

इन दिनों में हमें भोजन की सुध कहां थी॥ विश्वामित्र मुनि से मैंने एक अतिरिक्त विद्या का ज्ञान लिया था बिना आहार किए जीने की विद्या. उसके प्रयोग से मैं चौदह साल तक अपनी भूख को नियंत्रित कर सका जिससे इंद्रजीत मारा गया ॥

भगवान श्रीराम ने लक्ष्मणजी की तपस्या के बारे में सुनकर उन्हें ह्रदय से लगा लिया ।
    ((((((जय श्री राम नमो राघव))))))   (((सुप्रभात))))
🙏🙏

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

राधे कृष्ण की प्रेम लीला

राधे कृष्ण की प्रेम लीला

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एक बार बरसाने में एक वृजबासी के बेटे की शादी हुई, वो वृजबसिन् ने सबको बुलाया पर राधा रानी को न्योता देना भूल गयी ।
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उसको शादी के पहले याद था  पर शादी के समय ही भूल गयी।
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जब शादी हो गयी और बहु घर मे आ गयी तब उसको याद आया , हाय रे  राधा रानी को बुलाना तो भूल गयी।
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तब वो राधा रानी के पास गयी बोली राधा रानी माफ़ कर दो आपको बुलाना तो भूल गयी मैं।
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राधा रानी बोली कोई बात नहीं भूल गयी तो पर आपने मुझे अपने दिल में तो रखा यही मेरे लिए बहुत सौभाग्य की बात है।
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कितनी उदार है राधा रानी कितनी करुणा शील है
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राधा रानी बोली नयी नवेली बहु कैसी है ?
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वृजबसिन् बोली अभी अपनी नयी बहु को बुला के लाती हुँ।
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जब राधारानी से मिलने गयी थी तो अपनी बहु की रखवाली के लिए वो एक सखी को साथ छोड के गयीं थी बहु के पास।
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वृज वासिन के आने से पहले ठाकुर जी उसके घर गये और  हमारे ठाकुर जी तो है ही शरारती । तो उन्होने दुल्हन का श्रृंगार करके बहु को सुला दिया और खुद बहु बनके घुंघट ओढ़ कर बैठ गए।
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वृजबसिन् जल्दी घर मे आई और बोली बहु से : राधा रानी तुझ से मिलना चाह रही जल्दी चल।
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कृष्ण दुल्हन रूप में घूँघट के अंदर से बोले : राधा जी ने मुझे याद किया पर में घूँघट ओढ़ के ही जाउगी उनके पास।
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दोनो जब महल पहुँची तो सास ने बहु से कहा : ये व्रज की रानी है राधा रानी ।और  कृष्ण और घूँघट में शरमाते जा रहे थे।
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बहु जब किशोरी जू के पास पहुची तो सास ने कहा बहु से किशोरी जू के चरण स्पर्श करो और उनका आशिर्वाद लो ।
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चरण स्पर्श की बात सुनते ही ठाकुर जी बहु रूप में पुलकित हो गये और किशोरी जू के चरण स्पर्श करने लगे।
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किशोरी जू ने मंगल आशीर्वाद दिया.. अपने प्रियतम की हमेसा प्रिया रहो। बहुत आशीर्वाद दे कर निहाल कर दिया बहु को,
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फिर सखी के हाथो बहुत से सुन्दर मणि मोती गहने मेहदी 16 शृंगार नए बस्त्र मगांये दुल्हन के मुख दिखाई के लिए। और दुल्हन से कहा ये तुम्हारा उपहार है.. अब अपना मुख दिखाओ।
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दुल्हन ने घूँघट में से सर को हिला के मना कर दिया... सारी सखिया मंजरियाँ विस्मृत हो गयी कि ये कैसी दुल्हन जो किशोरी जू की आज्ञा का पालन नहीं करती।
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राधा रानी फिर विनती की अपना मुख तो दिखाओ हम बहुत अधीर है नयी बहु का मुख देखने को लेकिन बहु ने और ज़ोर से सर हिला कर मना कर दिया ।
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तभी सास बोली बड़ी बत्तमीज़ है दुल्हन.. राधा रानी की बात नहीं मानती ।
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राधा रानी बोली : मुख दिखाई का उपहार कम लग रहा हो तो और ज्यादा दे देंगी जितना चाहे पर मुख दिखा दे एकबार ।
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बहु ने फिर ज़ोर से मना कर दिया सर हिला के। सास ने भी बहुत समझाया पर बहु नहीं मानी मुख दिखाने को।
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राधा रानी बोली मेंरे से प्रसादी अंलकार भी ले लो, और जो चाहो मांग लो पर मुख दिखा दो.. बहु ने मना कर दिया.. सास को गुस्सा आने लगा।
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राधा रानी बोली: कोई तकलीफ हो तो मुझे बता दो। सब सहचरी बोली बड़ी हठी है दुल्हन।
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यहा राधा रानी की अधीरता बढ़ती जा रही है अपने गले का हार भी उपहार में दे दिया पर बहु ना मानी।
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राधा रानी बोली बहु से में तुझे अपने साथ ही रख लूंगी अपनी सखी बनाकर , पर अपना मुख दिखादे एक बार मोको ।
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ये सुनते ही श्यामसुन्दर ज्यादा  पुलकित हो गये... आज तो कृपा हो गयी बरसाने का बास मिल गया। वो भी निज महल में जहा मै नित बुहार लगाता हूँ...अपने प्रिय पीताम्बर से ।
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राधा रानी ने बचन दे दिया कि तोकु अपने निज महल में रख लूंगी। बस एक बार अपना मुख दिखादे राधा रानी की अधीरता बढ़ती जा रही थी ।
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ललिता जी से देखी नही गयी किशोरी जू की अधीरता, ललिता बोली : बहुत हठी है दुल्हन । अभी इसे बताती हुँ हमारी किशोरी को काहे अधीर करे जा रही है ।
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दुल्हन के पास जाके बोली : जब किशोरी जू तुझ को परम आशीर्वाद दे दिया.. तुझे अपने साथ रख लेगी ऐसा सौभाग्य तो हमे भी कभी कभी मिलता है।
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और तू आभार प्रगट करने की जगह एतरा रहि है.. इतनी बड़ी कृपा तुझ को समझ नहीं आ रही है..चल दिखा अपना मुख किशोरी जी को।
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बहु ने घूँघट से कोई उत्तर नहीं दिया पर घूँघट के आनंद पुलकाय मान हो गये ।
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ललिता जी बोली : तू ऐसे नहीं मानेगी तुझे मै बताती हूँ। और फिर  बहु को पकड़ कर हाथ से घूँघट ऊपर उठा दिया पर सिर्फ एक क्षण ही ।बहु ने तुरंत ही घूंघट डाल दिया ।
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घूँघट उठते ही महल में सन्नाटा छा गया.. सारी सखियाँ और मंजरी ओढनी  मुख पर रख कर मंद मंद मुस्कुराने लगी ।
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किशोरी जू के आनंद की भी  सीमा ना रही.. सब ने नयी बहु का ज़ोर दार स्वागत किया। चारो और नयी बहु की मंगल बधाई गा रही थी सखिया ।
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श्यामसुन्दर लज्जा के मारे घूँघट दुबारा ओढ़ लिए.. तब किशोरी जी नयी बहु के पास गयी और उसका घूँघट थोडा उपर कर दिया।
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किशोरी जी बोली : ऐसी नई बहु की मुख दिखाई में तो मै त्रिभुन वार दूं।
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श्याम सुन्दर मन मे बोले आज तो जीवन सफल हो गया.. कितने युगों से आस थी बरसाने महल के बास की..  वो आज पूरी हुई।
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कृपा देखो किशोरी जु की। कि बास भी बरसाने में कहां दिया, निज महल में निज संग मे ।
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लाड़ली जी बोली : आज से हम नयी बहु हमारे लाल जी के साथ निज महल में नित विराजेंगे .. जो आज भी विराज मान हैं
🍁जय जय श्री राधे🍁

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

अमरनाथ गुफा में हिमलिंग स्थापित होने की पौराणिक कथा!


अमरनाथ गुफा में भगवान शिव ने माता पार्वती को अमृत प्रवचन दिए थे, जिसे कबूतरों के जोड़ों ने भी सुन लिया था जिसे सुनकर वे भी अमर हो गए। कहते हैं कि आज भी वे कबूतर आपको अमरनाथ की गुफा के आसपास नजर आ जाएंगे। हालांकि उनके दर्शन दुर्लभ ही होते हैं।

पार्वतीजी भगवान सदाशिव से कहती हैं- 'प्रभो! मैं अमरेश महादेव की कथा सुनना चाहती हूं। मैं यह भी जानना चाहती हूं कि महादेव गुफा में स्थित होकर अमरेश क्यों और कैसे कहलाए?'

सदाशिव भोलेनाथ बोले, 'देवी! आदिकाल में ब्रह्मा, प्रकृति, स्थावर (पर्वतादि) जंगल, (मनुष्य) संसार की उत्पत्ति हुई। इस क्रमानुसार देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, राक्षस, सर्प, यक्ष, भूतगण, कूष्मांड, भैरव, गीदड़, दानव आदि की उत्पत्ति हुई। इस तरह नए प्रकार के भूतों की सृष्टि हुई, परंतु इंद्रादि देवता सहित सभी मृत्यु के वश में थे।'

इसके बाद भगवान भोलेनाथ ने कहा कि मृत्यु से भयभीत देवता उनके पास आए। सभी देवताओं ने उनकी स्तुति की और कहा कि 'हमें मृत्यु बाधा करती है। आप कोई ऐसा उपाय बतलाएं जिससे मृत्यु हमें बाधा न करे।'

'मैं आप लोगों की मृत्यु के भय से रक्षा करूंगा', कहते हुए सदाशिव ने अपने सिर पर से चंद्रमा की कला को उतारकर निचोड़ा और देवगणों से बोले, 'यह आप लोगों के मृत्युरोग की औषधि है।'

उस चंद्रकला के निचोड़ने से पवित्र अमृत की धारा बह निकली और वही धारा बाद में अमरावती नदी के नाम से विख्यात हुई। चंद्रकला को निचोड़ते समय भगवान सदाशिव के शरीर पर जो अमृत बिंदु गिरे वे सूख गए और पृथ्वी पर गिर पड़े। पावन गुफा में जो भस्म है, वे इसी अमृत बिंदु के कण हैं, जो पृथ्वी पर गिरे थे। सदाशिव भगवान देवताओं पर प्रेम न्योछावर करते समय स्वयं द्रवीभूत हो गए। देवगण सदाशिव को जलस्वरूप देखकर उनकी स्तुति में लीन हो गए और बारंबार नमस्कार करने लगे।

भोलेनाथ ने देवताओं से कहा, 'हे देवताओं! तुमने मेरा बर्फ का लिंग शरीर इस गुफा में देखा है। इस कारण मेरी कृपा से आप लोगों को मृत्यु का भय नहीं रहेगा। अब तुम यहीं पर अमर होकर शिव रूप को प्राप्त हो जाओ। आज से मेरा यह अनादि लिंग शरीर तीनों लोकों में अमरेश के नाम से विख्यात होगा।'

देवताओं को ऐसा वर देकर सदाशिव उस दिन से लीन होकर गुफा में रहने लगे। भगवान सदाशिव ने अमृत रूप सोमकला को धारण कर देवताओं की मृत्यु का नाश किया, तभी से उनका नाम अमरेश्वर प्रसिद्ध हुआ।

अमर कथा : इस पवित्र गुफा में भगवान शंकर ने भगवती पार्वती को मोक्ष का मार्ग दिखाया था। इस तत्वज्ञान को 'अमरकथा' के नाम से जाना जाता है इसीलिए इस स्थान का नाम 'अमरनाथ' पड़ा। यह कथा भगवती पार्वती तथा भगवान शंकर के बीच हुआ संवाद है। यह उसी तरह है जिस तरह कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद हुआ था।

सती ने दूसरा जन्म हिमालयराज के यहां पार्वती के रूप में लिया। पहले जन्म में वे दक्ष की पुत्री थीं तथा दूसरे जन्म में वे दुर्गा बनीं। एक बार पार्वतीजी से ने शंकरजी से पूछा, 'मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है कि आपके गले में नरमुंड माला क्यों है?' भगवान शंकर ने बताया, 'पार्वती! जितनी बार तुम्हारा जन्म हुआ है उतने ही मुंड मैंने धारण किए हैं।'

पार्वती बोली, 'मेरा शरीर नाशवान है, मृत्यु को प्राप्त होता है, परंतु आप अमर हैं, इसका कारण बताने का कष्ट करें। मैं भी अजर-अमर होना चाहती हूं?'

भगवान शंकर ने कहा, 'यह सब अमरकथा के कारण है।'

यह सुनकर पार्वतीजी ने शिवजी से कथा सुनाने का आग्रह किया। बहुत वर्षों तक भगवान शंकर ने इसे टालने का प्रयास किया, लेकिन जब पार्वती की जिज्ञासा बढ़ गई तब उन्हें लगा कि अब कथा सुना देना चाहिए।

अब सवाल यह था कि अमरकथा सुनाते वक्त कोई अन्य जीव इस कथा को न सुने इसीलिए भगवान शंकर 5 तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्रि) का परित्याग करके इन पर्वतमालाओं में पहुंच गए और अमरनाथ गुफा में भगवती पार्वतीजी को अमरकथा सुनाने लगे।

दनवाड़ी में उन्होंने अपनी जटा (केशों) से चंद्रमा को मुक्त किया। शेषनाग नामक झील पर पहुंचकर उन्होंने अपने गले से सर्पों को भी उतार दिया। प्रिय पुत्र श्री गणेशजी को भी उन्होंने महागुनस पर्वत पर छोड़ देने का निश्चय किया। फिर पंचतरणी पहुंचकर शिवजी ने पांचों तत्वों का परित्याग किया। सबकुछ छोड़कर अंत में भगवान शिव ने इस अमरनाथ गुफा में प्रवेश किया और पार्वतीजी को अमरकथा सुनाने लगे।

शुकदेव : जब भगवान शंकर इस अमृतज्ञान को भगवती पार्वती को सुना रहे थे तो वहां एक शुक (हरा कठफोड़वा या हरी कंठी वाला तोता) का बच्चा भी यह ज्ञान सुन रहा था। पार्वती कथा सुनने के बीच-बीच में हुंकारा भरती थी। पार्वतीजी को कथा सुनते-सुनते नींद आ गई और उनकी जगह पर वहां बैठे एक शुक ने हुंकारी भरना प्रारंभ कर दिया।

जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब वे शुक को मारने के लिए दौड़े और उसके पीछे अपना त्रिशूल छोड़ा। शुक जान बचाने के लिए तीनों लोकों में भागता रहा।भागते-भागते वह व्यासजी के आश्रम में आया और सूक्ष्म रूप बनाकर उनकी पत्नी वटिका के मुख में घुस गया। वह उनके गर्भ में रह गया। ऐसा कहा जाता है कि ये 12 वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले और व्यासजी के पुत्र कहलाए।

गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने माता-पिता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिए जंगल की राह ली। यही जगत में शुकदेव मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए।

पवित्र युगल कबूतर : श्री अमरनाथ की यात्रा के साथ ही कबूतरों की कथा भी जुड़ी हुई है। इस कथा के अनुसार एक समय महादेव संध्या के समय नृत्य कर रहे थे कि भगवान शिव के गण आपस में ईर्ष्या के कारण ‘कुरु-कुरु’ शब्द करने लगे। महादेव ने उनको श्राप दे दिया कि तुम दीर्घकाल तक यह शब्द ‘कुरु-कुरु’ करते रहो। तदुपरांत वे रुद्ररूपी गण उसी समय कबूतर हो गए और वहीं उनका स्थायी निवास हो गया।

माना जाता है कि यात्रा के दौरान पावन अमरनाथ गुफा में इन्हीं दोनों कबूतरों के भी दर्शन होते हैं। यह आश्चर्य ही है कि जहां ऑक्सीजन की मात्रा नहीं के बराबर है और जहां दूर-दूर तक खाने-पीने का कोई साधन नहीं है, वहां ये कबूतर किस तरह रहते होंगे? यहां कबूतरों के दर्शन करना शिव और पार्वती के दर्शन करना माना जाता है।

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

आंवले के अनगिनत फायदे

इस अमृत फल के हैं बड़े फायदे ....
..
खाने से इन गंभीर बीमारियों में मिलेगा लाभ ....

