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मोक्षदा एकादशी

                 मोक्षदा एकादशी युधिष्ठिर बोले : देवदेवेश्वर ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है? स्वामिन् ! यह सब यथार्थ रुप से बताइये । श्रीकृष्ण ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का वर्णन करुँगा, जिसके श्रवणमात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । उसका नाम ‘मोक्षदा एकादशी’ है जो सब पापों का अपहरण करनेवाली है । राजन् ! उस दिन यत्नपूर्वक तुलसी की मंजरी तथा धूप दीपादि से भगवान दामोदर का पूजन करना चाहिए । पूर्वाक्त विधि से ही दशमी और एकादशी के नियम का पालन करना उचित है । मोक्षदा एकादशी बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली है । उस दिन रात्रि में मेरी प्रसन्न्ता के लिए नृत्य, गीत और स्तुति के द्वारा जागरण करना चाहिए । जिसके पितर पापवश नीच योनि में पड़े हों, वे इस एकादशी का व्रत करके इसका पुण्यदान अपने पितरों को करें तो पितर मोक्ष को प्राप्त होते हैं । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । पूर्वकाल की बात है, वैष्णवों से विभूषित परम रमणीय चम्पक नगर में वैखानस नामक राजा रहते थे । वे अपनी प्

॥नवदुर्गा स्तोत्रम्॥

               ॥नवदुर्गा स्तोत्रम्॥ ॥देवी शैलपुत्री॥ वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्। वृषारूढाम् शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्॥१॥ ॥देवी ब्रह्मचारिणी॥ दधाना करपद्माभ्यामक्षमाला कमण्डलू। देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥२॥ ॥देवी चन्द्रघण्टा॥ पिण्डजप्रवरारूढा चन्दकोपास्त्रकैर्युता। प्रसादं तनुते मह्यम् चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥३॥ ॥देवी कूष्माण्डा॥ सुरासम्पूर्णकलशम् रुधिराप्लुतमेव च। दधाना हस्तपद्माभ्याम् कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥४॥ ॥देवी स्कन्दमाता॥ सिंहासनगता नित्यम् पद्माश्रितकरद्वया। शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥५॥ ॥देवी कात्यायनी॥ चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना। कात्यायनी शुभं दद्यादेवि दानवघातिनी॥६॥ ॥देवी कालरात्रि॥ एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता। लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलभ्यक्तशरीरिणी॥ वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा। वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥७॥ ॥देवी महागौरी॥ श्र्वेते वृषे समारूढा श्र्वेताम्बरधरा शुचि:। महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥८॥ ॥देवी सिद्धिदात्रि॥ सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि। सेव्यमाना सदा

ll तुलसी की महिमा ll

               ll तुलसी की महिमा  ll  तुलसी की महिमा बताते हुए भगवान शिव नारदजी से कहते हैं-  पत्रं पुष्पं फलं मूलं शाखा त्वक् स्कन्धसंज्ञितम्।  तुलसी संभवं सर्वं पावनं मृत्तिकादिकम्।।  अर्थात् ‘तुलसी का पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पावन हैं।’  प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार देव और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका, उसी से ‘‘तुलसी’’ की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मदेव ने उसे भगवान विष्णु को सौंपा। लंका में विभीषण के घर तुलसी का पौधा देखकर हनुमान अति हर्षित हुये थे। इसकी महिमा के वर्णन में कहा गया है,  नामायुध अंकित गृह शोभा वरिन न जाई।  नव तुलसिका वृन्द तहंदेखि हरषि कपिराई।  तुलसी की आराधना करते हुए ग्रंथ लिखते हैं —–  महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्य वर्धिनी ।  आधिव्याधि हरिर्नित्यं तुलेसित्व नमोस्तुते॥  हे तुलसी! आप सम्पूर्ण सौभाग्यों को बढ़ाने वाली हैं, सदा आधि-व्याधि को मिटाती हैं, आपकोनमस्कार है। अकाल मृत्यु हरण सर्व व्याधि विनाशनम्॥ तुलसी को अकाल मृत्यु हरण करने वाली और सम्पूर्ण रोगों को दूर करने वाली माना गया है।  रोपनात् पालन

तुलसी स्तोत्रम्

         तुलसी स्तोत्रम्  जगद्धात्रि नमस्तुभ्यं विष्णोश्च प्रियवल्लभे। यतो ब्रह्मादयो देवाः सृष्टिस्थित्यन्तकारिणः ॥1॥ नमस्तुलसि कल्याणि नमो विष्णुप्रिये शुभे। नमो मोक्षप्रदे देवि नमः सम्पत्प्रदायिके ॥2॥ तुलसी पातु मां नित्यं सर्वापद्भ्योऽपि सर्वदा । कीर्तितापि स्मृता वापि पवित्रयति मानवम् ॥3॥ नमामि शिरसा देवीं तुलसीं विलसत्तनुम् । यां दृष्ट्वा पापिनो मर्त्या मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषात् ॥4॥ तुलस्या रक्षितं सर्वं जगदेतच्चराचरम् । या विनिहन्ति पापानि दृष्ट्वा वा पापिभिर्नरैः ॥5॥ नमस्तुलस्यतितरां यस्यै बद्ध्वाजलिं कलौ । कलयन्ति सुखं सर्वं स्त्रियो वैश्यास्तथाऽपरे ॥6॥ तुलस्या नापरं किञ्चिद् दैवतं जगतीतले । यथा पवित्रितो लोको विष्णुसङ्गेन वैष्णवः ॥7॥ तुलस्याः पल्लवं विष्णोः शिरस्यारोपितं कलौ । आरोपयति सर्वाणि श्रेयांसि वरमस्तके ॥8॥ तुलस्यां सकला देवा वसन्ति सततं यतः । अतस्तामर्चयेल्लोके सर्वान् देवान् समर्चयन् ॥9॥ नमस्तुलसि सर्वज्ञे पुरुषोत्तमवल्लभे । पाहि मां सर्वपापेभ्यः सर्वसम्पत्प्रदायिके ॥10॥ इति स्तोत्रं पुरा गीतं पुण्डरीकेण धीमता । विष्णुमर्चयता नित्यं

