रविवार, 31 दिसंबर 2017

श्री राधा रानी के एक बार नाम लेने की कीमत


एक बार एक व्यक्ति था।
वह एक संत जी के पास गया। और कहता है कि संत जी, मेरा एक बेटा है। वो न तो पूजा पाठ करता है और न ही भगवान का नाम लेता है। आप कुछ ऐसा कीजिये कि उसका मन भगवान में लग जाये।

संत जी कहते है- "ठीक है बेटा, एक दिन तू उसे मेरे पास लेकर आ जा।" अगले दिन वो व्यक्ति अपने बेटे को लेकर संत जी के पास गया। अब संत जी उसके बेटे से कहते है- "बेटा, बोल राधे राधे..."
बेटा कहता है- मैं क्यू कहूँ?

संत जी कहते है- "बेटा बोल राधे राधे..."
वो इसी तरह से मना करता रहा और अंत तक उसने यही कहा कि- "मैं क्यू कहूँ राधे राधे..."

संत जी ने कहा- जब तुम मर जाओगे और यमराज के पास जाओगे तब यमराज तुमसे पूछगे कि कभी भगवान का नाम लिया। कोई अच्छा काम किया। तब तुम कह देना की मैंने जीवन में एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम को बोला है। बस एक बार। इतना बताकर वह चले गए।
समय व्यतीत हुआ और एक दिन वो मर गया। यमराज के पास पहुंचा। यमराज ने पूछा- कभी कोई अच्छा काम किया है।
उसने कहा- हाँ महाराज, मैंने जीवन में एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम को बोला है। आप उसकी महिमा बताइये।

यमराज सोचने लगा की एक बार नाम की महिमा क्या होगी? इसका तो मुझे भी नही पता है। यम बोले- चलो इंद्र के पास वो ही बतायेगे। तो वो व्यक्ति बोला मैं ऐसे नही जाऊंगा पहले पालकी लेकर आओ उसमे बैठ कर जाऊंगा।

यमराज ने सोचा ये बड़ी मुसीबत है। फिर भी पालकी मंगवाई गई और उसे बिठाया। 4 कहार (पालकी उठाने वाले) लग गए। वो बोला यमराज जी सबसे आगे वाले कहार को हटा कर उसकी जगह आप लग जाइये। यमराज जी ने ऐसा ही किया।
फिर सब मिलकर इंद के पास पहुंचे और बोले कि एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम लेने की महिमा क्या है?
इंद्र बोले- महिमा तो बहुत है। पर क्या है ये मुझे भी नही मालूम। बोले की चलो ब्रह्मा जी को पता होगा वो ही बतायेगे।

वो व्यक्ति बोला इंद्र जी ऐसा है दूसरे कहार को हटा कर आप यमराज जी के साथ मेरी पालकी उठाइये। अब एक ओर यमराज पालकी उठा रहे है और दूसरी तरफ इंद्र लगे हुए है। पहुंचे ब्रह्मा जी के पास।

ब्रह्मा ने सोचा कि ऐसा कौन सा प्राणी ब्रह्मलोक में आ रहा है जो स्वयं इंद्र और यमराज पालकी उठा कर ला रहे है। ब्रह्मा के पास पहुंचे। सभी ने पूछा कि एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम लेने की महिमा क्या है?
ब्रह्मा जी बोले- महिमा तो बहुत है पर वास्तविकता क्या है कि ये मुझे भी नही पता। लेकिन हाँ भगवान शिव जी को जरूर पता होगा।
वो व्यक्ति बोला कि तीसरे कहार को हटाइये और उसकी जगह ब्रह्मा जी आप लग जाइये। अब क्या करते महिमा तो जाननी थी। अब पालकी के एक ओर यमराज है, दूसरी तरफ इंद्र और पीछे ब्रह्मा जी है। सब मिलकर भगवान शिव जी के पास गए और भगवान शिव से पूछा कि प्रभु 'श्री राधा रानी' के नाम की महिमा क्या है? केवल एक बार नाम लेने की महिमा आप कृपा करके बताइये।

