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भगवान कृष्ण और भगवान विष्णु के मध्य अंतर

भगवान कृष्ण और भगवान विष्णु के मध्य अंतर को सरल भाषा में इस उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है । कोई उच्च पद पर आसीन व्यक्ति यदि अपने कार्यालय में जाता है तो उसे सभी आदर-सत्कारपूर्ण व्यव्हार करते हैं । और जब वही व्यक्ति घर जाता है तो उसके निकटतम परिवारजन उसके साथ साधारण व्यक्ति जैसा व्यवहार करते हैं । यहाँ तक की वह व्यक्ति अपने पुत्र या पौत्र को कंधे पर बैठाकर घुमाता है । घरेलु सम्बन्ध , कार्यालय के सम्बन्ध की तुलना में अंतरंग होता है ।

जैसे व्यक्ति एक ही है पर व्यावहारिक आदान-प्रदान अलग-अलग है । उसी प्रकार भगवान कृष्ण और भगवान विष्णु एक ही हैं परंतु वैकुण्ठ में तथा गोलोक वृंदावन में व्यावहारिक सम्बन्ध अलग अलग हैं ।
वह धाम जहाँ उनके स्वांश (विष्णु या नारायण) निवास करते हैं, वैकुण्ठ कहलाते हैं जहाँ भगवान नारायण रूप में रहते हैं | तात्विक दृष्टि से गोलोक तथा वैकुंठ में कोई अंतर नहीं है किन्तु वैकुंठ में भगवान की सेवा भक्तों द्वारा असीम ऐश्वर्य द्वारा की जाती हैं जबकि गोलोक में उनकी सेवा शुद्ध भक्तों द्वारा सहज स्नेह भाव में की जाती है |
भगवान श्री कृष्ण, विष्णु के रूप में उसी प्रकार विस्तार करते हैं जिस प्रकार एक जलता दीपक दूसरे को जलाता है | यधपि दोनों दीपक की शक्ति में कोई अंतर नहीं होता तथापि श्री कृष्ण आदि दीपक के समान हैं (ब्रह्म संहिता ५.४६) |

भगवान श्री कृष्ण अवतारी हैं, जिनके सर्व प्रथम तीन पुरुष अवतार हैं |
पहले अवतार कारणोंदकशायी विष्णु (महाविष्णु), जिनके उदर में समस्त ब्रह्माण्ड हैं तथा प्रत्येक श्वास चक्र के साथ ब्रह्माण्ड प्रकट तथा विनिष्ट होते रहते हैं |
दूसरे अवतार है; गर्भोदकशायी विष्णु – जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट करके उसमे जीवन प्रदान करते हैं तथा जिनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए |
तीसरे अवतार हैं; क्षीरोदकशायी विष्णु – जो परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में तथा सृष्टि के प्रत्येक अणु में उपस्थित होकर सृष्टि का पालन करते हैं (चै च मध्य लीला २०.२५१) |
ब्रह्माजी कहते हैं: जिनके श्वास लेने से ही अनन्त ब्रह्मांड प्रवेश करते हैं तथा पुनः बाहर निकल आते हैं, वे महाविष्णु कृष्ण के अंशरूप हैं | अतः मै गोविंद या कृष्ण की पूजा करता हूँ जो समस्त कारणों के कारण हैं (ब्रह्म संहिता ५.४८)
भगवान कृष्ण अपने स्वांश नारायण या विष्णु से श्रेष्ठ हैं क्योंकि उनमे ४ विशेष दिव्य गुण हैं: (चै च.मध्य लीला २३.८४)
१. लीला माधुर्य : उनकी अद्भुत लीलायें,
२. भक्त माधुर्य : माधुर्य-प्रेम के कार्यकलापो में सदा अपने प्रिय भक्तों से घिरा रहना (यथा गोपियाँ),
३. रूप माधुर्य : उनका अद्भुत सोन्दर्य
४. वेणु माधुर्य : उनकी बाँसुरी की अद्भुत ध्वनि |
भगवान कृष्ण लक्ष्मीजी के मन को भी आकृष्ट करते हैं | लक्ष्मीजी ने रासलीला में सम्मलित होने के लिए कठिन तपस्या की, लेकिन शामिल नहीं हो पाई क्योकि गोपियों के भाव/शरीर में ही रास लीला में प्रवेश किया जा सकता था | जब गोपियाँ रास लीला के समय कृष्ण को ढूँढ रही थी तो कृष्ण एक बगीचे में नारायण के चतुर्भुज रूप में प्रकट हो गए किन्तु वे गोपियों की प्रेमदृष्टि को आकृष्ट नहीं कर पाए, इससे कृष्ण की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है । (चै च.मध्य लीला ९.१४७-१४९)

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