गुरुवार, 30 नवंबर 2017

मोक्षदा एकादशी

                 मोक्षदा एकादशी


युधिष्ठिर बोले : देवदेवेश्वर ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है? स्वामिन् ! यह सब यथार्थ रुप से बताइये ।

श्रीकृष्ण ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का वर्णन करुँगा, जिसके श्रवणमात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । उसका नाम ‘मोक्षदा एकादशी’ है जो सब पापों का अपहरण करनेवाली है । राजन् ! उस दिन यत्नपूर्वक तुलसी की मंजरी तथा धूप दीपादि से भगवान दामोदर का पूजन करना चाहिए । पूर्वाक्त विधि से ही दशमी और एकादशी के नियम का पालन करना उचित है । मोक्षदा एकादशी बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली है ।

उस दिन रात्रि में मेरी प्रसन्न्ता के लिए नृत्य, गीत और स्तुति के द्वारा जागरण करना चाहिए । जिसके पितर पापवश नीच योनि में पड़े हों, वे इस एकादशी का व्रत करके इसका पुण्यदान अपने पितरों को करें तो पितर मोक्ष को प्राप्त होते हैं । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।

पूर्वकाल की बात है, वैष्णवों से विभूषित परम रमणीय चम्पक नगर में वैखानस नामक राजा रहते थे । वे अपनी प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे । इस प्रकार राज्य करते हुए राजा ने एक दिन रात को स्वप्न में अपने पितरों को नीच योनि में पड़ा हुआ देखा । उन सबको इस अवस्था में देखकर राजा के मन में बड़ा विस्मय हुआ और प्रात: काल ब्राह्मणों से उन्होंने उस स्वप्न का सारा हाल कह सुनाया ।

राजा बोले : ब्रह्माणो ! मैने अपने पितरों को नरक में गिरा हुआ देखा है । वे बारंबार रोते हुए मुझसे यों कह रहे थे कि : ‘तुम हमारे तनुज हो, इसलिए इस नरक समुद्र से हम लोगों का उद्धार करो। ’ द्विजवरो ! इस रुप में मुझे पितरों के दर्शन हुए हैं इससे मुझे चैन नहीं मिलता । क्या करुँ ? कहाँ जाऊँ? मेरा हृदय रुँधा जा रहा है । द्विजोत्तमो ! वह व्रत, वह तप और वह योग, जिससे मेरे पूर्वज तत्काल नरक से छुटकारा पा जायें, बताने की कृपा करें । मुझ बलवान तथा साहसी पुत्र के जीते जी मेरे माता पिता घोर नरक में पड़े हुए हैं ! अत: ऐसे पुत्र से क्या लाभ है ?

#ब्राह्मण बोले : राजन् ! यहाँ से निकट ही पर्वत मुनि का महान आश्रम है । वे भूत और भविष्य के भी ज्ञाता हैं । नृपश्रेष्ठ ! आप उन्हींके पास चले जाइये ।

ब्राह्मणों की बात सुनकर महाराज वैखानस शीघ्र ही पर्वत मुनि के आश्रम पर गये और वहाँ उन मुनिश्रेष्ठ को देखकर उन्होंने दण्डवत् प्रणाम करके मुनि के चरणों का स्पर्श किया । मुनि ने भी राजा से राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी ।

राजा बोले: स्वामिन् ! आपकी कृपा से मेरे राज्य के सातों अंग सकुशल हैं किन्तु मैंने स्वप्न में देखा है कि मेरे पितर नरक में पड़े हैं । अत: बताइये कि किस पुण्य के प्रभाव से उनका वहाँ से छुटकारा होगा ?

राजा की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ पर्वत एक मुहूर्त तक ध्यानस्थ रहे । इसके बाद वे राजा से बोले :
‘महाराज! मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष में जो ‘मोक्षदा’ नाम की एकादशी होती है, तुम सब लोग उसका व्रत करो और उसका पुण्य पितरों को दे डालो । उस पुण्य के प्रभाव से उनका नरक से उद्धार हो जायेगा ।’

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! मुनि की यह बात सुनकर राजा पुन: अपने घर लौट आये । जब उत्तम मार्गशीर्ष मास आया, तब राजा वैखानस ने मुनि के कथनानुसार ‘मोक्षदा एकादशी’ का व्रत करके उसका पुण्य समस्त पितरोंसहित पिता को दे दिया । पुण्य देते ही क्षणभर में आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी । वैखानस के पिता पितरोंसहित नरक से छुटकारा पा गये और आकाश में आकर राजा के प्रति यह पवित्र वचन बोले: ‘बेटा ! तुम्हारा कल्याण हो ।’ यह कहकर वे स्वर्ग में चले गये ।

राजन् ! जो इस प्रकार कल्याणमयी ‘‘मोक्षदा एकादशी’ का व्रत करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और मरने के बाद वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।

यह मोक्ष देनेवाली ‘मोक्षदा एकादशी’ मनुष्यों के लिए चिन्तामणि के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है । इस माहात्मय के पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है ll

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

॥नवदुर्गा स्तोत्रम्॥

               ॥नवदुर्गा स्तोत्रम्॥

॥देवी शैलपुत्री॥
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढाम् शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्॥१॥
॥देवी ब्रह्मचारिणी॥
दधाना करपद्माभ्यामक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥२॥
॥देवी चन्द्रघण्टा॥
पिण्डजप्रवरारूढा चन्दकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यम् चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥३॥
॥देवी कूष्माण्डा॥
सुरासम्पूर्णकलशम् रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्याम् कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥४॥
॥देवी स्कन्दमाता॥
सिंहासनगता नित्यम् पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥५॥
॥देवी कात्यायनी॥
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्यादेवि दानवघातिनी॥६॥
॥देवी कालरात्रि॥
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥७॥
॥देवी महागौरी॥
श्र्वेते वृषे समारूढा श्र्वेताम्बरधरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥८॥
॥देवी सिद्धिदात्रि॥
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥९॥
॥इति श्री नवदुर्गा स्तोत्रम् सम्पूर्णम्॥

ll तुलसी की महिमा ll

               ll तुलसी की महिमा  ll



 तुलसी की महिमा बताते हुए भगवान शिव नारदजी से कहते हैं-
 पत्रं पुष्पं फलं मूलं शाखा त्वक् स्कन्धसंज्ञितम्।
 तुलसी संभवं सर्वं पावनं मृत्तिकादिकम्।।
 अर्थात् ‘तुलसी का पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पावन हैं।’
 प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार देव और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका, उसी से ‘‘तुलसी’’ की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मदेव ने उसे भगवान विष्णु को सौंपा। लंका में विभीषण के घर तुलसी का पौधा देखकर हनुमान अति हर्षित हुये थे। इसकी महिमा के वर्णन में कहा गया है,
 नामायुध अंकित गृह शोभा वरिन न जाई।
 नव तुलसिका वृन्द तहंदेखि हरषि कपिराई।
 तुलसी की आराधना करते हुए ग्रंथ लिखते हैं —–
 महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्य वर्धिनी ।
 आधिव्याधि हरिर्नित्यं तुलेसित्व नमोस्तुते॥
 हे तुलसी! आप सम्पूर्ण सौभाग्यों को बढ़ाने वाली हैं, सदा आधि-व्याधि को मिटाती हैं, आपकोनमस्कार है। अकाल मृत्यु हरण सर्व व्याधि विनाशनम्॥ तुलसी को अकाल मृत्यु हरण करने वाली और सम्पूर्ण रोगों को दूर करने वाली माना गया है।
 रोपनात् पालनान् सेकान् दर्शनात्स्पर्शनान्नृणाम् ।
 तुलसी दह्यते पाप वाढुमतः काय सञ्चितम्॥
 तुलसी को लगाने से, पालने से, सींचने से, दर्शन करने से, स्पर्श करने से, मनुष्यों के मन, वचन और काया से संचित पाप जल जाते हैं। वायु पुराण में तुलसी पत्र तोड़ने की कुछ नियम मर्यादाएँ बताते हुए लिखा है -
 अस्नात्वा तुलसीं छित्वा यः पूजा कुरुते नरः। सोऽपराधी भवेत् सत्यं तत् सर्वनिष्फलं भवेत्॥
 अर्थात् – बिना स्नान किए तुलसी को तोड़कर जोमनुष्य पूजा करता है, वह अपराधी है। उसकी की हुई पूजा निष्फल जाती है, इसमें कोई संशय नहीं।
 तुलसीदल एक उत्कृष्ट रसायन है। यह गर्म और त्रिदोषशामक है। रक्तविकार, ज्वर, वायु, खाँसी एवं कृमि निवारक है तथा हृदय के लिए हितकारी है। सफेद तुलसी के सेवन से त्वचा, मांस और हड्डियों के रोग दूर होते हैं। काली तुलसी के सेवन से सफेद दाग दूर होते हैं। तुलसी की जड़ और पत्ते ज्वर में उपयोगी हैं। वीर्यदोष में इसके बीज उत्तम हैं तुलसी की चाय पीने से ज्वर, आलस्य, सुस्ती तथा वातपित्त विकार दूर होते हैं, भूख बढ़ती है।
 गले में तुलसी की माला पहनने से विधुत की लहरें निकलकर रक्त संचार में रूकावट नहीं आनि देतीं। प्रबल विद्युतशक्ति के कारण धारकके चारों ओर चुम्बकीय मंडल विद्यमान रहता है।
 तुलसी की माला पहनने से आवाज सुरीली होती है, गले के रोग नहीं होते, मुखड़ा गोरा, गुलाबी रहता है। हृदय पर झूलने वाली तुलसी माला फेफड़े और हृदय के रोगों से बचाती है। इसे धारण करने वाले के स्वभाव में सात्त्विकता का संचार होता है।
 तुलसी की माला धारक के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है। कलाई में तुलसी का गजरा पहनने से नब्ज नहीं छूटती, हाथ सुन्न नहीं होता, भुजाओं का बल बढ़ता है। तुलसी की जड़ें कमर में बाँधने से स्त्रियों को, विशेषतः गर्भवती स्त्रियों को लाभ होता है। प्रसव वेदना कम होती है और प्रसूति भी सरलता से हो जाती है। कमर में तुलसी की करधनी पहनने से पक्षाघात नहीं होता, कमर, जिगर, तिल्ली, आमाशय और यौनांग के विकार नहीं होते हैं।
 तुलसी का पौधा हमारे लिए धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व का पौधा है जिस घर में इसकावास होता है वहा आध्यात्मिक उन्नति के साथ सुख-शांति एवं आर्थिक समृद्धता स्वतः आ जातीहै। वातावारण में स्वच्छता एवं शुद्धता, प्रदूषण का शमन, घर परिवार में आरोग्य की जड़ें मज़बूत करने, श्रद्धा तत्व को जीवित करने जैसे अनेकों लाभ इसके हैं। तुलसी के नियमित सेवन से सौभाग्यशालिता के साथ ही सोच में पवित्रता, मन में एकाग्रता आती है और क्रोध पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। आलस्य दूर होकर शरीर में दिनभर फूर्ती बनी रहती है।तुलसी की सूक्ष्म व कारण शक्ति अद्वितीय है। यह आत्मोन्नति का पथ प्रशस्त करती है तथा गुणों की दृष्टि से संजीवनी बूटी है। तुलसी को प्रत्यक्ष देव मानने और मंदिरों एवं घरों में उसे लगाने, पूजा करने के पीछे संभवतः यही कारण है कि यह सर्व दोष निवारक औषधि सर्व सुलभ तथा सर्वोपयोगी है। धार्मिक धारणा है कि तुलसी की सेवापूजा व आराधना से व्यक्ति स्वस्थ एवं सुखी रहता है। अनेक भारतीय हर रोगमें तुलसीदल-ग्रहण करते हुए इसे दैवीय गुणोंसे युक्त सौ रोगों की एक दवा मानते हैं। गले में तुलसी-काष्ठ की माला पहनते हैं।
 तुलसी को दैवी गुणों से अभिपूरित मानते हुए इसके विषय में अध्यात्म ग्रंथों में काफ़ी कुछ लिखा गया है। तुलसी औषधियों का खान हैं। इस कारण तुलसी को अथवर्वेद में महाऔषधि की संज्ञा दी गई हैं। इसे संस्कृत में हरिप्रिया कहते हैं। इस औषधि की उत्पत्ति से भगवान् विष्णु का मनः संताप दूर हुआ इसी कारणयह नाम इसे दिया गया है। ऐसा विश्वास है कि तुलसी की जड़ में सभी तीर्थ, मध्य में सभी देवि-देवियाँ और ऊपरी शाखाओं में सभी वेद स्थित हैं। तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है तथा पूजन करना मोक्षदायक। देवपूजा और श्राद्धकर्म में तुलसी आवश्यक है। तुलसी पत्र से पूजा करने सेव्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है। ऐसा कहा जाता है, जिनके मृत शरीर का दहन तुलसी की लकड़ी की अग्नि से क्रिया जाता है, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। प्राणी के अंत समय में मृत शैया पर पड़े रोगी को तुलसी दलयुक्त जल सेवन कराये जाने के विधान में तुलसी की शुध्दता ही मानी जाती है और उस व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त हो, ऐसा माना जाता है।  

तुलसी स्तोत्रम्

         तुलसी स्तोत्रम् 


जगद्धात्रि नमस्तुभ्यं विष्णोश्च प्रियवल्लभे।
यतो ब्रह्मादयो देवाः सृष्टिस्थित्यन्तकारिणः ॥1॥

नमस्तुलसि कल्याणि नमो विष्णुप्रिये शुभे।
नमो मोक्षप्रदे देवि नमः सम्पत्प्रदायिके ॥2॥

तुलसी पातु मां नित्यं सर्वापद्भ्योऽपि सर्वदा ।
कीर्तितापि स्मृता वापि पवित्रयति मानवम् ॥3॥

नमामि शिरसा देवीं तुलसीं विलसत्तनुम् ।
यां दृष्ट्वा पापिनो मर्त्या मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषात् ॥4॥

तुलस्या रक्षितं सर्वं जगदेतच्चराचरम् ।
या विनिहन्ति पापानि दृष्ट्वा वा पापिभिर्नरैः ॥5॥

नमस्तुलस्यतितरां यस्यै बद्ध्वाजलिं कलौ ।
कलयन्ति सुखं सर्वं स्त्रियो वैश्यास्तथाऽपरे ॥6॥