भगवान शिव बोले कि मुझे भी नही पता। लेकिन भगवान विष्णु जी को जरूर पता होगी। वो व्यक्ति शिव जी से बोला की अब आप भी पालकी उठाने में लग जाइये। इस प्रकार ब्रह्मा, शिव, यमराज और इंद्र चारों उस व्यक्ति की पालकी उठाने में लग गए और विष्णु जी के लोक पहुंचे। विष्णु से जी पूछा कि एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम लेने की महिमा क्या है?
विष्णु जी बोले- अरे! जिसकी पालकी को स्वयं मृत्य का राजा यमराज, स्वर्ग का राजा इंद्र, ब्रह्म लोक के राजा ब्रह्मा और साक्षात भगवान शिव उठा रहे हो इससे बड़ी महिमा क्या होगी। जब सिर्फ एक बार 'श्री राधा रानी' नाम लेने के कारण, आपने इसको पालकी में उठा ही लिया है। तो अब ये मेरी गोद में बैठने का अधिकारी हो गया है।

भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कहा है की जो केवल ‘रा’ बोलते है तो मैं सब काम छोड़ कर खड़ा हो जाता हूँ। और जैसे ही कोई ‘धा’ शब्द का उच्चारण करता है तो मैं उसकी ओर दौड़ लगा कर उसे अपनी गोद में भर लेता हूँ।

अठारह पुराण


(1.) ब्रह्मपुराणः---इसे "आदिपुराण" भी का जाता है। प्राचीन माने गए सभी पुराणों में इसका उल्लेख है। इसमें श्लोकों की संख्या अलग-2 प्रमाणों से भिन्न-भिन्न है। 10,000,,,13,000 और 13,787 ये विभिन्न संख्याएँ मिलती है। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में लोमहर्षण ऋषि ने किया था। इसमें सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन, देवों और प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है। इस पुराण में विभिन्न तीर्थों का विस्तार से वर्णन है। इसमें कुल 245 अध्याय हैं। इसका एक परिशिष्ट सौर उपपुराण भी है, जिसमें उडिसा के कोणार्क मन्दिर का वर्णन है।

(2.) पद्मपुराणः----इसमें कुल 641 अध्याय और 48,000 श्लोक हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार इसमें 55,000 और ब्रह्मपुराण के अनुसार इसमें 59,000 श्लोक थे। इसमें कुल खण़्ड हैं---(क) सृष्टिखण्डः--5 पर्व, (ख) भूमिखण्ड, (ग) स्वर्गखण्ड, (घ) पातालखण्ड और (ङ) उत्तरखण्ड।
इसका प्रवचन नैमिषारण्य में सूत उग्रश्रवा ने किया था। ये लोमहर्षण के पुत्र थे। इस पुराण में अनेक विषयों के साथ विष्णुभक्ति के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है।

(3.) विष्णुपुराणः----  इसमें विष्णु को परम देवता के रूप में निरूपित किया गया है। इसमें कुल छः खण्ड हैं, 126 अध्याय, श्लोक 23,000 या 24,000 या 6,000 हैं। इस पुराण के प्रवक्ता पराशर ऋषि और श्रोता मैत्रेय हैं।

(4.) वायुपुराणः--इसमें विशेषकर शिव का वर्णन किया गया है, अतः इस कारण इसे "शिवपुराण" भी कहा जाता है। एक शिवपुराण पृथक् भी है। इसमें 112 अध्याय, 11,000 श्लोक हैं। इस पुराण का प्रचलन मगध-क्षेत्र में बहुत था। इसमें गया-माहात्म्य है। इसमें कुल चार भाग हैः---(क) प्रक्रियापादः-- (अध्याय--1-6), (ख) उपोद्घातः--- (अध्याय-7--64), (ग) अनुषङ्गपादः--(अध्याय--65--99), (घ) उपसंहारपादः--(अध्याय--100-112)। इसमें सृष्टिक्रम, भूगोल, खगोल, युगों, ऋषियों तथा तीर्थों का वर्णन एवं राजवंशों, ऋषिवंशों,, वेद की शाखाओं, संगीतशास्त्र और शिवभक्ति का विस्तृत निरूपण है।

(5.) भागवतपुराणः---यह सर्वाधिक प्रचलित पुराण है। इस पुराण का सप्ताह-वाचन-पारायण भी होता है। इसे सभी दर्शनों का सार "निगमकल्पतरोर्गलितम्" और विद्वानों का परीक्षास्थल "विद्यावतां भागवते परीक्षा" माना जाता है। इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बताया गया है। इसमें कुल 12 स्कन्ध, 335 अध्याय और 18,000 श्लोक हैं।

