सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

देव प्रबोधिनी एकादशी व्रत कथा

           देव प्रबोधिनी एकादशी व्रत कथा

 

 ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! अब पापों को हरने वाली पुण्य और मुक्ति देने वाली एकादशी का माहात्म्य सुनिए। पृथ्वी पर गंगा की महत्ता और समुद्रों तथा तीर्थों का प्रभाव तभी तक है जब तक कि कार्तिक की देव प्रबोधिनी एकादशी तिथि नहीं आती। मनुष्य को जो फल एक हजार अश्वमेध और एक सौ राजसूय यज्ञों से मिलता है वही प्रबोधिनी एकादशी से मिलता है। नारदजी कहने लगे कि हे पिता! एक समय भोजन करने, रात्रि को भोजन करने तथा सारे दिन उपवास करने से क्या फल मिलता है सो विस्तार से बताइए।

ब्रह्माजी बोले- हे पुत्र। एक बार भोजन करने से एक जन्म और रात्रि को भोजन करने से दो जन्म तथा पूरा दिन उपवास करने से सात जन्मों के पाप नाश होते हैं। जो वस्तु त्रिलोकी में न मिल सके और दिखे भी नहीं वह हरि प्रबोधिनी एकादशी से प्राप्त हो सकती है। मेरु और मंदराचल के समान भारी पाप भी नष्ट हो जाते हैं तथा अनेक जन्म में किए हुए पाप समूह क्षणभर में भस्म हो जाते हैं।

जैसे रुई के बड़े ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिंगारी पलभर में भस्म कर देती है। विधिपूर्वक थोड़ा-सा पुण्य कर्म बहुत फल देता है परंतु विधि ‍रहित अधिक किया जाए तो भी उसका फल कुछ नहीं मिलता। संध्या न करने वाले, नास्तिक, वेद निंदक, धर्मशास्त्र को दूषित करने वाले, पापकर्मों में सदैव रत रहने वाले, धोखा देने वाले ब्राह्मण और शूद्र, परस्त्री गमन करने वाले तथा ब्राह्मणी से भोग करने वाले ये सब चांडाल के समान हैं। जो विधवा अथवा सधवा ब्राह्मणी से भोग करते हैं, वे अपने कुल को नष्ट कर देते हैं।

परस्त्री गामी के संतान नहीं होती और उसके पूर्व जन्म के संचित सब अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। जो गुरु और ब्राह्मणों से अहंकारयुक्त बात करता है वह भी धन और संतान से हीन होता है। भ्रष्टाचार करने वाला, चांडाली से भोग करने वाला, दुष्ट की सेवा करने वाला और जो नीच मनुष्य की सेवा करते हैं या संगति करते हैं, ये सब पाप हरि प्रबोधिनी एकादशी के व्रत से नष्ट हो जाते हैं।

जो मनुष्य इस एकादशी के व्रत को करने का संकल्प मात्र करते हैं उनके सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो इस दिन रात्रि जागरण करते हैं उनकी आने वाली दस हजार पीढि़याँ स्वर्ग को जाती हैं। नरक के दु:खों से छूटकर प्रसन्नता के साथ सुसज्जित होकर वे विष्णुलोक को जाते हैं। ब्रह्महत्यादि महान पाप भी इस व्रत के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। जो फल समस्त तीर्थों में स्नान करने, गौ, स्वर्ण और भूमि का दान करने से होता है, वही फल इस एकादशी की रात्रि को जागरण से मिलता है।

हे मुनिशार्दूल। इस संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जिसने हरि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत किया है। वही ज्ञानी तपस्वी और जितेंद्रीय है तथा उसी को भोग एवं मोक्ष मिलता है जिसने इस एकादशी का व्रत किया है। वह विष्णु को अत्यंत प्रिय, मोक्ष के द्वार को बताने वाली और उसके तत्व का ज्ञान देने वाली है। मन, कर्म, वचन तीनों प्रकार के पाप इस रात्रि को जागरण से नष्ट हो जाते हैं।

इस दिन जो मनुष्य भगवान की प्रसन्नता के लिए स्नान, दान, तप और यज्ञादि करते हैं, वे अक्षय पुण्य को प्राप्त होते हैं। प्रबोधिनी एकादशी के दिन व्रत करने से मनुष्य के बाल, यौवन और वृद्धावस्था में किए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस दिन रात्रि जागरण का फल चंद्र, सूर्य ग्रहण के समय स्नान करने से हजार गुना अधिक होता है। अन्य कोई पुण्य इसके आगे व्यर्थ हैं। जो मनुष्य इस व्रत को नहीं करते उनके अन्य पुण्य भी व्यर्थ ही हैं।

अत: हे नारद! तुम्हें भी विधिपूर्वक इस व्रत को करना चाहिए। जो कार्तिक मास में धर्मपारायण होकर अन्न नहीं खाते उन्हें चांद्रायण व्रत का फल प्राप्त होता है। इस मास में भगवान दानादि से जितने प्रसन्न नहीं होते जितने शास्त्रों में लिखी कथाओं के सुनने से होते हैं। कार्तिक मास में जो भगवान विष्णु की कथा का एक या आधा श्लोक भी पढ़ते, सुनने या सुनाते हैं उनको भी एक सौ गायों के दान के बराबर फल मिलता है। अत: अन्य सब कर्मों को छोड़कर कार्तिक मास में मेरे सन्मुख बैठकर कथा पढ़नी या सुननी चाहिए।

जो कल्याण के लिए इस मास में हरि कथा कहते हैं वे सारे कुटुम्ब का क्षण मात्र में उद्धार कर देते हैं। शास्त्रों की कथा कहने-सुनने से दस हजार यज्ञों का फल मिलता है। जो नियमपूर्वक हरिकथा सुनते हैं वे एक हजार गोदान का फल पाते हैं। विष्णु के जागने के समय जो भगवान की कथा सुनते हैं वे सातों द्वीपों समेत पृथ्वी के दान करने का फल पाते हैं। कथा सुनकर वाचक को जो मनुष्य सामर्थ्य के अनुसार ‍दक्षिणा देते हैं उनको सनातन लोक मिलता है।

व्रत करने की विधि :-
ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारदजी ने कहा कि भगवन! इस एकाद‍शी के व्रत की ‍विधि हमसे कहिए और बताइए कि कैसा व्रत करना चाहिए। इस ब्रह्माजी ने कहा कि ब्रह्ममुहूर्त में जब दो घड़ी रात्रि रह जाए तब उठकर शौचादि से निवृत्त होकर दंत-धावन आदि कर नदी, तालाब, कुआँ, बावड़ी या घर में ही जैसा संभव हो स्नानादि करें, फिर भगवान की पूजा करके कथा सुनें। फिर व्रत का नियम ग्रहण करना चाहिए।

उस समय भगवान से प्रार्थना करें कि हे भगवन! आज मैं निराहार रहकर व्रत करूँगा। आप मेरी रक्षा कीजिए। दूसरे दिन द्वादशी को भोजन करूँगा। तत्पश्चात भक्तिभाव से व्रत करें तथा रात्रि को भगवान के आगे नृत्य, गीतादि करना चाहिए। कृपणता त्याग कर बहुत से फूलों, फल, अगर, धूप आदि से भगवान का पूजन करना चाहिए। शंखजल से भगवान को अर्घ्य दें।

इसका समस्त तीर्थों से करोड़ गुना फल होता है। जो मनुष्य अगस्त्य के पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं उनके आगे इंद्र भी हाथ जोड़ता है। तपस्या करके संतुष्ट होने पर हरि भगवान जो नहीं करते, वह अगस्त्य के पुष्पों से भगवान को अलंकृत करने से करते हैं। जो कार्तिक मास में बिल्वपत्र से भगवान की पूजा करते हैं वे ‍मुक्ति को प्राप्त होते हैं।

कार्तिक मास में जो तुलसी से भगवान का पूजन करते हैं, उनके दस हजार जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। तुलसी दर्शन करने, स्पर्श करने, कथा कहने, नमस्कार करने, स्तुति करने, तुलसी रोपण, जल से सींचने और प्रतिदिन पूजन सेवा आदि करने से हजार करोड़ युगपर्यंत विष्णु लोक में निवास करते हैं। जो तुलसी का पौधा लगाते हैं, उनके कुटुम्ब से उत्पन्न होने वाले प्रलयकाल तक विष्णुलोक में निवास करते हैं।

तुलसी रोपण का महत्वहे मुनि! रोपी तुलसी जितनी जड़ों का विस्तार करती है उतने ही हजार युग पर्यंत तुलसी रोपण करने वाले सुकृत का विस्तार होता है। जिस मनुष्य की रोपणी की हुई तुलसी जितनी शाखा, प्रशाखा, बीज और फल पृथ्वी में बढ़ते हैं, उसके उतने ही कुल जो बीत गए हैं और होंगे दो हजार कल्प तक विष्णुलोक में निवास करते हैं। जो कदम्ब के पुष्पों से श्रीहरि का पूजन करते हैं वे भी कभी यमराज को नहीं देखते। जो गुलाब के पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं उन्हें मुक्ति मिलती है।

जो वकुल और अशोक के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं वे सूर्य-चंद्रमा रहने तक किसी प्रकार का शोक नहीं पाते। जो मनुष्य सफेद या लाल कनेर के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं उन पर भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और जो भगवान पर आम की मंजरी चढ़ाते हैं, वे करोड़ों गायों के दान का फल पाते हैं। जो दूब के अंकुरों से भगवान की पूजा करते हैं वे सौ गुना पूजा का फल ग्रहण करते हैं।

जो शमी के पत्र से भगवान की पूजा करते हैं, उनको महाघोर यमराज के मार्ग का भय नहीं रहता। जो भगवान को चंपा के फूलों से पूजते हैं वे फिर संसार में नहीं आते। केतकी के पुष्प चढ़ाने से करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। पीले रक्तवर्ण के कमल के पुष्पों से भगवान का पूजन करने वाले को श्वेत द्वीप में स्थान मिलता है।

इस प्रकार रात्रि को भगवान का पूजन कर प्रात:काल होने पर नदी पर जाएँ और वहाँ स्नान, जप तथा प्रात:काल के कर्म करके घर पर आकर विधिपूर्वक केशव का पूजन करें। व्रत की समाप्ति पर विद्वान ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और दक्षिणा देकर क्षमायाचना करें। इसके पश्चात भोजन, गौ और दक्षिणा देक गुरु का पूजन कें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और जो चीज व्रत के आरंभ में छोड़ने का नियम किया था, वह ब्राह्मणों को दें। रात्रि में भोजन करने वाला मनुष्य ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा स्वर्ण सहित बैलों का दान करे।

जो मनुष्य मांसाहारी नहीं है वह गौदान करे। आँवले से स्नान करने वाले मनुष्य को दही और शहद का दान करना चाहिए। जो फलों को त्यागे वह फलदान करे। तेल छोड़ने से घृत और घृत छोड़ने से दूध, अन्न छोड़ने से चावल का दान किया जाता है।

इसी प्रकार जो मनुष्य भूमि शयन का व्रत लेते हैं उन्हें शैयादान करना चाहिए, साथ ही तुलसी सब सामग्री सहित देना चाहिए। पत्ते पर भोजन करने वाले को सोने का पत्ता घृत सहित देना चाहिए। मौन व्रत धारण करने वाले को ब्राह्मण और ब्राह्मणी को घृत तथा मिठाई का भोजन कराना चाहिए। बाल रखने वाले को दर्पण, जूता छोड़ने वाले को एक जोड़ जूता, लवण त्यागने वाले को शर्करा, मंदिर में दीपक जलाने वाले को तथा नियम लेने वाले को व्रत की समाप्ति पर ताम्र अथवा स्वर्ण के पत्र पर घृत और बत्ती रखकर विष्णुभक्त ब्राह्मण को दान देना चाहिए।

एकांत व्रत में आठ कलश वस्त्र और स्वर्ण से अलंकृत करके दान करना चाहिए। यदि यह भी न हो सके तो इनके अभाव में ब्राह्मणों का सत्कार सब व्रतों को सिद्ध करने वाला कहा गया है। इस प्रकार ब्राह्मण को प्रणाम करके विदा करें। इसके पश्चात स्वयं भी भोजन करें। जिन वस्तुओं को चातुर्मास में छोड़ा हो, उन वस्तुअओं की समाप्ति करें अर्थात ग्रहण करने लग जाएँ।

हे राजन! जो बुद्धिमान इस प्रकार चातुर्मास व्रत निर्विघ्न समाप्त करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं और फिर उनका जन्म नहीं होता। यदि व्रत भ्रष्ट हो जाए तो व्रत करने वाला कोढ़ी या अंधा हो जाता है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि राजन जो तुमने पूछा था वह सब मैंने बतलाया। इस कथा को पढ़ने और सुनने से गौदान का फल प्राप्त होता है |

रविवार, 29 अक्टूबर 2017

जनक ने सीता स्वयंवर में अयोध्या नरेश दशरथ को आमंत्रण क्यों नहीं भेजा?

जनक ने सीता स्वयंवर में अयोध्या नरेश दशरथ को आमंत्रण क्यों नहीं भेजा?


