मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

सफलता का रहस्य

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है, परन्तु अपने जीवन के 40वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं-
1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है व
शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से चिपकने के कारण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमित कर देते हैं।
भोजन ढूँढ़ना, भोजन पकड़ना
और भोजन खाना....
तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं।

उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं,
या तो देह त्याग दे,
या अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे...
या फिर
स्वयं को पुनर्स्थापित करे,
आकाश के निर्द्वन्द्व एकाधिपति के रूप में।

जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं,
वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता है
और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है।
वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,
एकान्त में अपना घोंसला बनाता है,
और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रक्रिया।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..!
अपनी चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज के
लिये।
तब वह प्रतीक्षा करता है
चोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की।
नये चोंच और पंजे आने के बाद
वह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
150 दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा...
और तब उसे मिलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी।
इस पुनर्स्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,
ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ।
प्रकृति हमें सिखाने बैठी है-
पंजे पकड़ के प्रतीक हैं,
चोंच सक्रियता की और
पंख कल्पना को स्थापित करते हैं।
इच्छा परिस्थितियों पर नियन्त्रण बनाये रखने की,
सक्रियता स्वयं के अस्तित्व की गरिमा बनाये रखने की,
कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की।
इच्छा, सक्रियता और कल्पना...
तीनों के तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं.. हममें भी चालीस तक आते आते।
हमारा व्यक्तित्व ही ढीला पड़ने लगता है,
अर्धजीवन में ही जीवन
समाप्तप्राय सा लगने लगता है,
उत्साह, आकांक्षा, ऊर्जा....
अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई विकल्प होते हैं-
कुछ सरल और त्वरित.!
कुछ पीड़ादायी...!!
हमें भी अपने जीवन के विवशता भरे
अतिलचीलेपन को त्याग कर नियन्त्रण दिखाना होगा-
बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली वक्र मानसिकता को त्याग कर ऊर्जस्वित सक्रियता दिखानी होगी-
"बाज की चोंच की तरह।"
हमें भी भूतकाल में जकड़े अस्तित्व के
भारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी-
"बाज के पंखों की तरह।"
150 दिन न सही, तो एक माह ही बिताया जाये, स्वयं को पुनर्स्थापित करने में।
जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,
बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे,
इस बार उड़ानें
और ऊँची होंगी,
अनुभवी होंगी,
अनन्तगामी होंगी....!

रविवार, 25 फ़रवरी 2018

रुद्राभिषेक से क्या क्या लाभ मिलता है ?

  शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा।
श्लोक
जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै
दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै।
मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा।
पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।।
बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना।
जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवप्रिया।।
घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्।
तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः।
प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम।
केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषतः।
शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्।
श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!!
सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह!
पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।।
जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै।
पुत्रार्थी शर्करायास्तु रसेनार्चेतिछवं तथा।
महलिंगाभिषेकेन सुप्रीतः शंकरो मुदा।
कुर्याद्विधानं रुद्राणां यजुर्वेद्विनिर्मितम्।
अर्थात-
जल से रुद्राभिषेक करने पर —वृष्टि होती है।
कुशा जल से अभिषेक करने पर —रोग, दुःख से छुटकारा मिलती है।
दही से अभिषेक करने पर — पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।
गन्ने के रस से अभिषेक  करने पर — लक्ष्मी प्राप्ति
मधु युक्त जल से अभिषेक करने पर — धन वृद्धि के लिए।
तीर्थ जल से अभिषेकक करने पर — मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इत्र मिले जल से अभिषेक करने से- बीमारी नष्ट होती है ।
दूध् से अभिषेककरने से   — पुत्र प्राप्ति,प्रमेह रोग की शान्ति तथा  मनोकामनाएं  पूर्ण
गंगाजल से अभिषेक करने से — ज्वर ठीक हो जाता है।
दूध् शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से — सद्बुद्धि प्राप्ति हेतू।
घी से अभिषेक करने से — वंश विस्तार होती है।
सरसों के तेल से अभिषेक करने से —रोग तथा शत्रु का नाश होता है।
शुद्ध शहद रुद्राभिषेक करने से   —पाप क्षय हेतू।
इस प्रकार शिव के रूद्र रूप के पूजन और अभिषेक करने से जाने-अनजाने होने वाले पापाचरण से भक्तों को शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है और साधक में शिवत्व रूप सत्यं शिवम सुन्दरम् का उदय हो जाता है उसके बाद शिव के शुभाशीर्वाद सेसमृद्धि, धन-धान्य, विद्या और संतान की प्राप्ति
रुद्राभिषेक से क्या क्या लाभ मिलता है ?
शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा।
श्लोक
जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै
दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै।
मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा।
पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।।
बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना।
जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवप्रिया।।
घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्।
तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः।
प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम।
केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषतः।
शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्।
श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!!
सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह!
पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।।
जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै।
पुत्रार्थी शर्करायास्तु रसेनार्चेतिछवं तथा।
महलिंगाभिषेकेन सुप्रीतः शंकरो मुदा।
कुर्याद्विधानं रुद्राणां यजुर्वेद्विनिर्मितम्।
अर्थात-
जल से रुद्राभिषेक करने पर -वृष्टि होती है।
कुशा जल से अभिषेक करने पर — रोग, दुःख से छुटकारा मिलती है।
दही से अभिषेक करने पर —पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।
गन्ने के रस से अभिषेक  करने पर — लक्ष्मी प्राप्ति
मधु युक्त जल से अभिषेक करने पर — धन वृद्धि के लिए।
तीर्थ जल से अभिषेकक करने पर —मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इत्र मिले जल से अभिषेक करने से — बीमारी नष्ट होती है ।
दूध् से अभिषेककरने से   — पुत्र प्राप्ति,प्रमेह रोग की शान्ति तथा  मनोकामनाएं  पूर्ण
गंगाजल से अभिषेक करने से —ज्वर ठीक हो जाता है।
दूध् शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से — सद्बुद्धि प्राप्ति हेतू।
घी से अभिषेक करने से — वंश विस्तार होती है।
सरसों के तेल से अभिषेक करने से — रोग तथा शत्रु का नाश होता है।
शुद्ध शहद रुद्राभिषेक करने से   — पाप क्षय हेतू।
इस प्रकार शिव के रूद्र रूप के पूजन और अभिषेक करने से जाने-अनजाने होने वाले पापाचरण से भक्तों को शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है और साधक में शिवत्व रूप सत्यं शिवम सुन्दरम् का उदय हो जाता है उसके बाद शिव के शुभाशीर्वाद सेसमृद्धि, धन-धान्य, विद्या और संतान की प्राप्ति के साथ-साथ सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाते हैं।  साथ-साथ सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाते हैं।

|| चत्वारो वेदाः परिचयः ||

 ऋग्वेद का सामान्य परिचय
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
(१)  ऋग्वेद की शाखा :👉  महर्षि पतञ्जलि के अनुसार ऋग्वेद की २१ शाखाएँ हैं, किन्तु पाँच ही शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैं :---
(१) शाकल
(२) बाष्कल
(३) आश्वलायन
(४) शांखायन
(५) माण्डूकायन
संप्रति केवल शाकल शाखा ही उपलब्ध है !

ऋग्वेद के ब्राह्मण
🔸🔸🔹🔸🔸
(१) ऐतरेय ब्राह्मण
(२) शांखायन ब्राह्मण

ऋग्वेद के आरण्यक
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
(१) ऐतरेय आरण्यक
(२) शांखायन आरण्यक

ऋग्वेद के उपनिषद
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
(१) ऐतरेय उपनिषद्
(२) कौषीतकि उपनिषद्

ऋग्वेद के देवता
🔸🔸🔹🔸🔸
तिस्र एव देवताः इति नैरुक्ताः !
(१) अग्नि (पृथिवी स्थानीय )
(२) इन्द्र या वायु (अन्तरिक्ष स्थानीय )
(३) सूर्य (द्यु स्थानीय )

ऋग्वेद में बहु प्रयोग छंद
🔸🔸🔹🔸🔹🔸🔸
(१) गायत्री ,
(२) उष्णिक्
(३) अनुष्टुप् ,
(४) त्रिष्टुप्
(५) बृहती,
(६) जगती,
(७) पंक्ति,

ऋग्वेद के मंत्रों के तीन विभाग
🔸🔸🔹🔹🔸🔸🔹🔹
(१) प्रत्यक्षकृत मन्त्र
(२) परोक्षकृत मन्त्र
(३) आध्यात्मिक मन्त्र

ऋग्वेद का विभाजन
🔸🔸🔹🔸🔸
(१) अष्टक क्रम :-
८ अष्टक
६४ अध्याय
२००६ वर्ग

(२) मण्डलक्रम :-
१० मण्डल
८५ अनुवाक
१०२८ सूक्त
१०५८०---१/४
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 यजुर्वेद का सामान्य परिचय
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
यजुर्वेद यज्ञ कर्म के लिए उपयोगी ग्रन्थ है । गद्यात्मक भाग के "यजुः" कहा जाता है । यजुुस् की प्रधानता के कारण इसे "यजुर्वेद" कहा जाता है ।

यजुष् के अन्य अर्थः
🔸🔸🔹🔸🔸
(१.) यजुर्यजतेः (निरुक्त--७.१२)
(यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को यजुष् कहते हैं ।)
(२.) इज्यते अनेनेति यजुः ।
(जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता हैं, उन्हें यजुष् कहते हैं ।)
(३.) अनियताक्षरावसानो यजुः ।
(जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती है, वे यजुष् हैं ।)
(४.) शेषे यजुःशब्दः । (पूर्वमीमांसा--२.१.३७)
(पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं ।)
(५.) एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः ।
(एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पद-समूह को यजुः कहेंगे ।)

इस वेद की दो परम्पराएँ हैं 👉 कृष्ण और शुक्ल ।
शुक्ल यजुर्वेद में शुद्ध रूप में मन्त्र मात्र संकलित है, किन्तु कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों के साथ ब्राह्मण मिश्रित है ।

शाखाएँ :-
🔸🔹🔸
महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य में यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ बताई है, किन्तु उपलब्धता कम है ।

(१) शुक्ल यजुर्वेद :-
🔸🔸🔹🔸🔸
इसकी कुल १६ शाखाएँ बताईं जाती हैं , किन्तु सम्प्रति २ ही शाखाएँ उपलब्ध हैं।
 (१.) माध्यन्दिन (वाजसनेयी ) शाखा,
(२.)  काण्व शाखा ।
माध्यन्दिन-शाखा के मुख्य ऋषि याज्ञवल्क्य हैं । ये मिथिला के निवासी थे । इनके पिता वाजसनि थे, अतः याज्ञवल्क्य वाजसनेय कहलाए । उनके नाम पर इस यजुर्वेद को वाजसनेयी शाखा भी कहते हैं ।
याज्ञवल्क्य ऋषि ने आदित्य ऋषि से इसे दिन के मध्य भाग में प्राप्त किया था, अतः इसे माध्यन्दिन शाखा कहा गया । इस शाखा का सर्वाधिक प्रचार उत्तर भारत में है ।
काण्व ऋषि के पिता बोधायन थे । काण्व के गुरु याज्ञवल्क्य ही थे । काण्व-शाखा का सर्वाधिक प्रचार महाराष्ट्र में हैं ।

(२) कृष्ण यजुर्वेद :-
🔸🔸🔹🔸🔸
इसकी कुल ८५ शाखाएँ बताईं जाती हैं किन्तु सम्प्रति ४ शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---
(१.) तैत्तिरीय-संहिता,
(२.) मैत्रायणी -संहिता,
(३.) कठ-संहिता,
(४.) कपिष्ठल-संहिता,

शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद में अन्तर
🔸🔸🔹🔹🔸🔸🔹🔹🔸🔸
(१.) शुक्लयजुर्वेद
🔸🔸🔹🔸🔸
(१.) यह आदित्य सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।
(२.) इसमें यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले मन्त्र है ।
(३.) यह विशुद्ध है, अर्थात् केवल मन्त्र है, कोई मिश्रण नहीं है ।
(४.) इस ग्रन्थ की प्राप्ति आदित्य से हुई है । आदित्य शुक्ल होता है, अतः इसका नाम शुक्ल-यदुर्वेद रखा गया । शुद्धता के कारण भी इसे शुक्ल कहा गया है ।
(५.) इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है, अर्थात् विशुद्ध है ।

(२.) कृष्णयजुर्वेद
🔸🔸🔹🔸🔸
(१.) यह ब्रह्म-सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।
(२.) इसमें मन्त्रों के साथ-साथ ब्राह्मण भी मिश्रित है, अतः मिश्रण के कारण कृष्ण कहा गया ।
(३.) आदित्य के प्रकाश के विपरीत होने से भी इसे कृष्ण कहा गया ।
(४.) यह अव्यवस्थित है ।
(५.) इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग है, अर्थात् विशुद्ध नहीं है, अस्वच्छ है, मिश्रित है ।

मन्त्र
🔸🔹
(१.) शुक्लयजुर्वेदः-
🔸🔸🔹🔸🔸
 शुक्लयजुर्वेद की वाजसनेयी-शाखा में कुल---
४० अध्याय हैं,
१९७५ मन्त्र हैं ।
वाजयनेयी संहिता में कुल अक्षर २,८८,००० (दो लाख, अट्ठासी हजार)  हैं ।
काण्व-शाखा में भी ४० ही अध्याय हैं, किन्तु मन्त्र २०८६ हैं ।
अनुवाक-३२८ हैं ।

(२.) कृष्णयजुर्वेद
🔸🔸🔹🔸🔸
तैत्तिरीय-शाखा में कुल ७ काण्ड हैं,
४४ प्रपाठक हैं,
६३१ अनुवाक हैं ।
मैत्रायणी-शाखा में कुल ४ काण्ड हैं,
५४ प्रपाठक हैं,
३१४४ मन्त्र हैं ।
काठक (कठ) संहिता में कुल ५ खण्ड हैं,
स्थानक ४० हैं,
वचन १३ हैं,
५३ उपखण्ड हैं,
८४३ अनुवाक हैं,
३०२८ मन्त्र हैं ।
कपिष्ठल अपूर्ण रूप में उपलब्ध है ।
इसमें ६ अष्टक ही उपलब्ध है ,
४८ अध्याय पर समाप्ति है ।

ब्राह्मण :
🔸🔹🔸
शुक्लयजुर्वेद ------ शतपथ ब्राह्मण
कृष्णयजुर्वेद ---- तैत्तिरीय ब्राह्मण , मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल
इन चारों संहिताओं में जो ब्राह्मण भाग हैं, वही कृष्णयजुर्वेद के ब्राह्मण है ।

आरण्यक :
🔸🔹🔸
शुक्लयजुर्वेद---- बृहदारण्यक
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय आरण्यक

उपनिषद् :
🔸🔹🔸
शुक्लयजुर्वेद ---- ईशोपनिषद् , बृहदारण्यकोपनिषद् , प्रश्नोपनिषद् ।
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय उपनिषद् , महानारायण, मैत्रायणीय, कठोपनिषद्, श्वेताश्वरोपनिषद् ।

श्रौतसूत्र
🔸🔹🔸
शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, हिरण्यकेशी (सत्याषाढ), भारद्वाज, वैखानस, वाधुल, मानव, मैत्रायणी, वाराह ।

गृह्यसूत्र :
🔸🔹🔸
शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, सत्याषाढ, वैखानस, कठ ।

धर्मसूत्र :
🔸🔹🔸
शुक्लयजुर्वेद---कोई नहीं ।
कृष्णयजुर्वेद----वसिष्ठ-सूत्र ।

शुल्वसूत्र :
🔸🔹🔸
शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन ।
कृष्णयजुर्वेद---बोधायन, आपस्तम्ब, मानव, मैत्रायणी, वाराह और वाधुल ।
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 सामवेद : सामान्य परिचय :
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
       वैदिक वाङ्मय में सामवेद का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । गीता (१०.२२) में श्रीकृष्ण ने स्वयं के लिए सामवेद कहा है---"वेदानां सामवेदोSस्मि ।"  इस वेद का महत्त्व इस बात से अधिक है कि सामवेद को द्यु कहा गया है, जबकि ऋग्वेद को पृथिवी कहा है---"साम वा असौ द्युलोकः, ऋगयम् भूलोकः ।" (ताण्ड्य-ब्राह्मण--४.३.५)
सामवेद वेदों का सार है । सारे वेदों का रस या सार सामवेद ही है ---"सर्वेषामं वा एष वेदानां रसो यत् साम ।" (शतपथ---१२.८.३.२३) (गोपथ-ब्राह्मण--२.५.७)
सामवेद के लिए गीतियुक्त होना अनिवार्य है---"गीतिषु सामाख्या ।" (पूर्वमीमांसा--२.१.३६) ऋग्वेद और सामवेद का अभिन्न सम्बन्ध हैं । सामवेद के बिना यज्ञ नहीं होता---"नासामा यज्ञो भवति ।" (शतपथ--१.४.१.१)
जो पुरुष "साम" को जानता है, वही वेद के रहस्य को जान पाता है---"सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम् ।" (बृहद्देवता)
"साम" का शाब्दिक अर्थ है---देवों को प्रसन्न करने वाला गान ।
सामवेद का प्रकाश आदित्य ऋषि के हृदय में हुआ ।
आचार्य सायण के अनुसार ऋग्वेद के गाए जाने वाले मन्त्रों को "साम" कहते हैं---"ऋच्यध्यूढं साम ।" अर्थात् ऋचाओं पर ही साम आश्रित है । सामवेद उपासना का वेद है ।

(१.) सामवेद के प्रमुख ऋषि---आदित्य,
सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि ।" (शतपथ--१०.५.१.५)
(२.) सामवेद के गायक ऋत्विज्---उद्गाता,
(३.) सामवेद के देवता---आदित्य ।
सामवेद की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । यह सूर्य-पुत्र है । इसमें सूर्य की शक्ति है---"सूर्यात् सामवेदः अजायत ।" (शतपथ---११.५.८.३)
(४.) ऋषि व्यास ने सामवेद का अध्ययन कराया---जैमिनि को ।
जैमिनि ने सामवेद की शिक्षा अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को दी ।
सामवेद का विस्तार इसी सुकर्मा ऋषि ने की थी । सुकर्मा के दो शिष्य थे---हिरण्यनाभ कौशल्य औ पौष्यञ्जि ।
हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था । कृत ने सामवेद के २४ प्रकार के गान स्वरों का प्रवर्तन किया था ।
कृत के बहुत से आनुयायी हुए । इनके अनुयायी सामवेदी आचार्यों को "कार्त"  कहा जाता है----
"चतुर्विंशतिधा येन प्रोक्ता वै सामसंहिताः ।
स्मृतास्ते प्राच्यसामानः कार्ता नामेह सामगाः ।" (मत्स्यपुराणः---४९.६७)
(५.) शाखाएँ---
ऋषि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की १०००  हजार शाखाएँ थीं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य) ।
सम्प्रति इसकी तीन ही शाखाएँ समुपलब्ध है---
(क) कौथुम,
(ख) राणायणीय,
(ग) जैमिनीय,
कौथुम शाखा के अनुसार सामवेद के दो भाग हैं---(क) पूर्वार्चिक , (२.) उत्तरार्चिक ।
(क) पूर्वार्चिकः----
इसमें कुल चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय, (ख) ऐन्द्र, (ग) पावमान (घ) आरण्य-काण्ड ।
परिशिष्ट के रूप में १० मन्त्र महानाम्नी आर्चिक हैं ।
पूर्वार्चिक में ६ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र ६५० हैं ।
प्रपाठकों में अध्याय है, अध्यायों में खण्ड हैं , जिन्हें "दशति" कहा जाता है, खण्डों में मन्त्र हैं ।
इसके प्रपाठकों के विभिन्न नाम हैं । जिसमें जिस देवता की प्रधानता है, उसका वही नाम है । जैसे---
(क) प्रथम प्रपाठक का नाम--"आग्नेय-पर्व" हैं, क्योंकि इसमें अग्नि से सम्बद्ध मन्त्र हैं । इसके देवता अग्नि ही है । इसमें कुल ११४ मन्त्र हैं ।
(ख) द्वितीय से चतुर्थ प्रपाठक का नाम---"ऐन्द्र-पर्व" है, क्योंकि इनमें इन्द्र की स्तुतियाँ की गईं हैं । इसके देवता इन्द्र ही है । इसमें ३५२ मन्त्र हैं ।
(ग) पञ्चम प्रपाठक का नाम ----"पवमान-पर्व" है, क्योंकि इसमें सोम की स्तुति की गई है । इसके देवता सोम ही है । इसमें कुल ११९ मन्त्र हैं ।
(घ) षष्ठ प्रपाठक का नाम---"अरण्यपर्व" है, क्योंकि इसमें अरण्यगान के ही मन्त्र है । इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम हैं । इसमें कुल ५५ मन्त्र हैं ।
(ङ) महानाम्नी आर्चिक---यह परिशिष्ट हैं । इसके देवता इन्द्र हैं । इसमें कुल १० मन्त्र हैं ।
इस प्रकार कुल मिलाकर पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र हुए ।
इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम से पञ्चम प्रपाठक तक के मन्त्रों का गान गाँवों में हो सकता है । इसलिए इन्हें "ग्रामगान" कहते हैं ।