$ आंवला खाने से कई प्रकार की शरीरिक समस्याओं और रोगों से बचाव होता है ~ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है !

कहते हैं बुजुर्गों की बात का और आंवले के स्वाद का पता बाद में चलता है !
जी - आंवला बेहद गुणकारी है !
इसलिए इसे हर मर्ज की दवा भी कहा जाता है !
आंवला पाचन तंत्र से लेकर स्मरण शक्ति को दुरुस्त करता है !
नियमित रूप से आंवले का सेवन करने से बुढ़ापा भी दूर रहता है !
मधुमेह - बवासीर - नकसीर - दिल की बीमारी जैसी समस्याओं का इलाज आंवले में छिपा है !
आंवला सेहत के लिए कितना फायदेमंद है .... ?
* आंवला वृक्ष की उत्पत्ति ... !
ईसा से पांच सौ साल पहले महान आयुर्वेदाचार्य चरक द्वारा लिखी चरक संहिता में एक मात्र जिस जड़ी - बूटी का बार - बार उल्लेख है - वह आंवला है !
हमारे मनीषियों ने कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की नवमी पर अगर आंवले की पूजा का विधान किया है तो उसके पीछे यही कारण है कि ...
 आम नहीं - बहुत खास है आंवला !
अमृत फल देने वाले इस आंवले के एक पेड़ को अगर घर के आंगन या आसपास लगा दिया जाए तो पूरे परिवार का वैद्य बन यह सेहत की जरूरतें पूरी करता है !

$ आंवले का सेवन करने के फायदे ... !

* आंवला खाने से आंखों की रोशनी बढती है :-
आंवला शरीर की त्वचा और बालों के लिए बहुत फायदेमंद होता है !
सुबह नाश्ते में आंवले का मुरब्बा खाने आपका शरीर स्वस्थ बना रहता है !
आंवला का सेवन करने से शरीर की रोग - प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है !
आवंले का जूस भी पिया जा सकता है - आंवला का जूस पीने से खून साफ होता है !
आंवला विटामिन - सी का अच्छा स्रोत होता है - एक आंवले में 3 संतरे के बराबर विटामिन सी की मात्रा होती है !
आंवला खाने से लीवर को शक्ति मिलती है - जिससे हमारे शरीर में विषाक्त पदार्थ आसानी से बाहर निकलते हैं !

$ आंवला खाने से बीमारियों में फायदा ... !

* मधुमेह :-
डायबिटीज के मरीजों के लिए आंवला बहुत फायदेमंद होता है !
मधुमेह मरीज हल्दी के चूर्ण के साथ आंवले का सेवन करे !
इससे मधुमेह रोगियों को फायदा होगा !

* बवासीर :-
बवासीर के मरीज सूखे आंवले को महीन या बारीक करके सुबह - शाम गाय के दूध के साथ हर रोज सेवन करे !
इससे बवासीर में फायदा होगा !

* नकसीर के लिए :-
यदि नाक से खून निकल रहा है तो आंवले को बारीक पीसकर बकरी के दूध में मिलाकर सिर और मस्तिक पर लेप लगाइए !
इससे नाक से खून निकलना बंद हो जाएगा !

*  दिल के मरीज :-
आंवला खाने से दिल मजबूत होता है !
दिल के मरीज हर रोज कम से कम तीन आंवले का सेवन करें !
इससे दिल की बीमारी दूर होगी !
दिल के मरीज मुरब्बा भी खा सकते हैं !

* खांसी और बलगम :-
खांसी आने पर दिन में तीन बार आंवले का मुरब्बा गाय के दूध के साथ खाएं !
अगर ज्यादा तेज खांसी आ रही हो तो आंवले को शहद में मिलाकर खाने से खांसी ठीक हो जाती है !

* पेशाब में जलन :-
यदि पेशाब करने में जलन हो तो हरे आंवले का रस शहद में मिलाकर सेवन कीजिए !
इससे जलन समाप्त होगी ओर पेशाब साफ आएगा !

* पथरी के लिए :-
पथरी की शिकायत होने पर सूखे आंवले के चूर्ण को मूली के रस में मिलाकर 40 दिन तक सेवन कीजिए !
इससे पथरी समाप्त हो जाएगी !

$ फल एक गुण अनेक स्वास्थ्य ... !!!
आयुर्वेद में आंवला कब्ज का रामबाण - रक्त शोधक - पाचक - रुचिवर्धक तथा अतिसार - प्रमेह - दाह - पीलिया - अम्ल पित्त - रक्त विकार - रक्त स्नाव - बवासीर - कब्ज - अजीर्ण - बदहजमी - श्वास - खांसी - रक्त प्रदर नाशक तथा आयुवर्धक है !

$ सौंदर्य :-
निरंतर प्रयोग से बाल टूटना - रूसी - बाल सफेद होना रूक जाते हैं !
नेत्र ज्योति तेज होती है !
दांत मजबूत होते हैं !
रोज एक आंवला खाने से त्वचा की नमी बरकरार रहती है - इससे त्वचा पर कांति आती है और पिंपल्स जैसी समस्याएं भी दूर होती हैं !

* परंपरागत प्रयोग :-
आंवला आयुर्वेद और यूनानी पैथी की प्रसिद्ध दवाइयों - च्यवनप्राश - ब्रह्म रसायन - धात्री रसायन - अनोशदारू - त्रिफला रसायन - आमलकी रसायन - त्रिफला चूर्ण - धात्ररिष्ट - त्रिफलारिष्ट - त्रिफला घृत आदि के साथ मुरब्बे  शर्बत - केश तेल आदि निर्माण में प्रयुक्त होता है !

रक्तवर्धक नवायस लौह - धात्री लौह - योगराज रसायन - त्रिफला मंडूर आंवले से बनाए जाते हैं !

" मानव शरीर में सिर्फ ल्यूकोडर्मा में आंवला उपयोग नहीं होता !"

इसके अलावा सिर से पैर तक का कोई ऐसा रोग नहीं जहां आंवला दवा या खुराक के रूप में उपयोगी न रहता हो !
भारतीय गृहिणी की रसोई में भी आंवला - चटनी - सब्जी - आचार - मुरब्बे के रूप में सदा से विराजमान है !
इसके प्रयोग से शरीर की प्रतिरक्षी शक्ति सुरक्षित रहती है !
बार - बार होने वाली बीमारियों से बचाव करने वाला आंवला ‘विटामिन सी’ का सबसे बड़ा भंडार है !
इसका विटामिन ‘सी’ पकाने, सुखाने, तलने, पुराना होने पर भी नष्ट नहीं होता !
अमृत फल देने वाले इस आंवले के एक पेड़ को अगर घर के आंगन या आसपास लगा दिया जाए तो पूरे परिवार का वैद्य बन यह सेहत की जरूरतें पूरी करता है !
आंवला खाने से कई प्रकार की शरीरिक समस्याओं और रोगों से बचाव होता है - और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है !
खासतौर पर सर्दियों में आंवला बहुतायत में मौजूद होता है !
आंवला का कई प्रकार से सेवन किया जा सकता है और किसी भी रूप में इसका सेवन करने से ये उतना ही फायदा करता है !

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

श्री विन्ध्येश्वरीस्तोत्रं

⬛सुप्रभात मानस परिवार⬛
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निशुम्भ-शुम्भ मर्दिनीं, प्रचन्ड मुन्ड खन्डिनीं।
वने रणे प्रकशिनीं, भजामि विन्ध्यवासिनीम् ॥
त्रिशुल-मुन्डधारिणीं, धराविघाहारिणीम्।
गृहे-गृहे निवासिनीं, भजामि विन्ध्यवासिनीम्॥
दरिद्र्-दुःख हारिणीं, सदा विभूतिकारिणीम्।
वियोगशोक-हारिणीं, भजामि विन्ध्यवासिनीम्॥लसत्सुलोत-लोचनीं, जने सदा वरप्रदाम्।
कपाल-शूल धारिणीं, भजामि विन्ध्यवासिनीम्॥कराब्जदानदाधरां, शिवां शिवप्रदायिनीम्।
वरा-वराननां शुभां, भजामि विन्ध्यवासिनीम्॥
कपीन्द्र-जामिनीप्रदां, त्रिधास्वरूपधारिणीम्।
जले-स्थले निवासिनीं, भजामि विन्ध्यवासिनीम्॥
विशिष्ट-शिष्टकारिणीं, विशालरूप धारिणीम्।
महोदरे-विलासिनीं, भजामि विन्ध्यवासिनीम्॥पुरन्दरादिसेवितां , सुरारिवंशखंडिताम्।
विशुद्ध-बुद्धिकारिणीं, भजामि विन्ध्यवासिनीम्॥
""""" इति श्री विन्ध्येश्वरीस्तोत्रं//
#जयमाँ विन्ध्यवासिनी ।
जय हो माता विन्ध्यवासिनी जी जय हो//

श्री राधा जी के सोलह नाम

श्री राधा के सोलह नाम

राधा रासेस्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी।
कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रियाव् कृष्णस्वरूपिणी॥
कृष्णवामांगसम्भूता परमानन्दरूपिणी।
कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी॥
चन्द्रावली चन्द्रकान्ता शरच्चन्द्रप्रभानना।
नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च॥
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्ण जन्म खण्ड, १७। २२०-२२२)

श्री राधा के इन सोलह नामों की व्याख्या स्वयं भगवान नारायण ने नारदजी को बताया था जो कि इस प्रकार है–

१. राधा–ये निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाली हैं।
२. रासेस्वरी–रासेश्वर की प्राणप्रिया हैं, अत: रासेश्वरी हैं।
३. रासवासिनी–रासमण्डल में निवास करने वाली हैं।
४. रसिकेश्वरी–समस्त रसिक देवियों की सर्वश्रेष्ठ स्वामिनी हैं। ५. कृष्णप्राणाधिका–श्री कृष्ण को वे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं इसलिए उन्हें कृष्णप्राणाधिका कहा जाता है।
६. कृष्णप्रिया–वे श्री कृष्ण की परम प्रिया हैं या श्री कृष्ण उन्हें परम प्रिय हैं अत: उन्हें कृष्णप्रिया कहते हैं।
७. कृष्णस्वरूपिणी–ये स्वरूपत:  श्री कृष्ण के समान हैं।
८. कृष्णवामांगसम्भूता–ये श्री कृष्ण के वामांग से प्रकट हुई हैं।
९. परमानन्दरूपिणी–ये भगवान की परम आनंदस्वरूपा आह्लादिनी शक्ति है, इसी से इनका एक नाम परमानन्दरूपिणी है।
१०. कृष्णा–ये श्रेष्ठ मोक्ष प्रदान करती हैं अत: कृष्णा हैं।
११. वृन्दावनी–वृन्दावन उनकी मधुर लीलाभूमि है अत: इन्हें वृन्दावनी भी कहा जाता है।
१२. वृन्दा–ये सखियों के समुदाय की स्वामिनी हैं अत: वृन्दा कहलाती हैं।
१३. वृन्दावनविनोदिनी–इनके कारण समस्त वृन्दावन को आमोद (आनन्द) प्राप्त होता है।
१४. चन्द्रावली–उनका मुख पूर्ण चन्द्र के सदृश्य है इससे इनको चन्द्रावली कहते हैं।
१५. चन्द्रकान्ता–इनके शरीर पर अनन्त चन्द्रमाओं की-सी कांति जगमगाती रहती है, इसलिए ये चन्द्रकान्ता कही जाती हैं।
१६. शरच्चन्द्रप्रभानना–इनका मुखमण्डल शरत्कालीन चन्द्रमा के समान प्रभावान है।
श्रीराधा के इन नामों से स्पष्ट है कि श्री राधा भगवान श्री कृष्ण की अभिन्न शक्ति हैं।
जय जय श्री राधे !!
 जय जय श्री राधे राधे राधे राधे 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

राम-रक्षा स्तोत्र की अर्थ सहित व्याख्या

मित्रो आज हम आपको रामरक्षास्त्रोत भावार्थ सहित बतायेगें, बहुत चमत्कारी है,मुर्दे में भी जान डाल देता है राम रक्षा स्त्रोत!!!!!