तुलस्या नापरं किञ्चिद् दैवतं जगतीतले ।
यथा पवित्रितो लोको विष्णुसङ्गेन वैष्णवः ॥7॥

तुलस्याः पल्लवं विष्णोः शिरस्यारोपितं कलौ ।
आरोपयति सर्वाणि श्रेयांसि वरमस्तके ॥8॥

तुलस्यां सकला देवा वसन्ति सततं यतः ।
अतस्तामर्चयेल्लोके सर्वान् देवान् समर्चयन् ॥9॥

नमस्तुलसि सर्वज्ञे पुरुषोत्तमवल्लभे ।
पाहि मां सर्वपापेभ्यः सर्वसम्पत्प्रदायिके ॥10॥

इति स्तोत्रं पुरा गीतं पुण्डरीकेण धीमता ।
विष्णुमर्चयता नित्यं शोभनैस्तुलसीदलैः ॥11॥

तुलसी श्रीर्महालक्ष्मीर्विद्याविद्या यशस्विनी ।
धर्म्या धर्नानना देवी देवीदेवमनःप्रिया ॥12॥

लक्ष्मीप्रियसखी देवी द्यौर्भूमिरचला चला ।
षोडशैतानि नामानि तुलस्याः कीर्तयन्नरः ॥13॥

लभते सुतरां भक्तिमन्ते विष्णुपदं लभेत् ।
तुलसी भूर्महालक्ष्मीः पद्मिनी श्रीर्हरिप्रिया ॥14॥

तुलसि श्रीसखि शुभे पापहारिणि पुण्यदे ।
नमस्ते नारदनुते नारायणमनःप्रिये ॥15॥

इति श्रीपुण्डरीककृतं तुलसीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

चाय के साथ कोई भी नमकीन चीज नहीं खानी चाहिए।

चाय के साथ कोई भी नमकीन चीज नहीं खानी चाहिए।
दूध और नमक का संयोग सफ़ेद दाग या किसी भी स्किन डीजीज को जन्म दे सकता है,
बाल असमय सफ़ेद होना या बाल झड़ना भी स्किन डिजीज ही है।

सर्व प्रथम यह जान लीजिये कि
कोई भी आयुर्वेदिक दवा खाली पेट खाई जाती है
और दवा खाने से आधे घंटे के अंदर कुछ खाना अति आवश्यक होता है,
नहीं तो दवा की गरमी आपको बेचैन कर देगी।

दूध या दूध की बनी किसी भी चीज के साथ
दही, नमक, इमली, खरबूजा, बेल, नारियल, मूली, तोरई,तिल, तेल, कुल्थी, सत्तू, खटाई नहीं खानी चाहिए।

दही के साथ
खरबूजा, पनीर, दूध और खीर नहीं खानी चाहिए।

गर्म जल के साथ
शहद कभी नही लेना चाहिए।

ठंडे जल के साथ
घी, तेल, खरबूज, अमरूद, ककड़ी, खीरा, जामुन, मूंगफली कभी नहीं।

शहद के साथ
मूली, अंगूर, गरम खाद्य या गर्म जल कभी नहीं।

खीर के साथ
सत्तू, शराब, खटाई, खिचड़ी, कटहल कभी नहीं।

घी के साथ
बराबर मात्रा में शहद भूल कर भी नहीं खाना चाहिए,
ये तुरंत जहर का काम करेगा।

तरबूज के साथ
पुदीना या ठंडा पानी कभी नहीं।

चावल के साथ
सिरका कभी नहीं।

चाय के साथ
ककड़ी खीरा भी कभी मत खाएं।

खरबूज के साथ
दूध, दही, लहसून और मूली कभी नहीं।

कुछ चीजों को
एक साथ खाना
अमृत का काम करता है जैसे-

खरबूजे के साथ
चीनी, इमली के साथ गुड,
गाजर और मेथी का साग,
बथुआ और दही का रायता.

मकई के साथ मट्ठा.

अमरुद के साथ सौंफ.

तरबूज के साथ गुड.

मूली और मूली के पत्ते
अनाज या दाल के साथ दूध या दही.

आम के साथ गाय का दूध.

चावल के साथ दही.

खजूर के साथ दूध.

चावल के साथ नारियल की गिरी.

केले के साथ इलायची.

कभी कभी कुछ चीजें बहुत पसंद होने के कारण
हम ज्यादा या फिर बहुत ज्यादा खा लेते हैं।

ऎसी चीजो के बारे में बताते हैं
जो अगर आपने ज्यादा खा ली हैं
तो कैसे पचाई जाएँ…

केले की अधिकता में दो छोटी इलायची

आम पचाने के लिए आधा चम्म्च सोंठ का चूर्ण और गुड

जामुन ज्यादा खा लिया तो ३-४ चुटकी नमक

सेब ज्यादा हो जाए तो दालचीनी का चूर्ण एक ग्राम

खरबूज के लिए आधा कप चीनी का शरबत

तरबूज के लिए सिर्फ एक लौंग

अमरूद के लिए सौंफ

नींबू के लिए नमक

बेर के लिए सिरका

गन्ना ज्यादा चूस लिया हो तो
3-4 बेर खा लीजिये

चावल ज्यादा खा लिया है
तो आधा चम्म्च अजवाइन पानी से निगल लीजिये

बैगन के लिए
सरसो का तेल एक चम्म्च

मूली ज्यादा खा ली हो
तो एक चम्म्च काला तिल चबा लीजिये

बेसन ज्यादा खाया हो
तो मूली के पत्ते चबाएं

खाना ज्यादा खा लिया है
तो थोड़ी दही खाइये

मटर ज्यादा खाई हो
तो अदरक चबाएं

इमली या उड़द की दाल या मूंगफली या शकरकंद या जिमीकंद ज्यादा खा लीजिये
तो फिर गुड खाइये

मुंग या चने की दाल ज्यादा खाये हों
तो एक चम्म्च सिरका पी लीजिये

मकई ज्यादा खा गये हो
तो मट्ठा पीजिये

घी या खीर ज्यादा खा गये हों
तो काली मिर्च चबाएं

खुरमानी ज्यादा हो जाए
तो ठंडा पानी पीयें

पूरी कचौड़ी ज्यादा हो जाए
तो गर्म पानी पीजिये

अगर सम्भव हो
तो भोजन के साथ
दो नींबू का रस आपको जरूर ले लेना चाहिए
या पानी में मिला कर पीजिये
या भोजन में निचोड़ लीजिये,
80% बीमारियों से बचे रहेंगे।

*तिलक*

                    *तिलक*


वैदिक सभ्यता से अवगत लोगों को पता ही होगा कि उसके अनुयायी माथे पर कुछ चिन्ह लगाते हैं, जिसे तिलक कहा जाता है। तिलक अनेक प्रकार के होते हैं, कुछ राख द्वारा बनाये हुए, कुछ मिट्टी से, कुछ कुम-कुम आदि से।

माथे पर राख द्वारा चिन्हित तीन आड़ी रेखाऐं दर्शाती हैं की लगाने वाला शिव-भक्त है। नाक पर तिकोन और उसके ऊपर “V” चिन्ह यह दर्शाता है कि लगाने वाला विष्णु-भक्त है। यह चिन्ह भगवान विष्णु के चरणों का प्रतीक है, जो विष्णु मन्त्रों का उच्चारण करते हुए लगाया जाता है। तिलक लगाने के अनेक कारण एवं अर्थ हैं परन्तु यहाँ हम मुख्यतः वैष्णवों द्वारा लगाये जाने वाले गोपी-चन्दन तिलक के बारे में चर्चा करेंगे । *गोपी-चन्दन* (मिट्टी) द्वारका से कुछ ही दूर एक स्थान पर पायी जाती है। इसका इतिहास यह है कि जब भगवान इस धरा-धाम से अपनी लीलाएं समाप्त करके वापस गोलोक गए तो गोपियों ने इसी स्थान पर एक नदी में प्रविष्ट होकर अपने शरीर त्यागे। वैष्णव इसी मिटटी को गीला करके विष्णु-नामों का उच्चारण करते हुए, अपने माथे, भुजाओं, वक्ष-स्थल और पीठ पर इसे लगते हैं।

तिलक हमारे शरीर को एक मंदिर की भाँति अंकित करता है, शुद्ध करता है और बुरे प्रभावों से हमारी रक्षा भी करता है। इस तिलक को हम स्वयं देखें या कोई और देखे तो उसे स्वतः ही श्री कृष्ण का स्मरण हो आता है। गोपी चन्दन तिलक के माहात्म्य का वर्णन विस्तार रूप में *गर्ग-संहिता के छठवें स्कंध, पन्द्रहवें अध्याय* में किया गया है। उसके अतिरिक्त कई अन्य शास्त्रों में भी इसके माहात्म्य का उल्लेख मिलता है।

कुछ इस प्रकार हैं:

अगर कोई वैष्णव जो उर्धव-पुन्ड्र लगा कर किसी के घर भोजन करता है, तो उस घर के २० पीढ़ियों को मैं (परम पुरुषोत्तम भगवान) घोर नरकों से निकाल लेता हूँ। – *(हरी-भक्तिविलास ४.२०३, ब्रह्माण्ड पुराण से उद्धृत)*

हे पक्षीराज! (गरुड़) जिसके माथे पर गोपी-चन्दन का तिलक अंकित होता है, उसे कोई गृह-नक्षत्र, यक्ष, भूत-पिशाच, सर्प आदि हानि नहीं पहुंचा सकते।       – *(हरी-भक्ति विलास ४.२३८, गरुड़ पुराण से उद्धृत)*

जिन भक्तों के गले में तुलसी या कमल की कंठी-माला हो, कन्धों पर शंख-चक्र अंकित हों, और तिलक शरीर के बारह स्थानों पर चिन्हित हो, वे समस्त ब्रह्माण्ड को पवित्र करते हैं । – *पद्म पुराण*

*तिलक कृष्ण के प्रति हमारे समर्पण का एक बाह्य प्रतीक है। इसका आकार और उपयोग की हुयी सामग्री,हर सम्प्रदाय या आत्म-समर्पण की प्रक्रिया पर निर्भर करती है।*

*श्री संप्रदाय* का तिलक चीटियों की बांबी से निकली हुयी सफ़ेद मिटटी से बनता है। शास्त्र बताते हैं कि तुलसी के नीचे और चीटियों की बांबी से पाई जाने वाली मिट्टी शुद्ध और तिलक बने के लिए उपयुक्त होती है। श्री वैष्णव माथे पर “V” चिन्ह बनाते हैं जो भगवान विष्णु के चरणों को दर्शाता है तथा बीच में लाल रेखा बनाते हैं जो लक्ष्मी देवी का प्रतीक है। यह लाल रंग सामान्यतया उसी बांबी में सफ़ेद मिटटी के साथ ही पाया जाता है। यह संप्रदाय लक्ष्मी जी से आरम्भ होता है और यह तिलक श्री वैष्णवों के समर्पण भाव को दर्शाता है क्योंकि वे लक्ष्मी जी के अनुगत होकर भगवान विष्णु तक पहुँचते हैं। हर सम्प्रदाय के तिलक उसके सिद्धांत को वर्णित करता है।

*वल्लभ सम्प्रदाय* में तिलक आम तौर पर एक खड़ी लाल रेखा होती है । यह रेखा श्री यमुना देवी की प्रतीक है । वल्लभ सम्प्रदाय में भगवान कृष्ण को श्रीनाथ जी एवं गोवर्धन के रूप में पूजा जाता है। यमुना जी श्री गोवर्धन की भार्या है । इस संप्रदाय में आत्मसमर्पण की प्रक्रिया श्री यमुना देवी के माध्यम से चली आ रही है।

*मध्व सम्प्रदाय* में तिलक द्वारका में मिली मिट्टी, “गोपी-चन्दन” से किया जाता है। तिलक की दो खड़ी रेखाएं भगवान कृष्ण के चरणों का प्रतिनिधित्व करती हैं । यह गोपी-चन्दन तिलक गौड़ीय सम्प्रदाय में उपयोग में लए जाने वाले तिलक के लगभग समान है । इन दो खड़ी रेखाओं के बीच यज्ञ-कुण्ड में दैनिक होम के बाद बने कोयले से एक काली रेखा भी बनायीं जाती है । इस सम्प्रदाय में, पूजा की प्रक्रिया में नित्य-होम भी होता है। काले रंग की रेखा के नीचे, एक पीला या लाल बिंदु लक्ष्मी या राधारानी को इंगित करता है । जो भक्त दैनिक यज्ञ होम नहीं करते वे केवल गोपीचन्दन तिलक ही लगते हैं ।

*गौड़ीय संप्रदाय* में तिलक सामन्यतया गोपी-चन्दन से ही किया जाता है। कुछ भक्त वृन्दावन की रज से भी तिलक करते हैं। यह तिलक मूलतः मध्व तिलक के समान ही है। परन्तु इसमें दो अंतर पाये जाते हैं । श्री चैतन्य महाप्रभु ने कलियुग में नाम-संकीर्तन यज्ञ को यज्ञ-कुण्ड में होम से अधिक प्रधानता दी, इस कारण तिलक में भी बीच की काली रेखा नहीं लगायी जाती। दूसरा अंतर है भगवान श्री कृष्ण को समर्पण की प्रक्रिया। गौड़ीय संप्रदाय में सदैव श्रीमती राधारानी की प्रत्यक्ष सेवा से अधिक, एक सेवक भाव में परोक्ष रूप से सेवा को महत्व दिया जाता है । इस दास भाव को इंगित करने के लिए मध्व संप्रदाय जैसा लाल बिंदु न लगाकर भगवान के चरणों में तुलसी आकार बनाकर तुलसी महारानी की भावना को दर्शाया जाता है, ताकि उनकी कृपा प्राप्त कर हम भी श्री श्री राधा-कृष्ण की शुद्ध भक्ति विकसित कर सकें ।
किसी भी स्थिति में, तिलक का परम उद्देश्य अपने आप को पवित्र और भगवान के मंदिर के रूप में शरीर को चिन्हित करने के लिए है । शास्त्र विस्तार से यह निर्दिष्ट नहीं करते कि तिलक किस ढंग से किये जाने चाहिए। यह अधिकतर आचार्यों द्वारा शास्त्रों में वर्णित सामान्य प्रक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए बनायीं गयी हैं ।