सामगान के चार प्रकार होते हैं
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
(क) ग्रामगेय गान--इसे "प्रकृतिगान"  और "वेयगान"  भी कहते हैं । यह ग्राम या सार्वजनिक स्थानों पर गाया जाता था ।
(ख) आरण्यगान या आरण्यक गेयगान---यह वनों या पवित्र स्थानों पर गाया जाता था । इसे "रहस्यगान"  भी कहते हैं ।
(ग) उहगान---"ऊह"  का अर्थ है---विचारपूर्वक विन्यास । यह सोमयाग या विशेष धार्मिक अवसरों पर गाया जाता था ।
(घ) उह्यगान या रहस्यगान---रहस्यात्मक होने के कारण यह सार्वजनिक स्थानों पर नहीं गाया जाता था ।
(ख) उत्तरार्चिक----
इसमें कुल २१ अध्याय और ९ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र १२२५ हैं । इसमें कुल ४०० सूक्त हैं ।
पूर्वार्चिक में ऋचाओं का छन्द देवताओं के अनुसार है, जबकि उत्तरार्चिक में यज्ञों के अनुसार है ।
पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र है, जबकि  उत्तार्चिक में १२२५ मन्त्र हैं । दोनों मिलाकर १८७५ हुए ।
 पूर्वार्चिक के २६७ मन्त्रों की आवृत्ति उत्तरार्चिक में हुई है । १५०४ मन्त्र ऋग्वेद से आगत है ।

साममवेदस्थ सामगान मन्त्रों के ५ भाग है।
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
(क) प्रस्ताव---इसका गान "प्रस्तोता" नामक ऋत्विक् करता है । यह "हूँ ओग्नाइ" से प्रारम्भ होता है ।
(ख) उद्गीथ---इसे साम का प्रधान ऋत्विक् उद्गाता गाता है । यह "ओम्" से प्रारम्भ होता है ।
(ग) प्रतिहार----इसका गान "प्रतिहर्ता" नामक ऋत्विक् करता है । यह दो मन्त्रों को जोडने वाली कडी है । अन्त में "ओम्"  बोला जाता है ।
(घ) उपद्रव----इसका गान उद्गाता ही करता है ।
(ङ) निधन----इसका गान तीनों ऋत्विक करते हैं---प्रस्तोता, उद्गाता और प्रतिहर्ता ।
(६.) सामवेद के कुल मन्त्र----१८७५ हैं ।
ऋग्वेद से आगत मन्त्र हैं--१७७१
सामवेद के अपने मन्त्र हैं--१०४  = १८७५
ऋग्वेद से संकलित १७७१ मन्त्रों में से भी २६७ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
सामवेद के अपने १०४ मन्त्रों में से भी ५ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
इस प्रकार पुनरुक्त मन्त्रों की संख्या २७२ है ।

सारांशतः
🔸🔹🔸
सामवेद में ऋग्वेदीय मन्त्र १५०४ + पुनरुक्त २६७ कुल हुए= १७७१
सामवेद के अपने मन्त्र--९९ + पुनरुक्त ५, इस प्रकार कुल हुए= १०४
दोनों को मिलाकर कुल मन्त्र हुए--- १७७१ + १०४  = १८७५
सामवेद में ऋग्वेद से लिए गए अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद के ८ वें और ९ वें मण्डल के हैं ।
८ वें मण्डल से ४५० मन्त्र लिए गए हैं,
९ वें मण्डल से ६४५ मन्त्र लिए गए हैं ।
१ वें मण्डल से २३७ मन्त्र लिए गए हैं ।
१० वें मण्डल से ११० मन्त्र लिए गए हैं ।
सामवेद में कुल अक्षर ४००० * ३६ = १,४४,००० (एक लाख, चौवालीस हजार( हैं ।
सामवेद के ४५० मन्त्रों का गान नहीं हो सकता , अर्थात् ये गेय नहीं है ।

कौथुम शाखा में कुल मन्त्र १८७५ हैं, जबकि जैमिनीय शाखा में १६८७ मन्त्र ही है ।
इस प्रकार जैमिनीय-शाखा में १८८ मन्त्र कम है ।
जैमिनीय शाखा में गानों के ३६८१ प्रकार हैं, जबकि कौथुमीय में केवल २७२२ ही हैं , अर्थात् जैमिनीय-शाखा में ९५९ गान-प्रकार अधिक हैं ।

जैमिनीय-शाखा की संहिता, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र सभी उपलब्ध हैं, किन्तु कौथुमीय के नहीं ।

ब्राह्मण
🔸🔹🔸
पञ्चविंश (ताण्ड्य) महाब्राह्मण , षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, वंश, जैमिनीय, तलवकार ।

आरण्यक कोई नहीं ।

उपनिषद्---छान्दोग्य, केनोपनिषद् ।

श्रौतसूत्र---खादिर, लाट्यायन, द्राह्यायण ।

गृह्यसूत्र----खादिर, गोभिल, गौतम ।

धर्मसूत्र---गौतम ।
शुल्वसूत्र कोई नहीं ।

सामवेद से तीन प्रमुख शिक्षाएँ मिलती हैं
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(क) समत्व की भावना जागृत करना ।
(ख) समन्वय की भावना । पति-पत्नी को एकत्रित करना। समाज को एकत्रित करना । सबको मिलाना । किसी को अलग नहीं करना ।
(ग) साम प्राण है । जीवन में प्राणशक्ति का बडा महत्त्व है । प्राणी इसी से जीता है ।
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 अथर्ववेद एक सामान्य परिचय :
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       अथर्ववेद का अर्थ--अथर्वों का वेद,
वेदों में अन्यतम अथर्ववेद एक महती विशिष्टता से युक्त है । अथर्ववेद का अर्थ---अथर्वों का वेद (ज्ञान), और अङ्गिरों का ज्ञान अर्थात् अभिचार मन्त्रों से सम्बन्धित ज्ञान ।
(१.) अथर्वन्--- स्थिरता से युक्त योग । निरुक्त (११.१८) के अनुसार "थर्व" धातु से यह शब्द बना है, जिसका अर्थ है---गति या चेष्टा । अतः "अथर्वन्" शब्द का अर्थ है--स्थिरता । इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता या चित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है---"अथर्वाणोSथर्वणवन्तः । थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः ।" निरुक्त (११.१८)
(२.) गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार---समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना या वेद वह जिसमें आत्मा को अपने अन्दर देखने की विद्या का उपदेश हो ।
प्राचीन काल में अथर्वन् शब्द पुरोहितों का द्योतक था ।

अन्य नाम
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अथर्वाङ्गिरस्,
अाङ्गिरसवेद,
ब्रह्मवेद,
भृग्वाङ्गिरोवेद,
क्षत्रवेद,
भैषज्य वेद,
छन्दो वेद,
महीवेद
मुख्य ऋषि---अङ्गिरा,
ऋत्विक्---ब्रह्मा
प्रजापति ब्रह्म ने इस वेद का ज्ञान सर्वप्रथम अङ्गिरा ऋषि को दिया ।

शाखाएँ
🔸🔸🔹
ऋषि पतञ्जलि ने महाभाष्य में इस वेद की ९ शाखाएँ बताईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार है।
(१.) पैप्लाद,
(२.) तौद,(स्तौद)
(३.) मौद,
(४.) शौनकीय,
(५.) जाजल,
(६.) जलद,
(७.) ब्रह्मवद,
(८.) देवदर्श,
(९.) चारणवैद्य ।

इनमें से सम्प्रति केवल २ शाखाएँ ही उपलब्ध हैः--शौनकीय और पैप्लाद । शेष मुस्लिम आक्रान्ताओं न नष्ट कर दी । आजकल सम्पूर्ण भारत वर्ष में शौनकीय-शाखा ही प्रचलित है और यही अथर्ववेद है ।

(१.) शौनकीय-शाखा
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काण्ड---२०,
सूक्त---७३०,
मन्त्र---५९८७,
(२.) पैप्लाद -शाखा
यह अपूर्ण है । इसका प्रचलन पतञ्जलि के समय था ।

उपवेद-अर्थर्वेद
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गोपथ-ब्राह्मण (१.१.१०) में इसके पाँच उपवेदों का वर्णन हुआ है---
सर्पवेद,
पिशाचवेद,
असुरवेद,
इतिहासवेद,
पुराणवेद ।
शतपथ-ब्राह्मण (१३.४.३.९) में भी इन उपवेदों का नाम आया है---
सर्पविद्यावेद,
देवजनविद्यावेद, (रक्षोवेद या राक्षसवेद),
मायावेद (असुरवेद या जादुविद्यावेद),
इतिहासवेद ,
पुराणवेद
ऋषि व्यास ने इसका ज्ञान सुमन्तु को दिया

ब्राह्मण👉 गोपथ-ब्राह्मण

आरण्यक👉 कोई नहीं

उपनिषद्👉 मुण्डकोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद्

श्रौतसूत्र👉 वैतान

गृह्यसूत्र👉 कौशिक,

धर्मसूत्र👉 कोई नहीं ।

शुल्वसूत्र👉 कोई नहीं ।

अथर्वा ऋषि महान् वैज्ञानिक थे । उन्होंने इस धरा-धाम पर सर्वप्रथम अग्नि का आविष्कार किया था । उन्होंने अरणि-मन्थन से अग्नि का और जल-मन्थन से जलीय-विद्युत् का आविष्कार किया था---
(१.) "अग्निर्जातो अथर्वणा" (ऋग्वेदः---१०.२१.५)
(२.) "अथर्वा त्व प्रथमो निरमन्थदग्ने ।" (यजुर्वेद--११.३२)
(३.) अथर्वा ऋषि ने ही उत्खनन के द्वारा पुरीष्य अग्नि (प्राकृतिक गैस अर्थात् Oil and Natural Gas ) का आविष्कार किया था--"पुरीष्योSसि विश्वभरा अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने ।" (यजुर्वेद---११.३२)
(4.) आज हम जिस अग्नि के द्वारा यज्ञ करते है, उस अग्नि में सर्वप्रथम अथर्वा ने यज्ञ किया था---"यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ।" (ऋग्वेदः---१.८३.५) अथर्वा ऋषि अध्यात्मवाद के प्रथम प्रचारक थे ।
अथर्वा ऋषि का दृष्टिकोण व्यापक था । उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य किया था ।

अथर्ववेद के सूक्त
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(१.) पृथिवी-सूक्त , अन्य नाम---भूमि-सूक्त (१२.१) कुल ६३ मन्त्र ।
(२.) ब्रह्मचर्य-सूक्त---(११.५) कुल २६ मन्त्र ।
(३.) काल-सूक्त --दो सूक्त हैं---११.५३ और ११.५४, कुल मन्त्र १५
(४.) विवाह-सूक्त---पूरा १४ वाँ काण्ड ।  इसमें २ सूक्त और १३९ मन्त्र हैं ।
(५.) व्रात्य-सूक्त--- १५ काण्ड के १ से १८ तक के सूक्तों में २३० मन्त्र है, ये सभी व्रात्य सूक्त हैं ।
(६.) मधुविद्या-सूक्त---९ वें काण्ड के सूक्त १ के २४ मन्त्रों में यह सूक्त है ।
(७.) ब्रह्मविद्या-सूक्त---अथर्ववेद के अनेक सूक्तों में ब्रह्मविद्या का विस्तृत वर्णन है ।
वैदिक सभ्यता और संस्कृति के विस्तृत ज्ञान के लिए अथर्ववेद चारों वेदों में सबसे अधिक उपयोगी है ।
अथर्ववेद सामाजिक और राजनीतिक स्थिति का सबसे सुन्दर चित्रण करता है ।
     अथर्ववेद एक प्रकार का विश्वकोश है । यह सार्वजनीन वेद है । इसमें सभी वर्णों और सभी आश्रमों का विस्तृत वर्णन है । यही एक वेद है जो एक साथ लौकिक और पारलौकिक दोनों क्षेत्रों का वर्णन करता है ।
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शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

देवी-देवताओ की सवारी

भगवान शिव के वाहन नंदी, गणेश जी के वाहन मूषक, मां दुर्गा के वाहन शेर एवं भगवान सूर्य के वाहन सातघोड़े हैं। क्या आप जानते हैं कि सूर्य देव एक या दो नहीं, बल्कि पूरे सात घोड़ों की सवारो क्यों करते हैं।
दरअसल इसके पीछे धार्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक उद्देश्य भी छिपा है। कहते हैं इन सातो घोड़ों का एक खास उद्देश्य था, सभी के पास एक खास ऊर्जा थी।
वैज्ञानिक दृष्टि से इन सात घोड़ों को सूर्य की सात किरणों का नाम दिया जाता है।
इसी तरह से भगवान शिव एवं गणेश जी या अन्य किसी भी हिन्दू देवी-देवता को मिले वाहन के पीछे एक दिलचस्प कहानी है।
आज हम आपको एक ऐसी ही कहानी बताने जा रहे हैं जो देवी दुर्गा एवं उनके वाहन शेर से जुड़ी है।

शक्ति का रूप दुर्गा, जिन्हें सारा जगत मानता है... ना केवल कोई साधारण मनुष्य, वरन् सभी देव भी उनकी अनुकम्पा से प्रभावित रहते हैं। एक पौराणिक आख्यान के अनुसार मां दुर्गा को यूंही शेर की सवारी प्राप्त नहीं हुई थी, इसके पीछे एक रोचक कहानी बनी है।
आदि शक्ति, पार्वती, शक्ति... आदि नाम से प्रसिद्ध हैं मां दुर्गा। धार्मिक इतिहास के अनुसार भगवान शिव को पति के रूप में पानेके लिए देवी पार्वती ने हजारों वर्ष तक तपस्या की। कहते हैं उनकी तपस्या में इतना तेज़ था जिसके प्रभाव से देवी सांवली हो गई।
इस कठोर तपस्या के बाद शिव तथा पार्वती का विवाह भी हुआ एवं संतान के रूप में उन्हें कार्तिकेय एवं गणेश की प्राप्ति भी हुई। एक कथा के अनुसार भगवान शिव से विवाह के बाद एक दिन जब शिव, पार्वती साथ बैठे थे तब भगवान शिव ने पार्वती से मजाक करते हुए काली कह दिया।
देवी पार्वती को शिव की यह बात चुभ गई और कैलाश छोड़कर वापस तपस्या करने में लीन हो गईं। इस बीच एक भूखा शेर देवी को खाने की इच्छा से वहां पहुंचा। ले‌किन चमत्कार तो देखिए... देवी को तपस्या में लीन देखकर वह वहीं चुपचाप बैठ गया। ना जाने क्यों शेर देवी के तपस्या को भंग नहीं करना चाहता था। वह सोचने लगा कि देवी कब तपस्या से उठे और वह उन्हें अपना आहार बना ले। इस बीच कई साल बीत गए लेकिन शेर अपनी जगह बेठा रहा।
कई वर्ष बीत गए लेकिन माता पार्वती अभी भी तपस्या में मग्न ही थी, वे तप से उठने का फैसला किसी भी हाल में लेना नहीं चाहती थीं। लेकिन तभी शिव वहां प्रकट हुए और देवी को गोरे होने का वरदान देकर चले गए। थोड़ी देर बाद माता पार्वती भी तप से उठी और उन्हो ने गंगा स्नान किया। स्नान के तुरंत बाद ही अचानक उनके भीतर से एक और देवी प्रकट हुईं। उनका रंग बेहद काला था।
उस काली देवी के माता पार्वती के भीतर से निकलते ही देवी का खुद का रंग गोरा हो गया।
इसी कथा के अनुसार माता के भीतर से निकली देवी का नाम कौशिकी पड़ा और गोरी हो चुकी माता सम्पूर्ण जगत में ‘माता गौरी’ कहलाईं।
स्नान के बाद देवीने अपने निकट एक सिंह को पाया, जो वर्षों से उन्हें खाने की ललक में बैठा था।
लेकिन देवी की तरह ही वह वर्षों से एक तपस्या में था, जिसका वरदान माता ने उसे अपना वाहन बनाकर दिया।
देवी उस सिंह की तपस्या से अति प्रसन्न हुई थीं, इसलिए उन्होंने अपनी शक्ति से उस सिंह पर नियंत्रण पाकर उसे अपना वाहन बना लिया

श्री खाटू श्याम जी कथा

महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच के विषय में हम सब जानते हैं । वीर घटोत्कच का विवाह दैत्यराज मुर की पुत्री मौरवी से हुआ । मौरवी को कामकंटका व आहिल्यावती के नामों से भी जाना जाता है । वीर घटोत्कच तथा महारानी मौरवी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । बालक के बाल बब्बर शेर की तरह होने के कारण इनका नाम बर्बरीक रखा गया । इन्हीं वीर बर्बरीक को आज दुनिया ' खाटू श्याम ' के नाम से जानती है ।

वीर बर्बरीक को बचपन में भगवान श्री कृष्ण द्वारा परोपकार करने एवं निर्बल का साथ देने की शिक्षा दी गयी । इन्होनें अपने पराक्रम से ऐसे अनेक असुरों का वध किया जो निर्बल ऋषि - मुनियों को हवन - यज्ञ आदि धार्मिक कार्य करने से रोकते थे । विजय नामक ब्राह्मण का शिष्य बनकर उनके यज्ञ को राक्षसों से बचाकर, उनका यज्ञ सम्पूर्ण करवाने पर भगवान शिव ने सम्मुख प्रकट होकर इन्हें तीन बाण प्रदान किये, जिनसे समस्त लोगों में विजय प्राप्त की जा सकती है।

जब महाभारत के युद्ध की घोषणा हुई तो वीर बर्बरीक ने भी अपनी माता के सम्मुख युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की। माता ने इन्हें युद्ध में भाग लेने की आज्ञा इस वचन के साथ दी कि तुम युद्ध में हारने वाले पक्ष का साथ निभाओगे।

जब भगवान श्री कृष्ण जी को वीर बर्बरीक की इस शपथ का पता चला तो उन्होंने वीर बर्बरीक की परीक्षा लेने की सोची । जब वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेने चले तब भगवान श्री कृष्ण जी ने राह में इनसे भेंट की तथा वीर बर्बरीक से उनके तीन बाणों की विशेषता के बारे में पूछा । वीर बर्बरीक ने बताया कि पहला बाण समस्त शत्रुसेना को चिन्हित करता है, दूसरा तीर शत्रुसेना को नष्ट कर देता है तथा तीसरे बाण की आवश्कता आज तक नहीं हुई । भगवान श्री कृष्ण ने एक पेड़ की तरफ इशारा करते हुए कहा कि तुम इस स्थान को युद्धभूमि मानो तथा इस पेड़ के पत्तों को शत्रुसेना समझ कर अपनी युद्धकला को दिखाओ ।

