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फ़रवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सफलता का रहस्य

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है, परन्तु अपने जीवन के 40वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है। उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं- 1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है व शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं। 2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है। 3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से चिपकने के कारण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमित कर देते हैं। भोजन ढूँढ़ना, भोजन पकड़ना और भोजन खाना.... तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं। उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं, या तो देह त्याग दे, या अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे... या फिर स्वयं को पुनर्स्थापित करे, आकाश के निर्द्वन्द्व एकाधिपति के रूप में। जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं, वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा। बाज पीड़ा चुनता है और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है। वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है, एकान्त में अपना घोंसला बनाता है, और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रक्रिया। सबसे पहले वह अपनी

रुद्राभिषेक से क्या क्या लाभ मिलता है ?

  शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा। श्लोक जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै। मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा। पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।। बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना। जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवप्रिया।। घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्। तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः। प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम। केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषतः। शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्। श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!! सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह! पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।। जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै। पुत्रार्थी शर्करा

|| चत्वारो वेदाः परिचयः ||

 ऋग्वेद का सामान्य परिचय 🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸 (१)  ऋग्वेद की शाखा :👉  महर्षि पतञ्जलि के अनुसार ऋग्वेद की २१ शाखाएँ हैं, किन्तु पाँच ही शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैं :--- (१) शाकल (२) बाष्कल (३) आश्वलायन (४) शांखायन (५) माण्डूकायन संप्रति केवल शाकल शाखा ही उपलब्ध है ! ऋग्वेद के ब्राह्मण 🔸🔸🔹🔸🔸 (१) ऐतरेय ब्राह्मण (२) शांखायन ब्राह्मण ऋग्वेद के आरण्यक 🔸🔸🔹🔹🔸🔸 (१) ऐतरेय आरण्यक (२) शांखायन आरण्यक ऋग्वेद के उपनिषद 🔸🔸🔹🔹🔸🔸 (१) ऐतरेय उपनिषद् (२) कौषीतकि उपनिषद् ऋग्वेद के देवता 🔸🔸🔹🔸🔸 तिस्र एव देवताः इति नैरुक्ताः ! (१) अग्नि (पृथिवी स्थानीय ) (२) इन्द्र या वायु (अन्तरिक्ष स्थानीय ) (३) सूर्य (द्यु स्थानीय ) ऋग्वेद में बहु प्रयोग छंद 🔸🔸🔹🔸🔹🔸🔸 (१) गायत्री , (२) उष्णिक् (३) अनुष्टुप् , (४) त्रिष्टुप् (५) बृहती, (६) जगती, (७) पंक्ति, ऋग्वेद के मंत्रों के तीन विभाग 🔸🔸🔹🔹🔸🔸🔹🔹 (१) प्रत्यक्षकृत मन्त्र (२) परोक्षकृत मन्त्र (३) आध्यात्मिक मन्त्र ऋग्वेद का विभाजन 🔸🔸🔹🔸🔸 (१) अष्टक क्रम :- ८ अष्टक ६४ अध्याय २००६ वर्ग (२