राम रक्षा स्त्रोत को  एक बार में पढ़ लिया जाए तो पूरे दिन तक इसका प्रभाव रहता है। अगर आप रोज ४५ दिन तक राम रक्षा स्त्रोत का पाठ करते हैं तो इसके फल की अवधि बढ़ जाती है। इसका प्रभाव दुगुना तथा दो दिन तक रहने लगता है और भी अच्छा होगा यदि कोई राम रक्षा स्त्रोत  प्रतिदिन ११ बार पढ़े,अगर ग्यारह सम्भव न हो तो दिन में एक बार करना भी बहुत लाभदायक है।

सरसों के दाने एक कटोरी में दाल लें। कटोरी के नीचे कोई ऊनी वस्त्र या आसन होना चाहिए। राम रक्षा मन्त्र को ११ बार पढ़ें और इस दौरान आपको अपनी उँगलियों से सरसों के दानों को कटोरी में घुमाते रहना है। ध्यान रहे कि आप किसी आसन पर बैठे हों और राम रक्षा यंत्र आपके सम्मुख हो या फिर श्री राम कि प्रतिमा या फोटो आपके आगे होनी चाहिए जिसे देखते हुए आपको मन्त्र पढ़ना है। ग्यारह बार के जाप से सरसों सिद्ध हो जायेगी और आप उस सरसों के दानों को शुद्ध और सुरक्षित पूजा स्थान पर रख लें। जब आवश्यकता पड़े तो कुछ दाने लेकर आजमायें। सफलता अवश्य प्राप्त होगी।

वाद विवाद या #मुकदमा हो तो उस दिन सरसों के दाने साथ लेकर जाएँ और वहां दाल दें जहाँ विरोधी बैठता है या उसके सम्मुख फेंक दें। सफलता आपके कदम चूमेगी।

खेल या प्रतियोगिता या साक्षात्कार में आप सिद्ध सरसों को साथ ले जाएँ और अपनी जेब में रखें।

अनिष्ट की आशंका हो तो भी सिद्ध सरसों को साथ में रखें।

यात्रा में साथ ले जाएँ आपका कार्य सफल होगा।

राम रक्षा स्त्रोत से पानी सिद्ध करके रोगी को पिलाया जा सकता है परन्तु पानी को सिद्ध करने कि विधि अलग है। इसके लिए ताम्बे के बर्तन को केवल हाथ में पकड़ कर रखना है और अपनी दृष्टि पानी में रखें और महसूस करें कि आपकी सारी शक्ति पानी में जा रही है। इस समय अपना ध्यान श्री राम की स्तुति में लगाये रखें। मन्त्र बोलते समय प्रयास करें कि आपको हर वाक्य का अर्थ ज्ञात रहे।

॥ #श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥

श्रीगणेशायनम: - अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य, बुधकौशिक ऋषि:। श्रीसीतारामचंद्रोदेवता, अनुष्टुप्‌ छन्द:,सीता शक्ति:। श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।

श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥

#अर्थ: — इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |

॥ अथ,ध्यानम्‌ ॥

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥
वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥

ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें | ॥ इति ध्यानम्‌ ॥

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥

श्रीरघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं।उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है।

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।
जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥

नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके,

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥

जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,

रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।
शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥

मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें।

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥

कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें |

जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥

मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें |

करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥

मेरे हाथों की सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें |

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥

मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें |

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।
पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥

मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |

एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ ।
स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥

शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं |

पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।
न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥

जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते |

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।
नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥

राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |

जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।
य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥

जो संसार पर विजय करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं |

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।
अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥

जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं |

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।
तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥

भगवान् शंकर ने स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया।

आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ ।
अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥

जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा = सारी विपत्तियों को) और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम + स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं |

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥

जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं |

फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥

जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें |

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।
रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥

ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें |

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥

संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें |

संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥

हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें |

रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥

भगवान् का कथन है की श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम,

वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।
जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥

वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥

नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |

रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥

दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता |

रामं लक्शमण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।
वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥

लक्ष्मण जी के पूर्वज , सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक , राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ।

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥

राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ |

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥

हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए |

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥

मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ |

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।
नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥

श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी दुसरे को नहीं जानता |

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥

जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ |

लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।
कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥

मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की श्रीराम की शरण में हूँ |

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥

जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ |

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥

मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ |

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥

मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले हैं |

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥

‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं | वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं | राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं |

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ ।
रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥

राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं | मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ | सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ | श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं | मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ | मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ | हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें |

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥

(शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं | मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ |

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

पूजा-पाठ में जरूरी सावधानी

पूजा तो सब करते हैं परन्तु यदि इन नियमों को ध्यान में रखा जाये तो उसी पूजा पाठ का हम अत्यधिक फल प्राप्त कर सकते हैं.वे नियम कुछ इस प्रकार हैं?????

1 सूर्य, गणेश,दुर्गा,शिव एवं विष्णु ये पांच देव कहलाते हैं. इनकी पूजा सभी कार्यों में गृहस्थ आश्रम में नित्य होनी चाहिए. इससे धन,लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है।

2 गणेश जी और भैरवजी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए।

3 दुर्गा जी को दूर्वा नहीं चढ़ानी चाहिए।

4 सूर्य देव को शंख के जल से अर्घ्य नहीं देना चाहिए।

5 तुलसी का पत्ता बिना स्नान किये नहीं तोडना चाहिए. जो लोग बिना स्नान किये तोड़ते हैं,उनके तुलसी पत्रों को भगवान स्वीकार नहीं करते हैं।

6 रविवार,एकादशी,द्वादशी ,संक्रान्ति तथा संध्या काल में तुलसी नहीं तोड़नी चाहिए।

7 दूर्वा( एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।

8 केतकी का फूल शंकर जी को नहीं चढ़ाना चाहिए।

९ कमल का फूल पाँच रात्रि तक उसमें जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।

10 बिल्व पत्र दस रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।

.11 तुलसी की पत्ती को ग्यारह रात्रि तक जल छिड़क कर चढ़ा सकते हैं।

12 हाथों में रख कर हाथों से फूल नहीं चढ़ाना चाहिए।

13 तांबे के पात्र में चंदन नहीं रखना चाहिए।

14 दीपक से दीपक नहीं जलाना चाहिए जो दीपक से दीपक जलते हैं वो रोगी होते हैं।

15 पतला चंदन देवताओं को नहीं चढ़ाना चाहिए।

16 प्रतिदिन की पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए. दक्षिणा में अपने दोष,दुर्गुणों को छोड़ने का संकल्प लें, अवश्य सफलता मिलेगी और मनोकामना पूर्ण होगी।

17 चर्मपात्र या प्लास्टिक पात्र में गंगाजल नहीं रखना चाहिए।

18 स्त्रियों और शूद्रों को शंख नहीं बजाना चाहिए यदि वे बजाते हैं तो लक्ष्मी वहां से चली जाती है।

19 देवी देवताओं का पूजन दिन में पांच बार करना चाहिए. सुबह 5 से 6 बजे तक ब्रह्म बेला में प्रथम पूजन और आरती होनी चाहिए।प्रात:9 से 10 बजे तक दिवितीय पूजन और आरती होनी चाहिए,मध्याह्र में तीसरा पूजन और आरती,फिर शयन करा देना चाहिए शाम को चार से पांच बजे तक चौथा पूजन और आरती होना चाहिए,रात्रि में 8 से 9 बजे तक पाँचवाँ पूजन और आरती,फिर शयन करा देना चाहिए।

20 आरती करने वालों को प्रथम चरणों की चार बार,नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार और समस्त अंगों की सात बार आरती करनी चाहिए।

21 पूजा हमेशा पूर्व या उतर की ओर मुँह करके करनी चाहिए, हो सके तो सुबह 6 से 8 बजे के बीच में करें।

22 पूजा जमीन पर ऊनी आसन पर बैठकर ही करनी चाहिए, पूजागृह में सुबह एवं शाम को दीपक,एक घी का और एक तेल का रखें।

23 पूजा अर्चना होने के बाद उसी जगह पर खड़े होकर 3 परिक्रमाएँ करें।

24 पूजाघर में मूर्तियाँ 1 ,3 , 5 , 7 , 9 ,11 इंच तक की होनी चाहिए, इससे बड़ी नहीं तथा खड़े हुए गणेश जी,सरस्वतीजी ,लक्ष्मीजी, की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।

25 गणेश या देवी की प्रतिमा तीन तीन, शिवलिंग दो,शालिग्राम दो,सूर्य प्रतिमा दो,गोमती चक्र दो की संख्या में कदापि न रखें.अपने मंदिर में सिर्फ प्रतिष्ठित मूर्ति ही रखें उपहार,काँच, लकड़ी एवं फायबर की मूर्तियां न रखें एवं खण्डित, जलीकटी फोटो और टूटा काँच तुरंत हटा दें, यह अमंगलकारक है एवं इनसे विपतियों का आगमन होता है।

26 मंदिर के ऊपर भगवान के वस्त्र, पुस्तकें एवं आभूषण आदि भी न रखें मंदिर में पर्दा अति आवश्यक है अपने पूज्य माता --पिता तथा पित्रों का फोटो मंदिर में कदापि न रखें,उन्हें घर के नैऋत्य कोण में स्थापित करें।

27 विष्णु की चार, गणेश की तीन,सूर्य की सात, दुर्गा की एक एवं शिव की आधी परिक्रमा कर सकते हैं।

28 प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर में कलश स्थापित करना चाहिए कलश जल से पूर्ण, श्रीफल से युक्त विधिपूर्वक स्थापित करें यदि आपके घर में श्रीफल कलश उग जाता है तो वहाँ सुख एवं समृद्धि के साथ स्वयं लक्ष्मी जी नारायण के साथ निवास करती हैं तुलसी का पूजन भी आवश्यक है।

29 मकड़ी के जाले एवं दीमक से घर को सर्वदा बचावें अन्यथा घर में भयंकर हानि हो सकती है।

30 घर में झाड़ू कभी खड़ा कर के न रखें झाड़ू लांघना, पाँवसे कुचलना भी दरिद्रता को निमंत्रण देना है दो झाड़ू को भी एक ही स्थान में न रखें इससे शत्रु बढ़ते हैं।

31 घर में किसी परिस्थिति में जूठे बर्तन न रखें. क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि रात में लक्ष्मीजी घर का निरीक्षण करती हैं यदि जूठे बर्तन रखने ही हो तो किसी बड़े बर्तन में उन बर्तनों को रख कर उनमें पानी भर दें और ऊपर से ढक दें तो दोष निवारण हो जायेगा।

32 कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा घर में नित्य अवश्य जलाना चाहिए,जिससे वातावरण अधिकाधिक शुद्ध हो: वातावरण में धनात्मक ऊर्जा बढ़े।

33 घर में नित्य घी का दीपक जलावें और सुखी रहें।

34 घर में नित्य गोमूत्र युक्त जल से पोंछा लगाने से घर में वास्तुदोष समाप्त होते हैं तथा दुरात्माएँ हावी नहीं होती हैं।

35 सेंधा नमक घर में रखने से सुख श्री(लक्ष्मी) की वृद्धि होती है ।

36 रोज पीपल वृक्ष के स्पर्श से शरीर में रोग प्रतिरोधकता में वृद्धि होती है।

37 साबुत धनिया,हल्दी की पांच गांठें,11 कमलगट्टे तथा साबुत नमक एक थैली में रख कर तिजोरी में रखने से बरकत होती है श्री (लक्ष्मी) व समृद्धि बढ़ती है।

38 दक्षिणावर्त शंख जिस घर में होता है,उसमे साक्षात लक्ष्मी एवं शांति का वास होता है वहाँ मंगल ही मंगल होते हैं पूजा स्थान पर दो शंख नहीं होने चाहिएँ।

39 घर में यदा कदा केसर के छींटे देते रहने से वहां धनात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है पतला घोल बनाकर आम्र पत्र अथवा पान के पते की सहायता से केसर के छींटे लगाने चाहिएँ।

40 एक मोती शंख,पाँच गोमती चक्र, तीन हकीक पत्थर,एक ताम्र सिक्का व थोड़ी सी नागकेसर एक थैली में भरकर घर में रखें श्री (लक्ष्मी) की वृद्धि होगी।

41 आचमन करके जूठे हाथ सिर के पृष्ठ भाग में कदापि न पोंछें,इस भाग में अत्यंत महत्वपूर्ण कोशिकाएँ होती हैं।

42 घर में पूजा पाठ व मांगलिक पर्व में सिर पर टोपी व पगड़ी पहननी चाहिए,रुमाल विशेष कर सफेद रुमाल शुभ नहीं माना जाता है।                                                       

हरि ॐ

शुक्रवार व्रत कथा

शुक्रवार व्रत कथा

एक बुढिया थी।उसका एक ही पुत्र था। बुढिया पुत्र के विवाह के बाद ब से घर के सारे काम करवाती, परंतु उसे ठीक से खाना नहीं देती थी। यह सब लडका देखता पर माँ से कुछ भी नहीं कह पाता। ब दिनभर काम में लगी रहती- उपले थापती, रोटी-रसोई करती, बर्तन साफ करती, कपडे धोती और इसी में उसका सारा समय बीत जाता।
काफी सोच-विचारकर एक दिन लडका माँ से बोला- 'माँ, मैं परदेस जा रहा ँ। माँ को बेटे की बात पसंद आ गई तथा उसे जाने की आज्ञा दे दी। इसके बाद वह अपनी पत्नी के पास जाकर बोला- 'मैं परदेस जा रहा ँ। अपनी कुछ निशानी दे दे। ब बोली- 'मेरे पास तो निशानी देने योग्य कुछ भी नहीं है। यह कहकर वह पति के चरणों में गिरकर रोने लगी। इससे पति के जूतों पर गोबर से सने हाथों से छाप बन गई।
पुत्र के जाने बाद सास के अत्याचार बढते गए। एक दिन ब दु:खी हो मंदिर चली गई। वहाँ उसने देखा कि बहुत-सी स्त्रियाँ पूजा कर रही थीं। उसने स्त्रियों से व्रत के बारे में जानकारी ली तो वे बोलीं कि हम संतोषी माता का व्रत कर रही हैं। इससे सभी प्रकार के कष्टों का नाश होता है।
स्त्रियों ने बताया- शुक्रवार को नहा-धोकर एक लोटे में शुध्द जल ले गुड-चने का प्रसाद लेना तथा सच्चे मन से माँ का पूजन करना चाहिए। खटाई भूल कर भी मत खाना और न ही किसी को देना। एक वक्त भोजन करना।
व्रत विधान सुनकर अब वह प्रति शुक्रवार को संयम से व्रत करने लगी। माता की कृपा से कुछ दिनों के बाद पति का पत्र आया। कुछ दिनों बाद पैसा भी आ गया। उसने प्रसन्न मन से फिर व्रत किया तथा मंदिर में जा अन्य स्त्रियों से बोली- 'संतोषी माँ की कृपा से हमें पति का पत्र तथा रुपया आया है। अन्य सभी स्त्रियाँ भी श्रध्दा से व्रत करने लगीं। ब ने कहा- 'हे माँ! जब मेरा पति घर आ जाएगा तो मैं तुम्हारे व्रत का उद्यापन करूँगी।
अब एक रात संतोषी माँ ने उसके पति को स्वप्न दिया और कहा कि तुम अपने घर क्यों नहीं जाते? तो वह कहने लगा- सेठ का सारा सामान अभी बिका नहीं। रुपया भी अभी नहीं आया है। उसने सेठ को स्वप्न की सारी बात कही तथा घर जाने की इजाजत माँगी। पर सेठ ने इनकार कर दिया। माँ की कृपा से कई व्यापारी आए, सोना-चाँदी तथा अन्य सामान खरीदकर ले गए। कर्जदार भी रुपया लौटा गए। अब तो साकार ने उसे घर जाने की इजाजत दे दी।
घर आकर पुत्र ने अपनी माँ व पत्नी को बहुत सारे रुपए दिए। पत्नी ने कहा कि मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है। उसने सभी को न्योता दे उद्यापन की सारी तैयारी की। पडोस की एक स्त्री उसे सुखी देखर् ईष्या करने लगी थी। उसने अपने बच्चों को सिखा दिया कि तुम भोजन के समय खटाई जरूर माँगना।
उद्यापन के समय खाना खाते-खाते बच्चे खटाई के लिए मचल उठे। तो ब ने पैसा देकर उन्हें बहलाया। बच्चे दुकान से उन पैसों की इमली-खटाई खरीदकर खाने लगे। तो ब पर माता ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकडकर ले जाने लगे। तो किसी ने बताया कि उद्यापन में बच्चों ने पैसों की इमली खटाई खाई है तो ब ने पुन: व्रत के उद्यापन का संकल्प किया।
संकल्प के बाद वह मंदिर से निकली तो राह में पति आता दिखाई दिया। पति बोला- इतना धन जो कमाया है, उसका टैक्स राजा ने माँगा था। अगले शुक्रवार को उसने फिर विधिवत व्रत का उद्यापन किया। इससे संतोषी माँ प्रसन्न हुईं। नौमाह बाद चाँद-सा सुंदर पुत्र हुआ। अब सास, ब तथा बेटा माँ की कृपा से आनंद से रहने लगे।

