श्री दामाजी पंत भगवान् श्री विट्ठल के अनन्य भक्त हुए है। महाराष्ट्र में तेरहवीं शताब्दी में भयंकर अकाल पड़ा था। अन्न के आभाव से हजारो मनुष्य तड़प तड़प कर मर गए। वृक्षों की छाल और पत्ते तक नहीं बचे थे। उन दिनों गोवल-कुंडा बेदरशाही राज्य के अंतर्गत मंगलबेड्या प्रांत का शासनभार श्री दामाजी पंत के ऊपर था।
दामाजी और उनकी धर्मपत्नी दोनों ही भगवान् पांडुरंग श्री विट्ठल के अनन्य भक्त थे। पांडुरंग के चिंतन में रात दिन उनका मन लगा रहता था। भगवान् का स्मरण करते हुए निष्काम भाव से कर्त्तव्य कर्म करना उनका व्रत था। दिन- दुखियों की हर प्रकार से वे सेवा- सहायता किया करते थे। शत्रु को भी कष्ट में पड़ा देखकर व्याकुल हो जाने वाले दामाजी पंत अपनी अकालपीड़ित प्रजा का करुण क्रंदन सहन न कर सके। राज्य भण्डार में अन्न भरा पड़ा था। दया के सम्मुख बादशाह का भय कैसा। अन्न भण्डार के ताले खोल दिए गए। भूख से व्याकुल हजारो मनुष्य, साधु ,संत ,गायें मरने से बच गए।
दामाजी के सहायक नायाब सूबेदार ने देखा कि अवसर अच्छा है,यदि दामा जी को बादशाह हटा दे तो मै प्रधान सूबेदार बन सकुंगा। उसने बादशाह को लिखकर सूचना भेजी । दामाजी पंत ने अपनी कीर्ति के लिये सरकारी अन्न- भण्डार लुच्चे लफंगों को लूटा दिया। नायाब सूबेदार का पत्र पाते ही बादशाह क्रोध से आग-बबूला हो गया। उसने सेनापति को एक हजार सैनिको के साथ दामाजी को ले आने की आज्ञा दी।
सेनापति जब मंगलबेड्या प्रांत में पहुंचा उस समय दामाजी श्री पांडुरंग की पूजा में लगे थे। सेनापति उन्हें जोर जोर से पुकारने लगा। दामाजी की धर्मपत्नी ने तेजस्विता के साथ कहा, ‘अधीर होने की आवश्यकता नहीं – जब तक उनका नियमकर्म पूरा न हो जाए, लाख प्रयत्न करने पर भी मैं किसी को उनके पास नहीं जाने दूंगी। सेनापति पतिव्रता नारी के तेज से अभिभूत हो गया। उसका अभिमान लुप्त हो गया।वह प्रतीक्षा करने लगा।
दामाजी की पूजा समाप्त हो जाने पर स्त्री ने उन्हें सेनापति के आने का समाचार दिया। दामाजी समझ गए कि अन्न लुटवाने का समाचार पाकर बादशाह ने उन्हें गिरफ्तार करने हेतु सैनिक भेजे है। भय का लेश तक उनके चित्त में नहीं था। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा भगवान् पांडुरंग का प्रत्येक विधान् दया से परिपूर्ण ही होता है। उनकी प्रसन्नता ही अभीष्ट है। दामाजी पत्नी को आश्वासन देकर बाहर आये। उनका दर्शन करते ही सेनापति का अधिकार- गर्व चला गया। दामा जी की पत्नी ने कहा- ‘नाथ! भगवान् पंढरीनाथ जो कुछ करते है उसमे हमारा हित ही होता है।उन दयामय ने आपको एकांत सेवन का अवसर दिया है।अब आप केवल उनका ही चिंतन करेंगे। मुझे तो इतना ही दुःख है कि ये दासी स्वामी की चरणसेवा से वञ्चित रहेगी। ‘
सेनापति हथकड़ी डाल कर उनको ले चले।दामाजी को न बंदी होने का दुःख है न पदच्युत होने की चिंता। बंदक होते हुए भी वे सर्वथा मुक्त है और भगवान् पांडुरंग के गुणगान में मग्न है। कीर्तन करते चले जा रहे है। गोवल-कुण्डा के मार्ग में ही पंढरपुर धाम पड़ता है। दामाजी का मन भगवान् से भेंट करने का हुआ। सेनापति ने स्वीकृति दे दी। मंदिर में प्रवेश करते ही दामाजी का शरीर रोमांचित हो गया। नेत्रों से टपाटप बूंदे गिरने लगी। शरीर की सुधि जाती रही।कुछ देर में अपने को संभाल कर वे भावमग्न होकर भगवान् की स्तुति करने लगे।
