श्रील जगन्नाथ दास बाबा जी

हरिभजन सों आयु बढ़े, जगन्नाथ ये बात दरसि।।
वृन्दावन छै मास ,छै नवदीप जु वासै ।
सिद्ध भये सब शिष्य , बिहारी दास जु खासै।।
बाबा डलिया राखि , सदा यात्रा करवावै।
इक शत पैंतालीस , वपु धरि कृपा बरसावै।।
कीर्तन सुनि उद्दाम नृत्य ,कियो न कबहुँ धन परसि।।
हरिभजन सों आयु बढे ,जगन्नाथ ये बात दरसि।।

भावार्थ : भगवान के भजन के द्वारा निश्चित ही आयु वृद्धि होती है।  इस बात को बाबा जगन्नाथ दास जी ने प्रमाणित करके दिखाया। छः महीने नवदीप एवं छः महीने वृंदावन में वास करते। बाबा जगन्नाथ दास जी महाराज के सभी शिष्य सिद्ध हुए।बाबा के एक शिष्य श्री बिहारी दास जी बृजवासी यह बाबा को डलिया में रखकर यत्र तत्र यात्रा करवाते। बाबा एक सौ सैंतालीस वर्ष तक आयु प्राप्त करके जीवो का कल्याण करते रहे। हरिनामसंकीर्तन की ध्वनि सुनते ही उद्धम नृत्य करने लगते। कभी भी धन का स्पर्श नहीं किया।

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चरित्र - बाबा जगन्नाथ दास जी महाराज का जन्म बंगाल प्रांत के किसी छोटे से ग्राम में हुआ।  बचपन से हरि नाम के प्रति सहज अनुराग रहा।  वृंदावन के शृंगार वट पावन स्थल के गोस्वामी ब्रह्मानंद जी के पिता श्री जगदानंद गोस्वामी जी को गुरु रुप में वरण किया एवं भजन मे रत हो गए।  समय आने पर मानसी गंगा गोवर्धन के प्रथम कृष्ण दास जी सिद्ध बाबा के द्वारा वेष ग्रहण किया।

बाबा छः महीने नवदीप में वास करते हुए भजन करते एवं छः महीने ब्रज वृंदावन के अनेक क्षेत्रों में घूमकर भजन करते। बाबा धन को स्पर्श कभी नहीं करते। बाबा अपने गुरुदेव के सुपुत्र श्री ब्रह्मानंद गोस्वामी जी से बहुत स्नेह करते । वृंदावन से नवदीप जाते समय उनके स्थान पर कुछ दिन रुक कर उनका संग किया करते। एक दिन साथ में बैठकर प्रसाद पा रहे थे। गोस्वामिनी माता जी परोस रही थी।  बाबा बार-बार मना करते लेकिन माताजी परोसती ही जा रही थी। बाबा समझ गए कि यह सीथ प्रसादी चाहती है। बाबा ने अब की बार जल्दी से प्रसाद पाकर केले के पत्ते को भी पा गये। जिस पर प्रसाद पा रहे थे इतनी शीघ्रता से यह कार्य किया की माता जी एवं सभी भक्तों देखते रह गए।

