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श्री कृष्ण

श्रीकृष्ण के मोरपंख व गुँजामाला धारण करने का रहस्
बर्हापीडं नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारं बिभ्रद् वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै-र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति:॥

प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण की अद्भुत मोहिनी शोभा का वर्णन है।एक ओर कृष्ण नट की भांति नाना रूप धर लेते हैं, कभी वर दूल्हे की तरह दिखते हैं।माथे पर मोर मुकुट, कानों में कनेर के फूल खुँसे हुए, नीलकमल सी देह पर सुनहले पीताम्बर कीआभा, गले में वैजयन्ती माला, बाँस की बाँसुरी के छिद्रों को अपने अधरामृत का पान कराते हुये, ग्बाल-बालों के साथ वे वृन्दावन में ऐसे प्रवेश कर रहे हैं जैसे रंगमंच पर कोई नायकप्रवेश कर रहा हो। पर श्रीकृष्ण वृन्दावन में विहार के लिए नंगे पैर आते हैं क्योंकि उनके चरणों के स्पर्श से ही भूमि पर तृण अंकुरित होंगे और उन तृणांकुरों से गउओं की तृप्ति होगी इसीलिए वह गोपाल कहलाये।
बर्हापीड :- श्रीकृष्ण के मस्तक पर मोर पंख का मुकुट है।

बालकृष्ण को मोर बहुत पसन्द है, श्रीकृष्ण का मयूर नृत्य भी बहुत प्रसिद्ध है।
मोर में अनेक गुण हैं–वह दूसरों के दु:ख से दु:खी और सुख से सुखी होता है।
अधिक गर्मी पड़े और सब कुछ सूख जाये तो मोर को मरण-तुल्य दु:ख होता है।

आकाश में बादल गड़गड़ाने पर वह अत्यन्त आनन्द के साथ नाचता है और उसकी आँख से आनन्दाश्रु प्रवाहित हो उठते हैं जिसे मोरनी पी जाती है और उससे गर्भधारण कर लेती है। जो कामसुख का त्याग करता है, उसे श्रीकृष्ण अपने मस्तक पर स्थान देते हैं।

यशोदानन्दन, मुरलीमनोहर, पीताम्बरधारी स्यामसुंदर श्रीराधारानी के मोर के साथ नाचते हैं।
नाचते-नाचते मोर का पिच्छ गिर पड़ता है, श्रीकृष्ण उसे उठा लेते हैं और कहते हैं कि:-

"अरे यह तो हमें पुरस्कार मिला है" और उसे अपने सिर पर धारण कर लेते हैं, इसीलिये इनको बर्हापीड़ भी कहते हैं।

गुँजामाला👉  श्रीकृष्ण गले में गुँजामाला धारण करते हैं, यह माला उन्हें बहुत प्रिय है।
ब्रह्माण्ड का आकार गुँजा जैसा है, श्रीकृष्ण अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं।
उन्होंने ब्रह्माजी को बताया कि तुम तो एक ही ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हो, ऐसे ऐसे अनेक ब्रह्माण्ड मेरे श्रीअंग में विलास करते हैं, इसीलिये उन्होंने गले में गुँजामाला धारण की है।
नटवरवपु:👉  श्रीकृष्ण का शरीर ऐसा है कि देखने में लगता है कि मानो लावण्य दौड़ रहा है।
वह तरह-तरह के वेश धारण कर लेते हैं, कभी खड़िया से सुन्दर श्रृंगार करते हैं, कभी फेंटे को बांध लेते हैं।
कर्णयो कर्णिकारं विभ्रद् 👉 कर्णिकार अमलतास के लम्बे-लम्बे लटकते हुये फूलों को कहते हैं, इसे कनेर या करवीर का पुष्प भी कहते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण इस गंधहीन पुष्प को अपने कान में लगाकर रखते हैं।
कनक कपिशम् 👉  श्रीराधा का शरीर स्वर्णमयी आभा लिये हुये है इसीलिए श्रीकृष्ण ने उनके समान वस्त्र धारण किये हैं।
इसका एक अर्थ यह भी है कि भगवान पृथ्वी के उद्धार के लिये अवतरित हुये हैं अत: उन्होंने पृथ्वी के पीले रंग के वस्त्र धारण किये हैं।
वैजयन्ती च मालाम् 👉 भगवान के गले में पांच वर्ण के पुष्पों की माला है जिसमें शोभा, सौन्दर्य और माधुर्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मीजी छिपी रहती हैं।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् 👉 वेणु एक तो पुरुष है, बांस की बनती है, दूसरे कठोर है।
तीसरे उसमें छेद हैं परन्तु इतना होने पर भी श्रीकृष्ण उसे अपने अधरों पर धारण करते हैं क्योंकि वह पोली होती है, अपने अन्दर कुछ भी छिपाकर नहीं रखती।