विलम्ब हो जाने से सेनापति दामाजी को पुकार रहा था। भगवान् को साष्टांग प्रणाम् कर भगवान् की सुंदर मोहिनी मूरत ह्रदय में धारण कर दामाजी बाहर आये। सेनापति उन्हें लेकर आगे बढे। इधर बादशाह दामाजी की प्रतीक्षा कर रहा था।देर हो जाने से उसका क्रोध बढ़ रहा था। इतने में एक काले रंग का किशोर हाथ में लकड़ी लिए,कंधे पर काली कम्बल डाले निर्भयतापूर्वक दरबार में चला आया। उसने जोहर करके कहा- ‘बादशाह सलामत! यह चाकर मंगलबेड्या क्षेत्र से अपने स्वामी दामाजी पंत के पास से आ रहा है।’
दामाजी का नाम सुनते ही उसने उत्तेजित होकर पूछा-‘ क्या नाम है तेरा?’ उसने कहा – मेरा नाम तो विठू है, सरकार! दामाजी के अन्न से पला मैं चमार हूं।
यह अद्भुत सुंदर रूप,यह ह्रदय को स्पर्श करती मधुर वाणी- बादशाह एकटक देख रहा था विठू को। बादशाह ने पूछा- क्यों आये हो यहाँ? उसने कहा – अपराध क्षमा हो,अकाल में आपकी प्यारी प्रजा भूखी मर रही थी तो मेरे स्वामी ने आपके अन्नभण्डार को खोल कर सब अनाज बांट दिया,मैं उसी का मूल्य देने आया हूँ। आप कृपा करके पूरा मूल्य खजाने में जमा करा ले और मुझे रसीद दिलवाने की कृपा करे।
बादशाह मन ही मन बड़ा लज्जित हुआ।पश्चाताप करने लगा – मैंने दामाजी जैसे सच्चे सेवक पर बिना-सोचे समझे बेईमानी का आरोप लगाया और उसे गिरफ्तार करने के लिए फ़ौज भेज दी। बादशाह को व्याकुल देखकर विठू ने एक छोटी थैली निकालकर सामने धर दी और बोला, सरकार मुझे देर हो रही है ।ये रुपया जमा करके मुझे शीघ्र रसीद दिलवा दे। बादशाह का दिल नहीं चाहता था कि विठू उनके सामने से एक पल के लिए भी हटे परंतु किया क्या जाए?
उन्होंने खजानजी के पास उसे भेज दिया।बेचारा खजानजी तो हैरान रह गया। वह उस छोटी से थैली से जितनी बार धन उलटता उतनी बार थैली फिर भर जाती। रसीद प्राप्तकर उसने रसीद पर बादशाह से दस्तखत और शाही मोहर ले ली। उसने कहा ,’मेरे स्वामी चिंता करते होंगे मुझे आज्ञा दीजिये।’ यह कहकर वह विठू चल दिया। यहाँ बादशाह ने दीवानजी को आज्ञा दी कि तुम शीघ्रतापूर्वक जाओ और दामाजी को आदरपूर्वक ले आओ।
इधर दामाजीपंत पंढरपुर से आगे चले आये थे। स्नान आदि करके गीता पाठ करते समय उनको एक चिट्ठी मिली जिस पर लिखा था, दामाजी पंत से अपने अन्न-भण्डार के पूरे रुपये चुकती भर पाये। उस पर शाही मोहर और बादशाह की सही थी। दामाजी को आश्चर्य हुआ लेकिन वह अपनी पूजा में लगे रहे। इधर बादशाह का सन्देश लेकर दीवानजी पहुँचे। दामाजी की हथकड़िया खोल दी गयी और उन्हें सम्मान पूर्वक सवारी पर बिठाया गया।
बादशाह की विचित्र दशा हो रही थी। विठू विठू पुकार कर पागलो जैसा करने लगा।चारो तरफ घोड़े दौड़ाये गए पर क्या इस तरह विठू मिला करता है? कहाँ है वो विठू?कहाँ चला गया?कहते कहते वह पैदल राजधानी से बाहर तक चला गया था। उसी समय दामाजी सामने से आ रहे थे।बादशाह दौड़कर उनके गले से जा लगा और बड़ी कातरता से कहने लगा, दामाजी!दामाजी! बताओ बताओ मुझ पापी को बताओ वह प्यारा विठू कहाँ है?उस सुंदर विठू के मुख को देखने के लिए मेरे प्राण निकले जा रहे है?उसको नहीं देखा तो मै मर जाऊंगा। मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं।
दामाजी तो हक्के बक्के रह गए,वे बोले -हुजूर !कौन विठू? बादशाह ने कहा दामाजी !छिपाओ मत। वही सांवरा लंगोटी पहने ,हाथ में लकुटी लिए तुम्हारे पास से रुपये लेकर आने वाला मेरा विठू कहाँ है?
