ब्राह्मण कण्व के कन्हैया

            ब्राह्मण कण्व के कन्हैया 


मधुवन के निर्जन सघन वन में ब्राह्मण कण्व अपने आश्रम में सदैव नारायण की तपस्या में लीन रहते थे।
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आश्रम के समीप वनक्षेत्र से जो कुछ भी कन्द-मूल-फल उन्हें प्राप्त होता, वह अपने इष्ट नारायण को अर्पित कर देते, और उसी को प्रसाद रूप से ग्रहण कर तृप्त हो जाते।

आश्रम के निकट ही कल-कल कर बहता हुआ झरना होने से उन्हें जल के लिए भी कहीं नहीं जाना पड़ता था।
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इस प्रकार उस एकान्त वन में उनकी नारायण-भक्ति अबाध रूप से चल रही थी। बाह्यजगत से बेखबर, एकान्तसेवी होकर वे केवल अपने नारायण के ध्यान में ही मस्त रहते थे।
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भक्त अपने इष्ट की भक्ति ईश्वर के रूप में करता है, वह इष्ट ही उसकी दृष्टि में सर्वस्व है, सर्वोपरि है।
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इससे पहले ब्राह्मण कण्व कभी-कभी ब्रजराज नन्द और ब्रजरानी यशोदा के घर चले जाया करते थे।
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ब्राह्मण कण्व यशोदाजी के मायके से सम्बन्धित थे, अत: उनकी बाल्यकाल से ही ब्राह्मण कण्व में बड़ी श्रद्धा थी।
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ब्राह्मण कण्व का जीवन-निर्वाह भी ब्रजरानी यशोदा द्वारा दिए गए दान से आराम से हो जाता था।
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किन्तु कई बरस से ब्राह्मणदेव अपने भजन में ऐसे रमे कि वे नन्ददम्पत्ति के घर जा न सके। इसलिए नन्द-यशोदा को पुत्र होने की बात भी उन्हें पता नहीं थी।
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एक बार द्वादशी के दिन प्रात:काल वे पूजा के लिए कंद-मूल-पुष्प-फल आदि को एकत्र करते-करते गोकुल में कालिन्दी (यमुना) के तट पर आ पहुंचे।
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वहां पर कुछ गोपियां आपस में श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी व बाल लीलाओं की चर्चा कर रहीं थीं।
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गोकुल में जब से गोकुल चन्द्रमा (श्रीकृष्ण) प्रकट हुए हैं, गोपियों के पास उनकी चर्चा के अलावा कोई काम ही नहीं था।
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सुबह से ही वे नंदमहल के द्वार पर खड़ी रहकर श्रीकृष्ण की बाल चेष्टाओं को निहारा करतीं थीं।
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श्रीकृष्ण के प्रेममाधुर्य में वे ऐसी रमीं थीं कि स्वयं ही ‘परम प्रेमस्वरूपा’ हो गईं थीं। प्रेमस्वरूप श्रीकृष्ण की चर्चा ही उन्हें प्रिय लगती थी।
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ब्राह्मण कण्व जब वहां पहुंचे तो एक गोपी दूसरी गोपी से कह रही थी–’जब मैं नन्दरानी के यहां मथानी मांगने गई तो वहां नन्दजी के आंगन में एक अद्भुत दृश्य देखा और उसे देखकर मैं अपने-आप को ही भूल गई।
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उस शोभा का विस्तार मैं कहां तक करूँ, उसे तो देखते ही बुद्धि कुंठित हो जाती है। मेरे मन का भी पता नहीं कि वह श्यामसुन्दर के किस अंग में लीन हो गया है, उसे मैं ढूंढ़ कर हार गई पर पा न सकी हूँ।’
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कहाँ लौ बरनौं सुन्दरताई ?