(6.) नारद (बृहन्नारदीय) पुराणः--इसे महापुराण भी कहा जाता है। इसमें वैष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है। इसमें 2 खण्ड हैः---(क) पूर्व खण्ड में 125 अध्याय और (ख) उत्तर-खण्ड में 82 अध्याय हैं। इसमें 18,000 श्लोक हैं। इसके विषय मोक्ष, धर्म, नक्षत्र, एवं कल्प का निरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मन्त्रसिद्धि,, वर्णाश्रम-धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है।

(7.) मार्कण्डेयपुराणः---इसे प्राचीनतम पुराण माना जाता है। इसमें इन्द्र, अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का वर्णन किया गया है। इसके प्रवक्ता मार्कण्डेय ऋषि और श्रोता क्रौष्टुकि शिष्य हैं। इसमें 138 अध्याय और 7,000 श्लोक हैं। इसमें गृहस्थ-धर्म, श्राद्ध, दिनचर्या, नित्यकर्म, व्रत, उत्सव, अनसूया की पतिव्रता-कथा, योग, दुर्गा-माहात्म्य आदि विषयों का वर्णन है।

(8.) अग्निपुराणः---इसके प्रवक्ता अग्नि और श्रोता वसिष्ठ हैं। इसी कारण इसे अग्निपुराण कहा जाता है। इसे भारतीय संस्कृति और विद्याओं का महाकोश माना जाता है। इसमें इस समय 383 अध्याय, 11,500 श्लोक हैं। इसमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राणप्रतिष्ठा आदि के अतिरिक्त भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुनविद्या, वास्तुविद्या, दिनचर्या, नीतिशास्त्र, युद्धविद्या, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोशनिर्माण आदि नाना विषयों का वर्णन है।

(9.) भविष्यपुराणः---इसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है। इसमें दो खण्ड हैः--(क) पूर्वार्धः--(अध्याय--41) तथा (ख) उत्तरार्धः--(अध्याय़--171) । इसमें कुल 15,000 श्लोक हैं । इसमें कुल 5 पर्व हैः--(क) ब्राह्मपर्व, (ख) विष्णुपर्व, (ग) शिवपर्व, (घ) सूर्यपर्व तथा (ङ) प्रतिसर्गपर्व। इसमें मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म, आचार, वर्णाश्रम-धर्म आदि विषयों का वर्णन है।

(10.) ब्रह्मवैवर्तपुराणः---यह वैष्णव पुराण है। इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है। इसमें कुल 18,000 श्लोक है और चार खण्ड हैः---(क) ब्रह्म, (ख) प्रकृति, (ग) गणेश तथा (घ) श्रीकृष्ण-जन्म।

(11.) लिङ्गपुराणः----इसमें शिव की उपासना का वर्णन है। इसमें शिव के 28 अवतारों की कथाएँ दी गईं हैं। इसमें 11,000 श्लोक और 163 अध्याय हैं। इसे पूर्व और उत्तर नाम से दो भागों में विभाजित किया गया है।

(12.) वराहपुराणः---इसमें विष्णु के वराह-अवतार का वर्णन है। पाताललोक से पृथिवी का उद्धार करके वराह ने इस पुराण का प्रवचन किया था। इसमें 24,000 श्लोक सम्प्रति केवल 11,000 और 217 अध्याय हैं।

(13.) स्कन्दपुराणः---यह पुराण शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय, सुब्रह्मण्य) के नाम पर है। यह सबसे बडा पुराण है। इसमें कुल 81,000 श्लोक हैं। इसमें दो खण्ड हैं। इसमें छः संहिताएँ हैं---सनत्कुमार, सूत, शंकर, वैष्णव, ब्राह्म तथा सौर। सूतसंहिता पर माधवाचार्य ने "तात्पर्य-दीपिका" नामक विस्तृत टीका लिखी है। इस संहिता के अन्त में दो गीताएँ भी हैं----ब्रह्मगीता (अध्याय--12) और सूतगीताः--(अध्याय 8)।
इस पुराण में सात खण्ड हैं---(क) माहेश्वर, (ख) वैष्णव, (ग) ब्रह्म, (घ) काशी, (ङ) अवन्ती, (रेवा), (च) नागर (ताप्ती) तथा (छ) प्रभास-खण्ड। काशीखण्ड में "गंगासहस्रनाम" स्तोत्र भी है।

