"शिव-नामकी महिमा"

II ॐ नमः शिवाय II

एक बार महर्षि लोमशजी नैमिषारण्य तीर्थमें शौनकादि ऋषियोंके यहाँ पधारे । ऋषियोंने उनका समुचित सत्कार किया । आतिथ्यके पश्चात् उन्होंने विस्तारपूर्वक शिवधर्म सुनानेके लिये लोमशजीसे प्रार्थना की । लोमशजीने उन्हें शिव-चरित्र सुनाते हुए शिव-पूजन-महिमाका गान प्रारम्भ किया । इसी प्रसंगमें उन्होंने कहा –
हरे हरेति वै नाम्ना शम्भोश्चक्रधरस्य च ।
रक्षिता बहवो मर्त्योः शिवेन परमात्मना ।। (स्कन्दपुराण, माहे॰ केदार॰ ५/९२)

‘हे हरे ! और हे हर ! इस प्रकार भगवान् शिव और विष्णुके नाम लेनेसे परमात्मा शिवने बहुतेरे मनुष्योंकी रक्षा की है ।‘
महर्षि लोमशने शौनकादि ऋषियोंसे भगवान् शिव एवं पार्वतीके विवाहका वर्णन कर लेनेके पश्चात् उनकी (शिवकी) नाम-महिमा इस प्रकार बतायी –
ते धन्यास्ते महात्मानः कृतकृत्यास्त एव हि ।
द्वयक्षरं नाम येषां वै जिह्वाग्रे संस्थितं सदा ।।
शिव इत्यक्षरं नाम यैरुदीरितमद्य वै ।
ते वै मनुष्यरूपेण रुद्राः स्युर्नात्र संशयः ।।  (स्कन्दपुराण, माहे॰ केदार॰ २७/२२-२३)

‘जिनकी जिह्वाके अग्रभागपर सदा भगवान् शंकरका दो अक्षरोंवाला नाम (शिव) विराजमान रहता है, वे धन्य हैं, वे महात्मा पुरुष हैं तथा वे ही कृतकृत्य हैं । आज भी जिन्होंने ‘शिव’ – इस अविनाशी नामका उच्चारण किया है, वे निश्चय ही मनुष्यरूपमें रुद्र हैं – इसमें संशय नहीं है ।
 (गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘भगवन्नाम महिमा और प्रार्थना – अंक’से)

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