 बाबा चातुर्मास का नियम करते। प्रथम मास में संध्या के पश्चात चार केले खाते, द्वितीय मास में अमरूद, तृतीय मास में मट्ठा और चतुर्थ मास में बिना नमक के उबले हुए केले के फूल ग्रहण करते।  एक बार बाबा मंत्र पुरशचरण के लिए ऋषिकेश गए। उस समय प्रातः 3:00 बजे उठकर स्नान करते और दरवाजा बंद करके मौन धारण कर संध्या पर्यंत जप करते। संध्या के पश्चात हविष्यान्न ग्रहण करते। अधोवायु त्याग या लघुशंका होने पर स्नान पुनःस्नान करके जप मे बैठते। इस प्रकार दो मास बीतने पर एक दिन हठात एक वृक्ष की ओर देखते हुए बोल पड़े - बिहारी देख! देख- कितना फल आया! इस प्रकार व्रत भंग हो गया। तब बाबा ने फिर से व्रत आरंभ किया और तीन महीने में सिद्ध हो गए । बाबा कहते ठाकुर जी के इसी देह में दर्शन करना हो तो इस प्रकार पुरशचरण करना चाहिए।
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 बाबा का वैराग्य उच्च कोटि का था। बाबा धन को स्पर्श नहीं करते। इन्हें एक बार बिहारी दास बाबा कहीं ले जा रहे थे। किसी भक्त ने प्रणाम किया और बाबा को एक रुपया भेंट किया।  बाबा भोले- बिहारी दास! रुपया उठा लो। रुपया उठा कर दो -तीन मील आगे बढ़ गये। अचानक बाबा बोले-  बिहारी दास! वापस चलो वहीं जहां से रूपए उठाए थे। वापस वहां आए और उस भक्त को बुलाकर कहा -अपना रुपया वापस ले लो। सुना है तुम्हारे पास बहुत रुपए हैं। मैं एक रुपए के काटने की पीड़ा सहन नहीं कर सका। तुम इतने सारे रुपए के काटने की पीड़ा कैसे सहन करते होंगे ?  जो संत भाव राज्य में डूबे रहते हैं उन्हें पार्थिव वस्तु का यत्किंचित संकल्प विकल्प भी असहाय होता है। रुपया तो बिहारी दास जी के पास था। परंतु काट रहा था बाबा को। क्योंकि बाबा ने उसे उठा लेने की आज्ञा देकर मानसिक रूप से उसका स्पर्श किया था।
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एक बार नवद्वीप में गोपीनाथ राय द्वारा जमींदारों ने बाबा से पूछा -यहां सिद्ध बाबा कहां रहते हैं? बाबा बोले -यहां कोई सिद्ध बाबा नहीं रहते।  आप जैसा ही एक साधारण मनुष्य मैं ही रहता हूँ। वे सभी लोग एक साथ बोले--  बाबा हम जान गए, आप ही सिद्ध बाबा हैं।  हमें कुछ सिद्धई दिखाइए। बाबा बोले- भैया ! मै सिद्धई क्या जानूँ ? ऐसा कहते हुए भूमि पर सात-आठ बार लाठी पटकी। उन्होंने कहा- बाबा ये क्या कर रहे हो? बाबा ने कहा - ब्रज मे लोकनाथ गोस्वामी जी की भजन कुटी में एक बकरी तुलसी का पौधा खा रही थी उसे भगा रहा हूँ।  जो कि राधा कुंड में स्थित है। सबको परम आश्चर्य हुआ। घटना की पुष्टि के लिए उस समय ₹20 खर्च करके जवाबी तार किया।  तार से पता चला कि बकरी ने तुलसी के पौधे को चबा डाला और बकरी के कुछ बाल वहीं पड़े हैं। जो कि टूट कर गिर पड़े थे । सब ने आकर बाबा से क्षमा मांगी।
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 बाबा तो स्वरूप से ही परम सिद्ध दिखाई देते। सवा सौ वर्ष की आयु, पिंडाकार शरीर , रीढ़ की हड्डी इतनी मुड़ गई थी कि दोनों सिरे मिल गए ऐसा प्रतीत होता। नेत्रों के नीचे तक झूलती हुई पलकें, मानो जगत को न देखने के लिए पर्दा कर लिया हो, दुर्बल, निश्चल टांगे जैसे गमन -आगमन से मुक्त हो, फिर भी साधना भक्ति में अद्भुत आवेश।  साधकों को प्रेरणा देने के लिए की ऐसी उच्च स्थिति होने पर भी साधन भक्ति नहीं छोड़ी।  नित्य समस्त रात्रि जाकर हरिनाम करना, एक हज़ार प्रातः दण्डवत प्रणाम करना, नित्य पलके उठवाकर गिरधारी को तुलसी अर्पण करना, निर्जल एकादशी उपवास करना, निश्चल एवम पिण्डाकार होते हुए भी संकीर्तन में सीधे होकर उद्दाम नृत्य करते हुए चार- चार हाथ ऊपर चल पड़ते।
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 एक बार बाबा नवद्वीप में थे।  नवद्वीप में बहुत बाढ़ आ जाने से सभी अपने स्थान छोड़कर सुरक्षित स्थान पर चले गए। बाबा अपने स्थान पर ही रहे। बाबा के एक शिष्य श्री गौर हरिदास जी रोज खिचड़ी बना कर दे जाते आज बाढ़ के कारण नहीं आ पाए। पास के सदा साथ रहने वाले शिष्य बिहारी दास जी उनको बहुत तेज ज्वर हो गया। कलकत्ते से डॉक्टर बुलाया गया तो देख कर बोला - आज रात्रि शरीर छूट जाएगा। डॉक्टर ने भी यही जवाब दिया । बाबा बोले - अब इसका इलाज मैं करूंगा । ठाकुर गिरधारी जी की चरणों की तुलसी बिहारीदास जी के मुख मे दी और माला लेकर वहीं बैठ गए। बाबा बोले-  देखता हूँ किसी हिम्मत है इसको यहाँ से ले जाने की ? आधे घंटे बाद बिहारीदास जी ने आँख खोली। बाबा बोले - क्यों रे ? मुझे छोड़ कर कहाँ जा रहा था ?  मैंने 22 दिन से मुख नहीं धोया है। उठ कर रसोई बना। बिहारी दास जी बोले - बाबा!  बहुत भूख लगी है। उसी समय चीनी और सूजी का हलवा बना लाए। जल्दी से खाकर स्नान करके रसोई बना। ठाकुर को भोग लगा।बिहारीदास जी ने वैसा ही किया। बाबा का मुख धोकर प्रसाद पवाया। बाबा प्रसाद पाकर बोले- देख बिहारी! देख तेरे हाथ का खाने से मुझे भजन में स्फूर्ति होती है । और किसी के हाथ का खाने की इच्छा नहीं होती।