चाय के साथ कोई भी नमकीन चीज नहीं खानी चाहिए।

चाय के साथ कोई भी नमकीन चीज नहीं खानी चाहिए। दूध और नमक का संयोग सफ़ेद दाग या किसी भी स्किन डीजीज को जन्म दे सकता है, बाल असमय सफ़ेद होना या बाल झड़ना भी स्किन डिजीज ही है। सर्व प्रथम यह जान लीजिये कि कोई भी आयुर्वेदिक दवा खाली पेट खाई जाती है और दवा खाने से आधे घंटे के अंदर कुछ खाना अति आवश्यक होता है, नहीं तो दवा की गरमी आपको बेचैन कर देगी। दूध या दूध की बनी किसी भी चीज के साथ दही, नमक, इमली, खरबूजा, बेल, नारियल, मूली, तोरई,तिल, तेल, कुल्थी, सत्तू, खटाई नहीं खानी चाहिए। दही के साथ खरबूजा, पनीर, दूध और खीर नहीं खानी चाहिए। गर्म जल के साथ शहद कभी नही लेना चाहिए। ठंडे जल के साथ घी, तेल, खरबूज, अमरूद, ककड़ी, खीरा, जामुन, मूंगफली कभी नहीं। शहद के साथ मूली, अंगूर, गरम खाद्य या गर्म जल कभी नहीं। खीर के साथ सत्तू, शराब, खटाई, खिचड़ी, कटहल कभी नहीं। घी के साथ बराबर मात्रा में शहद भूल कर भी नहीं खाना चाहिए, ये तुरंत जहर का काम करेगा। तरबूज के साथ पुदीना या ठंडा पानी कभी नहीं। चावल के साथ सिरका कभी नहीं। चाय के साथ ककड़ी खीरा भी कभी मत खाएं। खरबूज के साथ

*तिलक*

                    *तिलक* वैदिक सभ्यता से अवगत लोगों को पता ही होगा कि उसके अनुयायी माथे पर कुछ चिन्ह लगाते हैं, जिसे तिलक कहा जाता है। तिलक अनेक प्रकार के होते हैं, कुछ राख द्वारा बनाये हुए, कुछ मिट्टी से, कुछ कुम-कुम आदि से। माथे पर राख द्वारा चिन्हित तीन आड़ी रेखाऐं दर्शाती हैं की लगाने वाला शिव-भक्त है। नाक पर तिकोन और उसके ऊपर “V” चिन्ह यह दर्शाता है कि लगाने वाला विष्णु-भक्त है। यह चिन्ह भगवान विष्णु के चरणों का प्रतीक है, जो विष्णु मन्त्रों का उच्चारण करते हुए लगाया जाता है। तिलक लगाने के अनेक कारण एवं अर्थ हैं परन्तु यहाँ हम मुख्यतः वैष्णवों द्वारा लगाये जाने वाले गोपी-चन्दन तिलक के बारे में चर्चा करेंगे । *गोपी-चन्दन* (मिट्टी) द्वारका से कुछ ही दूर एक स्थान पर पायी जाती है। इसका इतिहास यह है कि जब भगवान इस धरा-धाम से अपनी लीलाएं समाप्त करके वापस गोलोक गए तो गोपियों ने इसी स्थान पर एक नदी में प्रविष्ट होकर अपने शरीर त्यागे। वैष्णव इसी मिटटी को गीला करके विष्णु-नामों का उच्चारण करते हुए, अपने माथे, भुजाओं, वक्ष-स्थल और पीठ पर इसे लगते हैं। तिलक हमारे शरीर को एक मंदिर की

कर्मफल का विधान

          कर्मफल का विधान ​​ भगवान ने नारद जी से कहा आप भ्रमण करते रहते हो कोई ऐसी घटना बताओ जिसने तम्हे असमंजस मे डाल दिया हो... नारद जी ने कहा प्रभु अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं, वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई उसे बचाने वाला नहीं था। तभी एक चोर उधर से गुजरा, गाय को फंसा हुआ देखकर भी नहीं रुका, उलटे उस पर पैर रखकर दलदल लांघकर निकल गया। आगे जाकर उसे सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिल गई। थोड़ी देर बाद वहां से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने उस गाय को बचाने की पूरी कोशिश की। पूरे शरीर का जोर लगाकर उस गाय को बचा लिया लेकिन मैंने देखा कि गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया और उसे चोट लग गयी । भगवान बताइए यह कौन सा न्याय है। भगवान मुस्कुराए, फिर बोले नारद यह सही ही हुआ। जो चोर गाय पर पैर रखकर भाग गया था, उसकी किस्मत में तो एक खजाना था लेकिन उसके इस पाप के कारण उसे केवल कुछ मोहरे ही मिलीं। वहीं उस साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन गाय के बचाने के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसकी मृत्यु एक छोटी