जल्द करो मंदिर निर्माण

अभी वक्त है होश में आओ|
इसी सत्र में बिल ले आओ|
जनमन का कर लो अनुमान |
जल्द करो मंदिर निर्माण |
राम से जिसने की गद्दारी |
सबकी बिगड़ गई तैयारी |
तूने राम की रोटी खाई|
राम नाम से सत्ता पाई|
जब निर्माण की बेला आई|
मौन धरे हो लाज न आई|
कारसेवकों की कुरबानी |
भूलोगे होगी नादानी|
अभी वक्त है होश में आओ|
ऐसा न हो बस पछताओ|
छोड़ो तुम झूठा अभिमान |
जनमन का कर लो सम्मान |
जल्द करो मंदिर निर्माण ||
जय श्री राम
      - अवनीश द्विवेदी 

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

हृदय रोग से कैसे बचें



आजकल हार्ट अटेक से मृत्यु ज्यादा हो रही है।
इसके लिए एक अच्छा उपाय जो अपने घर मे उपलब्ध सामग्री से कर सकते है।

सामग्री ::

1. शहद
2. लहसुन
3. खाने वाला पान ( बंगला पान )
4. अदरक

लहसुन 2 कली , पान 2 डंठल सहित , अदरक 5 ग्राम
इनको अच्छे से पीस कर इसमे 2 चम्मच शहद मिला देवे ।
इस मिश्रण को भूखे पेट 30 से 45 मिंट में धीरे धीरे चाटे ।
मिश्रण चाटने के 1 घंटे बाद ही कुछ खाना पीना करे ।
सिर्फ 5 से 7 दिनों में ही आपका हृदय ठीक होने लगेगा।
और हार्ट अटैक जैसी बीमारी से दूर हो जाएंगे ।

हरिदास जी की कथा

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

सन्त-संग की महिमा

श्रीचैतन्य-महाप्रभुके कई शिष्य हुए हैं । उनमें एक यवन हरिदासजी महाराज भी थे । वे थे तो मुसलमान, पर चैतन्य-महाप्रभुके संगसे भगवन्नाममें लग गये । सनातन धर्मको स्वीकार कर लिया । उस समय बड़े-बड़े नवाब राज्य करते थे, उनको बड़ा बुरा लगा । लोगोंने भी शिकायत की कि यह काफिर हो गया । इसने हिन्दूधर्म को स्वीकार कर लिया । उन लोगोंने सोचा‒‘इसका कोई-न-कोई कसूर हो तो फिर अच्छी तरहसे इसको दण्ड देंगे ।’

एक वेश्या को तैयार किया और उससे कहा‒‘यह भजन करता है, इसको यदि तू विचलित कर देगी तो बहुत इनाम दिया जायगा ।’ वेश्या ने कहा‒‘पुरुष जातिको विचलित कर देना तो मेरे बायें हाथ का खेल है ।’ ऐसे कहकर वह वहाँ चली गयी जहाँ हरिदास जी एकान्त में बैठे नाम-जप कर रहे थे । वह पासमें जाकर बैठ गयी और बोली‒‘महाराज, मुझे आपसे बात करनी है ।’ हरिदास जी बोले‒‘मुझे अभी फुरसत नहीं है ।’ ऐसा कह कर भजन में लग गये । ऐसे उन्होंने उसे मौका दिया ही नहीं । तीन दिन हो गये, वे खा-पी लेते और फिर ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥’ मन्त्र-जपमें लग जाते । ऐसे वेश्या को बैठे तीन दिन हो गये, पर महाराज का उधर खयाल ही नहीं है, नाम में ही रस ले रहे हैं । अब उस वेश्या का भी मन बदला कि तू कितनी निकृष्ट और पतित है । यह बेचारा सच्चे हृदयसे भगवान्‌में लगा हुआ है इसको विचलित कर नरकों की ओर तू ले जाना चाहती है, तेरी दशा क्या होगी ? इतना भगवन्नाम सुना, ऐसे विशुद्ध संतका संग हुआ, दर्शन हुए । अब तो वह रो पड़ी एकदम ही ‘महाराज ! मेरी क्या दशा होगी, आप बताओ ?’

जब महाराज ने ऐसा सुना तो बोले‒‘हाँ हाँ ! बोल अब फुरसत है मुझे । क्या पूछती हो ?’ वह कहने लगी‒‘मेरा कल्याण कैसे होगा ? मेरी ऐसी खोटी बुद्धि है, जो आप भजनमें लगे हुए को भी नरकमें ले जाने का विचार कर रही थी । मैं आपको पथभ्रष्ट करनेके लिये आयी । नवाब ने मुझे कहा कि तू उनको विचलित कर दे, तेरेको इनाम देंगे । मेरी दशा क्या होगी ?’ तो उन्होंने कहा ‘तुम नाम‒जप करो, भगवान्‌का नाम लो ।’

फिर बोली-‒‘अब तो मेरा मन भजन करनेका ही करता है, भविष्यमें कोई पाप नहीं करूँगी, कभी नहीं करूँगी ।’ हरिदासजीने उसे माला और मन्त्र दे दिया । ‘अच्छा यह ले माला ! बैठ जा यहाँ और कर हरि भजन ।’ उसे वहाँ बैठा दिया और वह‒‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥’ इस मन्त्रका जप करने लगी । हरिदासजीने सोचा‒‘यहाँ मेरे रहनेसे नवाबको दुःख होता है तो छोड़ो इस स्थानको और दूसरी जगह चलो ।’

एकान्त में दो-तीन दिनतक वेश्या बैठी रही, फिर भी हरिदासजीका मन नहीं चला‒इसमें कारण क्या था ? ‘राम’ नामका जो रस है, वह भीतरमें आ गया । अब बाकी क्या रहा ! सज्जनो ! संसार के रस से सर्वथा विमुख होकर जब भगवन्नाम-जप में प्रेमपूर्वक लग जाओगे, तब यह भजन का रस स्वतः आने लगेगा । इसलिये ‘राम’ नाम रात-दिन लो, कितनी सीधी बात है !

नाम लेने का मजा जिसकी जुबाँ पर आ गया ।
वो जीवन्मुक्त हो गया चारों पदार्थ पा गया ॥

किसी व्यापार में मुनाफा कब होता है ? जब वह बहुत सस्तेमें खरीदा जाय,फिर उसका भाव बहुत मँहगा हो जाय, तब उसमें नफा होता है । मान लो, दो-तीन रुपये मनमें अनाज आपके पास लिया हुआ है और भाव चालीस, पैंतालीस रुपये मनका हो गया । लोग कहते हैं, अनाज का बाजार बड़ा बिगड़ गया, पर आपसे पूछा जाय तो आप क्या कहेंगे ? आप कहेंगे कि मौज हो गयी । आपके लिये बाजार खराब नहीं हुआ । ऐसे ही ‘राम’ नाम लेनेमें सत्ययुग में जितना समय लगता था, उतना ही समय अब कलियुग में लगता है । पूँजी उतनी ही खर्च होगी और भाव होगा कलियुग के बाजार के अनुसार । कितना सस्ता मिलता है और कितना मुनाफा होता है इसमें ! कलियुग में नामकी महिमा विशेष है ।

🙏राम ! राम !! राम !!!🙏

बुधवार, 12 दिसंबर 2018

किसके यहां भोजन न करें

गरुड़ पुराण ज्ञान
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गरुण पुराण, वेदव्यास जी द्वारा रचित 18 पुराणो में से एक है। गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इसके अलावा भी इस ग्रन्थ में कई मानव उपयोगी बातें लिखी है जिनमे से एक है की किस तरह के लोगों के घर भोजन नहीं करना चाहिए।

क्योंकि एक पुरानी कहावत है, जैसा खाएंगे अन्न, वैसा बनेगा मन। यानी हम जैसा भोजन करते हैं, ठीक वैसी ही सोच और विचार बनते हैं। इसका सबसे सशक्त उदाहरण महाभारत में मिलता है जब तीरों की शैय्या पर पड़े भीष्म पितामह से द्रोपदी पूंछती है- "आखिर क्यों उन्होंने भरी सभा में मेरे चीरहरण का विरोध नहीं किया जबकि वो सबसे बड़े और सबसे सशक्त थे।" तब भीष्म पितामह कहते है की मनुष्य जैसा अन्न खता है वैसा ही उसका मन हो जाता है। उस वक़्त में कौरवों का अधर्मी अन्न खा रहा था इसलिए मेरा दिमाग भी वैसा ही हो गया और मुझे उस कृत्य में कुछ गलत नज़र नहीं आया।

हमारे समाज में एक परंपरा काफी पुराने समय से चली आ रही है कि लोग एक-दूसरे के घर पर भोजन करने जाते हैं। कई बार दूसरे लोग हमें खाने की चीजें देते हैं। वैसे तो यह एक सामान्य सी बात है, लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि किन लोगों के यहां हमें भोजन नहीं करना चाहिए।

गरुड़ पुराण के आचार कांड में बताया गया है कि हमें किन 10 लोगों के यहां भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि हम इन लोगों के द्वारा दी गई खाने की चीज खाते हैं या इनके घर भोजन करते हैं तो इससे हमारे पापों में वृद्धि होती है। यहां जानिए ये 10 लोग कौन-कौन हैं और इनके घर पर भोजन क्यों नहीं करना चाहिए...

1. कोई चोर या अपराधी
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कोई व्यक्ति चोर है, न्यायालय में उसका अपराधी सिद्ध हो गया हो तो उसके घर का भोजन नहीं करना चाहिए। गरुड़ पुराण के अनुसार चोर के यहां का भोजन करने पर उसके पापों का असर हमारे जीवन पर भी हो सकता है।

2. चरित्रहीन स्त्री
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इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि चरित्रहीन स्त्री के हाथ से बना हुआ या उसके घर पर भोजन नहीं करना चाहिए। यहां चरित्रहीन स्त्री का अर्थ यह है कि जो स्त्री स्वेच्छा से पूरी तरह अधार्मिक आचरण करती है। गरुड़ पुराण में लिखा है कि जो व्यक्ति ऐसी स्त्री के यहां भोजन करता है, वह भी उसके पापों का फल प्राप्त करता है।

3. सूदखोर
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वैसे तो आज के समय में काफी लोग ब्याज पर दूसरों को पैसा देते हैं, लेकिन जो लोग दूसरों की मजबूरी का फायदा उठाते हुए अनुचित रूप से अत्यधिक ब्याज प्राप्त करते हैं, गरुड़ पुराण के अनुसार उनके घर पर भी भोजन नहीं करना चाहिए। किसी भी परिस्थिति में दूसरों की मजबूरी का अनुचित लाभ उठाना पाप माना गया है। गलत ढंग से कमाया गया धन, अशुभ फल ही देता है।

4. रोगी व्यक्ति
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यदि कोई व्यक्ति किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित है, कोई व्यक्ति छूत के रोग का मरीज है तो उसके घर भी भोजन नहीं करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति के यहां भोजन करने पर हम भी उस बीमारी की गिरफ्त में आ सकते हैं। लंबे समय से रोगी इंसान के घर के वातावरण में भी बीमारियों के कीटाणु हो सकते हैं जो कि हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

5. अत्यधिक क्रोधी व्यक्ति
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क्रोध इंसान का सबसे बड़ा शत्रु होता है। अक्सर क्रोध के आवेश में व्यक्ति अच्छे और बुरे का फर्क भूल जाता है। इसी कारण व्यक्ति को हानि भी उठानी पड़ती है। जो लोग हमेशा ही क्रोधित रहते हैं, उनके यहां भी भोजन नहीं करना चाहिए। यदि हम उनके यहां भोजन करेंगे तो उनके क्रोध के गुण हमारे अंदर भी प्रवेश कर सकते हैं।

6. नपुंसक या किन्नर
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किन्नरों को दान देने का विशेष विधान बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि इन्हें दान देने पर हमें अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि इन्हें दान देना चाहिए, लेकिन इनके यहां भोजन नहीं करना चाहिए। किन्नर कई प्रकार के लोगों से दान में धन प्राप्त करते हैं। इन्हें दान देने वालों में अच्छे-बुरे, दोनों प्रकार के लोग होते हैं।

7. निर्दयी व्यक्ति
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यदि कोई व्यक्ति निर्दयी है, दूसरों के प्रति मानवीय भाव नहीं रखता है, सभी को कष्ट देते रहता है तो उसके घर का भी भोजन नहीं खाना चाहिए। ऐसे लोगों द्वारा अर्जित किए गए धन से बना खाना हमारा स्वभाव भी वैसा ही बना सकता है। हम भी निर्दयी बन सकते हैं। जैसा खाना हम खाते हैं, हमारी सोच और विचार भी वैसे ही बनते हैं।

8. निर्दयी राजा
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यदि कोई राजा निर्दयी है और अपनी प्रजा का ध्यान न रखते हुए सभी को कष्ट देता है तो उसके यहां का भोजन नहीं करना चाहिए। राजा का कर्तव्य है कि प्रजा का ध्यान रखें और अपने अधीन रहने वाले लोगों की आवश्यकताओं को पूरी करें। जो राजा इस बात का ध्यान न रखते हुए सभी को सताता है, उसके यहां का भोजन नहीं खाना चाहिए।

9. चुगलखोर व्यक्ति
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जिन लोगों की आदत दूसरों की चुगली करने की होती है, उनके यहां या उनके द्वारा दिए गए खाने को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। चुगली करना बुरी आदत है। चुगली करने वाले लोग दूसरों को परेशानियों फंसा देते हैं और स्वयं आनंद उठाते हैं। इस काम को भी पाप की श्रेणी में रखा गया है। अत: ऐसे लोगों के यहां भोजन करने से बचना चाहिए।

10. नशीली चीजें बेचने वाले
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नशा करना भी पाप की श्रेणी में ही आता है और जो लोग नशीली चीजों का व्यापार करते हैं, गरुड़ पुराण में उनका यहां भोजन करना वर्जित किया गया है। नशे के कारण कई लोगों के घर बर्बाद हो जाते हैं। इसका दोष नशा बेचने वालों को भी लगता है। ऐसे लोगों के यहां भोजन करने पर उनके पाप का असर हमारे जीवन पर भी होता है।
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विवाह पंचमी

विवाह पंचमी के दिन हुआ था प्रभु राम-जानकी का विवाह

भारत में कई स्थानों पर विवाह पंचमी को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। मार्गशीर्ष (अगहन) मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को भगवान श्रीराम तथा जनकपुत्री जानकी (सीता) का विवाह हुआ था। तभी से इस पंचमी को 'विवाह पंचमी पर्व' के रूप में मनाया जाता है।

पौराणिक धार्मिक ग्रथों के अनुसार इस तिथि को भगवान राम ने जनक नंदिनी सीता से विवाह किया था। जिसका वर्णन श्रीरामचरितमानस में महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ी ही सुंदरता से किया है।