दामाजी के सामने से परदा हट गया, रोते रोते वे बोले,आप धन्य है। त्रिभुवन के स्वामी ने आपको दर्शन दिए। मुझ अभागे के लिए वे सर्वेश्वर एक दरिद्र चमार बने और एक सामान्य मनुष्य से अभिवादन करने आये। हे नाथ! मैंने जिसका अन्न लुटवाया था वो मेरे प्राण लेने के अतिरिक्त और क्या कर सकता था। है दयाधाम!सर्वेश्वर ! आपने इतना कष्ट क्यों उठाया?
बादशाह को याद आया कि भगवान् ने अपने को दामाजी का सेवक बताकर अपना परिचय दिया था। जिन दामाजी की कृपा से मुझ पापी को भी सहज भगवान् के दर्शन हुए और जिन्हें स्वयं भगवान् ने अपना स्वामी कहा । निश्चित ही दामाजी कोई साधारण कोटि के महात्मा नहीं है। बादशाह ने ताज उतार कर चरणों में रख दिया। दामाजी प्रेम में उन्मत्त होकर पांडुरंग ! पांडुरंग! पुकारते मूर्छित हो गये। भक्तवत्सल भगवान् ने आकर उन्हें उठाया । उस समय बादशाह ने भी दामाजी की कृपा से श्रीभगवान् के दर्शन पाये। बादशाह भी उन सौंदर्य सागर के पुनः दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो गया।
संसार में कोई सेवक को अपना स्वामी नहीं बनाता परंतु श्री भगवान् ऐसे हैं कि वे सेवक की भक्ति पर रीझकर उसे अपना स्वामी बना लेते है।
दामाजी और उनकी धर्मपत्नी दोनों ही भगवान् पांडुरंग श्री विट्ठल के अनन्य भक्त थे। पांडुरंग के चिंतन में रात दिन उनका मन लगा रहता था। भगवान् का स्मरण करते हुए निष्काम भाव से कर्त्तव्य कर्म करना उनका व्रत था। दिन- दुखियों की हर प्रकार से वे सेवा- सहायता किया करते थे। शत्रु को भी कष्ट में पड़ा देखकर व्याकुल हो जाने वाले दामाजी पंत अपनी अकालपीड़ित प्रजा का करुण क्रंदन सहन न कर सके। राज्य भण्डार में अन्न भरा पड़ा था। दया के सम्मुख बादशाह का भय कैसा। अन्न भण्डार के ताले खोल दिए गए। भूख से व्याकुल हजारो मनुष्य, साधु ,संत ,गायें मरने से बच गए।
दामाजी के सहायक नायाब सूबेदार ने देखा कि अवसर अच्छा है,यदि दामा जी को बादशाह हटा दे तो मै प्रधान सूबेदार बन सकुंगा। उसने बादशाह को लिखकर सूचना भेजी । दामाजी पंत ने अपनी कीर्ति के लिये सरकारी अन्न- भण्डार लुच्चे लफंगों को लूटा दिया। नायाब सूबेदार का पत्र पाते ही बादशाह क्रोध से आग-बबूला हो गया। उसने सेनापति को एक हजार सैनिको के साथ दामाजी को ले आने की आज्ञा दी।
सेनापति जब मंगलबेड्या प्रांत में पहुंचा उस समय दामाजी श्री पांडुरंग की पूजा में लगे थे। सेनापति उन्हें जोर जोर से पुकारने लगा। दामाजी की धर्मपत्नी ने तेजस्विता के साथ कहा, ‘अधीर होने की आवश्यकता नहीं – जब तक उनका नियमकर्म पूरा न हो जाए, लाख प्रयत्न करने पर भी मैं किसी को उनके पास नहीं जाने दूंगी। सेनापति पतिव्रता नारी के तेज से अभिभूत हो गया। उसका अभिमान लुप्त हो गया।वह प्रतीक्षा करने लगा।