पुरुषोत्तम मास में रोज़ एक बार एक श्लोक बोल सकें तो बहुत अच्छा है

पुरुषोत्तम मास में रोज़ एक बार एक श्लोक बोल सकें तो बहुत अच्छा है :- गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरुपिणम | गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिका प्रियं | | हे भगवान ! हे गिरिराज धर ! गोवर्धन को अपने हाथ में धारण करने वाले हे हरि ! हमारे विश्वास और भक्ति को भी तू ही धारण करना | प्रभु आपकी कृपा से ही मेरे जीवन में भक्ति बनी रहेगी, आपकी कृपा से ही मेरे जीवन में भी विश्वास रूपी गोवर्धन मेरी रक्षा करता रहेगा | हे गोवर्धनधारी आपको मेरा प्रणाम है आप समर्थ होते हुए भी साधारण बालक की तरह लीला करते थे | गोकुल में आपके कारण सदैव उत्सव छाया रहता था मेरे ह्रदय में भी हमेशा उत्सव छाया रहे साधना में, सेवा-सुमिरन में मेरा उसाह कभी कम न हो | मै जप, साधना सेवा,करते हुए कभी थकूँ नहीं | मेरी इन्द्रियों में संसार का आकर्षण न हो, मैं आँख से तुझे ही देखने कि इच्छा रखूं, कानों से तेरी वाणी सुनने की इच्छा रखूं, जीभ के द्वारा दिया हुआ नाम जपने की इच्छा रखूं ! हे गोविन्द ! आप गोपियों के प्यारे हो ! ऐसी कृपा करो, ऐसी सदबुद्धि दो कि मेरी इन्द्रियां आपको ही चाहे ! मेरी इन्द्रियरूपी गोपीयों में संसार की चाह न हो, आपकी

क्रोध से हानि

क्रोधो मूलमनर्थानां  क्रोधः संसारबन्धनम्। धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्॥ क्रोध समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, क्रोध संसार बंधन का कारण है, क्रोध धर्म का नाश करने वाला है,  इसलिए क्रोध को त्याग दें।

क्या आप जानते हैं कान्हा को बांसुरी किसने दी?

द्वापरयुग के समय जब भगवान श्री कृष्ण ने धरती में जन्म लिया तब देवी-देवता वेश बदलकर समय-समय पर उनसे मिलने धरती पर आने लगे। इस दौड़ में भगवान शिवजी कहां पीछे रहने वाले थे, अपने प्रिय भगवान से मिलने के लिए वह भी धरती पर आने के लिए उत्सुक हुए। परन्तु वह यह सोच कर कुछ क्षण के लिए रुके की यदि वे श्री कृष्ण से मिलने जा रहे तो उन्हें कुछ उपहार भी अपने साथ ले जाना चाहिए। अब वे यह सोच कर परेशान होने लगे कि ऐसा कौन सा उपहार ले जाना चाहिए जो भगवान श्री कृष्ण को प्रिय भी लगे और वह हमेशा उनके साथ रहे। तभी महादेव शिव को याद आया कि उनके पास ऋषि दधीचि की महाशक्तिशाली हड्डी पड़ी है। ऋषि दधीचि वही महान ऋषि है जिन्होंने धर्म के लिए अपने शरीर को त्याग दिया था व अपनी शक्तिशाली शरीर की सभी हड्डियां दान कर दी थी। उन हड्डियों की सहायता से विश्कर्मा ने तीन धनुष पिनाक, गाण्डीव, शारंग तथा इंद्र के लिए व्रज का निर्माण किया था। महादेव शिवजी​ ने उस हड्डी को घिसकर एक सुन्दर एवं मनोहर बांसुरी का निर्माण किया।   जब शिवजी भगवान श्री कृष्ण से मिलने गोकुल पंहुचे तो उन्होंने श्री कृष्ण को भेट स्वरूप वह बंसी प्रदान की।

