श्रीकृष्ण और सुदामा की अद्भूत कथा

वासुदेव श्रीकृष्ण जब माता यशोदा की गोद से उतरकर शिक्षा-योग्य हुए तो उन्हें नंदराय ने शिक्षा के लिए सादीपन गुरु के आश्रम भेज दिया।
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जगत के पालक, सर्वदृष्टा, सर्वज्ञाता की यह लीला नहीं तो क्या था कि जो वेद, पुराण उनकी स्तुति गाते थे, वह उन्हीं का अध्ययन करने पहुंचे।
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सब जानते थे, गुरु भी जानते थे कि वह महाज्ञान को शिक्षा देंगे।
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उन्हीं के आश्रम में एक विप्र सुदामा भी अध्ययनरत थे, जो जन्म से दरिद्र अवश्य थे परंतु प्रभु के भक्त थे। कैसा विहंगम संयोग था कि सुदामा को अपने आराध्य की मैत्री प्राप्त हुई !
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आश्रम में विद्यार्जन के समय कृष्ण और सुदामा अनन्य मित्र बन गए। हर क्षण अपने आराध्य का सखावत स्नेह सुदामा को मिला।
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एक दिन की बात है। गुरुपत्नी ने सुदामा को जंगल से समिधा लाने का आदेश दिया तो लीलामय श्री कृष्ण भी मित्र के साथ चल पड़े गुरुमाता ने दोनों के लिए दो मुट्ठी चने दिए।
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जंगल में पहुंचकर दोनों सखा क्रीड़ा में मस्त हुए। समय का भान न रहा और जब हुआ तो मूसलाधार वर्षा होने लगी। दोनों ने अलग-अलग वृक्ष की शरण ली।
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रात्रि हो गई। भोजन का समय था। चने सुदामा के पास थे। भूख अत्यधिक थी। सुदामा कृष्ण को बताए बिना सारे चने खा गए।
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कृष्ण से क्या छिपा था ! मित्र की परीक्षा हेतु उनके पास आ गए । ”मित्र सुदामा ! गुरुमाता ने चने दिए थे। भूख लग रही है। तनिक मेरा हिस्सा तो दो।” कृष्ण ने कहा।
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”कहां मित्र ! चने तो भीग गए थे। खाने योग्य नहीं रहे। अत: मैंने फेंक दिए।” सुदामा ने उत्तर दिया।
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”परंतु तुम तो अभी कुछ खा रहे थे। मुझे तुम्हारे दांतों की आवाज सुनाई दे रही थी। ”
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”वह तो बरसात में भीगने के कारण सर्दी से दाँत बज रहे थे।”
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“मित्र !” कृष्ण गम्भीर हो गए और सुदामा को उपदेश दिया: ”मित्रता में ऐसा व्यवहार लोकनिंदा का कारण बनता है। मुझे तनिक भी भूख नहीं है परतु मित्र से चोरी करना उचित नहीं है। तुम विप्र होकर भी मिथ्या बोल सकते हो मुझे दुख हुआ।”
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सुदामा कृष्ण से क्षमा मांगने लगे। भक्तवत्सल ने उन्हें क्षमा तो कर दिया परतु वह चने सुदामा पर ऋण बनकर रह गए।
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समय व्यतीत हो गया। शिक्षा भी समाप्त हो गई। भगवान श्री कृष्ण द्वारिका पुरी के अधिपति बन गए परंतु विप्र सुदामा की दरिद्रता कम नहीं हुई और भगवद्भजन बढ़ता गया।
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विप्रवर की पत्नी सुशीला यथा नाम तथा गुण वाली स्त्री थी। जब भी सुदामा पत्नी के पास होते अपने सखा जगत पालक की प्रशंसा और महिमा के गुण गाते न अघाते।
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दरिद्रता जैसे उनके आंगन में पालथी लगाकर बैठ गई थी। भिक्षा से जो मिलता उसी से निर्वाह हो रहा था। कभी संतुष्टि से दोनों समय न खाया।
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सुदामा तो इसे भगवान की मर्जी समझकर संतुष्ट थे परतु सुशीला उस स्थिति से उकता गई।
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”स्वामी ! आप प्रतिदिन अपने सखा दीनबंधु कृष्ण की प्रशंसा करते नहीं अघाते। वह दयासागर क्या आपकी सहायता न करेंगे आप एक बार उनके पास जाकर उनकी कृपा की विनती कीजिए।” सुशीला बोली ।
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”प्रिये ! वह मेरे सखा हैं। अवश्य मेरे निवेदन को नहीं ठुकराएंगे। जो दीनानाथ सारे जगत का पालन करते हैं वह मेरी विनती कैसे नहीं सुनेंगे परंतु यह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है कि मैं उनसे जाकर कुछ मांगूं।”
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”स्वामी ! आपकी बात सत्य हो सकती है परंतु जो दाता है उससे मांगने में क्या बुराई है ? आप एक बार जाकर तो देखिए।”
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सुशीला के बार-बार हठ करने पर सुदामा तैयार हो गए। ”ठीक है। तुम कहती हो तो मैं चला जाता हूं।”
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सुदामा बोले: ”कुछ न भी मिले तो मित्र के दर्शन तो मिलेंगे परतु प्रिये वह राजा हैं। उनके यहा खाली हाथ कैसे जाया जा सकता है ! क्या घर में ऐसा कुछ है जो मैं अपने मित्र को भेंट कर सकूं ?”