खेलत कुंवर कनक आँगन में
नैनन अति सुखदाई।। (सूरदास)
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गोपियों के मुख से निकली कन्हैया की उस रूप माधुरी ने सीधे कण्व के हृदय में प्रवेश किया और वे अपने को रोक न सके और गोपियों से जाकर पूछने लगे–
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हे गोप सुन्दरियों ! तुम लोग किसके पुत्र की बात कर रही हो।’
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गोपियों ने कहा–‘पुत्र भयौ री नन्दमहर कैं बड़ी बैस बड़ भाग।’
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गोपियों ने कन्हैया के जन्म से लेकर अब तक की समस्त सरस लीलाओं को ब्राह्मण कण्व को सुना दिया।
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गोपियों के मुख से श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी व लीलाओं को सुनकर ब्राह्मण कण्व समाधिस्थ से हो गए। वे अब और सब कुछ भूल गए और उनके नेत्रों में केवल गोपियों द्वारा सुनाई गई कन्हैया की छवि ही नाच रही थी।
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अब उनकी दृष्टि बदल गई। व्रजपुर (गोकुल) के वृक्ष उन्हें कल्पवृक्ष और  गोकुल की भूमि चिन्तामणि लग रही थी।
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गोकुल के स्त्री-पुरुष आदि सब कुछ उन्हें सच्चिदानन्दमय लग रहा था। गोकुल के चिदानन्दमय आकाश को निहारते हुए धीरे-धीरे चलते हुए वे नन्दमहल में प्रवेश कर गए।
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अपने चिरपरिचित प्रिय ब्राह्मण को आया देखकर नन्ददम्पत्ति के आनन्द की सीमा न रही। दोनों ने ब्राह्मण कण्व के चरणों में प्रणाम कर अर्घ्य आदि समर्पित कर बैठने के लिए सुन्दर आसन प्रदान किया।
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ब्राह्मण कण्व ने नन्दबाबा से कहा–’नन्दरायजी! सुना है कि तुम्हें पुत्र हुआ है; सुनते ही तुम्हारे पुत्र को देखने और आशीर्वाद देने आया हूँ।’
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कण्व की यह बात सुनकर नन्द-यशोदाजी की आंखों में आनन्दाश्रु आ गए और उन्होंने अपने प्यारे नीलमणि कृष्ण को ब्राह्मण के चरणों में डाल दिया।
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श्रीकृष्ण की अंगकान्ति नीलमणि के समान होने के कारण यशोदा जी उनको नीलमणि कहकर बुलाती थीं।
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श्रीकृष्ण की भोली सूरत को देखकर ब्राह्मण कण्व को ऐसा लगा मानो उनकी ध्येय मूर्ति ही आज साकार होकर उनके सामने खड़ी है।
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कण्व का अंग-प्रत्यंग नाच उठा। श्रीकृष्ण के रूपसौन्दर्य व बाल सुलभ भावभंगिमाओं ने जिसके मन को पकड़ न लिया हो, जिसके चित्त को रिझाया न हो, रमाया न हो, ऐसा कौन अभागा व्यक्ति होगा ?
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व्रजरानी यशोदा ने ब्राह्मण कण्व से कहा–’देव ! इतने दिनों बाद आप पधारे हैं, और इतनी देर भी हो गई है, द्वादशी का पारण ( द्वादशी को एकादशी का व्रत खोलने वाला भोजन ) आज यहीं करें। आज तो मैं आपको पारण किए बिना कदापि नहीं जाने दूंगी।’
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ब्राह्मण कण्व ने कहा–’मैं तो स्वयंपाकी हूँ, अपने ही हाथ से बना भोजन ग्रहण करता हूँ।’
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यशोदाजी ने कहा–ब्रह्मन ! शास्त्रों में कहा गया है कि जो मनुष्य अतिथि व ब्राह्मण की पूजा करता है, उसके द्वारा भगवान की पूजा हो जाती है।
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थका हुआ अतिथि जब घर पर आता है, तब उसके पीछे-पीछे समस्त, देवता, पितर और अग्नि भी पदार्पण करते हैं।
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उसकी पूजा होने पर सबकी पूजा हो जाती है। उसके निराश लौटने पर वे देवता आदि भी निराश लौट जाते हैं।
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संतनकी सेवा,
कर मन ऐसे संतनकी सेवा,
शील संतोख सदा उर जिनके,
नाम राम को लेवा।। (सूरदास)
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अत: आज मैं आपको अपने घर से भूखा नहीं जाने दूंगी। आपके ठाकुरजी को जो प्रिय है वही बताइए।
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यशोदाजी का आग्रह ब्राह्मण कण्व ने स्वीकार कर लिया और उन्होंने नन्दरानी से कहा–’आज मैं अपने इष्ट नारायण के लिए खीर बनाता हूँ।’
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यशोदाजी तुरंत स्नानादि करके ब्राह्मण के लिए रसोई की व्यवस्था करने लगीं।
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उन्होंने गोशाला के एक भाग को गोबर से लिपवाया, चूल्हे का निर्माण किया, फिर चूल्हे को गोबर से लीप कर उसका संस्कार किया,
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स्वयं स्वर्णकलशी में यमुनाजल भर कर लाईं। एक नवीन पात्र में पद्मगंधा गाय का दूध दुहकर रख दिया, स्वर्णपात्रों में चावल, घी, मिश्री, शर्करा, इलायची, केसर, मेवा, करछी, सूखी लकड़ियां आदि–रसोई बनाने का सारा सामान अपने हाथ से एकत्र कर ब्राह्मण से भोजन बनाने की प्रार्थना करने लगीं।
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जितनी देर व्रजरानी रसोई की व्यवस्था कर रहीं थीं, उतनी देर वे ब्राह्मण निर्निमेष नेत्रों से श्रीकृष्ण के सौन्दर्य व उनकी बालभंगिमा का पान करते रहे।
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जब वे रसोई बनाने के लिए रन्धनशाला में आए, उन्हें चारों ओर–चूल्हे में, स्वर्णकलशी में, स्वर्णथालों में, दूध के कटोरे में यहां तक कि गौशाला की दीवारों, द्वार, झरोखों–सभी जगह पर श्रीकृष्ण ही दिखाई दे रहे थे।
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उनके हृदय में एक अजीब-सा झंझावत् चल रहा था। वे सोचने लगे, मेरी ऐसी दशा क्यों हो गई है ?