 जनक के शासनकाल में एक व्यक्ति का विवाह हुआ। जब वह पहली बार सज-सँवरकर ससुराल के लिए चला, तो रास्ते में चलते-चलते एक जगह उसको दलदल मिला, जिसमें एक गाय फँसी हुई थी, जो लगभग मरने के कगार पर थी।

 उसने विचार किया कि गाय तो कुछ देर में मरने वाली ही है तथा कीचड़ में जाने पर मेरे कपड़े तथा जूते खराब हो जाएँगे, अतः उसने गाय के ऊपर पैर रखकर आगे बढ़ गया। जैसे ही वह आगे बढ़ा गाय ने तुरन्त दम तोड़ दिया तथा शाप दिया कि जिसके लिए तू जा रहा है, उसे देख नहीं पाएगा, यदि देखेगा तो वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी।

वह व्यक्ति अपार दुविधा में फँस गया और गौ-शाप से मुक्त होने का विचार करने लगा। ससुराल पहुँचकर वह दरवाजे के बाहर घर की ओर पीठ करके बैठ गया और यह विचार कर कि यदि पत्नी पर नजर पड़ी, तो अनिष्ट नहीं हो जाए। परिवार के अन्य सदस्यों ने घर के अन्दर चलने का काफी अनुरोध किया, किन्तु वह नहीं गया और न ही रास्ते में घटित घटना के बारे में किसी को बताया।

उसकी पत्नी को जब पता चला, तो उसने कहा कि चलो, मैं ही चलकर उन्हें घर के अन्दर लाती हूँ। पत्नी ने जब उससे कहा कि आप मेरी ओर क्यों नहीं देखते हो, तो भी चुप रहा। काफी अनुरोध करने के उपरान्त उसने रास्ते का सारा वृतान्त कह सुनाया।

पत्नी ने कहा कि मैं भी पतिव्रता स्त्री हूँ। ऐसा कैसे हो सकता है? आप मेरी ओर अवश्य देखो। पत्नी की ओर देखते ही उसकी आँखों की रोशनी चली गई और वह गाय के शापवश पत्नी को नहीं देख सका।

पत्नी पति को साथ लेकर राजा जनक के दरबार में गई और सारा कह सुनाया। राजा जनक ने राज्य के सभी विद्वानों को सभा में बुलाकर समस्या बताई और गौ-शाप से निवृत्ति का सटीक उपाय पूछा।

 सभी विद्वानों ने आपस में मन्त्रणा करके एक उपाय सुझाया कि, यदि कोई पतिव्रता स्त्री छलनी में गंगाजल लाकर उस जल के छींटे इस व्यक्ति की दोनों आँखों पर लगाए, तो गौ-शाप से मुक्ति मिल जाएगी और इसकी आँखों की रोशनी पुनः लौट सकती है।

राजा ने पहले अपने महल के अन्दर की रानियों सहित सभी स्त्रियों से पूछा, तो राजा को सभी के पतिव्रता होने में संदेह की सूचना मिली। अब तो राजा जनक चिन्तित हो गए। तब उन्होंने आस-पास के सभी राजाओं को सूचना भेजी कि उनके राज्य में यदि कोई पतिव्रता स्त्री है, तो उसे सम्मान सहित राजा जनक के दरबार में भेजा जाए।

जब यह सूचना राजा दशरथ (अयोध्या नरेश) को मिली, तो उसने पहले अपनी सभी रानियों से पूछा। प्रत्येक रानी का यही उत्तर था कि राजमहल तो क्या आप राज्य की किसी भी महिला यहाँ तक कि झाडू लगाने वाली, जो कि उस समय अपने कार्यों के कारण सबसे निम्न श्रेणि की मानी जाती थी, से भी पूछेंगे, तो उसे भी पतिव्रता पाएँगे।

राजा दशरथ को इस समय अपने राज्य की महिलाओं पर आश्चर्य हुआ और उसने राज्य की सबसे निम्न मानी जाने वाली सफाई वाली को बुला भेजा और उसके पतिव्रता होने के बारे में पूछा। उस महिला ने स्वीकृति में गर्दन हिला दी।

तब राजा ने यह दिखाने कर लिए कि अयोध्या का राज्य सबसे उत्तम है, उस महिला को ही राज-सम्मान के साथ जनकपुर को भेज दिया। राजा जनक ने उस महिला का पूर्ण राजसी ठाठ-बाट से सम्मान किया और उसे समस्या बताई। महिला ने कार्य करने की स्वीकृति दे दी।

 महिला छलनी लेकर गंगा किनारे गई और प्रार्थना की कि, ‘हे गंगा माता! यदि मैं पूर्ण पतिव्रता हूँ, तो गंगाजल की एक बूँद भी नीचे नहीं गिरनी चाहिए।’

प्रार्थना करके उसने गंगाजल को छलनी में पूरा भर लिया और पाया कि जल की एक बूँद भी नीचे नहीं गिरी। तब उसने यह सोचकर कि यह पवित्र गंगाजल कहीं रास्ते में छलककर नीचे नहीं गिर जाए, उसने थोड़ा-सा गंगाजल नदी में ही गिरा दिया और पानी से भरी छलनी को लेकर राजदरबार में चली आयी।

राजा और दरबार में उपस्थित सभी नर-नारी यह दृश्य देक आश्चर्यचकित रह गए तथा उस महिला को ही उस व्यक्ति की आँखों पर छींटे मारने का अनुरोध किया और पूर्ण राजसम्मान देकर काफी पारितोषिक दिया।

जब उस महिला ने अपने राज्य को वापस जाने की अनुमति माँगी, तो राजा जनक ने अनुमति देते हुए जिज्ञाशावश उस महिला से उसकी जाति के बारे में पूछा। महिला द्वारा बताए जाने पर, राजा आश्चर्यचकित रह गए।

सीता स्वयंवर के समय यह विचार कर कि जिस राज्य की सफाई करने वाली इतनी पतिव्रता हो सकती है, तो उसका पति कितना शक्तिशाली होगा?

यदि राजा दशरथ ने उसी प्रकार के किसी व्यक्ति को स्वयंवर में भेज दिया, तो वह तो धनुष को आसानी से संधान कर सकेगा और कहीं राजकुमारी किसी निम्न श्रेणी के व्यक्ति को न वर ले, अयोध्या नरेश को राजा जनक ने निमन्त्रण नहीं भेजा, किन्तु विधाता की लेखनी को कौन मिटा सकता है?

अयोध्या के राजकुमार वन में विचरण करते हुए अपने गुरु के साथ जनकपुर पहुँच ही गए और धनुष तोड़कर राजकुमार राम ने सीता को वर लिया,

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

पुत्र प्राप्ति हेतु पाठ करें


॥ सन्तानगोपाल स्तोत्र ॥
सन्तानगोपाल मूल मन्त्र: ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

सन्तानगोपालस्तोत्रं
श्रीशं कमलपत्राक्षं देवकीनन्दनं हरिम् ।
सुतसंप्राप्तये कृष्णं नमामि मधुसूदनम् ॥१॥
नमाम्यहं वासुदेवं सुतसंप्राप्तये हरिम् ।
यशोदाङ्कगतं बालं गोपालं नन्दनन्दनम्॥२॥
अस्माकं पुत्रलाभाय गोविन्दं मुनिवन्दितम् ।
नमाम्यहं वासुदेवं देवकीनन्दनं सदा ॥३॥
गोपालं डिम्भकं वन्दे कमलापतिमच्युतम् ।
पुत्रसंप्राप्तये कृष्णं नमामि यदुपुङ्गवम् ॥४॥
पुत्रकामेष्टिफलदं कञ्जाक्षं कमलापतिम् ।
देवकीनन्दनं वन्दे सुतसम्प्राप्तये मम ॥५॥
पद्मापते पद्मनेत्रे पद्मनाभ जनार्दन ।
देहि मे तनयं श्रीश वासुदेव जगत्पते ॥६॥
यशोदाङ्कगतं बालं गोविन्दं मुनिवन्दितम् ।
अस्माकं पुत्र लाभाय नमामि श्रीशमच्युतम् ॥७॥
श्रीपते देवदेवेश दीनार्तिर्हरणाच्युत ।
गोविन्द मे सुतं देहि नमामि त्वां जनार्दन ॥८॥
भक्तकामद गोविन्द भक्तं रक्ष शुभप्रद ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ॥९॥
रुक्मिणीनाथ सर्वेश देहि मे तनयं सदा ।
भक्तमन्दार पद्माक्ष त्वामहं शरणं गतः ॥१०॥

देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥११॥
वासुदेव जगद्वन्द्य श्रीपते पुरुषोत्तम ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥१२॥
कञ्जाक्ष कमलानाथ परकारुणिकोत्तम ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥१३॥
लक्ष्मीपते पद्मनाभ मुकुन्द मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥१४॥
कार्यकारणरूपाय वासुदेवाय ते सदा ।
नमामि पुत्रलाभार्थ सुखदाय बुधाय ते ॥१५॥
राजीवनेत्र श्रीराम रावणारे हरे कवे ।
तुभ्यं नमामि देवेश तनयं देहि मे हरे ॥१६॥
अस्माकं पुत्रलाभाय भजामि त्वां जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव रमापते ॥१७॥
श्रीमानिनीमानचोर गोपीवस्त्रापहारक ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव जगत्पते ॥१८॥
अस्माकं पुत्रसंप्राप्तिं कुरुष्व यदुनन्दन ।
रमापते वासुदेव मुकुन्द मुनिवन्दित ॥१९॥
वासुदेव सुतं देहि तनयं देहि माधव ।
पुत्रं मे देहि श्रीकृष्ण वत्सं देहि महाप्रभो ॥२०॥

डिम्भकं देहि श्रीकृष्ण आत्मजं देहि राघव ।
भक्तमन्दार मे देहि तनयं नन्दनन्दन ॥२१॥
नन्दनं देहि मे कृष्ण वासुदेव जगत्पते ।
कमलनाथ गोविन्द मुकुन्द मुनिवन्दित ॥२२॥
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।
सुतं देहि श्रियं देहि श्रियं पुत्रं प्रदेहि मे ॥२३॥
यशोदास्तन्यपानज्ञं पिबन्तं यदुनन्दनं ।
वन्देऽहं पुत्रलाभार्थं कपिलाक्षं हरिं सदा ॥२४॥
नन्दनन्दन देवेश नन्दनं देहि मे प्रभो ।
रमापते वासुदेव श्रियं पुत्रं जगत्पते ॥२५॥
पुत्रं श्रियं श्रियं पुत्रं पुत्रं मे देहि माधव ।
अस्माकं दीनवाक्यस्य अवधारय श्रीपते ॥२६॥
गोपाल डिम्भ गोविन्द वासुदेव रमापते ।
अस्माकं डिम्भकं देहि श्रियं देहि जगत्पते ॥२७॥
मद्वाञ्छितफलं देहि देवकीनन्दनाच्युत ।
मम पुत्रार्थितं धन्यं कुरुष्व यदुनन्दन ॥२८॥
याचेऽहं त्वां श्रियं पुत्रं देहि मे पुत्रसंपदम्।
भक्तचिन्तामणे राम कल्पवृक्ष महाप्रभो ॥२९॥
आत्मजं नन्दनं पुत्रं कुमारं डिम्भकं सुतम् ।
अर्भकं तनयं देहि सदा मे रघुनन्दन ॥३०॥

वन्दे सन्तानगोपालं माधवं भक्तकामदम् ।
अस्माकं पुत्रसंप्राप्त्यै सदा गोविन्दमच्युतम् ॥३१॥
ॐकारयुक्तं गोपालं श्रीयुक्तं यदुनन्दनम् ।
क्लींयुक्तं देवकीपुत्रं नमामि यदुनायकम् ॥३२॥
वासुदेव मुकुन्देश गोविन्द माधवाच्युत ।
देहि मे तनयं कृष्ण रमानाथ महाप्रभो ॥३३॥
राजीवनेत्र गोविन्द कपिलाक्ष हरे प्रभो ।
समस्तकाम्यवरद देहि मे तनयं सदा ॥३४॥
अब्जपद्मनिभं पद्मवृन्दरूप जगत्पते ।
देहि मे वरसत्पुत्रं रमानायक माधव ॥३५॥
नन्दपाल धरापाल गोविन्द यदुनन्दन ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ॥३६॥
दासमन्दार गोविन्द मुकुन्द माधवाच्युत ।
गोपाल पुण्डरीकाक्ष देहि मे तनयं श्रियम् ॥३७॥
यदुनायक पद्मेश नन्दगोपवधूसुत ।
देहि मे तनयं कृष्ण श्रीधर प्राणनायक ॥३८॥
अस्माकं वाञ्छितं देहि देहि पुत्रं रमापते ।
भगवन् कृष्ण सर्वेश वासुदेव जगत्पते ॥३९॥
रमाहृदयसंभारसत्यभामामनः प्रिय ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ॥४०॥

चन्द्रसूर्याक्ष गोविन्द पुण्डरीकाक्ष माधव ।
अस्माकं भाग्यसत्पुत्रं देहि देव जगत्पते ॥४१॥
कारुण्यरूप पद्माक्ष पद्मनाभसमर्चित ।
देहि मे तनयं कृष्ण देवकीनन्दनन्दन ॥४२॥
देवकीसुत श्रीनाथ वासुदेव जगत्पते ।
समस्तकामफलद देहि मे तनयं सदा ॥४३॥
भक्तमन्दार गम्भीर शङ्कराच्युत माधव ।
देहि मे तनयं गोपबालवत्सल श्रीपते ॥४४॥
श्रीपते वासुदेवेश देवकीप्रियनन्दन ।
भक्तमन्दार मे देहि तनयं जगतां प्रभो ॥४५॥
जगन्नाथ रमानाथ भूमिनाथ दयानिधे ।
वासुदेवेश सर्वेश देहि मे तनयं प्रभो ॥४६॥
श्रीनाथ कमलपत्राक्ष वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥४७॥
दासमन्दार गोविन्द भक्तचिन्तामणे प्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥४८॥
गोविन्द पुण्डरीकाक्ष रमानाथ महाप्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥४९॥
श्रीनाथ कमलपत्राक्ष गोविन्द मधुसूदन ।
मत्पुत्रफलसिद्ध्यर्थं भजामि त्वां जनार्दन ॥५०॥

स्तन्यं पिबन्तं जननीमुखांबुजं विलोक्य मन्दस्मितमुज्ज्वलाङ्गम् ।
स्पृशन्तमन्यस्तनमङ्गुलीभिर्वन्दे यशोदाङ्कगतं मुकुन्दम् ॥५१॥
याचेऽहं पुत्रसन्तानं भवन्तं पद्मलोचन ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥५२॥
अस्माकं पुत्रसम्पत्तेश्चिन्तयामि जगत्पते ।
शीघ्रं मे देहि दातव्यं भवता मुनिवन्दित ॥५३॥
वासुदेव जगन्नाथ श्रीपते पुरुषोत्तम ।
कुरु मां पुत्रदत्तं च कृष्ण देवेन्द्रपूजित ॥५४॥
कुरु मां पुत्रदत्तं च यशोदाप्रियनन्दनम् ।
मह्यं च पुत्रसन्तानं दातव्यंभवता हरे ॥५५॥
वासुदेव जगन्नाथ गोविन्द देवकीसुत ।
देहि मे तनयं राम कौशल्याप्रियनन्दन ॥५६॥
पद्मपत्राक्ष गोविन्द विष्णो वामन माधव ।
देहि मे तनयं सीताप्राणनायक राघव ॥५७॥
कञ्जाक्ष कृष्ण देवेन्द्रमण्डित मुनिवन्दित ।
लक्ष्मणाग्रज श्रीराम देहि मे तनयं सदा ॥५८॥
देहि मे तनयं राम दशरथप्रियनन्दन ।
सीतानायक कञ्जाक्ष मुचुकुन्दवरप्रद ॥५९॥
विभीषणस्य या लङ्का प्रदत्ता भवता पुरा ।
अस्माकं तत्प्रकारेण तनयं देहि माधव ॥६०॥