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बाबा की इच्छा हुई बिहारी दास जी से चैतन्यचरितामृत सुनने की। बाबा बोले -बिहारी ! तू बँंगला पढ़ना जानता है ?
नहीं !सुनकर बाबा बोले - एक चैतन्य चरितामृत खरीद ला।  बिहारीदास जी ले आए। बाबा बोले - पढ़ तो देखूँ !  बिहारी दास जी बाबा के मुख की ओर देखने लगे कि कैसे पढूँ? बाबा बोले - मेरी और नहीं ग्रंथ की तरफ देख! 
                                   
बाबा की कृपा से बिहारी दास जी को बंगला अक्षर का ज्ञान हो गया।  वह चैतन्य चरितामृत का पाठ रोज सुनाने लगे। बाबा की कृपा से खोल बजाना भी सीख लिया। बाबा जब चलने में असमर्थ हो गए तो बिहारी दास जी बाबा को एक डलिया में रखकर सिर पर ढोकर कहीं ले जाते। एक बार बाबा वृंदावन के वंशीवट के निकट काले बाबू कुंज में विराजमान थे। एक भंगी आया बाबा उससे बोले- एक रोटी दे दे ! बहुत भूख लगी है। उसने कहा - बाबा! मैं भंगी हूं। बाबा ने कहा- ऐसा नहीं कहते। बाबा की आग्रह को देखकर उसने रोटी दे दी। बाबा ने खा ली। अब पूरे वृंदावन में हल्ला मच गया। बाबा ने एक भंगी की रोटी खा ली। सभी चिंतित बाबा ऐसे करेंगे तो नए साधको पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? सभी प्रमुख वैष्णवों एकत्रित होकर बाबा से कारण पूछा।  बाबा बोले - द्वापर युग में श्री कृष्ण भगवान ने 88 हजार ऋषियों को अवतार लेने से पूर्व ब्रज में जन्म लेने को कहा था। वही ऋषि मुनियों के वंशज ये सब ब्रज के जन है। मैं किसी को भंगी नहीं जानता।  आप सब ब्रज का वास किसलिए कर रहे हैं ?