इस बीच श्री कृष्ण जी ने वीर बर्बरीक की नजर बचाकर एक पत्ता पेड़ से तोड़कर अपने पैर के नीचे दबा लिया । वीर बर्बरीक द्वारा युद्धकला दिखाने के बाद श्री कृष्ण जी ने पूछा कि क्या तुम्हारे बाण ने सभी पत्तों को भेद दिया है ? वीर बर्बरीक के हाँ कहने पर श्री कृष्ण ने अपने पैर के नीचे दबे पत्ते को निकाला, उनकी हैरानी का कोई ठिकाना नहीं रहा जब उन्हें वह पत्ता भी बिंधा हुआ मिला ।

भगवान श्री कृष्ण जी को विश्वास हो गया कि वीर बर्बरीक के रहते युद्ध में पाण्डवों की विजय संभव नहीं थी । इसलिये वीर बर्बरीक से अपना शीश दान स्वरूप देने को कहा । वीर बर्बरीक अपना शीश सहर्ष देने को तैयार हो गये । वीर बर्बरीक ने भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख महाभारत का युद्ध देखने की इच्छा प्रकट की । इस पर भगवान श्री कृष्ण ने प्रसन्न होकर दो वरदान दिये, पहला उनका शीश शरीर से अलग होकर भी हमेशा जीवित रहेगा व महाभारत युद्ध का साक्षी बनेगा और दूसरा यह कि कलियुग में तुम्हें (वीर बर्बरीक को) मेरे प्रिय नाम श्री श्याम के नाम से पूजा जायेगा । भगवान श्री कृष्ण जी ने वीर बर्बरीक के शीश को एक ऊँचे स्थान पर लाकर रख दिया । जहाँ से पूरी युद्ध भूमि दिखाई देती थी ।

महाभारत युद्ध की समाप्ति पर युधिष्ठर ने ब्रह्मसरोवर पर विजय स्तंभ की स्थापना की । पाण्डवों में इस बात पर बहस होने लगी कि महाभारत का युद्ध किस के कारण जीता गया ? जब पाण्डव आपस में बहस करने लगे तो उन्होंने श्री कृष्ण जी से इस संबंध में फैसला करवाने का निर्णय किया, भगवान श्री कृष्ण जी ने पाण्डवों से कहा कि इस बात का फैसला वीर बर्बरीक कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने पूरा युद्ध एक साक्षी के रूप में देखा है ।

इस बात का फैसला करवाने हेतु श्री कृष्ण जी की आज्ञा पाकर पाण्डवों ने वीर बर्बरीक के शीश को लाकर विजय सतंभ (द्रोपदी कूप ब्रह्मसरोवर, कुरुक्षेत्र) पर स्थापित किया । पाण्डवों की बात सुनकर वीर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मुझे तो पूरी युद्ध भूमि में श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र तथा द्रोपदी का खप्पर दिकाई दिया अर्थात सभी वीर श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र से मारे गये तथा द्रोपदी (काली रूप में) ने खप्पर भर कर उन वीरों का रक्त पिया ।

महाभारत की समाप्ति पर यह शीश धरती में समा गया । भगवान श्री कृष्ण के वरदान अनुसार कलियुग में राजस्थान के खाटू नामक स्थान पर राजा को सपने में श्री कृष्ण जी ने दर्शन दिये तथा पावन शीश को निकाल कर उसे खाटू में प्रतिष्ठित करने की आज्ञा दी । आज वीर बर्बरीक के उसी पावन शीश की श्री खाटू श्याम के नाम से पूजा होती है ।

वह स्थान जहाँ श्री कृष्ण जी ने वीर बर्बरीक की परीक्षा ली थी, वर्तमान में हिसार के तलवंडी राणा के समीप बीड़ बर्बरान के नाम से प्रसिद्ध है । उस पेड़ जिसके पत्ते वीर बर्बरीक ने भेदे थे, आज भी बिंधे हुए होते हैं । वह स्थान जहाँ वीर बर्बरीक का शीश श्री कृष्ण द्वारा ऊँचे स्थान पर रखा गया था, वर्तमान में कैथल जिले के गाँव सिसला सिसमौर में है तथा वीर बर्बरीक की पूजा सिसला गॉंव में नगरखेड़ा बबरूभान के नाम से होती है, यह स्थान आज भी आस - पास के स्थान में बहुत ऊँचाई पर है ।

यह विजय स्तंभ जहाँ पाण्डवों द्वारा वीर बर्बरीक के शीश की स्थापना की गई थी वर्तमान में द्रोपदी कूप, कुरुक्षेत्र ब्रह्मसरोवर पर स्थित है । उस युग के वीर बर्बरीक आज कलियुग के श्याम है । इनके बारे में प्रसिद्ध है कि आज भी वे माता को दिये वचन के अनुसार इस संसार में हारने वाले इंसान का साथ देते हैं । इनका दरबार आज भी हारे का सहारा है ।

।।हारे का सहारा बाबा श्याम हमारा।।

‘श्रीसुदर्शन-चक्र’

भगवान् विष्णु का प्रमुख आयुध है, जिसके माहात्म्य की कथाएँ पुराणों में स्थान-स्थान पर दिखाई देती है।

‘मत्स्य-पुराण’ के अनुसार एक दिन दिवाकर भगवान् ने विश्वकर्मा जी से निवेदन किया कि‘कृपया मेरे प्रखर तेज को कुछ कम कर दें,क्योंकि अत्यधिक उग्र तेज के कारण प्रायः सभी प्राणी सन्तप्त हो जाते हैं।’ विश्वकर्मा जी ने सूर्य को ‘चक्र-भूमि’ पर चढ़ा कर उनका तेज कम कर दिया। उस समय सूर्य से निकले हुए तेज-पुञ्जों को ब्रह्माजी ने एकत्रित कर भगवान् विष्णु के‘सुदर्शन-चक्र’ के रुप में, भगवान् शिव के ‘त्रिशूल′-रुप में तथा इन्द्र के ‘वज्र’ के रुप में परिणत कर दिया।

‘पद्म-पुराण’ के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के तेज से युक्त ‘सुदर्शन-चक्र’ को भगवान् शिव ने श्रीकृष्ण को दिया था। ‘वामन-पुराण’ के अनुसार भी इस कथा की पुष्टि होती है। ‘शिव-पुराण’ के अनुसार ‘खाण्डव-वन’ को जलाने के लिए भगवान् शंकर ने श्रीकृष्ण को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। इसके सम्मुख इन्द्र की शक्ति भी व्यर्थ थी।

‘वामन-पुराण’ के अनुसार दामासुर नामक भयंकर असुर को मारने के लिए भगवान् शंकर ने विष्णु को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। बताया है कि एक बार भगवान् विष्णु ने देवताओं से कहा था कि ‘आप लोगों के पास जो अस्त्र हैं, उनसे असुरों का वध नहीं किया जा सकता। आप सब अपना-अपना तेज दें।’ इस पर सभी देवताओं ने अपना-अपना तेज दिया। सब तेज एकत्र होने पर भगवान् विष्णु ने भी अपना तेज दिया। फिर महादेव शंकर ने इस एकत्रित तेज के द्वारा अत्युत्तम शस्त्र बनाया और उसका नाम ‘सुदर्शन-चक्र’ रखा। भगवान् शिव ने‘सुदर्शन-चक्र’ को दुष्टों का संहार करने तथा साधुओं की रक्षा करने के लिए विष्णु को प्रदान किया।

‘हरि-भक्ति-विलास’ में लिखा है कि ‘सुदर्शन-चक्र’ बहुत पुज्य है। वैष्णव लोग इसे चिह्न के रुप में धारण करें। ‘गरुड़-पुराण’ में ‘सुदर्शन-चक्र’का महत्त्व बताया गया है और इसकी पूजा-विधि दी गई है। ‘श्रीमद्-भागवत’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ की स्तुति इस प्रकार की गई है- ‘हे सुदर्शन! आपका आकार चक्र की तरह है। आपके किनारे का भाग प्रलय-कालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् विष्णु की प्रेरणा से सभी ओर घूमते हैं। जिस प्रकार अग्नि वायु की सहायता से शुष्क तृण को जला डालती है, उसी प्रकार आप हमारी शत्रु-सेना को तत्काल जला दीजिए।’
‘विष्णु-धर्मोत्तर-पुराण’ में ‘सुदर्शन-चक्र’ का वर्णन एक पुरुष के रुप में हुआ है। इसकी दो आँखें तथा बड़ा-सा पेट है। चक्र का यह रुप अनेक अलंकारों से सुसज्जित तथा चामर से युक्त है।
वल्लभाचार्य कृत

‘सुदर्शन-कवच’
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वैष्णवानां हि रक्षार्थं, श्रीवल्लभः-निरुपितः। सुदर्शन महामन्त्रो, वैष्णवानां हितावहः।।
मन्त्रा मध्ये निरुप्यन्ते, चक्राकारं च लिख्यते। उत्तरा-गर्भ-रक्षां च, परीक्षित-हिते-रतः।।
ब्रह्मास्त्र-वारणं चैव, भक्तानां भय-भञ्जनः। वधं च सुष्ट-दैत्यानां, खण्डं-खण्डं च कारयेत्।।
वैष्णवानां हितार्थाय, चक्रं धारयते हरिः। पीताम्बरो पर-ब्रह्म, वन-माली गदाधरः।।
कोटि-कन्दर्प-लावण्यो, गोपिका-प्राण-वल्लभः। श्री-वल्लभः कृपानाथो, गिरिधरः शत्रुमर्दनः।।
दावाग्नि-दर्प-हर्ता च, गोपीनां भय-नाशनः। गोपालो गोप-कन्याभिः, समावृत्तोऽधि-तिष्ठते।।
वज्र-मण्डल-प्रकाशी च, कालिन्दी-विरहानलः। स्वरुपानन्द-दानार्थं, तापनोत्तर-भावनः।।
निकुञ्ज-विहार-भावाग्ने, देहि मे निज दर्शनम्। गो-गोपिका-श्रुताकीर्णो, वेणु-वादन-तत्परः।।
काम-रुपी कला-वांश्च, कामिन्यां कामदो विभुः। मन्मथो मथुरा-नाथो, माधवो मकर-ध्वजः।।
श्रीधरः श्रीकरश्चैव, श्री-निवासः सतां गतिः। मुक्तिदो भुक्तिदो विष्णुः, भू-धरो भुत-भावनः।।
सर्व-दुःख-हरो वीरो, दुष्ट-दानव-नाशकः। श्रीनृसिंहो महाविष्णुः, श्री-निवासः सतां गतिः।।
चिदानन्द-मयो नित्यः, पूर्ण-ब्रह्म सनातनः। कोटि-भानु-प्रकाशी च, कोटि-लीला-प्रकाशवान्।।
भक्त-प्रियः पद्म-नेत्रो, भक्तानां वाञ्छित-प्रदः। हृदि कृष्णो मुखे कृष्णो, नेत्रे कृष्णश्च कर्णयोः।।
भक्ति-प्रियश्च श्रीकृष्णः, सर्वं कृष्ण-मयं जगत्। कालं मृत्युं यमं दूतं, भूतं प्रेतं च प्रपूयते।।
“ॐ नमो भगवते महा-प्रतापाय महा-विभूति-पतये, वज्र-देह वज्र-काम वज्र-तुण्ड वज्र-नख वज्र-मुख वज्र-बाहु वज्र-नेत्र वज्र-दन्त वज्र-कर-कमठ भूमात्म-कराय, श्रीमकर-पिंगलाक्ष उग्र-प्रलय कालाग्नि-रौद्र-वीर-भद्रावतार पूर्ण-ब्रह्म परमात्मने, ऋषि-मुनि-वन्द्य-शिवास्त्र-ब्रह्मास्त्र-वैष्णवास्त्र-नारायणास्त्र-काल-शक्ति-दण्ड-कालपाश-अघोरास्त्र-निवारणाय, पाशुपातास्त्र-मृडास्त्र-सर्वशक्ति-परास्त-कराय, पर-विद्या-निवारण अग्नि-दीप्ताय, अथर्व-वेद-ऋग्वेद-साम-वेद-यजुर्वेद-सिद्धि-कराय, निराहाराय, वायु-वेग मनोवेग श्रीबाल-कृष्णः प्रतिषठानन्द-करः स्थल-जलाग्नि-गमे मतोद्-भेदि, सर्व-शत्रु छेदि-छेदि,मम बैरीन् खादयोत्खादय, सञ्जीवन-पर्वतोच्चाटय, डाकिनी-शाकिनी-विध्वंस-कराय महा-प्रतापाय निज-लीला-प्रदर्शकाय निष्कलंकृत-नन्द-कुमार-बटुक-ब्रह्मचारी-निकुञ्जस्थ-भक्त-स्नेह-कराय दुष्ट-जन-स्तम्भनाय सर्व-पाप-ग्रह-कुमार्ग-ग्रहान् छेदय छेदय, भिन्दि-भिन्दि, खादय, कण्टकान् ताडय ताडय मारय मारय, शोषय शोषय, ज्वालय-ज्वालय, संहारय-संहारय, (देवदत्तं) नाशय नाशय, अति-शोषय शोषय, मम सर्वत्र रक्ष रक्ष,महा-पुरुषाय सर्व-दुःख-विनाशनाय ग्रह-मण्डल-भूत-मण्डल-प्रेत-मण्डल-पिशाच-मण्डल उच्चाटन उच्चाटनाय अन्तर-भवादिक-ज्वर-माहेश्वर-ज्वर-वैष्णव-ज्वर-ब्रह्म-ज्वर-विषम-ज्वर-शीत-ज्वर-वात-ज्वर-कफ-ज्वर-एकाहिक-द्वाहिक-त्र्याहिक-चातुर्थिक-अर्द्ध-मासिक मासिक षाण्मासिक सम्वत्सरादि-कर भ्रमि-भ्रमि,छेदय छेदय, भिन्दि भिन्दि, महाबल-पराक्रमाय महा-विपत्ति-निवारणाय भक्र-जन-कल्पना-कल्प-द्रुमाय-दुष्ट-जन-मनोरथ-स्तम्भनाय क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपी-जन-वल्लभाय नमः।।
पिशाचान् राक्षसान् चैव, हृदि-रोगांश्च दारुणान् भूचरान् खेचरान् सर्वे, डाकिनी शाकिनी तथा।।
नाटकं चेटकं चैव, छल-छिद्रं न दृश्यते। अकाले मरणं तस्य, शोक-दोषो न लभ्यते।।
सर्व-विघ्न-क्षयं यान्ति, रक्ष मे गोपिका-प्रियः। भयं दावाग्नि-चौराणां, विग्रहे राज-संकटे।।
।।फल-श्रुति।।
व्याल-व्याघ्र-महाशत्रु-वैरि-बन्धो न लभ्यते। आधि-व्याधि-हरश्चैव, ग्रह-पीडा-विनाशने।।
संग्राम-जयदस्तस्माद्, ध्याये देवं सुदर्शनम्। सप्तादश इमे श्लोका, यन्त्र-मध्ये च लिख्यते।।
वैष्णवानां इदं यन्त्रं, अन्येभ्श्च न दीयते। वंश-वृद्धिर्भवेत् तस्य, श्रोता च फलमाप्नुयात्।।
सुदर्शन-महा-मन्त्रो, लभते जय-मंगलम्।।
सर्व-दुःख-हरश्चेदं, अंग-शूल-अक्ष-शूल-उदर-शूल-गुद-शूल-कुक्षि-शूल-जानु-शूल-जंघ-शूल-हस्त-शूल-पाद-शूल-वायु-शूल-स्तन-शूल-सर्व-शूलान् निर्मूलय, दानव-दैत्य-कामिनि वेताल-ब्रह्म-राक्षस-कालाहल-अनन्त-वासुकी-तक्षक-कर्कोट-तक्षक-कालीय-स्थल-रोग-जल-रोग-नाग-पाश-काल-पाश-विषं निर्विषं कृष्ण! त्वामहं शरणागतः। वैष्णवार्थं कृतं यत्र श्रीवल्लभ-निरुपितम्।। ॐ

इसका नित्य प्रातः और रात्री में सोते समय पांच - पांच बार पाठ करने मात्र से ही समस्त शत्रुओं का नाश होता है और शत्रु अपनी शत्रुता छोड़ कर मित्रता का व्यवहार करने लगते है.

घमंड

महाभारत के युद्ध में अर्जुन और कर्ण के बीच घमासान चल रहा था । अर्जुन का तीर लगने पे कर्ण का रथ 25-30 हाथ पीछे खिसक जाता , और कर्ण के तीर से अर्जुन का रथ सिर्फ 2-3 हाथ ।
लेकिन श्री कृष्ण थे की कर्ण के वार की तारीफ़ किये जाते, अर्जुन की तारीफ़ में कुछ ना कहते ।
अर्जुन बड़ा व्यथित हुआ, पूछा , हे पार्थ आप मेरी शक्तिशाली प्रहारों की बजाय उसके कमजोर प्रहारों की तारीफ़ कर रहे हैं, ऐसा क्या कौशल है उसमे ।
श्री कृष्ण मुस्कुराये और बोले, तुम्हारे रथ की रक्षा के लिए ध्वज पे हनुमान जी, पहियों पे शेषनाग और सारथि रूप में खुद नारायण हैं । उसके बावजूद उसके प्रहार से अगर ये रथ एक हाथ भी खिसकता है तो उसके पराक्रम की तारीफ़ तो बनती है ।
कहते हैं युद्ध समाप्त होने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन को पहले उतरने को कहा और बाद में स्वयं उतरे। जैसे ही श्री कृष्ण रथ से उतरे , रथ स्वतः ही भस्म हो गया । वो तो कर्ण के प्रहार से कबका भस्म हो चूका था, पर नारायण बिराजे थे इसलिए चलता रहा । ये देख अर्जुन का सारा घमंड चूर चूर हो गया ।
कभी जीवन में सफलता मिले तो घमंड मत करना, कर्म तुम्हारे हैं पर आशीष ऊपर वाले का है । और किसी को परिस्थितिवष कमजोर मत आंकना, हो सकता है उसके बुरे समय में भी वो जो कर रहा हो वो आपकी क्षमता के भी बाहर हो । 

"क्यों किया था श्रीकृष्ण ने एकलव्य का वध"

 निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा के स्नेहांचल से जनता सुखी व सम्पन्न थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। निषादराज हिरण्यधनु को रानी सुलेखा द्वारा एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम “अभिद्युम्न” रखा गया। प्राय: लोग उसे “अभय” नाम से बुलाते थे। पाँच वर्ष की आयु मेँ एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरूकुल मेँ की गई। बालपन से ही अस्त्र शस्त्र विद्या मेँ बालक की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक का नाम “एकलव्य” संबोधित किया। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया। एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। उस समय धनुर्विद्या मेँ गुरू द्रोण की ख्याति थी। पर वे केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते थे और शूद्रोँ को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। महाराज हिरण्यधनु ने एकलव्य को काफी समझाया कि द्रोण तुम्हे शिक्षा नहीँ देँगे। पर एकलव्य ने पिता को मनाया कि उनकी शस्त्र विद्या से प्रभावित होकर आचार्य द्रोण स्वयं उसे अपना शिष्य बना लेँगे। पर एकलव्य का सोचना सही न था – द्रोण ने दुत्तकार कर उसे आश्रम से भगा दिया।
एकलव्य हार मानने वालोँ मेँ से न था और बिना शस्त्र शिक्षा प्राप्त तिए वह घर वापस लौटना नहीँ चाहता था। इसलिए एकलव्य ने वन मेँ आचार्य द्रोण की एक प्रतिमा बनायी और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। शीघ्र ही उसने धनुर्विद्या मेँ निपुणता प्राप्त कर ली। एक बार द्रोणाचार्य अपने शिष्योँ और एक कुत्ते के साथ उसी वन मेँ आए। उस समय एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। कुत्ता एकलव्य को देख भौकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ता द्रोण के पास भागा। द्रोण और शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य मेँ पड़ गए। वे उस महान धुनर्धर की खोज मेँ लग गए अचानक उन्हे एकलव्य दिखाई दिया जिस धनुर्विद्या को वे केवल क्षत्रिय और ब्राह्मणोँ तक सीमित रखना चाहते थे उसे शूद्रोँ के हाथोँ मेँ जाता देख उन्हेँ चिँता होने लगी। तभी उन्हे अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के वचन की याद आयी। द्रोण ने एकलव्य से पूछा- तुमने यह धनुर्विद्या किससे सीखी ? एकलव्य ने कहा - आपसे आचार्य एकलव्य ने द्रोण की मिट्टी की बनी प्रतिमा की ओर इशारा किया। द्रोण ने एकलव्य से गुरू दक्षिणा मेँ एकलव्य के दाएँ हाथ का अगूंठा मांगा एकलव्य ने अपना अगूंठा काट कर गुरु द्रोण को अर्पित कर दिया।
कुमार एकलव्य अंगुष्ठ बलिदान के बाद पिता हिरण्यधनु के पास चला आता है। एकलव्य अपने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या मेँ पुन: दक्षता प्राप्त कर लेता है। आज के युग मेँ आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओँ मेँ अंगूठे का प्रयोग नहीँ होता है, अत: एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगा। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता है l अमात्य परिषद की मंत्रणा से वह न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित करता है और अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार करता है।

