कलिजुग केवल नाम अधारा, सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
कलियुग में स्वयं कृष्ण ही हरिनाम के रूप में अवतार लेते हैं। केवल हरिनाम से ही सारे जगत का उद्धार संभव है। कलियुग में केवल नामजप से ही मनुष्य की मुक्ति होती है, नाम से ही मुक्ति होती है, नाम से ही मुक्ति होती है—
कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार।
नाम हइते सर्व जगत निस्तार।। (चैतन्यचरितामृत)
जगत भगवान के अधीन है और भगवान नाम के अधीन हैं
एक बार भगवान श्रीकृष्ण भाग रहे थे और माता यशोदा उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रही थीं किन्तु श्रीकृष्ण मां के हाथ नहीं आ रहे थे। मां ने सत्ययुग, त्रेता और द्वापर के भक्तों की कसम दी पर श्रीकृष्ण नहीं ठहरे। फिर मां ने कलियुग के भक्तों की कसम दी तो श्रीकृष्ण ठहर गए। मां ने इसका कारण पूछा तो श्रीकृष्ण ने कहा—‘मुझे कलियुग के भक्त बहुत प्रिय हैं क्योंकि वे नाम के जापक हैं।’ कलियुग में तो नामजापक भक्तों की भरमार है।
कलिसंतरणोपनिषद्
कलि + संतरण + उपनिषद् अर्थात् कलियुग में संसार-समुद्र से तारने वाला ज्ञान। कृष्णयजुर्वेद के कलिसंतरणोपनिषद् के अनुसार द्वापर के अंत में नारदजी ब्रह्माजी के पास जाकर बोले—‘भगवन्! मैं पृथ्वीलोक में किस प्रकार कलि के दोषों से बच सकता हूँ।’ ब्रह्माजी ने कहा—‘भगवान आदिनारायण के नामों का उच्चारण करने से मनुष्य कलि के दोषों से बच सकता है।’ नारदजी ने पूछा—‘वह कौन-सा नाम है?’
सोलह नाम-बत्तीस अक्षर का तारकब्रह्म महामन्त्र
ब्रह्माजी ने कहा—
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। (कलिसंतरणोपनिषद्)
‘ये सोलह नाम कलियुग के पापों का नाश करने वाले हैं। इससे श्रेष्ठ उपाय किसी वेद में भी नहीं मिलता है।’
नारदजी ने पूछा—‘इसके जप की क्या विधि है?’ ब्रह्माजी ने कहा—‘इसके जपने का कोई नियम नहीं है। पवित्र हों या अपवित्र इस महामन्त्र का नियम व प्रेम से जप करने से मनुष्य सालोक्य-सामीप्य-सारूप्य और सायुज्य मुक्ति को प्राप्त करने में समर्थ होता है।’
इसे ‘तारकब्रह्म’ भी कहते हैं क्योंकि यह मन्त्र परब्रह्म का वह रूप है जिसके जपने मात्र से ही मनुष्य संसार-सागर से पार हो जाता है।
यह महामन्त्र समस्त शक्तियों से सम्पन्न है, आधि-व्याधि का नाशक है। इस महामंत्र की दीक्षा में मुहूर्त्त के विचार की आवश्यकता नहीं है। इसके जप में बाह्यपूजा की अनिवार्यता नहीं है। केवल उच्चारण करने मात्र से यह सम्पूर्ण फल देता है।
खात-सोत-बैठत-उठत जपै जो मेरो नाम।
नियत, सपदि सो तरै भव, पावै मेरौ धाम।।
गौड़ीय वैष्णव-सम्प्रदाय में महामन्त्र का स्वरूप
ऐसा माना जाता है कि क्रतुमुनि ने श्रीराधा के पिता वृषभानुजी को इस महामन्त्र का जिस रूप में उपदेश दिया था, वह इस प्रकार है—
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रीराधाभाव में विह्वल रहने वाले श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ने वृषभानुजी के सिद्धिप्रद महामन्त्र को अपनाया और संसार में सोलह नाम-बत्तीस अक्षर के तारक महामन्त्र का सर्वत्र प्रचार इस प्रकार किया—