भवदीयपदांभोजे चिन्तयामि निरन्तरम् ।
देहि मे तनयं सीताप्राणवल्लभ राघव ॥६१॥
राम मत्काम्यवरद पुत्रोत्पत्तिफलप्रद ।
देहि मे तनयं श्रीश कमलासनवन्दित ॥६२॥
राम राघव सीतेश लक्ष्मणानुज देहि मे ।
भाग्यवत्पुत्रसन्तानं दशरथप्रियनन्दन ।
देहि मे तनयं राम कृष्ण गोपाल माधव ॥६४॥
कृष्ण माधव गोविन्द वामनाच्युत शङ्कर ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥६५॥
गोपबाल महाधन्य गोविन्दाच्युत माधव ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव जगत्पते ॥६६॥
दिशतु दिशतु पुत्रं देवकीनन्दनोऽयं
दिशतु दिशतु शीघ्रं भाग्यवत्पुत्रलाभम् ।
दिशतु दिशतु शीघ्रं श्रीशो राघवो रामचन्द्रो
दिशतु दिशतु पुत्रं वंश विस्तारहेतोः ॥६७॥
दीयतां वासुदेवेन तनयोमत्प्रियः सुतः ।
कुमारो नन्दनः सीतानायकेन सदा मम ॥६८॥
राम राघव गोविन्द देवकीसुत माधव ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥६९॥
वंशविस्तारकं पुत्रं देहि मे मधुसूदन ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७०॥

ममाभीष्टसुतं देहि कंसारे माधवाच्युत ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७१॥
चन्द्रार्ककल्पपर्यन्तं तनयं देहि माधव ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७२॥
विद्यावन्तं बुद्धिमन्तं श्रीमन्तं तनयं सदा ।
देहि मे तनयं कृष्ण देवकीनन्दन प्रभो ॥७३॥
नमामि त्वां पद्मनेत्र सुतलाभाय कामदम् ।
मुकुन्दं पुण्डरीकाक्षं गोविन्दं मधुसूदनम् ॥७४॥
भगवन् कृष्ण गोविन्द सर्वकामफलप्रद ।
देहि मे तनयं स्वामिंस्त्वामहं शरणं गतः ॥७५॥
स्वामिंस्त्वं भगवन् राम कृष्न माधव कामद ।
देहि मे तनयं नित्यं त्वामहं शरणं गतः ॥७६॥
तनयं देहिओ गोविन्द कञ्जाक्ष कमलापते ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७७॥
पद्मापते पद्मनेत्र प्रद्युम्न जनक प्रभो ।
सुतं देहि सुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥७८॥
शङ्खचक्रगदाखड्गशार्ङ्गपाणे रमापते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥७९॥
नारायण रमानाथ राजीवपत्रलोचन ।
सुतं मे देहि देवेश पद्मपद्मानुवन्दित ॥८०॥

राम राघव गोविन्द देवकीवरनन्दन ।
रुक्मिणीनाथ सर्वेश नारदादिसुरार्चित ॥८१॥
देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥८२॥
मुनिवन्दित गोविन्द रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८३॥
गोपिकार्जितपङ्केजमरन्दासक्तमानस ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८४॥
रमाहृदयपङ्केजलोल माधव कामद ।
ममाभीष्टसुतं देहि त्वामहं शरणं गतः ॥८५॥
वासुदेव रमानाथ दासानां मङ्गलप्रद ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८६॥
कल्याणप्रद गोविन्द मुरारे मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८७॥
पुत्रप्रद मुकुन्देश रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८८॥
पुण्डरीकाक्ष गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥८९॥
दयानिधे वासुदेव मुकुन्द मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥९०॥

पुत्रसम्पत्प्रदातारं गोविन्दं देवपूजितम् ।
वन्दामहे सदा कृष्णं पुत्र लाभ प्रदायिनम् ॥९१॥
कारुण्यनिधये गोपीवल्लभाय मुरारये ।
नमस्ते पुत्रलाभाय देहि मे तनयं विभो ॥९२॥
नमस्तस्मै रमेशाय रुमिणीवल्लभाय ते ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥९३॥
नमस्ते वासुदेवाय नित्यश्रीकामुकाय च ।
पुत्रदाय च सर्पेन्द्रशायिने रङ्गशायिने ॥९४॥
रङ्गशायिन् रमानाथ मङ्गलप्रद माधव ।
देहि मे तनयं श्रीश गोपबालकनायक ॥९५॥
दासस्य मे सुतं देहि दीनमन्दार राघव ।
सुतं देहि सुतं देहि पुत्रं देहि रमापते ॥९६॥
यशोदातनयाभीष्टपुत्रदानरतः सदा ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥९७॥
मदिष्टदेव गोविन्द वासुदेव जनार्दन ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥९८॥
नीतिमान् धनवान् पुत्रो विद्यावांश्च प्रजापते ।
भगवंस्त्वत्कृपायाश्च वासुदेवेन्द्रपूजित ॥९९॥
यःपठेत् पुत्रशतकं सोऽपि सत्पुत्रवान् भवेत ।
श्रीवासुदेवकथितं स्तोत्ररत्नं सुखाय च ॥१००॥

जपकाले पठेन्नित्यं पुत्रलाभं धनं श्रियम् ।
ऐश्वर्यं राजसम्मानं सद्यो याति न संशयः ॥१०१॥


मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

छठ पर्व का महत्व व कथा

छठ पर्व का महत्व व कथा



छठ पर्व  षष्ठी  का अपभ्रंश है. कार्तिक मास की अमावस्या को दिवाली मनाने के 6 दिन बाद कार्तिक शुक्ल को मनाए जाने के कारण इसे छठ कहा जाता है.
यह चार दिनों का त्योहार है और इसमें साफ-सफाई का खास ध्यान रखा जाता है. इस त्योहार में गलती की कोई जगह नहीं होती. इस व्रत को करने के नियम इतने कठ‍िन हैं, इस वजह से इसे महापर्व अौर महाव्रत के नाम से संबाेध‍ित किया जाता है.
कौन हैं छठी मइया...
मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है.
षष्ठी मां यानी कि छठ माता बच्चों की रक्षा करने वाली देवी हैं. इस व्रत को करने से संतान को लंबी आयु का वरदान मिलता है.
मार्कण्डेय पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सृष्ट‍ि की अध‍िष्ठात्री प्रकृति देवी ने अपने आप को छह भागों में विभाजित किया है. इनके छठे अंश को सर्वश्रेष्ठ मातृ देवी के रूप में जाना जाता है, जो ब्रह्मा की मानस पुत्री हैं.
वो बच्चों की रक्षा करने वाली देवी हैं. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को इन्हीं देवी की पूजा की जाती है.
श‍िशु के जन्म के छह दिनों बाद इन्हीं देवी की पूजा की जाती है. इनकी प्रार्थना से बच्चे को स्वास्थ्य, सफलता और दीर्घ आयु का आशीर्वाद मिलता है.
जानकारों की मानें तो पुराणों में इन्हीं देवी का नाम कात्यायनी बताया गया है, जिनकी नवरात्रि की षष्ठी तिथ‍ि को पूजा की जाती है.
जानें क्यों की जाती है छठ पूजा और क्या है इसका महत्व...
छठ व्रत कथा
कथा के अनुसार प्रियव्रत नाम के एक राजा थे. उनकी पत्नी का नाम मालिनी था. दोनों की कोई संतान नहीं थी. इस बात से राजा और उसकी पत्नी बहुत दुखी रहते थे. उन्होंने एक दिन संतान प्राप्ति की इच्छा से महर्षि कश्यप द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया. इस यज्ञ के फलस्वरूप रानी गर्भवती हो गईं.
नौ महीने बाद संतान सुख को प्राप्त करने का समय आया तो रानी को मरा हुआ पुत्र प्राप्त हुआ. इस बात का पता चलने पर राजा को बहुत दुख हुआ. संतान शोक में वह आत्म हत्या का मन बना लिया. लेकिन जैसे ही राजा ने आत्महत्या करने की कोशिश की उनके सामने एक सुंदर देवी प्रकट हुईं.
देवी ने राजा को कहा कि मैं षष्टी देवी हूं. मैं लोगों को पुत्र का सौभाग्य प्रदान करती हूं. इसके अलावा जो सच्चे भाव से मेरी पूजा करता है, मैं उसके सभी प्रकार के मनोरथ को पूर्ण कर देती हूं. यदि तुम मेरी पूजा करोगे तो मैं तुम्हें पुत्र रत्न प्रदान करूंगी. देवी की बातों से प्रभावित होकर राजा ने उनकी आज्ञा का पालन किया.
राजा और उनकी पत्नी ने कार्तिक शुक्ल की षष्टी तिथि के दिन देवी षष्टी की पूरे विधि -विधान से पूजा की. इस पूजा के फलस्वरूप उन्हें एक सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई. तभी से छठ का पावन पर्व मनाया जाने लगा.
छठ व्रत के संदर्भ में एक अन्य कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा. इस व्रत के प्रभाव से उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया.