देवी-देवताओ की सवारी

भगवान शिव के वाहन नंदी, गणेश जी के वाहन मूषक, मां दुर्गा के वाहन शेर एवं भगवान सूर्य के वाहन सातघोड़े हैं। क्या आप जानते हैं कि सूर्य देव एक या दो नहीं, बल्कि पूरे सात घोड़ों की सवारो क्यों करते हैं। दरअसल इसके पीछे धार्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक उद्देश्य भी छिपा है। कहते हैं इन सातो घोड़ों का एक खास उद्देश्य था, सभी के पास एक खास ऊर्जा थी। वैज्ञानिक दृष्टि से इन सात घोड़ों को सूर्य की सात किरणों का नाम दिया जाता है। इसी तरह से भगवान शिव एवं गणेश जी या अन्य किसी भी हिन्दू देवी-देवता को मिले वाहन के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। आज हम आपको एक ऐसी ही कहानी बताने जा रहे हैं जो देवी दुर्गा एवं उनके वाहन शेर से जुड़ी है। शक्ति का रूप दुर्गा, जिन्हें सारा जगत मानता है... ना केवल कोई साधारण मनुष्य, वरन् सभी देव भी उनकी अनुकम्पा से प्रभावित रहते हैं। एक पौराणिक आख्यान के अनुसार मां दुर्गा को यूंही शेर की सवारी प्राप्त नहीं हुई थी, इसके पीछे एक रोचक कहानी बनी है। आदि शक्ति, पार्वती, शक्ति... आदि नाम से प्रसिद्ध हैं मां दुर्गा। धार्मिक इतिहास के अनुसार भगवान शिव को पति के रूप में पानेके लिए देवी पा

श्री खाटू श्याम जी कथा

महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच के विषय में हम सब जानते हैं । वीर घटोत्कच का विवाह दैत्यराज मुर की पुत्री मौरवी से हुआ । मौरवी को कामकंटका व आहिल्यावती के नामों से भी जाना जाता है । वीर घटोत्कच तथा महारानी मौरवी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । बालक के बाल बब्बर शेर की तरह होने के कारण इनका नाम बर्बरीक रखा गया । इन्हीं वीर बर्बरीक को आज दुनिया ' खाटू श्याम ' के नाम से जानती है । वीर बर्बरीक को बचपन में भगवान श्री कृष्ण द्वारा परोपकार करने एवं निर्बल का साथ देने की शिक्षा दी गयी । इन्होनें अपने पराक्रम से ऐसे अनेक असुरों का वध किया जो निर्बल ऋषि - मुनियों को हवन - यज्ञ आदि धार्मिक कार्य करने से रोकते थे । विजय नामक ब्राह्मण का शिष्य बनकर उनके यज्ञ को राक्षसों से बचाकर, उनका यज्ञ सम्पूर्ण करवाने पर भगवान शिव ने सम्मुख प्रकट होकर इन्हें तीन बाण प्रदान किये, जिनसे समस्त लोगों में विजय प्राप्त की जा सकती है। जब महाभारत के युद्ध की घोषणा हुई तो वीर बर्बरीक ने भी अपनी माता के सम्मुख युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की। माता ने इन्हें युद्ध में भाग लेने की आज्ञा इस वचन के साथ दी कि तु

‘श्रीसुदर्शन-चक्र’

भगवान् विष्णु का प्रमुख आयुध है, जिसके माहात्म्य की कथाएँ पुराणों में स्थान-स्थान पर दिखाई देती है। ‘मत्स्य-पुराण’ के अनुसार एक दिन दिवाकर भगवान् ने विश्वकर्मा जी से निवेदन किया कि‘कृपया मेरे प्रखर तेज को कुछ कम कर दें,क्योंकि अत्यधिक उग्र तेज के कारण प्रायः सभी प्राणी सन्तप्त हो जाते हैं।’ विश्वकर्मा जी ने सूर्य को ‘चक्र-भूमि’ पर चढ़ा कर उनका तेज कम कर दिया। उस समय सूर्य से निकले हुए तेज-पुञ्जों को ब्रह्माजी ने एकत्रित कर भगवान् विष्णु के‘सुदर्शन-चक्र’ के रुप में, भगवान् शिव के ‘त्रिशूल′-रुप में तथा इन्द्र के ‘वज्र’ के रुप में परिणत कर दिया। ‘पद्म-पुराण’ के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के तेज से युक्त ‘सुदर्शन-चक्र’ को भगवान् शिव ने श्रीकृष्ण को दिया था। ‘वामन-पुराण’ के अनुसार भी इस कथा की पुष्टि होती है। ‘शिव-पुराण’ के अनुसार ‘खाण्डव-वन’ को जलाने के लिए भगवान् शंकर ने श्रीकृष्ण को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। इसके सम्मुख इन्द्र की शक्ति भी व्यर्थ थी। ‘वामन-पुराण’ के अनुसार दामासुर नामक भयंकर असुर को मारने के लिए भगवान् शंकर ने विष्णु को ‘सुदर्शन-चक्र’ प्रदान किया था। बताया है