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रीचैतन्य महाप्रभुजी के अनुयायी इस नाममन्त्र में श्रीराधाकृष्ण की युगल नाममाधुरी का रसपान करते हैं। वे ‘राम’ को कृष्णनाम और ‘हरे’ नाम को श्रीराधा के लिए (कृष्ण के मन को हर लेने वाली) के रूप में मानते हैं।
पद्मपुराण में वर्णन आता है कि जो वैष्णव नित्य बत्तीस अक्षरों तथा सोलह नामों वाले महामन्त्र का जप तथा कीर्तन करते हैं, उन्हें श्रीराधाकृष्ण के दिव्यधाम गोलोक की प्राप्ति होती है |
नामजप से प्रारब्ध का नाश
प्रारब्ध का नाश भोगने से ही होता है किन्तु भगवान के नाम में प्रारब्ध का नाश करने की अतुल शक्ति है। तुलसीदासजी ने कहा है—‘मेटत कठिन कुअंक भाल के।’
—संतजनों ने कहा है कि सादा-सात्विक भोजन व संयम के साथ इस महामन्त्र का तीन करोड़ जप करने से मनुष्य के हाथ की रेखाएं बदलने लगती हैं। जन्मपत्री के ग्रह शुद्ध होने लगते हैं। उसके शरीर में कोई भी महारोग नहीं होता है।
—इस महामन्त्र का साढ़े तीन करोड़ बार जप करने से मनुष्य ब्रह्महत्या, चोरी, पितर, देव व मनुष्यों के प्रति किए गए अपराध से मुक्त हो जाता है।
—चार करोड़ जप करने से मनुष्य का धनस्थान शुद्ध हो जाता है और वह कभी दरिद्र नहीं होता है।
—जिसने इस महामन्त्रका पांच करोड़ जप किया है उसके हृदय में ज्ञान प्रकट हो जाता है।
—छह करोड़ जप से साधक के बाह्य व आन्तरिक समस्त शत्रु नष्ट हो जाते हैं।
—सात करोड़ जप करने से आयु की वृद्धि होती है।
—आठ करोड़ जप करने से मनुष्य का मरण सुधरता है। अंत समय में भगवान उस साधक को किसी तीर्थ में बुलाते हैं और वहां वह पवित्र अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होता है।
—नौ करोड़ मन्त्रों का जप करने से साधक को स्वप्न में भगवान के दर्शन होते हैं।
—दस, ग्यारह व बारह करोड़ जप करने से संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध—तीनों कर्मों का नाश हो जाता है।
—तेरह करोड़ जप करने से भगवान का प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है। समर्थ गुरु रामदास ने गोदावरी के किनारे इस महामन्त्र का तेरह करोड़ जप किया और वहां भगवान राम प्रकट हो गये थे। नासिक में उस स्थान पर ‘काले रामजी का मन्दिर’ है।
नाम-जप से जीवन ही बदल गया
यह सत्यकथा चैतन्य महाप्रभुजी के समय की है। बंगाल के बेनापोल गांव के पास वन में हरिदास नामक के साधक रहते थे। वे प्रतिदिन तीन लाख नाम-जप किया करते थे। वहां का जमींदार रामचन्द्र खां था। उसने हरिदास को तपस्या से भ्रष्ट करने के लिए एक वेश्या को वहां भेजा। हरिदास समझ गए। उनहोंने वेश्या को प्रतीक्षा करने के लिए कहा और सारी रात नाम-जप करते रहे। सुबह होने पर हरिदास ने वेश्या से कहा—‘एक करोड़ नाम-जप एक महीने में करने का मेरा संकल्प है। आज पूरा होने की संभावना है। कल पूरा होते ही तुमसे बात करुंगा।’
दूसरी रात को भी हरिदास नाम-जप में मग्न रहे। तीन दिन तक यही क्रम चलता रहा। हरिदास के पास रहने से वेश्या का मन फिर गया, उसे अपनी भूल समझ में आ गई। प्रायश्चित करके उसने हरिनाम जप की दीक्षा ली। उसके जीवन का आदर्श बदल गया, वेष बदल गया, स्वभाव भी बदल गया, इन्द्रियों का दमन कर वह परम वैष्णव बन गई ।
जनम जनम के खत जो पुराने
नामहि लेत फटे।
नाम लेत भवसिंधु सुखाहीं,
करहु विचार सुजन मन माहीं।।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