दामाजी की पूजा समाप्त हो जाने पर स्त्री ने उन्हें सेनापति के आने का समाचार दिया। दामाजी समझ गए कि अन्न लुटवाने का समाचार पाकर बादशाह ने उन्हें गिरफ्तार करने हेतु सैनिक भेजे है। भय का लेश तक उनके चित्त में नहीं था। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा भगवान् पांडुरंग का प्रत्येक विधान् दया से परिपूर्ण ही होता है। उनकी प्रसन्नता ही अभीष्ट है। दामाजी पत्नी को आश्वासन देकर बाहर आये। उनका दर्शन करते ही सेनापति का अधिकार- गर्व चला गया। दामा जी की पत्नी ने कहा- ‘नाथ! भगवान् पंढरीनाथ जो कुछ करते है उसमे हमारा हित ही होता है।उन दयामय ने आपको एकांत सेवन का अवसर दिया है।अब आप केवल उनका ही चिंतन करेंगे। मुझे तो इतना ही दुःख है कि ये दासी स्वामी की चरणसेवा से वञ्चित रहेगी। ‘
सेनापति हथकड़ी डाल कर उनको ले चले।दामाजी को न बंदी होने का दुःख है न पदच्युत होने की चिंता। बंदक होते हुए भी वे सर्वथा मुक्त है और भगवान् पांडुरंग के गुणगान में मग्न है। कीर्तन करते चले जा रहे है। गोवल-कुण्डा के मार्ग में ही पंढरपुर धाम पड़ता है। दामाजी का मन भगवान् से भेंट करने का हुआ। सेनापति ने स्वीकृति दे दी। मंदिर में प्रवेश करते ही दामाजी का शरीर रोमांचित हो गया। नेत्रों से टपाटप बूंदे गिरने लगी। शरीर की सुधि जाती रही।कुछ देर में अपने को संभाल कर वे भावमग्न होकर भगवान् की स्तुति करने लगे।
विलम्ब हो जाने से सेनापति दामाजी को पुकार रहा था। भगवान् को साष्टांग प्रणाम् कर भगवान् की सुंदर मोहिनी मूरत ह्रदय में धारण कर दामाजी बाहर आये। सेनापति उन्हें लेकर आगे बढे। इधर बादशाह दामाजी की प्रतीक्षा कर रहा था।देर हो जाने से उसका क्रोध बढ़ रहा था। इतने में एक काले रंग का किशोर हाथ में लकड़ी लिए,कंधे पर काली कम्बल डाले निर्भयतापूर्वक दरबार में चला आया। उसने जोहर करके कहा- ‘बादशाह सलामत! यह चाकर मंगलबेड्या क्षेत्र से अपने स्वामी दामाजी पंत के पास से आ रहा है।’
दामाजी का नाम सुनते ही उसने उत्तेजित होकर पूछा-‘ क्या नाम है तेरा?’ उसने कहा – मेरा नाम तो विठू है, सरकार! दामाजी के अन्न से पला मैं चमार हूं।
यह अद्भुत सुंदर रूप,यह ह्रदय को स्पर्श करती मधुर वाणी- बादशाह एकटक देख रहा था विठू को। बादशाह ने पूछा- क्यों आये हो यहाँ? उसने कहा – अपराध क्षमा हो,अकाल में आपकी प्यारी प्रजा भूखी मर रही थी तो मेरे स्वामी ने आपके अन्नभण्डार को खोल कर सब अनाज बांट दिया,मैं उसी का मूल्य देने आया हूँ। आप कृपा करके पूरा मूल्य खजाने में जमा करा ले और मुझे रसीद दिलवाने की कृपा करे।
बादशाह मन ही मन बड़ा लज्जित हुआ।पश्चाताप करने लगा – मैंने दामाजी जैसे सच्चे सेवक पर बिना-सोचे समझे बेईमानी का आरोप लगाया और उसे गिरफ्तार करने के लिए फ़ौज भेज दी। बादशाह को व्याकुल देखकर विठू ने एक छोटी थैली निकालकर सामने धर दी और बोला, सरकार मुझे देर हो रही है ।ये रुपया जमा करके मुझे शीघ्र रसीद दिलवा दे। बादशाह का दिल नहीं चाहता था कि विठू उनके सामने से एक पल के लिए भी हटे परंतु किया क्या जाए?