पदमा गाय - जिसका दूध बाल कृष्ण पिया करते थे

पदमा गाय - जिसका दूध बाल कृष्ण पिया करते थे पदमा गाय का बड़ा महत्व है पदमा गाय किसे कहते है पहले तो हम ये जानते है – एक लाख देशी गौ के दूध को १०,००० गौ को पिलाया जाता है,उन १० ,००० गौ के दूध को १०० गौ को पिलाया जाता है अब उन १०० गायों के दूध को १० गौ को पिलाया जाता है अब उन १० गौ का दूध काढकर १ गौ को पिलाया जाता है. और जिसे पिलाया जाता है, उस गौ के जो "बछड़ा" 'बछड़ी" होता है उसे "पदमा गाय"कहतेहै. ऐसी गौ का बछड़ा जहाँ जिस भूमि पर मूत्र त्याग करता है उसका इतना महत्व है कि यदि कोई बंध्या स्त्री उस जगह को सूँघ भी लेती है तो उसे निश्चित ही पुत्र की प्राप्ति हो जाती है. ऐसी एक लाख गाये नन्द भवन में महल में थी जिनका दूध नन्द बाबा यशोदा जी और बाल कृष्ण पिया करते थे, तभी नन्द बाबा और यशोदा के बाल सफ़ेद नहीं थे सभी चिकने और एकदम काले थे चेहरे पर एक भी झुर्री नहीं थी, शरीर अत्यंत पुष्ट थी. ऐसी गौ का दूध पीने से चेहरे कि चमक में कोई अंतर नहीं आता, आँखे कमजोर नहीं होती, कोई आधी-व्याधि नहीं आती.इसलिए नंद बाबा के लिए सभी कहते थे ‘साठा सो पाठा” अर्थात ६० वर्ष के

||नरसिंह स्तोत्र||

||नरसिंह स्तोत्र|| नरसिंह मंत्र ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् । नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥ हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, तुम्हारी ज्वाला एवं ताप चतुर्दिक फैली हुई है. हे नरसिंहदेव, तुम्हारा चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं तुम्हारे समक्षा आत्मसमर्पण करता हूँ । नरसिंह स्तोत्र देव कार्य सिध्यर्थं, सभा स्थम्भ समुद्भवं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. लक्ष्म्यलिङ्गिथ वमन्गं, भक्थानां वर दायकं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. आन्त्रमलदरं, संख चरब्जयुधा दरिनं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. स्मरन्तः सर्व पपग्नं, खद्रुजा विष नासनं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. श्रिम्हनदेनाहथ्, दिग्दन्थि भयानसनं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. प्रह्लाद वरदं, स्र्रेसं, दैथ्येस्वर विधरिनं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. क्रूरग्रहै पीदिथानं भक्थानं अभय प्रधं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रुण मुक्थये. वेद वेदन्थ यग्नेसं, ब्रह्म रुद्रधि वन्धिथं, श्री नृसिंहं महावीरं नमामि रु

तीन काम कदापि न करें

 रामायण में वाल्मीकि ने भगवान श्रीराम के जीवन के बारें में विस्तार से बताया गया है। जो एक बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। वाल्मीकि ने मनुष्य के जीवन से संबंधित कई बाते है। जिनका अनुसरण कर मनुष्य अपने जीवन में सफलताओं को प्राप्त करता है। इसमें धर्म और ज्ञान से संबंधित कई बातें बताई गई है। ये भी पढ़े- गायत्री मंत्र: हर समस्या के लिए है कारगर उपाय हम अपने जीवन में कई तरह के काम करते है जिससे हमें कभी अच्छा फल प्राप्त होता है और कभी बहुत ही बुरा फल प्राप्त होता है। इसी प्रकार वाल्मिकि रामायण में बताया गया है कि अपने जीवन में हमें कौन से काम नहीं करना चाहिए। जिससे हमारें जीवन में कोई समस्या उत्पन्न न हो। जानिए वो तीन काम कौन से है। परस्वानां च हरणं परदाराभिमर्शनम्। सुह्मदयामतिशंका च त्रयो दोषाः क्षयावहाः।। इस श्लोक के अनुसार माना गया है कि कभी भी किसी दूसरें के धन में अपनी नजर या चोरी न करें, किसी पराई स्त्री से संबंध न बनाएं और किसी अपने हितैषी को धोखा न दें। उस समय तो आपको आंनद मिलेगा, लेकिन बाद में आपका ही नुकसान होगा।

भगवान श्रीकृष्ण के 51 नाम

भगवान् श्री कृष्ण जी के 51 नाम और उन के अर्थ 1 कृष्ण: सब को अपनी ओर आकर्षित करने वाला. 2 गिरिधर: गिरी: पर्वत ,धर: धारण करने वाला। अर्थात गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले। 3 मुरलीधर: मुरली को धारण करने वाले। 4 पीताम्बर धारी: पीत :पिला, अम्बर:वस्त्र। जिस ने पिले वस्त्रों को धारण किया हुआ है। 5 मधुसूदन:मधु नामक दैत्य को मारने वाले। 6 यशोदा या देवकी नंदन: यशोदा और देवकी को खुश करने वाला पुत्र। 7 गोपाल: गौओं का या पृथ्वी का पालन करने वाला। 8 गोविन्द: गौओं का रक्षक। 9 आनंद कंद: आनंद की राशि देंने वाला। 10 कुञ्ज बिहारी: कुंज नामक गली में विहार करने वाला। 11 चक्रधारी: जिस ने सुदर्शन चक्र या ज्ञान चक्र या शक्ति चक्र को धारण किया हुआ है। 12 श्याम: सांवले रंग वाला। 13 माधव: माया के पति। 14 मुरारी: मुर नामक दैत्य के शत्रु। 15 असुरारी: असुरों के शत्रु। 16 बनवारी: वनो में विहार करने वाले। 17 मुकुंद: जिन के पास निधियाँ है। 18 योगीश्वर: योगियों के ईश्वर या मालिक। 19 गोपेश :गोपियों के मालिक। 20 हरि: दुःखों का हरण करने वाले। 21 मदन: सूंदर। 22 मनोहर: मन का हरण करने वाले। 23 मोहन: सम्मो