(14.) वामनपुराणः--इसमें विष्णु के वामन-अवतार का वर्णन है। इसमें 95 अध्याय और 10,000 श्लोक हैं। इसमें चार संहिताएँ हैं----(क) माहेश्वरी, (ख) भागवती, (ग) सौरी तथा (घ) गौणेश्वरी ।

(15.) कूर्मपुराणः---इसमें विष्णु के कूर्म-अवतार का वर्णन किया गया है। इसमें चार संहिताएँ हैं---(क) ब्राह्मी, (ख) भागवती, (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी । सम्प्रति केवल ब्राह्मी-संहिता ही मिलती है। इसमें 6,000 श्लोक हैं। इसके दो भाग हैं, जिसमें 51 और 44 अध्याय हैं। इस पुराण में ईश्वरगीता और व्यासगीता भी है।

(16.) मत्स्यपुराणः---इसमें 291 अध्याय और 14,000 श्लोक हैं। प्राचीन संस्करणों में 19,000 श्लोक मिलते हैं। इसमें जलप्रलय का वर्णन हैं। इसमें कलियुग के राजाओं की सूची दी गई है।

(17.) गरुडपुराणः---यह वैष्णवपुराण है। इसके प्रवक्ता विष्णु और श्रोता गरुड हैं, गरुड ने कश्यप को सुनाया था। इसमें विष्णुपूजा का वर्णन है। इसके दो खण्ड हैं, जिसमें पूर्वखण्ड में 229 और उत्तरखण्ड में 35 अध्याय और 18,000 श्लोक हैं। इसका पूर्वखण्ड विश्वकोशात्मक माना जाता है।

(18.) ब्रह्माण्डपुराणः---इसमें 109 अध्याय तथा 12,000 श्लोक है। इसमें चार पाद हैं---(क) प्रक्रिया, (ख) अनुषङ्ग, (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार ।

शनि महिमा


नारद देवताओं के प्रभाव की चर्चा कर रहे थे. देवराज इंद्र अपने सामने दूसरों की महिमा का बखान सुनकर चिढ़ गए. वह नारद से बोले- आप मेरे सामने दूसरे देवों का बखान कर कहीं मेरा अपमान तो नहीं करना चाहते?

नारद तो नारद हैं. किसी को अगर मिर्ची लगे तो वह उसमें छौंका भी लगा दें. उन्होंने इंद्र पर कटाक्ष किया- यह आपकी भूल है. आप सम्मान चाहते हैं, तो दूसरों का सम्मान करना सीखिए. अन्यथा उपहास के पात्र बन जाएंगे.

इंद्र चिढ़ गए- मैं राजा बनाया गया हूँ तो दूसरे देवों को मेरे सामने झुकना ही पड़ेगा. मेरा प्रभाव दूसरों से अधिक है. मैं वर्षा का स्वामी हूँ. जब पानी नहीं होगा तो धरती पर अकाल पड़ जाएगा. देवता भी इसके प्रभाव से अछूते कहाँ रहेंगे.

नारद ने इंद्र को समझाया- वरुण, अग्नि, सूर्य आदि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के स्वामी हैं. सबका अपना सामर्थ्य है. आप उनसे मित्रता रखिए. बिना सहयोगियों के राजकार्य नहीं चला करता.’

‘आप शंख मंजीरा बजाने वाले राजकाज क्या जानें? मैं देवराज हूँ, मुझे किसका डर?’ इंद्र ने नारद का मजाक उड़ाया.

नारद ने कहा-‘किसी का डर हो न हो, शनि का भय आपको सताएगा. कुशलता चाहते हों तो शनिदेव से मित्रता रखें. वह यदि कुपित हो जाएं तो सब कुछ तहस−नहस कर डालते हैं.

इंद्र का अभिमान नारद को खटक गया. नारद शनि लोक गए. इंद्र से अपना पूरा वार्तालाप सुना दिया. शनिदेव को भी इंद्र का अहंकार चुभा.