कलियुग में स्वयं कृष्ण ही हरिनाम के रूप में अवतार लेते हैं। केवल हरिनाम से ही सारे जगत का उद्धार संभव है। कलियुग में केवल नामजप से ही मनुष्य की मुक्ति होती है, नाम से ही मुक्ति होती है, नाम से ही मुक्ति होती है—
कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार।
नाम हइते सर्व जगत निस्तार।। (चैतन्यचरितामृत)
जगत भगवान के अधीन है और भगवान नाम के अधीन हैं
एक बार भगवान श्रीकृष्ण भाग रहे थे और माता यशोदा उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रही थीं किन्तु श्रीकृष्ण मां के हाथ नहीं आ रहे थे। मां ने सत्ययुग, त्रेता और द्वापर के भक्तों की कसम दी पर श्रीकृष्ण नहीं ठहरे। फिर मां ने कलियुग के भक्तों की कसम दी तो श्रीकृष्ण ठहर गए। मां ने इसका कारण पूछा तो श्रीकृष्ण ने कहा—‘मुझे कलियुग के भक्त बहुत प्रिय हैं क्योंकि वे नाम के जापक हैं।’ कलियुग में तो नामजापक भक्तों की भरमार है।
कलिसंतरणोपनिषद्
कलि + संतरण + उपनिषद् अर्थात् कलियुग में संसार-समुद्र से तारने वाला ज्ञान। कृष्णयजुर्वेद के कलिसंतरणोपनिषद् के अनुसार द्वापर के अंत में नारदजी ब्रह्माजी के पास जाकर बोले—‘भगवन्! मैं पृथ्वीलोक में किस प्रकार कलि के दोषों से बच सकता हूँ।’ ब्रह्माजी ने कहा—‘भगवान आदिनारायण के नामों का उच्चारण करने से मनुष्य कलि के दोषों से बच सकता है।’ नारदजी ने पूछा—‘वह कौन-सा नाम है?’
सोलह नाम-बत्तीस अक्षर का तारकब्रह्म महामन्त्र
ब्रह्माजी ने कहा—
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। (कलिसंतरणोपनिषद्)
‘ये सोलह नाम कलियुग के पापों का नाश करने वाले हैं। इससे श्रेष्ठ उपाय किसी वेद में भी नहीं मिलता है।’
नारदजी ने पूछा—‘इसके जप की क्या विधि है?’ ब्रह्माजी ने कहा—‘इसके जपने का कोई नियम नहीं है। पवित्र हों या अपवित्र इस महामन्त्र का नियम व प्रेम से जप करने से मनुष्य सालोक्य-सामीप्य-सारूप्य और सायुज्य मुक्ति को प्राप्त करने में समर्थ होता है।’
इसे ‘तारकब्रह्म’ भी कहते हैं क्योंकि यह मन्त्र परब्रह्म का वह रूप है जिसके जपने मात्र से ही मनुष्य संसार-सागर से पार हो जाता है।
यह महामन्त्र समस्त शक्तियों से सम्पन्न है, आधि-व्याधि का नाशक है। इस महामंत्र की दीक्षा में मुहूर्त्त के विचार की आवश्यकता नहीं है। इसके जप में बाह्यपूजा की अनिवार्यता नहीं है। केवल उच्चारण करने मात्र से यह सम्पूर्ण फल देता है।
खात-सोत-बैठत-उठत जपै जो मेरो नाम।
नियत, सपदि सो तरै भव, पावै मेरौ धाम।।
गौड़ीय वैष्णव-सम्प्रदाय में महामन्त्र का स्वरूप
ऐसा माना जाता है कि क्रतुमुनि ने श्रीराधा के पिता वृषभानुजी को इस महामन्त्र का जिस रूप में उपदेश दिया था, वह इस प्रकार है—
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रीराधाभाव में विह्वल रहने वाले श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ने वृषभानुजी के सिद्धिप्रद महामन्त्र को अपनाया और संसार में सोलह नाम-बत्तीस अक्षर के तारक महामन्त्र का सर्वत्र प्रचार इस प्रकार किया—
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
