श्रीरामानुज जी का जन्म सन १०१७ ई. में हुआ था । एक राजपरिवार से सम्बंधित उनके माता-पिता का नाम कान्तिमती और आसुरीकेशव था । रामानुज का बाल्यकाल उनके जन्मस्थान, श्रीपेरुम्बुदुर में ही बीता । १६ वर्ष की आयु में उनका विवाह रक्षकम्बल से हुआ । श्रीरामानुजाचार्य कांचीपुरम में रहते थे। कांचीपुरम के दक्षिण-पश्चिम में ३०० किमी दूर कावेरी तट पर पवित्र स्थल श्रीरंगम (तिरुचिरापल्ली) है। श्रीरंगम के मठाधीश प्रसिद्ध आलवन्दार संत (श्रीयामुनाचार्य) थे।
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जब श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु सन्निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य को अपने पास बुलवाया, किन्तु इनके पहुँचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु हो गयी।अश्रुपूरित नेत्रों और भावपूर्ण हृदय के साथ वहाँ पहुँचने पर रामानुज ने देखा कि श्रीयामुनाचार्य के दाहिने हाथ की तीन अंगुलियाँ मुड़ी हुई थीं। इसका कारण कोई न समझ सका।रामानुज तुरंत समझ गये कि यह संकेत मेरे लिए है ।उन्होंने जान लिया कि आलवन्दार मेरे द्वारा ब्रह्मसूत्र, विष्णुसहस्त्रनाम और दिव्यप्रबन्धम् की टीका करवाना चाहते हैं ।उन्होंने उनके मृत शरीर को प्रणाम किया और कहा -- भगवन्! आपकी आज्ञानुसार मैं इन तीनों ग्रन्थों की टीका अवश्य लिखूँगा।श्री रामानुज के यह कहते ही आलवन्दार की तीनों उँगलियाँ सीधी हो गयीं।
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वृद्धावस्था में श्री रामानुजाचार्य प्रतिदिन नदी पर स्नान करने जाया करते थे। वे जब स्नान करने जाते तो एक ब्राह्मण के कंधे का सहारा लेकर जाते और लौटते समय एक शूद्र के कंधे का सहारा लेते। वृद्धावस्था के कारण उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता है, यह बात तो सभी समझते थे किंतु आते समय ब्राह्मण का और लौटते समय शूद्र का सहारा सबकी समझ से परे था। उनसे इस विषय में प्रश्न करने का साहस भी किसी में न था। शूद्र का सहारा लेकर आएं और स्नान के बाद ब्राह्मण का सहारा लेकर जाएं तो भी बात समझ में आती है। एक दिन एक पंडित से रहा नहीं गया, उसने रामानुजाचार्य से पूछ ही लिया- प्रभु आप स्नान करने आते हैं तो ब्राह्मण का सहारा लेते हैं किंतु स्नान कर लौटते समय शूद्र आपको सहारा देता है। क्या यह नीति के विपरीत नहीं है? यह सुनकर आचार्य बोले- मैं तो शरीर और मन दोनों का स्नान करता हूं। ब्राह्मण का सहारा लेकर आता हूं और शरीर का स्नान करता हूं किंतु तब मन का स्नान नहीं होता क्योंकि उच्चता का भाव पानी से नहीं मिटता, वह तो स्नान कर शूद्र का सहारा लेने पर ही मिटता है। ऐसा करने से मेरा अहंकार धुल जाता है और सच्चे धर्म के पालन की अनुभूति होती है।
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श्रीरामानुजाचार्य ने भक्तिमार्ग का प्रचार करने के लिये सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। इन्होंने भक्तिमार्ग के समर्थन में गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य 'श्रीभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। इनके द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय का नाम भी 'श्री' सम्प्रदाय है। श्री रामानुजाचार्य १२० वर्ष की आयु तक श्रीरंगम में रहे । वृद्धावस्था में उन्होंने भगवान् श्री रंगनाथ जी से देहत्याग की अनुमति लेकर अपने शिष्यों के समक्ष अपने देहावसान के इच्छा की घोषणा कर दी । इसके तीन दिन पश्चात ही कपालभेदन करते हुए माघ शुक्ल दशमी मंगलवार 1137 ई0 में इस भौतिक जगत से वैकुण्ठ को प्रस्थान कर गए ।