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*1-कड़वी दवाई खाने से पहले मुंह में बर्फ का टुकड़ा रख लें, दवाई कड़वी ही नहीं लगेगी।*

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*3- यदि आपके पास मेकअप का भी समय नहीं है या आपकी त्वचा ढीली पड़ती जा रही है तो एक बर्फ का छोटा-सा टुकड़ा लेकर उसे किसी कपड़े में (हो सके तो मखमल का) लपेट चेहरे पर लगाइए। इससे आपके चेहरे की त्वचा टाइट होगी और यह टुकड़ा आपकी त्वचा में ऐसा निखार ला देगा जो और कहीं नहीं मिलेगा।*

*4- प्लास्टिक में बर्फ का टुकड़ा लपेटकर सिर पर रखने से सिरदर्द में राहत मिलती है।*

*5- यदि आपको शरीर में कहीं पर भी चोट लग गई है और खून निकल रहा है तो उस जगह बर्फ मसलने से खून बहना बंद हो जाता है।*

*6- कांटा चुभने पर बर्फ लगाकर उस हिस्से को सुन्न कर ले, कांटा या फांस आसानी से निकल जाएगा और दर्द भी नहीं होगा।*

*7- अंदरुनी यानी गुम चोट लगने पर बर्फ लगाने से खून नहीं जमता व दर्द भी कम होता है।*

*8- नाक से खून आने पर बर्फ को कपड़े में लेकर नाक के ऊपर चारों और रखें, थोड़ी देर में खून निकलना बंद हो जाएगा।*

*9- धीरे-धीरे बर्फ का टुकड़ा चूसने से उल्टी बंद हो जाती है।*

*10- पैरों की एड़ियों में बहुत ज्यादा तीखा दर्द हो तो बर्फ की क्यूब मलने से आराम मिलेगा।*

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होली मनाने की विधि

होलिका दहन ( होली जलाना )  फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन किया जाता है। होलिका नामक राक्षसी ने भक्त प्रह्लाद को गोद में लेकर जलाने की कोशिश की थी, किन्तु वह खुद जल गई और प्रह्लाद विष्णु भगवान के भक्त होने के कारण सकुशल बच गए। इसी के प्रतीक के रूप में होली मनाई जाती है तथा होलिका दहन किया जाता है।
होली का त्यौहार दो दिन का होता है। पहले दिन शाम के समय होलिका दहन किया जाता है यानि होली जलाई जाती है । दूसरे दिन सभी लोग एक दूसरे को रंग लगाकर आनंद पूर्वक यह त्यौहार मनाते है। रंग लगाने वाले दिन को धुलंडी – कहा जाता है। इसे धुलेटी और रंगवाली होली के नाम से भी जाना जाता है।
कहते है श्रीकृष्ण भगवान ने जब पूतना नामक राक्षसी का वध किया तो गाँव वालों ने ख़ुशी से रंग , राख और धुल उड़ाये थे। तभी से धुलंडी मनाने की प्रथा शुरू हुई। मथुरा वृद्धावन की होली बहुत प्रसिद्ध है। दूर दूर से लोग इसे देखने आते है। बृज में बरसाने की लट्ठमार होली बहुत रोमांचक होती है। इसमें महिलाएँ लकड़ी से पुरुष को मारती है। पुरुष ढाल से अपना बचाव करते है। पूरा देश होली के रंग में रंग जाता है। रंग के लिए गुलाल , पिचकारी , पानी के गुब्बारे आदि का उपयोग किया जाता है। लोग नाचते है , गाते है। कुछ लोग दूध बादाम आदि से बनी ठंडाई और भांग पीकर मस्ती करते है। इस दिन छोटे-बड़े , अमीर-गरीब का भेदभाव मिटाकर लोग खुशियां मनाते है। एक ही वाक्य सभी की जबान पर होता है –” बुरा न मानो , होली है ”
इस साल धुलंडी 2018   –  ” 2  मार्च  , शुक्रवार ” को है। देश विदेश में यह त्यौहार बहुत लोकप्रिय है। जिस प्रकार कई तरह के रंग आपस में मिल कर एक रंग में रंग जाते है उसी प्रकार मनुष्य  को भी आपस में मिल कर आपसी भेदभाव को भुला कर एक रंग में रंग जाना चाहिए। यही होली के त्यौहार का सन्देश होता है।
होली दहन ( होली जलाने का दिन ) की तारीख़  2018 1 मार्च ,  गुरुवार होलिका दहन शुभमुहूर्त से ही किया जाना श्रेष्ठ होता है। होली का पूजन करने से हर प्रकार के डर पर विजय प्राप्त होती है।
इस पूजन से सुख शांति और समृद्धि प्राप्त होती है। बहने भाई को बुरी शक्तियों से बचाने तथा मंगल कामना में यह पूजा करती हैं। महिलाएँ व्रत रखती है जिसे होली जलने के बाद खोला जाता है।
कहते है कि होलिका नामक राक्षसी को हर प्रकार के डर को मिटाने के उद्देश्य से ही पैदा किया गया था । इसलिए प्रह्लाद के साथ होलिका
दहन से पहले होलिका की भी पूजा की जाती है।
होलाष्टक -
अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌
वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रम्हणा शंकरेण च ।
अतस्त्वं पाहि माँ देवी! भूति भूतिप्रदा भव ॥
होली से आठ दिन पहले यानि फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से होलाष्टक प्रारम्भ हो जाते हैं। इन दिनों में मे कोई भी शुभ कार्य तथा
मांगलिक कार्य नहीं किये जाते। जैसे ब्याहशादी , गृहप्रवेश , दुकान का उद्घाटन आदि नहीं किया जाता है। कोई नई वस्तु भी नहीं खरीदी
जाती। यह  प्रचलन बहुत समय से चला आ रहा है हालाँकि शास्त्रों के अनुसार इस समय में शुभ कार्य वर्जित नहीं हैं।
 होलाष्टक 2018 की तारीख :
—  23 फरवरी से 1 मार्च
 होली का पूजन –होली पूजने की सामग्री –गोबर से बने बड़कूले , रोली , मौली , अक्षत , अगरबत्ती , फूलमाला ,  कच्चा सूत , गुड़ , साबुत हल्दी , मूंग-चावल  ,  फूले , बताशे , गुलाल ,
नारियल , जल का लोटा , गेहूं की नई हरी बालियां , हरे चने का पौधा आदि।
बड़कूले ( भरभोलिए ) कितने होने चाहिए
होली से दस बारह दिन पहले शुभ दिन देखकर गोबर से सात बड़कूले बनाये जाते है। गोबर से बने बड़कूले  को भरभोलिए भी कहा जाता है। पाँच बड़कूले छेद वाले बनाये जाते है ताकि उनको माला बनाने के लिए पिरोया जा सके।दो बड़कूले बिना छेद वाले बनाये जाते है । इसके बाद गोबर से ही सूरज , चाँद , तारे , और अन्य खिलौने बनाये जाते है। पान , पाटा , चकला ,एक जीभ , होला – होली बनाये जाते है। इन पर आटे , हल्दी , मेहंदी , गुलाल आदि से बिंदियां लगाकर सजाया जाता है। होलिका की आँखें चिरमी या कोड़ी से बनाई जाती है। अंत में ढाल और तलवार बनाये जाते है। बड़कूले से माला बनाई जाती है। माला में होलिका , खिलोंने , तलवार , ढाल आदि भी पिरोये जाते है। एक माला पितरों की , एक हनुमान जी की , एक शीतला  माता की और एक घर के लिए बनाई जाती है। बाजार से तैयार माला भी खरीद सकते है। यह पूजा में काम आती है।
पूजन करने का तरीका
पूजन करते समय आपका मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ होना चाहिए।जल की बूंदों का छिड़काव आसपास तथा पूजा की थाली और खुद पर करें। इसके पश्चात नरसिंह भगवान का स्मरण करते हुए उन्हें रोली , मौली , अक्षत , पुष्प अर्पित करें।
इसी प्रकार भक्त प्रह्लाद को स्मरण करते हुए उन्हें रोली , मौली , अक्षत , पुष्प  अर्पित करें। इसके पश्चात् होलिका को रोली , मौली , चावल अर्पित करें , पुष्प अर्पित करें  , चावल मूंग का भोग लगाएं।  बताशा , फूले आदि चढ़ाएं। हल्दी , मेहंदी , गुलाल , नारियल और बड़कूले चढ़ाएं। हाथ जोड़कर होलिका से सुख समृद्धि की कामना करें। सूत के धागे से होलिका के चारों ओर घूमते हुए तीन , पाँच या सात बार लपेट दें । जल का लोटा वहीं पूरा खाली कर दें। इसके बाद होलीका दहन किया जाता है। पुरुषों के माथे पर तिलक लगाया जाता है। होली जलने पर रोली चावल चढ़ाकर सात बार अर्घ्य देकर सात परिक्रमा करनी चाहिए ।  इसके बाद साथ लाये गए हरे गेहूं और चने होली की अग्नि में भून लें। होली की अग्नि थोड़ी सी अपने साथ घर ले आएं। ये दोनों काम बड़ी सावधानी पूर्वक करने चाहिए। होली की अग्नि से अपने घर में धूप दिखाएँ। भूने हुए गेहूं और चने प्रसाद के रूप में ग्रहण करें। अगले दिन सुबह होली की राख शरीर पर लगाई जाती है। यह राख पवित्र मानी जाती है। इसे लगाने से शरीर और आत्मा की शुद्धि होती है।
ढूंढ पूजना – बच्चे के जन्म के साल ढूंढ पूजी जाती है। यह फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी यानि ग्यारस के दिन पूजी जाती है। यह होली से चार दिन पहले
आता है। कुछ लोग होली वाले दिन ढूंढ पूजते है। बच्चे को गोद में लेकर होली की परिक्रमा लगाई जाती है ताकि वह बुरी नजर आदि से बचा
रहे। ढूंढ का सामान पीहर से या बुआ के घर से आता है। बच्चे की माँ को पीले का बेस , बताशे , फल , मिठाई , फूले , रूपये आदि दिए जाते
है तथा बच्चे को सफ़ेद रंग के कपड़े दिए जाते है। परिवार के सभी सदस्य इकठ्ठा होते है। ढूंढ पूजन के समय माँ पीले का बेस पहन कर बच्चे
को गोद में लेकर बैठती है। नई माँ द्वारा थाली में बताशे , फल , रूपये आदि रखकर रोली चावल लगाकर सासु माँ को दिए जाते है और उनका
आशीर्वाद लिया जाता है। नई माँ और बच्चे को परिवार के सदस्य उपहार आदि देकर सुखद भविष्य की कामना करते है।

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

श्रील जगन्नाथ दास बाबा जी

हरिभजन सों आयु बढ़े, जगन्नाथ ये बात दरसि।।
वृन्दावन छै मास ,छै नवदीप जु वासै ।
सिद्ध भये सब शिष्य , बिहारी दास जु खासै।।
बाबा डलिया राखि , सदा यात्रा करवावै।
इक शत पैंतालीस , वपु धरि कृपा बरसावै।।
कीर्तन सुनि उद्दाम नृत्य ,कियो न कबहुँ धन परसि।।
हरिभजन सों आयु बढे ,जगन्नाथ ये बात दरसि।।

भावार्थ : भगवान के भजन के द्वारा निश्चित ही आयु वृद्धि होती है।  इस बात को बाबा जगन्नाथ दास जी ने प्रमाणित करके दिखाया। छः महीने नवदीप एवं छः महीने वृंदावन में वास करते। बाबा जगन्नाथ दास जी महाराज के सभी शिष्य सिद्ध हुए।बाबा के एक शिष्य श्री बिहारी दास जी बृजवासी यह बाबा को डलिया में रखकर यत्र तत्र यात्रा करवाते। बाबा एक सौ सैंतालीस वर्ष तक आयु प्राप्त करके जीवो का कल्याण करते रहे। हरिनामसंकीर्तन की ध्वनि सुनते ही उद्धम नृत्य करने लगते। कभी भी धन का स्पर्श नहीं किया।

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चरित्र - बाबा जगन्नाथ दास जी महाराज का जन्म बंगाल प्रांत के किसी छोटे से ग्राम में हुआ।  बचपन से हरि नाम के प्रति सहज अनुराग रहा।  वृंदावन के शृंगार वट पावन स्थल के गोस्वामी ब्रह्मानंद जी के पिता श्री जगदानंद गोस्वामी जी को गुरु रुप में वरण किया एवं भजन मे रत हो गए।  समय आने पर मानसी गंगा गोवर्धन के प्रथम कृष्ण दास जी सिद्ध बाबा के द्वारा वेष ग्रहण किया।

बाबा छः महीने नवदीप में वास करते हुए भजन करते एवं छः महीने ब्रज वृंदावन के अनेक क्षेत्रों में घूमकर भजन करते। बाबा धन को स्पर्श कभी नहीं करते। बाबा अपने गुरुदेव के सुपुत्र श्री ब्रह्मानंद गोस्वामी जी से बहुत स्नेह करते । वृंदावन से नवदीप जाते समय उनके स्थान पर कुछ दिन रुक कर उनका संग किया करते। एक दिन साथ में बैठकर प्रसाद पा रहे थे। गोस्वामिनी माता जी परोस रही थी।  बाबा बार-बार मना करते लेकिन माताजी परोसती ही जा रही थी। बाबा समझ गए कि यह सीथ प्रसादी चाहती है। बाबा ने अब की बार जल्दी से प्रसाद पाकर केले के पत्ते को भी पा गये। जिस पर प्रसाद पा रहे थे इतनी शीघ्रता से यह कार्य किया की माता जी एवं सभी भक्तों देखते रह गए।

 बाबा चातुर्मास का नियम करते। प्रथम मास में संध्या के पश्चात चार केले खाते, द्वितीय मास में अमरूद, तृतीय मास में मट्ठा और चतुर्थ मास में बिना नमक के उबले हुए केले के फूल ग्रहण करते।  एक बार बाबा मंत्र पुरशचरण के लिए ऋषिकेश गए। उस समय प्रातः 3:00 बजे उठकर स्नान करते और दरवाजा बंद करके मौन धारण कर संध्या पर्यंत जप करते। संध्या के पश्चात हविष्यान्न ग्रहण करते। अधोवायु त्याग या लघुशंका होने पर स्नान पुनःस्नान करके जप मे बैठते। इस प्रकार दो मास बीतने पर एक दिन हठात एक वृक्ष की ओर देखते हुए बोल पड़े - बिहारी देख! देख- कितना फल आया! इस प्रकार व्रत भंग हो गया। तब बाबा ने फिर से व्रत आरंभ किया और तीन महीने में सिद्ध हो गए । बाबा कहते ठाकुर जी के इसी देह में दर्शन करना हो तो इस प्रकार पुरशचरण करना चाहिए।
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 बाबा का वैराग्य उच्च कोटि का था। बाबा धन को स्पर्श नहीं करते। इन्हें एक बार बिहारी दास बाबा कहीं ले जा रहे थे। किसी भक्त ने प्रणाम किया और बाबा को एक रुपया भेंट किया।  बाबा भोले- बिहारी दास! रुपया उठा लो। रुपया उठा कर दो -तीन मील आगे बढ़ गये। अचानक बाबा बोले-  बिहारी दास! वापस चलो वहीं जहां से रूपए उठाए थे। वापस वहां आए और उस भक्त को बुलाकर कहा -अपना रुपया वापस ले लो। सुना है तुम्हारे पास बहुत रुपए हैं। मैं एक रुपए के काटने की पीड़ा सहन नहीं कर सका। तुम इतने सारे रुपए के काटने की पीड़ा कैसे सहन करते होंगे ?  जो संत भाव राज्य में डूबे रहते हैं उन्हें पार्थिव वस्तु का यत्किंचित संकल्प विकल्प भी असहाय होता है। रुपया तो बिहारी दास जी के पास था। परंतु काट रहा था बाबा को। क्योंकि बाबा ने उसे उठा लेने की आज्ञा देकर मानसिक रूप से उसका स्पर्श किया था।
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एक बार नवद्वीप में गोपीनाथ राय द्वारा जमींदारों ने बाबा से पूछा -यहां सिद्ध बाबा कहां रहते हैं? बाबा बोले -यहां कोई सिद्ध बाबा नहीं रहते।  आप जैसा ही एक साधारण मनुष्य मैं ही रहता हूँ। वे सभी लोग एक साथ बोले--  बाबा हम जान गए, आप ही सिद्ध बाबा हैं।  हमें कुछ सिद्धई दिखाइए। बाबा बोले- भैया ! मै सिद्धई क्या जानूँ ? ऐसा कहते हुए भूमि पर सात-आठ बार लाठी पटकी। उन्होंने कहा- बाबा ये क्या कर रहे हो? बाबा ने कहा - ब्रज मे लोकनाथ गोस्वामी जी की भजन कुटी में एक बकरी तुलसी का पौधा खा रही थी उसे भगा रहा हूँ।  जो कि राधा कुंड में स्थित है। सबको परम आश्चर्य हुआ। घटना की पुष्टि के लिए उस समय ₹20 खर्च करके जवाबी तार किया।  तार से पता चला कि बकरी ने तुलसी के पौधे को चबा डाला और बकरी के कुछ बाल वहीं पड़े हैं। जो कि टूट कर गिर पड़े थे । सब ने आकर बाबा से क्षमा मांगी।
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 बाबा तो स्वरूप से ही परम सिद्ध दिखाई देते। सवा सौ वर्ष की आयु, पिंडाकार शरीर , रीढ़ की हड्डी इतनी मुड़ गई थी कि दोनों सिरे मिल गए ऐसा प्रतीत होता। नेत्रों के नीचे तक झूलती हुई पलकें, मानो जगत को न देखने के लिए पर्दा कर लिया हो, दुर्बल, निश्चल टांगे जैसे गमन -आगमन से मुक्त हो, फिर भी साधना भक्ति में अद्भुत आवेश।  साधकों को प्रेरणा देने के लिए की ऐसी उच्च स्थिति होने पर भी साधन भक्ति नहीं छोड़ी।  नित्य समस्त रात्रि जाकर हरिनाम करना, एक हज़ार प्रातः दण्डवत प्रणाम करना, नित्य पलके उठवाकर गिरधारी को तुलसी अर्पण करना, निर्जल एकादशी उपवास करना, निश्चल एवम पिण्डाकार होते हुए भी संकीर्तन में सीधे होकर उद्दाम नृत्य करते हुए चार- चार हाथ ऊपर चल पड़ते।
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 एक बार बाबा नवद्वीप में थे।  नवद्वीप में बहुत बाढ़ आ जाने से सभी अपने स्थान छोड़कर सुरक्षित स्थान पर चले गए। बाबा अपने स्थान पर ही रहे। बाबा के एक शिष्य श्री गौर हरिदास जी रोज खिचड़ी बना कर दे जाते आज बाढ़ के कारण नहीं आ पाए। पास के सदा साथ रहने वाले शिष्य बिहारी दास जी उनको बहुत तेज ज्वर हो गया। कलकत्ते से डॉक्टर बुलाया गया तो देख कर बोला - आज रात्रि शरीर छूट जाएगा। डॉक्टर ने भी यही जवाब दिया । बाबा बोले - अब इसका इलाज मैं करूंगा । ठाकुर गिरधारी जी की चरणों की तुलसी बिहारीदास जी के मुख मे दी और माला लेकर वहीं बैठ गए। बाबा बोले-  देखता हूँ किसी हिम्मत है इसको यहाँ से ले जाने की ? आधे घंटे बाद बिहारीदास जी ने आँख खोली। बाबा बोले - क्यों रे ? मुझे छोड़ कर कहाँ जा रहा था ?  मैंने 22 दिन से मुख नहीं धोया है। उठ कर रसोई बना। बिहारी दास जी बोले - बाबा!  बहुत भूख लगी है। उसी समय चीनी और सूजी का हलवा बना लाए। जल्दी से खाकर स्नान करके रसोई बना। ठाकुर को भोग लगा।बिहारीदास जी ने वैसा ही किया। बाबा का मुख धोकर प्रसाद पवाया। बाबा प्रसाद पाकर बोले- देख बिहारी! देख तेरे हाथ का खाने से मुझे भजन में स्फूर्ति होती है । और किसी के हाथ का खाने की इच्छा नहीं होती।

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बाबा की इच्छा हुई बिहारी दास जी से चैतन्यचरितामृत सुनने की। बाबा बोले -बिहारी ! तू बँंगला पढ़ना जानता है ?
नहीं !सुनकर बाबा बोले - एक चैतन्य चरितामृत खरीद ला।  बिहारीदास जी ले आए। बाबा बोले - पढ़ तो देखूँ !  बिहारी दास जी बाबा के मुख की ओर देखने लगे कि कैसे पढूँ? बाबा बोले - मेरी और नहीं ग्रंथ की तरफ देख! 
                                   