शिव नाम महिमा

भगवान् श्रीकृष्ण कहते है
‘महादेव महादेव’ कहनेवाले के पीछे पीछे मै नामश्रवण के लोभ से अत्यन्त डरता हुआ जाता हूं। जो शिव शब्द का उच्चारण करके प्राणों का त्याग करता है, वह कोटि जन्मों के पापों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करता है । शिव शब्द कल्याणवाची है और ‘कल्याण’ शब्द मुक्तिवाचक है, वह मुक्ति भगवन् शंकर से ही प्राप्त होती है, इसलिए वे शिव कहलाते है ।
धन तथा बान्धवो के नाश हो जानेके कारण शोकसागर मे मग्न हुआ मनुष्य ‘शिव’ शब्द का उच्चारण करके सब प्रकार के कल्याणको प्राप्त करता है । शि का अर्थ है पापोंका नाश करनेवाला और व कहते है मुक्ति देनेवाला। भगवान् शंकर मे ये दोनों गुण है इसीलिये वे शिव कहलाते है । शिव यह मङ्गलमय नाम जिसकी वाणी मे रहता है, उसके करोड़ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते है । शि का अर्थ है मङ्गल और व कहते है दाता को, इसलिये जो मङ्गलदाता है वही शिव है ।
भगवान् शिव विश्वभर के मनुष्योंका सदा ‘शं’ कल्याण करते है और ‘कल्याण’ मोक्ष को कहते है । इसीसे वे शंकर कहलाते है । ब्रह्मादि देवता तथा वेद का उपदेश करनेवाले जो कोई भी संसार मे महान कहलाते हैं उन सब के देव अर्थात् उपास्य होने से वे ऋषि ‘महादेव’ कहे जाते है । अथवा महती अर्थात्  विश्वभर में पूजित जो मूल प्रकृति ईश्वरी है, उस प्रकृतिद्वारा पूजित देव ‘माहादेव’ कहलाते हैं । संसार मे स्थित सारी आत्माओ के ईश्वर (स्वामी) होनेसे वे ‘महेश्वर’ है । महादेव, महादेव इस प्रकारकी जो रट लगाता है, उसके पीछे पीछे मैं नाम श्रवणके लोभसे संतुष्ट हुआ घूमता हूँ । (ब्रह्मवैवर्तपुराण-ब्रह्मखंड)
शिवजीने मृत्यु को देखकर कहा 
इसने (पद्मपुराण में वर्णित एक प्रसंग में एक व्यक्ति ने)मरणकाल में मेरा नाम लिया है । मुझे लक्ष्य करके अथवा और किसी वस्तु के अभिप्राय से जो मेरा नाम एकाध अक्षर जोडकर अथवा घटाकर भी कहता है, उसे मैं सत्य ही अपना लोक प्रदान करता हूँ । इसने मरते समय ‘प्रहर’ शब्दका उद्धरण किया है ।
केवल हर शब्द ही परम पद का देनेवाला है । फिर इसने तो ‘प्र’ शब्द अधिक कहा है । यमराज से मेरा आदेश कह दो कि जो ‘शिव‘ नामके जपनेवाले है, उन्हें तुम नमस्कार किया करो । जो लोग शिव को नमस्कार करते हैं, उनकी पूजा करते हैं, उनके नाम गुणका कीर्तन करते हैं, उनकी उपासना करते है अथवा दास्यभाव से उनकी भक्ति करते हैं, श्रुतिमें वर्णित षडाक्षरमन्त्र  म: शिवाय का जप करते है तथा ‘शतरुद्रिय’ का अनुष्ठान करते है उनपर मेरा ही शासन है -इसमें तनिक भी विचार न करना ।
(पद्मपुराण पातालखण्ड-शिवमृत्युसंवाद)
जो गति योगियों और काशी मे शरीर छोड़नेवालों की होती है, वही गति मेरे नाम का कीर्तन करनेवालोंको प्राप्त होती है । जो मनुष्य मेरे मुक्तिदायक दायक-महेश, पिनाकपाणि, शम्भुु, गिरीश, हर, शंकर, चन्द्रमौलि, विश्वेश्वर, अन्धकरिपु, पुरसूदन इत्यादि नामोंका उच्चारण करते हुए मेरी अर्चा करते है वे धन्य है । जो नीललोहित, दिगम्बर, कृत्तिवास, श्रीकणठ, शान्त, निरुपाधिक, निर्विकार, मृत्युञ्जय, अव्यय, निधीश, गणेश्वर इत्यादि नामोंका उद्धरण करते हुए मेरी पूजा करते है वे धन्य है ।
मेरे नामरूपी अमृत का पान करनेवाले और निरन्तर मेरे चरणोंका पूजन करनेवाले तथा मेरे लिंगो का पूजन करनेवाले मेरे प्रिय भक्त पुन: माता का दूध पीने की न तो इच्छा करते है और न उन्हें फिर यह प्राप्त होता है । वे तो सारे दुखे से छूटकर मेरे लोकमें अनन्त कालतक निवास करते है । महेशरूपी नामकी दिव्य अत्तध्यासे परिप्लावित मार्गमे से होकर भी जो निकल जाते है, वे कदापि शोक को प्राप्त नहीं होते । (शिव रहस्य सप्तमांश, प्रथम अध्याय)
मत्युकाल में यदि कोई महापात की भी मेरा नाम लेता है तो उसे मैं उस नामके प्रभाव से मोक्ष दे देता हूँ । मेरे जितने नाम है उन सबमें मुक्ति देनेका स्वभाव है । मृत्युकाल मे मेरा नाम लेकर अनेक मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर चुके है । नामका माहात्मय ही ऐसा है, इसमें किसी प्रकारका आश्चर्य नहीं करना चाहिये । ‘हर’ यह नाम अनेकों पापोंको हरता है । मैं पापोंको हरनेवाला हूं, इसीलिये मुझे लोग ‘हर’ कहते है ।
श्रीविष्णु ब्रह्माजी से कहते है 
जो ‘शम्भुु, शम्मु, महेश’ इन नामोंका उच्चारण बाराबार आनन्दपूर्वक करते है, उनको गर्भवास का भय नहीं होता । ‘हे शिव ! हे परमेश !इस प्रकार आनन्दपूर्वक जो निरन्तर भगवान् शिव का नाम लेते है उन्हें गर्भमे आना नहीं पड़ता । जो प्रतिदिन आनन्दपूर्वक शंकर जी का नाम लेते है, वे धन्यवाद के पात्र हैं ,यह हम सत्य सत्य कहते है । संसार रूपी घोर सागर से तरनेके लिये शंकर नामरूप ही नौका है । इसको छोड़कर संसार सागरसे पार होनेका कोई और उपाय नहीं है । यह निर्मल शिव नाम मधुर से भी मधुर है और मुक्ति को देनेवाला तथा संसारभय का नाश करनेवाला है । (शिवहस्य ७ । २०)
पूर्वकाल में एक पापी कुष्ट रोगसे पीडित ब्रह्मण मगध देशमें रहता था । वह सदा ब्रह्महत्यादि पाप किया करता था । उस ब्राह्मणको वृद्धावस्थामें सोमवारके दिन पुत्र पैदा हुआ । उसने हर्षसे उस षुत्रका नाम ‘सोमवासर’ रख दिया । वह ब्राह्मण अपने पुत्रको बराबर हर काम में ‘ सोमवासर सोमवासर’ कहकर पुकारा करता था । एक दिन उस ब्राह्मण को सांपने काट लिया । विष की ज्वाला से पीडित होकर बार बार ‘सोमवासर सोमवासर’ पुकारते पुकारते ब्राह्मण का देहान्त हो गया । उसी समय शिव के गण एक सुन्दर विमान लाये और उसको उसमें चढाकर सब देवताओंसे पूजित कराते हुए कैलास ले गये । (शिवरहस्य ७ । २ ० )
भगवान् शिव स्वयं यमराज सेे कहते है
जो पुरुष प्रसंगवश भी मेरा नाम उत्साहपूर्वक लेगा, वह सर्वथा पापोंसे छूट जायगा, इसमें कोई संदेह नहीं है । हे यमराज ! मेरा नाम पापोंके वनको जलानेमे दावानल के समान है । मेरे एक नामका उद्धरण करते ही पापोंका समूह तुरंत नष्ट हो जाता है । मेरे नामका श्रद्धापूर्वक स्मरण करनेपर पाप कहाँ  ठहर सकते है ?क्योंकि पापोंके झुंडका नाश करनेमें तो उसे वज्रपात की उपमा दो गयी है । जिस प्रकार कालाग्नि ज्वालाओंसे करोडों पर्वत जल गये थे, उसी प्रकार मेरे नामरूपी अग्नि से करोडों महापातक नष्ट हो जाते है । मैं उस चाण्डाल को भी नि:संदेह घोर संसारसमुद्रसे तार देता हूँ, जिसका चित्त मेरे नाम स्मरणमें अनुरक्त है ।
जिसने पापोके झुंडका नाश करनेवाला मेरा नाम अन्तकाल में स्मरण कर लिया उसने छोर संसार समुद्र को चुटकीयोंमें पार कर लिया समझो । मेरे नामका स्मरण मेरे ही स्मरण के तुल्य है और मेरी स्मृति हो जानेपर पाप कहाँ ठहर सकते हैं ? हे धर्मराज ! किसी पुरुष के अंदर पाप तभीतक ठहरते है जबतक कि वह महापातको का नाश करनेवाले मेरे नामका स्मरण नहीं करता । करोडों पहापातको का नाश तभीतक नहीं होता, जबतक मन मेरे नाम स्मरणमें लीन नहीं हो जाता । इसने महापातको का नाश करनेवाले मेरे ‘सोम’ नामका स्मरण करते हुए शरीर छोडा, इसलिये इसकी मुझमें कोई संदेह ही नहीं हो सकता ।
हे यम ! मैं तुम्हरि हितकी एक बात और कहता हूँ, वह यह है कि तुम प्रतिदिन मेरे भक्तोंकी यत्नपूर्वक पूजा किया करो, क्योंकि वे मुझे सर्वदा प्यारे है । (शिव.सप्त. अ.२०)
जिनकी जिह्वा का अग्रभाग सदा भगवान् शंकर का दो अक्षरोवाला नाम (शिव) विराजमान रहता है वे धन्य हैं वे महात्मा पुरुष है तथा वे हैं कृतकृत्य है । आज भी जिन्होंने ‘शिव’ इस अविनाशी नामका उच्चारण किया है, वे निश्चय ही मनुष्य रूपमें रुद्र हैं इममें संशय नहीं है । महादेवजी थोडा सा बिल्व पत्र पाकर भी सदा संतुष्ट रहते है । फूल और जल अर्पण करने से भी प्रसन्न हो जाते हैं ।
(स्क पु .मा .के.अ २७)
ब्रह्माजी महर्षि गौतम से कहते हैं
शिवनामरूपी मणि जिसके कण्ठ सदा विराजमान रहती है, वह नीलकण्ठका ही स्वरूप बन जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं । हे द्विजवर ! तुम नित्य शंकर का पूजन करो और शिवनामामृतका पान करो, शिवनाम से बढकर दूसरा अमृत नहीं है । मृत्युके समय ‘शिव’ ये दो अक्षर भगवान् शंकर की कृपा के बिना मनुष्यके होठोंपर नहीं आता।
शिव नाम रूपी कुल्हाडीसे संसाररूपी वृक्ष जब एक बार कट जाता है तो फिर वह दुबारा नहीं जमता। पाप ही संसाररूपी वृक्षकी जड़ोकी जड़ है और शिव नाम का  एक बार जप करनेसे ही उसका नाश हो जाता है । (शिव० ७ । २ २ )
यमराज भी गौतम जी से कहते है
महान से महान पापी भी अथवा जिसने जीवनमे कोई भी पाप न छोडा हो, वह अन्तकालमें यदि शिव नाम का उच्चारण कर ले तो वह फिर मेरा द्वार नहीं देख सकता । ‘शिव’ शब्द का उच्चारण किये बिना ब्रह्मण भी मुक्त नहीं हो सकता और ‘शिव’ शब्दका उच्चारण कर चाण्डाल भी मुक्त हो सकता है । यों तो शिवजी के सभी नाम मोक्षदायक है किंतु उन सबमें ‘शिव’ नाम सर्वश्रेष्ठ है, उसका माहात्म्य गायत्री के समान है। (शिव. ७ । २ २ )
श्रीमद्भागवत में भगवती का वाक्य है
‘शिव’ इस द्वयक्षर नामका एक बार प्रसंगवश उच्चारण करनेसे भी मनुष्यके पाप शीघ्र नष्ट हो जाते है । आश्चर्य है की आप उन पुण्यश्लोक, अलंध्यशासन भगवान शिव का विरोध  करते है । इससे बढ़कर अमङ्गल क्या हो सकता है ?
सौरपुराण (अ .६४) में लिखा है
जो बिल्ववृक्ष के नीचे बैठकर तीन रात उपोषित रहकर  पवित्रतापूर्वक शिव नामका एक लाख जप करता है, वह भ्रूणहत्या के पाप से छूट जाता है ।
जितने भी रथूल अथवा सूक्ष्म पाप है वे सारे के सारे केवल क्षणभर शिवका चिन्तन करने से तुरंत नष्ट हो जाते है ।
जल के अंदर निमग्न होकर शिव का ध्यान करते हुए प्रसन्न चित्तसे ‘हर’ इस नाम को केवल आठ बार जपनेसे मनुष्य पापोंसे छूट जाता है । महादेवका स्मरण करनेवाले यदि पापी भी हों तो उन्हें  महात्मा ही समझना चाहिये, यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। शिव नामका उच्चारणरण कानेवाले को नरक अथवा यमराज का भय नहीं होता ।
जो लोग भगवान् महेश्वर के नामोंका अज्ञानपूर्वक भी उच्चारण करते है भगवान् भोलेनाथ उन्हें भी मुक्ति दे डालते है इससे अधिक और क्या चाहिये है ?
(सौ पु. अ ३)
ब्रह्माजी यमदूतों से कहते है
जो बैठे हुए, सोते हुए, चलते फिरते, दिन रात ‘शिव’ नामका कीर्तन करते रहते है उनपर तुम्हारा अधिकार नहीं है । (शि पु, ध सं, अ१६)
जिसने ‘शिव’ अथवा ‘रुद्र’ अथवा ‘हर’ इन  नामोंमेंसे किसीका एक बार भी उच्चारण कर लिया वह मरने के बाद अवश्य रुद्रलोक को जाता है ।
(शिपु, ध, सं ,अ १५)
जो नमः शिवाय इस मन्त्रका उच्चारण करता है, उसका मुख देरवनेसे निश्चय ही तीर्थ दर्शन का फल प्राप्त होता है। जिसके मुख में ‘शिव’ नाम तथा शरीरपर भस्म और रुद्राक्ष रहता है, उसके दर्शनेसे ही पाप नष्ट हो जाते है । (शिवपुराण. शा. सं.अ ३०)
जो पुरुष अन्त समयमे शिवका स्मरण करता है, वह चाहे ब्रह्महत्यारा हो, चाहे शराबी हो, चोर हो अथवा गुरुस्त्रीगामी ही क्यों न हो, शिवके साथ सायुज्यको प्राप्त होता है । (सौरपुराण .अ ६६)
जो मनुष्य ज्ञानपूर्वक भगवान् शम्भु केे नामोंका कीर्तन करता है, मुक्ति सदा उसके करतलगत रहती है । (सौरपु अ ४)
जो मनुष्य प्रसंगवश, कौतूहलसे, लोभसे, भयसे अथवा अज्ञानसे भी ‘हर’ नामका उच्चारण करता है, वह सरे पापोंसे छूट जाता है । (सौरपुराण अ ७)
‘शिव’ नाम के स्मरण से कर्मोकी न्यूनता पूर्ण हो जाती है । (शिवपुराण, कै२०, अ ९ ।५६)
प्रभु आशुतोष के पूजन में अभिषेक व बिल्वपत्र का प्रथम स्थान है। ऋषियों ने तो यह कहा है कि बिल्वपत्र भोले-भंडारी को चढ़ाना एवं एक करोड़ कन्याओं के कन्यादान का फल एक समान है।
बेल का वृक्ष हमारे यहां संपूर्ण सिद्धियों का आश्रय स्थल है। इस वृक्ष के नीचे स्तोत्र पाठ या जप करने से उसके फल में अनंत गुना की वृद्धि के साथ ही शीघ्र सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसके फल की समिधा से लक्ष्मी का आगमन होता है। बिल्वपत्र के सेवन से कर्ण सहित अनेक रोगों का शमन होता है।
यदि साधक स्वयं बिल्वपत्र तोड़ें तो उसे ऋषि आचारेन्दु के द्वारा बताए इस मंत्र का जप करना चाहिए-
अमृतोद्भव श्री वृक्ष महादेवत्रिय सदा।
गृहणामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्।।
भगवान् सदाशिव का भक्त भगवान् को एक ही बार प्रणाम करने से अपनेको मुक्त मानता है । भगवान् भी ‘महादेव’ ऐसे नाम उद्धरण करने वाले के प्रति ऐसे दौडते हैं, जैसे वत्सला गौ अपने बछड़ेके प्रति-
महादेव महादेव महादेवेति वादिनम् ।
वत्सं गौरिव गौरीशो धावन्तमनुधावति ।।
जो पुरुष तीन बार ‘महादेव ,महादेव, महादेव’ इस तरह भगवान् का नाम उच्चारण करता है, भगवान् एक नामसे मुक्ति देकर शेष दो नामसे सदा के लिये उसके ऋणी हो जाते है-
महादेव महादेव महादेवेति यो वदेत्।
एकेन मुक्तिमाप्नोति द्वाभ्यां शम्मू ऋणी भवेत्।।

सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

राकेश झुनझुनवाला के निवेश के गोल्डेन टिप्स

1-मैंने प्रेस और पत्नियों के बारे में दो बातें सीखी हैं जब वे कुछ कहते हैं - प्रतिक्रिया न करें
निवेशक अक्सर अखबारों और मीडिया में सभी स्टॉक सिफारिशों के माध्यम से जाते हैं लेकिन वे शायद ही कभी संबंधित व्यवसाय के मूल सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं। ऐसे निवेशक अक्सर घाटे को खत्म करते हैं, क्योंकि वे उन कारकों को मापने में असमर्थ हैं जो एक विशेष स्टॉक को प्रभावित कर सकते हैं।