अगर मिल जाए रास्ते में तो इन्हें पहले जाने दें

मनुस्मृति के एक श्लोक में बताया गया है कि किन लोगों के सामने आ जाने पर स्वयं मार्ग से हटकर इन्हें पहले जाने देना चाहिए। मनुस्मृति के एक श्लोक में बताया गया है कि किन लोगों के सामने आ जाने पर स्वयं मार्ग से हटकर इन्हें पहले जाने देना चाहिए। श्लोक चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः। स्नातकस्य च राज्ञश्च पन्था देयो वरस्य च।। अर्थात- रथ पर सवार व्यक्ति, वृद्ध, रोगी, बोझ उठाए हुए व्यक्ति, स्त्री, स्नातक, राजा तक वर (दूल्हा)। इन आठों को आगे जाने का मार्ग देना चाहिए और स्वयं एक ओर हट जाना चाहिए। 1- रथ पर सवार व्यक्ति मनुस्मृति के अनुसार यदि कहीं जाते समय सामने रथ पर सवार कोई व्यक्ति आ जाए तो स्वयं पीछे हटकर उसे मार्ग दे देना चाहिए। लाइफ मैनेजमेंट की दृष्टि से देखा जाए तो रथ पर सवार व्यक्ति किसी ऊंचे राजकीय पद पर हो सकता है या वह राजा के निकट का व्यक्ति भी हो सकता है। मार्ग न देने की स्थिति में वह आपका नुकसान भी कर सकता है। इसलिए कहा गया है कि रथ पर सवार व्यक्ति को तुरंत रास्ता दे देना चाहिए। वर्तमान में रथ का स्थान दो व चार पहिया वाहनों ने ले लिया है। 2- वृद्ध अगर रास्ते में

मानस की सीख

रामायण में जब हनुमानजी ने खोज के बाद श्रीराम को बताया कि सीता माता रावण की लंका में हैं तो श्रीराम अपनी वानर सेना के साथ दक्षिण क्षेत्र में समुद्र किनारे पहुंच गए थे।  उन्हें समुद्र पार करके लंका पहुंचना था। श्रीराम ने समुद्र से प्रार्थना की कि वह वानर सेना को लंका तक पहुंचने के लिए मार्ग दें, लेकिन समुद्र ने श्रीराम के आग्रह को नहीं माना और इस प्रकार तीन दिन बीत गए। तीन दिन के बाद बोले राम……. बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥ इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती यानी बिना डर दिखाए कोई भी हमारा काम नहीं करता है। लछिमनबान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।। सठसन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती। इन दोहे में श्रीराम ने लक्ष्मण को बताया है कि किस व्यक्ति से कैसी बात न करें। जानिए इस दोहे का अर्थ... मूर्खयानी जड़ बुद्धि वाले व्यक्ति से न करें प्रार्थना श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं- हे लक्ष्मण। धनुष-बाण लेकर आओ, मैं अग्नि बाण से समुद्र को सूखा

। जगन्नाथ जी के अंगों के गलने का कारण।

।  जगन्नाथ जी के अंगों के गलने का कारण।                         द्वारका लीला में श्री कृष्णचंद्र की पटरानियों ने एक बार माता रोहणी के भवन में जाकर उनसे आग्रह किया कि वह उन्हें श्यामसुंदर की ब्रज लीला के गोपियों के प्रेम प्रसंग को सुनना चाहती है। हमनें सुना है कि गोपियां और श्यामसुंदर के बीच में अगाध महाप्रेममय महारास हुआ था। हम सभी पटरानियां भी श्यामसुंदर से अथाह प्रेम करती है। क्या गोपियां और श्यामसुंदर का प्रेम हमसे भी अधिक प्रगाढ़ था। कृपा करके हमें रासलीला सुनायें। माता रोहणी ने टालना चाहा, किन्तु पटरानियों के आग्रह के कारण उन्हें सुनाने के लिए प्रस्तुत होना पड़ा। पर सुभद्रा जी भी बहां उपस्थित थीं। अतः सुनाना संभव नहीं था। तो माता ने सुभद्रा जी को आदेश दिया कि वे बाहर द्वार खड़ी रहें और किसी को भी भीतर प्रवेश न करनें दें। तव माता रोहणी ने गोपियां और श्यामसुंदर की रासलीला का गान प्रारंभ किया। गान इतना सुमधुर था। कि श्यामसुंदर, बलरामजी से कहने लगे दाऊ भैया कोई हमें प्रगाढ़ प्रेम से याद कर रहा है, और उसके प्रेम से हम उनकी ओर खिंचे चले जा रहे हैं। तो दाऊ जी बोले हां कन्हैया मुझे

आरती

स्कन्द पुराण में कहा गया है मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:। सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते निराजने शिवे।। अर्थात - पूजन मंत्रहीन तथा क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमे सारी पूर्णता आ जाती है। आरती करने का ही नहीं, देखने का भी बड़ा पूण्य फल प्राप्त होता है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है- नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:। सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम।। अर्थात - जो भी देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णु भगवान की आरती देखता है, वह सातों जन्म में ब्राह्मण होकर अंत में परम् पद को प्राप्त होता है। श्री विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है धूपं चरात्रिकं पश्येत काराभ्यां च प्रवन्देत। कुलकोटीं समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।। अर्थात - जो धुप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। आरती में पहले मूल मंत्र (जिस देवता का, जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगाड़े, शख्ङ, घड़ियाल आदि महावाद्यो के तथा जय-जयकार

