महाभारत में कथा आती है कि कौशिक नाम का एक ब्राह्मण था। वह वेद का अध्ययन करनेवाला, तपस्या का धनी, और धर्मात्मा था। एक दिन वह किसी वृक्ष के नीचे बैठकर वेदपाठ कर रहा था कि ऊपर से एक बगुली ने ब्राह्मण के ऊपर बीट कर दी। तपस्वी ने क्रोधित होकर लाल-लाल आँखों से ऊपर की ओर देखा तो वह बगुली निष्प्राण होकर भूमि पर आ गिरी। बगुली को निष्प्राण होकर पड़ी देख ब्राह्मण का ह्रदय द्रवित हो उठा। उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ। इसी पश्चात्ताप में वह भिक्षार्थ ग्राम के लिए चल दिया। एक गृह पर पहुँचकर उसने आवाज लगाई―"माता, भिक्षा दो।" भीतर से किसी स्त्री ने कहा―"महात्मन् ! ठहरिए, अभी लाई।" यह गृह-स्वामिनी थी जो उस समय झूठे बर्तन माँज रही थी। ज्योंही वह बर्तन साफ करके निवृत्त हुई त्योही क्षुधा (भूख) से पीड़ित उसके पतिदेव घर पर आ गये और वह उन्हें भोजन कराने लगी। पति को भोजन कराते हुए उसे ब्राह्मण की याद आई तो वह बहुत लज्जित हुई और ब्राह्मण के लिए भिक्षा लेकर घर से बाहर निकली।
उसे देखकर ब्राह्मण ने क्रुद्ध होकर कहा―"तुम्हारा यह व्यवहार कैसा है? तुम्हें इतना विलम्ब करना था तो 'ठहरो' कहकर मुझे रोका क्यों?" उस पतिव्रता स्त्री ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया―"द्विजश्रेष्ठ! क्षमा करें। मेरे लिए पति ही सबसे बड़े देवता हैं। वे भूखे और थके हुए घर आये थे। मैं उनकी सेवा में लग गई। उन्हें छोड़कर कैसे आती?" कौशिक ने कहा―"तूने पति को ही सबसे बड़ा बना दिया। क्या ब्राह्मण बड़े नहीं हैं? क्या तू ब्राह्मणों का प्रभाव नहीं जानती? ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी होते हैं, वे चाहें तो इस पृथिवी को भी जलाकर भस्म कर सकते हैं।" यह सुनकर स्त्री ने कहा―"तपोधन ! क्रोध मत करो। मैं वन की बगुली नहीं हूँ जो तुम्हारी क्रोधभरी दृष्टि से भस्म हो जाऊँगी। तुम इस तरह कुपित होकर मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। मैं ब्राह्मणों का अपमान नहीं करती परन्तु मेरे लिए तो सम्पूर्ण देवताओं में भी पति ही सबसे बड़े देवता हैं―
*शुश्रूषायाः फलं पश्य पत्युर्ब्राह्मण यादृशम् ।*
*बलाका हि त्वया दग्धा रोषात् तद् विदितं मया ।।*
―महा० वन० २०६/३१-३२
*अर्थात्―*_हे ब्रह्मन् ! पति-सेवा का जैसा फल है उसे प्रत्यक्ष देख लो। तुमने क्रोध करके जो एक बगुली को भस्म कर दिया था वह बात मुझे पातिव्रतधर्म से ही विदित हो गई।_
क्या स्त्रियों का पातिव्रत-योग पुरुषों के उस अष्टांग योग से कम है? नहीं, कदापि नहीं, इसीलिए तो धर्मशास्त्र के आदि उपदेष्टा *महर्षि मनु* पातिव्रत-धर्म की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहते हैं―
*नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् ।*
*पतिं शुश्रूयते येन तेन स्वर्गे महीयते ।।*
―मनु० ५/१५५
*भावार्थ―*_स्त्रियों के लिए किसी पृथक् यज्ञ, व्रत एवं उपवास की आवश्यकता नहीं है। स्त्री तो केवल पति की सेवा करने से ही मोक्ष को प्राप्त कर लेती है।
उसे देखकर ब्राह्मण ने क्रुद्ध होकर कहा―"तुम्हारा यह व्यवहार कैसा है? तुम्हें इतना विलम्ब करना था तो 'ठहरो' कहकर मुझे रोका क्यों?" उस पतिव्रता स्त्री ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया―"द्विजश्रेष्ठ! क्षमा करें। मेरे लिए पति ही सबसे बड़े देवता हैं। वे भूखे और थके हुए घर आये थे। मैं उनकी सेवा में लग गई। उन्हें छोड़कर कैसे आती?" कौशिक ने कहा―"तूने पति को ही सबसे बड़ा बना दिया। क्या ब्राह्मण बड़े नहीं हैं? क्या तू ब्राह्मणों का प्रभाव नहीं जानती? ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी होते हैं, वे चाहें तो इस पृथिवी को भी जलाकर भस्म कर सकते हैं।" यह सुनकर स्त्री ने कहा―"तपोधन ! क्रोध मत करो। मैं वन की बगुली नहीं हूँ जो तुम्हारी क्रोधभरी दृष्टि से भस्म हो जाऊँगी। तुम इस तरह कुपित होकर मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। मैं ब्राह्मणों का अपमान नहीं करती परन्तु मेरे लिए तो सम्पूर्ण देवताओं में भी पति ही सबसे बड़े देवता हैं―
*शुश्रूषायाः फलं पश्य पत्युर्ब्राह्मण यादृशम् ।*
*बलाका हि त्वया दग्धा रोषात् तद् विदितं मया ।।*
―महा० वन० २०६/३१-३२
*अर्थात्―*_हे ब्रह्मन् ! पति-सेवा का जैसा फल है उसे प्रत्यक्ष देख लो। तुमने क्रोध करके जो एक बगुली को भस्म कर दिया था वह बात मुझे पातिव्रतधर्म से ही विदित हो गई।_
क्या स्त्रियों का पातिव्रत-योग पुरुषों के उस अष्टांग योग से कम है? नहीं, कदापि नहीं, इसीलिए तो धर्मशास्त्र के आदि उपदेष्टा *महर्षि मनु* पातिव्रत-धर्म की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहते हैं―
*नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् ।*
*पतिं शुश्रूयते येन तेन स्वर्गे महीयते ।।*
―मनु० ५/१५५
*भावार्थ―*_स्त्रियों के लिए किसी पृथक् यज्ञ, व्रत एवं उपवास की आवश्यकता नहीं है। स्त्री तो केवल पति की सेवा करने से ही मोक्ष को प्राप्त कर लेती है।
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