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कुछ समय तक वे जड़वत् बैठे रहे। पर उसी समय मानो उनके हृदय की इष्टमूर्ति ने कहा–’
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कण्व ! भोग अर्पण नहीं करोगे ? बहुत देर हो गई है, मुझे बहुत भूख लगी है।’
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स्वप्न से जागे हुए से कण्व ने तुरन्त सुस्वादु खीर बनाई और स्वर्ण थाल में ठंडी कर उस पर तुलसी मंजरी रख दी।
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इष्टदेव को भोग अर्पित कर नेत्र मूंदकर प्रार्थना करने लगे–’हे वैकुण्ठाधिपते ! हे लक्ष्मीपते ! मैंने बहुत प्रेम व पवित्रता से यह खीर बनाई है, इसे अरोगिए।’
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ब्राह्मण के शब्द श्रीकृष्ण के कानों में पड़े। उन्होंने सोचा–यह तो मुझे ही बुलाते हैं। लक्ष्मी का पति और वैकुण्ठाधिपति तो मैं ही हूँ।
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हमें कोई प्रेम से बुलाता है और हम नहीं जाते तो यह अच्छा नहीं है। श्रीकृष्ण दौड़ते हुए आते हैं और प्रेम से धीरे-धीरे खीर अरोगते हैं।
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ऊधर ब्राह्मण कण्व नेत्र मूंदकर ‘ऊँ नमो नारायण ऊँ नमो नारायण’ का जप करते हुए ऐसी भावना कर रहे हैं कि प्रभु प्रेम से खीर अरोग रहे हैं।
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भक्तिमार्ग में भावना मुख्य है। भावना से भक्ति बढ़ती है। भगवान तो भाव के भूखे हैं, उन्हें ऊपर का ढोंग नहीं सुहाता।
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जैसा भाव होता है, फल भी वैसा ही मिलता है। समर्थ गुरु रामदासजी कहते हैं–वे अन्तर्यामी प्राणिमात्र के हृदय के भावों को जानते हैं।
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जिस भाव का प्रतिबिम्ब हृदय में है, भगवान भी वैसे ही बन जाते हैं। क्योंकि वे तो ‘जैसे-को-तैसे’ हैं।
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यदि कोई मन, वचन व कर्म से अपने कर्तव्य में तन्मय है तो उसको भगवान के पास जाना नहीं पड़ता, भगवान स्वयं उसके पास आ जाते हैं।
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केवल आते ही नहीं, नित्यतृप्त होने पर भी भोक्ता बन जाते हैं। भगवान अपने भक्त और भक्ति के पाश से बंधे हैं।
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भोग अर्पित करने की मानसिक भावना पूरी होने पर जब ब्राह्मण कण्व ने नेत्र खोले तो वे यह देखकर अवाक् रह गए कि
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नैन उघारि विप्र जो देखै,
खात कन्हैया देखन पायौ।।(सूरदास)
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अपने इष्ट के लिए उन्होंने जो आसन व भोग समर्पित किया था उस पर बैठकर श्रीकृष्ण खीर अरोग रहे हैं।
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ब्राह्मण कण्व के देखते ही श्रीकृष्ण आसन से उठकर भयभीत मुद्रा में गोशाला की दीवार से सटकर खड़े हो गए।
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श्रीकृष्ण के आसन से उठते ही कण्व का भाव ही बदल गया। उन्होंने विचार किया कि मैं ब्राह्मण हूँ, नन्दबाबा वैश्य हैं।
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बनिया का पुत्र मेरी खीर को छू गया। केवल छुआ ही नहीं, आधी खा भी गया। इस चंचल यशोदानन्दन ने तो मेरे इष्टदेव का भोग ही जूठा कर दिया।
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अब यह खीर मुझसे नहीं खाई जा सकती और वे जोर-जोर से ‘अरी यशोदा! अरी यशोदा!’ पुकारने लगे।
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नन्दरानी पुत्र के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में ब्राह्मण कण्व को दान में देने के लिए वस्तुएं एकत्र कर रहीं थीं।
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ब्राह्मण के अत्यन्त रूक्ष स्वर को सुनकर उनका हृदय धक्-धक् करने लगा। वे दौड़ती हुईं गोशाला में आईं और स्थिति को समझकर अपने पुत्र से कहने लगीं–’
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नीलमणि ! नीलमणि ! तुमने यह क्या अनर्थ कर डाला।’ पर श्रीकृष्ण तो ऐसी भोली सूरत बनाकर माता व कण्व को देखने लगे जैसे कुछ हुआ ही न हो।
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यशोदाजी को यह अच्छा न लगा। उन्होंने कन्हैया से कहा–’मैंने तो बड़ी उमंग से ब्राह्मण को भोजन का निमंत्रण दिया और श्याम ! तू उन्हें चिढ़ाता है ?