उन्होंने खजानजी के पास उसे भेज दिया।बेचारा खजानजी तो हैरान रह गया। वह उस छोटी से थैली से जितनी बार धन उलटता उतनी बार थैली फिर भर जाती। रसीद प्राप्तकर उसने रसीद पर बादशाह से दस्तखत और शाही मोहर ले ली। उसने कहा ,’मेरे स्वामी चिंता करते होंगे मुझे आज्ञा दीजिये।’ यह कहकर वह विठू चल दिया। यहाँ बादशाह ने दीवानजी को आज्ञा दी कि तुम शीघ्रतापूर्वक जाओ और दामाजी को आदरपूर्वक ले आओ।
इधर दामाजीपंत पंढरपुर से आगे चले आये थे। स्नान आदि करके गीता पाठ करते समय उनको एक चिट्ठी मिली जिस पर लिखा था, दामाजी पंत से अपने अन्न-भण्डार के पूरे रुपये चुकती भर पाये। उस पर शाही मोहर और बादशाह की सही थी। दामाजी को आश्चर्य हुआ लेकिन वह अपनी पूजा में लगे रहे। इधर बादशाह का सन्देश लेकर दीवानजी पहुँचे। दामाजी की हथकड़िया खोल दी गयी और उन्हें सम्मान पूर्वक सवारी पर बिठाया गया।
बादशाह की विचित्र दशा हो रही थी। विठू विठू पुकार कर पागलो जैसा करने लगा।चारो तरफ घोड़े दौड़ाये गए पर क्या इस तरह विठू मिला करता है? कहाँ है वो विठू?कहाँ चला गया?कहते कहते वह पैदल राजधानी से बाहर तक चला गया था। उसी समय दामाजी सामने से आ रहे थे।बादशाह दौड़कर उनके गले से जा लगा और बड़ी कातरता से कहने लगा, दामाजी!दामाजी! बताओ बताओ मुझ पापी को बताओ वह प्यारा विठू कहाँ है?उस सुंदर विठू के मुख को देखने के लिए मेरे प्राण निकले जा रहे है?उसको नहीं देखा तो मै मर जाऊंगा। मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं।
दामाजी तो हक्के बक्के रह गए,वे बोले -हुजूर !कौन विठू? बादशाह ने कहा दामाजी !छिपाओ मत। वही सांवरा लंगोटी पहने ,हाथ में लकुटी लिए तुम्हारे पास से रुपये लेकर आने वाला मेरा विठू कहाँ है?
दामाजी के सामने से परदा हट गया, रोते रोते वे बोले,आप धन्य है। त्रिभुवन के स्वामी ने आपको दर्शन दिए। मुझ अभागे के लिए वे सर्वेश्वर एक दरिद्र चमार बने और एक सामान्य मनुष्य से अभिवादन करने आये। हे नाथ! मैंने जिसका अन्न लुटवाया था वो मेरे प्राण लेने के अतिरिक्त और क्या कर सकता था। है दयाधाम!सर्वेश्वर ! आपने इतना कष्ट क्यों उठाया?
बादशाह को याद आया कि भगवान् ने अपने को दामाजी का सेवक बताकर अपना परिचय दिया था। जिन दामाजी की कृपा से मुझ पापी को भी सहज भगवान् के दर्शन हुए और जिन्हें स्वयं भगवान् ने अपना स्वामी कहा । निश्चित ही दामाजी कोई साधारण कोटि के महात्मा नहीं है। बादशाह ने ताज उतार कर चरणों में रख दिया। दामाजी प्रेम में उन्मत्त होकर पांडुरंग ! पांडुरंग! पुकारते मूर्छित हो गये। भक्तवत्सल भगवान् ने आकर उन्हें उठाया । उस समय बादशाह ने भी दामाजी की कृपा से श्रीभगवान् के दर्शन पाये। बादशाह भी उन सौंदर्य सागर के पुनः दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो गया।
संसार में कोई सेवक को अपना स्वामी नहीं बनाता परंतु श्री भगवान् ऐसे हैं कि वे सेवक की भक्ति पर रीझकर उसे अपना स्वामी बना लेते है।
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