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”घर में तो कुछ भी नहीं है परंतु आप तैयार तो हो जाइए। मैं कोई व्यवस्था करती हूं।” सुशीला बोली।
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सुशीला चली गई। सुदामा जी ने वस्त्र पहने। फटी हुई धोती फटी हुई चप्पलें और अंगरखा भी फटा हुआ। वह सकुचा रहे थे परंतु कोई विकल्प भी तो नहीं था !
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सुशीला वापस आ गई। वह पड़ोस से तीन मुट्ठी चावल ले आई थी। वही चावल सुदामा को दिए। सुदामा जी द्वारिकापुरी चल दिए द्वारिकाधीश से मिलने।
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रास्ता बहुत लम्बा था। पैदल चलते-चलते उनके पैरों में छाले पड़ गए थे। धूल से चेहरा अट गया। काया मलीन हो गई।
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अतत: प्रभु का स्मरण करते प्रभु के द्वार पहुच गए। महल की शोभा देखते ही सुदामा जी चकित रह गए।
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विश्वकर्मा की बनाई द्वारिका नगरी की शोभा अवर्णनीय थी। सुदामा जी विस्फारित नेत्रों से ऊंची अट्टालिकाओं को देख रहे थे।
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बड़े हिचकते हुए वह आगे बढे तो दर्पण की तरह दमकते फर्श पर कदम रखने में उन्हें भय लग रहा था कि कहीं कोई टोक न दे।
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सामने द्वारपाल खड़े थे। सुदामा जी झिझकते उनके पास पहुंचे। चावल की पोटली बगल में दबी थी।
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”कहिए विप्रदेव उनकी शिखा को देखकर द्वारपाल ने कहा।
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”म…मेरा…मेरा नाम सुदामा है। मैं और कृष्ण बाल्यकाल में मित्र थे। एक ही विद्यालय में शिक्षा ली है। मित्र से मिलने आया हूं। कृपा करके कन्हैया को सूचना पहुचा दो कि उनका बालसखा द्वार पर खड़ा है।” सुदामा दयनीय स्वर में बोले।
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द्वारपालों ने चकित दृष्टि से उन्हें देखा मानो उन्हें संशय हो कि वह ब्राह्मण झूठ बोल रहा था। सुदामा की दशा अत्यत दयनीय थी।
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लम्बे सफर के कारण उनका दुर्बल शरीर और भी दुर्बल लग रहा था। सर पर पगड़ी तक नहीं थी। और बदन मुर्झा कर सांवला पड गया था।
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द्वारपालों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि संसार की सभी निधियों के स्वामी के मित्र की दशा इतनी दयनीय हो सकती है।
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संशयपूर्ण शब्दों में ही उन्होंने कहा। ”आप यहीं ठहरें विप्रदेव। हम सूचना देते हैं।” द्वारपाल चला गया और सुदामा भय और कौतूहल से महल की शोभा निहार रहे थे।
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द्वारपाल जिस घड़ी द्वारिकाधीश के समक्ष पहुंचा वह रुक्मिणी जी से वार्तालाप कर रहे थे।
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”भगवान ! द्वार पर एक दीन-हीन ब्राह्मण खड़ा है। उसके वस्त्र फटे हुए हैं और धूल से अटा पड़ा है। पैरों में चप्पल भी न होने के बराबर हैं। अपना नाम सुदामा बताता है और आपको अपना बालसखा कहता है।”
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”सुदामा ! ” भगवान ने चौंककर कहा: ”मेरे मित्र सुदामा ! रुक्मिणी मेरे परम भक्त सखा सुदामा आए हैं।”
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और दयासिंधु दीनानाथ व्याकुल अवस्था में नंगे पाव ही अपने मित्र की अगवानी को पहुच गए।
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द्वार पर भयभीत खड़े थे विप्र सुदामा। जाने वहा कैसा व्यवहार हो परतु नटवरनतर अपने मित्र से मिलने यूं दौड़े चले आ रहे हैं जैसे दूर बंधी गाय अपने नवजात बछडे की तरफ दौड़ती आती है।
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देवकीनंदन की विचित्र दशा थी। न सिर पर मुकुट था न पैरों में पादुका। दोनों बाहें फैलाए मित्र के समीप आए और मित्र को अपने अंकपाश में समेट लिया।
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सुदामा और गिरधर दोनों ही रोने लगे। सभी नगरवासी और रुक्मिणी जी कौतूहल से उन्हें देख रहे थे।
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”हे मित्र सुदामा ! यह कैसी दशा बना रखी है।” श्री कृष्णचंद्र अश्रुपूरित नेत्रों से बोले : ”इतनी दरिद्रता और कष्ट भोगते रहे परतु मित्र का स्मरण नहीं किया !