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वे अपने ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तब तू यों ही उठकर दौड़ पड़ता है। तुम यहां क्यों आए ?’
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कन्हैया ने उत्तर दिया–‘मैया! तू मुझे क्यों दोष दे रही है ? वह ब्राह्मण स्वयं बड़े विधान से मेरा ध्यान करता है । नेत्र बंद करके, हाथ जोड़कर बार-बार नाम लेकर मुझे बुलाता है।
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भला, बता ! जो भक्त मेरे मन को भा जाता है, उससे दूर मैं कैसे रह सकता हूँ ?’
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ब्राह्मण कण्व ने कहा–’मैं तो अपने इष्टदेव नारायण को बुला रहा था।’
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कन्हैया ने कहा–’मां ! मैं ही इनका ठाकुर हूँ, मैं ही नारायण हूँ।’
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यशोदामाता ने अपने कानों पर हाथ रखते हुए कहा–’यह लड़का चाहे जैसा बोलता रहता है। तुम्हें पता है नारायण के चार हाथ होते हैं।
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अरे ! तुम कैसे नारायण हो ? तुम तो मेरे पुत्र हो। चार हाथों वाले नारायण को मैं पूजती हूँ, पर मुझे तो मेरा कन्हैया ही अधिक प्रिय लगता है।
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कितना सुन्दर है मेरा कान्हा !’ और ऐसा कहकर अति ममता से माता ने कन्हैया को गोद में उठा लिया।
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माता को दु:खी देखकर ब्राह्मण कण्व को लगा कि कन्हीं व्रजरानी इस छोटी-सी बात के लिए बालक को दण्ड न दे दें। अत: उन्होंने व्रजरानी से कहा–’
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इस बालक का कोई दोष नहीं है, इसने तो मेरे कन्द-मूलाहारी होने के व्रत को बचा लिया। प्रभु ने इस बालक के द्वारा मेरी रक्षा कर दी। मैं बिलकुल भी रुष्ट नहीं हूँ।
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मैं इसे चिरंजीवी होने का आशीर्वाद देता हूँ। तुम्हारे पुत्र का मंगल-ही-मंगल होगा। बहुत देर हो रही है, अब मैं चलता हूँ।’
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व्रजरानी रो पड़ी। उन्होंने ब्राह्मणदेव से कहा–’बालक के अपराध का मार्जन तभी संभव है, जब आप पुन: खीर बनाकर मेरे घर पारण करें।’
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व्रजरानी के विशिष्ट आग्रह के आगे कण्व झुक गए और उन्होंने उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया।
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व्रजरानी यशोदा ने पुन: स्नान कर एक दूसरी गौशाला को लीप कर पाकशाला तैयार की और खीर बनाने के लिए समस्त सामग्री स्वर्ण व रजतपात्रों में एकत्र कर दी।
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ब्राह्मणदेव पुन: खीर बनाने में लग गए पर नन्दनन्दन का खीर से सना मुख उन्हें भूल ही नहीं रहा था।
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उन्होंने बार-बार अपने मन को नन्दनन्दन से खींचकर अपने इष्ट नारायण में लगाने की कोशिश की, पर मन तो न जाने क्यूं श्रीकृष्ण की उसी झांकी में अटक गया था।
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खीर बनाने में वे बार-बार गलती कर रहे थे पर उस जगन्नियन्ता की इच्छा से खीर बन ही गयी और उसकी सुवास से सारी गौशाला सुवासित होने लगी।
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इधर श्रीकृष्ण के नटखट व्यवहार से शंकित व्रजरानी उन्हें गोद में उठाकर बाहर आंगन में आम के वृक्ष की छाया में आकर बैठ गईं।
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उन्होंने निश्चय कर लिया था कि वे श्रीकृष्ण को तब तक नहीं छोड़ेंगीं जब तक ब्राह्मणदेव पारण न कर लें।
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आमवृक्ष के नीचे नीलमणि श्रीकृष्ण को देखकर कोकिला कुहु-कुहु करने लगीं। नीलमणि की मेघ-सदृश्य अंगकांति देख कुछ मयूर नृत्य करने लगे क्योंकि मयूरों को मेघ का रंग बहुत प्रिय होता है।