*पद्म पुराण के उत्तर खंड* में भगवान शिव, पार्वती जी से कहते हैं कि वैष्णवों के “V” तिलक के बीच में जो स्थान है उसमे लक्ष्मी एवं नारायण का वास है। इसलिए जो भी शरीर इन तिलकों से सजा होगा उसे श्री विष्णु  के मंदिर के समान समझना चाहिए ।

*पद्म पुराण में एक और स्थान पर:*
वाम्-पार्श्वे स्थितो ब्रह्मा
दक्षिणे च सदाशिवः
मध्ये विष्णुम् विजनियात
तस्मान् मध्यम न लेपयेत्
तिलक के बायीं ओर ब्रह्मा जी विराजमान हैं, दाहिनी ओर सदाशिव परन्तु सबको यह ज्ञात होना चाहिए कि मध्य में श्री विष्णु का स्थान है। इसलिए मध्य भाग में कुछ लेपना नहीं चाहिए।

बायीं हथेली पर थोड़ा सा जल लेकर उस पर गोपी-चन्दन को रगड़ें। तिलक बनाते समय पद्म पुराण में वर्णित निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें:

*ललाटे केशवं ध्यायेन*
*नारायणम् अथोदरे*
*वक्ष-स्थले माधवम् तु*
*गोविन्दम कंठ-कुपके*
*विष्णुम् च दक्षिणे कुक्षौ*
*बहौ च मधुसूदनम्*
*त्रिविक्रमम् कन्धरे तु*
*वामनम् वाम्-पार्श्वके*
*श्रीधरम वाम्-बहौ तु*
*ऋषिकेशम् च कंधरे*
*पृष्ठे-तु पद्मनाभम च*
*कत्यम् दमोदरम् न्यसेत्*
*तत प्रक्षालन-तोयं तु*
*वसुदेवेति मूर्धनि*

*माथे पर* – ॐ केशवाय नमः
*नाभि के ऊपर* – ॐ नारायणाय नमः
*वक्ष-स्थल* – ॐ माधवाय नमः
*कंठ* – ॐ गोविन्दाय नमः
*उदर के दाहिनी ओर* – ॐ विष्णवे नमः
*दाहिनी भुजा* – ॐ मधुसूदनाय नमः
*दाहिना कन्धा* – ॐ त्रिविक्रमाय नमः
*उदर के बायीं ओर* – ॐ वामनाय नमः
*बायीं भुजा* – ॐ श्रीधराय नमः
*बायां कन्धा* – ॐ ऋषिकेशाय नमः
*पीठ का ऊपरी भाग* – ॐ पद्मनाभाय नमः
*पीठ का निचला भाग* – ॐ दामोदराय नमः
अंत में जो भी गोपी-चन्दन बचे उसे ॐ वासुदेवाय नमः का उच्चारण करते हुए शिखा में पोंछ लेना चाहिए।

कर्मफल का विधान

          कर्मफल का विधान
​​
भगवान ने नारद जी से कहा आप भ्रमण करते रहते हो कोई ऐसी घटना बताओ जिसने तम्हे असमंजस मे डाल दिया हो...

नारद जी ने कहा प्रभु अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं, वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई उसे बचाने वाला नहीं था।

तभी एक चोर उधर से गुजरा, गाय को फंसा हुआ देखकर भी नहीं रुका, उलटे उस पर पैर रखकर दलदल लांघकर निकल गया।

आगे जाकर उसे सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिल गई।

थोड़ी देर बाद वहां से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने उस गाय को बचाने की पूरी कोशिश की।

पूरे शरीर का जोर लगाकर उस गाय को बचा लिया लेकिन मैंने देखा कि गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया और उसे चोट लग गयी ।

भगवान बताइए यह कौन सा न्याय है।

भगवान मुस्कुराए, फिर बोले नारद यह सही ही हुआ।

जो चोर गाय पर पैर रखकर भाग गया था, उसकी किस्मत में तो एक खजाना था लेकिन उसके इस पाप के कारण उसे केवल कुछ मोहरे ही मिलीं।

वहीं उस साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन गाय के बचाने के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसकी मृत्यु एक छोटी सी चोट में बदल गई।

इंसान के कर्म से उसका भाग्य तय होता है। अब नारद जी संतुष्ट थे |

पुरुषोत्तम मास में रोज़ एक बार एक श्लोक बोल सकें तो बहुत अच्छा है

पुरुषोत्तम मास में रोज़ एक बार एक श्लोक बोल सकें तो बहुत अच्छा है :-
गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरुपिणम |
गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिका प्रियं | |
हे भगवान ! हे गिरिराज धर ! गोवर्धन को अपने हाथ में धारण करने वाले हे हरि ! हमारे विश्वास और भक्ति को भी तू ही धारण करना | प्रभु आपकी कृपा से ही मेरे जीवन में भक्ति बनी रहेगी, आपकी कृपा से ही मेरे जीवन में भी विश्वास रूपी गोवर्धन मेरी रक्षा करता रहेगा | हे गोवर्धनधारी आपको मेरा प्रणाम है आप समर्थ होते हुए भी साधारण बालक की तरह लीला करते थे | गोकुल में आपके कारण सदैव उत्सव छाया रहता था मेरे ह्रदय में भी हमेशा उत्सव छाया रहे साधना में, सेवा-सुमिरन में मेरा उसाह कभी कम न हो | मै जप, साधना सेवा,करते हुए कभी थकूँ नहीं | मेरी इन्द्रियों में संसार का आकर्षण न हो, मैं आँख से तुझे ही देखने कि इच्छा रखूं, कानों से तेरी वाणी सुनने की इच्छा रखूं, जीभ के द्वारा दिया हुआ नाम जपने की इच्छा रखूं ! हे गोविन्द ! आप गोपियों के प्यारे हो ! ऐसी कृपा करो, ऐसी सदबुद्धि दो कि मेरी इन्द्रियां आपको ही चाहे ! मेरी इन्द्रियरूपी गोपीयों में संसार की चाह न हो, आपकी ही चाह हो ! 

क्रोध से हानि

क्रोधो मूलमनर्थानां  क्रोधः संसारबन्धनम्।
धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्॥

क्रोध समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, क्रोध संसार बंधन का कारण है, क्रोध धर्म का नाश करने वाला है,  इसलिए क्रोध को त्याग दें।

क्या आप जानते हैं कान्हा को बांसुरी किसने दी?



द्वापरयुग के समय जब भगवान श्री कृष्ण ने धरती में जन्म लिया तब देवी-देवता वेश बदलकर समय-समय पर उनसे मिलने धरती पर आने लगे। इस दौड़ में भगवान शिवजी कहां पीछे रहने वाले थे, अपने प्रिय भगवान से मिलने के लिए वह भी धरती पर आने के लिए उत्सुक हुए।
परन्तु वह यह सोच कर कुछ क्षण के लिए रुके की यदि वे श्री कृष्ण से मिलने जा रहे तो उन्हें कुछ उपहार भी अपने साथ ले जाना चाहिए। अब वे यह सोच कर परेशान होने लगे कि ऐसा कौन सा उपहार ले जाना चाहिए जो भगवान श्री कृष्ण को प्रिय भी लगे और वह हमेशा उनके साथ रहे।

तभी महादेव शिव को याद आया कि उनके पास ऋषि दधीचि की महाशक्तिशाली हड्डी पड़ी है। ऋषि दधीचि वही महान ऋषि है जिन्होंने धर्म के लिए अपने शरीर को त्याग दिया था व अपनी शक्तिशाली शरीर की सभी हड्डियां दान कर दी थी। उन हड्डियों की सहायता से विश्कर्मा ने तीन धनुष पिनाक, गाण्डीव, शारंग तथा इंद्र के लिए व्रज का निर्माण किया था। महादेव शिवजी​ ने उस हड्डी को घिसकर एक सुन्दर एवं मनोहर बांसुरी का निर्माण किया।   जब शिवजी भगवान श्री कृष्ण से मिलने गोकुल पंहुचे तो उन्होंने श्री कृष्ण को भेट स्वरूप वह बंसी प्रदान की। उन्हें आशीर्वाद दिया तभी से भगवान श्री कृष्ण उस बांसुरी को अपने पास रखते हैं।

पदमा गाय - जिसका दूध बाल कृष्ण पिया करते थे

पदमा गाय - जिसका दूध बाल कृष्ण पिया करते थे


पदमा गाय का बड़ा महत्व है पदमा गाय किसे कहते है पहले तो हम ये जानते है – एक लाख देशी गौ के दूध को १०,००० गौ को पिलाया जाता है,उन १० ,००० गौ के दूध को १०० गौ को पिलाया जाता है अब उन १०० गायों के दूध को १० गौ को पिलाया जाता है अब उन १० गौ का दूध काढकर १ गौ को पिलाया जाता है. और जिसे पिलाया जाता है, उस गौ के जो "बछड़ा" 'बछड़ी" होता है उसे "पदमा गाय"कहतेहै.

ऐसी गौ का बछड़ा जहाँ जिस भूमि पर मूत्र त्याग करता है उसका इतना महत्व है कि यदि कोई बंध्या स्त्री उस जगह को सूँघ भी लेती है तो उसे निश्चित ही पुत्र की प्राप्ति हो जाती है.

ऐसी एक लाख गाये नन्द भवन में महल में थी जिनका दूध नन्द बाबा यशोदा जी और बाल कृष्ण पिया करते थे, तभी नन्द बाबा और यशोदा के बाल सफ़ेद नहीं थे सभी चिकने और एकदम काले थे चेहरे पर एक भी झुर्री नहीं थी, शरीर अत्यंत पुष्ट थी.

ऐसी गौ का दूध पीने से चेहरे कि चमक में कोई अंतर नहीं आता, आँखे कमजोर नहीं होती, कोई आधी-व्याधि नहीं आती.इसलिए नंद बाबा के लिए सभी कहते थे ‘साठा सो पाठा” अर्थात ६० वर्ष के नंद बाबा थे जब बाला कृष्ण का प्राकट्य हुआ था पर फिर भी जबान कि तरह दिखते थे.

_____श्री राधा विजयते नमः

जब गोपियों ने पदमा गौ के मूत्र से बाल कृष्ण का अभिषेक किया

जब पूतना का मोक्ष भगवान ने किया उसके बाद पूर्णमासी, रोहिणी, यशोदा और अन्य गोपियाँ बाल कृष्ण की शुद्धि के लिए उन्हें पदमा गौ कि गौशाला में लेकर गई. रोहिणी जी पदमा गौ को कुजली करने लगी अर्थात प्यार से सहलाने लगी,

यशोदा जी ने गौ शाला में ही गोद में बाल कृष्ण को लेकर बैठ गई और पूर्णमासी उस गौ की पूंछ से, भगवान के ही दिव्य नामो से झाडा (नजर उतारने) देने लगी.
उसी पदमा गौ के मूत्र से बाल कृष्ण को स्नान कराया, गौ के चरणों से रज लेकर लाला के सारे अंगों में लगायी. और गौ माता से प्रार्थना करने लगी की हमारे लाल को बुरी नजर से बचाना.

||नरसिंह स्तोत्र||

||नरसिंह स्तोत्र||


नरसिंह मंत्र

ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् ।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥

हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, तुम्हारी ज्वाला एवं ताप चतुर्दिक फैली हुई है. हे नरसिंहदेव, तुम्हारा चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं तुम्हारे समक्षा आत्मसमर्पण करता हूँ ।

नरसिंह स्तोत्र

देव कार्य सिध्यर्थं, सभा स्थम्भ समुद्भवं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये.

लक्ष्म्यलिङ्गिथ वमन्गं, भक्थानां वर दायकं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये.

आन्त्रमलदरं, संख चरब्जयुधा दरिनं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये.

स्मरन्तः सर्व पपग्नं, खद्रुजा विष नासनं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये.

श्रिम्हनदेनाहथ्, दिग्दन्थि भयानसनं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये.

प्रह्लाद वरदं, स्र्रेसं, दैथ्येस्वर विधरिनं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये.

क्रूरग्रहै पीदिथानं भक्थानं अभय प्रधं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये.

वेद वेदन्थ यग्नेसं, ब्रह्म रुद्रधि वन्धिथं,
श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये.

य इदं पदाथे नित्यं, रुण मोचन संगणकं,
अनृनि जयथे सथ्यो, दानं सीग्रमवप्नुयतः. 