2-प्रवृत्ति का अनुमान और इससे लाभ। व्यापारियों को मानव स्वभाव के खिलाफ जाना चाहिए।
कई बार, व्यापारी या निवेशक शेयरों को खरीदने के द्वारा झुंड की मानसिकता का पालन करते हैं जिसमें अधिकांश अन्य लोग खरीद रहे हैं। यह एक अच्छा अभ्यास नहीं है क्योंकि निवेश का उद्देश्य व्यक्ति से अलग-अलग और समय-समय पर भिन्न हो सकता है। तो अपने आप से पूछिए कि आप किसी विशेष स्टॉक क्यों खरीद रहे हैं

3-किसी व्यवसाय में निवेश करें, न कि कंपनी
आम तौर पर, निवेशक विपरीत होते हैं, अर्थात, अगर किसी विशेष कंपनी का स्टॉक उन्हें उत्तेजित करता है तो वे व्यापार के विवरण के बिना और व्यवसाय की प्रकृति का अध्ययन किए बिना इसे खरीदते हैं।

4-जब शेयर लोकप्रिय नहीं है तो निवेश करें
अधिकांश निवेशकों की इस दक्षता की कमी होती है क्योंकि अक्सर वे शेयर खरीदने से पहले किसी व्यवसाय की जांच या जांच नहीं करना चाहते हैं। लोग एक कंपनी के शेयर खरीदते हैं जब यह लोकप्रिय हो जाता है - जब सड़क विक्रेताओं ने भी इसके बारे में बात करना शुरू कर दिया।
5-यदि आप एक अवसर देखते हैं, तो आज इसे पकड़ो!
सही समय के लिए बहुत ज्यादा इंतजार न करें। अगर कोई ऐसा मौका है जहां धन बनाया जा सकता है, तो इसे चलाए जाने से ठीक पहले उसे पकड़ लेना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसकी समाप्ति की तारीख को देखे बिना रोटी खरीदना।

6-गलतियों से सीखें। नुकसान लेने के लिए जानें
निवेशकों को हमेशा गलतियों से सीखने का एक जानबूझकर प्रयास करना चाहिए जो वे स्टॉक मार्केट में करते हैं क्योंकि हर गलती अपने आप में एक सबक होगी। निवेशकों को घाटे को कम करने के बारे में भी सीखना चाहिए क्योंकि किसी के मुनाफे का नुकसान दूसरे और उपाध्यक्ष विपरीत है।
7-हमेशा ज्वार के खिलाफ जाओ। खरीदें जब दूसरों को बेच रहे हैं और जब दूसरों को खरीद रहे हैं बेचते हैं।
8-जब बाजार में संशोधन हो रहा है तो उस समय गिरावट पर खरीदने की कोशिश करें इस के माध्यम से आप उन लोगों के खिलाफ अधिक मात्रा खरीद लेंगे जो बाजार रैलियां खरीदते हैं। जब ज्यादातर लोग बेच रहे हैं, तो आपको सस्ते कीमतों पर स्टॉक मिल सकती है!
9-शेयर बाजारों में हानि बनाने का भावपूर्ण निवेश एक निश्चित तरीका है
मूर्खतापूर्ण कारणों के लिए भावनात्मक मोर्चे पर किसी कंपनी से चिपक न दें: "यह मेरे पिता की पसंदीदा कंपनी थी", या अन्य ऐसे कारण हमेशा व्यापार के साथ प्यार में आते हैं, जो कि बढ़ने और अपने पैसे को बढ़ने की क्षमता रखता है। अपने भावनात्मक भागफल को दूर रखने और तर्कसंगत व्यक्ति के रूप में आगे बढ़ने की कोशिश करें।
10-अंधेरे में बड़े निवेशकों द्वारा शेयरों का पालन करना एक बुद्धिमान बात नहीं है
निवेशकों को आम तौर पर बड़े नामों से निवेश की अफवाहों का पालन करना पड़ता है, उदाहरण के लिए यदि कोई बड़ा निवेशक इसे खरीदा है तो वह एक शेयर खरीदना तय कर रहा है। यह अनिवार्य रूप से एक अच्छी वापसी की गारंटी नहीं है अधिकतर, किसी विशिष्ट स्टॉक में खरीदने वाले बड़े नाम की समाचार कथाएं उनके बाहर निकलने के बाद टूट जाती हैं या जब वे स्टॉक बेचने के करीब आती हैं।
11-परिपक्व होने के लिए अपने निवेश का समय दें अपने रत्नों को खोजने के लिए दुनिया के लिए धीरज रखो
आमतौर पर लोग जल्दी उत्तराधिकार में स्टॉक खरीदने और बेचते हैं। निवेशक इसे अल्पकालिक लाभ के लिए अभ्यास करते हैं लेकिन घाटे को समाप्त करते हैं। लंबे समय के क्षितिज के लिए एक निवेश की तलाश करें और अपने निवेश को परिपक्व करें।
12-हाथ में कुछ नकदी है, ताकि जब भी ऐसा हो, तो अवसर प्राप्त कर सकें।
हमेशा मौके को पकड़ने के लिए हाथ में कुछ अतिरिक्त नकदी रखनी होगी, जब यह आता है। अक्सर, निवेशक शेयर बाजार में अपने सारे पैसे डालते हैं, जो एक बुरा व्यवहार है क्योंकि इतिहास बताता है कि लचीला रिटर्न हमेशा चक्रीय प्रकृति में रहता है।

प्रिफरेंस शेयर

प्रिफरेंस शेयर 


इक्विटी शेयरों पर कंपनी की समाप्ति की स्थिति में लाभांश के रूप में तरजीही अधिकारों और पूंजी के पुनर्भुगतान का आनंद लेने वाले शेयरों को अधिमान शेयर कहा जाता है। वरीयता शेयरों के धारक को एक निश्चित दर लाभांश मिलेगा। वरीयता शेयर हो सकते हैं:

संचयी प्राथमिकताएं

अगर कंपनी को किसी भी वर्ष में पर्याप्त लाभ नहीं मिलता है, वरीयता शेयरों पर लाभांश उस वर्ष के लिए भुगतान नहीं किया जा सकता है। लेकिन अगर वरीयता शेयर संचयी होते हैं तो इन शेयरों पर इस तरह के अवैतनिक लाभांश संचित हो जाते हैं और बाद के वर्षों में कंपनी के मुनाफे से देय हो जाते हैं। ऐसे बकाया राशि का भुगतान करने के बाद ही, गुणवत्ता शेयरों के धारक को किसी भी लाभांश का भुगतान किया जा सकता है। इस प्रकार एक संचयी वरीयता शेयरधारक को निश्चित रूप से कंपनी के आय के सभी वर्षों के लिए अपने शेयरों पर लाभांश प्राप्त करना निश्चित है।

गैर-संचयी प्राथमिक शेयर

गैर-संचयी वरीयता शेयरों के धारकों को कोई संदेह नहीं है, निश्चित लाभांश प्राप्त करने में तरजीही अधिकार मिलेगा जो गुणवत्ता शेयरधारकों को वितरित किया जाता है। निश्चित लाभांश को केवल विभाज्य मुनाफे का भुगतान किया जाना है, लेकिन अगर किसी विशेष वर्ष में शेयरधारकों के बीच इसे वितरित करने के लिए कोई लाभ नहीं है, तो गैर-संचयी वरीयता शेयरधारकों को उस वर्ष के लिए कोई लाभांश नहीं मिलेगा और वे दावा नहीं कर सकते यह अगले वर्ष में उस अवधि के दौरान लाभ हो सकता है।
अगर यह भुगतान नहीं किया जाता है, तो इसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है संबंधित शेयरधारकों को संबंधित शेयरों के संबंध में पूंजी के भुगतान के संबंध में इन शेयरों को उसी स्तर पर माना जाएगा।

रीडिमेबल प्राधान्य शेयर

शेयर जारी करके उठाए गए पूंजी को शेयरधारकों (कुछ स्थितियों में शेयरों को वापस खरीदने के अलावा) में चुकाया जाना नहीं है, लेकिन उद्धारनीय वरीयता शेयरों के मुद्दे के जरिये उठाए गए पूंजी को उधारित विचारों से वापस भुगतान किया जाना चाहिए, जो प्रतिदेय वरीयता शेयरों का मुद्दा है निर्धारित अवधि की समाप्ति के बाद कंपनी को ऐसे शेयरधारकों को वापस भुगतान करना होगा, चाहे कंपनी को घायल हो या नहीं। एक कंपनी किसी भी वरीयता शेयर को जारी नहीं कर सकती है जो अपने मुद्दे की तारीख से 10 वर्षों की अवधि समाप्त होने के बाद अयोग्य या प्रतिदेय योग्य हैं। इसका मतलब है कि कोई कंपनी प्रतिदेय वरीयता शेयर जारी कर सकती है जो उनके मुद्दे की तारीख से 10 वर्षों के भीतर प्रतिदेय हो सकती है।

भाग लेने वाले या गैर-भाग लेने वाले प्राथमिक शेयर

वरीयता शेयर जो निश्चित अवधि के वरीयता लाभांश के अतिरिक्त कंपनी के अधिशेष लाभ में हिस्सेदारी के लिए हकदार हैं, को भाग लेने वाले वरीयता शेयरों के रूप में जाना जाता है। लाभांश का भुगतान करने के बाद अधिशेष का एक हिस्सा कण्य दर पर गुणवत्ता वाले शेयरधारकों के बीच लाभांश के रूप में वितरित किया जाता है। एक विशेष दर पर इक्विटी शेयरधारकों द्वारा शेष साझा किया जा सकता है शेष इक्विटी और पार्टिसिपेंट वरीयता शेयरों के द्वारा साझा किया जा सकता है। इस प्रकार भाग लेने वाले वरीयता शेयरधारक अपनी पूंजी पर दो रूपों में वापसी करते हैं:

मुनाफे से अधिक लाभांश शेयरधारक

जो वरीयता शेयर जो अतिरिक्त लाभ में हिस्सेदारी का अधिकार नहीं रखते हैं उन्हें गैर-भाग लेने वाले वरीयता शेयर के रूप में जाना जाता है।

डीमैट खाता क्या है?

डीमैट खाता क्या है?
एक डीमैट अकाउंट एक ऐसा खाता है जो निवेशकों को अपने शेयर इलेक्ट्रॉनिक रूप में रखने की अनुमति देता है।

डीमैट खाते में स्टॉक्स डिमटेरियलाइज्ड फॉर्म में रहते हैं। डिमटेरियलाइजेशन भौतिक शेयरों को इलेक्ट्रॉनिक प्रारूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया है। सभी ट्रेडों के इलेक्ट्रॉनिक बस्तियों को सक्षम करने के लिए एक डीमैट अकाउंट नंबर आवश्यक है। एक बैंक खाता जैसे डीमैट अकाउंट फंक्शन, जहां आप अपना पैसा रखते हैं और संबंधित प्रविष्टियां बैंक पासबुक में होती हैं। एक समान रूप में, प्रतिभूतियों को भी इलेक्ट्रॉनिक रूप में रखा जाता है और तदनुसार डेबिट किया जाता है या श्रेय दिया जाता है। किसी डीमैट खाते को शेयरों का कोई शेष राशि नहीं खोला जा सकता है। आपके खाते में शून्य शेष राशि हो सकती है।


आपको एक डीमैट खाता क्यों होना चाहिए:

चूंकि शेयरों को भौतिक रूपों में रखना मुश्किल है क्योंकि इसमें कई कागजी कार्रवाई, लंबी प्रक्रिया और नकली शेयरों का जोखिम शामिल है। इसलिए, सरल और निर्बाध व्यापार और निवेश के लिए, भारत के स्टॉक एक्सचेंजों में व्यापार करने के लिए डीमैट खाता होना जरूरी है। हालांकि सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) ने 500 से ज्यादा शेयरों को शारीरिक रूप में तय करने की अनुमति दी है, लेकिन यह विकल्प किसी भी अधिक बेहतर नहीं है। एक डीमैट अकाउंट में शेयरों, बॉन्ड, सरकारी प्रतिभूतियां, म्यूचुअल फंड आदि जैसे वित्तीय साधनों के प्रमाण पत्र हैं। इसलिए, इसमें भौतिक शेयरों को इलेक्ट्रॉनिक रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया शामिल है और निवेशक के डीमैट खाते में जमा किया जाता है।

ऑनलाइन डीमैट खाता कैसे काम करता है:

भारत में दो डिपॉजिटरी हैं- नेशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरीज लिमिटेड (एनएसडीएल) और सेंट्रल डिपॉजिटरी सर्विसेज लिमिटेड (सीडीएसएल), जिनके माध्यम से शेयर विभिन्न डिपाजिटरी प्रतिभागियों द्वारा आयोजित किए जाते हैं। जब आप शेयर खरीदने या बेचते हैं, तो संबंधित डीपी क्रेडिट या आपके खाते को डेबिट करते हैं।

डीमैट खाता खोलने के लिए आवश्यक दस्तावेज निम्न हैं:

पैन कार्ड

पहचान सबूत

निवास का प्रमाण (स्वीकार्य दस्तावेज में बिजली बिल, फोन बिल, राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस आदि शामिल हैं)

बैंक खाता विवरण (एमआईसीआर पर कब्जा करने के लिए एक रद्द की गई जांच)

डीमैट अकाउंट खोलने के लिए, आपको डीपी (डिपॉजिटरी पार्टनर) तक पहुंचने और खाता खोलने के फॉर्म को भरना होगा और इसे आवश्यक दस्तावेज और एक पासपोर्ट आकार के फोटो के साथ जमा करना होगा। आपको सत्यापन के लिए मूल दस्तावेज लेना चाहिए।

डीपी आपको इसके लिए शुल्कों के साथ खाता खोलने के लिए नियमों और विनियमों और नियमों और शर्तों को प्रदान करेगा।

डीपी से कोई सदस्य आपको व्यक्तिगत सत्यापन के लिए संपर्क करेगा और खाता खोलने के फॉर्म में दिए गए विवरणों की जांच करेगा।
एक बार आवेदन संसाधित हो जाने के बाद, डीपी आपको एक खाता नंबर और क्लाइंट आईडी प्रदान करेगा। अब आप अपने डीमैट खाते में विशिष्ट विवरणों के साथ ऑनलाइन प्रवेश कर सकते हैं।

म्यूचुअल फंड

एक म्यूचुअल फंड निवेशकों से पैसा इकट्ठा करता है और उनकी ओर से पैसा निवेश करता है। यह पैसे के प्रबंधन के लिए एक छोटा शुल्क लगाता है
म्युचुअल फंड नियमित निवेशकों के लिए एक आदर्श निवेश वाहन हैं जो निवेश के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं। निवेशक अपने वित्तीय लक्ष्य के आधार पर एक म्यूचुअल फंड योजना चुन सकते हैं और लक्ष्य हासिल करने के लिए निवेश करना शुरू कर सकते हैं।
म्यूचुअल फंड में निवेश कैसे करें?