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श्रीकृष्ण के चरणों में दो-चार मयूरपिच्छ गिर पड़ते हैं जिन्हें उठाकर यशोदा जी कन्हैया के बालों में सजा देती हैं।
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देखो माई ये बडभागी मोर।
जिनकी पंख को मुकुट बनत है,
शिर धरें नंदकिशोर॥
ये बडभागी नंद यशोदा,
पुन्य कीये भरझोर।
वृंदावन हम क्यों न भई हैं
लागत पग की ओर।।
ब्रह्मादिक सनकादिक नारद,
ठाडे हैं कर जोर।
सूरदास संतन को सर्वस्व
देखियत माखन चोर।।
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मयूरों को देखकर श्रीकृष्ण भी माता से उनके साथ नृत्य करने की जिद करने लगे पर माता का सशंकित मन उन्हें छोड़ने को बिल्कुल भी तैयार न था।
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इधर ब्राह्मणदेव ने पुन: खीर तैयार कर ली और वे खीर को थाली में डालकर तालवृन्त के पंख से बयार देकर ठंडा करने लगे।
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श्रीकृष्ण ने सोचा खीर तो अच्छी बनाई है। मुझे अर्पण किए बिना ये पानी भी नहीं पीते हैं। ऐसी सरस खीर बनाई है तो मुझे तो बुलाएंगे ही पर मेरी मां तो मुझे वहां जाने नहीं देंगी।
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श्रीकृष्ण का लीला करने का मन हुआ। वे शीतल वायु के स्पर्श से शीघ्र ही माता की गोद में सो गए।
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पुत्र को सोया हुआ जानकर व्रजरानी भी खुश हो गईं कि बेचारे ब्राह्मणदेव भी अब शांति से भोजन कर सकेंगे।
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श्रीकृष्ण के साथ उनकी सेवा में ऐश्वर्यशक्ति सदा विराजमान रहती है। श्रीकृष्ण ने ऐश्वर्यशक्ति को आज्ञा दी कि मेरी माता को निद्रा आ जाए।
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अचानक ठंडी हवा चलने लगी और ऐश्वर्यशक्ति ने माता की आंखों में प्रवेश किया जिससे एकादशी के जागरण से थकी हुई व्रजरानी निश्चिन्त होकर सो गयीं।
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ब्राह्मणदेव नारायण को मनाते हुए कीर्तन कर रहे हैं–
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शंखचक्रं सकिरीटकुण्डलं सपीतवस्त्रं सरसीरुहक्षणम्।
सहारवक्ष:स्थलकौस्तुभश्रियं नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्।।
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जैसे ही ब्राह्मणदेव ने गोशाला में इष्टचिन्तन कर भोग निवेदित किया तब तक श्रीकृष्ण गोशाला में प्रवेश कर चुके थे।
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कण्व ने मन्त्र संख्या पूरी कर जब आंखें खोलीं तो पहले से भी सुन्दर व माधुर्ययुक्त नन्दनन्दन आसन पर विराजमान होकर खीर अरोग रहे थे।
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कमल के समान रतनारे नेत्र, गोरोचन के तिलक के पास कज्जल का डिठौना, नाक में मोतियों की बाली, धनुष के समान तनी हुई भौंहें, दूध की दँतुलियाँ, मस्तक पर अत्यन्त कोमल काले घुंघराले केश, ललाट पर पुखराज और पद्मराग मणियों से बना लटकन,
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ठुड्डी के नीचे गले में कठुला और बघनखा, श्यामवर्ण कोमल शरीर और उसी के अनुकुल वस्त्र आभूषण ऐसे सजे हैं मानो सुन्दर श्रृंगार-रस का नवीन वृक्ष अद्भुत फलों से फलवान हो रहा हो।
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ब्राह्मण कण्व उस शोभाराशि को मौन होकर एकटक देखते रह गए।
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नन्दरानी की तन्द्रा टूटी। श्रीकृष्ण को गोद में न पाकर वे दौड़ती हुईं गोशाला में आ गईं, साथ ही नन्दबाबा भी वहां आ पहुंचे। उनको देखकर ब्राह्मण कण्व ने कहा–’
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ब्रजेश ! शायद भगवान नहीं चाहते कि तुम्हारे घर मेरा पारण हो। दिन का चौथा प्रहर हो रहा है और सूर्य भी अस्ताचलगामी हो रहे हैं, अत: अब मुझे अपने आश्रम में पहुंच जाना चाहिए।’