बाबा की कृपा से बिहारी दास जी को बंगला अक्षर का ज्ञान हो गया।  वह चैतन्य चरितामृत का पाठ रोज सुनाने लगे। बाबा की कृपा से खोल बजाना भी सीख लिया। बाबा जब चलने में असमर्थ हो गए तो बिहारी दास जी बाबा को एक डलिया में रखकर सिर पर ढोकर कहीं ले जाते। एक बार बाबा वृंदावन के वंशीवट के निकट काले बाबू कुंज में विराजमान थे। एक भंगी आया बाबा उससे बोले- एक रोटी दे दे ! बहुत भूख लगी है। उसने कहा - बाबा! मैं भंगी हूं। बाबा ने कहा- ऐसा नहीं कहते। बाबा की आग्रह को देखकर उसने रोटी दे दी। बाबा ने खा ली। अब पूरे वृंदावन में हल्ला मच गया। बाबा ने एक भंगी की रोटी खा ली। सभी चिंतित बाबा ऐसे करेंगे तो नए साधको पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? सभी प्रमुख वैष्णवों एकत्रित होकर बाबा से कारण पूछा।  बाबा बोले - द्वापर युग में श्री कृष्ण भगवान ने 88 हजार ऋषियों को अवतार लेने से पूर्व ब्रज में जन्म लेने को कहा था। वही ऋषि मुनियों के वंशज ये सब ब्रज के जन है। मैं किसी को भंगी नहीं जानता।  आप सब ब्रज का वास किसलिए कर रहे हैं ?

रज प्राप्ति के लक्ष्य से ? भंगी दिन- रात रज की सेवा करते हैं। रज उन्हें नहीं मिलेगी, तो क्या आप लोगों को मिलेगी, जो पलंगों पर सोते हैं।
सब चुपचाप अपने अपने स्थान पर चले गए। एक बार बाबा वृंदावन में बिहारी दास जी से बोले - बिहारी दास!  अभी नवद्वीप चलो इसी क्षण।  आज्ञाकारी बिहारी दास जी ने तुरंत बाबा को डलिया में विराजमान किया और सिर पर रख कर चल पड़े।  बाबा का वजन एक गमछे के समान लग रहा था। दिन- रात चल कर 9 दिन में नवद्वीप पहुंच गये। यह कहना तो कठिन है ये बाबा का चमत्कार था या बिहारी दास जी की गुरु भक्ति कि इतने अल्प समय में नवद्वीप पहुंच गए।
एक दिन बिहारी दास जी बाबा के लिए रसोई कर रहे थे। बाबा के दूसरे शिष्य रामहरिदास जी भी यही थे बाबा बोले - राम हरि ! लकड़ी आदि समान लेकर बिहारी दास जी की रसोई में सहायता करो । राम हरिदास जी सेवा न करके माला करने बैठ गए। बिहारी दास जी बोले - तुम भेष लेकर सिद्ध हो गए, थोड़ा जल भी लाकर नहीं दिया। राम हरिदास जी बोले - चुप, चुप । बाबा सो रहे हैं। बाबा ने सुन लिया। बाबा उठे और जलते चूल्हे से एक जलती लकड़ी उठाकर राम हरिदास जी के पेट पर लकड़ी रखते हुए बोले - बेटा ! वृंदावन मस्ती करने आया है । जल तो लाकर दिया नहीं कहता है- चुप-चुप ! जब यहां सेवा नहीं करेगा तो निकुंज में जाकर क्या करेगा ?

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एक दिन बाबा बोले - बिहारी ! मैं नवद्वीप जाऊंगा। मेरी इच्छा है कि यह देह गौर पादपद्मो में समर्पित हो ।
 बाबा को डलिया में विराजमान कर के बिहारी दास जी चल पड़े। बिना टिकट के गाड़ी में बैठे। वर्धमान के निकट मेमारि स्टेशन पर उतरे । टी टी ने टिकट ना होने के कारण बाहर निकाल दिया। वहां से सिद्ध भगवान दास जी से मिलने कालना पधारे। वहां से नवद्वीप पधारें और पेड़ के नीचे आसन लगाया। बिहारी दास जी ने केदारदत्त भक्ति विनोद ठाकुर से भिक्षा मांग कर दो झोपड़ी तैयार करवा कर भजन करने लगे। बाद में बनमाली राय बहादुर जी ने पक्की तीन कोठरी बनवा दी । 32 वर्ष तक यहाँ रह कर बाबा भजन करते रहे।

धाम गमन से 4 दिन पूर्व बाबा बिहारीदास जी से बोले- बिहारी!  तुमने मेरी बहुत सेवा की। माँग तुझे क्या चाहिए? धन लेगा या मुझे? बिहारीदास जी ने कहा- बाबा! मै धन का क्या करूंगा। मुझे तो आप चाहिए। बाबा बोले- बहुत अच्छा ! मुझे लेने से धन नहीं मिलेगा लेकिन अभाव कुछ भी नहीं रहेगा। सौ वर्ष की आयु होगी। सदा हरिनाम करना, कभी भी नाम मत भूलना। कलि तेरा कुछ नहीं कर सकेगा।  ऐसा आशीर्वाद देकर 147 वर्ष की अवस्था में बाबा नित्य निकुंज में अपने मंजरी स्वरुप का चिंतन करते हुए प्रवेश कर गये। आश्रम में एक कदम्ब का वृक्ष था। जो बाबा के जाने के बाद सूखने लगा और छाल गिरने लगे। उस वृक्ष के अंग पर ' हरे कृष्ण' नाम दिखाई देने लगा।

बाबा साधको के लिए कहते- आयु वृद्धि के लिए महादेव दो बार गस्त के लिए निकलते है। सन्ध्या से रात्रि 10:00 बजे और प्रातः 3 बजे से सूर्य उदय तक, उस समय हरिनाम जप करे। दृढ़तापूर्वक ! प्राण चले जाएं लेकिन नियम न टूटे। इस प्रकार जो निष्ठापूर्वक हरिनाम का आश्रय ग्रहण करता है। उसका भजन अवश्य सिद्ध होता है।

"हरे कृष्ण"

शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

जानिये शयन संबंधी कुछ नियम

1.सूने घर में अकेला नहीं सोना चाहिए। देवमन्दिर और श्मशान में भी नहीं सोना चाहिए। *(मनुस्मृति)*
2.किसी सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए। *(विष्णुस्मृति)*
3.विद्यार्थी, नौकर औऱ द्वारपाल, ये ज्यादा देर तक सोए हुए हों तो, इन्हें जगा देना चाहिए। *(चाणक्यनीति)*
4.स्वस्थ मनुष्य को आयुरक्षा हेतु ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिए। *(देवीभागवत)*
5.बिल्कुल अंधेरे कमरे में नहीं सोना चाहिए। *(पद्मपुराण)*
6.भीगे पैर नहीं सोना चाहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती है। *(अत्रिस्मृति)*
7.टूटी खाट पर तथा जूठे मुंह सोना वर्जित है। *(महाभारत)*
8.नग्न होकर नहीं सोना चाहिए। *(गौतमधर्मसूत्र)*
9.पूर्व की तरफ सिर करके सोने से विद्या, पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता, उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु, तथा दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन व आयु की प्राप्ति होती है। *(आचारमय़ूख)*
10.दिन में कभी नही सोना चाहिए। परन्तु जेष्ठ मास मे दोपहर के समय एक मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। *(जो दिन मे सोता है उसका नसीब फुटा है)*
11.दिन में तथा सुर्योदय एवं सुर्यास्त के समय सोने वाला रोगी और दरिद्र हो जाता है। *(ब्रह्मवैवर्तपुराण)*
12.सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घंटे) के बाद ही शयन करना चाहिए।
13.बायीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिये हितकर हैं।
14.दक्षिण दिशा (South) में पाँव रखकर कभी नही सोना चाहिए। यम और दुष्टदेवों का निवास रहता है। कान में हवा भरती है। मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है स्मृति- भ्रंश, मौत व असंख्य बीमारियाँ होती है।
15.ह्रदय पर हाथ रखकर, छत के पाट या बीम के नीचें और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।
16.शय्या पर बैठकर खाना-पीना अशुभ है।
17.सोते सोते पढना नही चाहिए।
18.ललाट पर तिलक लगाकर सोना अशुभ है। इसलिये सोते वक्त तिलक हटा दें।

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

शिव जी का विवेचनात्मक रूप

भवानि शङ्करौ वन्दे श्रध्दा विश्वास रूपिणौ |
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ||*

'भवानीशंकरौ वंदे' भवानी और शंकर की हम वंदना करते है। 'श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' अर्थात श्रद्धा का नाम पार्वती और विश्वास का शंकर। श्रद्धा और विश्वास- का प्रतीक विग्रह मूर्ति हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाते,जल चढ़ाते, बेलपत्र चढ़ाते, आरती करते है। 'याभ्यांबिना न पश्यन्ति' श्रद्धा और विश्वास के बिना कोई सिद्धपुरुष भी भगवान को प्राप्त नहीं कर सकते।

क्यों शंकर की शक्ति / वरदान / चमत्कार हमें अब दिखाई नहीं पड़ते?

कहाँ चूक रह जाती है, कहाँ भूल रह जाती है।

चूक और गलती वहाँ हो गई, जहाँ भगवान शिव और पार्वती का असली स्वरूप हमको समझ में नहीं आया। उसके पीछे की फिलॉसफी समझ में नहीं आई|

आइये समझते है शिव शंकर का सही स्वरूप ताकि हम लोग भी शंकर भगवान के अनुदान प्राप्त कर सके.

शिव लिंग

यह सारा विश्व ही भगवान है। शंकर की गोल पिंडी बताता है कि वह विश्व- ब्रह्माण्ड गोल है, एटम गोल है, धरती माता, विश्व माता गोल है। इसको हम भगवान का स्वरूप मानें और विश्व के साथ वह व्यवहार करें जो हम अपने लिए चाहते हैं। शिव का आकार लिंग स्वरूप माना जाता है। उसका सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्त्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

१.शिव का वाहन वृषभ / बैल “नंदी”

शिव का वाहन वृषभ शक्ति का पुंज भी है सौम्य- सात्त्विक बैल शक्ति का प्रतीक है, हिम्मत का प्रतीक है।

२.चाँद - शांति, संतुलन -

चंद्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है,चन्द्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है, शंकर भक्त का मन सदैव चंद्रमा की भाँति प्रफुल्ल और उसी के समान खिला निःशंक होता है।

३.माँ गंगा की जलधारा -

सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञानगंगा से है|गंगा जी यहाँ 'ज्ञान की प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती हैं।महान आध्यात्मिक शक्ति को संभालने के लिए शिवत्व ही उपयुक्त है |माँ गंगा उसकी ही जटाओं में आश्रय लेती हैं | मस्तिष्क के अंतराल में मात्र 'ग्रे मैटर' न भरा रहे, ज्ञान- विज्ञान का भंडार भी भरा रहना चाहिए, ताकि अपनी समस्याओं का समाधान हो एवं दूसरों को भी उलझन से उबारें। वातावरण को सुख- शांतिमय कर दें।अज्ञान से भरे लोगों को जीवनदान मिल सके| | शिव जैसा संकल्प शक्ति वाला महापुरुष ही उसे धारण कर सकता है| महान बौद्धिक क्रांतियों का सृजन भी कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसके जीवन में भगवान शिव के आदर्श समाए हुए हों।वही ब्रह्मज्ञान को धारण कर उसे लोक हितार्थ प्रवाहित कर सकता है। ।

४.तीसरा नेत्र

-ज्ञानचक्षु , दूरदर्शी विवेकशीलता . जिससे कामदेव जलकर भस्म हो गया। | यह तृतीय नेत्र स्रष्टा ने प्रत्येक मनुष्य को दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि काम वासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है।

५. गले में सांप

-शंकर भगवान ने गले में पड़े हुए काले विषधरोंसाँप का इस्तेमाल इस तरीके से किया है कि,उनके लिए वे फायदेमन्द हो गए, उपयोगी हो गए और काटने भी नहीं पाए।

६. नीलकंठ - मध्यवर्ती नीति अपनाना-

शिव ने उस हलाहल विष को अपने गले में धारण कर लिया, न उगला और न पीया। उगलते तो वातावरण में विषाक्तता फैलती, पीने पर पेट में कोलाहल मचता।शिक्षा यह है कि विषाक्तता को न तो आत्मसात् करें, न ही विक्षोभ उत्पन्न कर उसे उगलें। उसे कंठ तक ही प्रतिबंधित रखे। मध्यवर्ती नीति ही अपने जाये योगी पुरुष पर संसार के अपमान, कटुता आदि दुःख- कष्टों का कोई प्रभाव नहीं होता। उन्हें वह साधारण घटनाएँ मानकर आत्मसात् कर लेता है और विश्व कल्याण की अपनी आत्मिक वृत्ति निश्चल भाव से बनाए रहता है। खुद विष पीता है पर औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है। यही योगसिद्धि है।

७. मुण्डों की माला -जीवन की अंतिम परिणति और सौगात

राजा व रंक समानता से इस शरीर को छोड़ते हैं।वे सभी एकसूत्र में पिरो दिए जाते हैं। यही समत्व योग है । जिस चेहरे को हम बीस बार शीशे में देखते हैं, सजाते संवारते हैं , वह मुंडों की हड्डियों का टुकड़ा मात्र है। जिस बाहरी रंग के टुकड़ों को हम देखते हैं, उसे उघाड़कर देखें तो मिलेगा कि इनसान की जो खूबसूरती है उसके पीछे सिर्फ हड्डी का टुकड़ा जमा हुआ पड़ा है।

८. डमरु –

शिव डमरू बजाते और मौज आने पर नृत्य भी करते हैं। यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है। व्यक्ति उदास, निराश और खिन्न, विपन्न बैठकर अपनी उपलब्ध शक्तियों को न खोए, पुलकित-प्रफुल्लित जीवन जिए। शिव यही करते हैं, इसी नीति को अपनाते हैं। उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है। यह पुकार- पुकारकर कहता है कि शिव कल्याण के देवता हैं। उनके हर शब्द में सत्यम्, शिवम् की ही ध्वनि निकलती है। डमरू से निकलने वाली सात्त्विकता की ध्वनि सभी को मंत्रमुग्ध सा कर देती है और जो भी उनके समीप आता है अपना सा बना लेती है।
९. त्रिशूल धारण – ज्ञान, कर्म और भक्ति

लोभ, मोह, अहंता के तीनों भवबंधन को ही नष्ट करने वाला ,साथ ही हर क्षेत्र में औचित्य की स्थापना कर सकने वाला एक एसा अस्त्र – त्रिशूल. यह शस्त्र त्रिशूल रूप में धारण किया गया- ज्ञान, कर्म और भक्ति की पैनी धाराओं का है।

१०. बाघम्बर -

वे बाघ का चर्म धारण करते है। जीवन में बाघ जैसे ही साहस और पौरुष की आवश्यकता है जिसमें अनर्थों और अनिष्टों से जूझा जा सके |

११. शरीर पर भस्म – प्ररिवर्तन से अप्रभावित

शिव बिखरी भस्म को शरीर पर मल लेते हैं, ताकि ऋतु प्रभावों का असर न पड़े। मृत्यु को जो भी जीवन के साथ गुँथा हुआ देखता है उस पर न आक्रोश के आतप का आक्रमण होता है और न भीरुता के शीत का । वह निर्विकल्प निर्भय बना रहता है।

१२. मरघट में वास -

उन्हें श्मशानवासी कहा जाता है। वे प्रकृतिक्रम के साथ गुँथकर पतझड़ के पीले पत्तों को गिराते तथा बसंत के पल्लव और फूल खिलाते रहते हैं। मरण भयावह नहीं है और न उसमें अशुचिता है। गंदगी जो सड़न से फैलती है। काया की विधिवत् अंत्येष्टि कर दी गई तो सड़न का प्रश्न ही नहीं रहा। हर व्यक्ति को मरण के रूप में शिवसत्ता का ज्ञान बना रहे, इसलिए उन्होंने अपना डेरा श्मशान में डाला है।

१३. हिमालय में वास

जीवन की कष्ट कठिनाइयों से जूझ कर शिवतत्व सफलताओं की ऊँचाइयों को प्राप्त करता है | जीवन संघर्षों से भरा हुआ है | जैसे हिमालय में खूंखार जानवर का भय होता है वैसा ही संघर्षमयी जीवन है | शिव भक्त उनसे घबराता नहीं है उन्हें उपयोगी बनाते हुए हिमालय रूपी ऊँचाइयों को प्राप्त करता है |

१४. शिव -गृहस्थ योगी -

गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिव जी के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है। सांसारिक व्यवस्था को चलाते हुए भी वे योगी रहते हैं, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। वे अपनी धर्मपत्नी को भी मातृ- शक्ति के रूप में देखते हैं। यह उनकी महानता का दूसरा आदर्श है। ऋद्धि- सिद्धियाँ उनके पास रहने में गर्व अनुभव करती हैं। यहाँ उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि गृहस्थ रहकर भी आत्मकल्याण की साधना असंभव नहीं। जीवन में पवित्रता रखकर उसे हँसते- खेलते पूरा किया जा सकता है।

१५. शिव – पशुपतिनाथ

शिव को पशुपति कहा गया है। पशुत्व की परिधि में आने वाली दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करना पशुपति का काम है। नर- पशु के रूप में रह रहा जीव जब कल्याणकर्त्ता शिव की शरण में आता है तो सहज ही पशुता का निराकरण हो जाता है और क्रमश: मनुष्यत्व और देवत्व विकसित होने लगता है।

१६. शिव के गण – शिव के लिए समर्पित व्यक्तित्व

''तनु क्षीनकोउ अति पीन पावन कोउ अपावन तनु धरे।" – रामायण

शंकर जी ने भूत- पलीतों का, पिछड़ों का भी ध्यान रखा है और अपनी बरात में ले गए। शिव के गण भूत- पलीत जैसों का है। पिछड़ों, अपंगों, विक्षिप्तों को हमेशा साथ लेकर चलने से ही सेवा- सहयोग का प्रयोजन बनता है। शंकर जी के भक्त अगर हम सबको साथ लेकर चल नहीं सकते तो फिर हमें सोचने में मुश्किल पड़ेगी, समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और फिर जिस आनंद में और खुशहाली में शंकर के भक्त रहते हैं हम रह नहीं पाएँगे।

