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*देव दिवाली कब और क्यों कैसे मनायी जाती है*

*देव दिवाली कब और क्यों कैसे मनायी जाती है* 


कार्तिक माह की पूर्णिमा के दिन यानि दिवाली से ठीक 15 दिन बाद मनाई जाती है। हर त्योहार देश के हर कोने में मनाया जाता है लेकिन कुछ त्योहार हैं जो विशेषकर किसी राज्य से जुड़े होते हैं। इसी तरह देव दिवाली का महत्व विशेषकर भारत की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी से जुड़ा है। इस दिन काशी के रविदास घाट से लेकर राजघाट तक लाखों दिए जलाए जाते हैं। इस दिन माता गंगा की पूजा की जाती है। इस दिन गंगा के तटों का नजारा बहुत ही अद्भुत होता है। शास्त्रों के अनुसार देव दिवाली के कई कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन उनमें से एक कथा महत्वपूर्ण है कि इस दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था और इसके पश्चात सभी देवताओं ने दिवाली मनाई थी। इस दिन के लिए मान्यता है कि सभी देव काशी आकर गंगा माता का पूजन करके दिवाली मनाते हैं, इसलिए इसे देव दिवाली कहा जाता है।

इस दिन के लिए मान्यता है कि तीनों लोको मे त्रिपुराशूर राक्षस का राज चलता था देवतागणों ने भगवान शिव के समक्ष त्रिपुराशूर राक्षस से उद्धार की विनती की थी। भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन राक्षस का वध कर उसके अत्याचारों से सभी को मुक्त कराया और त्रिपुरारि कहलाए। इससे प्रसन्न देवताओं ने स्वर्ग लोक में दीप जलाकर दीपोत्सव मनाया था इसके बाद से कार्तिक पूर्णिमा को देवदीवाली मनाई जाती है। इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है। इस गंगा स्नान को कार्तिक पूर्णिमा का गंगा स्नान भी कहा जाता है।

*दीपदान करने का फल*

इस दिन अपने घर में और देवालयों में भगवान के सामने गोधुली बेला(सायंकालीन) दीप- दान करने से जीवन में सब प्रकार का अंधकार दूर होता है।मान्यताओं के अनुसार इस दिन दीपदान करने से लंबी आयु का वरदान मिलता है। इसके साथ ही घर में हमेशा सुख-शांति का वास होता है।
  इस दिन अपने घरों में तुलसी के आगे और घर के दरवाजों पर घी के दीपक जलाना शुभ माना जाता है, जिससे पूरे वर्ष सकारात्मक कार्य करने का संकल्प मिलता है।

 वाराणसी. गंगा के किनारे अर्द्धचंद्राकार में चमकते-दमकते घाटों की कतारबद्ध श्रृंखलाएं और घाटों पर झिलमिलाती असंख्य दीयों में टिमटिमाती रोशनी की मालाएं,  आकर्षक आतिशबाजी की चकाचौंध की दीवाली काशी की सबसे खास दीपावली है। जिसका इंतजार काशीवीसी बेसब्री से करते हैं। कार्तिक मास की पूर्णिमा को पड़ने वाली  देव दीपावली पर ऐसा विहगंम व मनोरम दृश्य होता है मानों देवता इस पृथ्वी पर दीवाली मनाने आ रहे हो। गंगा के रास्ते देवताओं की टोली आने वाली है और उन्हीं के स्वागत में काशी के 84 घाटों पर टिमटिमाती दीयों की लौ इंतजार में है।

बजते घंट-घडियालों, शंखों की गूंज व आस्था एवं विश्वास से लबरेज देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु इसे देखने आते हैं। हर हाथ में दीपकों से थाली और मन में उमंगों की उठान घाट महरूम हो उठता है। ऋतुओं में श्रेष्ठ शरद ऋतु, मासों में श्रेष्ठ ‘कार्तिक मास’ तथा तिथियों में श्रेष्ठ पूर्णमासी यानी प्रकृति का अनोखा माह तो है ही, यह देवताओं का भी दिन माना जाता है। इस माह की पवित्रता इस बात से भी है कि इसी माह में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्य आदि ने महापुनीत पर्वों को प्रमाणित किया है।

इस माह किये हुए स्नान, दान, होम, यज्ञ और उपासना आदि का अनन्त फल है। इसी पूर्णिमा के दिन सायंकाल भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था, तो इसी तिथि को भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुर नामक दैत्य का वध किया और अपने हाथों बसाई काशी के अहंकारी राजा दिवोदास के अहंकार को नष्ट कर दिया। राक्षस के मारे जाने के बाद देवताओं ने स्वर्ग से लेकर काशी में दीप जलाकर खुशियां मनाई और देव दीपावली नाम दिया।

कहते है उस दौरान काशी में भी रह रहे देवताओं ने दीप जलाकर देव दीपावली मनाई। तभी से इस पर्व को कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर काशी के घाटों पर दीप जलाकर मनाया जाने लगा। मान्यता है कि इस दिन देवताओं का पृथ्वी पर आगमन होता है। इस प्रसन्नता के वशीभूत दीये जलाये जाते हैं। वैसे भी इस समय प्रकृति विशेष प्रकार का व्यवहार करती है, जिससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है और वातावरण में आह्लाद एवं उत्साह भर जाता है। इससे समस्त पृथ्वी पर प्रसन्नता छा जाती है। पृथ्वी पर इस प्रसन्नता का एक खास कारण यह भी है कि पूरे कार्तिक मास में विभिन्न व्रत-पर्व एवं उत्सवों का आयोजन होता है, जिनसे पूरे वर्ष सकारात्मक कार्य करने का संकल्प मिलता है।

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