तीन काम कदापि न करें

 रामायण में वाल्मीकि ने भगवान श्रीराम के जीवन के बारें में विस्तार से बताया गया है। जो एक बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। वाल्मीकि ने मनुष्य के जीवन से संबंधित कई बाते है। जिनका अनुसरण कर मनुष्य अपने जीवन में सफलताओं को प्राप्त करता है। इसमें धर्म और ज्ञान से संबंधित कई बातें बताई गई है।
ये भी पढ़े- गायत्री मंत्र: हर समस्या के लिए है कारगर उपाय
हम अपने जीवन में कई तरह के काम करते है जिससे हमें कभी अच्छा फल प्राप्त होता है और कभी बहुत ही बुरा फल प्राप्त होता है। इसी प्रकार वाल्मिकि रामायण में बताया गया है कि अपने जीवन में हमें कौन से काम नहीं करना चाहिए। जिससे हमारें जीवन में कोई समस्या उत्पन्न न हो। जानिए वो तीन काम कौन से है।
परस्वानां च हरणं परदाराभिमर्शनम्।
सुह्मदयामतिशंका च त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।
इस श्लोक के अनुसार माना गया है कि कभी भी किसी दूसरें के धन में अपनी नजर या चोरी न करें, किसी पराई स्त्री से संबंध न बनाएं और किसी अपने हितैषी को धोखा न दें। उस समय तो आपको आंनद मिलेगा, लेकिन बाद में आपका ही नुकसान होगा।

भगवान श्रीकृष्ण के 51 नाम

भगवान् श्री कृष्ण जी के 51 नाम और उन के अर्थ
1 कृष्ण: सब को अपनी ओर आकर्षित करने वाला.
2 गिरिधर: गिरी: पर्वत ,धर: धारण करने वाला। अर्थात गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले।
3 मुरलीधर: मुरली को धारण करने वाले।
4 पीताम्बर धारी: पीत :पिला, अम्बर:वस्त्र। जिस ने पिले वस्त्रों को धारण किया हुआ है।
5 मधुसूदन:मधु नामक दैत्य को मारने वाले।
6 यशोदा या देवकी नंदन: यशोदा और देवकी को खुश करने वाला पुत्र।
7 गोपाल: गौओं का या पृथ्वी का पालन करने वाला।
8 गोविन्द: गौओं का रक्षक।
9 आनंद कंद: आनंद की राशि देंने वाला।
10 कुञ्ज बिहारी: कुंज नामक गली में विहार करने वाला।
11 चक्रधारी: जिस ने सुदर्शन चक्र या ज्ञान चक्र या शक्ति चक्र को धारण किया हुआ है।
12 श्याम: सांवले रंग वाला।
13 माधव: माया के पति।
14 मुरारी: मुर नामक दैत्य के शत्रु।
15 असुरारी: असुरों के शत्रु।
16 बनवारी: वनो में विहार करने वाले।
17 मुकुंद: जिन के पास निधियाँ है।
18 योगीश्वर: योगियों के ईश्वर या मालिक।
19 गोपेश :गोपियों के मालिक।
20 हरि: दुःखों का हरण करने वाले।
21 मदन: सूंदर।
22 मनोहर: मन का हरण करने वाले।
23 मोहन: सम्मोहित करने वाले।
24 जगदीश: जगत के मालिक।
25 पालनहार: सब का पालन पोषण करने वाले।
26 कंसारी: कंस के शत्रु।
27 रुख्मीनि वलभ: रुक्मणी के पति ।
28 केशव: केशी नाम दैत्य को मारने वाले. या पानी के उपर निवास करने वाले या जिन के बाल सुंदर है।
29 वासुदेव:वसुदेव के पुत्र होने के कारन।
30 रणछोर:युद्ध भूमि स भागने वाले।
31 गुड़ाकेश: निद्रा को जितने वाले।
32 हृषिकेश: इन्द्रियों को जितने वाले।
33 सारथी: अर्जुन का रथ चलने के कारण।
35 पूर्ण परब्रह्म: :देवताओ के भी मालिक।
36 देवेश: देवों के भी ईश।
37 नाग नथिया: कलियाँ नाग को मारने के कारण।
38 वृष्णिपति: इस कुल में उतपन्न होने के कारण
39 यदुपति:यादवों के मालिक।
40 यदुवंशी: यदु वंश में अवतार धारण करने के कारण।
41 द्वारकाधीश:द्वारका नगरी के मालिक।
42 नागर:सुंदर।
43 छलिया: छल करने वाले।
44 मथुरा गोकुल वासी: इन स्थानों पर निवास करने के कारण।
45 रमण: सदा अपने आनंद में लीन रहने वाले।
46 दामोदर: पेट पर जिन के रस्सी बांध दी गयी थी।
47 अघहारी: पापों का हरण करने वाले।
48 सखा: अर्जुन और सुदामा के साथ मित्रता निभाने के कारण।
49 रास रचिया: रास रचाने के कारण।
50 अच्युत: जिस के धाम से कोई वापिस नही आता है।
51 नन्द लाला: नन्द के पुत्र होने के कारण।

अगर मिल जाए रास्ते में तो इन्हें पहले जाने दें

मनुस्मृति के एक श्लोक में बताया गया है कि किन लोगों के सामने आ जाने पर स्वयं मार्ग से हटकर इन्हें पहले जाने देना चाहिए।
मनुस्मृति के एक श्लोक में बताया गया है कि किन लोगों के सामने आ जाने पर स्वयं मार्ग से हटकर इन्हें पहले जाने देना चाहिए।
श्लोक
चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः।
स्नातकस्य च राज्ञश्च पन्था देयो वरस्य च।।
अर्थात-
रथ पर सवार व्यक्ति, वृद्ध, रोगी, बोझ उठाए हुए व्यक्ति, स्त्री, स्नातक, राजा तक वर (दूल्हा)। इन आठों को आगे जाने का मार्ग देना चाहिए और स्वयं एक ओर हट जाना चाहिए।
1- रथ पर सवार व्यक्ति मनुस्मृति के अनुसार यदि कहीं जाते समय सामने रथ पर सवार कोई व्यक्ति आ जाए तो स्वयं पीछे हटकर उसे मार्ग दे देना चाहिए। लाइफ मैनेजमेंट की दृष्टि से देखा जाए तो रथ पर सवार व्यक्ति किसी ऊंचे राजकीय पद पर हो सकता है या वह राजा के निकट का व्यक्ति भी हो सकता है। मार्ग न देने की स्थिति में वह आपका नुकसान भी कर सकता है। इसलिए कहा गया है कि रथ पर सवार व्यक्ति को तुरंत रास्ता दे देना चाहिए। वर्तमान में रथ का स्थान दो व चार पहिया वाहनों ने ले लिया है।
2- वृद्ध अगर रास्ते में कोई वृद्ध स्त्री या पुरुष आ जाए तो स्वयं पीछे हटकर उसे पहले मार्ग दे देना चाहिए। लाइफ मैनेजमेंट के अनुसार वृद्ध लोग सदैव सम्मान के पात्र होते हैं, उन्हें किसी भी स्थिति में अपमानित नहीं करना चाहिए। यदि वृद्ध को रास्ता न देते हुए हम पहले उस मार्ग का उपयोग करेंगे तो यह वृद्ध व्यक्ति का अपमान करने जैसा हो जाएगा। वृद्ध के साथ ऐसा व्यवहार करने के कारण समाज में हमें भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाएगा। सिर्फ हमें ही नहीं बल्कि परिवार को भी हीन समझा जाएगा। इसलिए मनु स्मृति में कहा गया है कि स्वयं पीछे हटकर वृद्ध को पहले मार्ग देना चाहिए।
3- रोगी रोगी व्यक्ति दया व स्नेह का पात्र होता है। यदि रास्ते में कोई रोगी सामने आ जाए तो उसे पहले जाने देना ही शिष्टता है। संभव है रोगी उपचार के लिए जा रहा हो अगर हम उसे मार्ग न देते हुए पहले स्वयं रास्ते का उपयोग करेंगे तो हो सकता है रोगी को उपचार मिलने में देरी हो जाए। उपचार में देरी से रोगी को किसी विकट परिस्थिति का सामना भी करना पड़ सकता है। रोगियों की सेवा करना बड़ा ही पुण्य का काम माना गया है। इसलिए रोगी व्यक्ति के लिए स्वयं मार्ग से हट जाना चाहिए।
4- बोझ उठाए हुआ व्यक्ति यदि मार्ग पर एक ही व्यक्ति के निकलने का स्थान हो और सामने बोझ उठाए हुआ व्यक्ति आ जाए तो पहले उसे ही जाने देना चाहिए। ऐसा हमें मानवीयता के कारण करना चाहिए। जिस व्यक्ति के सिर या हाथों में बोझ होता है वह सामान्य स्थिति में खड़े मनुष्य से अधिक कष्ट का अनुभव कर रहा होता है। ऐसी स्थित में हमें मानवीयता का भाव मन में रखते हुए उसे ही पहले जाने देना चाहिए। यही शिष्टता है। ऐसा करने से समाज में आपका सम्मान और भी बढ़ेगा।
5- स्त्री मनुस्मृति के अनुसार यदि मार्ग में कोई स्त्री आ जाए तो स्वयं पीछे हटकर पहले उसे ही जाने देना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि हिंदू धर्म में स्त्री को बहुत ही सम्माननीय माना गया है। किसी भी तरीके से स्त्री का अनादर नहीं करना चाहिए। स्त्री को मार्ग न देते हुए स्वयं पहले उस रास्ते का उपयोग करना स्त्री का अनादर करने जैसा ही है। स्त्री का अनादर करने से धन की देवी लक्ष्मी व विद्या की देवी सरस्वती दोनों ही रूठ जाती हैं और ऐसा करने वाले के घर में कभी निवास नहीं करती। इसलिए स्त्री के मार्ग से स्वयं पीछे हटकर उसे ही पहले जाने देना चाहिए।
6- स्नातक ब्रह्मचर्य आश्रम में रहते हुए गुरुकुल में सफलता पूर्वक शिक्षा पूरी करने वाले विद्यार्थी को एक समारोह में पवित्र जल से स्नान करा कर सम्मानित किया जाता था। इन्हीं विद्वान विद्यार्थी को स्नातक कहा जाता था। वर्तमान परिदृश्य में स्नातक को वेद व शास्त्रों का ज्ञान रखने वाला विद्वान माना जा सकता है। यदि कोई ऐसा व्यक्ति जिसे वेद-वेदांगों का संपूर्ण ज्ञान हो और वह सामने आ जाए तो उसे पहले जाने देना चाहिए। क्योंकि ऐसा ही व्यक्ति समाज में ज्ञान की रोशनी फैलाता है। इसलिए वह हर स्थिति में आदरणीय होता है।
7- राजा राजा प्रजा का पालन-पोषण करने वाला व विपत्तियों से उनकी रक्षा करने वाला होता है। राजा ही अपनी प्रजा के हित के लिए निर्णय लेता है। राजा हर स्थिति में सम्माननीय होता है। अगर जिस मार्ग पर आप चल रहे हों, उसी पर राजा भी आ जाए तो स्वयं पीछे हटकर राजा को जाने देना चाहिए। ऐसा न करने पर राजा आपको दंड भी दे सकता है। अगर आप दंड नहीं पाना चाहते तो पहले राजा को ही आगे जाने का मार्ग देना चाहिए।
8- दूल्हा मनुस्मृति के अनुसार दूल्हा यानी जिस व्यक्ति का विवाह होने जा रहा हो वह आपके मार्ग में आ जाए तो पहले उसे ही जाने देना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि दूल्हा बना व्यक्ति भगवान शिव का स्वरूप होता है इसलिए वह भी सम्मान करने योग्य कहा गया है। इसलिए यदि रास्ते में दूल्हा आ जाए तो पहले ही उसे मार्ग देना चाहिए। यही शिष्टाचार भी है।

मानस की सीख

रामायण में जब हनुमानजी ने खोज के बाद श्रीराम को बताया कि सीता माता रावण की लंका में हैं तो श्रीराम अपनी वानर सेना के साथ दक्षिण क्षेत्र में समुद्र किनारे पहुंच गए थे।

 उन्हें समुद्र पार करके लंका पहुंचना था। श्रीराम ने समुद्र से प्रार्थना की कि वह वानर सेना को लंका तक पहुंचने के लिए मार्ग दें, लेकिन समुद्र ने श्रीराम के आग्रह को नहीं माना और इस प्रकार तीन दिन बीत गए। तीन दिन के बाद बोले राम…….

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥

इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती यानी बिना डर दिखाए कोई भी हमारा काम नहीं करता है।

लछिमनबान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।।
सठसन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती।

इन दोहे में श्रीराम ने लक्ष्मण को बताया है कि किस व्यक्ति से कैसी बात न करें। जानिए इस दोहे का अर्थ...

मूर्खयानी जड़ बुद्धि वाले व्यक्ति से न करें प्रार्थना
श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं- हे लक्ष्मण। धनुष-बाण लेकर आओ, मैं अग्नि बाण से समुद्र को सूखा डालता हूं। किसी मूर्ख से विनय की बात नहीं करना चाहिए। कोई भी मूर्ख व्यक्ति दूसरों के आग्रह या प्रार्थना को समझता नहीं है, क्योंकि वह जड़ बुद्धि होता है। मूर्ख लोगों को डराकर ही उनसे काम करवाया जा सकता है।
कुटिल के साथ न करें प्रेम से बात
श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं कि जो व्यक्ति कुटिल स्वभाव वाला होता है, उससे प्रेम पूर्वक बात नहीं करना चाहिए। कुटिल व्यक्ति प्रेम के लायक नहीं होते हैं। ऐसे लोग सदैव दूसरों को कष्ट देने का ही प्रयास करते हैं। ये लोग स्वभाव से बेईमान होते हैं, भरोसेमंद नहीं होते हैं।

 अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को संकट में डाल सकते हैं। अत: कुटिल व्यक्ति से प्रेम पूर्वक बात नहीं करना चाहिए।

कंजूस से न करें दान की बात
जो लोग स्वभाव से ही कंजूस हैं, धन के लोभी हैं, उनसे उदारता की, किसी की मदद करने की, दान करने की बात नहीं करना चाहिए। कंजूस व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में धन का दान नहीं कर सकता है। कंजूस से ऐसी बात करने पर हमारा ही समय व्यर्थ होगा।

। जगन्नाथ जी के अंगों के गलने का कारण।

।  जगन्नाथ जी के अंगों के गलने का कारण। 


                 

