रम्भा-शुक संवाद

रम्भा:
ताम्बूलरागैः कुसुम प्रकर्षैः
सुगन्धितैलेन च वासितायाः ।
न मर्दितौ येन कुचौ निशायां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! सुगंधी पान, उत्तम फूल, सुगंधी तेल, और अन्य पदार्थों से सुवासित कायावाली कामिनी के कुच का मर्दन, रात को जिसने नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुकः
ब्रह्मादि देवोऽखिल विश्वदेवो
मोक्षप्रदोऽतीतगुणः प्रशान्तः ।
धृतो न योगेन हृदि स्वकीये
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
ब्रह्मादि देवों के भी देव, संपूर्ण संसार के स्वामी, मोक्षदाता, निर्गुण, अत्यंत शांत ऐसे भगबान का ध्यान जिसने योग द्वारा हृदय में नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।
रम्भाः
कस्तूरिकाकुंकुम चन्दनैश्च
सुचर्चिता याऽगुरु धूपिकाम्बरा ।
उरः स्थले नो लुठिता निशायां
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
कस्तूरी और केसर से युक्त चंदन का लेप जिसने किया है, अगरु के गंध से सुवासित वस्त्र धारण की हुई तरुणी, रात को जिस पुरुष की छाती पर लेटी नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।
शुकः
आनन्दरुपो निजबोधरुपः
दिव्यस्वरूपो बहुनामरपः ।
तपः समाधौ मिलितो न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! आनंद से परिपूर्ण रुपवाले, दिव्य शरीर को धारण करनेवाले, जिनके अनेक नाम और रुप हैं ऐसे भगवान के दर्शन जिसने समाधि में नहीं किये, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
रम्भा:
कठोर पीनस्तन भारनम्रा
सुमध्यमा चञ्जलखञ्जनाक्षी ।
हेमन्तकाले रमिता न येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
जिस पुरुष ने हेमंत ऋतु में, कठोर और भरे हुए स्तन के भार से झुकी हुई, पतली कमरवाली, चंचल और खंजर से नैनोंवाली स्त्री का संभोग नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुकः
तपोमयो ज्ञानमयो विजन्मा
विद्यामयो योगमयः परात्मा ।
चित्ते धृतो नो तपसि स्थितेन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! तपोमय, ज्ञानमय, जन्मरहित, विद्यामय, योगमय परमात्मा को, तपस्या में लीन होकर जिसने चित्त में धारण नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
रम्भाः 
सुलक्षणा मानवती गुणाढ्या
प्रसन्नवक्त्रा मृदुभाषिणी या ।
नो चुम्बिता येन सुनाभिदेशे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिवर ! सद्लक्षण और गुणों से युक्त, प्रसन्न मुखवाली, मधुर बोलनेवाली, मानिनी सुंदरी के नाभि का जिसने चुंबन नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुकः
पल्यार्जितं सर्वसुखं विनश्वरं
दुःखप्रदं कामिनिभोग सेवितम् ।
एवं विदित्वा न धृतो हि योगो
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! जिस इन्सान ने, नारी के सेवन से उत्पन्न सब सुख नाशवंत, और दुःखदायक है ऐसा जानने के बावजुद जिसने योगाभ्यास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
रम्भा:
विशालवेणी नयनाभिरामा
कन्दर्प सम्पूर्ण निधानरुपा ।
भुक्ता न येनैव वसन्तकाले
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
जिस पुरुष ने वसंत ऋतु में लंबे बालवाली, सुंदर नेत्रों से सुशोभित कामदेव के समस्त भंडाररुप ऐसी कामिनी के साथ विहार न किया हो, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुकः
मायाकरण्डी नरकस्य हण्डी
तपोविखण्डी सुकृतस्य भण्डी ।
नृणां विखण्डी चिरसेविता चेत्
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! नारी माया की पटारी, नर्क की हंडी, तपस्या का विनाश करनेवाली, पुण्य का नाश करनेवाली, पुरुष की घातक है; इस लिए जिस पुरुष ने अधिक समय तक उसका सेवन किया है, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
रम्भाः
समस्तशृङ्गार विनोदशीला
लीलावती कोकिल कण्ठमाला ।
विलासिता नो नवयौवनेन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! जिस पुरुष ने अपनी युवानी में, समस्त शृंगार और मनोविवाद करने में चतुर और अनेक लीलाओं में कुशल और कोकिलकंठी कामिनी के साथ विलास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।
शुक:
समाधि ह्रंत्री जनमोहयित्री
धर्मे कुमन्त्री कपटस्य तन्त्री ।
सत्कर्म हन्त्री कलिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
समाधि का नाश करनेवाली, लोगों को मोहित करनेवाली, धर्म विनाशिनी, कपट की वीणा, सत्कर्मो का नाश करनेवाली नारी का जिसने सेवन किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
रम्भा: 
बिल्वस्तनी कोमलिता सुशीला
सुगन्धयुक्ता ललिता च गौरी ।
नाऽऽश्लेषिता येन च कण्ठदेशे
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिराज ! बिल्वफल जैसे कठिन स्तन है, अत्यंत कोमल जिसका शरीर है, जिसका स्वभाव प्रिय है, ऐसी सुवासित केशवाली, ललचानेवाली गौर युवती को जिसने आलिंगन नहीं दिया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।
शुक:
चिन्ताव्यथादुःखमया सदोषा
संसारपाशा जनमोहकर्त्री ।
सन्तापकोशा भजिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
चिंता, पीडा, और अनेक प्रकार के दुःख से परिपूर्ण, दोष से भरी हुई, संसार में बंधनरुप, और संताप का खजाना, ऐसी नारी का जिसने सेवन किया उसका जन्म व्यर्थ गया ।
रम्भा:
आनन्द कन्दर्पनिधान रुपा
झणत्क्वणत्कं कण नूपुराढ्या ।
नाऽस्वादिता येन सुधाधरस्था
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥

हे मुनिवर ! आनंद और कामदेव के खजाने समान, खनकते कंगन और नूपुर पहेनी हुई कामिनी के होठ पर जिसने चुंबन किया नहीं, उस पुरुष का जीवन व्यर्थ है ।
शुक:
कापट्यवेषा जनवञ्चिका सा
विण्मूत्र दुर्गन्धदरी दुराशा ।
संसेविता येन सदा मलाढ्या
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
छल-कपट करनेवाली, लोगों को बनानेवाली, विष्टा-मूत्र और दुर्गंध की गुफारुप, दुराशाओं से परिपूर्ण, अनेक प्रकार से मल से भरी हुई, ऐसी स्त्री का सेवन जिसने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।
रम्भाः 
चन्द्रानना सुन्दरगौरवर्णा
व्यक्तस्तनीभोगविलास दक्षा ।
नाऽऽन्दोलिता वै शयनेषु येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिवर ! चंद्र जैसे मुखवाली, सुंदर और गौर वर्णवाली, जिसकी छाती पर स्तन व्यक्त हुए हैं ऐसी, संभोग और विलास में चतुर, ऐसी स्त्री को बिस्तर में जिसने आलिंगन नहीं दिया, उसका जीवन व्यर्थ है ।
शुक:   
उन्मत्तवेषा मदिरासु मत्ता
पापप्रदा लोकविडम्बनीया ।
योगच्छला येन विभाजिता च
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! पागल जैसा विचित्र वेष धारण की हुई, मदिरा पीकर मस्त बनी हुई, पाप देनेवाली, लोगों को बनानेवाली, और योगीयों के साथ कपट करनेवाली स्त्री का सेवन जिसने किया है, उसका जीवन व्यर्थ है ।
रम्भा: 
आनन्दरुपा तरुणी नगाङ्गी
सद्धर्मसंसाधन सृष्टिरुपा ।
कामार्थदा यस्य गृहे न नारी
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनि ! आनंदरुप, नतांगी युवती, उत्तम धर्म के पालन में और पुत्रादि पैदा करने में सहायक, इंद्रियों को संतोष देनेवाली नारी जिस पुरुष के घर में न हो, उसका जीवन व्यर्थ है ।
शुक:   
अशौचदेहा पतित स्वभावा
वपुःप्रगल्भा बललोभशीला ।
मृषा वदन्ती कलिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
अशुद्ध शरीरवाली, पतित स्वभाववाली, प्रगल्भ देहवाली, साहस और लोभ करानेवाली, झूठ बोलनेवाली, ऐसी नारी का विश्वास जिसने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।
रम्भा:
क्षामोदरी हंसगतिः प्रमत्ता
सौंदर्यसौभाग्यवती प्रलोला ।
न पीडिता येन रतौ यथेच्छं
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे मुनिवर ! पतली कमरवाली, हंस की तरह चलनेवाली, प्रमत्त सुंदर, सौभाग्यवती , चंचल स्वभाववाली स्त्री को रतिक्रीडा के वक्त अनुकुलतया पीडित की नहीं है, उसका जीवन व्यर्थ है ।
शुक:
संसारसद्भावन भक्तिहीना
चित्तस्य चौरा हृदि निर्दया च ।
विहाय योगं कलिता च येन
वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥
हे रंभा ! संसार की उत्तम भावनाओं को प्रकट करनेवाले प्रेम से रहित पुरुषों के चित्त को चोरनेवाली, ह्रदय में दया न रखनेवाली, ऐसी स्त्री का आलिंगन, योगाभ्यास छोडकर जिस पुरुष ने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।
रम्भा:
सुगन्धैः सुपुष्पैः सुशय्या सुकान्ता
वसन्तो ऋतुः पूर्णिमा पूर्णचन्द्रः ।
यदा नास्ति पुंस्त्वं नरस्य प्रभूतं
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
हे मुनिवर ! सुंदर, सुगंधित पुष्पों से सुशोभित शय्या हो, मनोनुकूल सुंदर स्त्री हो, वसंत ऋतु हो, पूर्णिमा के चंद्र की चांदनी खीली हो, पर यदि पुरुष में परिपूर्ण पुरुषत्त्व न हो तो उसका जीवन व्यर्थ है ।
सुरुपं शरीरं नवीनं कलत्रं मुद्रण ई-मेल
शुक:
सुरुपं शरीरं नवीनं कलत्रं
धनं मेरुतुल्यं वचश्चारुचित्रम् ।
हरस्याङ्घि युग्मे मनश्चेदलग्नं
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
हे रंभा ! सुंदर शरीर हो, युवा पत्नी हो, मेरु पर्वत समान धन हो, मन को लुभानेवाली मधुर वाणी हो, पर यदि भगवान शिवजी के चरणकमल में मन न लगे, तो जीवन व्यर्थ है ।

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