शनि और इंद्र का आमना−सामना हो गया. शनि तो नम्रता से इंद्र से मिले, मगर इंद्र अपने ही अहंकार में चूर रहते थे.

इंद्र को नारद की याद आई तो अहंकार जाग उठा. शनि से बोले- सुना है आप किसी का कुछ भी अहित कर सकते हैं. लेकिन मैं आपसे नहीं डरता. मेरा आप कुछ नहीं बिगाड़ सकते.’

शनि को इंद्र की बातचीत का ढंग खटका. शनि ने कहा- मैंने कभी श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश नहीं की है, फिर भी समय आने पर देखा जाएगा कि कौन कितने पानी में है.

इंद्र तैश में आ गए- अभी दिखाइए! मैं आपका सामर्थ्य देखना चाहता हूँ. देवराज इंद्र पर आपका असर नहीं होगा.’

शनि को भी क्रोध आया. वह बोले- आप अहंकार में चूर हैं. कल आपको मेरा भय सताएगा. आप खाना पीना तक भूल जाएंगे. कल मुझसे बचकर रहें.

उस रात इंद्र को भयानक स्वप्न दिखाई दिया. विकराल दैत्य उन्हें निगल रहा था. उन्हें लगा यह शनि की करतूत है. 

वह आज मुझे चोट पहुँचाने की चेष्टा कर सकता है. क्यों न ऐसी जगह छिप जाऊं जहाँ शनि मुझे ढूँढ़ ही न सके.

इंद्र ने भिखारी का वेश बनाया और निकल गए. किसी को भनक भी न पड़ने दी. इंद्राणी को भी कुछ नहीं बताया. इंद्र को शंका भी होने लगी कि उनसे नाराज रहने वाले देवता कहीं शनि की सहायता न करने लगें. वह तरह-तरह के विचारों से बेचैन रहे.

शनि की पकड़ से बचने का ऐसा फितूर सवार हुआ कि इंद्र एक पेड़ की कोटर में जा छुपे. 

लेकिन शनि तो इंद्र को खोजने निकले ही नहीं.

 उन्होंने इंद्र पर केवल अपनी छाया भर डाल दी थी. कुछ किए बिना ही इंद्र बेचैन रहे, खाने-पीने की सुध न रही.

रात हुई तब इंद्र कोटर से निकले. इंद्र खुश हो रहे थे कि उन्होंने शनिदेव को चकमा दे दिया. अगली सुबह उनका सामना शनिदेव से हो गया. 

शनि अर्थपूर्ण मुद्रा में मुस्कराए.
इंद्र बोले-कल का पूरा समय निकल गया और आप मेरा बाल भी बांका नहीं कर सके. अब तो कोई संदेह नहीं है कि मेरी शक्ति आपसे अधिक है? नारद जैसे लोगों ने बेवजह आपको सर चढ़ा रखा है.

शनि ठठाकर हँसे- मैंने कहा था कि कल आप खाना−पीना भूल जाएंगे. वही हुआ. मेरे भय से बिना खाए-पीए पेड़ की कोटर में छिपना पड़ा.

 यह मेरी छाया का प्रभाव था जो मैंने आप पर डाली थी. जब मेरी छाया ने ही इतना भय दिया, यदि मैं प्रत्यक्ष कुपित हो जाऊं तो क्या होगा?

इंद्र का गर्व चूर चूर हो गया. उन्होंने शनिदेव से क्षमा मांगी.

                    जय शनिदेव

युद्ध मे एक बार प्रभुश्रीराम और दो बार लक्ष्मण को हराने वाले,रावण पुत्र मेघनाद की कथा।



वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के अनुसार जब मेघनाद का जन्म हुआ तो वह समान्य शिशुओं की तरह रोया नहीं था बल्कि उसके मुंह से बिजली की कड़कने की आवाज सुनाई दी थी।यही कारण था की रावण ने अपने इस पुत्र का नाम मेघनाद  रखा।जब मेघनाथ युवा अवस्था में पहुंचा तो उसने कठिन तपश्या के बल पर संसार के तीन सबसे घातक अस्त्र ( ब्र्ह्मास्त्र, पशुपति अस्त्र और वैष्णव अस्त्र ) प्राप्त कर लिया था।