श्रीरामचरितमानस के अनुसार- महाराजा जनक ने सीता के विवाह हेतु स्वयंवर रचाया। सीता के स्वयंवर में आए सभी राजा-महाराजा जब भगवान शिव का धनुष नहीं उठा सकें, तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु श्रीराम से आज्ञा देते हुए कहा- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और जनक का संताप मिटाओ।

गुरु विश्वामित्र के वचन सुनकर श्रीराम तत्पर उठे और धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए आगे बढ़ें। यह दृश्य देखकर सीता के मन में उल्लास छा गया। प्रभु की ओर देखकर सीताजी ने मन ही मन निश्चय किया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या तो रहेगा ही नहीं।

माता सीता के मन की बात प्रभु श्रीराम जान गए और उन्होंने देखते ही देखते भगवान शिव का महान धनुष उठाया। इसके बाद उस पर प्रत्यंचा चढ़ाते ही एक भयंकर ध्वनि के साथ धनुष टूट गया। यह देखकर सीता के मन को संतोष हुआ।

फिर सीता श्रीराम के निकट आईं। सखियों के बीच में जनकपुत्री सीता ऐसी शोभित हो रही थ‍ी, जैसे बहुत-सी छबियों के बीच में महाछबि हो। तब एक सखी ने सीता से जयमाला पहनाने को कहा। उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो डंडियोंसहित दो कमल चंद्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हो। तब सीताजी ने श्रीराम के गले में जयमाला पहना दी। यह दृश्य देखकर देवता फूल बरसाने लगे। नगर और आकाश में बाजे बजने लगे।

श्रीराम-सीता की जोड़ी इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गए हो। पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग में यश फैल गया कि श्रीराम ने धनुष तोड़ दिया और सीताजी का वरण कर लिया। इसी के मद्देनजर प्रतिवर्ष अगहन मास की शुक्ल पंचमी को प्रमुख राम मंदिरों में विशेष उत्सव मनाया जाता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम-सीता के शुभ विवाह के कारण ही यह दिन अत्यंत पवित्र माना जाता है। भारतीय संस्कृति में राम-सीता आदर्श दम्पत्ति माने गए हैं।

जिस प्रकार प्रभु श्रीराम ने सदा मर्यादा पालन करके पुरुषोत्तम का पद पाया, उसी तरह माता सीता ने सारे संसार के समक्ष पतिव्रता स्त्री होने का सर्वोपरि उदाहरण प्रस्तुत किया। इस पावन दिन सभी को राम-सीता की आराधना करते हुए अपने सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए प्रभु से आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए।

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

शिव पंचाक्षर मंत्र की महिमा

🔴🍃#शिवपंचाक्षर_मन्त्र🍃🔴
 🔺🍁🍃‘#नम:#शिवाय’🍁🍃🔺
🌞🌸💥🍃🔥🍃💥🌸🌞
*#किं_तस्य_बहुभिर्मन्त्रै: किं तीर्थै: किं तपोऽध्वरै:।*
*यस्यो नम: शिवायेति मन्त्रो हृदयगोचर:।।* (स्कन्दपुराण)

🕉️🚩 अर्थात्–‘जिसके हृदय में ‘ॐ नम: शिवाय’ यह मन्त्र निवास करता है, उसके लिए बहुत-से मन्त्र, तीर्थ, तप और यज्ञों की क्या आवश्यकता है!’

🕉️🚩 भगवान शिव का पंचाक्षर व षडक्षर मन्त्र :-

जैसे सभी देवताओं में त्रिपुरारि भगवान शंकर देवाधिदेव हैं, उसी प्रकार सब मन्त्रों में भगवान शिव का पंचाक्षर मन्त्र ‘नम: शिवाय’ श्रेष्ठ है। इसी मन्त्र के आदि में प्रणव (ॐ) लगा देने पर यह षडक्षर मन्त्र ‘ॐ नम: शिवाय’ हो जाता है। वेद अथवा शिवागम में षडक्षर मन्त्र स्थित है; किन्तु संसार में पंचाक्षर मन्त्र को मुख्य माना गया है।
संसारबंधन में बंधे हुए मनुष्यों के हित की कामना से स्वयं भगवान शिव ने ‘ॐ नम: शिवाय’ इस आदि मन्त्र का प्रतिपादन किया। पंचाक्षर व षडक्षर मन्त्र में सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान शिव सदा रमते हैं। इसे ‘पंचाक्षरी विद्या’ भी कहते हैं। यह मन्त्रराज समस्त श्रुतियों का सिरमौर, सम्पूर्ण उपनिषदों की आत्मा और शब्द समुदाय का बीजरूप है। ‘नम: शिवाय’ मन्त्र के जप से मनुष्य परमात्मा शिव में मिलकर शिवस्वरूप हो जाता है।
भगवान शिव का कथन है–यह सबसे पहले मेरे मुख से निकला; इसलिए यह मेरे ही स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला है। पंचाक्षर तथा षडक्षर मन्त्र में वाच्य-वाचक भाव के द्वारा शिव स्थित हैं। शिव वाच्य हैं और मन्त्र वाचक है। यह पंचाक्षर व षडक्षर मन्त्र शिववाक्य होने से सिद्ध है। इसलिए मनुष्य को नित्य पंचाक्षर मन्त्र का जप करना चाहिए।

‘यह पंचाक्षर मन्त्र मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाला दीपक है। अविद्या के समुद्र को सोखने वाला वडवानल है और पापों के जंगल को जला डालने वाला दावानल है। यह पंचाक्षर मन्त्र वटवृक्ष के बीज की भांति हैं जो सब कुछ देने वाला तथा सर्वसमर्थ माना गया है।’ (स्कन्दपुराण)

🕉️🚩 भगवान शिव द्वारा ब्रह्माजी को पंचाक्षर मन्त्र का उपदेश :-

पूर्वकाल में भगवान शंकर ने पार्वतीजी को इस पंचाक्षर मन्त्र के बारे में बताते हुए कहा–प्रलयकाल में समस्त चराचर जगत, देवता, असुर, नाग आदि नष्ट हो जाते हैं और सभी पदार्थ प्रकृति में लीन हो जाते हैं। उस समय एकमात्र मैं ही रह जाता हूँ। उस समय सभी देवता, वेद और शास्त्र मेरी शक्ति से पंचाक्षर मन्त्र में स्थित रहते हैं। फिर जब मैं दो रूप धारण करता हूँ तब प्रकृति ही मायामय शरीर धारणकर भगवान नारायण के रूप में जल के मध्य में शेषशय्या पर शयन करती है। उनके नाभिकमल से पांच मुख वाले ब्रह्मा उत्पन्न हुए। सृष्टिरचना की इच्छा से ब्रह्मा ने दस मानस पुत्रों को उत्पन्न किया। अपने पुत्रों द्वारा सृष्टिरचना की सामर्थ्य के लिए ब्रह्मा ने मुझसे प्रार्थना की।
ब्रह्माजी की प्रार्थना पर मैंने अपने पांच मुखों (ईशान, घोर, तत्पुरुष, वामदेव और सद्योजात) से ब्रह्माजी के प्रत्येक मुख में एक-एक अक्षर के क्रम से पांच अक्षरों का उच्चारण किया। उन अक्षरों को ब्रह्माजी ने पांच मुखों से ग्रहण किया। ब्रह्माजी ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए इस पंचाक्षर मन्त्र का दीर्घकाल तक जप किया। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर ब्रह्माजी को पंचाक्षर मन्त्र के ऋषि, छन्द, देवता, शक्ति, बीज, षडंगन्यास, दिग्बन्ध व विनियोग बताए। इस मन्त्र के प्रयोग को जानकर ब्रह्मा ने अपने पुत्रों को इस मन्त्ररत्न का उपदेश दिया। ऋषिगण भी इस मन्त्र का माहात्म्य सुनकर अनुष्ठान करने लगे क्योंकि उसी के प्रभाव से देवता, असुर, धर्म, वेद और यह जगत स्थिर है।
भगवान शिव का कथन है कि प्रणव (ॐ)  सहित पांच अक्षरों से युक्त यह मन्त्र मेरा हृदय है। यही शिवज्ञान है, यही परमपद है और यही ब्रह्मविद्या है।

🕉️🚩 पंचाक्षर मन्त्र के ऋषि, छन्द, देवता और ध्यान :-

पंचाक्षर मन्त्र के ऋषि वामदेव, छन्द पंक्ति व देवता शिव हैं। आसन लगाकर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके इस मन्त्र का जप करना चाहिए। रुद्राक्ष की माला से जप का अनन्तगुना फल मिलता है। स्त्री, शूद्र आदि सभी इस मन्त्र का जप कर सकते हैं। इस मन्त्र के लिए दीक्षा, होम, संस्कार, तर्पण और गुरुमुख से उपदेश की आवश्यकता नहीं है। यह मन्त्र सदा पवित्र है। इस मन्त्र का जप करने से पहले भगवान शिव का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए–

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं,
रत्नाकल्पोज्ज्वलांगं परशुमृग वराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।

🕉️🚩 अर्थ–चांदी के पर्वत के समान जिनकी श्वेत कान्ति है,  जो ललाट पर सुन्दर अर्धचन्द्र को आभूषण रूप में धारण करते हैं, रत्नमय अलंकारों से जिनका शरीर उज्जवल है, जिनके हाथों में परशु तथा मृग, वर और अभय मुद्राएं हैं, पद्म के आसन पर विराजमान हैं, देवतागण जिनके चारों ओर खड़े होकर स्तुति करते हैं, जो बाघ की खाल पहनते हैं, जो विश्व के आदि, जगत् की उत्पत्ति के बीज और समस्त भयों को हरने वाले हैं, जिनके पांच मुख और तीन नेत्र हैं, उन महेश्वर का प्रतिदिन ध्यान करें।

ध्यान के बाद मन्त्र का जप करना चाहिए। लिंगपुराण में कहा गया हैं कि–जो बिना भोजन किए एकाग्रचित्त होकर आजीवन इस मन्त्र का नित्य एक हजार आठ बार जप करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।
इस मन्त्र के लिए लग्न, तिथि, नक्षत्र, वार और योग का विचार नहीं किया जाता। यह मन्त्र कभी सुप्त नहीं होता, सदा जाग्रत ही रहता है। अत: पंचाक्षर मन्त्र ऐसा है जिसका अनुष्ठान सब लोग सब अवस्थाओं में कर सकते हैं।
शिवपुराण में भगवान शिव कहते है–‘जिसकी जैसी समझ हो, जिसे जितना समय मिल सके, जिसकी जैसी बुद्धि, शक्ति, सम्पत्ति, उत्साह, योग्यता और प्रेम हो, उसके अनुसार वह जब कभी, जहां कहीं अथवा जिस किसी भी साधन द्वारा मेरी पूजा कर सकता है। उसकी की हुई वह पूजा उसे अवश्य मोक्ष की प्राप्ति करा देगी।’

🕉️🚩 पंचाक्षर मन्त्र की महिमा :-

पंचाक्षर मन्त्र अल्पाक्षर एवं अति सूक्ष्म है किन्तु इसमें अनेक अर्थ भरे हैं।

🔸यह सबसे पहला मन्त्र है।
🔸यह मन्त्र भगवान शिवजी का हृदय–शिवस्वरूप, गूढ़ से भी गूढ़ और मोक्ष ज्ञान देने वाला है।
🔸यह मन्त्र समस्त वेदों का सार है।
🔸यह अलौकिक मन्त्र मनुष्यों को आनन्द प्रदान करने वाला और मन को निर्मल करने वाला है।
🔸पंचाक्षर मन्त्र  मुक्तिप्रद–मोक्ष देने वाला है।
🔸यह शिव की आज्ञा से सिद्ध है।
🔸पंचाक्षर मन्त्र नाना प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है।
🔸इस मन्त्र के जाप से साधक को लौकिक, पारलौकिक सुख, इच्छित फल एवं पुरुषार्थ की प्राप्ति हो जाती है।
🔸यह मन्त्र मुख से उच्चारण करने योग्य, सम्पूर्ण प्रयोजनों को सिद्ध करने वाला व सभी विद्याओं का बीजस्वरूप है।
🔸यह मन्त्र सम्पूर्ण वेद, उपनिषद्, पुराण और शास्त्रों का आभूषण व सब पापों का नाश करने वाला है।
‘शिव’ यह दो अक्षरों का मन्त्र ही बड़े-बड़े पातकों का नाश करने में समर्थ है और उसमें नम: पद जोड़ दिया जाए, तब तो वह मोक्ष देने वाला हो जाता है।

🕉️🚩 शिव पंचाक्षर स्तोत्र :-

श्रीशिव पंचाक्षर स्तोत्र के पाँचों श्लोकों में क्रमशः न, म, शि, वा और य अर्थात् ‘नम: शिवाय’ है, अत: यह स्तोत्र शिवस्वरूप है–

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांगरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै ‘न’काराय नम: शिवाय।।

मन्दाकिनी सलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्प सुपूजिताय तस्मै ‘म’काराय नम: शिवाय।

शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै ‘शि’काराय नम: शिवाय।।

वशिष्ठकुम्भोद्भव गौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चित शेखराय।
चन्द्रार्क वैश्वानरलोचनाय तस्मै ‘व’काराय नम: शिवाय।।

यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै ‘य’काराय नम: शिवाय।।

*पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेत् शिव सन्निधौ।*
*शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥*

🕉️🚩 अर्थ–’जिनके कण्ठ में सांपों का हार है, जिनके तीन नेत्र हैं, भस्म जिनका अंगराग है और दिशाएं ही जिनका वस्त्र है (अर्थात् जो नग्न है), उन शुद्ध अविनाशी महेश्वर ‘न’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है। गंगाजल और चंदन से जिनकी अर्चा हुई है, मन्दार-पुष्प तथा अन्य पुष्पों से जिनकी सुन्दर पूजा हुई है, उन नन्दी के अधिपति, प्रमथगणों के स्वामी महेश्वर ‘म’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है। जो कल्याणरूप हैं, पार्वतीजी के मुखकमल को प्रसन्न करने के लिए जो सूर्यस्वरूप हैं, जो दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले हैं, जिनकी ध्वजा में बैल का चिह्न है, उन शोभाशाली नीलकण्ठ ‘शि’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है। वशिष्ठ, अगस्त्य और गौतम आदि मुनियों ने तथा इन्द्र आदि देवताओं ने जिनके मस्तक की पूजा की है, चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि जिनके नेत्र हैं, उन ‘व’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है। जिन्होंने यक्षरूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं, जिनके हाथ में पिनाक है, जो दिव्य सनातन पुरुष हैं, उन दिगम्बर देव ‘य’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है। जो शिव के समीप इस पवित्र पंचाक्षर स्तोत्र का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वहां शिवजी के साथ आनन्दित होता है।

🕉️🚩 विभिन्न कामनाओं के लिए पंचाक्षर मन्त्र का प्रयोग :-

विभिन्न कामनाओं के लिए गुरु से मन्त्रज्ञान प्राप्त करके नित्य इसका ससंकल्प जप करना चाहिए और पुरश्चरण भी करना चाहिए।