२०. शिव के प्रधान गण – वीरभद्र-

वीरता अभद्र-अशिष्ट न हो,भद्रता – शालीनता डरपोक न हो, तभी शिवत्व की स्थापना होगी |

२२. शिव परिवार – एक आदर्श परिवार

शिवजी के परिवार में सभी अपने अपने व्यक्तित्व के धनी तथा स्वतंत्र रूप से उपयोगी हैं | अर्धांगनी माँ भवानी ज्येष्ठ पुत्र देव सेनापति कार्तिकेय तथा कनिष्ठ पुत्र प्रथम पूज्य गणपति हैं | सभी विभिन्न होते हुए भी एक साथ हैं | बैल -सिंह , सर्प -मोर प्रकृति में दुश्मन दिखाई देते हैं किन्तु शिवत्व के परिवार में ये एक दुसरे के साथ हैं |शिव के भक्त को शिव परिवार जैसा श्रेष्ठ संस्कार युक्त परिवार निर्माण के लिए तत्पर होना चाहिए |

२३. शिव को अर्पण-प्रसाद - भांग-भंग अर्थात विच्छेद- विनाश। माया और जीव की एकता का भंग, अज्ञान आवरण का भंग, संकीर्ण स्वार्थपरता का भंग, कषाय- कल्मषों का भंग। यही है शिव का रुचिकर आहार। जहाँ शिव की कृपा होगी वहाँ अंधकार की निशा भंग हो रही होगी और कल्याणकारक अरुणोदय वह पुण्य दर्शन मिल रहा होगा।

बेलपत्र- बेलपत्र को जल के साथ पीसकर छानकर पीने से बहुत दिनों तक मनुष्य बिना अन्न के जीवित रह सकता है | शरीर भली भांति स्थिर रह सकता है | शरीर की इन्द्रियां एवं चंचल मन की वृतियां एकाग्र होती हैं तथा गूढ़ तत्व विचार शक्ति जाग्रत होती है |अतः शिवतत्व की प्राप्ति हेतु बेलपत्र स्वीकार किया जाता है |

२४. शिव-मंत्र “ ॐ नमः शिवाय

“शिव' माने कल्याण। कल्याण की दृष्टि रखकर के हमको कदम उठाने चाहिए और हर क्रिया- कलाप एवं सोचने के तरीके का निर्माण करना चाहिए- यह शिव शब्द का अर्थ होता है। सुख हमारा कहाँ है? यह नहीं, वरन कल्याण हमारा कहाँ है? कल्याण को देखने की अगर हमारी दृष्टि पैदा हो जाए तो यह कह सकते हैं कि हमने भगवान शिव के नाम का अर्थ जान लिया। इसी भाव को बार बार याद करने की क्रिया है मन्त्र ।

२५. शिव- “ महामृत्युंजय मंत्र “

महामृत्युञ्जय मंत्र में शिव को त्र्यंबक और सुगंधि पुष्टि वर्धनम् गाया है। विवेक दान भक्ति को त्रिवर्ग कहते हैं। ज्ञान, कर्म और भक्ति भी त्र्यंबक है। इस त्रिवर्ग को अपनाकर मनुष्य का व्यक्तित्व प्रत्येक दृष्टि से परिपुष्ट व परिपक्व होता है। उसकी समर्थता और संपन्नता बढ़ती है। साथ ही श्रद्धा, सम्मान भरा सहयोग उपलब्ध करने वाली यशस्वी उपलब्धियाँ भी करतलगत होती हैं। यही सुगंध है। गुण कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता का प्रतिफल यश और बल के रूप में प्राप्त होता है। इसमंन तनिक भी संदेह नहीं। इसी रहस्य का उद्घाटन महामृत्युञ्जय मंत्र में विस्तारपूर्वक किया गया है। फ़िर वह खर्बुजे की तरह मृत्यु बन्धन, मृत्यु के भय से मुक्त हो मोक्ष के अमरत्व को प्राप्त करता है |

२६. महाशिवरात्रि -

रात्रि नित्य- प्रलय और दिन नित्य- सृष्टि है। एक से अनेक की ओर कारण से कार्य की ओर जाना ही सृष्टि है |इसके विपरीत अनेक से एक और कार्य से कारण की ओर जाना प्रलय है। दिन में हमारा मन, प्राण और इंद्रियाँ हमारे भीतर से बाहर निकल बाहरी प्रपंच की ओर दौड़ती हैं | रात्रि में फिर बाहर से भीतर की ओर वापस आकर शिव की ओर प्रवृत्ति होती है। इसी से दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय की द्योतक है। समस्त भूतों का अस्तित्व मिटाकर परमात्मा से अल्प- समाधान की साधना ही शिव की साधना है। इस प्रकार शिवरात्रि का अर्थ होता है, वह रात्रि जो आत्मानंद प्रदान करने वाली है और जिसका शिव से विशेष संबंध है। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में यह विशेषता सर्वाधिक पाई जाती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार उस दिन चंद्रमा सूर्य के निकट होता है। इस कारण उसी समय जीव रूपी चंद्रमा का परमात्मा रूपी सूर्य के साथ भी योग होता है। अतएव फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को की गई साधना से जीवात्मा का शीघ्र विकास होता है।

३०. शिव उपासना उपासना का अर्थ है-

मनन और उन्हें ग्रहण करने का प्रयत्न करना, उस पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करना। सच्चे शिव के उपासक वही हैं, जो अपने मन में स्वार्थ भावना को त्यागकर परोपकार की मनोवृत्ति को अपनाते हैं |

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

सर्वदोष नाश के लिये रुद्राभिषेक विधि

रुद्राभिषेक अर्थात रूद्र का अभिषेक करना यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। जैसा की वेदों में वर्णित है शिव और रुद्र परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। शिव को ही रुद्र कहा जाता है। क्योंकि- रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। रूद्र शिव जी का ही एक स्वरूप हैं। रुद्राभिषेक मंत्रों का वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में भी किया गया है। शास्त्र और वेदों में वर्णित हैं की शिव जी का अभिषेक करना परम कल्याणकारी है।

रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे पटक-से पातक कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।

रूद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि- सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका: अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।

वैसे तो रुद्राभिषेक किसी भी दिन किया जा सकता है परन्तु त्रियोदशी तिथि,प्रदोष काल और सोमवार को इसको करना परम कल्याण कारी है। श्रावण मास में किसी भी दिन किया गया रुद्राभिषेक अद्भुत व् शीघ्र फल प्रदान करने वाला होता है।

रुद्राभिषेक क्या है ?
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अभिषेक शब्द का शाब्दिक अर्थ है – स्नान करना अथवा कराना। रुद्राभिषेक का अर्थ है भगवान रुद्र का अभिषेक अर्थात शिवलिंग पर रुद्र के मंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। यह पवित्र-स्नान रुद्ररूप शिव को कराया जाता है। वर्तमान समय में अभिषेक रुद्राभिषेक के रुप में ही विश्रुत है। अभिषेक के कई रूप तथा प्रकार होते हैं। शिव जी को प्रसंन्न करने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है रुद्राभिषेक करना अथवा श्रेष्ठ ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा कराना। वैसे भी अपनी जटा में गंगा को धारण करने से भगवान शिव को जलधाराप्रिय माना गया है।

रुद्राभिषेक क्यों किया जाता हैं?
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रुद्राष्टाध्यायी के अनुसार शिव ही रूद्र हैं और रुद्र ही शिव है। रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: अर्थात रूद्र रूप में प्रतिष्ठित शिव हमारे सभी दु:खों को शीघ्र ही समाप्त कर देते हैं। वस्तुतः जो दुःख हम भोगते है उसका कारण हम सब स्वयं ही है हमारे द्वारा जाने अनजाने में किये गए प्रकृति विरुद्ध आचरण के परिणाम स्वरूप ही हम दुःख भोगते हैं।

 रुद्राभिषेक का आरम्भ कैसे हुआ ?
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प्रचलित कथा के अनुसार भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी जबअपने जन्म का कारण जानने के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे तो उन्होंने ब्रह्मा की उत्पत्ति का रहस्य बताया और यह भी कहा कि मेरे कारण ही आपकी उत्पत्ति हुई है। परन्तु ब्रह्माजी यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए और दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध से नाराज भगवान रुद्र लिंग रूप में प्रकट हुए। इस लिंग का आदि अन्त जब ब्रह्मा और विष्णु को कहीं पता नहीं चला तो हार मान लिया और लिंग का अभिषेक किया, जिससे भगवान प्रसन्न हुए। कहा जाता है कि यहीं से रुद्राभिषेक का आरम्भ हुआ।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव सपरिवार वृषभ पर बैठकर विहार कर रहे थे। उसी समय माता पार्वती ने मर्त्यलोक में रुद्राभिषेक कर्म में प्रवृत्त लोगो को देखा तो भगवान शिव से जिज्ञासा कि की हे नाथ मर्त्यलोक में इस इस तरह आपकी पूजा क्यों की जाती है? तथा इसका फल क्या है? भगवान शिव ने कहा – हे प्रिये! जो मनुष्य शीघ्र ही अपनी कामना पूर्ण करना चाहता है वह आशुतोषस्वरूप मेरा विविध द्रव्यों से विविध फल की प्राप्ति हेतु अभिषेक करता है। जो मनुष्य शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी से अभिषेक करता है उसे मैं प्रसन्न होकर शीघ्र मनोवांछित फल प्रदान करता हूँ। जो व्यक्ति जिस कामना की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक करता है वह उसी प्रकार के द्रव्यों का प्रयोग करता है अर्थात यदि कोई वाहन प्राप्त करने की इच्छा से रुद्राभिषेक करता है तो उसे दही से अभिषेक करना चाहिए यदि कोई रोग दुःख से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे कुशा के जल से अभिषेक करना या कराना चाहिए।

रुद्राभिषेक की पूर्ण विधि
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गत पोस्ट में हमने भक्तो की सुविधा हेतु महादेव का आसान लौकिक मंत्रो से पूजन विधि बताई थी पूजा समाप्ति के उपरांत शिव अभिषेक का नियम है इसके लिये आवश्यक सामग्री पहले ही एकत्रित करलें।

सामग्री👉 बाल्टी अथवा बड़ा पात्र जल के लिये संभव हो तो गंगाजल से अभिषेक करे। श्रृंगी (गाय के सींग से बना अभिषेक का पात्र) श्रृंगी पीतल एवं अन्य धातु की भी बाजार में सहज उपलब्ध हो जाती है।, लोटा आदि।

रुद्राष्टाध्यायी के एकादशिनि रुद्री के ग्यारह आवृति पाठ किया जाता है। इसे ही लघु रुद्र कहा जाता है। यह पंचामृत से की जाने वाली पूजा है। इस पूजा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रभावशाली मंत्रो और शास्त्रोक्त विधि से विद्वान ब्राह्मण द्वारा पूजा को संपन्न करवाया जाता है। इस पूजा से जीवन में आने वाले संकटो एवं नकारात्मक ऊर्जा से छुटकारा मिलता है। ब्राह्मण के अभाव में स्वयं भी संस्कृत ज्ञान होने पर रुद्राष्टाध्यायी के पाठ से अथवा अन्य परिस्थितियों में शिवमहिम्न का पाठ करके भी अभिषेक किया जा सकता है।

रुद्राभिषेक से लाभ
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शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा। रुद्राभिषेक अनेक पदार्थों से किया जाता है और हर पदार्थ से किया गया रुद्राभिषेक अलग फल देने में सक्षम है जो की इस प्रकार से हैं ।

रुद्राभिषेक कैसे करे
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1 जल से अभिषेक
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👉 हर तरह के दुखों से छुटकारा पाने के लिए भगवान शिव का जल से अभिषेक करें।
सर्वप्रथम भगवान शिव के बाल स्वरूप का मानसिक ध्यान करें तत्पश्चाततांबे को छोड़ अन्य किसी भी पात्र विशेषकर चांदी के पात्र में ‘शुद्ध जल’ भर कर पात्र पर कुमकुम का तिलक करें,  ॐ इन्द्राय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर जल की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करेत हुए ॐ तं त्रिलोकीनाथाय स्वाहा मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

2 दूध से अभिषेक
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👉 शिव को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद पाने के लिए दूध से अभिषेक करें
👉 भगवान शिव के ‘प्रकाशमय’ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें।
अभिषेक के लिए तांबे के बर्तन को छोड़कर किसी अन्य धातु के बर्तन का उपयोग करना चाहिए। खासकर तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए। इससे ये सब मदिरा समान हो जाते हैं। तांबे के पात्र में जल का तो अभिषेक हो सकता है लेकिन तांबे के साथ दूध का संपर्क उसे विष बना देता है इसलिए तांबे के पात्र में दूध का अभिषेक बिल्कुल वर्जित होता है। क्योंकि तांबे के पात्र में दूध अर्पित या उससे भगवान शंकर को अभिषेक कर उन्हें अनजाने में आप विष अर्पित करते हैं। पात्र में ‘दूध’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ श्री कामधेनवे नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर दूध की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए ॐ सकल लोकैक गुरुर्वै नम: मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

3👉 फलों का रस
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👉 अखंड धन लाभ व हर तरह के कर्ज से मुक्ति के लिए भगवान शिव का फलों के रस से अभिषेक करें।
 भगवान शिव के ‘नील कंठ’ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ‘गन्ने का रस’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ कुबेराय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर फलों का रस की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए -ॐ ह्रुं नीलकंठाय स्वाहा मंत्र का जाप करें, शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें

4 सरसों के तेल से अभिषेक
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👉 ग्रहबाधा नाश हेतु भगवान शिव का सरसों के तेल से अभिषेक करें।
भगवान शिव के ‘प्रलयंकर’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें फिर ताम्बे के पात्र में ‘सरसों का तेल’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें  ॐ भं भैरवाय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर सरसों के तेल की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए ॐ नाथ नाथाय नाथाय स्वाहा मंत्र का जाप करें,  शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

5 चने की दाल
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👉 किसी भी शुभ कार्य के आरंभ होने व कार्य में उन्नति के लिए भगवान शिव का चने की दाल से अभिषेक करें।
भगवान शिव के ‘समाधी स्थित’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें फिर ताम्बे के पात्र में ‘चने की दाल’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें,  ॐ यक्षनाथाय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें,  पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर चने की दाल की धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए -ॐ शं शम्भवाय नम: मंत्र का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

6 काले तिल से अभिषेक
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👉 तंत्र बाधा नाश हेतु व बुरी नजर से बचाव के लिए काले तिल से अभिषेक करें। इसके लिये सर्वप्रथम भगवान शिव के ‘नीलवर्ण’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ‘काले तिल’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ हुं कालेश्वराय नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर काले तिल की धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें, अभिषेक करते हुए -ॐ क्षौं ह्रौं हुं शिवाय नम: का जाप करें, शिवलिंग को साफ जल से धो कर वस्त्र से अच्छी तरह से पौंछ कर साफ करें

7 शहद मिश्रित गंगा जल
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👉 संतान प्राप्ति व पारिवारिक सुख-शांति हेतु शहद मिश्रित गंगा जल से अभिषेक करें।
सबसे पहले भगवान शिव के ‘चंद्रमौलेश्वर’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ” शहद मिश्रित गंगा जल” भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें, ॐ चन्द्रमसे नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें, शिवलिंग पर शहद मिश्रित गंगा जल की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें अभिषेक करते हुए -ॐ वं चन्द्रमौलेश्वराय स्वाहा’ का जाप करें शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें।

8 घी व शहद
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👉 रोगों के नाश व लम्बी आयु के लिए घी व शहद से अभिषेक करें।
इसके लिये सर्वप्रथम भगवान शिव के ‘त्रयम्बक’ स्वरुप का मानसिक ध्यान करें, ताम्बे के पात्र में ‘घी व शहद’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें फिर ॐ धन्वन्तरयै नम: का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें शिवलिंग पर घी व शहद की पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें अभिषेक करते हुए -ॐ ह्रौं जूं स: त्रयम्बकाय स्वाहा” का जाप करें शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें

9  कुमकुम केसर हल्दी
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👉 आकर्षक व्यक्तित्व का प्राप्ति हेतु भगवान शिव का कुमकुम केसर हल्दी से अभिषेक करें।
सर्वप्रथम भगवान शिव के ‘नीलकंठ’ स्वरूप का मानसिक ध्यान करें ताम्बे के पात्र में ‘कुमकुम केसर हल्दी और पंचामृत’ भर कर पात्र को चारों और से कुमकुम का तिलक करें – ‘ॐ उमायै नम:’ का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए फूलों की कुछ पंखुडियां अर्पित करें पंचाक्षरी मंत्र पढ़ते हुए पात्र में फूलों की कुछ पंखुडियां दाल दें-‘ॐ नम: शिवाय’ फिर शिवलिंग पर पतली धार बनाते हुए-रुद्राभिषेक करें. अभिषेक का मंत्र-ॐ ह्रौं ह्रौं ह्रौं नीलकंठाय स्वाहा’  शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