घमंड

महाभारत के युद्ध में अर्जुन और कर्ण के बीच घमासान चल रहा था । अर्जुन का तीर लगने पे कर्ण का रथ 25-30 हाथ पीछे खिसक जाता , और कर्ण के तीर से अर्जुन का रथ सिर्फ 2-3 हाथ । लेकिन श्री कृष्ण थे की कर्ण के वार की तारीफ़ किये जाते, अर्जुन की तारीफ़ में कुछ ना कहते । अर्जुन बड़ा व्यथित हुआ, पूछा , हे पार्थ आप मेरी शक्तिशाली प्रहारों की बजाय उसके कमजोर प्रहारों की तारीफ़ कर रहे हैं, ऐसा क्या कौशल है उसमे । श्री कृष्ण मुस्कुराये और बोले, तुम्हारे रथ की रक्षा के लिए ध्वज पे हनुमान जी, पहियों पे शेषनाग और सारथि रूप में खुद नारायण हैं । उसके बावजूद उसके प्रहार से अगर ये रथ एक हाथ भी खिसकता है तो उसके पराक्रम की तारीफ़ तो बनती है । कहते हैं युद्ध समाप्त होने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन को पहले उतरने को कहा और बाद में स्वयं उतरे। जैसे ही श्री कृष्ण रथ से उतरे , रथ स्वतः ही भस्म हो गया । वो तो कर्ण के प्रहार से कबका भस्म हो चूका था, पर नारायण बिराजे थे इसलिए चलता रहा । ये देख अर्जुन का सारा घमंड चूर चूर हो गया । कभी जीवन में सफलता मिले तो घमंड मत करना, कर्म तुम्हारे हैं पर आशीष ऊपर वाले का है । और कि

"क्यों किया था श्रीकृष्ण ने एकलव्य का वध"

 निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा के स्नेहांचल से जनता सुखी व सम्पन्न थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। निषादराज हिरण्यधनु को रानी सुलेखा द्वारा एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम “अभिद्युम्न” रखा गया। प्राय: लोग उसे “अभय” नाम से बुलाते थे। पाँच वर्ष की आयु मेँ एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरूकुल मेँ की गई। बालपन से ही अस्त्र शस्त्र विद्या मेँ बालक की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक का नाम “एकलव्य” संबोधित किया। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया। एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। उस समय धनुर्विद्या मेँ गुरू द्रोण की ख्याति थी। पर वे केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते थे और शूद्रोँ को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। महाराज हिरण्यधनु ने एकलव्य को काफी समझाया कि द्रोण तुम्हे शिक्षा नहीँ देँगे। पर एकलव्य ने पिता को मनाया कि उनकी शस्त्र विद्या से प्रभावित होकर आचार्य द्रोण स्वयं उसे अपना शिष्य बना लेँगे। पर एकलव्य का सोचना सही न था – द्रोण ने