     द्वारका लीला में श्री कृष्णचंद्र की पटरानियों ने एक बार माता रोहणी के भवन में जाकर उनसे आग्रह किया कि वह उन्हें श्यामसुंदर की ब्रज लीला के गोपियों के प्रेम प्रसंग को सुनना चाहती है। हमनें सुना है कि गोपियां और श्यामसुंदर के बीच में अगाध महाप्रेममय महारास हुआ था। हम सभी पटरानियां भी श्यामसुंदर से अथाह प्रेम करती है। क्या गोपियां और श्यामसुंदर का प्रेम हमसे भी अधिक प्रगाढ़ था। कृपा करके हमें रासलीला सुनायें। माता रोहणी ने टालना चाहा, किन्तु पटरानियों के आग्रह के कारण उन्हें सुनाने के लिए प्रस्तुत होना पड़ा। पर सुभद्रा जी भी बहां उपस्थित थीं। अतः सुनाना संभव नहीं था। तो माता ने सुभद्रा जी को आदेश दिया कि वे बाहर द्वार खड़ी रहें और किसी को भी भीतर प्रवेश न करनें दें। तव माता रोहणी ने गोपियां और श्यामसुंदर की रासलीला का गान प्रारंभ किया। गान इतना सुमधुर था। कि श्यामसुंदर, बलरामजी से कहने लगे दाऊ भैया कोई हमें प्रगाढ़ प्रेम से याद कर रहा है, और उसके प्रेम से हम उनकी ओर खिंचे चले जा रहे हैं। तो दाऊ जी बोले हां कन्हैया मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। और दोनों भैया सुभद्रा जी के समीप पहुंच गए और जैसे ही दरवाजे के भीतर प्रवेश करना चाहा सुभद्रा जी ने दोनों भाइयों के कंधे पर हाथ रख कर रोक दिया। बंद द्वार के भीतर जो वार्ता चल रही थी, वह बार्ता उन्हें स्पष्ट सुनाई दे रही थी। उसे सुनकर तीनों के ही शरीर द्रवित होने लगे। उसी समय देवर्षि नारद जी वहां आ गये, नारद जी ने जो यह प्रेम द्रवित स्वरुप देखा तो प्राथना की, कि हे प्रभु आप तीनों इसी रुप में विराजमान हों, और जगत में पूजेजायें। श्री कृष्ण ने स्वीकार किया कलयुग में दारूक विग्रह में इसी रूप में हम तीनों स्थिति होंगे।
      प्राचीन काल में मालव देश के नरेश इन्द्रध्दुम्न को पता चला कि उत्तर प्रदेश में कहीं नीलांचल पर भगवान् नील माधव का पूजित श्री विग्रह है। विष्णु भक्त राजा नील माधव के दर्शन के लिए प्रयत्न करने लगे। तो उन्हे स्थान का लग गया। जव वे वहां पहुंचे, देवता उस विग्रह को अपने लोक में ले गये थे। उसी समय आकाशवाणी हुई कि दारूक ब्रम्ह रूप में तुम्हें श्री जगन्नाथ जी के दर्शन होंगे।
       महाराज इन्द्रध्दुम्न सपरिवार और प्रजाजन के साथ नीलांचल के पास बस गए। एक दिन समुद्र में एक बहुत बड़ा काष्ठ (महादारू) बह कर आया। राजा ने उसे निकलवा लिया। विष्णु मूर्ति के लिए। उसी समय वृध्द बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी उपस्थित हुए, उन्होंने मूर्ति बनाना स्वीकार कर लिया। और कहा जव तक वे सूचित न करें, तव तक बंद द्वार न खोला जाये। जिसमें वे मूर्ति बनायेंगे।
      वे काष्ठ को लेकर एक भवन में बंद हो गये। कई दिन बीतने पर महारानी ने कहा कि मूर्तिकार भूख प्यास से मर गया होगा। भवन का द्वार खोला जाय। महाराज के आदेश पर जब द्वार खोला गया, तो बढ़ई आदृश्य हो गया था। और वही प्रेम गलित कृष्ण सुभद्रा बलराम श्री जगन्नाथ जी की प्रतिमाएँ मिली। राजा को मूर्ति के सम्पूर्ण ना होने का बड़ा दुख हुआ। उसी समय आकाशवाणी हुई, चिंता मत करो। इसी रुप में रहने की हमारी इच्छा है। मूर्तियों को पवित्र द्रव(रंग) से सज्जित कर प्रतिष्ठित कर दो।
       जहां मूर्तियां तैयार हुई वह गुंडीचा मंदिर ब्रम्हलोक या जनकपुर कहते हैं।
       एक बार द्वारका में सुभद्रा जी ने नगर देखना चाहा तो कृष्ण सुभद्रा बलराम अलग अलग रथ में वैठकर (आगे कृष्ण रथ बीच में सुभद्रा रथ पीछे बलराम जी का रथ) नगर दर्शन कराया। इसी घटना के स्मरण रूप रथयात्रा निकलती है। 

आरती

स्कन्द पुराण में कहा गया है

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:।
सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते निराजने शिवे।।

अर्थात - पूजन मंत्रहीन तथा क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमे सारी पूर्णता आ जाती है।

आरती करने का ही नहीं, देखने का भी बड़ा पूण्य फल प्राप्त होता है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है-

नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम।।

अर्थात - जो भी देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णु भगवान की आरती देखता है, वह सातों जन्म में ब्राह्मण होकर अंत में परम् पद को प्राप्त होता है।

श्री विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है

धूपं चरात्रिकं पश्येत काराभ्यां च प्रवन्देत।
कुलकोटीं समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।

अर्थात - जो धुप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।

आरती में पहले मूल मंत्र (जिस देवता का, जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगाड़े, शख्ङ, घड़ियाल आदि महावाद्यो के तथा जय-जयकार के शब्दों के साथ शुभ पात्र में घृत से या कर्पूर से विषम संख्या में अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिए।

ततश्च मुलमन्त्रेण दत्त्वा पुष्पाञ्जलित्रयम्।
महानिराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैः।।
प्रज्वलेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्दिकम्।।

अर्थात - साधारणतः पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे 'पञ्चप्रदीप' भी कहते है। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कर्पूर से भी आरती होती है।

पद्मपुराण में कहा है

कुङ्कुमागुरुकर्पुरघृतचंदननिर्मिता:।
वर्तिका: सप्त वा पञ्च कृत्वा वा दीपवर्तिकाम्।।
कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शङ्खघण्टादिवाद्यकै:।

अर्थात - कुङ्कुम, अगर, कर्पूर, घृत और चंदन की पाँच या सात बत्तियां बनाकर शङ्ख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुवे आरती करनी चाहिए।

आरती के पाँच अंग होते है।

पञ्च नीराजनं कुर्यात प्रथमं दीपमालया।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।
चूताश्वत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।
पञ्चमं प्रणिपातेन साष्टाङ्गेन यथाविधि।।

अर्थात - प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शङ्ख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, आम व् पीपल अदि के पत्तों से और पाँचवे साष्टांग दण्डवत से आरती करें।

आदौ चतुः पादतले च विष्णो द्वौं नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु चाङ्गेषु च सप्तवारा नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।

अर्थात - आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाए, दो बार नाभिदेश में, एक बार मुखमण्डल पर और सात बार समस्त अंङ्गो पर घुमाए।

यथार्थ में आरती पूजन के अंत में इष्टदेवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है। इसमें इष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है। आरती के दो भाव है जो क्रमशः 'नीराजन' और 'आरती' शब्द से व्यक्त हुए है। नीराजन (निःशेषण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेषरूप से, निःशेषरूप से प्रकाशित करना। अनेक दिप-बत्तियां जलाकर विग्रह के चारों ओर घुमाने का यही अभिप्राय है कि पूरा-का-पूरा विग्रह एड़ी से चोटी तक प्रकाशित हो उठे- चमक उठे, अंङ्ग-प्रत्यङ्ग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाये, जिसमें दर्शक या उपासक भलिभांति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके। दूसरा 'आरती' शब्द (जो संस्कृत के आर्ति का प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है अरिष्ट) विशेषतः माधुर्य-उपासना से सम्बंधित है।

आरती-वारना का अर्थ है आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना। इस रूप में यह एक तांत्रिक क्रिया है, जिसमे प्रज्वलित दीपक अपने इष्टदेव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्न बधाये टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है कि उनकी आर्ति (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बली जाना, वारी जाना न्यौछावर होना आदि प्रयोग इसी भाव के द्योतक है। इसी रूप में छोटे बच्चों की माताए तथा बहिने लोक में भी आरती उतारती है। यह आरती मूल रूप में कुछ मंत्रोच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के लिए उसी भाव से उतारी जाती रही है।

आज कल वैदिक उपासना में उसके साथ-साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण भी होता है तथा पौराणिक एवं तांत्रिक उपासना में उसके साथ सुंदर-सुंदर भावपूर्ण पद्य रचनाएँ भी गायी जाती है। ऋतू, पर्व पूजा के समय आदि भेदों से भी आरती गायी जाती है।

नित्यकर्म

नित्य कर्म --- 1.संध्योपासन, 2.उत्सव, 3.तीर्थ, 4.संस्कार और 5.धर्म।
(1) संध्योपासन- संध्योपासन अर्थात संध्या वंदन। मुख्य संधि पांच वक्त की होती है जिसमें से प्रात: और संध्या की संधि का महत्व ज्यादा है। संध्या वंदन प्रतिदिन करना जरूरी है। संध्या वंदन के दो तरीके- प्रार्थना और ध्यान।
संध्या वंदन के लाभ : प्रतिदिन संध्या वंदन करने से जहां हमारे भीतर की नकारात्मकता का निकास होता है वहीं हमारे जीवन में सदा शुभ और लाभ होता रहता है। इससे जीवन में किसी प्रकार का भी दुख और दर्द नहीं रहता।
(2) उत्सव- उन त्योहार, पर्व या उत्सव को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख धर्मग्रंथों में मिलता है। मनमाने त्योहारों को मनाने से धर्म की हानी होती है। संक्रांतियों को मनाने का महत्व ही ज्यादा है। एकादशी पर उपवास करना और साथ ही त्योहारों के दौरान मंदिर जाना भी उत्सव के अंतर्गत ही है।
उत्सव का लाभ : उत्सव से संस्कार, एकता और उत्साह का विकास होता है। पारिवारिक और सामाजिक एकता के लिए उत्सव जरूरी है। पवित्र दिन और उत्सवों में बच्चों के शामिल होने से उनमें संस्कार का निर्माण होता है वहीं उनके जीवन में उत्साह बढ़ता है। जीवन के महत्वपूर्ण अवसरों, एकादशी व्रतों की पूर्ति तथा सूर्य संक्रांतियों के दिनों में उत्सव मनाया जाना चाहिए।
(3) तीर्थ- तीर्थ और तीर्थयात्रा का बहुत पुण्य है। कौन-सा है एक मात्र तीर्थ? तीर्थाटन का समय क्या है? ‍जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। अयोध्‍या, काशी, मथुरा, चार धाम और कैलाश में कैलाश की महिमा ही अधिक है।
लाभ : तीर्थ से ही वैराग्य और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। तीर्थ से विचार और अनुभवों को विस्तार मिलता है। तीर्थ यात्रा से जीवन को समझने में लाभ मिलता है। बच्चों को पवित्र स्थलों एवं मंदिरों की तीर्थ यात्रा का महत्व बताना चाहिए।
(4) संस्कार- संस्कारों के प्रमुख प्रकार सोलह बताए गए हैं जिनका पालन करना हर हिंदू का कर्तव्य है। इन संस्कारों के नाम है-गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। प्रत्येक हिन्दू को उक्त संस्कार को अच्छे से नियमपूर्वक करना चाहिए।
लाभ : संस्कार हमें सभ्य बनाते हैं। संस्कारों से ही हमारी पहचान है। संस्कार से जीवन में पवित्रता, सुख, शांति और समृद्धि का विकास होता है। संस्कार विरूद्ध कर्म करना जंगली मानव की निशानी है।
(5) धर्म- धर्म का अर्थ यह कि हम ऐसा कार्य करें जिससे हमारे मन और मस्तिष्क को शांति मिले और हम मोक्ष का द्वार खोल पाएं। ऐसा कार्य जिससे परिवार, समाज, राष्ट्र और स्वयं को लाभ मिले। धर्म को पांच तरीके से साधा जा सकता है- 1.व्रत, 2.सेवा, 3.दान, 4.यज्ञ और 5.धर्म प्रचार।
यज्ञ के अंतर्गत वेदाध्ययन आता है जिसके अंतर्गत छह शिक्षा (वेदांग, सांख्य, योग, निरुक्त, व्याकरण और छंद), और छह दर्शन (न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, सांख्य, वेदांत और योग) को जानने से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
लाभ – व्रत से मन और मस्तिष्क जहां सुदृढ़ बनता है वहीं शरीर स्वस्थ और बनवान बना रहता है। दान से पुण्य मिलता है और व्यर्थ की आसक्ति हटती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। सेवा से मन को जहां शांति मिलती है वहीं धर्म की सेवा भी होती है। सेवा का कार्य ही धर्म है। यज्ञ है हमारे कर्तव्य जिससे ऋषि ऋण, ‍‍देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण समाप्त होता है।न

कलियुग में साधन

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
     रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥

भावार्थ – कलियुग में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि  का  अध्यात्म के लिए कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए ।
अध्यात्म का अर्थ है- अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना, और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना, गीता के आठवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि यदि व्यक्ति  अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को जान लेता है तो वही अध्यात्म कहलाता है।  "परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते " आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्वविदित है।

कलयुग में महामंत्र हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ही जप करना क्यों बेहतर है?

          || महामंत्र ||

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे|
हरे  राम  हरे  राम   राम  राम  हरे  हरे||
अनुवाद: यह महामंत्र है|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका:---

 श्रील जीव गोस्वामीपाद के अनुसार महामंत्र की व्याख्या इस प्रकार है–
‘हरे’ का अर्थ है– सर्वचेतोहर: कृष्णनस्तस्य चित्तं हरत्यसौ– सर्वाकर्षक भगवान् कृष्ण के भी चित्त को हरने वाली उनकी आह्लादिनी शक्तिरूपा ‘हरा’ अर्थात– श्रीमती राधिका|
‘कृष्ण’ का अर्थ है– स्वीय लावण्यमुरलीकलनि:स्वनै:– अपने रूप-लावण्य एवं मुरली की मधुर ध्वनि से सभी के मन को बरबस आकर्षित लेने वाले मुरलीधर ही ‘कृष्ण’ हैं|
.
‘राम’ का अर्थ है–
 रमयत्यच्युतं प्रेम्णा निकुन्ज-वन-मंदिरे–
निकुन्ज-वन के श्रीमंदिर में श्रीमती राधिका जी के साथ माधुर्य लीला में रमण करते करने वाले राधारमण ही ‘राम’ हैं| 
प्रमाण: --हरेकृष्ण महामंत्र कीर्तन की महिमा वेदों तथा पुराणों में सर्वत्र दिखती है| कलिकाल में केवल इसी मन्त्र के कीर्तन से उद्धार संभव है|
अथर्ववेद की अनंत संहिता में आता है–
षोडषैतानि नामानि द्वत्रिन्षद्वर्णकानि हि| कलौयुगे महामंत्र: सम्मतो जीव तारिणे||
सोलह नामों तथा बत्तीस वर्णों से युक्त महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में जीवों के उद्धार का एकमात्र उपाय है|

अथर्ववेद के चैतन्योपनिषद में आता है–.
स: ऐव मूलमन्त्रं जपति हरेर इति कृष्ण इति राम इति|

भगवन गौरचन्द्र सदैव महामंत्र का जप करते हैं जिसमे पहले ‘हरे’ नाम, उसके बाद ‘कृष्ण’ नाम तथा उसके बाद ‘राम’ नाम आता है| ऊपर वर्णित क्रम के अनुसार महामंत्र का सही क्रम यही है की यह मंत्र ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण...’ से शुरू होता है, न की ‘हरे राम हरे राम....’ से| जयपुर के संग्रहालय में अभी भी प्राचीनतम पांडु-लिपियों में महामंत्र का क्रम इसी अनुसार देख सकते है|