श्रीकृष्ण और सुदामा की अद्भूत कथा

वासुदेव श्रीकृष्ण जब माता यशोदा की गोद से उतरकर शिक्षा-योग्य हुए तो उन्हें नंदराय ने शिक्षा के लिए सादीपन गुरु के आश्रम भेज दिया।
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जगत के पालक, सर्वदृष्टा, सर्वज्ञाता की यह लीला नहीं तो क्या था कि जो वेद, पुराण उनकी स्तुति गाते थे, वह उन्हीं का अध्ययन करने पहुंचे।
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सब जानते थे, गुरु भी जानते थे कि वह महाज्ञान को शिक्षा देंगे।
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उन्हीं के आश्रम में एक विप्र सुदामा भी अध्ययनरत थे, जो जन्म से दरिद्र अवश्य थे परंतु प्रभु के भक्त थे। कैसा विहंगम संयोग था कि सुदामा को अपने आराध्य की मैत्री प्राप्त हुई !
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आश्रम में विद्यार्जन के समय कृष्ण और सुदामा अनन्य मित्र बन गए। हर क्षण अपने आराध्य का सखावत स्नेह सुदामा को मिला।
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एक दिन की बात है। गुरुपत्नी ने सुदामा को जंगल से समिधा लाने का आदेश दिया तो लीलामय श्री कृष्ण भी मित्र के साथ चल पड़े गुरुमाता ने दोनों के लिए दो मुट्ठी चने दिए।
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जंगल में पहुंचकर दोनों सखा क्रीड़ा में मस्त हुए। समय का भान न रहा और जब हुआ तो मूसलाधार वर्षा होने लगी। दोनों ने अलग-अलग वृक्ष की शरण ली।
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रात्रि हो गई। भोजन का समय था। चने सुदामा के पास थे। भूख अत्यधिक थी। सुदामा कृष्ण को बताए बिना सारे चने खा गए।
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कृष्ण से क्या छिपा था ! मित्र की परीक्षा हेतु उनके पास आ गए । ”मित्र सुदामा ! गुरुमाता ने चने दिए थे। भूख लग रही है। तनिक मेरा हिस्सा तो दो।” कृष्ण ने कहा।
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”कहां मित्र ! चने तो भीग गए थे। खाने योग्य नहीं रहे। अत: मैंने फेंक दिए।” सुदामा ने उत्तर दिया।
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”परंतु तुम तो अभी कुछ खा रहे थे। मुझे तुम्हारे दांतों की आवाज सुनाई दे रही थी। ”
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”वह तो बरसात में भीगने के कारण सर्दी से दाँत बज रहे थे।”
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“मित्र !” कृष्ण गम्भीर हो गए और सुदामा को उपदेश दिया: ”मित्रता में ऐसा व्यवहार लोकनिंदा का कारण बनता है। मुझे तनिक भी भूख नहीं है परतु मित्र से चोरी करना उचित नहीं है। तुम विप्र होकर भी मिथ्या बोल सकते हो मुझे दुख हुआ।”
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सुदामा कृष्ण से क्षमा मांगने लगे। भक्तवत्सल ने उन्हें क्षमा तो कर दिया परतु वह चने सुदामा पर ऋण बनकर रह गए।
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समय व्यतीत हो गया। शिक्षा भी समाप्त हो गई। भगवान श्री कृष्ण द्वारिका पुरी के अधिपति बन गए परंतु विप्र सुदामा की दरिद्रता कम नहीं हुई और भगवद्भजन बढ़ता गया।
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विप्रवर की पत्नी सुशीला यथा नाम तथा गुण वाली स्त्री थी। जब भी सुदामा पत्नी के पास होते अपने सखा जगत पालक की प्रशंसा और महिमा के गुण गाते न अघाते।
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दरिद्रता जैसे उनके आंगन में पालथी लगाकर बैठ गई थी। भिक्षा से जो मिलता उसी से निर्वाह हो रहा था। कभी संतुष्टि से दोनों समय न खाया।
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सुदामा तो इसे भगवान की मर्जी समझकर संतुष्ट थे परतु सुशीला उस स्थिति से उकता गई।
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”स्वामी ! आप प्रतिदिन अपने सखा दीनबंधु कृष्ण की प्रशंसा करते नहीं अघाते। वह दयासागर क्या आपकी सहायता न करेंगे आप एक बार उनके पास जाकर उनकी कृपा की विनती कीजिए।” सुशीला बोली ।
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”प्रिये ! वह मेरे सखा हैं। अवश्य मेरे निवेदन को नहीं ठुकराएंगे। जो दीनानाथ सारे जगत का पालन करते हैं वह मेरी विनती कैसे नहीं सुनेंगे परंतु यह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है कि मैं उनसे जाकर कुछ मांगूं।”
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”स्वामी ! आपकी बात सत्य हो सकती है परंतु जो दाता है उससे मांगने में क्या बुराई है ? आप एक बार जाकर तो देखिए।”
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सुशीला के बार-बार हठ करने पर सुदामा तैयार हो गए। ”ठीक है। तुम कहती हो तो मैं चला जाता हूं।”
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सुदामा बोले: ”कुछ न भी मिले तो मित्र के दर्शन तो मिलेंगे परतु प्रिये वह राजा हैं। उनके यहा खाली हाथ कैसे जाया जा सकता है ! क्या घर में ऐसा कुछ है जो मैं अपने मित्र को भेंट कर सकूं ?”
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”घर में तो कुछ भी नहीं है परंतु आप तैयार तो हो जाइए। मैं कोई व्यवस्था करती हूं।” सुशीला बोली।
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सुशीला चली गई। सुदामा जी ने वस्त्र पहने। फटी हुई धोती फटी हुई चप्पलें और अंगरखा भी फटा हुआ। वह सकुचा रहे थे परंतु कोई विकल्प भी तो नहीं था !
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सुशीला वापस आ गई। वह पड़ोस से तीन मुट्ठी चावल ले आई थी। वही चावल सुदामा को दिए। सुदामा जी द्वारिकापुरी चल दिए द्वारिकाधीश से मिलने।
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रास्ता बहुत लम्बा था। पैदल चलते-चलते उनके पैरों में छाले पड़ गए थे। धूल से चेहरा अट गया। काया मलीन हो गई।
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अतत: प्रभु का स्मरण करते प्रभु के द्वार पहुच गए। महल की शोभा देखते ही सुदामा जी चकित रह गए।
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विश्वकर्मा की बनाई द्वारिका नगरी की शोभा अवर्णनीय थी। सुदामा जी विस्फारित नेत्रों से ऊंची अट्टालिकाओं को देख रहे थे।
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बड़े हिचकते हुए वह आगे बढे तो दर्पण की तरह दमकते फर्श पर कदम रखने में उन्हें भय लग रहा था कि कहीं कोई टोक न दे।
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सामने द्वारपाल खड़े थे। सुदामा जी झिझकते उनके पास पहुंचे। चावल की पोटली बगल में दबी थी।
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”कहिए विप्रदेव उनकी शिखा को देखकर द्वारपाल ने कहा।
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”म…मेरा…मेरा नाम सुदामा है। मैं और कृष्ण बाल्यकाल में मित्र थे। एक ही विद्यालय में शिक्षा ली है। मित्र से मिलने आया हूं। कृपा करके कन्हैया को सूचना पहुचा दो कि उनका बालसखा द्वार पर खड़ा है।” सुदामा दयनीय स्वर में बोले।
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द्वारपालों ने चकित दृष्टि से उन्हें देखा मानो उन्हें संशय हो कि वह ब्राह्मण झूठ बोल रहा था। सुदामा की दशा अत्यत दयनीय थी।
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लम्बे सफर के कारण उनका दुर्बल शरीर और भी दुर्बल लग रहा था। सर पर पगड़ी तक नहीं थी। और बदन मुर्झा कर सांवला पड गया था।
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द्वारपालों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि संसार की सभी निधियों के स्वामी के मित्र की दशा इतनी दयनीय हो सकती है।
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संशयपूर्ण शब्दों में ही उन्होंने कहा। ”आप यहीं ठहरें विप्रदेव। हम सूचना देते हैं।” द्वारपाल चला गया और सुदामा भय और कौतूहल से महल की शोभा निहार रहे थे।
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द्वारपाल जिस घड़ी द्वारिकाधीश के समक्ष पहुंचा वह रुक्मिणी जी से वार्तालाप कर रहे थे।
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”भगवान ! द्वार पर एक दीन-हीन ब्राह्मण खड़ा है। उसके वस्त्र फटे हुए हैं और धूल से अटा पड़ा है। पैरों में चप्पल भी न होने के बराबर हैं। अपना नाम सुदामा बताता है और आपको अपना बालसखा कहता है।”
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”सुदामा ! ” भगवान ने चौंककर कहा: ”मेरे मित्र सुदामा ! रुक्मिणी मेरे परम भक्त सखा सुदामा आए हैं।”
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और दयासिंधु दीनानाथ व्याकुल अवस्था में नंगे पाव ही अपने मित्र की अगवानी को पहुच गए।
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द्वार पर भयभीत खड़े थे विप्र सुदामा। जाने वहा कैसा व्यवहार हो परतु नटवरनतर अपने मित्र से मिलने यूं दौड़े चले आ रहे हैं जैसे दूर बंधी गाय अपने नवजात बछडे की तरफ दौड़ती आती है।
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देवकीनंदन की विचित्र दशा थी। न सिर पर मुकुट था न पैरों में पादुका। दोनों बाहें फैलाए मित्र के समीप आए और मित्र को अपने अंकपाश में समेट लिया।
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सुदामा और गिरधर दोनों ही रोने लगे। सभी नगरवासी और रुक्मिणी जी कौतूहल से उन्हें देख रहे थे।
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”हे मित्र सुदामा ! यह कैसी दशा बना रखी है।” श्री कृष्णचंद्र अश्रुपूरित नेत्रों से बोले : ”इतनी दरिद्रता और कष्ट भोगते रहे परतु मित्र का स्मरण नहीं किया !
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हाय सखा ! तुमने कितने कष्ट पाए। कहा रहे तुम इतने दिन ?” दीनबंधु रोते जाते थे और सुदामा उनके अंक में यू छुपे जाते थे जैसे बच्चा अपनी मां के आंचल में छुपता है।
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फिर द्वारिकाधीश अपने दीन-हीन सखा को महल में लाए और अपने दिव्य सिंहासन पर बिठा दिया ।
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सुदामा जी के धूल से सने पैरों को धोने के लिए दीनानाथ ने परात का पानी छुआ तक नहीं। अपने कमल नयनों से बहती अश्रुधारा से ही अपने परम सखा के पैर धोये।
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फिर धूप दीप पुष्प इत्यादि दिव्य गंधयुक्त पूजा सामग्री से विप्रदेव की पूजा की। उन्हें नाना प्रकार के भोजन कराए। आचमन कराया।
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फिर दोनों मित्र आमने-सामने बैठ गए। रुक्मिणी जी सहित कई रानियां उन्हें पंखे झलने लगीं । तब श्रीकृष्ण ने उनकी कुशल क्षेम पूछी।
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सखा सुदामा ! भाभीश्री तो कुशल हैं ?
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हां । कुशल हैं। सानंद !
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”मित्र ! छुपाने की वृत्ति अभी नहीं गई।” कृष्ण ने मुस्कराकर कहा : ”सत्य तो यह है कि तुम तो कभी हमारा स्मरण नहीं करते। वह ये भला हो भाभीश्री का।”
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हे नाथ !” सुदामा ने हाथ जोड़ दिए : ”आप तो अन्तर्यामी हैं। यह आक्षेप क्यों लगाते हो मुझ गरीब पर कि मैंने अपने प्रभु का स्मरण नही किया अवसर मिलते ही लीला करने की वृत्ति आपकी भी नहीं गई।”
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भगवान श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हंस पड़े।
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”अच्छा यह बताओ भाभीश्री ने हमारे लिए क्या भेंट भेजी है ?” सुदामा जी परे देखने लगे। साहस भी कैसे करे उन अतुल ऐश्वर्यशाली श्रीभगवान को चावल देने का !
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”क…कुछ नहीं भेजा सखा।” सुदामा जी ने अपनी दरिद्रता बगल में कसकर दबाई।
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”और यह जो बगल में दबा है, यह क्या है ? सखा ! बालपन की बात भूल गए ?” सुदामा जी ने और भी कसकर पोटली दबा ली परंतु श्रीकृष्ण पोटली पर झपट पड़े।
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कैसा अद्भुत दृश्य था ! दीनानाथ पोटली अपनी तरफ खींच रहे थे और सुदामा जी अपने आप में सिमटे जा रहे थे।
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अंतत : पोटली का एक सिरा प्रभु के हाथ लग गया। पुराना वस्त्र था चर्र से फट गया। चावल निकले तो श्याम सुंदर ने अपना पीताम्बर शीघ्रता से फैला दिया। चावल पीताम्बर में आ गए ।
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जगत को नचाने वाले प्रसन्नता से नाच उठे और एक मुट्ठी चावल मुंह में भरकर चबाने लगे।
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”अहा ऐसा अलौकिक स्वाद तो स्वय रुक्मिणी जी के पाक व्यंजनों में भी नहीं होता।” भाव विह्वल होकर भगवान बोले :
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”सखा ! यही तो मुझे परमानंद प्रदान करने वाली भेंट है। मैं तृप्त हुआ। मेरे साथ सम्पूर्ण जगत तृप्त हुआ।
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सखा ! ऐसी परम स्वादिष्ट वस्तु मैंने आज तक नहीं खाई। न गोकुल में रहकर माखन-मिश्री में ऐसा स्वाद मिला न द्वारिका में। हां एक बार अवश्य काका विदुर के यहाँ जो भोजन किया उसमें ऐसा ही स्वाद था।”
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ऐसे ही प्रशंसनीय शब्द कहते भगवान ने दूसरी मुट्ठी भरी कि रुक्मिणी जी ने हाथ पकड़ लिया।
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”नाथ ! बस !” रुक्मिणी जी बोलीं : ”अभी संसार का ऐसा कौन-सा सुख है जो एक मुट्ठी चावल के बदले विप्रदेव को नहीं मिला ? अब दया कीजिए।” लीलाधर ने चावल छोड़ दिए और मुस्कराने लगे ।
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सुदामा जी मित्र के यहा कई दिन रहे। उन दिनों में ही सँसार के समस्त भोग पदार्थ चख लिए। जीर्ण-शीर्ण काया हृष्ट-पुष्ट हो गई ।
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”मित्र कृष्ण ! अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए। कई दिन हो गए। ब्राह्मणी चिंतित होती होगी।” सुदामा ने हाथ जोड़कर कहा।
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”अवश्य मित्र !” फिर भगवान ने उन्हें विदा कर दिया। न उन्होंने कुछ दिया और न सुदामा को कुछ मांगने की कामना रही।
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बहुत दूर तक अपने रथ में बिठाकर श्रीकृष्ण ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें भाव भीनी विदाई दी।
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सुदामा जी पैदल ही अपने घर की तरफ चले जाते थे। बार-बार कृष्ण का निश्छल और सखावत प्रेम उन्हें अंदर तक उन्मादित कर देता था। ‘वह मात्र जगतपालक ही नहीं मनुष्य रूप में सच्चा मित्र है जो इतना बड़ा राजा होकर भी एक गरीब ब्राह्मण के प्रति ऐसी निर्मल आस्था रखता है।
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ऐसा मित्र जीवन की सबसे बड़ी पूंजी है। वह साक्षात विष्णु के अवतार हैं। सुदामा सोचते जाते थे। सुदामा चलते जाते थे और हृदय में भक्तवत्सल भगवान की छवि के साथ अपने बाल सखा के अभूतपूर्व आतिथ्य से आनंदित थे।
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उन्हें इस बात की सुधि ही नहीं थी कि वह क्या उद्देश्य लेकर अपने मित्र के पास गए थे। कुछ न मिलने की कोई ग्लानि न थी। अंतत : अपने नगर के मार्ग पर आ गए।
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ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते त्यों-त्यों लगता जैसे मार्ग भटक गए हैं। उस मार्ग में पहले तो कुछ भी नहीं था। कंटीली झाड़ियां थीं परंतु अब उसी मार्ग पर नाना प्रकार के छायादार फलदार खुशबूदार पेड़-पौधे लगे थे । पुष्प लताओं की लम्बी कतार थी ।
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जगह-जगह धर्मशालाएं और शीतल जल की व्यवस्था थी। ‘अवश्य ही वे मार्ग भटककर किसी अन्य मार्ग पर आ गए हैं। अब आ गए हैं तो आगे चल कर देख भी लेते हैं कि ऐसे भव्य उद्यान जिस नगर के मार्ग में हैं वह नगर कितना भव्य है।
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कल से फिर भिक्षा मांगनी होगी तो इसी नगरी में मांगेंगे।’ ऐसा विचार कर नगर के प्रवेश द्वार पर पहुंचे तो आश्चर्यचकित रह गए। वह तो द्वारिकापुरी का ही दूसरा रूप था !
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द्वारपाल से अपनी शंका का समाधान अवश्य करना चाहिए। ”भाई ! यह कौन-सी नगरी है ?” उन्होंने पूछा। द्वारपाल ने उन्हें प्रणाम किया।
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”यह आप ही की नगरी सुदामा पुरी है महाराज ! आप इसके स्वामी हैं।” क्या लीला थी ! सुदामा हतप्रभ रह गए।
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और उस क्षण तो उन्हें ब्रह्मांड ही घूमता लगा जब सामने से अपनी पत्नी सुशीला को रानियों जैसे परिधान में कई दासियों के साथ अपनी तरफ आते देखा।
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”नाथ !” सुशीला ने उनके चरण स्पर्श किए: ”आपके मित्र बड़े दयालु हैं। मैं न कहती थी कि वे अपने बाल सखा की दशा पर द्रवित हो जाएंगे ?”
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अब समझ आया उस छलिया कन्हैया की दया का महत्त्व ! बिना मांगे ही सर्वसुख प्रदान कर दिए।
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परंतु सुदामा जी को न महल में आसक्ति थी न सुख में वह तो भक्तिभाव से अपने सखा कान्हा कृष्ण मुरारी की भक्ति में रत रहे। अंतत : ब्रह्मभाव प्राप्त करके परमधाम पहुंचे।

                       जय जय श्री राधे

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

यमलार्जुन (कुबेरपुत्रों) का उद्धार

भगवान की प्रत्येक लीला रहस्यों से भरी होती है। वे कब कौन-सा काम किस हेतु करेंगे, इसे कोई नहीं जानता। उनकी लीला का हेतु होता है, अपने भक्तों को आनन्द देना और उन्हें भवबन्धन से मुक्त करना। भगवान के वरदान से यशोदाजी को ऐसा दुर्लभ प्रसाद मिला कि वे भगवान श्रीकृष्ण को रस्सी से ऊखल में बाँध सकीं। यह यशोदाजी की भक्ति का ही प्रताप है कि जो परमात्मा प्रकृति के तीनों गुणों से न बंध सके, वे माता के बंधन में आ गए। भगवान जीवों के कल्याण के लिए बन्धन भी स्वीकार करते हैं।

गोपियों ने कहा–नन्दरानी ! तुम्हारा यह नन्हा-सा बालक हमारे घरों में जाकर बर्तन-भांडे फोड़ा करता है, हम कभी कुछ नहीं कहतीं। आज एक बर्तन के फूट जाने के कारण तुमने इसे छड़ी से डराया-धमकाया है और बाँध दिया है। तुम निर्दयी हो गयी हो। गोपियों के इस प्रकार कहने पर यशोदाजी कुछ नहीं बोलीं। गोपियों ने देखा कि यशोदाजी आज उनकी अनुनय-विनय पर ध्यान ही नहीं देतीं तो वे खीझकर अपने घरों को चली गयीं। गोपों के साथ नन्दबाबा इन्द्रयाग (इन्द्र की पूजा) में लगे थे और बलरामजी व अन्य  बड़े गोपबालक भी यज्ञ देखने चले गये थे। कुछ छोटे गोपबालक थे पर वे मां के वात्सल्यमय हाथों द्वारा लगाई गयीं गांठों को खोलने में असमर्थ थे। वे सब सोच रहे थे कि कन्हैया को हमारे लिए बंधना पड़ा है। अत: आज वे अपने घर नहीं गये। यशोदामाता कन्हैया को बांधकर दही मथने चली गयीं। आज उन्हीं को पूरा घर सम्भालना था। यशोदाजी दधि-मंथन तो कर रहीं थीं पर उनका मन श्रीकृष्ण में ही लगा हुआ था। वे मन-ही-मन सोच रही थीं कि ‘कन्हैया को बांधकर मैंने अच्छा नहीं किया, पर क्या करूं; इसे तो चोरी की आदत पड़ गयी है, उसे तो छुड़ाना ही होगा।’

इधर श्रीकृष्ण की दृष्टि नन्दमहल के प्रांगण के पार्श्व में लगे ऊंचे-ऊंचे, एक में सटे दोनों अर्जुन के वृक्षों पर पड़ी। दामोदर भगवान ने सोचा कि–’आज मैं बैलगाड़ी की लीला करुंगा। मैं बैल बनूंगा और ऊखल गाड़ी बनेगा। इस ऊखल को मैं बैलगाड़ी की तरह खींचूंगा।’  श्रीकृष्ण ने जोर लगाकर ऊखल गिरा लिया और हाथ तथा घुटनों के बल खींचते, कमर में रस्सी (दाम) से बंधे ये दामोदर चलने लगे उन्हीं यमलार्जुन वृक्षों की ओर।

यमलार्जुन वृक्षों के पूर्वजन्म की कथा
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ये भगवान के भक्त यक्षराज कुबेर के पुत्र थे। इनका नाम नलकूबर और मणिग्रीव था। ये रूद्र भगवान के अनुचर (सेवक) थे। इनके पास धन, सौंदर्य व ऐश्वर्य की पूर्णता थी अर्थात् सम्पत्ति और शक्ति की पराकाष्ठा। इसलिए इनको बड़ा घमण्ड हो गया। इन्हें धन व ऐश्वर्य बिना मेहनत के अपने पिता से मिला था। बिना मेहनत से प्राप्त धन मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। सामान्यत: धनी पुरुषों में धन के अभिमान के साथ स्त्री-संग, जुआखोरी व मदिरापान आदि दोष भी आ जाते हैं। देवर्षि नारद के शापवश ये दोनों वृक्षयोनि को प्राप्त हुए और नंदमहल के प्रांगण के पार्श्व में एक ही साथ अर्जुन के वृक्ष बने इसलिए इन्हें ‘यमलार्जुन’कहते हैं।

देवर्षि नारद के शाप देने का कारण
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देवर्षि नारद के शाप देने के दो कारण थे–एक तो वे इन पर अनुग्रह (उनके मद का नाश) करना चाहते थे और दूसरे, इन्हें श्रीकृष्ण की प्राप्ति हो जाये।

एक दिन ये दोनों नलकूबर और मणिग्रीव मन्दाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में सुरापान करके नंगे होकर गंगाजी में स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे। मदोन्मत्त होकर वे दोनों स्रियों के साथ उसी प्रकार विहार कर रहे थे जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों के साथ जलक्रीडा कर रहा हो। संयोगवश देवर्षि नारद भी अपनी देवदत्त वीणा पर विभिन्न रागिनियों को छेड़ते हुए श्रीमुख से हरिगुणगान करते हुए उसी उपवन में विचरण कर रहे थे। उपवन की शोभा जहां देवर्षि के मन में भक्ति के अमृतरस का संचार कर रही थी, वहीं कुबेरपुत्रों की भोगवासना और आसुरीभाव को और बढ़ा रही थी। एक ही वस्तु एक ही समय में अलग-अलग लोगों के लिए अमृत और विष का काम कर रही थी। ये यक्षपुत्र भगवान शंकर के इस परम पावन तपोवन को भ्रष्ट करते हुए निरंकुश विहार कर रहे थे। अप्सराएं विवस्त्रा (वस्त्रहीन) थीं और ये भी दिगम्बर थे। संयोग से ठीक उसी स्थान से देवर्षि नारद निकले। नारदजी को देखकर स्रियों ने तो लज्जित होकर वस्त्र पहन लिए; किन्तु ये दोनों वैसे ही खड़े रह गये। नारदजी को कष्ट हुआ। कैसा सुन्दर स्वरूप प्राप्त हुआ है, फिर भी ये उसका कैसा दुरुपयोग कर रहे हैं। मानव-देह श्रीकृष्ण की सेवा के लिए है। यह शरीर भगवान का है।

इस शरीर पर किसका अधिकार है? यह शरीर क्या पिता का है, माता का है, या माता को भी पैदा करने वाले नाना का है, या अपना स्वयं का है?