*बर्फ के ये 10 फायदे जानकर चौंक जाएंगे आप*

*1-कड़वी दवाई खाने से पहले मुंह में बर्फ का टुकड़ा रख लें, दवाई कड़वी ही नहीं लगेगी।* *2- यदि आपने बहुत ज्यादा खा लिया है और खाना पच नहीं रहा, तो थोड़ा-सा बर्फ का टुकड़ा खा ले। खाना शीघ्र पच जाएगा।* *3- यदि आपके पास मेकअप का भी समय नहीं है या आपकी त्वचा ढीली पड़ती जा रही है तो एक बर्फ का छोटा-सा टुकड़ा लेकर उसे किसी कपड़े में (हो सके तो मखमल का) लपेट चेहरे पर लगाइए। इससे आपके चेहरे की त्वचा टाइट होगी और यह टुकड़ा आपकी त्वचा में ऐसा निखार ला देगा जो और कहीं नहीं मिलेगा।* *4- प्लास्टिक में बर्फ का टुकड़ा लपेटकर सिर पर रखने से सिरदर्द में राहत मिलती है।* *5- यदि आपको शरीर में कहीं पर भी चोट लग गई है और खून निकल रहा है तो उस जगह बर्फ मसलने से खून बहना बंद हो जाता है।* *6- कांटा चुभने पर बर्फ लगाकर उस हिस्से को सुन्न कर ले, कांटा या फांस आसानी से निकल जाएगा और दर्द भी नहीं होगा।* *7- अंदरुनी यानी गुम चोट लगने पर बर्फ लगाने से खून नहीं जमता व दर्द भी कम होता है।* *8- नाक से खून आने पर बर्फ को कपड़े में लेकर नाक के ऊपर चारों और रखें, थोड़ी देर में खून निकलना बंद हो जाएगा।* *

होली मनाने की विधि

होलिका दहन ( होली जलाना )  फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन किया जाता है। होलिका नामक राक्षसी ने भक्त प्रह्लाद को गोद में लेकर जलाने की कोशिश की थी, किन्तु वह खुद जल गई और प्रह्लाद विष्णु भगवान के भक्त होने के कारण सकुशल बच गए। इसी के प्रतीक के रूप में होली मनाई जाती है तथा होलिका दहन किया जाता है। होली का त्यौहार दो दिन का होता है। पहले दिन शाम के समय होलिका दहन किया जाता है यानि होली जलाई जाती है । दूसरे दिन सभी लोग एक दूसरे को रंग लगाकर आनंद पूर्वक यह त्यौहार मनाते है। रंग लगाने वाले दिन को धुलंडी – कहा जाता है। इसे धुलेटी और रंगवाली होली के नाम से भी जाना जाता है। कहते है श्रीकृष्ण भगवान ने जब पूतना नामक राक्षसी का वध किया तो गाँव वालों ने ख़ुशी से रंग , राख और धुल उड़ाये थे। तभी से धुलंडी मनाने की प्रथा शुरू हुई। मथुरा वृद्धावन की होली बहुत प्रसिद्ध है। दूर दूर से लोग इसे देखने आते है। बृज में बरसाने की लट्ठमार होली बहुत रोमांचक होती है। इसमें महिलाएँ लकड़ी से पुरुष को मारती है। पुरुष ढाल से अपना बचाव करते है। पूरा देश होली के रंग में रंग जाता है। रंग के लिए गुलाल , पिचक

श्रील जगन्नाथ दास बाबा जी

हरिभजन सों आयु बढ़े, जगन्नाथ ये बात दरसि।। वृन्दावन छै मास ,छै नवदीप जु वासै । सिद्ध भये सब शिष्य , बिहारी दास जु खासै।। बाबा डलिया राखि , सदा यात्रा करवावै। इक शत पैंतालीस , वपु धरि कृपा बरसावै।। कीर्तन सुनि उद्दाम नृत्य ,कियो न कबहुँ धन परसि।। हरिभजन सों आयु बढे ,जगन्नाथ ये बात दरसि।। भावार्थ : भगवान के भजन के द्वारा निश्चित ही आयु वृद्धि होती है।  इस बात को बाबा जगन्नाथ दास जी ने प्रमाणित करके दिखाया। छः महीने नवदीप एवं छः महीने वृंदावन में वास करते। बाबा जगन्नाथ दास जी महाराज के सभी शिष्य सिद्ध हुए।बाबा के एक शिष्य श्री बिहारी दास जी बृजवासी यह बाबा को डलिया में रखकर यत्र तत्र यात्रा करवाते। बाबा एक सौ सैंतालीस वर्ष तक आयु प्राप्त करके जीवो का कल्याण करते रहे। हरिनामसंकीर्तन की ध्वनि सुनते ही उद्धम नृत्य करने लगते। कभी भी धन का स्पर्श नहीं किया। ** चरित्र - बाबा जगन्नाथ दास जी महाराज का जन्म बंगाल प्रांत के किसी छोटे से ग्राम में हुआ।  बचपन से हरि नाम के प्रति सहज अनुराग रहा।  वृंदावन के शृंगार वट पावन स्थल के गोस्वामी ब्रह्मानंद जी के पिता श्री जगदानंद गोस्वामी जी को गु