यजुर्वेद के कलि संतारण उपनिषद् में आता है–
इति षोडषकं नाम्नाम् कलि कल्मष नाशनं| नात: परतरोपाय: सर्व वेदेषु दृश्यते||

सोलह नामों वाले महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में कल्मष का नाश करने में सक्षम है| इस मन्त्र को छोड़ कर कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय चारों वेदों में कहीं भी नहीं है|

पद्मपुराण में वर्णन आता है–
द्वत्रिन्षदक्षरं मन्त्रं नाम षोडषकान्वितं|

 प्रजपन् वैष्णवो नित्यं राधाकृष्ण स्थलं लभेत्||
जो वैष्णव नित्य बत्तीस वर्ण वाले तथा सोलह नामों वाले महामंत्र का जप तथा कीर्तन करते हैं– उन्हें श्रीराधाकृष्ण के दिव्य धाम गोलोक की प्राप्ति होती है|

राजा भर्तृहरि

पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे।
उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं। भर्तृहरि ने स्त्री के
सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक
लिखे, जो श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।
उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने
अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया।
देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए
कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे।
ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं,
मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है।
हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे
समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी।
वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह
फल उन्हें दे आया।
राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन
सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह
ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके
साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह
मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं
भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे
दिया।
लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह
अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल
उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम
लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे।
फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने
लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ
ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं
भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज
नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात
नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह
सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह
फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया।
राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर
फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने
सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन
लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है,
उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने
किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत
में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया। और
कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।
राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया।
पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य
हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया।
वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य
शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। यही इस संसार
की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम
करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे
उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह
दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है।
इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण
हैं। 

विनाश के कारण

व्याघ्रानां महति निद्रा
       सर्पानां च महद् भयम्।
ब्राह्मणानाम् अनेकत्वं
       तस्मात् जीवन्ति जन्तवः।।

अर्थात् ------

        शेरो को नींद बहुत आती है, सांपो को डर बहुत लगता है, और ब्राह्मणों में एकता नही है, इसीलिए सभी जीव जी रहे है ।

        यदि शेर अपनी नींद का त्याग कर दे, सांप अपना डर छोड़ कर निर्भय हो जाये, और ब्राह्मण अनेकत्व छोड़ कर एक हो जाये तो इस संसार में दूसरे जीवो का रहना कठिन हो जायेगा।

रविवार, 26 नवंबर 2017

अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम्

अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम् ..

*************
.. आदिलक्ष्मी ..
सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवि
चन्द्र सहोदरि हेममये .
मुनिगणमण्डित मोक्षप्रदायिनि
मञ्जुळभाषिणि वेदनुते ..
पङ्कजवासिनि देवसुपूजित
सद्गुणवर्षिणि शान्तियुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
आदिलक्ष्मि सदा पालय माम् .. १..

.. धान्यलक्ष्मी ..
अहिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि
वैदिकरूपिणि वेदमये .
क्षीरसमुद्भव मङ्गलरूपिणि
मन्त्रनिवासिनि मन्त्रनुते ..
मङ्गलदायिनि अम्बुजवासिनि
देवगणाश्रित पादयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
धान्यलक्ष्मि सदा पालय माम् .. २..

.. धैर्यलक्ष्मी ..
जयवरवर्णिनि वैष्णवि भार्गवि
मन्त्रस्वरूपिणि मन्त्रमये .
सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद
ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते ..
भवभयहारिणि पापविमोचनि
साधुजनाश्रित पादयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
धैर्यलक्ष्मि सदा पालय माम् .. ३..

.. गजलक्ष्मी ..
जयजय दुर्गतिनाशिनि कामिनि
सर्वफलप्रद शास्त्रमये .
रथगज तुरगपदादि समावृत
परिजनमण्डित लोकनुते ..
हरिहर ब्रह्म सुपूजित सेवित
तापनिवारिणि पादयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
गजलक्ष्मि रूपेण पालय माम् .. ४..

.. सन्तानलक्ष्मी ..
अहिखग वाहिनि मोहिनि चक्रिणि
रागविवर्धिनि ज्ञानमये .
गुणगणवारिधि लोकहितैषिणि
स्वरसप्त भूषित गाननुते ..
सकल सुरासुर देवमुनीश्वर
मानववन्दित पादयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
सन्तानलक्ष्मि त्वं पालय माम् .. ५..

.. विजयलक्ष्मी ..
जय कमलासनि सद्गतिदायिनि
ज्ञानविकासिनि गानमये .
अनुदिनमर्चित कुङ्कुमधूसर-
भूषित वासित वाद्यनुते ..
कनकधरास्तुति वैभव वन्दित
शङ्कर देशिक मान्य पदे .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
विजयलक्ष्मि सदा पालय माम् .. ६..

.. विद्यालक्ष्मी ..
प्रणत सुरेश्वरि भारति भार्गवि
शोकविनाशिनि रत्नमये .
मणिमयभूषित कर्णविभूषण
शान्तिसमावृत हास्यमुखे ..
नवनिधिदायिनि कलिमलहारिणि
कामित फलप्रद हस्तयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
विद्यालक्ष्मि सदा पालय माम् ..७..

.. धनलक्ष्मी ..
धिमिधिमि धिंधिमि धिंधिमि धिंधिमि
दुन्दुभि नाद सुपूर्णमये .
घुमघुम घुंघुम घुंघुम घुंघुम
शङ्खनिनाद सुवाद्यनुते ..
वेदपुराणेतिहास सुपूजित
वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते .
जयजय हे मधुसूदन कामिनि
धनलक्ष्मि रूपेण पालय माम् .. ८..

रामचरितमानस के 10 चमत्कारी दोहे, जो देते हैं हर तरह के वरदान

रामचरितमानस के  10 चमत्कारी दोहे, जो देते हैं हर तरह के वरदान : 



(1) मनोकामना पूर्ति एवं सर्वबाधा निवारण हेतु-



'कवन सो काज कठिन जग माही।

जो नहीं होइ तात तुम पाहीं।।'



(2) भय व संशय निवृ‍‍त्ति के लिए-



'रामकथा सुन्दर कर तारी।

संशय बिहग उड़व निहारी।।'



(3) अनजान स्थान पर भय के लिए मंत्र पढ़कर रक्षारेखा खींचे-



'मामभिरक्षय रघुकुल नायक।

धृतवर चाप रुचिर कर सायक।।'



 (4) भगवान राम की शरण प्राप्ति हेतु-



'सुनि प्रभु वचन हरष हनुमाना।

सरनागत बच्छल भगवाना।।'



(5) विपत्ति नाश के लिए-



'राजीव नयन धरें धनु सायक।

भगत बिपति भंजन सुखदायक।।'



(6) रोग तथा उपद्रवों की शांति हेतु-



'दैहिक दैविक भौतिक तापा।

राम राज नहिं काहुहिं ब्यापा।


 (7) आजीविका प्राप्ति या वृद्धि हेतु-



'बिस्व भरन पोषन कर जोई।

ताकर नाम भरत अस होई।।'



(8) विद्या प्राप्ति के लिए-



'गुरु गृह गए पढ़न रघुराई।

अल्पकाल विद्या सब आई।।'



(9) संपत्ति प्राप्ति के लिए-



'जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं।

सुख संपत्ति नानाविधि पावहिं।।'



(10) शत्रु नाश के लिए-



'बयरू न कर काहू सन कोई।

रामप्रताप विषमता खोई।।'

शनिवार, 25 नवंबर 2017

शरीर में तिलों का महत्व

आमतया तिल को शरीर के किसी खास अंग की खूबसूरती का परिचायक माना जाता है। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि शरीर के अलग-अलग अंगों पर तिल का मौजूद होना आपसे जुड़ी कई मजेदार बातें भी बताता है।
यदि गाल पर हो तिल: जिनके गाल पर तिल हो, ऐसे लोग बेहद गंभीर और पढ़ने-लिखने में तेज-तर्रार होते हैं। ऐसे लोगों को छोटी-मोटी खुशियां आसानी से आकर्षित नहीं कर सकतीं। ये जो ठान लेते हैं, वह करके मानते हैं।
कान पर तिल हो
कान पर तिल हो: जिनके कान पर तिल हो ऐसे लोग बेहद लकी होते हैं। उनके नसीब में धन-दौलत, घूमना-फिरना सब लिखा होता है।
ठुड्ढी पर हो तो
ठुड्ढी पर हो तो- जिनके ठुड्ढी पर तिल हो, वे भाग्य के बड़े धनी होते हैं। नाम, शोहरत या धन के लिए उन्हें बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती।
आंख के किनारे पर तिल
यदि किसी की आंख के किनारे पर तिल मौजूद हो तो समझ लीजिए कि आप उनपर आंख मूंदकर भरोसा कर सकते हैं। ऐसे व्यक्ति कभी किसी से धोखा नहीं कर सकते।
भौंह पर हो तिल
भौंह पर हो तिल- यदि दाहिने भौंह पर तिल मौजूद हो तो समझिए कि उनकी शादीशुदा लाइफ काफी अच्छी रहती है। ऐसे लोग हर क्षेत्र में सफल होते हैं। लेकिन जिनकी बाईं भौंह पर तिल हो तो वे सौभाग्य के मामले में कुछ खास धनी नहीं होते। काफी मेहनत के बाद भी भाग्य उनका साथ नहीं देता।
नाक पर हो तिल
नाक पर हो तिल- यदि किसी के नाक पर तिल हो तो समझ लीजिए कि आप उनपर आंख मूंदकर भरोसा कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा व्यक्ति एक अच्छा दोस्त साबित हो सकता है। बहुत मेहनती होते हैं
माथे पर हो तिल
माथे पर हो तिल- जिनके माथे के दाहिने साइड पर तिल होता है, ऐसे लोग धनी और सुखी होते हैं। किसी भी काम को करने की अद्भुत क्षमता होती है उनमें और सोचने-समझने की शक्ति भी कमाल की होती है। लेकिन जिनकी ललाट के बाएं साइड कोई तिल हो तो वैसे लोगों को पैसे की कीमत समझ नहीं आती। एक तरफ से पैसा आए तो दूसरी तरफ से उसे उड़ाने में ये कोई कसर नहीं छोड़ते। यदि यह तिल माथे के बीचोबीच हो तो ऐसे लोग जिंदगी में काफी सफल होते हैं।
गले पर हो तिल
गले पर हो तिल- जिनके गले या गर्दन पर तिल हों, ऐसे लोग स्वाभाव से काफी उथल-पुथल वाले होते हैं। पल में आप उन्हें खुश देखेंगे और पल भर में दुखी। वैसे ऐसे लोगों का करियर शुरुआत में भले ढीला-ढाले रहें, लेकिन बाद में सब स्मूथ और बेहतरीन रिजल्ट दे ही जाता है।
हाथ पर हो तिल
हाथ पर हो तिल- जिस व्यक्ति के हाथ पर तिल हो, उन्हें आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता।
उंगलियों पर तिल
उंगलियों पर तिल- जिनकी उंगलियों पर तिल हो, उनपर भूलकर भी विश्वास न करें। ऐसे लोग धोखेबाज किस्म के होते हैं।
कमर पर तिल
कमर पर तिल होना इस बात का संकेत करता है कि आपको उम्र भर कई परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। पेट पर तिल होने आपके यह बताता है कि आप उत्तम भोजन के इच्छुक है। जिसकी पीठ पर तिल होता है वह व्यक्ति अपने जीवन काल में कई यात्राएं करता है।
होंठ पर तिल हो
यदि किसी व्यक्ति के होंठ पर तिल हो तो उसका मन हमेशा वासना विषयक बातों में खोया रहता है। कान पर तिल होना अल्पायु यानी कम उम्र होने की निशानी है। ऐसे लोग अधिक उम्र तक जीवित नहीं रहते।
छाती पर तिल
छाती पर दाहिनी ओर तिल का होना शुभ होता है। ऐसी स्त्री पूर्ण अनुरागिनी होती है। पुरुष भाग्यशाली होते हैं। शिथिलता छाई रहती है। छाती पर बायीं ओर तिल रहने से भार्या पक्ष की ओर से असहयोग की संभावना बनी रहती है। छाती के मध्य का तिल सुखी जीवन दर्शाता है। यदि किसी स्त्री के हृदय पर तिल हो तो वह सौभाग्यवती होती है।
घुटनों पर तिल
दाहिने घुटने पर तिल होने से गृहस्थ जीवन सुखमय और बायें पर होने से दांपत्य जीवन दुखमय होता है।
कंधों पर तिल
दाएं कंधे पर तिल का होना दृढ़ता तथा बाएं कंधे पर तिल का होना तुनकमिजाजी का सूचक होता है।
पलकों पर तिल
आंख की पलकों पर तिल हो तो जातक संवेदनशील होता है। दायीं पलक पर तिल वाले बायीं वालों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होते हैं।
मुंह पर तिल
मुखमंडल के आसपास का तिल स्त्री तथा पुरुष दोनों के सुखी संपन्न एवं सज्जन होने के सूचक होते हैं। मुंह पर तिल व्यक्ति को भाग्य का धनी बनाता है। उसका जीवनसाथी सज्जन होता है।

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

सोलह संस्कार

गर्भाधान संस्कार ( Garbhaadhan Sanskar) – यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है।

पुंसवन संस्कार (Punsavana Sanskar) – गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार ( Simanta Sanskar) – यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।

जातकर्म संस्कार (Jaat-Karm Sansakar) – बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।

नामकरण संस्कार (Naamkaran Sanskar)- शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है।

निष्क्रमण संस्कार (Nishkraman Sanskar) – निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।

अन्नप्राशन संस्कार ( Annaprashana) – यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।

मुंडन संस्कार ( Mundan Sanskar)- जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।

विद्या आरंभ संस्कार ( Vidhya Arambha Sanskar )- इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है।

कर्णवेध संस्कार ( Karnavedh Sanskar) – इस संस्कार में कान छेदे जाते है । इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।

उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार (Yagyopaveet Sanskar) – उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।

वेदारंभ संस्कार (Vedaramba Sanskar) – इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।

केशांत संस्कार (Keshant Sanskar) – केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था।

समावर्तन संस्कार (Samavartan Sanskar)- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।

विवाह संस्कार ( Vivah Sanskar) – यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।