🔸दीर्घायु चाहने वाला गंगा आदि नदियों पर पंचाक्षर मन्त्र का एक लाख जप करे व दुर्वांकुरों, तिल व गिलोय का दस हजार हवन करे।
🔸अकालमृत्यु भय को दूर करने के लिए शनिवार को पीपलवृक्ष का स्पर्श करके पंचाक्षर मन्त्र का जप करे।
🔸चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के समय एकाग्रचित्त होकर महादेवजी के समीप दस हजार जप करता है, उसकी सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं।
🔸विद्या और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए अंजलि में जल लेकर शिव का ध्यान करते हुए ग्यारह बार पंचाक्षर मन्त्र का जप करके उस जल से शिवजी का अभिषेक करना चाहिए।
🔸एक सौ आठ बार पंचाक्षर मन्त्र का जप करके स्नान करने से सभी तीर्थों में स्नान का फल मिलता है।
🔸प्रतिदिन एक सौ आठ बार पंचाक्षर मन्त्र का जप करके सूर्य के समक्ष जल पीने से सभी उदर रोगों का नाश हो जाता है।
🔸भोजन से पूर्व ग्यारह बार पंचाक्षर मन्त्र के जप से भोजन भी अमृत के समान हो जाता है।
🔸रोग शान्ति के लिए पंचाक्षर मन्त्र का एक लाख जप करें और नित्य १०८ आक की समिधा से हवन करें।

‘शिव’ नामरूपी मणि जिसके कण्ठ में सदा विराजमान रहती है, वह नीलकण्ठ का ही स्वरूप बन जाता है। शिव नाम रूपी कुल्हाड़ी से संसाररूपी वृक्ष जब एक बार कट जाता है तो वह फिर दोबारा नहीं जमता। भगवान शंकर पार्वतीजी से कहते हैं कि कलिकाल में मेरी पंचाक्षरी विद्या का आश्रय लेने से मनुष्य संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। मैंने बारम्बार प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कही है कि यदि पतित, निर्दयी, कुटिल, पातकी मनुष्य भी मुझमें मन लगा कर मेरे पंचाक्षर मन्त्र का जप करेंगे तो वह उनको संसार-भय से तारने वाला होगा।

भगवान शिव हैं बड़े ‘आशुतोष’। उपासना करने वालों पर वे बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं फिर जो निष्कामभाव से प्रेमपूर्वक उनको भजते हैं, उनका तो कहना ही क्या?
तुलसीदासजी ने कहा है -

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।
×÷×#शिवोहम्_शिवोहम्_शिवोहम्
*🔴🍂#जय_शिव_शंकर🍂🔴*

रविवार, 9 दिसंबर 2018

वास्तुशास्त्र के प्रयोग

* 🌞 ~* 🌞

🌷 *वास्तु शास्त्र* 🌷
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🏡 *घर में सुख और समृद्धि बनी रहे, इसके लिए पुराने समय से ही कई परंपराएं प्रचलित हैं। ये परंपराएं अलग-अलग वस्तुओं और कार्यों से जुड़ी हैं। सभी के घरों में कुछ न कुछ वस्तुएं टूटी-फूटी होती है, बेकार होती है, फिर भी किसी कोने में पड़ी रहती हैं। 7 वस्तुएं ऐसी बताई गई हैं जो टूटी-फूटी अवस्था में घर में नहीं रखना चाहिए।*
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🏡 *यदि ये चीजें घर में होती हैं तो इनका नकारात्मक असर परिवार के सभी सदस्यों पर होता है। जिससे मानसिक तनाव बढ़ता है और कार्यों में गति नहीं बन पाती है। इसी वजह से धन संबंधी कार्यों में भी असफलता के योग बनते हैं। घर में दरिद्रता का आगमन हो सकता है। यहां जानिए ये 7 चीजें कौन-कौन सी हैं...*.
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👉🏻 *वास्तु अनुसार घर में नहीं रखनी चाहिए ये 7 टूटी-फूटी चीजें, बढ़ती है नकारात्मक ऊर्जा ।*
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🏡 *1. बर्तन*
*कई लोग घर में टूटे-फूटे बर्तन भी रखे रहते हैं जो कि अशुभ प्रभाव देते हैं। शास्त्रों के अनुसार घर में टूटे-फूटे बर्तन नहीं रखना चाहिए। यदि ऐसे बर्तन घर में रखे जाते हैं तो इससे महालक्ष्मी असप्रसन्न होती हैं और दरिद्रता का प्रवेश हमारे घर में हो सकता है। टूटे-फूटे और बेकार बर्तन घर में जगह भी घेरते हैं, इससे वास्तु दोष भी उत्पन्न होता है। वास्तु दोष उत्पन्न होने पर नकारात्मक फल मिलने लगते हैं।*
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🏡 *2. दर्पण*
*टूटा हुआ दर्पण रखना वास्तु के अनुसार एक बड़ा दोष है। इस दोष के कारण घर में नकारात्मक ऊर्जा सक्रिय रहती है और परिवार के सदस्यों को मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है।*
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🏡 *3. पलंग*
*वैवाहिक जीवन में सुख-शांति के लिए जरूरी है कि पति-पत्नी का पलंग टूटा हुआ बिल्कुल न हो। यदि पलंग ठीक नहीं होगा तो पति-पत्नी के वैवाहिक जीवन में परेशानियां आने की संभावनाएं काफी बढ़ जाती हैं।*
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🏡 *4. घड़ी*
*खराब घड़ी घर में नहीं रखना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि घड़ियों की स्थिति से हमारे घर-परिवार की उन्नति निर्धारित होती है। यदि घड़ी सही नहीं होगी परिवार के सदस्य कार्य पूर्ण करने में बाधाओं का सामना करेंगे और काम निश्चित  समय में पूर्ण नहीं हो पाएगा।*
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🏡 *5. तस्वीर*
*यदि घर में कोई टूटी हुई तस्वीर हो तो उसे भी घर से हटा देना चाहिए। वास्तु के अनुसार यह भी वास्तु दोष उत्पन्न करती है।*
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🏡 *6. दरवाजा*
*यदि घर का मुख्य दरवाजा या अन्य कोई दरवाजा कहीं से टूट रहा हो तो उसे तुरंत ठीक करवा लेना चाहिए। दरवाजे में टूट-फूट अशुभ मानी गई है। इनसे घर में नकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करती है और वास्तु दोष उत्पन्न होता है।*
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🏡 *7. फर्नीचर*
*घर का फर्नीचर भी एकदम सही हालत में होना चाहिए। वास्तु के अनुसार फर्नीचर की टूट-फूट का भी बुरा असर हमारे जीवन पर होता है।*
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🏡 *वास्तु दोष उत्पन्न होने पर घर-परिवार के सदस्यों को आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। जिस घर में वास्तु दोष होते हैं, वहां पैसों की कमी बनी रहती है। अत: इन दोषों को निवारण तुरंत ही कर लेना चाहिए।*


शनिवार, 8 दिसंबर 2018

डिविडेंड क्या होता है?

इन छ चीजों पर बहुत सजगता से विचार करें

गुरु शुक्राचार्य चतुर नीतिकार थे। उन्होंने अपनी नीतियों को लिपिबद्ध करके शुक्रनीति नाम के प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ की रचना की। इस नीतिसार का जो व्यक्ति अनुसरण करता है, उसका जीवन बेहतर और चरित्र सशक्तन बनता है। एक शुक्र नीति में ऐसी बातों के बारे में बताया है, जिन्हें सदैव साथ रख पाना संभव नहीं है। इस बात को समझ लेने वाला व्यक्ति धर्म को समझ सकता है।
यौवनं जीवितं चित्तं छाया लक्ष्मीश्र्च स्वामिता।
चंचलानि षडेतानि ज्ञात्वा धर्मरतो भवेत्।।
प्रत्येक व्यक्ति की चाह होती है कि उसकी सुंदरता सदैव बरकरार रहे लेकिन ऐसा नहीं होता। यह प्रकृति का नियम है कि युवा अवस्था सदैव नहीं रहती। कुछ समय के पूर्व युवा अवस्था ढल जाती है।
शुक्रनीति के अनुसार मन की भांति ही धन का स्वबाव भी चंचल होता है। यह भी किसी एक के पास टिक कर नहीं रहता, इसलिए इसके मोह में स्वयं को बांधना ठीक नहीं है।
कहा जाता है कि इंसान की परछाई सदैव उसके साथ रहती है लेकिन परछाई भी मनुष्य का साथ तब तक देती है जब तक वह धूप में चलता है। जब इंसान की परछाई ही सदैव उसका साथ नहीं दे सकती तो ऐसे में किसी अन्य से ये उम्मीद नहीं रखनी चाहिए।
कुछ लोग मिले पद और अधिकार को छोड़ना नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि ये पूरे जीवन उनके साथ ही रहे, लेकिन ऐसा संभव नहीं है। अधिकार और पद में समय-समय पर बदलाव होना जरूरी है और ऐसे में अपने मन में ऐसी इच्छा पालना ठीक नहीं है।
इस संसार में जो भी जीव-जंतु, मनुष्य जन्म लेकर आया है उसकी मृत्यु निश्चित है। व्यक्ति जीवन में कितना भी पूजा-पाठ या दवाइयों का सहारा ले लें, लेकिन एक समय के पश्चात मृत्यु अवश्य होनी है। व्यक्ति को पूजा-पाठ और अच्छे कर्मों से पुण्य की प्राप्ति हो सकती है लेकिन मृत्यु निश्चित है इसलिए किसी को भी जीवन से मोह नहीं रखना चाहिए।
व्यक्ति का मन चंचल है। कुछ लोग प्रयास करते हैं कि यह वश में रहे, लेकिन कभी न कभी उनका मन वश से बाहर हो ही जाता है। मन को पूरी तरह वश में करना मुश्किल है, लेकिन योग और ध्यान से इसे काबू किया जा सकता है

श्री कृष्ण

श्रीकृष्ण के मोरपंख व गुँजामाला धारण करने का रहस्
बर्हापीडं नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारं बिभ्रद् वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै-र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति:॥

प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण की अद्भुत मोहिनी शोभा का वर्णन है।एक ओर कृष्ण नट की भांति नाना रूप धर लेते हैं, कभी वर दूल्हे की तरह दिखते हैं।माथे पर मोर मुकुट, कानों में कनेर के फूल खुँसे हुए, नीलकमल सी देह पर सुनहले पीताम्बर कीआभा, गले में वैजयन्ती माला, बाँस की बाँसुरी के छिद्रों को अपने अधरामृत का पान कराते हुये, ग्बाल-बालों के साथ वे वृन्दावन में ऐसे प्रवेश कर रहे हैं जैसे रंगमंच पर कोई नायकप्रवेश कर रहा हो। पर श्रीकृष्ण वृन्दावन में विहार के लिए नंगे पैर आते हैं क्योंकि उनके चरणों के स्पर्श से ही भूमि पर तृण अंकुरित होंगे और उन तृणांकुरों से गउओं की तृप्ति होगी इसीलिए वह गोपाल कहलाये।
बर्हापीड :- श्रीकृष्ण के मस्तक पर मोर पंख का मुकुट है।

बालकृष्ण को मोर बहुत पसन्द है, श्रीकृष्ण का मयूर नृत्य भी बहुत प्रसिद्ध है।
मोर में अनेक गुण हैं–वह दूसरों के दु:ख से दु:खी और सुख से सुखी होता है।
अधिक गर्मी पड़े और सब कुछ सूख जाये तो मोर को मरण-तुल्य दु:ख होता है।

आकाश में बादल गड़गड़ाने पर वह अत्यन्त आनन्द के साथ नाचता है और उसकी आँख से आनन्दाश्रु प्रवाहित हो उठते हैं जिसे मोरनी पी जाती है और उससे गर्भधारण कर लेती है। जो कामसुख का त्याग करता है, उसे श्रीकृष्ण अपने मस्तक पर स्थान देते हैं।

यशोदानन्दन, मुरलीमनोहर, पीताम्बरधारी स्यामसुंदर श्रीराधारानी के मोर के साथ नाचते हैं।
नाचते-नाचते मोर का पिच्छ गिर पड़ता है, श्रीकृष्ण उसे उठा लेते हैं और कहते हैं कि:-

"अरे यह तो हमें पुरस्कार मिला है" और उसे अपने सिर पर धारण कर लेते हैं, इसीलिये इनको बर्हापीड़ भी कहते हैं।

गुँजामाला👉  श्रीकृष्ण गले में गुँजामाला धारण करते हैं, यह माला उन्हें बहुत प्रिय है।
ब्रह्माण्ड का आकार गुँजा जैसा है, श्रीकृष्ण अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं।
उन्होंने ब्रह्माजी को बताया कि तुम तो एक ही ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हो, ऐसे ऐसे अनेक ब्रह्माण्ड मेरे श्रीअंग में विलास करते हैं, इसीलिये उन्होंने गले में गुँजामाला धारण की है।
नटवरवपु:👉  श्रीकृष्ण का शरीर ऐसा है कि देखने में लगता है कि मानो लावण्य दौड़ रहा है।
वह तरह-तरह के वेश धारण कर लेते हैं, कभी खड़िया से सुन्दर श्रृंगार करते हैं, कभी फेंटे को बांध लेते हैं।
कर्णयो कर्णिकारं विभ्रद् 👉 कर्णिकार अमलतास के लम्बे-लम्बे लटकते हुये फूलों को कहते हैं, इसे कनेर या करवीर का पुष्प भी कहते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण इस गंधहीन पुष्प को अपने कान में लगाकर रखते हैं।
कनक कपिशम् 👉  श्रीराधा का शरीर स्वर्णमयी आभा लिये हुये है इसीलिए श्रीकृष्ण ने उनके समान वस्त्र धारण किये हैं।
इसका एक अर्थ यह भी है कि भगवान पृथ्वी के उद्धार के लिये अवतरित हुये हैं अत: उन्होंने पृथ्वी के पीले रंग के वस्त्र धारण किये हैं।
वैजयन्ती च मालाम् 👉 भगवान के गले में पांच वर्ण के पुष्पों की माला है जिसमें शोभा, सौन्दर्य और माधुर्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मीजी छिपी रहती हैं।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् 👉 वेणु एक तो पुरुष है, बांस की बनती है, दूसरे कठोर है।
तीसरे उसमें छेद हैं परन्तु इतना होने पर भी श्रीकृष्ण उसे अपने अधरों पर धारण करते हैं क्योंकि वह पोली होती है, अपने अन्दर कुछ भी छिपाकर नहीं रखती।

भगवान ने स्वयं कहा है,
‘मोहे कपट छल छिद्र न भावा’
बांस गर्मी, सर्दी, बरसात सहकर भी चीरकर बांसुरी बना लेने पर मीठी तान ही सुनाता है, इसीलिये श्रीकृष्ण को बांसुरी प्रिय है।

सूरदासजी के शब्दों में:-
राजत री वनमाल गरै हरि आवत वन तैं।
फूलनि सौं लाल पाग, लटकि रही बाम भाग,सो छवि लखि सानुराग, टरति न मन तैं॥