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जब श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु सन्निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य को अपने पास बुलवाया, किन्तु इनके पहुँचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु हो गयी।अश्रुपूरित नेत्रों और भावपूर्ण हृदय के साथ वहाँ पहुँचने पर रामानुज ने देखा कि श्रीयामुनाचार्य के दाहिने हाथ की तीन अंगुलियाँ मुड़ी हुई थीं। इसका कारण कोई न समझ सका।रामानुज तुरंत समझ गये कि यह संकेत मेरे लिए है ।उन्होंने जान लिया कि आलवन्दार मेरे द्वारा ब्रह्मसूत्र, विष्णुसहस्त्रनाम और दिव्यप्रबन्धम् की टीका करवाना चाहते हैं ।उन्होंने उनके मृत शरीर को प्रणाम किया और कहा -- भगवन्! आपकी आज्ञानुसार मैं इन तीनों ग्रन्थों की टीका अवश्य लिखूँगा।श्री रामानुज के यह कहते ही आलवन्दार की तीनों उँगलियाँ सीधी हो गयीं।
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वृद्धावस्था में श्री रामानुजाचार्य प्रतिदिन नदी पर स्नान करने जाया करते थे। वे जब स्नान करने जाते तो एक ब्राह्मण के कंधे का सहारा लेकर जाते और लौटते समय एक शूद्र के कंधे का सहारा लेते। वृद्धावस्था के कारण उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता है, यह बात तो सभी समझते थे किंतु आते समय ब्राह्मण का और लौटते समय शूद्र का सहारा सबकी समझ से परे था। उनसे इस विषय में प्रश्न करने का साहस भी किसी में न था। शूद्र का सहारा लेकर आएं और स्नान के बाद ब्राह्मण का सहारा लेकर जाएं तो भी बात समझ में आती है। एक दिन एक पंडित से रहा नहीं गया, उसने रामानुजाचार्य से पूछ ही लिया- प्रभु आप स्नान करने आते हैं तो ब्राह्मण का सहारा लेते हैं किंतु स्नान कर लौटते समय शूद्र आपको सहारा देता है। क्या यह नीति के विपरीत नहीं है? यह सुनकर आचार्य बोले- मैं तो शरीर और मन दोनों का स्नान करता हूं। ब्राह्मण का सहारा लेकर आता हूं और शरीर का स्नान करता हूं किंतु तब मन का स्नान नहीं होता क्योंकि उच्चता का भाव पानी से नहीं मिटता, वह तो स्नान कर शूद्र का सहारा लेने पर ही मिटता है। ऐसा करने से मेरा अहंकार धुल जाता है और सच्चे धर्म के पालन की अनुभूति होती है।
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श्रीरामानुजाचार्य ने भक्तिमार्ग का प्रचार करने के लिये सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। इन्होंने भक्तिमार्ग के समर्थन में गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य 'श्रीभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। इनके द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय का नाम भी 'श्री' सम्प्रदाय है। श्री रामानुजाचार्य १२० वर्ष की आयु तक श्रीरंगम में रहे । वृद्धावस्था में उन्होंने भगवान् श्री रंगनाथ जी से देहत्याग की अनुमति लेकर अपने शिष्यों के समक्ष अपने देहावसान के इच्छा की घोषणा कर दी । इसके तीन दिन पश्चात ही कपालभेदन करते हुए माघ शुक्ल दशमी मंगलवार 1137 ई0 में इस भौतिक जगत से वैकुण्ठ को प्रस्थान कर गए ।
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