रज प्राप्ति के लक्ष्य से ? भंगी दिन- रात रज की सेवा करते हैं। रज उन्हें नहीं मिलेगी, तो क्या आप लोगों को मिलेगी, जो पलंगों पर सोते हैं।
सब चुपचाप अपने अपने स्थान पर चले गए। एक बार बाबा वृंदावन में बिहारी दास जी से बोले - बिहारी दास!  अभी नवद्वीप चलो इसी क्षण।  आज्ञाकारी बिहारी दास जी ने तुरंत बाबा को डलिया में विराजमान किया और सिर पर रख कर चल पड़े।  बाबा का वजन एक गमछे के समान लग रहा था। दिन- रात चल कर 9 दिन में नवद्वीप पहुंच गये। यह कहना तो कठिन है ये बाबा का चमत्कार था या बिहारी दास जी की गुरु भक्ति कि इतने अल्प समय में नवद्वीप पहुंच गए।
एक दिन बिहारी दास जी बाबा के लिए रसोई कर रहे थे। बाबा के दूसरे शिष्य रामहरिदास जी भी यही थे बाबा बोले - राम हरि ! लकड़ी आदि समान लेकर बिहारी दास जी की रसोई में सहायता करो । राम हरिदास जी सेवा न करके माला करने बैठ गए। बिहारी दास जी बोले - तुम भेष लेकर सिद्ध हो गए, थोड़ा जल भी लाकर नहीं दिया। राम हरिदास जी बोले - चुप, चुप । बाबा सो रहे हैं। बाबा ने सुन लिया। बाबा उठे और जलते चूल्हे से एक जलती लकड़ी उठाकर राम हरिदास जी के पेट पर लकड़ी रखते हुए बोले - बेटा ! वृंदावन मस्ती करने आया है । जल तो लाकर दिया नहीं कहता है- चुप-चुप ! जब यहां सेवा नहीं करेगा तो निकुंज में जाकर क्या करेगा ?

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एक दिन बाबा बोले - बिहारी ! मैं नवद्वीप जाऊंगा। मेरी इच्छा है कि यह देह गौर पादपद्मो में समर्पित हो ।
 बाबा को डलिया में विराजमान कर के बिहारी दास जी चल पड़े। बिना टिकट के गाड़ी में बैठे। वर्धमान के निकट मेमारि स्टेशन पर उतरे । टी टी ने टिकट ना होने के कारण बाहर निकाल दिया। वहां से सिद्ध भगवान दास जी से मिलने कालना पधारे। वहां से नवद्वीप पधारें और पेड़ के नीचे आसन लगाया। बिहारी दास जी ने केदारदत्त भक्ति विनोद ठाकुर से भिक्षा मांग कर दो झोपड़ी तैयार करवा कर भजन करने लगे। बाद में बनमाली राय बहादुर जी ने पक्की तीन कोठरी बनवा दी । 32 वर्ष तक यहाँ रह कर बाबा भजन करते रहे।

धाम गमन से 4 दिन पूर्व बाबा बिहारीदास जी से बोले- बिहारी!  तुमने मेरी बहुत सेवा की। माँग तुझे क्या चाहिए? धन लेगा या मुझे? बिहारीदास जी ने कहा- बाबा! मै धन का क्या करूंगा। मुझे तो आप चाहिए। बाबा बोले- बहुत अच्छा ! मुझे लेने से धन नहीं मिलेगा लेकिन अभाव कुछ भी नहीं रहेगा। सौ वर्ष की आयु होगी। सदा हरिनाम करना, कभी भी नाम मत भूलना। कलि तेरा कुछ नहीं कर सकेगा।  ऐसा आशीर्वाद देकर 147 वर्ष की अवस्था में बाबा नित्य निकुंज में अपने मंजरी स्वरुप का चिंतन करते हुए प्रवेश कर गये। आश्रम में एक कदम्ब का वृक्ष था। जो बाबा के जाने के बाद सूखने लगा और छाल गिरने लगे। उस वृक्ष के अंग पर ' हरे कृष्ण' नाम दिखाई देने लगा।

बाबा साधको के लिए कहते- आयु वृद्धि के लिए महादेव दो बार गस्त के लिए निकलते है। सन्ध्या से रात्रि 10:00 बजे और प्रातः 3 बजे से सूर्य उदय तक, उस समय हरिनाम जप करे। दृढ़तापूर्वक ! प्राण चले जाएं लेकिन नियम न टूटे। इस प्रकार जो निष्ठापूर्वक हरिनाम का आश्रय ग्रहण करता है। उसका भजन अवश्य सिद्ध होता है।

"हरे कृष्ण"

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