आप या तो म्यूचुअल फंड से सीधे निवेश कर सकते हैं या म्यूचुअल फंड सलाहकार की सेवाएं ले सकते हैं। यदि आप सीधे निवेश कर रहे हैं, तो आप म्यूचुअल फंड योजना की सीधे योजना में निवेश करेंगे। यदि आप एक सलाहकार या मध्यस्थ के माध्यम से निवेश कर रहे हैं, तो आप इस योजना के नियमित योजना में निवेश करेंगे।
यदि आप सीधे निवेश करना चाहते हैं, तो आपको प्रासंगिक दस्तावेज़ों के साथ म्यूचुअल फंड की वेबसाइट या इसकी अधिकृत शाखाओं का दौरा करना होगा। प्रत्यक्ष योजना में निवेश का लाभ यह है कि आप कमिशन पर बचत करते हैं और निवेश किए गए पैसा लंबी अवधि में काफी लाभ उठा सकते हैं। इस पद्धति का सबसे बड़ा दोष यह है कि आपको औपचारिकताएं पूरी करनी होंगी, अनुसंधान करें, अपने निवेश की निगरानी करें ... सब कुछ अपने आप से।

रविवार, 22 अक्टूबर 2017

भोजन


मनु स्मृति में कहा गया है कि —

न भुञ्जीतोद्धतस्नेहं नातिसौहित्यमाचरेत्।
नातिप्रगे नातिसायं न सत्यं प्रतराशितः।।
         हिन्दी में भावार्थ-जिन पदार्थों से चिकनाई निकाली गयी हो उनका सेवन करना ठीक नहीं है। दिन में कई बार पेट भरकर, बहुत सवेरे अथवा बहुत शाम हो जाने पर भोजन नहीं करना चाहिए। प्रातःकाल अगर भरपेट भोजन कर लिया तो फिर शाम को नहीं करना चाहिए।
न कुर्वीत वृथा चेष्टा न वार्यञ्जलिना पिवेत्
नोत्सङ्गे भक्षवेद् भक्ष्यान्नं जातु स्वात्कुतूहली।।
               हिन्दी में भावार्थ-जिस कार्य को करने से कोई लाभ न हो उसे करना व्यर्थ है। अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए और गोद में रखकर भोजन नहीं करना चाहिए।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

श्री गौवर्धन पूजा की पौराणिक कथा

     श्री गौवर्धन पूजा की पौराणिक कथा


एक बार एक महर्षि ने ऋषियों से कहा कि कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को गोवर्धन व अन्नकूट की पूजा करनी चाहिए।तब ऋषियों ने महर्षि से पूछा-' अन्नकूट क्या है? गोवर्धन कौन हैं? इनकी पूजा क्यों तथा कैसे करनी चाहिए? इसका क्या फल होता है? इस सबका विधान विस्तार से कहकर कृतार्थ करें ।
महर्षि बोले- 'एक समय की बात है- भगवान श्रीकृष्ण अपने सखा और गोप-ग्वालों के साथ गाय चराते हुए गोवर्धन पर्वत की तराई में पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि हज़ारों गोपियां 56 (छप्पन) प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही थीं। पूरे ब्रज में भी तरह-तरह के मिष्ठान्न तथा पकवान बनाए जा रहे थे।
श्रीकृष्ण ने इस उत्सव का प्रयोजन पूछा तो गोपियां बोली-'आज तो घर-घर में यह उत्सव हो रहा होगा, क्योंकि आज वृत्रासुर को मारने वाले मेघदेवता, देवराज इन्द्र का पूजन होगा। यदि वे प्रसन्न हो जाएं तो ब्रज में वर्षा होती है, अन्न पैदा होता है, ब्रजवासियों का भरण-पोषण होता है, गायों का चारा मिलता है तथा जीविकोपार्जन की समस्या हल होती है।
यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा- 'यदि देवता प्रत्यक्ष आकर भोग लगाएं, तब तो तुम्हें यह उत्सव व पूजा ज़रूर करनी चाहिए।' गोपियों ने यह सुनकर कहा- 'कोटि-कोटि देवताओं के राजा देवराज इन्द्र की इस प्रकार निंदा नहीं करनी चाहिए। यह तो इन्द्रोज नामक यज्ञ है। इसी के प्रभाव से अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि नहीं होती ।श्रीकृष्ण बोले- 'इन्द्र में क्या शक्ति है, जो पानी बरसा कर हमारी सहायता करेगा? उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा यह गोवर्धन पर्वत है।
इसी के कारण वर्षा होती है। अत: हमें इन्द्र से भी बलवान गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए।' इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के वाक-जाल में फंसकर ब्रज में इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा की तैयारियां शुरू हो गईं। सभी गोप-ग्वाल अपने-अपने घरों से सुमधुर, मिष्ठान्न पकवान लाकर गोवर्धन की तलहटी में श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि से गोवर्धन पूजा करने लगे।
उधर श्रीकृष्ण ने अपने आधिदैविक रूप से पर्वत में प्रवेश करके ब्रजवासियों द्वारा लाए गए सभी पदार्थों को खा लिया तथा उन सबको आशीर्वाद दिया। सभी ब्रजवासी अपने यज्ञ को सफल जानकर बड़े प्रसन्न हुए।
नारद मुनि इन्द्रोज यज्ञ देखने की इच्छा से वहां आए। गोवर्धन की पूजा देखकर उन्होंने ब्रजवासियों से पूछा तो उन्होंने बताया- 'श्रीकृष्ण के आदेश से इस वर्ष इन्द्र महोत्सव के स्थान पर गोवर्धन पूजा की जा रही है।यह सुनते ही नारद उल्टे पांव इन्द्रलोक पहुंचे तथा उदास तथा खिन्न होकर बोले-'हे राजन! तुम महलों में सुख की नींद सो रहे हो, उधर गोकुल के निवासी गोपों ने इद्रोज बंद करके आप से बलवान गोवर्धन की पूजा शुरू कर दी है।
आज से यज्ञों आदि में उसका भाग तो हो ही गया। यह भी हो सकता है कि किसी दिन श्रीकृष्ण की प्रेरणा से वे तुम्हारे राज्य पर आक्रमण करके इन्द्रासन पर भी अधिकार कर लें ।
नारद तो अपना काम करके चले गए ।अब इन्द्र क्रोध में लाल-पीले हो गए। ऐसा लगता था, जैसे उनके तन-बदन में अग्नि ने प्रवेश कर लिया हो। इन्द्र ने इसमें अपनी मानहानि समझकर, अधीर होकर मेघों को आज्ञा दी- 'गोकुल में जाकर प्रलयकालिक मूसलाधार वर्षा से पूरा गोकुल तहस-नहस कर दें, वहां प्रलय का सा दृश्य उत्पन्न कर दें।
पर्वताकार प्रलयंकारी मेघ ब्रजभूमि पर जाकर मूसलाधार बरसने लगे। कुछ ही पलों में ऐसा दृश्य उत्पन्न हो गया कि सभी बाल-ग्वाल भयभीत हो उठे। भयानक वर्षा देखकर ब्रजमंडल घबरा गया। सभी ब्रजवासी श्रीकृष्ण की शरण में जाकर बोले- 'भगवन! इन्द्र हमारी नगरी को डुबाना चाहता है, आप हमारी रक्षा कीजिए।
गोप-गोपियों की करुण पुकार सुनकर श्रीकृष्ण बोले- 'तुम सब गऊओं सहित गोवर्धन पर्वत की शरण में चलो। वही सब की रक्षा करेंगे।' कुछ ही देर में सभी गोप-ग्वाल पशुधन सहित गोवर्धन की तलहटी में पहुंच गए। तब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठाकर छाता सा तान दिया और सभी गोप-ग्वाल अपने पशुओं सहित उसके नीचे आ गए। सात दिन तक गोप-गोपिकाओं ने उसी की छाया में रहकर अतिवृष्टि से अपना बचाव किया।सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक बूंद भी जल नहीं पड़ा।
इससे इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। यह चमत्कार देखकर और ब्रह्माजी द्वारा श्रीकृष्ण अवतार की बात जानकर इन्द्र को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ।वह स्वयं ब्रज गए और भगवान कृष्ण के चरणों में गिरकर अपनी मूर्खता पर क्षमायाचना करने लगे। सातवें दिन श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को नीचे रखा और ब्रजवासियों से कहा- 'अब तुम प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व मनाया करो ।तभी से यह उत्सव (पर्व) अन्नकूट के नाम से मनाया जाता है |

गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

गोपीगीत


गोपी गीत में उन्नीस श्लोक सबने एक साथ गाया, एक ही स्वर में, 'गोपी-गीत' गाया.

1. !! जयति तेsधिकं जन्मना ब्रज:श्रयत
इन्द्रिरा शश्व दत्र हि द्यति द्दश्यतां दिक्षु
तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते !!
भवार्थ - हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोको से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ़ गयी है तभी तो सौंदर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोडकर यहाँ की सेवा के लिए नित्य निरंतर निवास करने लगी है हे प्रियतम देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे है वन वन में भटक ढूँढ रही है.

2. !! शरदुदाशये साधु जातसत सरसिजोदरश्रीमुषा द्द्शा
सुरतनाथ तेsशुल्दासिका वरद निघ्न्तो नेह किं वधः !!
भवार्थ - हे हमारे प्रेम पूरित ह्रदय के स्वामी ! हम तो आपकी बिना मोल की दासी है तुम शरदऋतु
के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौंदर्य को चुराने वाले नेत्रो से हमें घायल कर चुके हो. हे प्रिय !अस्त्रों से हत्या करना ही वध होता है, क्या इन नेत्रो से मरना हमारा वध करना नहीं है.

3. !! विषजलाप्ययाद व्यालराक्षसादवर्षमारुताद वैद्युतानलात
वृषमयात्मजाद विश्वतोभया द्दषभ ते वयं रक्षिता मुहु: !!
भवार्थ - हे पुरुष शिरोमणि ! यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खाने वाला अधासुर, इंद्र की वर्षा आकाशीय बिजली, आँधी रूप त्रिणावर्त, दावानल अग्नि, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से अलग-अलग समय पर सब प्रकार के भयो से तुमने बार-बार हमारी रक्षा की है.

4. !! न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरादृक
विखनसार्थितो, विश्वगुप्तये सख उदेयिवान सात्वतां कुले !!
भवार्थ - हे हमारे परम सखा ! आप केवल में यशोदा के ही पुत्र नहीं हो अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में
अन्तस्थ साक्षी हैं.चूँकि भगवान ब्रह्मा ने आपसे अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए प्रार्धना की थी इसलिए अब आप यदुकुल में प्रकट हुए हैं.

5. !! विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संस्रृतेयात
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम !!
भवार्थ - हे वृषिणधूर्य ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा को पूर्ण करने में सबसे आगे हो जो लोग जन्म मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते है उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हो सबकी लालसा अभिलाषा को पूर्ण करने वाला वही करकमल जिससे तुमने लक्ष्मी जी के हाथ को पकडा है प्रिये, उसी कामना को पूर्ण करने वाले कर कमल को हमारे सिरों के ऊपर रखें.

6. !! ब्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मितः
भज सखे भवत्किंकरी: स्मनो जलरुहाननं चारू दर्शय !!
भवार्थ - हे वीर शिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम सभी व्रजवासियो के दुखो को दूर करने वाले
हो तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान की एक झलक ही तुम्हारे भक्तो के सारे मान मद को चूर चूर
करती है. हे मित्र ! हम से रूठो मत, प्रेम करो हम तो तुम्हारी दासी है तुम्हारे चरणों में निछावर
है, हम अबलाओ को अपना वह परम सुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ.
7. !! प्रणतदेहिनां पापकर्षनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम
फणिफणार्पितं तेपदाम्बुजं कृणु कुचेषु नः, कृन्धि हृच्छयम् !!
भवार्थ - आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने
वाले है. लक्ष्मी जी सौंदर्य और माधुर्य की खान है वह जिन चरणों को अपनी गोद में रखकर
निहारा करती है वह कोमल चरण बछडो के पीछे- पीछे चल रहे है उन्ही चरणों को तुमने कालियानाग
के शीश पर धारण किया था तुम्हारी विरह की वेदना से ह्रदय संतृप्त हो रहा है तुमसे मिलन
की कामना हमें सता रही है, हे प्रियतम ! तुम उन शीतलता प्रदान करने वाले चरणों को हमारे जलते
हुए वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की अग्नि को शान्त कर दो.

8. !! मधुरया गिरा वळ्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुना प्यायस्व न : !!
भवार्थ - हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है तुम्हारा एक-एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है बड़े-बड़े विद्वान तुम्हारी वाणी से मोहित होकर अपना सर्वस्व निछावर कर देते है
उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी हम दासी मोहित हो रही है, हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधररस पिलाकर हमें जीवन दान दो.

9. !! तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडीतं कल्मषापहम्
श्रवणमंडगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये, भूरिदा जनाः !!
भवार्थ - आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत में कष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं. ज्ञानियों महात्माओ भक्तो कवियों ने तुम्हारी लीलाओ का गुणगान किया है जो सारे पाप ताप को मिटाने वाली है जिसके सुनने मात्र से परम मंगल एवम परम कल्याण का दान देने वाली है
तुम्हारी लीला कथा परम सुन्दर मधुर और कभी न समाप्त होने वाली है जो तुम्हारी लीला का गान
करते है वह लोग वास्तव में मृत्यु लोक में सबसे बड़े दानी है.