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ब्राह्मण की बात सुनकर व्रजरानी ने कहा–’मैं जिन्दगी भर इस दु:ख को भूल न सकूंगी कि एक ब्राह्मण बिना भोजन किए मेरे घर से चले गए।
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देव ! बस, एक बार और आप रसोई बनाने का परिश्रम स्वीकार कर लें। मैं तुरन्त दूसरे स्थान पर सारी व्यवस्था किए देती हूँ। मैं इस चंचल बालक को लेकर अन्य जगह चली जाती हूँ।
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गोशाला के सभी द्वारों पर स्वयं नन्दबाबा को गोपों के साथ पहरा देने के लिए बिठा देती हूँ। जब तक आपका पारण नहीं हो जाता, देखती हूँ, यह बालक यहां कैसे आता है ?’
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ऐसा कहते हुए नन्दरानी के नेत्रों से अविरल अश्रु बहने लगे।
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ब्राह्मण कण्व ने कन्हैया के मुख की ओर देखा। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि कन्हैया माता को रोता देखकर भयभीत हो रहा है।
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भगवान श्रीकृष्ण इतने लीलाधारी हैं कि कभी डरते हैं और कभी रोते भी हैं।
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ब्राह्मण ने तुरन्त नन्दरानी से कहा–’आप शांत हो जाओ। मैं तुम्हें दु:खी करके यहां से नहीं जाना चाहता।’
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यशोदाजी ने कण्व से कहा–’बस, देव ! एक बार और आप खीर बनाने का परिश्रम कर लें। मैं अभी सारी व्यवस्था किए देती हूँ।’
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तीसरी गोशाला में पुन: खीर बनाने की सारी व्यवस्था करके नन्दरानी श्रीकृष्ण को लेकर बगल में उपनन्द के घर चली गयीं।
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गोशाला के मुख्य द्वार पर स्वयं नन्दबाबा पहरा देने लगे व अन्य गोपों को गोशाला की खिड़कियों व अन्य द्वारों पर बिठा दिया गया ताकि कहीं से भी नन्दनन्दन प्रवेश न कर सकें।
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तीसरी बार ब्राह्मणदेव ने जैसे ही खीर बनाकर इष्टदेव को भोग अर्पित करना शुरु किया, श्रीकृष्ण माता का हाथ छुड़ाकर पूरी शक्ति से गोशाला की ओर दौड़े।
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गोशाला के द्वार पर ही नन्दबाबा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया।
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माता यशोदा कातर होकर भगवान को पुकारने लगीं–’नारायण ! नारायण ! रक्षा करो ! हे प्रभु ! मेरे नीलमणि को गोशाला के द्वार पर ही रोक लो।’
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माता ने रोष में भरकर कहा–’अरे नीलमणि ! तुम इतने नटखट हो गए हो, सुबह से ही एक ब्राह्मण को कष्ट दे रहे हो।‘
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पांडे भोग लगावन नहिं पावें।
कर कर पाक वही अर्पत है, तब तब तू छुहि आवे।।
मैं श्रद्धा कर ब्राह्मण न्योत्यौ तू जो गोपाल खिजावे।
वह अपने ठाकुरहिं जिमावत तूं योंही छुइ आवे।।
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नन्दनन्दन ने भी रोष में भरकर तुरन्त कहा–
तू यह बात न जाने री मैया मोहे कित दोष लगावे।
‘परमानन्द’ वह नयन मूंद के मोही कों जु बुलावे।।
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नन्दरानी श्रीकृष्ण की बात को समझ न सकीं। वह यह नहीं जानतीं कि नन्दबाबा के पकड़े जाने पर भी उनका नीलमणि कभी का गोशाला के अन्दर पहुंचकर भोग अरोग रहा है।
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वह यह भी नहीं जानतीं कि जो अजन्मा है, अनादि है, अनन्त है, पूर्ण है, पुरुषोत्तम है, निर्गुण है, सत्य है, प्रत्येक कल्प में स्वयं अपने-आप में अपने-आप का ही सृजन  करता है,
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पालन करता है और फिर संहार कर लेता है, वही विराट् पुरुष मेरा नीलमणि है।