मेघनाद ने एक बार देवराज इंद्र के साथ युद्ध लड़ कर उन्हें बंदी बना लिया व अपने रथ के पीछे बांध दिया था. तब स्वयं ब्र्ह्मा जी को इंद्र की रक्षा के लिए प्रकट होना पड़ा तथा उन्होंने मेघनाद से इंद्र को छोड़ने के लिए कहा। ब्र्ह्मा जी की आज्ञा सुन मेघनाद ने इंद्र को बंधन-मुक्त कर दिया।

ब्र्ह्मा जी ने मेघनाद से प्रसन्न होकर उससे वर मांगने को कहा, इस पर मेघनाद ने ब्र्ह्मा से अमरता का वर मांगा जिस को देने के लिए ब्र्ह्मा जी ने अपनी असमर्थता जताई. परन्तु ब्र्ह्मा ने उसे उसके समान ही वर जरूर दिया. अपनी कुल देवी प्रत्यांगीरा के यज्ञ के दौरान मेघनाद को स्वयं त्रिदेव नहीं हरा सकते और नहीं मार सकते थे।

ब्रह्म देव ने ही मेघनाद को इंद्रजीत की उपाधि दी थी. साथ ही तब से इंद्रजीत सिर्फ महारथी ही नहीं अतिमहारथी भी हो गया था. इंद्रजीत का विवाह नागकणः से हुआ था जो पाताल के राजा शेषनाग की पुत्र थी. रामयाण के युद्ध में कुम्भकर्ण के वध के बाद मेघनाद ने इंद्रजीत ने भाग लिया।

पहले दिन के युद्ध में उतरते ही इंद्रजीत  ने सुग्रीव की पूरी सेना को हिला डाला. लक्ष्मण इंद्रजीत के सामने युद्ध को आये परन्तु वे भी अधिक समय तक टिक न सके, लक्ष्मण को कमजोर पड़ता देख राम भी इंद्रजीत के साथ युद्ध में उतरे परन्तु उसके मायावी शक्ति के आगे बेबस थे।

दरअसल युद्ध पे आने से पूर्व मेघनाद ने अपनी कुल देवी का यज्ञ शुरू करवाया था जिसके प्रभाव से वो और उसका रथ अदृश्य हो जाता था. मेघनाद ने अपनी मायावी शक्ति के प्रभाव से राम और लक्ष्मण दोनों को भ्रमित कर दिया तथा मौका पाकर उन पर नागपश का प्रयोग किया जिसके प्रभाव से दोनों मूर्छित होकर गिर पड़े।

नागपाश से मूर्छित व्यक्ति अगले दिन का सूरज नहीं देख सकता था. परन्तु हनुमान जी नागपाश से अपने प्रभु राम व लक्ष्मण को मुक्त करने लिए वैकुंठ लोग गए तथा वहां से नागो के शत्रु गरुड़ को लेकर आये. गरुड़ को देख नाग भयभीत हो गए तथा उन्होंने राम तथा लक्ष्मण को मुक्त कर दिया तथा उनकी मूर्छा टूटी।

अगले दिन लक्ष्मण ने मेघनाद  का सामना फिर से किया तथा दोनों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ. तभी मेघनाद के शरीर में लक्ष्मण का एक तीर छू जाने से वह क्रोधित हो तथा उसने लक्ष्मण पर शक्ति बाण छोड़ दिया. शक्ति बाण लगते ही लक्ष्मण जी मूर्छित हो पड़े।

तब लक्ष्मण के प्राण को बचाने के लिए हनुमान जी लंका से वैद्य को उसके घर ही समेत उठाए लाये. वैद्य ने हनुमान को उपाय बताते हुए संजीवनी बूटी लाने के लिए कहा तब हनुमान जी सारा दोरनांचल पर्वत उखाड़ कर ले आये।

लेकिन तीसरे दिन विभीषण के कहने पर लक्ष्मण वहां जा पहुंचे जहां मेघनाद  यज्ञ कुल देवी का यज्ञ करवा रहा था. यज्ञ में कुलदेवी की पूजा करते समय हथियार उठने की मनाही थी परतु फिर भी वहां रखे यज्ञ पात्रो की सहायता से मेघनाद लक्ष्मण से बचते हुए सकुशल लंका पहुंच गया।

