मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

जय राम रमारमणं समनं


जय राम रमारमणं समनं | भव ताप भयाकुल पाहि जनम ||
अवधेस सुरेस रमेस बिभो | सरनागत मागत पाहि प्रभो ||
दससीस बिनासन बीस भुजा | कृत दूरी महा महि भूरी रुजा ||
रजनीचर ब्रिंद पतंग रहे | सर पावक तेज प्रचंड दहे ||
महि मंडल मंडन चारुतरम | घृत सायक चाप निषंग बरं ||
मद मोह महा ममता रजनी | तम पुंज दिवाकर तेज अनि ||
मनजात किरात निपात किये | मृग लोग कुभोग सारें हिये ||
हटि नाथ अनाथनि पाहि हरे | बिषया बन पांवर भूली परे ||
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए | भवधान्घ्री निरादर के फल ऐ ||
भव सिन्धु अगाध परे नर ते | पद पंकज प्रेम न जे करते ||
अति दीन मलीन दुखी नितहीन | जिन्ह के पद पंकज प्रीती नहीं ||
अवलंब भवन्त कथा जिन्ह के | प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह के ||
नहीं राग न लोभ न मान मदा | तिन्ह के सम बैभव वा बिपदा ||
एही ते तव सेवक होत मुदा | मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||
करि प्रेम निरंतर नेम लिए | पद पंकज सेवत सुद्ध हिये ||
सम मानि निरादर आदरहि | सब संत सुखी बिचरंति महि ||
मुनि मानस पंकज भृंग भजे | रघुबीर महा रंधीर अजे ||
तव नाम जपामि नमामि हरि | भव रोग महागद मान अरि ||
गुन सील कृपा परमायतनं | प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ||
रघुनंद निकंदय द्वंद्वुघनं | महिपाल बिलोकय दीन जनम ||
बार बार बर मांगउ हरषि देहु श्रीरंग | पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग || १४(क)
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास | तब प्रभु कपिन्ह दिवाय सब बिधि सुखप्रद बास ||

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