मोर मुकुट सिर सिखंड, गोरज मुख मंजु मंड,नटवर वर वेष धरैं आवत छवि तैं।
सूरदास प्रभु की छवि ब्रज ललना निरखि थकित,तन मन न्यौछावर करैं, आँनद बहु तैं॥
गोपी कहती है:- सखी; गले में वनमाला पहने स्यामसुंदर वन से आते हुये बड़ी शोभा पा रहे हैं।
फूलों से सजी लाल पगड़ी बायीं ओर लटक रही है, इस शोभा को देखने के बाद यह मन से हटती ही नहीं।
माथे पर मोर मुकुट है, मुख गायों के खुरों से उड़ी धूल से सुशोभित है, श्रेष्ठ नट जैसा वेशबनाये बड़ी शोभा से आ रहे हैं।
सूरदासजी कहते हैं कि ब्रज की स्त्रियां श्रीकृष्ण की शोभा देखकर अपना तन-मन उन पर न्यौछावर कर देती हैं।एक अन्य पद में
सूरदासजी कहते है:-
जैसी जैसी बातै करै कहत न आवै री।सावरो सुंदर कान्ह अति मन भावै री॥

मदन मोहन बेनु मृदु, मृदुल बजावै री।तान की तरंग रस, रसिक रिझावै री॥

जंगम थावर करै, थावर चलावै री।लहरि भुअंग त्यागि सनमुख आवै री॥ब्योम यान फूल अति गति बरसावै री।
कामिनि धीरज धरै, को सो कहावै री॥

नंदलाल ललना ललचि ललचावै री।
सूरदास प्रेम हरि हियैं न समावै री॥

भाव
गोपी कहती है- सखी, साँवला सुन्दर कन्हाई हृदय को अन्यत प्रिय लगता है, वह जैसी-जैसी बाते करता है, उनका वर्णन ही हो सकता।वह मदनमोहन अत्यन्त मृदुल स्वर में वंशी बजाता है और उसकी तान-तरंगो के रस से रसिकों को रिझाता-प्रसन्न करता है।चर पशु-पक्षी आदि को जड के समान निश्चेष्ट और जड वृक्षादि को चला देता द्रवित कर देता है।
सर्प भी लहर विष तथा कुटिल गति छोडकर उनके सम्मुख आ जाता है।आकाश से देवताओं के विमान अत्यन्त वेग से पुष्पो की वर्षा करते है।
ऐसी कौन-सी नारी है, जो मोहन को देखकर धैर्य रख सके और धैर्यधारिणी कहला सके।सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दर व्रज की गोपियों पर स्वयं मुग्ध होकर उन्हे भी मोहित करते है, जिससे उनके हृदय मे मोहन का प्रेम समाता नही
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जय श्री राधे कृष्ण

मां सरस्वती

 मां सरस्वती विद्या, बुद्धि, ज्ञान और वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं तथा शास्त्र ज्ञान को देने वाली है। भगवती शारदा का मूलस्थान अमृतमय प्रकाशपुंज है। जहां से वे अपने उपासकों के लिए निरंतर पचास अक्षरों के रूप में ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित करती हैं। उनका विग्रह शुद्ध ज्ञानमय, आनन्दमय है। उनका तेज दिव्य एवं अपरिमेय है और वे ही शब्द ब्रह्म के रूप में पूजी जाती हैं।

सृष्टि काल में ईश्वर की इच्छा से आद्याशक्ति ने अपने को पांच भागों में विभक्त कर लिया था। वे राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा और सरस्वती के रूप में प्रकट हुई थीं। उस समय श्रीकृष्ण के कण्ठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम सरस्वती हुआ। श्रीमद्देवीभागवत और श्रीदुर्गा सप्तशती में भी आद्याशक्ति द्वारा अपने आपको तीन भागों में विभक्त करने की कथा है। आद्याशक्ति के ये तीनों रूप महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के नाम से संसार में जाने जाते हैं।

भगवती सरस्वती सत्वगुणसंपन्न हैं। इनके अनेक नाम हैं, जिनमें से वाक्‌, वाणी, गिरा, भाषा, शारदा, वाचा, श्रीश्वरी, वागीश्वरी, ब्राह्मी, गौ, सोमलता, वाग्देवी और वाग्देवता आदि प्रसिद्ध हैं। ब्राह्मणग्रंथों के अनुसार वाग्देवीर ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनु, तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। ये ही विद्या, बुद्धि और सरस्वती हैं। इस प्रकार देवी सरस्वती की पूजा एवं आराधना के लिए माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि वसंत पंचमी को ही इनका अवतरण दिवस माना जाता है।

अतः वागीश्वरी जयंती एवं श्री पंचमी के नाम से भी इस तिथि को जाना जाता है। इस दिन इनकी विशेष अर्चा-पूजा तथा व्रतोत्सव के द्वारा इनके सांनिध्य प्राप्ति की साधना की जाती है। सरस्वती देवी की इस वार्षिक पूजा के साथ ही बालकों के अक्षरारंभ एवं विद्यारंभ की तिथियों पर भी सरस्वती पूजन का विधान है।

भगवती सरस्वती की पूजा हेतु आजकल सार्वजनिक पूजा पंडालों की रचना करके उसमें देवी सरस्वती की मूर्ति स्थापित करने एवं पूजन करने का प्रचलन दिखाई पड़ता है, किंतु शास्त्रों में वाग्देवी की आराधना व्यक्तिगत रूप में ही करने का विधान बतलाया गया है।

भगवती सरस्वती के उपासक को माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को प्रातःकाल में भगवती सरस्वती की पूजा करनी चाहिए।

इसके एक दिन पूर्व अर्थात्‌ माघ शुक्ल पूजा करनी चाहिए। इसके एक दिन पूर्व अर्थात्‌ माघ शुक्ल चतुर्थी को वागुपासक संयम, नियम का पालन करें। इसके बाद माघ शुक्ल पंचमी को प्रातःकाल उठकर घट (कलश) की स्थापना करके उसमें वाग्देवी का आह्वान करे तथा विधिपूर्वक देवी सरस्वती की पूजा करें।

पूजन कार्य में स्वयं सक्षम न हो तो किसी ज्ञानी कर्मकांडी या कुलपुरोहित से दिशा-निर्देश से पूजन कार्य संपन्न करें।

भगवती सरस्वती की पूजन प्रक्रिया में सर्वप्रथम आचमन, प्राणयामादि के द्वारा अपनी बाह्यभ्यंतर शुचिता संपन्न करे। फिर सरस्वती पूजन का संकल्प ग्रहण करे।

इसमें देशकाल आदि का संकीर्तन करते हुए अंत में,,,,

 'यथोपलब्धपूजनसामग्रीभिः भगवत्याः सरस्वत्याः पूजनमहं करिष्ये।'

पढ़कर संकल्प जल छोड़ दें। तत्पश्चात आदि पूजा करके कलश स्थापित कर उसमें देवी सरस्वती साद आह्वान करके वैदिक या पौराणिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए उपचार सामग्रियां भगवती को सादर समर्पित करे।

' श्री ह्यीं सरस्वत्यै स्वाहा' इस अष्टाक्षर मंत्र से प्रन्येक वस्तु क्रमशः श्रीसरस्वती को समर्पण करे। अंत में देवी सरस्वती की आरती करके उनकी स्तुति करे। स्तुति गान के अनन्तर सांगीतिक आराधना भी यथासंभव करके भगवती को निवेदित गंध पुष्प मिष्आत्रादि का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। पुस्तक और लेखनी में भी देवी सरस्वती का निवास स्थान माना जाता है तथा उसकी पूजा की जाती है।

देवी भागवत एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण में वर्णित आख्यान में पूर्वकाल में श्रीमन्नरायण भगवान ने वाल्मीकि को सरस्वती का मंत्र बतलाया था। जिसके जप से उनमें कवित्व शक्ति उत्पन्न हुई थी। भगवान नारायण द्वारा उपदिष्ट वह अष्टाक्षर मंत्र इस प्रकार है- 'श्रीं ह्वीं सरस्वत्यै स्वाहा।' इसका चार लाख जप करने से मंत्र सिद्धि होती है।

आगम ग्रंथों में इनके कई मंत्र निर्दिष्ट हैं, जिनमें 'अं वाग्वादिनि वद वद स्वाहा।'

यह सबीज दशाक्षर मंत्र सर्वार्थसिद्धिप्रद तथा सर्वविद्याप्रदायक कहा गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में उनका एक मंत्र इस प्रकार है- 'ॐ ऐं ह्वीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।'

ऐसा उल्लेख आता है कि महर्षि व्यास जी की व्रतोपासना से प्रसन्न होकर ये उनसे कहती हैं- व्यास! तुम मेरी प्रेरणा से रचित वाल्मीकि रामायण को पढ़ो, वह मेरी शक्ति के कारण सभी काव्यों का सनातन बीज बन गया है। उसमें श्रीरामचरित के रूप में मैं साक्षात्‌ मूर्तिमती शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हूं-

पठ रामायणं व्यास काव्यबीजं सनातनम्‌। यत्र रामचरितं स्यात्‌ तदहं तत्र शक्तिमान॥

भगवती सरस्वती के इस अद्भुत विश्वविजय कवच को धारण करके ही व्यास, ऋष्यश्रृंग, भरद्वाज, देवल तथा जैगीषव्य आदि ऋषियों ने सिद्धि पाई थी। इस कवच को सर्वप्रथम रासरासेश्वर श्रीकृष्ण ने गोलोक धाम के वृंदावन नामक अरण्य में रासोत्सव के समय रासमंडल के वृंदावन नामक अरण्य में रासोत्सव के समय रासमंडल में ब्रह्माजी से कहा था।

तत्पश्चात ब्रह्माजी ने गंधमादन पर्वतपर भृगुमुनि को इसे दिया था। भगवती सरस्वती की उपासना (काली के रूप में) करके ही कवि कुलगुरु कालिदास ने ख्याति पाई। गोस्वामी जी कहते हैं कि देवी गंगा और सरस्वती दोनों एक समान ही पवित्रकारिणी हैं। एक पापहारिणी और एक अविवेक हारिणी हैं-

पुनि बंदउं सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता।
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका।

भगवती सरस्वती विद्या की अधिष्ठातृ देवी हैं और विद्या को सभी धनों में प्रधान धन कहा गया है। विद्या से ही अमृतपान किया जा सकता है। विद्या और बुद्धि की अधिष्ठात्‌ देवी सरस्वती की महिमा अपार है। देवी सरस्वती के द्वादश नाम हैं। जिनकी तीनों संध्याओं में इनका पाठ करने से भगवती सरस्वती उस मनुष्य की जिह्वा पर विराजमान हो जाती हैं।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

दही के साथ नमक ना खायें

क्या_आप_दही_में_नमक_मिलाकर_खाते_है?
खाने से पहले इसको जरूर पढ़ें....
प्रायः हम सभी दही खाते हैं। कोई इसमें नमक डालकर तो कोई चीनी मिलाकर खाते हैं। लेकिन कभी भी नमक के साथ दही नहीं खाना चाहिए। दही हमेशा मीठी चीज़ों के साथ ही खाना चाहिए... जैसे गुड़, बूरा या चीनी आदि के साथ।

दही को आयुर्वेद की भाषा में जीवाणुओं  (बैक्टीरिया) का घर माना जाता है। लेंस से देखने पर दही में छोटे-छोटे अनगिनत बैक्टीरिया चलते फिरते नजर आते हैं। दही में मौजूद इन्हीं बैक्टीरियल गुण की वजह से तो हम दही खाते हैं। ये बैक्टीरिया जीवित अवस्था में ही हमारे शरीर में जाने चाहिए, क्योंकि जब हम दही खाते हैं तो हमारे शरीर में एंजाइम गतिविधि अच्छे से चलती है।

अगर दही में एक चुटकी भी नमक डालते हैं तो एक मिनट में सारे बैक्टीरिया मर जायेंगे तथा दही के सारे बैक्टीरियल गुण खत्म हो जायेंगे। क्योंकि नमक में जो केमिकल्स हैं वह इन जीवाणुओं के दुश्मन हैं। फिर यह दही शरीर में जाने पर हमारे किसी काम की नहीं।

आयुर्वेद में कहा गया है कि दही में ऐसी चीज मिलाएं, जो उसमें मौजूद जीवाणुओं को बढ़ाए.. ना कि उन्हें मारे या खत्म करे।

दही में गुड़ या बूरा डालते ही जीवाणुओं की संख्या मल्टीप्लाई होकर दुगुनी हो जाती है। वहीं अगर दही में मिश्री डाला जाए तो अति उत्तम होगा। यूँ ही नहीं भगवान श्रीकृष्ण मिश्री के साथ ही दही-मक्खन खाते थे।

ध्यान रखें उपरोक्त बातों को
तथा दही के गुणों का पूरा लाभ लें।

जामवंत जी की कथा

जामवंत थे वाली और सुग्रीव की माँ, ब्रह्मा जी के नाती (दौहित्र) थे दोनों! जाने जन्म की कथा...

"वाली और सुग्रीव रामायण के प्रमुख पात्र है लेकिन वो कहा से आये कैसे जन्मे कब हुआ उनका जन्म ये कम ही लोग जानते है. जाने उनके जन्म की कथा जो की रहस्यों से भरपूर है"

धर्म के घिसते स्तर के चलते आज लोग कर्तव्य कर्मो (धर्म) से दूर हो गए है, गुरुकुल तो बंद हो गए है ऐसे में कुछ लोग घर पर ही स्वाध्याय करते है. वेद, शास्त्र और ग्रन्थ इतने वृहद है की सालो लग जाने पर भी कोई पूर्ण नहीं हो सकता है, भारतीय आज जो भी शास्त्र या ग्रन्थ पढ़ रहे है वो भी संक्षित है.

ऐसे में रामायण जैसे ग्रन्थ को बहुत से लोग सिर्फ टीवी देखकर ही जानते है उन्हें उतने में ही लगता है की बस हम रामायण जान चुके है. लेकिन असल रामायण को जानने में पूरी जिंदगी निकल जायेगी लेकिन उसका पार नहीं पा सकेंगे आप, मसलन क्या आप जानते है की जामवंत, वाली और सुग्रीव का जन्म कैसे हुआ?

99% लोगो के जवाब ना ही होंगे क्योंकि ये सच विभिन्न रामायणो के गहन अध्ययन से ही प्राप्त होते है, आध्यात्मिक रामायण (गीता प्रेस) के उत्तरकाण्ड में है इनके जन्म का संक्षित वर्णन. आपको ये जानकार आश्चर्य होगा की असल में जामवंत ही वाली और सुब्रिव की माँ थे.

एक नर कैसे नर की माता बन सकता है ये ही सोच रहे है न, जाने पूरी कहानी..... 

पहले जामवंत के जन्म की कथा जाने, जामवंत असल में परम् पिता ब्रह्मा जी के ही पुत्र है! सप्तऋषि, सनत्कुमार, प्रजापति और नारद भी ब्रह्मा जी के पुत्र है लेकिन वो सभी उनके मानस पुत्र है (कल्पना से बनाये गए)! लेकिन जामवंत के जन्म का स्त्रोत अलग है जाने वो भी.