श्रीचैतन्य महाप्रभुजी के अनुयायी इस नाममन्त्र में श्रीराधाकृष्ण की युगल नाममाधुरी का रसपान करते हैं। वे ‘राम’ को कृष्णनाम और ‘हरे’ नाम को श्रीराधा के लिए (कृष्ण के मन को हर लेने वाली) के रूप में मानते हैं।
पद्मपुराण में वर्णन आता है कि जो वैष्णव नित्य बत्तीस अक्षरों तथा सोलह नामों वाले महामन्त्र का जप तथा कीर्तन करते हैं, उन्हें श्रीराधाकृष्ण के दिव्यधाम गोलोक की प्राप्ति होती है |
नामजप से प्रारब्ध का नाश
प्रारब्ध का नाश भोगने से ही होता है किन्तु भगवान के नाम में प्रारब्ध का नाश करने की अतुल शक्ति है। तुलसीदासजी ने कहा है—‘मेटत कठिन कुअंक भाल के।’
—संतजनों ने कहा है कि सादा-सात्विक भोजन व संयम के साथ इस महामन्त्र का तीन करोड़ जप करने से मनुष्य के हाथ की रेखाएं बदलने लगती हैं। जन्मपत्री के ग्रह शुद्ध होने लगते हैं। उसके शरीर में कोई भी महारोग नहीं होता है।
—इस महामन्त्र का साढ़े तीन करोड़ बार जप करने से मनुष्य ब्रह्महत्या, चोरी, पितर, देव व मनुष्यों के प्रति किए गए अपराध से मुक्त हो जाता है।
—चार करोड़ जप करने से मनुष्य का धनस्थान शुद्ध हो जाता है और वह कभी दरिद्र नहीं होता है।
—जिसने इस महामन्त्रका पांच करोड़ जप किया है उसके हृदय में ज्ञान प्रकट हो जाता है।
—छह करोड़ जप से साधक के बाह्य व आन्तरिक समस्त शत्रु नष्ट हो जाते हैं।
—सात करोड़ जप करने से आयु की वृद्धि होती है।
—आठ करोड़ जप करने से मनुष्य का मरण सुधरता है। अंत समय में भगवान उस साधक को किसी तीर्थ में बुलाते हैं और वहां वह पवित्र अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होता है।
—नौ करोड़ मन्त्रों का जप करने से साधक को स्वप्न में भगवान के दर्शन होते हैं।
—दस, ग्यारह व बारह करोड़ जप करने से संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध—तीनों कर्मों का नाश हो जाता है।
—तेरह करोड़ जप करने से भगवान का प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है। समर्थ गुरु रामदास ने गोदावरी के किनारे इस महामन्त्र का तेरह करोड़ जप किया और वहां भगवान राम प्रकट हो गये थे। नासिक में उस स्थान पर ‘काले रामजी का मन्दिर’ है।
नाम-जप से जीवन ही बदल गया
यह सत्यकथा चैतन्य महाप्रभुजी के समय की है। बंगाल के बेनापोल गांव के पास वन में हरिदास नामक के साधक रहते थे। वे प्रतिदिन तीन लाख नाम-जप किया करते थे। वहां का जमींदार रामचन्द्र खां था। उसने हरिदास को तपस्या से भ्रष्ट करने के लिए एक वेश्या को वहां भेजा। हरिदास समझ गए। उनहोंने वेश्या को प्रतीक्षा करने के लिए कहा और सारी रात नाम-जप करते रहे। सुबह होने पर हरिदास ने वेश्या से कहा—‘एक करोड़ नाम-जप एक महीने में करने का मेरा संकल्प है। आज पूरा होने की संभावना है। कल पूरा होते ही तुमसे बात करुंगा।’
दूसरी रात को भी हरिदास नाम-जप में मग्न रहे। तीन दिन तक यही क्रम चलता रहा। हरिदास के पास रहने से वेश्या का मन फिर गया, उसे अपनी भूल समझ में आ गई। प्रायश्चित करके उसने हरिनाम जप की दीक्षा ली। उसके जीवन का आदर्श बदल गया, वेष बदल गया, स्वभाव भी बदल गया, इन्द्रियों का दमन कर वह परम वैष्णव बन गई ।
जनम जनम के खत जो पुराने
नामहि लेत फटे।
नाम लेत भवसिंधु सुखाहीं,
करहु विचार सुजन मन माहीं।।
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