पिता कहते हैं कि ‘मेरे वीर्य से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए इस शरीर पर मेरा अधिकार है।’ मां कहती हैकि ‘मेरे गर्भ से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए यह मेरा है।’ पत्नी कहती है कि ‘इसके लिए मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आयी हूँ,  इससे मेरी शादी हुई है, मैं इसकी अर्धांगिनी हूँ, अतएव इस पर मेरा अधिकार है।’अग्नि कहती है कि ‘यदि शरीर पर माता-पिता-पत्नी का अधिकार होता तो प्राण निकलने के बाद वे इसे घर में क्यों नहीं रखते? इस शरीर पर मेरा अधिकार होने के कारण श्मशान लाकर लोग इसे मुझे अर्पण करते हैं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है।’ सियार-कुत्ते कहते हैं कि ‘जहां अग्नि-संस्कार नहीं होता, वहां यह शरीर हमको खाने को मिल जाता है, इसलिए यह शरीर हमारा है।’

इस तरह सभी इस शरीर पर अपना-अपना अधिकार बताते हैं किन्तु भगवान कहते हैं कि ‘यह शरीर किसी का नहीं है। मैंने इसे जीव को अपना उद्धार करने के लिए दिया है। यह शरीर मेरा है।’ जीव जब अनेक योनियों में भटकते-भटकते थक जाता है, तब भगवान दया करके उसे मनुष्य-योनि देते हैं। जो पुरुष इस मानव शरीर को पाकर भी भगवान के चरणों का आश्रय नहीं लेता, वह अपने-आप को धोखा दे रहा है।

श्रीरामचरितमानस में लिखा है–

आकर चारि लच्छ चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी।।

कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही।।

यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है। प्रकृति से पैदा होता है और उसी में समा जाता है। इसलिए जो दुष्ट श्रीमद से अंधे हो रहे हैं, उनकी आंखों में ज्योति डालने के लिए दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है क्योंकि दरिद्र में घमंड और हेकड़ी नहीं होती, उसकी इन्द्रियां भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं। वह सब तरह के मदों से बचा रहता है। दैववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिए एक बहुत बड़ी तपस्या होती है।

मदान्ध नलकूबर और मणिग्रीव के पतन पर देवर्षि को दया आ गयी। ‘ओह ! कहां तो ये लोकपाल के पुत्र और कहां इनकी यह दशा ! इतना अध:पतन !’ इन मदोन्मत्त और श्रीमद से अंधे हो रहे स्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूंगा। इनको इस बात का भी पता नहीं है कि ये बिल्कुल वस्त्रहीन हैं। इन पर अनुग्रह करके उन्होंने शाप दे दिया–’तुम दोनों धन, पद तथा शक्ति के मद में अंधे होकर वृक्ष से खड़े हो, अत: वृक्ष हो जाओ। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी। देवताओं के सौ वर्ष के पश्चात् जब गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण अवतार लेंगे, तब उनके चरणारविन्द का स्पर्श पाकर तुम्हारी वृक्षयोनि से और अज्ञान से भी मुक्ति होगी। तुम्हें पुन: देवशरीर और भगवद्भक्ति की प्राप्ति होगी।’

मदान्ध को रास्ते पर लाने के लिए उन्हें निष्क्रिय बना देना ही एक उपाय है। मनुष्य को भोग इस प्रकार नहीं भोगने चाहिए कि शरीर रोगी हो जाय। भोग इन्द्रियों को रोगी करने के लिए नहीं हैं, अपितु इन्द्रियों को स्वस्थ रखने के लिए हैं। जो शक्ति व सम्पत्ति का दुरुपयोग करता है, वह दूसरे जन्म में वृक्ष बन जाता है। भगवान वृक्षों को सर्दी, गर्मी, बरसात सहने की तपश्चर्या कराते हैं।

शाप सुनकर नलकूबर और मणिग्रीव की बेहोशी दूर हो गयी। वे पश्चात्ताप से भरे हुए नारदजी की शरण में आए। तब उन्होंने कृपा करके उन्हें गोकुल में वृक्ष की योनि दी। ऐसा कहकर देवर्षि नारद भगवान नर-नारायण के आश्रम चले गये।

शाप देने के बाद देवर्षि नारद भगवान नर-नारायण के आश्रम क्यों गये, इसके भी कई कारण बताये गये हैं–नारदजी ने सोचा कि मैंने नलकूबर और मणिग्रीव को शाप देते समय कह तो दिया कि तुमको भगवान मिलेंगे किन्तु यदि कहीं भगवान न मिले तो क्या होगा? इसलिए चलो उनको मनायें। दूसरे, शाप और वरदान देने से पुण्य क्षीण हो जाते हैं अत: पुन: तपसंचय के लिये नारदजी भगवान नर-नारायण के आश्रम गये। तृतीय, नारदजी ने सोचा कि मैंने यक्षपुत्रों पर जो अनुग्रह (भगवान श्रीकृष्ण द्वारा वृक्षयोनि से मुक्ति) किया है, वह बिना तपस्या के पूर्ण नहीं हो सकता। चौथा कारण यह है कि अपने आराध्य नारायण को अपनी शाप देने की बात बताने को वे नर-नारायण आश्रम गये।

इधर नारदजी नारायणाश्रम पहुंचे और उधर नलकूबर और मणिग्रीव यमलार्जुन बने उस नंदमहल के प्रांगण के पार्श्व में खड़े हैं और अपनी शाखाओं व पत्तों को हिला-हिलाकर बड़ी आतुरता से श्रीकृष्ण का आह्वान कर रहे हैं। भगवान अपनी बात भले ही झूठी कर दें, लेकिन अपने भक्त की बात कभी झूठी नहीं करते। भगवान जैसा भक्तवत्सल और भक्त-परतन्त्र तो और कोई है ही नहीं। वे स्वयं कहते हैं–’अहं भक्तपराधीन:।’

देवर्षि नारद का शाप–शाप था या आशीर्वाद?
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संतों का शाप या क्रोध सदैव आशीर्वादस्वरूप होता है, पता नहीं क्यों इसे शाप कहा जाता है। नलकूबर और मणिग्रीव को गोकुल में वृक्षों का जन्म मिला और भगवान का सांनिध्य। जिस भूमि में ब्रह्माजी कोई तृण होने का वरदान चाहते हैं, उद्धव जैसे भक्त वृन्दावन में श्रीकृष्ण का सांनिध्य प्राप्त करने के लिए लतावल्लरी, पेड़-पौधे, औषधि या जड़ी-बूटी बनने की याचना करते हैं ताकि व्रजांगनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी। इसलिए वहां का वृक्ष बनने का शाप क्यों शाप है?  वह तो आज आशीर्वाद में बदल गया। उनकी तपस्या अब पूरी हो गयी। आज श्रीकृष्ण को देवर्षि नारद की वाणी सत्य करनी हैं और ये दोनों भी भगवान के प्रिय भक्त कुबेर के पुत्र हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा–’देवर्षि नारद मेरे प्रियतम भक्त हैं। उन्होंने जिस प्रकार इन वृक्ष बने हुए कुबेरपुत्रों के उद्धार की बात अपने मुख से कह दी है, ठीक उसी प्रकार मैं इनका उद्धार करूंगा, इन्हें वृक्षयोनि से मुक्त कर पुन: देव शरीर देकर अपनी भक्ति भी दे दूंगा।’

इधर श्रीकृष्ण के सखाओं की दशा भी बड़ी विचित्र हो रही थी। वे अपने प्रिय सखा को माता के बन्धन से मुक्त करने के लिए अत्यन्त व्याकुल थे। वे बार-बार जाकर देखते कि माता क्या कर रही है, फिर वे अपने मित्र का बंधन खोलने में लग जाते। पर गांठ खुलना तो दूर, उनसे गांठ हिली तक नहीं। वे नहीं जानते कि माता ने गांठ लगाते समय अपने हृदय के अनन्त वात्सल्य की सारी स्निग्धता उसमें भर दी है। इसीलिए माता के द्वारा लगायी गयी यह गांठ कोई खोलने में समर्थ नहीं है।  संसार के समस्त प्राणियों का भवबंधन संकल्पमात्र से खोल देने की सामर्थ्य रखने वाले श्रीकृष्ण में आज वह शक्ति नहीं कि वे यशोदामाता द्वारा लगाये गये बंधन को खोल सकें। सखामण्डली उदास होकर श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र की ओर देखने लगती है।

भगवान श्रीकृष्ण बंधन में बंधकर उन कुबेरपुत्रों के उद्धार के लिए आ पहुंचे। उनकी गाड़ीलीला अब पूरी हो गयी और मोक्षलीला प्रारम्भ हो गयी। वे वृक्षों की ओर ऊखल खींचते चले जा रहे हैं और उन अर्जुन वृक्षों के पास जा पहुंचते हैं। श्रीकृष्ण को निकट आया देखकर उन यमलार्जुन की क्या दशा हुई, इसे कौन बता सकता है? वृक्षों में भी संवेदन-शक्ति होती है फिर इन्हें तो पूर्व के देवजीवन से लेकर अब तक की समस्त स्मृति है। सौ देव-वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद अपने उद्धार का क्षण उपस्थित देखकर और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को अपने इतने निकट पाकर उनके हृदय में क्या-क्या भाव उमड़ रहे थे–इसे वे ही जानते हैं अथवा अन्तर्यामी श्रीकृष्ण ही जानते है। अखण्ड ब्रह्माण्डनायक भगवान श्रीकृष्ण को दामोदर बने देखकर वह यमलार्जुन अपनी शाखाओं व पत्रों सहित चंचल हो उठे और जोर-जोर से हिलकर नाचने लगे।

भगवान दामोदर ने सोचा–अब बिलम्ब का समय नहीं है, कहीं यशोदामाता न आ जाएं और वे दोनों वृक्षों के बीच में घुस गये। वृक्षों के बीच में जाने का आशय है कि भगवान जिसके अन्तर्देश में प्रवेश करते हैं उसके जीवन में क्लेश, जड़ता नहीं रहती। दोनों वृक्षों के बीच से श्रीकृष्ण तो निकल गये, किन्तु ऊखल तिरछा होकर अटक गया। (ऊखल तो खल था ही, खल का स्वभाव ही है टेढ़ा होना। परन्तु उसमें एक गुण यह है कि वह भगवान के साथ एक गुण (रस्सी) से बंध गया था और भगवान के पीछे-पीछे जा रहा था इसलिए उसमें भी यमलार्जुन जैसे जड़ वृक्षों और दुष्टों का उद्धार करने का सामर्थ्य आ जाता है।)

दामोदर श्रीकृष्ण अपनी कटि से बंधे ऊखल को तनिक अपनी ओर खींच लेते हैं। बस, अब जो खींचा उन सर्वेश्वर ने तो दोनों वृक्षों की पृथ्वी में धंसी जड़ें उखड़ गयीं और पेड़ों के तने, शाखाएं, छोटी-छोटी डालियां और एक-एक पत्ता कांप उठा। देखते-ही-देखते वे बड़ा भारी शब्द करते हुए भूमि पर गिर पड़े। वे विशालकाय वृक्ष इस तरह गिरे कि न तो किसी गोपबालक को, न ही किसी गो-गोवत्स को और न ही नन्दमहल के किसी भाग को कोई क्षति पहुंची। किन्तु इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि अब तो ये यमलार्जुन श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का स्पर्श होने से उनके निजजन बन गये हैं, उनमें भक्तों के समस्त गुणों का समावेश हो गया है; अत: यह सम्भव नहीं कि वे अपने किसी कार्य से किसी को जरा-सा भी कष्ट दें। जहां वे वृक्ष थे वहां एक परम उज्जवल ज्योति चमक उठी और दो तेजोमय दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से भूषित सिद्धपुरुष वृक्षों से निकले–ठीक उसी तरह जैसे काष्ठ से अग्नि प्रकट हुई हो। ये दोनों और कोई नहीं बल्कि नलकूबर और मणिग्रीव हैं। उन दोनों ने दामोदर श्रीकृष्ण की परिक्रमा करके उनके पैर छुए।

निकसे उभय पुरुष दोउ बीर, पहिरें अद्भुत भूषन चीर।
जैसें दारू मध्य तैं आगि, निर्मल जोति उठति है जागि।
नंद-सुवन के पाइन परे, अंजुलि जोरि स्तुति अनुसरे।

उन्होंने निर्मल मन से हाथ जोड़कर ऊखल से रस्सी में बंधे पुराणपुरुष दामोदर की स्तुति की–

करुणानिधये तुभ्यं जगन्मंगलशीलिने।
दामोदराय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम:।। (गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड)

‘प्रभो ! अाप करुणा की निधि हैं। जगत का मंगल करना आपका स्वभाव है। आप ‘दामोदर’, ‘कृष्ण’ और ‘गोविन्द’ को हमारा बारम्बार नमस्कार है।’

‘प्रभो! आप समस्त लोकों के अभ्युदय के लिए अपनी समस्त शक्तियों के साथ अवतरित हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। हम आपके दासानुदास हैं, हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए। हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का गान करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगे रहें, हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरणकमलों में रम जाये। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं, हमारी आंखें उनके दर्शन करती रहें।’

हे करुनानिधि ! करुना कीजै, अपनी भाउ-भगति-रति दीजै।
बानी तुमरे गुन-गन गनै, श्रवन परम पावन जस सुनै।
ये कर अवर कर्म जिमि करैं, प्रभु की परिचर्या अनुसरैं।
मन-अलि चरन-कमल-रस रसौ, चित्र कमल-जग भूलि न बसौ।
हे जगदीस ! जसोदा-नंदन, सीस रहौ नित तुव-पद-बंदन।
तुमरी मूरति भक्त तुम्हारे, नित ही निरखहूँ नैन हमारे।।

इस प्रकार नलकूबर और मणिग्रीव ने प्रत्येक इन्द्रिय के लिए भक्तिरस की याचना की। तब भगवान ने हंसते हुए कहा–’मैं मुक्त रहता हूं तब बंधन में बंधा जीव मेरी स्तुति करता है, परन्तु आज विपरीत स्थिति है। मैं बंधन में बंधा हूं और मुक्त जीव मेरी स्तुति कर रहे हैं। तुम लोगों को संसारचक्र से छुड़ाने वाली मेरी अनन्य भक्ति प्राप्त हो चुकी है। वृक्षयोनि तो तुम्हें मेरी परमाभक्ति की प्राप्ति करा देने के लिए प्राप्त हुई थी, बन्धन के लिए नहीं। मुक्ति तो तुम्हें उस दिन ही मिल चुकी थी, जिस दिन तुम्हें देवर्षि नारद के दर्शन हुए। अत: अब तुम लोग अपने-अपने घर जाओ।’ कुबेरपुत्रों ने ऊखल को आशीर्वाद देते हुए कहा–’ऊखल ! तुम सदा श्रीकृष्ण के गुणों से बंधे रहो।’ फिर ऊखल में बंधे भगवान श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा कर और उनको अपने हृदय में संजोये हुए भगवान श्रीकृष्ण से कहा–’तुम सदा गुणशाली रहना। निर्गुण कभी मत हो जाना क्योंकि गुण तुमसे बंधा रहेगा, रस्सी तुमसे बंधी रहेगी तो हमारे जैसों का उद्धार होता रहेगा।’

इतना कहकर वे उत्तर दिशा की ओर चले गये। देवर्षि नारद के प्रति उनके मन में असीम कृतज्ञता उमड़ आयी क्योंकि उनकी कृपा से ही वे आज ब्रह्माण्डनायक को इस अभिनव शिशुवेश में देख पा रहे है और उनका रोम-रोम व्रज के कण-कण को धन्य-धन्य कह रहा था–

धन्य-धन्य ऋषि-साप हमारे।
आदि अनादि निगम नहिं जानत, ते हरि प्रगट देह ब्रज धारे।।

धन्य नंद, धनि मातु जसोदा, धनि आँगन खेलत भय बारे।
धन्य स्याम, धनि दाम बँधाए, धनि ऊखल, धनि माखन-प्यारे।।

दीन-बंधु करुना-निधि हौ प्रभु, राखि लेहु, हम सरन तिहारे।
सूर स्याम के चरन सीस धरि, अस्तुति करि निज धाम सिधारे।।

कुछ संतों के अनुसार–भगवान की योगमाया ने सोचा कि जबतक नलकूबर और मणिग्रीव का उद्धार नहीं हो जायेगा और वे अपने लोक नहीं चले जायेंगे तब तक वृक्ष टूटने की ध्वनि को अवरुद्ध कर देना चाहिए। अन्यथा यह ध्वनि यदि गोकुल में पहुंच गयी और गोप-गोपियां आ गये तो नारदजी का अनुग्रह अधूरा रह जायेगा। इसलिए योगमाया ने वृक्ष टूटने की ध्वनि को तब तक गोकुल में नहीं पहुंचने दिया जब तक नलकूबर और मणिग्रीव का उद्धार नहीं हो गया। नलकूबर और मणिग्रीव के आकाश में चले जाने पर जब गोप-गोपियों ने वृक्षों के गिरने का शब्द सुना तो दौड़े। ‘इतने बड़े-बड़े वृक्ष गिरे कैसे?’ न आंधी आयी थी, न बिजली गिरी थी और न वृक्षों की जड़ें खोखली ही हुई थीं। चारों ओर घूम-घूमकर सबने देखा। वहां जो छोटे गोपबालक थे, उन्होंने कहा–’ऊखल टेढ़ा करके वृक्षों को इस कन्हैया ने ही गिराया है। इन वृक्षों से ही दो चमकते पुरुषों को भी निकलते हमने देखा है। यह नन्दनन्दन उनसे न जाने क्या कह रहा था।’ लेकिन किसी ने विश्वास नहीं किया। कुछ को संदेह अवश्य हुआ, पर निश्चय यही हुआ कि यह कोई भारी उत्पात था। नारायण ने ही बच्चे की रक्षा की है। गोपियां कहती हैं–’यह बालक कितना भाग्यशाली है! अनेक राक्षस आए, किन्तु कोई भी इसका बाल-बांका न कर सका। भगवान की कैसी कृपा है।’  नन्दबाबा ने रस्सी से बंधे ऊखल घसीटते अपने लाला को हंसकर खोल दिया और गोद में उठाकर सूंघने लगे। फिर पेड़ से बचने की खुशी में नाचने लगे। नन्दजी ने यशोदाजी को बहुत उलाहना दिया और ब्राह्मणों को सौ गायें दान में दीं।

इस कथा-प्रसंग का यही सार है कि कितनी भी सम्पत्ति और शक्ति हो, बिना भक्ति के सब अधूरा है, रसहीन है।
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कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...