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हाय सखा ! तुमने कितने कष्ट पाए। कहा रहे तुम इतने दिन ?” दीनबंधु रोते जाते थे और सुदामा उनके अंक में यू छुपे जाते थे जैसे बच्चा अपनी मां के आंचल में छुपता है।
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फिर द्वारिकाधीश अपने दीन-हीन सखा को महल में लाए और अपने दिव्य सिंहासन पर बिठा दिया ।
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सुदामा जी के धूल से सने पैरों को धोने के लिए दीनानाथ ने परात का पानी छुआ तक नहीं। अपने कमल नयनों से बहती अश्रुधारा से ही अपने परम सखा के पैर धोये।
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फिर धूप दीप पुष्प इत्यादि दिव्य गंधयुक्त पूजा सामग्री से विप्रदेव की पूजा की। उन्हें नाना प्रकार के भोजन कराए। आचमन कराया।
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फिर दोनों मित्र आमने-सामने बैठ गए। रुक्मिणी जी सहित कई रानियां उन्हें पंखे झलने लगीं । तब श्रीकृष्ण ने उनकी कुशल क्षेम पूछी।
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सखा सुदामा ! भाभीश्री तो कुशल हैं ?
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हां । कुशल हैं। सानंद !
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”मित्र ! छुपाने की वृत्ति अभी नहीं गई।” कृष्ण ने मुस्कराकर कहा : ”सत्य तो यह है कि तुम तो कभी हमारा स्मरण नहीं करते। वह ये भला हो भाभीश्री का।”
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हे नाथ !” सुदामा ने हाथ जोड़ दिए : ”आप तो अन्तर्यामी हैं। यह आक्षेप क्यों लगाते हो मुझ गरीब पर कि मैंने अपने प्रभु का स्मरण नही किया अवसर मिलते ही लीला करने की वृत्ति आपकी भी नहीं गई।”
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भगवान श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हंस पड़े।
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”अच्छा यह बताओ भाभीश्री ने हमारे लिए क्या भेंट भेजी है ?” सुदामा जी परे देखने लगे। साहस भी कैसे करे उन अतुल ऐश्वर्यशाली श्रीभगवान को चावल देने का !
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”क…कुछ नहीं भेजा सखा।” सुदामा जी ने अपनी दरिद्रता बगल में कसकर दबाई।
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”और यह जो बगल में दबा है, यह क्या है ? सखा ! बालपन की बात भूल गए ?” सुदामा जी ने और भी कसकर पोटली दबा ली परंतु श्रीकृष्ण पोटली पर झपट पड़े।
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कैसा अद्भुत दृश्य था ! दीनानाथ पोटली अपनी तरफ खींच रहे थे और सुदामा जी अपने आप में सिमटे जा रहे थे।
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अंतत : पोटली का एक सिरा प्रभु के हाथ लग गया। पुराना वस्त्र था चर्र से फट गया। चावल निकले तो श्याम सुंदर ने अपना पीताम्बर शीघ्रता से फैला दिया। चावल पीताम्बर में आ गए ।
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जगत को नचाने वाले प्रसन्नता से नाच उठे और एक मुट्ठी चावल मुंह में भरकर चबाने लगे।
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”अहा ऐसा अलौकिक स्वाद तो स्वय रुक्मिणी जी के पाक व्यंजनों में भी नहीं होता।” भाव विह्वल होकर भगवान बोले :
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”सखा ! यही तो मुझे परमानंद प्रदान करने वाली भेंट है। मैं तृप्त हुआ। मेरे साथ सम्पूर्ण जगत तृप्त हुआ।
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सखा ! ऐसी परम स्वादिष्ट वस्तु मैंने आज तक नहीं खाई। न गोकुल में रहकर माखन-मिश्री में ऐसा स्वाद मिला न द्वारिका में। हां एक बार अवश्य काका विदुर के यहाँ जो भोजन किया उसमें ऐसा ही स्वाद था।”
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ऐसे ही प्रशंसनीय शब्द कहते भगवान ने दूसरी मुट्ठी भरी कि रुक्मिणी जी ने हाथ पकड़ लिया।
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”नाथ ! बस !” रुक्मिणी जी बोलीं : ”अभी संसार का ऐसा कौन-सा सुख है जो एक मुट्ठी चावल के बदले विप्रदेव को नहीं मिला ? अब दया कीजिए।” लीलाधर ने चावल छोड़ दिए और मुस्कराने लगे ।