10. !! प्रहसितम् प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमंङगलम्
रहसि संविदो या हदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि !!
भवार्थ - आपकी हँसी, आपकी मधुर प्रेम-भरी चितवन, आपके साथ हमारे द्वारा भोगी गई
घनिष्ट लीलाएं तथा गुप्त वार्तालाप , इन सबका ध्यान करना मंगलकारी है.और ये हमारे ह्दयों को स्पर्श करती है उसके साथ ही, हे छलिया ! वे हमारे मनों को अतीव क्षुब्ध भी करती है.

11.!! चलसि यदब्रजाच्चारयन्पशून नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्
शिलतृणाडकुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः, कान्त गच्छति !!
भवार्थ - हे स्वामी, हे प्रियतम ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल और सुन्दर है जब आप गौवें चराने के लिए गाँव छोडकर जाते है तो हमारे मन इस विचार से विचलित हो उठते है कि कमल से भी अधिक सुन्दर आपके पाँवों में अनाज के नोकदार तिनके तथा घास-फूस एंव पौधे चुभ जाऐंगे. ये सोचकर ही हमारा मन बहुत वेचैन हो जाता है.

12.!! दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैवनरूहाननं विभ्रतवृतम्
धनरजवलं , दर्शयन्मुहुमनसि नः स्मरं वीर यच्छसि !!
भवार्थ - हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखती है कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलके लटक रही है, और गौओ के खुर से उड़ उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है तुम अपना वह मनोहारी सौंदर्य हमें दिखाकर हमारे ह्रदय को प्रेम पूरित करके मिलन की कामना उत्पन्न करते हो.

13. !! प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्ड़नं ध्येयमापदि
चरणपडकजं , शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन!!
भवार्थ - हे प्रियतम ! तुम ही हमारे दुखो को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तो की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली है, इन चरणों के ध्यान करने मात्र से सभी व्याधि शांत हो जाती है. हे प्यारे ! तुम अपने उन परम कल्याण स्वरुप चरण कमल हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा को शांत कर दो.

14. !! सुरतवर्धनं शोकनाशनं,स्वरितवेणुना सुष्ठुः चुम्वितम्
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेsधराम्रृतम !!
भवार्थ - हे वीर ! आप अपने होंठों के उस अमृत को हममें वितरित कीजिये जो माधुर्य हर्ष को बढाने वाला और शोक को मिटाने वाला है उसी अमृत का आस्वादन, आपकी ध्वनि करती हुई वंशी लेती है और लोगों को अन्य सारी आसक्तियां भुलवा देती है.

15. !! अटति यद्भवानहिनि काननं त्रुटियुगायते त्वामपश्यताम्
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृतद्दशाम् !!
भवार्थ - हे हमारे प्यारे ! दिन के समय तुम वन में विहार करने चले जाते हो तब तुम्हारे बिना हमारे लिए एक क्षण भी एक युग के समान हो जाता है और तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकावली से युक्त तुम्हारे सुन्दर मुखारविन्द को हम देखती है उस समय हमारी पलको का गिरना हमारे लिए अत्यंत
कष्टकारी होता है तब ऐसा महसूस होता है कि इन पलको को बनाने वाला विधाता मूर्ख है.

16. !! पतिसुतान्वयभातृबान्धवानतिविलडघ्य तेsन्त्यच्युतागताः
गतिविदस्तवोदगीत्मोहिताः कितब योषितः कस्त्यजेन्निशि !!
भवार्थ - हे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति, पुत्र, सभी भाई, बंधू, और कुल परिवार को त्यागकर उनकी इच्छा और आज्ञा का उल्लघन करके तुम्हारे पास आई है. हम तुम्हारी हर चाल को जानती, हर संकेत को समझती है. और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आई है हे कपटी! इस प्रकार
रात्रि को आई हुई युवतियों को तुम्हारे अलावा और कौन छोड सकता है.

17. !! रहसि संविदं हच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्
बृहदुर श्रियो, वीक्ष्य धाम ते मुहरतिस्पृहा, मुहयते मनः !!
भवार्थ - हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेमभाव जगाने वाली बाते किया करते थे हँसी मजाक करके हम छेड़ते थे तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देख्रकर मुस्करा देते थे तुम्हारा वक्षस्थल, जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निवास करती है, हे प्रिये! तब से अब तक निरंतर हमारी लालसा बढती ही जा रही है ओर हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है.

18.!! ब्रजवनौकसां ,व्यक्तिरडग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमंडगलम्
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहद्रुजां यन्निषूदनम !!
भवार्थ - हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति ब्रज वनवासियों के सम्पूर्ण दुख ताप को नष्ट करने वाली ओर विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है कुछ ऐसी औषधि प्रदान करो जो तुम्हारे भक्त्जनो के ह्रदय-रोग को सदा-सदा के लिए मिटा दे.

19.!! यत्ते सुजातचरणाम्बुरूहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिये दधीमहि ककशेषु
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित कूपापदिभिभ्रमति धीर्भवदायुषां नः !!
भवार्थ - हे कृष्णा ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल है उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती है जिससे आपके कोमल चरणों में कही चोट न लग जाये उन्ही चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे हुए भटक रहे हो, क्या कंकण, पत्थर, काँटे, आदि की चोट लगने से आपके चरणों में पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही अचेत होती जा रही है.

हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे हमारे प्राणनाथ !
हमारा जीवन तुम्हारे लिए है हम तुम्हारे लिए ही जी रही है हम सिर्फ तुम्हारी ही है.

व्रजधाम

                   व्रजधाम


रणवाड़ी के बाबा कृष्णदास जी बंगवासी थे,
संपन्न ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे, जब घर में अपने विवाह की बात सुनी तो ग्रहत्याग कर पैदल भागकर श्रीधाम वृंदावन आ गए.
जिस समय वृंदावन आये थे उस समय वृंदावन भीषण जंगल था, वही अपनी फूस की कुटी बनाकर रहने लगे, केवल एक बार ग्राम से मधुकरी माँग लाते थे.
बाबा बाल्यकाल में ही व्रज आ गए थे इसलिए किसी तीर्थ आदि का दर्शन नहीं किया था. प्रायः ५० वर्ष का जीवन बीत गया था,

एक बार मन में विचार आया कि चारधाम यात्रा कर आऊ. किन्तु प्रिया जी ने स्वपन में आदेश दिया इस धाम को छोड़कर अन्यत्र कही मत जाना, यही रहकर भजन करो, यही तुम्हे सर्वसिद्धि लाभ होगा.
किन्तु बाबा ने श्री जी के स्वप्नदेश को अपने मन और बुद्धि की कल्पना मात्र ही समझकर उसकी कोई परवाह न की और तीर्थ भ्रमण को चल पड़े.
भ्रमण करते करते द्वारिका जी में पहुँच गए तो वहाँ तप्तमुद्रा की शरीर पर छाप धारण कर ली.
चारो संप्रदायो के वैष्णवगण द्वारिका जाकर तप्तमुद्रा धारण करते है, परन्तु ये श्री वृंदावननीय रागानुगीय वैष्णवों की परंपरा के सम्मत नहीं है.
बाबा जी ने व्रज के सदाचार की उपेक्षा की. तत्क्षण ही उनका मन खिन्न हो उठा और तीर्थ में अरुचि हो उठि और वे तुरंत वृंदावन लौट आये .
जिस दिन लौटकर आये उसी रात्रि में श्री प्रिया जी ने पुन: स्वप्न दिया और बोली- तुमने द्वारिका की तप्तमुद्रा ग्रहण की है अतः तुम अब सत्यभामा के परिकर में हो गए हो, अब तुम व्रजवास के योग्य नहीं हो, द्वारिका चले जाओ.
इस बार बाबा को स्वप्न कल्पित नहीं लगा इन्होने बहुत से बाबा से जिज्ञासा की, सबने श्रीप्रिया जी के ही आदेश का अनुमोदन किया.
गोवर्धन में भी एक बाबा कृष्णदास जी नाम के ही थे, वे इन बाबा के घनिष्ठ मित्र थे. एक बार आप उनके पास गोवर्धन गए तो उन्होंने गाढ़ आलिंगन किया और पूंछ इतने दिनों तक कहाँ थे ?

तो बाबा ने कहा - कि द्वारिका गया था और अपनी तप्त मुद्राये भी दिखायी,
यह देखते ही बाबा अचानक ठिठक गए और लंबी श्वास लेते हुए बोले -ओं हो ! आज से आपके स्पर्श की मेरी योग्यता भी विनष्ट हो गई,
कहाँ तो आप "महाराजेश्वरी की सेविका (सत्यभामा)" और कहाँ में "एक ग्वारिनी की दासी (राधारानी).
इतना सुनते ही बाबा एक दम स्तंभित हो गए और प्रणाम करने वापस लौट आये, और इनको सब वैष्णवों ने कहा -
इसका कुछ प्रतिकार नहीं परन्तु श्री प्रिया जी के साक्षात् आदेश के ऊपर भी क्या कोई उपदेश मन बुद्धि के गोचर हो सकता है ?

हताश हो कुटिया में प्रवेश कर इन्होने अन्नजल त्याग दिया अपने किये के अनुताप से और श्रीप्रिया जी के विरह से ह्रदय जलने लगा.
कहते है इसी प्रकार ३ महीने तक रहे. अंतत: अन्दर की विरहानल बाहर शरीर पर प्रकट होने लगी.
तीन दिन तक चरण से मस्तक पर्यंत क्रमशः अग्नि से जलकर इनकी काया भस्म हो गई, अचानक रात में सिद्ध बाबा जगन्नाथ दास जी जो वही पास में ही रहते थे,
उन्हिने अपने शिष्य श्री बिहारीदास से कहा - देखो ! तो इस बाबा की कुटिया में क्या हो रहा है ?
उसने अनुसन्धान लगाया तो कहा - रणवाडी के बाबा की देह जल रही है, भीतर जाने का रास्ता नहीं था अंदर से सांकल बंद थी.

सिद्ध बाबा समझ गए और बोले -ओं विरहानल ! इतना कहकर बाबा की कुटिया के किवाड़ तोड़कर अंदर गए, और व्रजवासी लोग भी गए.
सबने देखा कंठपर्यंत तक अग्नि आ चुकी थी, बाबा ने रुई मंगवाई और तीन बत्तियाँ बनायीं और ज्यो ही उन्होंने उनके माथे पर रखी कि एकदम अग्नि ने आगे बढकर सारे शरीर को भस्मसात कर दिया.
जगन्नाथ बाबा वहाँ के लोगो से बोले- तुम्हारे गाँव में कभी दुःख न आएगा, भले ही चहुँ ओर माहमारी फैले,
और आज भी बाबा कि वाणी का प्रत्यक्ष प्रमाण देखा जाता है. इस घटना को १०० वर्ष हो गए, आज भी सिद्ध बाबा की समाधि बनी हुई है और व्रजवासी जाकर प्रार्थना करके जो भी मांगते है मनोकामना पूरी होती है.
धन्य है ऐसे राधारानी जी के दास और उनकी व्रजनिष्ठा जो शरीर तो छोड़ सकते है पर श्री धाम वृन्दावन नहीं

बुधवार, 18 अक्टूबर 2017

बुक वैल्यु (Book Value)

              Book value 


पुस्तक मूल्य मूल रूप से एक लेखा उपाय है। कंपनी की बैलेंस शीट को देखकर यह गणना की जा सकती है।

पुस्तक मूल्य कंपनी का मालिक है और उसका रिकॉर्डिक रूप से बकाया है - कुल भूमि, इमारतों, मशीनरी आदि ... कुल बकाया से कम - ऋण जैसे देनदारियां

पुस्तक मूल्य कैसे पाएं?

पुस्तक मूल्य खोजने का आसान तरीका है -

बुक वैल्यू = इक्विटी शेयर पूंजी + बरकरार रखा आय

दोनों ही आंकड़े कंपनी के बैलेंस शीट में उपलब्ध हैं। आप पुस्तक मूल्य प्राप्त करने के लिए ऊपर दिए गए नंबरों को जोड़ सकते हैं। दूसरा विकल्प वित्तीय वेबसाइटों पर भरोसा करना है जहां यह जानकारी सीधे उपलब्ध है।
PRICE / BV राशि

पुस्तक अनुपात या पी / बी अनुपात की कीमत कंपनी के बुक वैल्यू के बाजार मूल्य पर मूल्य दर्शाती है। पुस्तक अनुपात की कीमत के रूप में गणना की जाती है:

पी / बी अनुपात = प्रति शेयर बाजार मूल्य / शेयर मूल्य प्रति शेयर

पुस्तक मूल्य से विभाजित बाजार का मूल्य कंपनी की संपत्ति के प्रत्येक रुपया के बाजार मूल्य को दर्शाता है। उदाहरण के लिए यदि पी / बी अनुपात 4 है, तो इसका मतलब है कि प्रत्येक 1 रुपये की किताबों में, बाजार द्वारा भुगतान की गई कीमत 4 रुपये है। आम तौर पर निवेशक 1 से कम पी / बी रखना चाहते हैं, जिससे प्रत्येक रुपये का भुगतान अधिक संपत्ति द्वारा समर्थित है

उद्योगों के बीच अनुपात को बुक करने का मूल्य भिन्न होता है बुनियादी ढांचे, बैंकों और वित्तीय संस्थानों जैसे एसेट आधारित कंपनियों में उच्च बही मूल्य हो सकते हैं।

निवेशकों के लिए, पी / बी कम-कीमत वाले शेयरों को खोजने के लिए एक कोशिश और परीक्षण विधि है।

नियम यह है कि -

बुक वैल्यू बैंकों की तरह अपनी पुस्तकों में भारी ठोस परिसंपत्तियों वाली कंपनियों को मापने के लिए उपयोगी होती हैं। यदि कोई कंपनी अपने बुक वैल्यू से कम के लिए कारोबार कर रही है तो यह निवेशकों को बताती है कि शेयर की कीमत कम है

एक अच्छा स्टॉक खोजना मुश्किल है जो कि पुस्तक मूल्य से नीचे है?