मेघनाद (शुरू से ही जानता था की प्रभु श्री राम नारायण के अवतार है और उनके छोटे भाई शेषनाग के, उसने अपने पिता रावण को अनेको बार समझाया भी की उन्हें प्रभु राम से शत्रुता मोल लेनी नहीं चाहिए. परन्तु रावण के अहंकार एवं मेघनाद के पिता होने के कारण मेघनाद का रावण की आज्ञा का पालन करना उसका परम कर्तव्य था।

अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए एक बार वह फिर से लक्ष्मण के साथ युद्ध करने गया परतु इस बार मेघनाद  जानता था वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त होगा अतः युद्ध से पूर्व वह अपने सभी परजिनों से मिल कर गया।

युद्ध के दौरान उसने सारे प्रयत्न किए लेकिन वह विफल रहा. इसी युद्ध में लक्ष्मण के घातक बाणों से मेघनाद मारा गया. लक्ष्मण जी ने मेघनाद  का सिर उसके शरीर से अलग कर दिया।

उसका सिर श्रीराम के आगे रखा गया. उसे वानर और रीछ देखने लगे. तब श्रीराम ने कहा, 'इसके सिर को संभाल कर रखो. दरअसल, श्रीराम मेघनाद की मृत्यु की सूचना मेघनाद की पत्नी सुलोचना को देना चाहते थे। उन्होंने मेघनाद की एक भुजा को, बाण के द्वारा मेघनाद के महल में पहुंचा दिया।

वह भुजा जब मेघनाद की पत्नी सुलोचना ने देखी तो उसे विश्वास नहीं हुआ कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है. उसने भुजा से कहा अगर तुम वास्तव में मेघनाद की भुजा हो तो मेरी दुविधा को लिखकर दूर करो।

मेघनाद की पत्नी सुलोचना के ये कहते ही भुजा हिलने लगी| यह देख सभी हैरान हो गए| दासी से कलम मंगवाई और भुजा ने लक्ष्मण के गुणगान में कुछ शब्द लिखे| ऐसा देख कर सुलोचना को विश्वास हो गया कि उसके पति की मृत्यु हो गयी है और वह विलाप करने लगी|

फिर सुलोचना ने सती होने का मन बनाया और रावण के पास मेघनाद की भुजा लेकर पहुंची| उसने रावण को सारी कहानी बताई और मेघनाथ का शीश माँगा| पूरा परिवार मेघनाथ की मृत्यु के शोक में था तभी रावण ने सुलोचना से कहा की तुम कुछ क्षण इंतज़ार करो ताकि मैं मेघनाथ के शीश के साथ-साथ शत्रु का शीश भी ले आऊँ|

परन्तु सुलोचना को अपने ससुर पर विश्वास नहीं था इसलिए, मंदोदरी के कहने पर कि श्री राम ही तुम्हारी मदद करेंगे, वह श्री राम के पास चली गयी| तब विभीषण ने उसका परिचय श्री राम को कराया| सुलोचना श्रीराम के सामने अपने पति की मृत्यु का विलाप करने लगी और कहा, ‘हे राम मैं आपकी शरण में आई हूं। मेरे पति का सिर मुझे लौटा दें ताकि में सती हो सकूं|’

श्रीराम सुलोचना को रोता हुआ नहीं देख पाए और कहा कि मैं तुम्हरे पति को पुनः जीवित कर देता हूँ| परन्तु सुलोचना ने मना करते हुए ये कहा, ‘मैं नहीं चाहती कि मेरे पति जीवित होकर संसार के कष्टों को भोगें। मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि मुझे आपके दर्शन हो गए। मेरा जन्म सार्थक हो गया। अब जीने की कोई इच्छा नहीं रही।’

श्रीराम के कहने पर वानर-राज सुग्रीव मेघनाद का सिर ले आए| लेकिन उनका मन नहीं माना कि मेघनाद की कटी हुई भुजा ने लक्ष्मण जी के गुणगान में शब्द लिखे हैं| उन्होंने कहा कि वह सुलोचना की बात को तभी सच मानेंगे जब मेघनाद का कटा हुआ सिर हंसेगा|

