कर्तव्यपथ

एक राजा था। बहुत ही उदार, प्रजावत्सल। सभी का ख्याल रखने वाला।
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उसके राज्य में अनेक शिल्पकार थे। एक से बढ़कर एक, बेजोड़
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राजा ने उन शिल्पकारों की दुर्दशा देखी तो उनके लिए एक बाजार लगाने का प्रयास किया।
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घोषणा की कि बाजार में संध्याकाल तक जो कलाकृति अनबिकी रह जाएगी, उसको वह स्वयं खरीद लगेगा।
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राजा का आदेश, बाजार लगने लगा।
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एक दिन बाजार में एक शिल्पकार लक्ष्मी की ढेर सारी मूर्तियां लेकर पहुंचा।
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मूर्तियां बेजोड़ थीं। संध्याकालतक उस शिल्पकार की सारी की सारी मूर्तियां बिक गईं। सिवाय एक के।
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वह मूर्ति अलक्ष्मी की थी। अब भला अलक्ष्मी की मूर्ति को कौन खरीदता!
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उस मूर्ति को न तो बिकना था, न बिकी।
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संध्या समय शिल्पकार उस मूर्ति को लेकर राजा के पास पहुंचा। मंत्री राजा के पास था।
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उसने सलाह दी कि राजा उस मूर्ति को खरीदने से इनकार कर दें. अलक्ष्मी की मूर्ति देखकर लक्ष्मीजी नाराज हो सकती हैं।
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लेकिन राजा अपने वचन से बंधा था।
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‘मैंने हाट में संध्याकाल तक अनबिकी वस्तुओं को खरीदने का वचन दिया है। अपने वचन का पालन करना मेरा धर्म है।
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मैं इस मूर्ति को खरीदने से मना कर अपने धर्म से नहीं डिग सकता। और राजा ने वह मूर्ति खरीद ली।
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दिन भर के कार्यों से निवृत्त होकर राजा सोने चला तो एक स्त्री की आवाज सुनकर चौंक पड़ा।
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राजा अपने महल के दरवाजे पर पहुंचा। देखा तो एक बेशकीमती वस्त्रा, रत्नाभूषण से सुसज्जित स्त्री रो रही है।
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राजा ने रोने का कारण पूछा।
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‘मैं लक्ष्मी हूं। वर्षों से आपके राजमहल में रहती आई हूं। आज आपने अलक्ष्मी की मूर्ति लाकर मेरा अपमान किया।
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आप उसको अभी इस महल से बाहर निकालें।
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’‘देवि, मैंने वचन दिया है कि संध्याकाल तक तो भी कलाकृति अनबिकी रह जाएगी, उसको मैं खरीद लूंगा।
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उस कलाकार को मूर्ति का दाम देकर आपने अपने वचन की रक्षा कर ली है, अब तो आप इस मूर्ति को फेंक सकते हैं!’
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‘नहीं देवि, अपने राज्य के शिल्पकारों की कला का सम्मान करना भी मेरा धर्म है, मैं इस मूर्ति को नहीं फेंक सकता।’
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‘तो ठीक है, अपने अपना धर्म निभाइए। मैं जा रही हूं।’ राजा की बात सुनकर लक्ष्मी बोली और वहां से प्रस्थान कर गई।
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राजा अपने शयनकक्ष की ओर जाने के लिए मुड़ा। तभी पीछे से आहट हुई।
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राजा ने मुड़कर देखा, दुग्ध धवल वस्त्रााभूषण धारण किए एक दिव्य आकृति सामने उपस्थित थी।
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‘आप ?’ राजा ने प्रश्न किया।
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‘मैं नारायण हूं। राजन आपने मेरी पत्नी लक्ष्मी का अपमान किया है। मैं उनके बगैर नहीं रह सकता। आप अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें।’
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‘मैं अपने धर्म से बंधा हूं देव।’ राजा ने विनम्र होकर कहा।
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‘तब तो मुझे भी जाना ही होगा।’ कहकर नारायण भी वहां से जाने लगे।
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राजा फिर अपने शयनकक्ष में जाने को मुड़ा। तभी एक और दिव्य आकृति पर उसकी निगाह पड़ी। कदम ठिठक गए।‘
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आप भी इस महल को छोड़कर जाना चाहते हैं, जो चले जाइए, लेकिन मैं अपने धर्म से पीछे नहीं हट सकता।’
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यह सुनकर वह दिव्य आकृति मुस्कराई, बोली। ‘मैं तो धर्मराज हूं। मैं भला आपको छोड़कर कैसे जा सकता हूं।
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मैं तो नारायणको विदा करने आया था।
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’उसी रात राजा ने सपना देखा। सपने में नारायण और लक्ष्मी दोनों ही थे।
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हाथ जोड़कर क्षमा याचना करते हुए-‘राजन हमसे भूल हुई है, जहां धर्म है, वहीं हमारा ठिकाना है। हम वापस लौट रहे हैं।’
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और सचमुच अगली सुबह राजा जब अपने मंदिर में पहुंचा तो वहां नारायण और नारायणी दोनों ही थे।
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आप ऐसी कथाओं पर चाहें विश्वास न करें। परंतु इस तरह की कथाएं रची जाती रही हैं, ताकि मनुष्य अपने कर्तव्यपथ से, नैतिकता से बंधा रहे।...

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