यह ठीक है कि यह कैसे है। मजबूत लाभ और ठोस विकास संभावनाओं वाली कंपनियों के लिए निवेशक पुस्तकों के मूल्य से अधिक भुगतान करने के लिए हमेशा तैयार रहेंगे। ऐसी पुस्तकों को अपने पुस्तक मूल्य से कम पर पकड़ना बहुत कठिन होगा उदाहरण के लिए माइक्रोसॉफ्ट, सॉफ्टवेयर दिग्गज, शायद ही कभी 10 गुना नीचे पुस्तक का मूल्य है।

इसलिए, अगर आपको ऐसी कंपनियों मिलती है जो इसे बुक वैल्यू के नीचे व्यापार करती है, तो आगे बढ़ें और निवेश न करें। बुनियादी बातों के साथ कुछ गलत हो सकता है आपको ऐसे मामलों में बहुत सतर्क होना चाहिए। पुस्तक मूल्य अंगूठे के नियम वैध हैं अगर और अगर कंपनी की बैलेंस शीट मजबूत होती है और इसका व्यवसाय परेशान जल में नहीं होता है अन्यथा, एक अधोमूल्य हिस्से का मतलब यह हो सकता है कि दो चीजों में से एक:

या तो बाजार का मानना ​​है कि परिसंपत्ति मूल्य अधिक हो गया है या कंपनी अपनी परिसंपत्तियों पर बहुत खराब (यहां तक ​​कि नकारात्मक) रिटर्न कमा रही है


स्वप्नफल



1- सांप दिखाई देना- धन लाभ
2- नदी देखना- सौभाग्य में वृद्धि
3- नाच-गाना देखना- अशुभ समाचार मिलने के योग
4- नीलगाय देखना- भौतिक सुखों की प्राप्ति
5- नेवला देखना- शत्रुभय से मुक्ति
6- पगड़ी देखना- मान-सम्मान में वृद्धि
7- पूजा होते हुए देखना- किसी योजना का लाभ मिलना
8- फकीर को देखना- अत्यधिक शुभ फल
9- गाय का बछड़ा देखना- कोई अच्छी घटना होना
10- वसंत ऋतु देखना- सौभाग्य में वृद्धि
11- स्वयं की बहन को देखना- परिजनों में प्रेम बढऩा
12- बिल्वपत्र देखना- धन-धान्य में वृद्धि
13- भाई को देखना- नए मित्र बनना
14- भीख मांगना- धन हानि होना
15- शहद देखना- जीवन में अनुकूलता
16- स्वयं की मृत्यु देखना- भयंकर रोग से मुक्ति
17- रुद्राक्ष देखना- शुभ समाचार मिलना
18- पैसा दिखाई- देना धन लाभ
19- स्वर्ग देखना- भौतिक सुखों में वृद्धि
20- पत्नी को देखना- दांपत्य में प्रेम बढ़ना
21- स्वस्तिक दिखाई देना- धन लाभ होना
22- हथकड़ी दिखाई देना- भविष्य में भारी संकट
23- मां सरस्वती के दर्शन- बुद्धि में वृद्धि
24- कबूतर दिखाई देना- रोग से छुटकारा
25- कोयल देखना- उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति
26- अजगर दिखाई देना- व्यापार में हानि
27- कौआ दिखाई देना- बुरी सूचना मिलना
28- छिपकली दिखाई देना- घर में चोरी होना
29- चिडिय़ा दिखाई देना- नौकरी में पदोन्नति
30- तोता दिखाई देना- सौभाग्य में वृद्धि
31- भोजन की थाली देखना- धनहानि के योग
32- इलाइची देखना- मान-सम्मान की प्राप्ति
33- खाली थाली देखना- धन प्राप्ति के योग
34- गुड़ खाते हुए देखना- अच्छा समय आने के संकेत
35- शेर दिखाई देना- शत्रुओं पर विजय
36- हाथी दिखाई देना- ऐेश्वर्य की प्राप्ति
37- कन्या को घर में आते देखना- मां लक्ष्मी की कृपा मिलना
38- सफेद बिल्ली देखना- धन की हानि
39- दूध देती भैंस देखना- उत्तम अन्न लाभ के योग
40- चोंच वाला पक्षी देखना- व्यवसाय में लाभ
41- स्वयं को दिवालिया घोषित करना- व्यवसाय चौपट होना
42- चिडिय़ा को रोते देखता- धन-संपत्ति नष्ट होना
43- चावल देखना- किसी से शत्रुता समाप्त होना
44- चांदी देखना- धन लाभ होना
45- दलदल देखना- चिंताएं बढऩा
46- कैंची देखना- घर में कलह होना
47- सुपारी देखना- रोग से मुक्ति
48- लाठी देखना- यश बढऩा
49- खाली बैलगाड़ी देखना- नुकसान होना
50- खेत में पके गेहूं देखना- धन लाभ होना
51- किसी रिश्तेदार को देखना- उत्तम समय की शुरुआत
52- तारामंडल देखना- सौभाग्य की वृद्धि
53- ताश देखना- समस्या में वृद्धि
54- तीर दिखाई- देना लक्ष्य की ओर बढऩा
55- सूखी घास देखना- जीवन में समस्या
56- भगवान शिव को देखना- विपत्तियों का नाश
57- त्रिशूल देखना- शत्रुओं से मुक्ति
58- दंपत्ति को देखना- दांपत्य जीवन में अनुकूलता
59- शत्रु देखना- उत्तम धनलाभ
60- दूध देखना- आर्थिक उन्नति
61- धनवान व्यक्ति देखना- धन प्राप्ति के योग
62- दियासलाई जलाना- धन की प्राप्ति
63- सूखा जंगल देखना- परेशानी होना
64- मुर्दा देखना- बीमारी दूर होना
65- आभूषण देखना- कोई कार्य पूर्ण होना
66- जामुन खाना- कोई समस्या दूर होना
67- जुआ खेलना- व्यापार में लाभ
68- धन उधार देना- अत्यधिक धन की प्राप्ति
69- चंद्रमा देखना- सम्मान मिलना
70- चील देखना- शत्रुओं से हानि
71- फल-फूल खाना- धन लाभ होना
72- सोना मिलना- धन हानि होना
73- शरीर का कोई अंग कटा हुआ देखना- किसी परिजन की मृत्यु के योग
74- कौआ देखना- किसी की मृत्यु का समाचार मिलना
75- धुआं देखना- व्यापार में हानि
76- चश्मा लगाना- ज्ञान में बढ़ोत्तरी
77- भूकंप देखना- संतान को कष्ट
78- रोटी खाना- धन लाभ और राजयोग
79- पेड़ से गिरता हुआ देखना किसी रोग से मृत्यु होना
80- श्मशान में शराब पीना- शीघ्र मृत्यु होना
81- रुई देखना- निरोग होने के योग
82- कुत्ता देखना- पुराने मित्र से मिलन
83- सफेद फूल देखना- किसी समस्या से छुटकारा
84- उल्लू देखना- धन हानि होना
85- सफेद सांप काटना- धन प्राप्ति
86- लाल फूल देखना- भाग्य चमकना
87- नदी का पानी पीना- सरकार से लाभ
88- धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना- यश में वृद्धि व पदोन्नति
89- कोयला देखना- व्यर्थ विवाद में फंसना
90- जमीन पर बिस्तर लगाना- दीर्घायु और सुख में वृद्धि
91- घर बनाना- प्रसिद्धि मिलना
92- घोड़ा देखना- संकट दूर होना
93- घास का मैदान देखना- धन लाभ के योग
94- दीवार में कील ठोकना- किसी बुजुर्ग व्यक्ति से लाभ
95- दीवार देखना- सम्मान बढऩा
96- बाजार देखना- दरिद्रता दूर होना
97- मृत व्यक्ति को पुकारना- विपत्ति एवं दुख मिलना
98- मृत व्यक्ति से बात करना- मनचाही इच्छा पूरी होना
99- मोती देखना- पुत्री प्राप्ति
100- लोमड़ी देखना- किसी घनिष्ट व्यक्ति से धोखा मिलना
101- गुरु दिखाई देना- सफलता मिलना
102- गोबर देखना- पशुओं के व्यापार में लाभ
103- देवी के दर्शन करना- रोग से मुक्ति
104- चाबुक दिखाई देना- झगड़ा होना
105- चुनरी दिखाई देना- सौभाग्य की प्राप्ति
106- छुरी दिखना- संकट से मुक्ति
107- बालक दिखाई देना- संतान की वृद्धि
108- बाढ़ देखना- व्यापार में हानि
109- जाल देखना- मुकद्में में हानि
110- जेब काटना- व्यापार में घाटा
111- चेक लिखकर देना- विरासत में धन मिलना
112- कुएं में पानी देखना- धन लाभ
113- आकाश देखना- पुत्र प्राप्ति
114- अस्त्र-शस्त्र देखना- मुकद्में में हार
115- इंद्रधनुष देखना- उत्तम स्वास्थ्य
116- कब्रिस्तान देखना- समाज में प्रतिष्ठा
117- कमल का फूल देखना- रोग से छुटकारा
118- सुंदर स्त्री देखना- प्रेम में सफलता
119- चूड़ी देखना- सौभाग्य में वृद्धि
120- कुआं देखना- सम्मान बढऩा
121- अनार देखना- धन प्राप्ति के योग
122- गड़ा धन दिखाना- अचानक धन लाभ
123- सूखा अन्न खाना- परेशानी बढऩा
124- अर्थी देखना- बीमारी से छुटकारा
125- झरना देखना- दु:खों का अंत होना
126- बिजली गिरना- संकट में फंसना
127- चादर देखना- बदनामी के योग
128- जलता हुआ दीया देखना- आयु में वृद्धि
129- धूप देखना- पदोन्नति और धनलाभ
130- रत्न देखना- व्यय एवं दु:ख 131- चंदन देखना- शुभ समाचार मिलना
132- जटाधारी साधु देखना- अच्छे समय की शुरुआत
133- स्वयं की मां को देखना- सम्मान की प्राप्ति
134- फूलमाला दिखाई देना- निंदा होना
135- जुगनू देखना- बुरे समय की शुरुआत
136- टिड्डी दल देखना- व्यापार में हानि
137- डाकघर देखना- व्यापार में उन्नति
138- डॉक्टर को देखना- स्वास्थ्य संबंधी समस्या
139- ढोल दिखाई देना- किसी दुर्घटना की आशंका
140- मंदिर देखना- धार्मिक कार्य में सहयोग करना
141- तपस्वी दिखाई- देना दान करना
142- तर्पण करते हुए देखना- परिवार में किसी बुर्जुग की मृत्यु
143- डाकिया देखना- दूर के रिश्तेदार से मिलना
144- तमाचा मारना- शत्रु पर विजय
145- उत्सव मनाते हुए देखना- शोक होना
146- दवात दिखाई देना- धन आगमन
147- नक्शा देखना- किसी योजना में सफलता
148- नमक देखना- स्वास्थ्य में लाभ
149- कोर्ट-कचहरी देखना- विवाद में पडऩा
150- पगडंडी देखना- समस्याओं का निराकरण
151- सीना या आंख खुजाना- धन लाभ

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

भीगा चना वरदान है

भिगोए हुए चने में प्रोटीन, फाइबर, मिनरल और विटामिन्स खूब होते हैं जो कई बीमारियों से बचाव के साथ-साथ हेल्दी रहने में भी हेल्पफुल होते हैं। वैसे तो हर व्यक्ति के लिए चने खाने के अपने फायदे हैं, लेकिन खासकर पुरुषाें को तो ये जरूर खाने चाहिए।
चने में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, नमी, चिकनाई, रेशे, कैल्शियम, आयरन व विटामिन्स पाए जाते हैं। चने के सेवन से सुंदरता बढ़ती है साथ ही दिमाग भी तेज हो जाता है।

1. 25 ग्राम काले चने रात में भिगोकर सुबह खाली पेट सेवन करने से डायबिटीज दूर हो जाती है।

2. गर्म चने रूमाल या किसी साफ कपड़े में बांधकर सूंघने से जुकाम ठीक हो जाता है।

3. मोटापा घटाने के लिए रोजाना नाश्ते में चना लें।

4. अंकुरित चना 3 साल तक खाते रहने से कुष्ट रोग में लाभ होता है।

5. गर्भवती को उल्टी हो तो भुने हुए चने का सत्तू पिलाएं।

6. चना पाचन शक्ति को संतुलित और दिमागी शक्ति को भी बढ़ाता है। चने से खून साफ होता है जिससे त्वचा निखरती है।
Chickpeas

7. सर्दियों में चने के आटे का हलवा अस्थमा में फायदेमंद होता है।

8. चने के आटे की नमक रहित रोटी 40 से 60 दिनों तक खाने से त्वचा संबंधित बीमारियां जैसे-दाद, खाज, खुजली आदि नहीं होती हैं।

9. भुने हुए चने रात में सोते समय चबाकर गर्म दूध पीने से सांस नली के अनेक रोग व कफ दूर हो जाता हैं।

10. शहद मिलाकर पीने से नपुंसकता समाप्त हो जाती है।

11. चने के पौधे के सूखे पत्तों का धुम्रपान करने से हिचकी तथा आमाशय की बीमारियों में लाभ होता है।

12. पीलिया में चने की दाल खाने से राहत मिलती है।

13. चीनी के बर्तन में रात को चने भिगोकर रख दे। सुबह उठकर खूब चबा-चबाकर खाएं इसके लगातार सेवन करने से वीर्य में बढ़ोतरी होती है व पुरुषों की कमजोरी से जुड़ी समस्याएं खत्म हो जाती हैं। भीगे हुए चने खाकर दूध पीते रहने से वीर्य का पतलापन दूर हो जाता है।

14. दस ग्राम चने की भीगी दाल और 10 ग्राम शक्कर दोनों मिलाकर 40 दिनों तक खाने से धातु पुष्ट हो जाती है।

15. बार-बार पेशाब जाने की बीमारी में भुने हूए चनों का सेवन करना चाहिए। गुड़ व चना खाने से भी मूत्र से संबंधित समस्या में राहत मिलती है। रोजाना भुने चनों के सेवन से बवासीर ठीक हो जाता है।

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...