नित्यकर्म

नित्य कर्म --- 1.संध्योपासन, 2.उत्सव, 3.तीर्थ, 4.संस्कार और 5.धर्म। (1) संध्योपासन- संध्योपासन अर्थात संध्या वंदन। मुख्य संधि पांच वक्त की होती है जिसमें से प्रात: और संध्या की संधि का महत्व ज्यादा है। संध्या वंदन प्रतिदिन करना जरूरी है। संध्या वंदन के दो तरीके- प्रार्थना और ध्यान। संध्या वंदन के लाभ : प्रतिदिन संध्या वंदन करने से जहां हमारे भीतर की नकारात्मकता का निकास होता है वहीं हमारे जीवन में सदा शुभ और लाभ होता रहता है। इससे जीवन में किसी प्रकार का भी दुख और दर्द नहीं रहता। (2) उत्सव- उन त्योहार, पर्व या उत्सव को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख धर्मग्रंथों में मिलता है। मनमाने त्योहारों को मनाने से धर्म की हानी होती है। संक्रांतियों को मनाने का महत्व ही ज्यादा है। एकादशी पर उपवास करना और साथ ही त्योहारों के दौरान मंदिर जाना भी उत्सव के अंतर्गत ही है। उत्सव का लाभ : उत्सव से संस्कार, एकता और उत्साह का विकास होता है। पारिवारिक और सामाजिक एकता के लिए उत्सव जरूरी है। पवित्र दिन और उत्सवों में बच्चों के शामिल होने से उनमें

कलियुग में साधन

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥      रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥ भावार्थ – कलियुग में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि  का  अध्यात्म के लिए कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए । अध्यात्म का अर्थ है- अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना, और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना, गीता के आठवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि यदि व्यक्ति  अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को जान लेता है तो वही अध्यात्म कहलाता है।  "परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते " आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्वविदित है।

कलयुग में महामंत्र हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ही जप करना क्यों बेहतर है?

          || महामंत्र || हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे| हरे  राम  हरे  राम   राम  राम  हरे  हरे|| अनुवाद: यह महामंत्र है| प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका:---  श्रील जीव गोस्वामीपाद के अनुसार महामंत्र की व्याख्या इस प्रकार है– ‘हरे’ का अर्थ है– सर्वचेतोहर: कृष्णनस्तस्य चित्तं हरत्यसौ– सर्वाकर्षक भगवान् कृष्ण के भी चित्त को हरने वाली उनकी आह्लादिनी शक्तिरूपा ‘हरा’ अर्थात– श्रीमती राधिका| ‘कृष्ण’ का अर्थ है– स्वीय लावण्यमुरलीकलनि:स्वनै:– अपने रूप-लावण्य एवं मुरली की मधुर ध्वनि से सभी के मन को बरबस आकर्षित लेने वाले मुरलीधर ही ‘कृष्ण’ हैं| . ‘राम’ का अर्थ है–  रमयत्यच्युतं प्रेम्णा निकुन्ज-वन-मंदिरे– निकुन्ज-वन के श्रीमंदिर में श्रीमती राधिका जी के साथ माधुर्य लीला में रमण करते करने वाले राधारमण ही ‘राम’ हैं|  प्रमाण: --हरेकृष्ण महामंत्र कीर्तन की महिमा वेदों तथा पुराणों में सर्वत्र दिखती है| कलिकाल में केवल इसी मन्त्र के कीर्तन से उद्धार संभव है| अथर्ववेद की अनंत संहिता में आता है– षोडषैतानि नामानि द्वत्रिन्षद्वर्णकानि हि| कलौयुगे महामंत्र: सम्मतो जीव तारिणे|| सोलह

राजा भर्तृहरि

पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं। भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक लिखे, जो श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया। देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे। ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं, मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है। हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी। वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया। राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया। लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी

विनाश के कारण

व्याघ्रानां महति निद्रा        सर्पानां च महद् भयम्। ब्राह्मणानाम् अनेकत्वं        तस्मात् जीवन्ति जन्तवः।। अर्थात् ------         शेरो को नींद बहुत आती है, सांपो को डर बहुत लगता है, और ब्राह्मणों में एकता नही है, इसीलिए सभी जीव जी रहे है ।         यदि शेर अपनी नींद का त्याग कर दे, सांप अपना डर छोड़ कर निर्भय हो जाये, और ब्राह्मण अनेकत्व छोड़ कर एक हो जाये तो इस संसार में दूसरे जीवो का रहना कठिन हो जायेगा।

अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम्

अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम् .. ************* .. आदिलक्ष्मी .. सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवि चन्द्र सहोदरि हेममये . मुनिगणमण्डित मोक्षप्रदायिनि मञ्जुळभाषिणि वेदनुते .. पङ्कजवासिनि देवसुपूजित सद्गुणवर्षिणि शान्तियुते . जयजय हे मधुसूदन कामिनि आदिलक्ष्मि सदा पालय माम् .. १.. .. धान्यलक्ष्मी .. अहिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि वैदिकरूपिणि वेदमये . क्षीरसमुद्भव मङ्गलरूपिणि मन्त्रनिवासिनि मन्त्रनुते .. मङ्गलदायिनि अम्बुजवासिनि देवगणाश्रित पादयुते . जयजय हे मधुसूदन कामिनि धान्यलक्ष्मि सदा पालय माम् .. २.. .. धैर्यलक्ष्मी .. जयवरवर्णिनि वैष्णवि भार्गवि मन्त्रस्वरूपिणि मन्त्रमये . सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते .. भवभयहारिणि पापविमोचनि साधुजनाश्रित पादयुते . जयजय हे मधुसूदन कामिनि धैर्यलक्ष्मि सदा पालय माम् .. ३.. .. गजलक्ष्मी .. जयजय दुर्गतिनाशिनि कामिनि सर्वफलप्रद शास्त्रमये . रथगज तुरगपदादि समावृत परिजनमण्डित लोकनुते .. हरिहर ब्रह्म सुपूजित सेवित तापनिवारिणि पादयुते . जयजय हे मधुसूदन कामिनि गजलक्ष्मि रूपेण पालय माम् .. ४.. .. सन्तानलक्ष्मी .. अहिख

रामचरितमानस के 10 चमत्कारी दोहे, जो देते हैं हर तरह के वरदान

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रामचरितमानस के  10 चमत्कारी दोहे, जो देते हैं हर तरह के वरदान :  (1) मनोकामना पूर्ति एवं सर्वबाधा निवारण हेतु- 'कवन सो काज कठिन जग माही। जो नहीं होइ तात तुम पाहीं।।' (2) भय व संशय निवृ‍‍त्ति के लिए- 'रामकथा सुन्दर कर तारी। संशय बिहग उड़व निहारी।।' (3) अनजान स्थान पर भय के लिए मंत्र पढ़कर रक्षारेखा खींचे- 'मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृतवर चाप रुचिर कर सायक।।'  (4) भगवान राम की शरण प्राप्ति हेतु- 'सुनि प्रभु वचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना।।' (5) विपत्ति नाश के लिए- 'राजीव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।' (6) रोग तथा उपद्रवों की शांति हेतु- 'दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहिं ब्यापा।  (7) आजीविका प्राप्ति या वृद्धि हेतु- 'बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।।' (8) विद्या प्राप्ति के लिए- 'गुरु गृह गए पढ़न रघुराई। अल्पकाल विद्या सब आई।।' (9) संपत्ति प्राप्ति के लिए- 'जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपत्

शरीर में तिलों का महत्व

आमतया तिल को शरीर के किसी खास अंग की खूबसूरती का परिचायक माना जाता है। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि शरीर के अलग-अलग अंगों पर तिल का मौजूद होना आपसे जुड़ी कई मजेदार बातें भी बताता है। यदि गाल पर हो तिल: जिनके गाल पर तिल हो, ऐसे लोग बेहद गंभीर और पढ़ने-लिखने में तेज-तर्रार होते हैं। ऐसे लोगों को छोटी-मोटी खुशियां आसानी से आकर्षित नहीं कर सकतीं। ये जो ठान लेते हैं, वह करके मानते हैं। कान पर तिल हो कान पर तिल हो: जिनके कान पर तिल हो ऐसे लोग बेहद लकी होते हैं। उनके नसीब में धन-दौलत, घूमना-फिरना सब लिखा होता है। ठुड्ढी पर हो तो ठुड्ढी पर हो तो- जिनके ठुड्ढी पर तिल हो, वे भाग्य के बड़े धनी होते हैं। नाम, शोहरत या धन के लिए उन्हें बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। आंख के किनारे पर तिल यदि किसी की आंख के किनारे पर तिल मौजूद हो तो समझ लीजिए कि आप उनपर आंख मूंदकर भरोसा कर सकते हैं। ऐसे व्यक्ति कभी किसी से धोखा नहीं कर सकते। भौंह पर हो तिल भौंह पर हो तिल- यदि दाहिने भौंह पर तिल मौजूद हो तो समझिए कि उनकी शादीशुदा लाइफ काफी अच्छी रहती है। ऐसे लोग हर क्षेत्र में सफल होते हैं। लेकिन जिनकी बा

सोलह संस्कार

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गर्भाधान संस्कार ( Garbhaadhan Sanskar) – यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है। पुंसवन संस्कार (Punsavana Sanskar) – गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है। सीमन्तोन्नयन संस्कार ( Simanta Sanskar) – यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। जातकर्म संस्कार (Jaat-Karm Sansakar) – बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो। नामकरण संस्कार (Naamkaran Sanskar)- शिशु के जन्म

श्रीआंजनेय द्वादशनामस्तोत्रम्

श्रीआंजनेय द्वादशनामस्तोत्रम्  हनुमानंजनासूनुः वायुपुत्रो महाबलः । रामेष्टः फल्गुणसखः पिंगाक्षोऽमितविक्रमः ॥ १॥ उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशकः । लक्ष्मण प्राणदाताच दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ २॥ द्वादशैतानि नामानि कपींद्रस्य महात्मनः । स्वापकाले पठेन्नित्यं यात्राकाले विशेषतः । तस्यमृत्यु भयंनास्ति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ जो श्रीहनुमन्त उपासक प्रतिदिन उपरोक्त बारह नामों का पाठ करता है, उसकी सर्वत्र जय होती है, मंगल होता है, यात्राकाल में भय नहीं होता, अकालमृत्यु आदि नहीं होती है।