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नन्दरानी तो यह कल्पना भी नहीं कर सकतीं कि समस्त लोकों के स्वामी, महर्षि, देवर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर आदि और संसार में जितनी भी वस्तुएं ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल व विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव व विभूति से युक्त हैं–उन सबके नायक के रूप में मेरा नीलमणि ही है।
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उन्हें तो यह भान ही नहीं है कि मेरी गोद में रहते हुए भी ठीक उसी क्षण मेरा नीलमणि अनन्त रूपों में अवस्थित है।
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काल कौ काल, ईस ईसन कौ,
नन्द भवन कौ भूषन माई।
जसुदा कौ लाल बीर हलधर कौ
राधारमन परम सुखदाई।।
सिव कौ धन, सन्तन कौ सरबस,
महिमा बेद पुरानन गाई।
इन्द्र कौ इन्द्र, देव देवन कौ,
ब्रह्म कौ ब्रह्म अधिक अधिकाई।।
काल कौ काल, ईस ईसन कौ,
अतिहि अतुल तोल्यौ नहिं जाई।
‘नन्ददास’ कौ जीवन गिरिधर,
गोकुल गाँव कौ कुमहर कन्हाई।।
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वात्सल्यरस के अनन्त सुधासागर में आकण्ठ डूबी हुई यशोदामाता को तो हमेशा यही लगता है कि वह मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ शिशु है, अबोध है।
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इसलिए वे अत्यन्त प्रसन्न हैं कि व्रजराज नन्द ने चंचल नीलमणि को गोशाला में प्रवेश करने से रोक दिया है और भगवान का भोग नीलमणि के द्वारा जूठा होने से बच गया।
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दूसरी ओर ब्राह्मण के शाप से भी बालक की रक्षा हो गई, एक महान अनर्थ होने से रह गया।
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इधर जब कण्व ने नेत्र खोले तो देखा कि पहले से सौगुना माधुर्य लिए नन्दनन्दन आसन पर बैठे भोग अरोग रहे हैं।
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पहले दिन के एकादशी के निर्जल व्रत के कारण भूख व थकान से वह व्याकुल हो गए। श्रीकृष्ण को उन पर दया आ गई।
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सोचा कि ब्राह्मण है, मेरा भक्त है, उसे कब तक भ्रांति में रक्खूं। बालस्वरूप अंतर्धान हुआ और चतुर्भुज नारायण प्रकट हो गए।
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कण्व के कानों में शब्द पड़े कि वैकुण्ठ के नारायण ही श्रीकृष्ण हैं। नारायण और श्रीकृष्ण एक ही हैं।
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इस बार कण्व के मन, बुद्धि व नेत्रों पर पड़ा माया का परदा हट चुका था। चतुर्भुजरूप फिर बालरूप में प्रकट हो गया।
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वे उसी क्षण श्रीकृष्ण के चरणों में लोटने लगे और अपने नेत्रों से झरते हुए अश्रुजल से नन्दनन्दन के युगल चरणों को पखारने लगे।
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ब्राह्मण कण्व को सत्य का ज्ञान होने पर श्रीकृष्ण ने मधुर वाणी में कहा–
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’कण्व ! तुम मुझे देखने के लिए अनेक जन्मों से तपस्यारत हो, इसलिए इस बार तुम्हारा यहां मधुपुरी (मथुरा) में जन्म हुआ।
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मैं भी यहां प्रकट हुआ हूँ। इसीलिए तुम मेरा बालरूप व बाललीला देख सके।’ ऐसा कहकर वह कमनीय बालरूप कण्व के नेत्रों से ओझल हो गया।
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जडवत् कण्व न जाने कितनी देर स्तम्भित से स्वेद (पसीने) से तरबतर भावसमाधि में बहे रहे।
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जब कुछ बाह्यस्थिति का ज्ञान हुआ तो श्रीकृष्ण के अधरों से पीये गए उस अमृत (अधरामृत) को सिर पर धारणकर स्वयं उसका पान किया और फिर उसका सारे शरीर पर लेपन कर लिया। प्रेमावेश में ही बुदबुदाते हुए गोशाला का द्वार खोलकर बाहर आए।
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नन्दबाबा ने देखा कि ब्राह्मण के अंग-अंग से आनन्द झर रहा है और वे दिव्योन्माद की दशा में हैं तो वे इतना तो समझ गए कि प्रसाद अर्पण करते समय उन्हें प्रेमावेश हो गया है।
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उन्होंने कण्व से पूछा–’देव! पारण हो गया ?’