एक दिन ध्याम में बैठे बैठे ब्रह्मा जी के आँखों से अश्रुपात (आंसू गिरने लगे) हो गया, उन्ही आंसुओ से प्रकट हुए थे उनके पुत्र जामवंत जो की फिर हिमालय पर रहने लगे. जामवंत ने सागर मंथन में भी वासुकि को देवताओ की तरफ से खिंचा था और वामन अवतार की परिक्रमा भी की थी.

हिमालय पर एक दिन अपने को पानी में देख कर वो बंदर को देख कर चौंक गए और उस सरोवर में कूद गए, जब बाहर आये तो वो एक रूपवती किशोरी में परिवर्तित हो गए. उनने तप इंद्र की दृष्टि पड़ी जो की उनपे मोहित हो गए और उनका तेज (वीर्य) स्त्री रूपी जामवंत के सर के बालो पर गिरा जिससे की बाली (बालो से पैदा इसलिए बाली) का जन्म हुआ.

उसी समय सूर्य देवता भी वंहा से गुजरे वो भी मोहित हो गए, उनका तेज तब उस स्त्री के गर्दन पर गिरा जिससे की सुग्रीव पैदा हुए (सूर्य पुत्र ग्रीवा से पैदा हुए इसलिए सुग्रीव कहलाये). ऐसे दोनों भाई जन्मे तब जामवंत का स्त्रीत्व भी ख़त्म हो गया और वो फिर जामवंत हो गए.

तब ब्रह्मा जी के आदेश पर किष्किन्दा नगरी बसाई गई जिसका राजा बाली बना था, है न अद्भुद और विचित्र कथा?

सोमवार, 3 दिसंबर 2018

श्री कृष्ण की ही भक्ति क्यों करें

केवल भगवान् श्रीकृष्ण की ‘ही’ भक्ति करना है,
क्योंकि—
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां  तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या॥

जैसे पेड़ की जड़ में खाद डाल दो, पानी डाल दो, तो पेड़ के तने में, डालों में, उपशाखाओं में, पत्रों में, पुष्पों में, फलों में जल पहुँच जाता है, अलग-अलग पत्ते पे पानी नहीं डालना पड़ता। ऐसे ही, केवल श्रीकृष्ण की भक्ति कर लो, तो सबकी भक्ति अपने आप मान ली जायेगी।
~~~जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज।

बुलंदशहर की घटना की जिम्मेवारी किसकी

बुलंदशहर में भीड़ ने पुलिस अधिकारी की हत्या कर दिया जो किअपने आप में बहुत ही दुखद घटना है। सवाल यह है कि इन दुर्घटनाओं का जिम्मेदार कौन है? सरकार ? स्थानीय प्रशासन ? जनता ? तस्कर ? या कोई और ? या फिर कोई नही? शायद इस प्रश्न का उत्तर सबको पता है या शायद किसी को नही पता। न सरकार कुछ बोल रही है न ही प्रशासन हर कोई मौन है। परंतु कबतक ऐसा चलेगा सोचना ये है कि क्या जनता सचमुच इतनी अराजक है या उसे मजबूर होना पड़ा या उसे उकसाया गया ।सरकार जनता प्रशासन सबकी जिम्मेदारी तय करनी पड़ेगी । जनता काफी दिनों से प्रशासन से तस्करी रोकने की मांग कर रही थी फिर भी तस्करी चल रही थी। प्रशासन क्यों मजबूर था ।क्या तस्कर इतने प्रभावशाली थे या प्रशासन की शह थी। कौन जाने क्या बात थी? दंगाई कौन हैं? उनके आक्रोश का क्या कारण है? क्या उनका कृत्य उचित है ? मरने वालों में एक पुलिस अधिकारी और एक आम आदमी भी है। क्या आम आदमी कि इतनी हिम्मत है कि वह पुलिस से आंख मिला सके ? अगर प्रशासन सही समय पर सजगता दिखाता तो यह घटना बच सकती थी। सबको अपनी अपनी जिम्मेवारी तय करनी पड़ेगी।सबको अपनी जिम्मेवारी लेनी पड़ेगी।प्रशासन को जनता की सुनना पड़ेगा। जनता को कानून हाथ में नही लेना चाहिए । सरकार को संवेदनशील होना पड़ेगा जनता की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए ।चूक दर तरफ से हो रहीहै रूबको समझदारी से काम लेना चाहिए । उग्रता या हिंसा किसी भी समाज में स्वीकार्य   नहीं है।इसका एक ही इलाज है सरकार प्रशासन और जनता सब अपनी सामाजिक सरोकारी मानवता के दायरे मेें निभाये।

पुराणों में सात प्रकार की दुष्टा (दुर्भाग्यशाली) स्त्रियां

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          ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼

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*पुराणों में सात प्रकार की दुष्टा (दुर्भाग्यशाली) स्त्रियां कही गयी हैं ! कुछ पूर्व जन्म के फल भोगती हैं और कुछ इस जन्म में कर्म करके बनती हैं*

*यथा :---*

*१- वन्ध्या (बांझ)*
*२- काकवन्ध्या (जो कभी माँ नहीं बन सकती)*
*३- मृतवत्सा (जिसकी संतान पैदा होकर मृत हो जाती हैं या गर्भपात हो जाता हो)*
*४- दुर्भगा (दुर्भाग्यशाली)*
*५- व्यभिचारिणी*
*६- कर्कशा*
*एवं*
*७- दूसरों का घर तोड़ने वाली*

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"शिव-नामकी महिमा"

II ॐ नमः शिवाय II

एक बार महर्षि लोमशजी नैमिषारण्य तीर्थमें शौनकादि ऋषियोंके यहाँ पधारे । ऋषियोंने उनका समुचित सत्कार किया । आतिथ्यके पश्चात् उन्होंने विस्तारपूर्वक शिवधर्म सुनानेके लिये लोमशजीसे प्रार्थना की । लोमशजीने उन्हें शिव-चरित्र सुनाते हुए शिव-पूजन-महिमाका गान प्रारम्भ किया । इसी प्रसंगमें उन्होंने कहा –
हरे हरेति वै नाम्ना शम्भोश्चक्रधरस्य च ।
रक्षिता बहवो मर्त्योः शिवेन परमात्मना ।। (स्कन्दपुराण, माहे॰ केदार॰ ५/९२)

‘हे हरे ! और हे हर ! इस प्रकार भगवान् शिव और विष्णुके नाम लेनेसे परमात्मा शिवने बहुतेरे मनुष्योंकी रक्षा की है ।‘
महर्षि लोमशने शौनकादि ऋषियोंसे भगवान् शिव एवं पार्वतीके विवाहका वर्णन कर लेनेके पश्चात् उनकी (शिवकी) नाम-महिमा इस प्रकार बतायी –
ते धन्यास्ते महात्मानः कृतकृत्यास्त एव हि ।
द्वयक्षरं नाम येषां वै जिह्वाग्रे संस्थितं सदा ।।
शिव इत्यक्षरं नाम यैरुदीरितमद्य वै ।
ते वै मनुष्यरूपेण रुद्राः स्युर्नात्र संशयः ।।  (स्कन्दपुराण, माहे॰ केदार॰ २७/२२-२३)

‘जिनकी जिह्वाके अग्रभागपर सदा भगवान् शंकरका दो अक्षरोंवाला नाम (शिव) विराजमान रहता है, वे धन्य हैं, वे महात्मा पुरुष हैं तथा वे ही कृतकृत्य हैं । आज भी जिन्होंने ‘शिव’ – इस अविनाशी नामका उच्चारण किया है, वे निश्चय ही मनुष्यरूपमें रुद्र हैं – इसमें संशय नहीं है ।
 (गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘भगवन्नाम महिमा और प्रार्थना – अंक’से)

शरीर पर भस्म क्यों लगाते हैं भगवान शिव


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हिंदू धर्म में शिवजी की बड़ी महिमा हैं। शिवजी का न आदि है ना ही अंत। शास्त्रों में शिवजी के स्वरूप के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। इनका स्वरूप सभी देवी-देवताओं से बिल्कुल भिन्न है। जहां सभी देवी-देवता दिव्य आभूषण और वस्त्रादि धारण करते हैं वहीं शिवजी ऐसा कुछ भी धारण नहीं करते, वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, उनके आभूषण भी विचित्र है। शिवजी शरीर पर भस्म क्यों रमाते हैं? इस संबंध में धार्मिक मान्यता यह है कि शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है और शिवजी शव के जलने के बाद बची भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार शिवजी भस्म लगाकर हमें यह संदेश देते हैं कि यह हमारा यह शरीर नश्वर है और एक दिन इसी भस्म की तरह मिट्टी में विलिन हो जाएगा। अत: हमें इस नश्वर शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों न हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर इसी तरह भस्म बन जाएगा। अत: हमें किसी भी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए।

भस्म शिव का प्रमुख वस्त्र है। शिव का पूरा शरीर ही भस्म से ढंका रहता है। संतों का भी एक मात्र वस्त्र भस्म ही है। अघोरी, सन्यासी और अन्य साधु भी अपने शरीर पर भस्म रमाते हैं। क्या यह सिर्फ आडंबर है या इसके पीछे कोई महत्वपूर्ण विज्ञान है। भस्म हमारे शरीर के लिए किस तरह फायदेमंद हो सकती है। भस्म की एक विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसका मुख्य गुण है कि इसको शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्मी त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम करती है। भस्मी धारण करने वाले शिव यह संदेश भी देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढ़ालना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है।

इस संबंध में एक अन्य तर्क भी है कि शिवजी कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं, जहां का वातावरण अत्यंत ही ठंडा है और भस्म शरीर का आवरण का काम करती हैं। यह वस्त्रों की तरह ही उपयोगी होती है। भस्म बारिक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे सर्दी या गर्मी महसूस नहीं होती हैं। शिवजी का रहन-सहन सन्यासियों सा है। सन्यास का यही अर्थ है कि संसार से अलग प्रकृति के सानिध्य में रहना। संसारी चीजों को छोड़कर प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना। ये भस्म उन्हीं प्राकृतिक साधनों में शामिल है।

शिव भक्तों के लिए शिवजी का हर एक रूप निराला है। कहते हैं भगवान शिव भोले हैं, क्योंकि वे अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने वाले हैं। वे अपने भक्तों के समक्ष स्वयं प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं एवं मन मुताबिक वरदान देते हैं। हिन्दू धर्म में शिव उपासना का विशेष महत्व है, कहते हैं किसी भी प्रकार की समस्या क्यों ना हो, शिवजी की मदद से सभी संकट दूर हो जाते हैं। शिवजी का जप करने से भक्त खुद में एक शक्ति को महसूस करता है। शायद इसी विश्वास के कारण भगवान शिव अपने भक्तों के बीच हर रूप में प्रसिद्ध हैं।फिर वह भोले बाबा का रूप हो या फिर शिव का रौद्र रूप। उनके भक्त शिव के हर रूप के सामने सिर झुकाकर उन्हें नमन करते हैं। कुछ समय पहले हमने एक ब्लॉग लिखा था, जिसमें यह प्रश्न उठाया गया था कि शिव भांग एवं धतूरे का सेवन क्यों करते हैं। शिव की जटाओं से गंगा क्यों बहती है? शिवजी गले में सर्प धारण क्यों करते हैं? इसी तरह से कई ऐसे सवाल हैं जो खुद में एक रहस्य हैं।

यूं तो शिव के हर रूप के पीछे कोई ना कोई रहस्य छिपा है, लेकिन इसी तरह का एक और सवाल भी उत्पन्न होता है। हिन्दू कथाओं के अनुसार कई जगह शिवजी को भस्म का प्रयोग करते हुए पाया गया है। वे अपने शरीर पर भस्म लगाते थे, ऐसा दावा किया जाता है। भस्म यानि कुछ जलाने के बाद बची हुई राख, लेकिन यह किसी धातु या लकड़ी को जलाकर बची हुई राख नहीं है। शिव जली हुई चिताओं के बाद बची हुई राख को अपने तन पर लगाते थे, लेकिन क्यों! इसका अर्थ पवित्रता में छिपा है, वह पवित्रता जिसे भगवान शिव ने एक मृत व्यक्ति की जली हुई चिता में खोजा है। जिसे अपने तन पर लगाकर वे उस पवित्रता को सम्मान देते हैं। कहते हैं शरीर पर भस्म लगाकर भगवान शिव खुद को मृत आत्मा से जोड़ते हैं। उनके अनुसार मरने के बाद मृत व्यक्ति को जलाने के पश्चात बची हुई राख में उसके जीवन का कोई कण शेष नहीं रहता। ना उसके दुख, ना सुख, ना कोई बुराई और ना ही उसकी कोई अच्छाई बचती है। इसलिए वह राख पवित्र है, उसमें किसी प्रकार का गुण-अवगुण नहीं है, ऐसी राख को भगवान शिव अपने तन पर लगाकर सम्मानित करते हैं। किंतु ना केवल भस्म के द्वारा वरन् ऐसे कई उदाहरण है जिसके जरिए भगवान शिव खुद में एवं मृत व्यक्ति में संबंध को दर्शाते हैं।

हिन्दू मान्यताओं में ब्रह्माजी को जहां सृष्टि का रचयिता कहा गया है वहीं विष्णुजी इस संसार को चलाने वाले यानि कि पालनहार माने गए हैं। लेकिन शिवजी संसार को नष्ट करने वाले हैं, यानि कि जन्म के बाद अंत दिखाने वाले हैं। इसलिए वे हमेशा श्मशान में बैठकर मृत्यु का इंतजार करते हैं। लेकिन भस्म और भगवान शिव का रिश्ता मात्र इतना ही नहीं है। इससे जुड़ी एक पौराणिक कहानी भी है, जो काफी हैरान कर देने वाली है।

भगवान शिव एवं उनकी पहली पत्नी सती के बारे में कौन नहीं जानता, खुद को अग्नि को समर्पित कर चुकी सती की मृत्यु की खबर जब भगवान शिव को मिली तो वे गुस्से में अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे। वे अपनी पत्नी के मृत शव को लेकर इधर उधर घूमने लगे, कभी आकाश में तो कभी धरती पर। जब श्रीहरि ने शिवजी के इस दुखद एवं पागलपन रवैया को देखा तो उन्होंने जल्द से जल्द कोई हल निकालने की कोशिश की। अंतत: उन्होंने भगवान शिव की पत्नी के मृत शरीर का स्पर्श कर इस शरीर को भस्म में बदल दिया। हाथों में केवल पत्नी की भस्म को देखकर शिवजी और भी परेशान हो गए, उन्हें लगा वे अपनी पत्नी को हमेशा के लिए खो चुके हैं। अपनी पत्नी से जुदाई का दर्द शिवजी बर्दाश्त नहीं पर पा रहे थे, लेकिन उनके हाथ में उस समय भस्म के अलावा और कुछ नहीं था। इसलिए उन्होंने उस भस्म को अपनी पत्नी की आखिरी निशानी मानते हुए अपने तन पर लगा लिया, ताकि सती भस्म के कणों के जरिए हमेशा उनके साथ ही रहें।
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कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...