भगवान सूर्य के 21 नाम (स्तवराज)

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                     Image - google भगवान सूर्य ने श्रीकृष्ण पुत्र साम्ब को अपने 21 नाम बताये जो ‘स्तवराज’ के नाम से भी जाने जाते हैं– ॐ विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रवि:। लोकप्रकाशक: श्रीमान् लोकचक्षुर्महेश्वर:।। लोकसाक्षी त्रिलोकेश: कर्ता हर्ता तमिस्त्रहा। तपनस्तापनश्चैव शुचि: सप्ताश्ववाहन:।। गभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृत:।। (भविष्यपुराण) भगवान सूर्य के ये 21 नाम हैं– विकर्तन (विपत्तियों को नष्ट करने वाला) विवस्वान् (प्रकाशरूप) मार्तण्ड भास्कर रवि लोकप्रकाशक श्रीमान् लोकचक्षु ग्रहेश्वर लोकसाक्षी त्रिलोकेश कर्ता हर्ता तमिस्त्रहा (अन्धकार को नष्ट करने वाले) तपन तापन शुचि (पवित्रतम) सप्ताश्ववाहन (जिनका वाहन सात घोड़ों वाला रथ है) गभस्तिहस्त (किरणें ही जिनके हाथ हैं) ब्रह्मा सर्वदेवनमस्कृत।

पूजा-पाठ में इतनी सावधानी जरूर करें

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1. घर में सेवा पूजा करने वाले जन भगवान के एक से अधिक स्वरूप की सेवा पूजा कर सकते हैं । 2. घर में दो शिवलिंग की पूजा ना करें तथा पूजा स्थान पर तीन गणेश जी नहीं रखें। 3. शालिग्राम जी की बटिया जितनी छोटी हो उतनी ज्यादा फलदायक है। 4. कुशा पवित्री के अभाव में स्वर्ण की अंगूठी धारण करके भी देव कार्य सम्पन्न किया जा सकता है। 5. मंगल कार्यो में कुमकुम का तिलक प्रशस्त माना जाता हैं। 6.  पूजा में टूटे हुए अक्षत के टूकड़े नहीं चढ़ाना चाहिए। 7. पानी, दूध, दही, घी आदि में अंगुली नही डालना चाहिए। इन्हें लोटा, चम्मच आदि से लेना चाहिए क्योंकि नख स्पर्श से वस्तु अपवित्र हो जाती है अतः यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं। 8. तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए क्योंकि वह मदिरा समान हो जाते हैं। 9. आचमन तीन बार करने का विधान हैं। इससे त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश प्रसन्न होते हैं। 10.  दाहिने कान का स्पर्श करने पर भी आचमन के तुल्य माना जाता है। 11. कुशा के अग्रभाग से दवताओं पर जल नहीं छिड़के। 12. देवताओं को अंगूठे से नहीं मले। शास्त्चकले पर से चंदन कभी न

बन्दंउ श्री राधा चरण..........

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बन्दंउ श्री राधा चरण श्री राधा शुभनाम | कृष्णप्रिया श्री प्रियाकांत श्री वृन्दावनधाम|| बन्दउ गोपसुता चरन बन्दउ श्री गिरिराज| बन्दउ ब्रजरजकनविमल बन्द रसिक समाज|| बन्दउ श्री चैतन्य प्रभु बल्लभ अरू हरिदास| मीरा सूर कबीर सहित बन्दउं तुलसीदास||

रम्भा - शुक संवाद

रंभा रुपसुंदरी है और शुकदेवजी मुनि शिरोमणि ! रंभा यौवन और शृंगार का वर्णन करते नहीं थकती, तो शुकदेवजी ईश्वरानुसंधान का । दोनों के बीच हुआ संवाद अति सुंदर है; रम्भा: मार्गे मार्गे नूतनं चूतखण्डं खण्डे खण्डे कोकिलानां विरावः । रावे रावे मानिनीमानभंगो भंगे भंगे मन्मथः पञ्चबाणः ॥ हे मुनि ! हर मार्ग में नयी मंजरी शोभायमान हैं, हर मंजरी पर कोयल सुमधुर टेहुक रही हैं । टेहका सुनकर मानिनी स्त्रीयों का गर्व दूर होता है, और गर्व नष्ट होते हि पाँच बाणों को धारण करनेवाले कामदेव मन को बेचेन बनाते हैं । शुक: मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः । कीर्तौ  कीर्तौ  नस्तदाकारवृत्तिः वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्द भासः ॥ हे रंभा ! हर मार्ग में साधुजनों का संग होता है, उन हर एक सत्संग में भगवान कृष्णचंद्र के गुणगान सुनने मिलते हैं । हर गुणगाण सुनते वक्त हमारी चित्तवृत्ति भगवान के ध्यान में लीन होती है, और हर वक्त सच्चिदानंद का आभास होता है । तीर्थे तीर्थे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं वृन्दे वृन्दे तत्त्व चिन्तानुवादः । वादे  वादे जायते