जानिये शयन संबंधी कुछ नियम

1.सूने घर में अकेला नहीं सोना चाहिए। देवमन्दिर और श्मशान में भी नहीं सोना चाहिए। *(मनुस्मृति)* 2.किसी सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए। *(विष्णुस्मृति)* 3.विद्यार्थी, नौकर औऱ द्वारपाल, ये ज्यादा देर तक सोए हुए हों तो, इन्हें जगा देना चाहिए। *(चाणक्यनीति)* 4.स्वस्थ मनुष्य को आयुरक्षा हेतु ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिए। *(देवीभागवत)* 5.बिल्कुल अंधेरे कमरे में नहीं सोना चाहिए। *(पद्मपुराण)* 6.भीगे पैर नहीं सोना चाहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती है। *(अत्रिस्मृति)* 7.टूटी खाट पर तथा जूठे मुंह सोना वर्जित है। *(महाभारत)* 8.नग्न होकर नहीं सोना चाहिए। *(गौतमधर्मसूत्र)* 9.पूर्व की तरफ सिर करके सोने से विद्या, पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता, उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु, तथा दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन व आयु की प्राप्ति होती है। *(आचारमय़ूख)* 10.दिन में कभी नही सोना चाहिए। परन्तु जेष्ठ मास मे दोपहर के समय एक मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। *(जो दिन मे सोता है उसका नसीब फुटा है)* 11.दिन में तथा सुर्योदय एवं सुर्यास्त

शिव जी का विवेचनात्मक रूप

भवानि शङ्करौ वन्दे श्रध्दा विश्वास रूपिणौ | याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ||* 'भवानीशंकरौ वंदे' भवानी और शंकर की हम वंदना करते है। 'श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' अर्थात श्रद्धा का नाम पार्वती और विश्वास का शंकर। श्रद्धा और विश्वास- का प्रतीक विग्रह मूर्ति हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाते,जल चढ़ाते, बेलपत्र चढ़ाते, आरती करते है। 'याभ्यांबिना न पश्यन्ति' श्रद्धा और विश्वास के बिना कोई सिद्धपुरुष भी भगवान को प्राप्त नहीं कर सकते। क्यों शंकर की शक्ति / वरदान / चमत्कार हमें अब दिखाई नहीं पड़ते? कहाँ चूक रह जाती है, कहाँ भूल रह जाती है। चूक और गलती वहाँ हो गई, जहाँ भगवान शिव और पार्वती का असली स्वरूप हमको समझ में नहीं आया। उसके पीछे की फिलॉसफी समझ में नहीं आई| आइये समझते है शिव शंकर का सही स्वरूप ताकि हम लोग भी शंकर भगवान के अनुदान प्राप्त कर सके. शिव लिंग यह सारा विश्व ही भगवान है। शंकर की गोल पिंडी बताता है कि वह विश्व- ब्रह्माण्ड गोल है, एटम गोल है, धरती माता, विश्व माता गोल है। इसको हम भगवान का स्वरूप मा