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कण्व ने गद्गद् वाणी में कहा–‘हां, व्रजराज ! हो गया, मैं तो अनन्तकाल के लिए तृप्त हो गया।’
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ब्राह्मण कण्व की प्रेमोन्मत्तता और बढ़ती जाती है और वे नन्दबाबा के आंगन में लोट-लोट कर गाने लगे–
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सफल जन्म, प्रभु आजु भयौ।
धनि गोकुल, धनि नन्द-जसोदा,
जाकैं हरि अवतार लयौ।।
प्रगट भयौ अब पुन्य-सुकृत-फल,
दीनबंधु मोहिं दरस दयौ।
बारंबार नन्द के आँगन,
लोटत द्विज आनंदमयौ।।
मैं अपराध कियौ बिनु जानें,
को जानें किहिं भेष जयौ।
सूरदास प्रभु भक्त-हेत-बस,
जसुमति-गृह आनन्द लयौ।।
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अर्थात्–ब्राह्मण की समझ में बात आ गयी। वह बोला–`प्रभो ! मेरा जीवन आज सफल हो गया।
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यह गोकुल धन्य है, श्रीनन्दजी और यशोदाजी धन्य हैं, जिनके यहां साक्षात् श्रीहरि ने अवतार लिया और जो उनकी गोद में खेल रहे हैं।
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मेरे समस्त पुण्यों एवं उत्तम कर्मों का फल आज प्रकट हुआ जो दीनबन्धु प्रभु ने मुझे दर्शन दिया।’ इस प्रकार कहता हुआ ब्राह्मण आनन्दमग्न होकर बार-बार श्रीनन्दजी के आंगन में लोट रहा है।
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ब्राह्मण श्यामसुन्दर से प्रार्थना करता है–प्रभो ! बिना जाने, अज्ञानवश मैंने अपराध किया, आपका अपमान किया, मुझे क्षमा करें।
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पता नहीं, मेरे किस साधन से आप मुझ पर प्रसन्न हुए। मेरे प्रभु ने भक्त के प्रेमवश श्रीयशोदाजी के घर में यह आनन्द-क्रीड़ा की है।
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कृपा करिये कृपाल,
प्रतिपाल संसार उदधि जंजाल तैं परौं पार।
काहू के ब्रह्मा, काहू के महेस,
प्रभु! मेरे तौ तुमही अधार॥
दीन के दयाल हरि, कृपा मोकौं करि,
यह कहि-कहि लोटत बार-बार।
सूर स्याम अंतरजामी स्वामी
जगत के कहा कहौं करौ निरवार॥
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अर्थात्–ब्राह्मण गद्गद् कंठ से कहता है–`हे कृपालु ! मुझ पर कृपा कीजिये और मेरा पालन कीजिये, जिससे इस संसार-सागर रूपी जंजाल में पड़ा मैं इसके पार हो जाऊँ ।
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किसी के आधार ब्रह्माजी हैं और किसी के शंकरजी; किंतु प्रभो ! मेरे आधार तो एक आप ही हैं ।
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हे दीनों पर दया करने वाले श्रीहरि ! मुझ पर कृपा कीजिये। श्यामसुन्दर ! आप अन्तर्यामी हैं, जगत के स्वामी हैं, आपसे और स्पष्ट करके क्या कहूँ।’ यह कहता हुआ वह ब्राह्मण आंगन में पुन: लोटने लगा।
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यशोदामाता को थोड़ी शंका हुई कि श्रीकृष्ण परमात्मा हैं कि मेरा पुत्र है ? कन्हैया ने सोचा कि इस ब्राह्मण ने तो सब गड़बड़ कर दी।
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यदि मां मुझे परमात्मा मानेगी तो प्यार नहीं कर सकेगी।
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ऐश्वर्य और वात्सल्य दोनों का विरोध है। जहां ऐश्वर्य है वहां संकोच होता है। मैं प्रेमरस देने व लेने के लिए ही बालक बना हूँ।
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इसलिए प्रभु ने वैष्णवी माया का ऐसा आवरण डाल दिया कि यशोदामाता ब्राह्मण की सब बातें भूल गईं। माता ने सोचा कन्हैया बहुत सुन्दर है इसलिए जो आता है वही इससे प्रेम करता है।
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 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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