अत्येष्टी संस्कार (Antyesti Sanskar)- अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है।

बुधवार, 22 नवंबर 2017

श्रीआंजनेय द्वादशनामस्तोत्रम्

श्रीआंजनेय द्वादशनामस्तोत्रम् 



हनुमानंजनासूनुः वायुपुत्रो महाबलः । रामेष्टः फल्गुणसखः पिंगाक्षोऽमितविक्रमः ॥ १॥ उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशकः । लक्ष्मण प्राणदाताच दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ २॥ द्वादशैतानि नामानि कपींद्रस्य महात्मनः । स्वापकाले पठेन्नित्यं यात्राकाले विशेषतः । तस्यमृत्यु भयंनास्ति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ जो श्रीहनुमन्त उपासक प्रतिदिन उपरोक्त बारह नामों का पाठ करता है, उसकी सर्वत्र जय होती है, मंगल होता है, यात्राकाल में भय नहीं होता, अकालमृत्यु आदि नहीं होती है।

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

भगवान सूर्य के 21 नाम (स्तवराज)

                     Image - google

भगवान सूर्य ने श्रीकृष्ण पुत्र साम्ब को अपने 21 नाम बताये जो ‘स्तवराज’ के नाम से भी जाने जाते हैं–

ॐ विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रवि:।
लोकप्रकाशक: श्रीमान् लोकचक्षुर्महेश्वर:।।
लोकसाक्षी त्रिलोकेश: कर्ता हर्ता तमिस्त्रहा।
तपनस्तापनश्चैव शुचि: सप्ताश्ववाहन:।।
गभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृत:।। (भविष्यपुराण)

भगवान सूर्य के ये 21 नाम हैं–

विकर्तन (विपत्तियों को नष्ट करने वाला)
विवस्वान् (प्रकाशरूप)
मार्तण्ड
भास्कर
रवि
लोकप्रकाशक
श्रीमान्
लोकचक्षु
ग्रहेश्वर
लोकसाक्षी
त्रिलोकेश
कर्ता
हर्ता
तमिस्त्रहा (अन्धकार को नष्ट करने वाले)
तपन
तापन
शुचि (पवित्रतम)
सप्ताश्ववाहन (जिनका वाहन सात घोड़ों वाला रथ है)
गभस्तिहस्त (किरणें ही जिनके हाथ हैं)
ब्रह्मा
सर्वदेवनमस्कृत।

पूजा-पाठ में इतनी सावधानी जरूर करें

1. घर में सेवा पूजा करने वाले जन भगवान के एक से अधिक स्वरूप की सेवा पूजा कर सकते हैं ।

2. घर में दो शिवलिंग की पूजा ना करें तथा पूजा स्थान पर तीन गणेश जी नहीं रखें।

3. शालिग्राम जी की बटिया जितनी छोटी हो उतनी ज्यादा फलदायक है।

4. कुशा पवित्री के अभाव में स्वर्ण की अंगूठी धारण करके भी देव कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।

5. मंगल कार्यो में कुमकुम का तिलक प्रशस्त माना जाता हैं।

6.  पूजा में टूटे हुए अक्षत के टूकड़े नहीं चढ़ाना चाहिए।

7. पानी, दूध, दही, घी आदि में अंगुली नही डालना चाहिए। इन्हें लोटा, चम्मच आदि से लेना चाहिए क्योंकि नख स्पर्श से वस्तु अपवित्र हो जाती है अतः यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं।

8. तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए क्योंकि वह मदिरा समान हो जाते हैं।

9. आचमन तीन बार करने का विधान हैं। इससे त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश प्रसन्न होते हैं।

10.  दाहिने कान का स्पर्श करने पर भी आचमन के तुल्य माना जाता है।

11. कुशा के अग्रभाग से दवताओं पर जल नहीं छिड़के।

12. देवताओं को अंगूठे से नहीं मले। शास्त्चकले पर से चंदन कभी नहीं लगावें। उसे छोटी कटोरी या बांयी हथेली पर रखकर लगावें।

15. पुष्पों को बाल्टी, लोटा, जल में डालकर फिर निकालकर नहीं चढ़ाना चाहिए।

16. श्री भगवान के चरणों की चार बार, नाभि की दो बार, मुख की एक बार या तीन बार आरती उतारकर समस्त अंगों की सात बार आरती उतारें।

17. श्री भगवान की आरती समयानुसार जो घंटा, नगारा, झांझर, थाली, घड़ावल, शंख इत्यादि बजते हैं उनकी ध्वनि से आसपास के वायुमण्डल के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। नाद ब्रह्मा होता हैं। नाद के समय एक स्वर से जो प्रतिध्वनि होती हैं उसमे असीम शक्ति होती हैं।

18. लोहे के पात्र से श्री भगवान को नैवेद्य अपर्ण नहीं करें।

19. हवन में अग्नि प्रज्वलित होने पर ही आहुति दें।

20. समिधा अंगुठे से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए तथा दस अंगुल लम्बी होनी चाहिए।

21. छाल रहित या कीड़े लगी हुई समिधा यज्ञ-कार्य में वर्जित हैं।

22.  पंखे आदि से कभी हवन की अग्नि प्रज्वलित नहीं करें।

23. मेरूहीन माला या मेरू का लंघन करके माला नहीं जपनी चाहिए।

24.  माला, रूद्राक्ष, तुलसी एवं चंदन की उत्तम मानी गई हैं।

25. माला को अनामिका (तीसरी अंगुली) पर रखकर मध्यमा (दूसरी अंगुली) से चलाना चाहिए।

26.जप करते समय सिर पर हाथ या वस्त्र नहीं रखें।

27. तिलक कराते समय सिर पर हाथ या वस्त्र रखना चाहिए।

28. माला का पूजन करके ही जप करना चाहिए।

29. ब्राह्मण को या द्विजाती को स्नान करके तिलक अवश्य लगाना चाहिए।

30. जप करते हुए जल में स्थित व्यक्ति, दौड़ते हुए, शमशान से लौटते हुए व्यक्ति को नमस्कार करना वर्जित हैं।

31.  बिना नमस्कार किए आशीर्वाद देना वर्जित हैं।

32.  एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए।

33.  सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए।

34. बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।

35. जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।

36. जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए।

37. जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।

38. संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।

39. दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।

40. यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।

41. शनिवार को पीपल पर जल चढ़ाना चाहिए। पीपल की सात परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा करना श्रेष्ठ है, किन्तु रविवार को परिक्रमा नहीं करनी चाहिए।

42. कूमड़ा-मतीरा-नारियल आदि को स्त्रियां नहीं तोड़े या चाकू आदि से नहीं काटें। यह उत्तम नही माना गया हैं।

43. भोजन प्रसाद को लाघंना नहीं चाहिए।

44.  देव प्रतिमा देखकर अवश्य प्रणाम करें।

45. किसी को भी कोई वस्तु या दान-दक्षिणा दाहिने हाथ से देना चाहिए।

46. एकादशी, अमावस्या, कृृष्ण चतुर्दशी, पूर्णिमा व्रत तथा श्राद्ध के दिन क्षौर-कर्म (दाढ़ी) नहीं बनाना चाहिए ।

47. बिना यज्ञोपवित या शिखा बंधन के जो भी कार्य, कर्म किया जाता है, वह निष्फल हो जाता हैं।

48. यदि शिखा नहीं हो तो स्थान को स्पर्श कर लेना चाहिए।

49. शिवजी की जलहारी उत्तराभिमुख रखें ।

50. शंकर जी को बिल्वपत्र, विष्णु जी को तुलसी, गणेश जी को दूर्वा, लक्ष्मी जी को कमल प्रिय हैं।

51. शंकर जी को शिवरात्रि के सिवाय कुंुकुम नहीं चढ़ती।

52. शिवजी को कुंद, विष्णु जी को धतूरा, देवी जी  को आक तथा मदार और सूर्य भगवानको तगर के फूल नहीं चढ़ावे।

53 .अक्षत देवताओं को तीन बार तथा पितरों को एक बार धोकर चढ़ावंे।

54. नये बिल्व पत्र नहीं मिले तो चढ़ाये हुए बिल्व पत्र धोकर फिर चढ़ाए जा सकते हैं।

55. विष्णु भगवान को चांवल, गणेश जी  को तुलसी, दुर्गा जी और सूर्य नारायण  को बिल्व पत्र नहीं चढ़ावें।

56. पत्र-पुष्प-फल का मुख नीचे करके नहीं चढ़ावें, जैसे उत्पन्न होते हों वैसे ही चढ़ावें।

57.  किंतु बिल्वपत्र उलटा करके डंडी तोड़कर शंकर पर चढ़ावें।

58. पान की डंडी का अग्रभाग तोड़कर चढ़ावें।

59. सड़ा हुआ पान या पुष्प नहीं चढ़ावे।

60. गणेश को तुलसी भाद्र शुक्ल चतुर्थी को चढ़ती हैं।

61. पांच रात्रि तक कमल का फूल बासी नहीं होता है।

62. दस रात्रि तक तुलसी पत्र बासी नहीं होते हैं।

63. सभी धार्मिक कार्यो में पत्नी को दाहिने भाग में बिठाकर धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करनी चाहिए।

64. पूजन करनेवाला ललाट पर तिलक लगाकर ही पूजा करें।

65. पूर्वाभिमुख बैठकर अपने बांयी ओर घंटा, धूप तथा दाहिनी ओर शंख, जलपात्र एवं पूजन सामग्री रखें।

66.  घी का दीपक अपने बांयी ओर तथा देवता को दाहिने ओर रखें एवं चांवल पर दीपक रखकर प्रज्वलित करें। 

सोमवार, 20 नवंबर 2017

बन्दंउ श्री राधा चरण..........

बन्दंउ श्री राधा चरण श्री राधा शुभनाम |
कृष्णप्रिया श्री प्रियाकांत श्री वृन्दावनधाम||
बन्दउ गोपसुता चरन बन्दउ श्री गिरिराज|
बन्दउ ब्रजरजकनविमल बन्द रसिक समाज||
बन्दउ श्री चैतन्य प्रभु बल्लभ अरू हरिदास|
मीरा सूर कबीर सहित बन्दउं तुलसीदास||

रविवार, 19 नवंबर 2017

रम्भा - शुक संवाद


रंभा रुपसुंदरी है और शुकदेवजी मुनि शिरोमणि ! रंभा यौवन और शृंगार का वर्णन करते नहीं थकती, तो शुकदेवजी ईश्वरानुसंधान का । दोनों के बीच हुआ संवाद अति सुंदर है;



रम्भा:

मार्गे मार्गे नूतनं चूतखण्डं

खण्डे खण्डे कोकिलानां विरावः ।

रावे रावे मानिनीमानभंगो

भंगे भंगे मन्मथः पञ्चबाणः ॥



हे मुनि ! हर मार्ग में नयी मंजरी शोभायमान हैं, हर मंजरी पर कोयल सुमधुर टेहुक रही हैं । टेहका सुनकर मानिनी स्त्रीयों का गर्व दूर होता है, और गर्व नष्ट होते हि पाँच बाणों को धारण करनेवाले कामदेव मन को बेचेन बनाते हैं ।


शुक:

मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः

सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः ।

कीर्तौ कीर्तौ नस्तदाकारवृत्तिः

वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्द भासः ॥


हे रंभा ! हर मार्ग में साधुजनों का संग होता है, उन हर एक सत्संग में भगवान कृष्णचंद्र के गुणगान सुनने मिलते हैं । हर गुणगाण सुनते वक्त हमारी चित्तवृत्ति भगवान के ध्यान में लीन होती है, और हर वक्त सच्चिदानंद का आभास होता है ।


तीर्थे तीर्थे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं

वृन्दे वृन्दे तत्त्व चिन्तानुवादः ।

वादे वादे जायते तत्त्वबोधो

बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः ॥

हर तीर्थ में पवित्र ब्राह्मणों का समुदाय विराजमान है । उस समुदाय में तत्त्व का विचार हुआ करता है । उन विचारों में तत्त्व का ज्ञान होता है, और उस ज्ञान में भगवान चंद्रशेखर शिवजी का भास होता है ।


रम्भा:

गेहे गेहे जङ्गमा हेमवल्ली

वल्यां वल्यां पार्वणं चन्द्रबिम्बम् ।

बिम्बे बिम्बे दृश्यते मीन युग्मं

युग्मे युग्मे पञ्चबाणप्रचारः ॥


हे मुनिवर ! हर घर में घूमती फिरती सोने की लता जैसी ललनाओं के मुख पूर्णिमा के चंद्र जैसे सुंदर हैं । उन मुखचंद्रो में नयनरुप दो मछलीयाँ दिख रही है, और उन मीनरुप नयनों में कामदेव स्वतंत्र घूम रहा है ।



शुकः

स्थाने स्थाने दृश्यते रत्नवेदी

वेद्यां वेद्यां सिद्धगन्धर्वगोष्ठी ।

गोष्ठयां गोष्ठयां किन्नरद्वन्द्वगीतं

गीते गीते गीयते रामचन्द्रः ॥


हे रंभा ! हर स्थान में रत्न की वेदी दिख रही है, हर वेदी पर सिद्ध और गंधर्वों की सभा होती है । उन सभाओं में किन्नर गण किन्नरीयों के साथ गाना गा रहे हैं । हर गाने में भगवान रामचंद्र की कीर्ति गायी जा रही है ।


रम्भा:

पीनस्तनी चन्दनचर्चिताङ्गी

विलोलनेत्रा तरुणी सुशीला ।

नाऽऽलिङ्गिता प्रेमभरेण येन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिवर ! सुंदर स्तनवाली, शरीर पर चंदन का लेप की हुई, चंचल आँखोंवाली सुंदर युवती का, प्रेम से जिस पुरुष ने आलिंगन किया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।


शुक:

अचिन्त्य रूपो भगवान्निरञ्जनो

विश्वम्भरो ज्ञानमयश्चिदात्मा ।

विशोधितो येन ह्रदि क्षणं नो

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


जिसके रुप का चिंतन नहीं हो सकता, जो निरंजन, विश्व का पालक है, जो ज्ञान से परिपूर्ण है, ऐसे चित्स्वरुप परब्रह्म का ध्यान जिसने स्वयं के हृदय में किया नहीं है, उसका जन्म व्यर्थ गया ।