सर्वदोष नाश के लिये रुद्राभिषेक विधि

रुद्राभिषेक अर्थात रूद्र का अभिषेक करना यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। जैसा की वेदों में वर्णित है शिव और रुद्र परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। शिव को ही रुद्र कहा जाता है। क्योंकि- रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। रूद्र शिव जी का ही एक स्वरूप हैं। रुद्राभिषेक मंत्रों का वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में भी किया गया है। शास्त्र और वेदों में वर्णित हैं की शिव जी का अभिषेक करना परम कल्याणकारी है। रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे पटक-से पातक कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है। रूद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि- सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिव

श्रीकृष्ण और सुदामा की अद्भूत कथा

वासुदेव श्रीकृष्ण जब माता यशोदा की गोद से उतरकर शिक्षा-योग्य हुए तो उन्हें नंदराय ने शिक्षा के लिए सादीपन गुरु के आश्रम भेज दिया। . जगत के पालक, सर्वदृष्टा, सर्वज्ञाता की यह लीला नहीं तो क्या था कि जो वेद, पुराण उनकी स्तुति गाते थे, वह उन्हीं का अध्ययन करने पहुंचे। . सब जानते थे, गुरु भी जानते थे कि वह महाज्ञान को शिक्षा देंगे। . उन्हीं के आश्रम में एक विप्र सुदामा भी अध्ययनरत थे, जो जन्म से दरिद्र अवश्य थे परंतु प्रभु के भक्त थे। कैसा विहंगम संयोग था कि सुदामा को अपने आराध्य की मैत्री प्राप्त हुई ! . आश्रम में विद्यार्जन के समय कृष्ण और सुदामा अनन्य मित्र बन गए। हर क्षण अपने आराध्य का सखावत स्नेह सुदामा को मिला। . एक दिन की बात है। गुरुपत्नी ने सुदामा को जंगल से समिधा लाने का आदेश दिया तो लीलामय श्री कृष्ण भी मित्र के साथ चल पड़े गुरुमाता ने दोनों के लिए दो मुट्ठी चने दिए। . जंगल में पहुंचकर दोनों सखा क्रीड़ा में मस्त हुए। समय का भान न रहा और जब हुआ तो मूसलाधार वर्षा होने लगी। दोनों ने अलग-अलग वृक्ष की शरण ली। . रात्रि हो गई। भोजन का समय था। चने सुदामा के पास थे। भूख अत्य

यमलार्जुन (कुबेरपुत्रों) का उद्धार

भगवान की प्रत्येक लीला रहस्यों से भरी होती है। वे कब कौन-सा काम किस हेतु करेंगे, इसे कोई नहीं जानता। उनकी लीला का हेतु होता है, अपने भक्तों को आनन्द देना और उन्हें भवबन्धन से मुक्त करना। भगवान के वरदान से यशोदाजी को ऐसा दुर्लभ प्रसाद मिला कि वे भगवान श्रीकृष्ण को रस्सी से ऊखल में बाँध सकीं। यह यशोदाजी की भक्ति का ही प्रताप है कि जो परमात्मा प्रकृति के तीनों गुणों से न बंध सके, वे माता के बंधन में आ गए। भगवान जीवों के कल्याण के लिए बन्धन भी स्वीकार करते हैं। गोपियों ने कहा–नन्दरानी ! तुम्हारा यह नन्हा-सा बालक हमारे घरों में जाकर बर्तन-भांडे फोड़ा करता है, हम कभी कुछ नहीं कहतीं। आज एक बर्तन के फूट जाने के कारण तुमने इसे छड़ी से डराया-धमकाया है और बाँध दिया है। तुम निर्दयी हो गयी हो। गोपियों के इस प्रकार कहने पर यशोदाजी कुछ नहीं बोलीं। गोपियों ने देखा कि यशोदाजी आज उनकी अनुनय-विनय पर ध्यान ही नहीं देतीं तो वे खीझकर अपने घरों को चली गयीं। गोपों के साथ नन्दबाबा इन्द्रयाग (इन्द्र की पूजा) में लगे थे और बलरामजी व अन्य  बड़े गोपबालक भी यज्ञ देखने चले गये थे। कुछ छोटे गोपबालक थे पर वे मां के