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सुदामा जी मित्र के यहा कई दिन रहे। उन दिनों में ही सँसार के समस्त भोग पदार्थ चख लिए। जीर्ण-शीर्ण काया हृष्ट-पुष्ट हो गई ।
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”मित्र कृष्ण ! अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए। कई दिन हो गए। ब्राह्मणी चिंतित होती होगी।” सुदामा ने हाथ जोड़कर कहा।
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”अवश्य मित्र !” फिर भगवान ने उन्हें विदा कर दिया। न उन्होंने कुछ दिया और न सुदामा को कुछ मांगने की कामना रही।
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बहुत दूर तक अपने रथ में बिठाकर श्रीकृष्ण ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें भाव भीनी विदाई दी।
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सुदामा जी पैदल ही अपने घर की तरफ चले जाते थे। बार-बार कृष्ण का निश्छल और सखावत प्रेम उन्हें अंदर तक उन्मादित कर देता था। ‘वह मात्र जगतपालक ही नहीं मनुष्य रूप में सच्चा मित्र है जो इतना बड़ा राजा होकर भी एक गरीब ब्राह्मण के प्रति ऐसी निर्मल आस्था रखता है।
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ऐसा मित्र जीवन की सबसे बड़ी पूंजी है। वह साक्षात विष्णु के अवतार हैं। सुदामा सोचते जाते थे। सुदामा चलते जाते थे और हृदय में भक्तवत्सल भगवान की छवि के साथ अपने बाल सखा के अभूतपूर्व आतिथ्य से आनंदित थे।
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उन्हें इस बात की सुधि ही नहीं थी कि वह क्या उद्देश्य लेकर अपने मित्र के पास गए थे। कुछ न मिलने की कोई ग्लानि न थी। अंतत : अपने नगर के मार्ग पर आ गए।
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ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते त्यों-त्यों लगता जैसे मार्ग भटक गए हैं। उस मार्ग में पहले तो कुछ भी नहीं था। कंटीली झाड़ियां थीं परंतु अब उसी मार्ग पर नाना प्रकार के छायादार फलदार खुशबूदार पेड़-पौधे लगे थे । पुष्प लताओं की लम्बी कतार थी ।
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जगह-जगह धर्मशालाएं और शीतल जल की व्यवस्था थी। ‘अवश्य ही वे मार्ग भटककर किसी अन्य मार्ग पर आ गए हैं। अब आ गए हैं तो आगे चल कर देख भी लेते हैं कि ऐसे भव्य उद्यान जिस नगर के मार्ग में हैं वह नगर कितना भव्य है।
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कल से फिर भिक्षा मांगनी होगी तो इसी नगरी में मांगेंगे।’ ऐसा विचार कर नगर के प्रवेश द्वार पर पहुंचे तो आश्चर्यचकित रह गए। वह तो द्वारिकापुरी का ही दूसरा रूप था !
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द्वारपाल से अपनी शंका का समाधान अवश्य करना चाहिए। ”भाई ! यह कौन-सी नगरी है ?” उन्होंने पूछा। द्वारपाल ने उन्हें प्रणाम किया।
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”यह आप ही की नगरी सुदामा पुरी है महाराज ! आप इसके स्वामी हैं।” क्या लीला थी ! सुदामा हतप्रभ रह गए।
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और उस क्षण तो उन्हें ब्रह्मांड ही घूमता लगा जब सामने से अपनी पत्नी सुशीला को रानियों जैसे परिधान में कई दासियों के साथ अपनी तरफ आते देखा।
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”नाथ !” सुशीला ने उनके चरण स्पर्श किए: ”आपके मित्र बड़े दयालु हैं। मैं न कहती थी कि वे अपने बाल सखा की दशा पर द्रवित हो जाएंगे ?”
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अब समझ आया उस छलिया कन्हैया की दया का महत्त्व ! बिना मांगे ही सर्वसुख प्रदान कर दिए।
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परंतु सुदामा जी को न महल में आसक्ति थी न सुख में वह तो भक्तिभाव से अपने सखा कान्हा कृष्ण मुरारी की भक्ति में रत रहे। अंतत : ब्रह्मभाव प्राप्त करके परमधाम पहुंचे।

                       जय जय श्री राधे

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