रम्भाः

कामातुरा पूर्णशशांक वक्त्रा

बिम्बाधरा कोमलनाल गौरा ।

नाऽऽलिङ्गिता स्वे ह्र्दये भुजाभ्यां

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनि ! भोग की ईच्छा से व्याकुल, परिपूर्ण चंद्र जैसे मुखवाली, बिंबाधरा, कोमल कमल के नाल जैसी, गौर वर्णी कामिनी जिसने छाती से नहीं लगायी, उसका जीवन व्यर्थ गया ।



शुक:

चतुर्भुजः चक्रधरो गदायुधः

पीताम्बरः कौस्तुभमालया लसन् ।

ध्याने धृतो येन न बोधकाले

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! चक्र और गदा जिसने हाथ में लिये हैं, ऐसे चार हाथवाले, पीतांबर पहेने हुए, कौस्तुभमणि की माला से विभूषित भगवान का ध्यान, जिसने जाग्रत अवस्था में किया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।


रम्भा:

विचित्रवेषा नवयौवनाढ्या

लवङ्गकर्पूर सुवासिदेहा ।

नाऽऽलिङ्गिता येन दृढं भुजाभ्यां

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिराज ! अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषणों से सज्ज, लवंग कर्पूर इत्यादि सुगंध से सुवासित शरीरवाली नवयुवती को, जिसने अपने दो हाथों से आलिंगन दिया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।


शुक:

नारायणः पङ्कजलोचनः प्रभुः

केयूरवान् कुण्डल मण्डिताननः ।

भक्त्या स्तुतो येन न शुद्धचेतसा

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


कमल जैसे नेत्रवाले, केयूर पर सवार, कुंडल से सुशोभित मुखवाले, संसार के स्वामी भगवान नारायण की स्तुति जिसने एकाग्रचित्त होकर, भक्तिपूर्वक की नहीं, उसका जीवन व्यर्थ गया ।



रम्भा:

प्रियवंदा चम्पकहेमवर्णा

हारावलीमण्डितनाभिदेशा ।

सम्भोगशीला रमिता न येन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिवर ! प्रिय बोलनेवाली, चंपक और सुवर्ण के रंगवाली, हार का झुमका नाभि पर लटक रहा हो ऐसी, स्वभाव से रमणशील ऐसी स्त्री से जिसने भोग विलास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।


शुकः

श्रीवत्सलक्षाङ्कितह्रत्प्रदेशः

तार्क्ष्यध्वजः शार्ङ्गधरः परात्मा ।

 सेवितो येन नृजन्मनाऽपि

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

जिस प्राणी ने मनुष्य शरीर पाकर भी, भृगुलता से विभूषित ह्रदयवाले, धजा में गरुड वाले, और शाङ्ग नामके धनुष्य को धारण करनेवाले, परमात्मा की सेवा न की, उसका जन्म व्यर्थ गया ।



रम्भा:

चलत्कटी नूपुरमञ्जुघोषा

नासाग्रमुक्ता नयनाभिरामा ।

न सेविता येन भुजङ्गवेणी

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! चंचल कमरवाली, नूपुर से मधुर शब्द करनेवाली, नाक में मोती पहनी हुई, सुंदर नयनों से सुशोभित, सर्प के जैसा अंबोडा जिसने धारण किया है, ऐसी सुंदरी का जिसने सेवन नहीं किया, उसका जन्म व्यर्थ गया


शुक:

विश्वम्भरो ज्ञानमयः परेशः

जगन्मयोऽनन्तगुण प्रकाशी ।

आराधितो नापि वृतो न योगे

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे रंभा ! संसार का पालन करनेवाले, ज्ञान से परिपूर्ण, संसार स्वरुप, अनंत गुणों को प्रकट करनेवाले भगवान की आराधना जिसने नहीं की, और योग में उनका ध्यान जिसने नहीं किया, उसका जन्म व्यर्थ गया ।



रम्भा:

ताम्बूलरागैः कुसुम प्रकर्षैः

सुगन्धितैलेन च वासितायाः ।

 मर्दितौ येन कुचौ निशायां

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनि ! सुगंधी पान, उत्तम फूल, सुगंधी तेल, और अन्य पदार्थों से सुवासित कायावाली कामिनी के कुच का मर्दन, रात को जिसने नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।


शुकः

ब्रह्मादि देवोऽखिल विश्वदेवो

मोक्षप्रदोऽतीतगुणः प्रशान्तः ।

धृतो न योगेन हृदि स्वकीये

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


ब्रह्मादि देवों के भी देव, संपूर्ण संसार के स्वामी, मोक्षदाता, निर्गुण, अत्यंत शांत ऐसे भगबान का ध्यान जिसने योग द्वारा हृदय में नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।



रम्भाः

कस्तूरिकाकुंकुम चन्दनैश्च

सुचर्चिता याऽगुरु धूपिकाम्बरा ।

उरः स्थले नो लुठिता निशायां

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

कस्तूरी और केसर से युक्त चंदन का लेप जिसने किया है, अगरु के गंध से सुवासित वस्त्र धारण की हुई तरुणी, रात को जिस पुरुष की छाती पर लेटी नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।



शुकः

आनन्दरुपो निजबोधरुपः

दिव्यस्वरूपो बहुनामरपः

तपः समाधौ मिलितो न येन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे रंभा ! आनंद से परिपूर्ण रुपवाले, दिव्य शरीर को धारण करनेवाले, जिनके अनेक नाम और रुप हैं ऐसे भगवान के दर्शन जिसने समाधि में नहीं किये, उसका जीवन व्यर्थ गया ।


रम्भा:

कठोर पीनस्तन भारनम्रा

सुमध्यमा चञ्जलखञ्जनाक्षी ।

हेमन्तकाले रमिता न येन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


जिस पुरुष ने हेमंत ऋतु में, कठोर और भरे हुए स्तन के भार से झुकी हुई, पतली कमरवाली, चंचल और खंजर से नैनोंवाली स्त्री का संभोग नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।


शुकः

तपोमयो ज्ञानमयो विजन्मा

विद्यामयो योगमयः परात्मा ।

चित्ते धृतो नो तपसि स्थितेन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! तपोमय, ज्ञानमय, जन्मरहित, विद्यामय, योगमय परमात्मा को, तपस्या में लीन होकर जिसने चित्त में धारण नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।



रम्भाः

सुलक्षणा मानवती गुणाढ्या

प्रसन्नवक्त्रा मृदुभाषिणी या ।

नो चुम्बिता येन सुनाभिदेशे

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे मुनिवर ! सद्लक्षण और गुणों से युक्त, प्रसन्न मुखवाली, मधुर बोलनेवाली, मानिनी सुंदरी के नाभि का जिसने चुंबन नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।


शुकः

पल्यार्जितं सर्वसुखं विनश्वरं

दुःखप्रदं कामिनिभोग सेवितम् ।

एवं विदित्वा न धृतो हि योगो

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे रंभा ! जिस इन्सान ने, नारी के सेवन से उत्पन्न सब सुख नाशवंत, और दुःखदायक है ऐसा जानने के बावजुद जिसने योगाभ्यास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।

रम्भा:

विशालवेणी नयनाभिरामा

कन्दर्प सम्पूर्ण निधानरुपा ।

भुक्ता न येनैव वसन्तकाले

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


जिस पुरुष ने वसंत ऋतु में लंबे बालवाली, सुंदर नेत्रों से सुशोभित कामदेव के समस्त भंडाररुप ऐसी कामिनी के साथ विहार न किया हो, उसका जीवन व्यर्थ गया ।


शुकः

मायाकरण्डी नरकस्य हण्डी

तपोविखण्डी सुकृतस्य भण्डी ।

नृणां विखण्डी चिरसेविता चेत्

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे रंभा ! नारी माया की पटारी, नर्क की हंडी, तपस्या का विनाश करनेवाली, पुण्य का नाश करनेवाली, पुरुष की घातक है; इस लिए जिस पुरुष ने अधिक समय तक उसका सेवन किया है, उसका जीवन व्यर्थ गया ।



रम्भाः

समस्तशृङ्गार विनोदशीला

लीलावती कोकिल कण्ठमाला ।

विलासिता नो नवयौवनेन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनि ! जिस पुरुष ने अपनी युवानी में, समस्त शृंगार और मनोविवाद करने में चतुर और अनेक लीलाओं में कुशल और कोकिलकंठी कामिनी के साथ विलास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।


शुक:

समाधि ह्रंत्री जनमोहयित्री

धर्मे कुमन्त्री कपटस्य तन्त्री ।

सत्कर्म हन्त्री कलिता च येन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


समाधि का नाश करनेवाली, लोगों को मोहित करनेवाली, धर्म विनाशिनी, कपट की वीणा, सत्कर्मो का नाश करनेवाली नारी का जिसने सेवन किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।


रम्भा:

बिल्वस्तनी कोमलिता सुशीला

सुगन्धयुक्ता ललिता च गौरी ।

नाऽऽश्लेषिता येन च कण्ठदेशे

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे मुनिराज ! बिल्वफल जैसे कठिन स्तन है, अत्यंत कोमल जिसका शरीर है, जिसका स्वभाव प्रिय है, ऐसी सुवासित केशवाली, ललचानेवाली गौर युवती को जिसने आलिंगन नहीं दिया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।


शुक:

चिन्ताव्यथादुःखमया सदोषा

संसारपाशा जनमोहकर्त्री ।

सन्तापकोशा भजिता च येन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


चिंता, पीडा, और अनेक प्रकार के दुःख से परिपूर्ण, दोष से भरी हुई, संसार में बंधनरुप, और संताप का खजाना, ऐसी नारी का जिसने सेवन किया उसका जन्म व्यर्थ गया ।



रम्भा:

आनन्द कन्दर्पनिधान रुपा

झणत्क्वणत्कं कण नूपुराढ्या ।

नाऽस्वादिता येन सुधाधरस्था

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिवर ! आनंद और कामदेव के खजाने समान, खनकते कंगन और नूपुर पहेनी हुई कामिनी के होठ पर जिसने चुंबन किया नहीं, उस पुरुष का जीवन व्यर्थ है ।


शुक:

कापट्यवेषा जनवञ्चिका सा

विण्मूत्र दुर्गन्धदरी दुराशा ।

संसेविता येन सदा मलाढ्या

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


छल-कपट करनेवाली, लोगों को बनानेवाली, विष्टा-मूत्र और दुर्गंध की गुफारुप, दुराशाओं से परिपूर्ण, अनेक प्रकार से मल से भरी हुई, ऐसी स्त्री का सेवन जिसने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।


रम्भाः

चन्द्रानना सुन्दरगौरवर्णा

व्यक्तस्तनीभोगविलास दक्षा ।

नाऽऽन्दोलिता वै शयनेषु येन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे मुनिवर ! चंद्र जैसे मुखवाली, सुंदर और गौर वर्णवाली, जिसकी छाती पर स्तन व्यक्त हुए हैं ऐसी, संभोग और विलास में चतुर, ऐसी स्त्री को बिस्तर में जिसने आलिंगन नहीं दिया, उसका जीवन व्यर्थ है ।



शुक:

उन्मत्तवेषा मदिरासु मत्ता

पापप्रदा लोकविडम्बनीया ।

योगच्छला येन विभाजिता च

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! पागल जैसा विचित्र वेष धारण की हुई, मदिरा पीकर मस्त बनी हुई, पाप देनेवाली, लोगों को बनानेवाली, और योगीयों के साथ कपट करनेवाली स्त्री का सेवन जिसने किया है, उसका जीवन व्यर्थ है ।



रम्भा:

आनन्दरुपा तरुणी नगाङ्गी

सद्धर्मसंसाधन सृष्टिरुपा ।

कामार्थदा यस्य गृहे न नारी

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे मुनि ! आनंदरुप, नतांगी युवती, उत्तम धर्म के पालन में और पुत्रादि पैदा करने में सहायक, इंद्रियों को संतोष देनेवाली नारी जिस पुरुष के घर में न हो, उसका जीवन व्यर्थ है ।


शुक:

अशौचदेहा पतित स्वभावा

वपुःप्रगल्भा बललोभशीला ।

मृषा वदन्ती कलिता च येन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥



अशुद्ध शरीरवाली, पतित स्वभाववाली, प्रगल्भ देहवाली, साहस और लोभ करानेवाली, झूठ बोलनेवाली, ऐसी नारी का विश्वास जिसने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।

रम्भा:

क्षामोदरी हंसगतिः प्रमत्ता

सौंदर्यसौभाग्यवती प्रलोला ।

न पीडिता येन रतौ यथेच्छं

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे मुनिवर ! पतली कमरवाली, हंस की तरह चलनेवाली, प्रमत्त सुंदर, सौभाग्यवती , चंचल स्वभाववाली स्त्री को रतिक्रीडा के वक्त अनुकुलतया पीडित की नहीं है, उसका जीवन व्यर्थ है ।



शुक:

संसारसद्भावन भक्तिहीना

चित्तस्य चौरा हृदि निर्दया च ।

विहाय योगं कलिता च येन

वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! संसार की उत्तम भावनाओं को प्रकट करनेवाले प्रेम से रहित पुरुषों के चित्त को चोरनेवाली, ह्रदय में दया न रखनेवाली, ऐसी स्त्री का आलिंगन, योगाभ्यास छोडकर जिस पुरुष ने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।


रम्भा:

सुगन्धैः सुपुष्पैः सुशय्या सुकान्ता

वसन्तो ऋतुः पूर्णिमा पूर्णचन्द्रः ।

यदा नास्ति पुंस्त्वं नरस्य प्रभूतं

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥

हे मुनिवर ! सुंदर, सुगंधित पुष्पों से सुशोभित शय्या हो, मनोनुकूल सुंदर स्त्री हो, वसंत ऋतु हो, पूर्णिमा के चंद्र की चांदनी खीली हो, पर यदि पुरुष में परिपूर्ण पुरुषत्त्व न हो तो उसका जीवन व्यर्थ है ।


शुक:

सुरुपं शरीरं नवीनं कलत्रं

धनं मेरुतुल्यं वचश्चारुचित्रम् ।

हरस्याङ्घि युग्मे मनश्चेदलग्नं

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
हे रंभा ! सुंदर शरीर हो, युवा पत्नी हो, मेरु पर्वत समान धन हो, मन को लुभानेवाली मधुर वाणी हो, पर यदि भगवान शिवजी के चरणकमल में मन न लगे, तो जीवन व्यर्थ है ।

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...