भगवान ने स्वयं कहा है,
‘मोहे कपट छल छिद्र न भावा’
बांस गर्मी, सर्दी, बरसात सहकर भी चीरकर बांसुरी बना लेने पर मीठी तान ही सुनाता है, इसीलिये श्रीकृष्ण को बांसुरी प्रिय है।

सूरदासजी के शब्दों में:-
राजत री वनमाल गरै हरि आवत वन तैं।
फूलनि सौं लाल पाग, लटकि रही बाम भाग,सो छवि लखि सानुराग, टरति न मन तैं॥

मोर मुकुट सिर सिखंड, गोरज मुख मंजु मंड,नटवर वर वेष धरैं आवत छवि तैं।
सूरदास प्रभु की छवि ब्रज ललना निरखि थकित,तन मन न्यौछावर करैं, आँनद बहु तैं॥
गोपी कहती है:- सखी; गले में वनमाला पहने स्यामसुंदर वन से आते हुये बड़ी शोभा पा रहे हैं।
फूलों से सजी लाल पगड़ी बायीं ओर लटक रही है, इस शोभा को देखने के बाद यह मन से हटती ही नहीं।
माथे पर मोर मुकुट है, मुख गायों के खुरों से उड़ी धूल से सुशोभित है, श्रेष्ठ नट जैसा वेशबनाये बड़ी शोभा से आ रहे हैं।
सूरदासजी कहते हैं कि ब्रज की स्त्रियां श्रीकृष्ण की शोभा देखकर अपना तन-मन उन पर न्यौछावर कर देती हैं।एक अन्य पद में
सूरदासजी कहते है:-
जैसी जैसी बातै करै कहत न आवै री।सावरो सुंदर कान्ह अति मन भावै री॥

मदन मोहन बेनु मृदु, मृदुल बजावै री।तान की तरंग रस, रसिक रिझावै री॥

जंगम थावर करै, थावर चलावै री।लहरि भुअंग त्यागि सनमुख आवै री॥ब्योम यान फूल अति गति बरसावै री।
कामिनि धीरज धरै, को सो कहावै री॥

नंदलाल ललना ललचि ललचावै री।
सूरदास प्रेम हरि हियैं न समावै री॥

भाव
गोपी कहती है- सखी, साँवला सुन्दर कन्हाई हृदय को अन्यत प्रिय लगता है, वह जैसी-जैसी बाते करता है, उनका वर्णन ही हो सकता।वह मदनमोहन अत्यन्त मृदुल स्वर में वंशी बजाता है और उसकी तान-तरंगो के रस से रसिकों को रिझाता-प्रसन्न करता है।चर पशु-पक्षी आदि को जड के समान निश्चेष्ट और जड वृक्षादि को चला देता द्रवित कर देता है।
सर्प भी लहर विष तथा कुटिल गति छोडकर उनके सम्मुख आ जाता है।आकाश से देवताओं के विमान अत्यन्त वेग से पुष्पो की वर्षा करते है।
ऐसी कौन-सी नारी है, जो मोहन को देखकर धैर्य रख सके और धैर्यधारिणी कहला सके।सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दर व्रज की गोपियों पर स्वयं मुग्ध होकर उन्हे भी मोहित करते है, जिससे उनके हृदय मे मोहन का प्रेम समाता नही
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जय श्री राधे कृष्ण

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