सुलोचना के लिए यह बहुत बड़ी परीक्षा थी| उसने कटे हुए सिर से कहा, ‘हे स्वामी! जल्दी हंसिए, वरना आपके हाथ ने जो लिखा है, उसे ये सब सत्य नहीं मानेंगे।’ इतना सुनते ही इंद्रजीत का सिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा|

आदिराज पृथु



भगवान विष्णु के एक अवतार का नाम आदिराज पृथु है। धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वायम्भुव मनु के वंश में अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसिक पुत्री सुनीथा के साथ हुआ। उनके यहां वेन नामक पुत्र हुआ। उसने भगवान को मानने से इंकार कर दिया और स्वयं की पूजा करने के लिए कहा।

तब महर्षियों ने मंत्र पूत कुशों से उसका वध कर दिया। तब महर्षियों ने पुत्रहीन राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिससे पृथु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। पृथु के दाहिने हाथ में चक्र और चरणों में कमल का चिह्न देखकर ऋषियों ने बताया कि पृथु के वेष में स्वयं श्रीहरि का अंश अवतरित हुआ है।

शास्त्रीय वाक्य

शास्त्रीय वाक्य तीन प्रकार के होते है-- १-रोचक, २-भयानक, ३-यथार्थ।
१ रोचकवाक्य--पुरुषों को धर्म में प्रवृत्ति कराने के लिए जो रुचिकर वाक्य कहे जाते हैं, वे रोचकवाक्य हैं।वैदिक प्रक्रिया में इन्हें विधि के प्रशंसक अर्थवाद कहा जाता है।जैसे----
 "गवां मंडूका ददत् शतानि--मेंढकों ने सौ गायें दान दिया।
   वनस्पतयः सत्रमासत--वनस्पतियों ने यज्ञ किया।।
   सर्पा:सत्रमासत--सर्पों ने यज्ञ किया।।
    जरद्गवो गायति मद्रकाणि--बृद्ध नीलगाय ने सामवेद का गान किया।"
इत्यादि वाक्यों का तात्पर्य केवल इतना ही है कि गोदान अवश्य करना चाहिए।जब वनस्पति या सर्प भी यज्ञ कर सकते हैं, तो मानव को अवश्य ही करना चाहिए। जब नीलगाय जैसा पशु गान कर सकता है, तो मनुष्य को अवश्य ही सामगान करना चाहिए,"
        यदि कोई इनकी अर्थवादता(रोचकता)को न समझकर वास्तवमें सर्पादि द्वारा यज्ञादि समझकर, प्रत्यक्ष में असंभव देखकर वेदोंमें  आक्षेप करे तो वह मूर्ख ही कहा जा सकता है।आजकल ऐसे लोगों की भरमार है।
      इसी प्रकार पुराणों में भी  अनेक स्थलोंमें  शुभ कार्यों में  प्रीति उत्पन करने के लिए इसी रोचक विधि का आश्रयण किया गया है।जैसे---
      पूजयित्वा रविं भक्त्या ब्रह्मा ब्रह्मत्वमागतः।
       विष्णुत्वं चापि देवेशो विष्णुराप तदर्चनात्।(भविष्य.ब्राह.१७४-०१)
अर्थ-सूर्यकी पूजा करने से ही ब्रह्मा जी ब्राह्मणत्व प्राप्त किये हैं।विष्णु को विष्णुत्व, तथा शिव जी को शिवत्व प्राप्त हुआ है।
        यावत्पदं नारो भक्त्या गच्छेत् विष्णुप्रदक्षिणे।
        तावत्कल्पसहस्राणि विष्णुना सह मोदते।।(पद्म. पु.७-११-५२)।
अर्थ--जितने पग व्यक्ति विष्णु की प्रदक्षिणा में चलता है, उतानी कल्प पर्यंत विष्णुके साथ आनन्द करता है।।
      इत्यादि वचन भी सूर्योपासना, विष्णु प्रदक्षिणा, आदि की प्रसंसार्थ ही हैं।इनके माध्यम से सूर्यपूजादि में अभिरुचि बढ़ाने का प्रयत्न किया गया है।अब इनको यथाश्रुत अर्थ लेकर कोई इनबातों पर आक्षेप करे, तो दोषी आक्षेपक ही होगा।  समाजियों ने ऐसे ऐसे वचनों को उद्धृत कर कर के बहुत कीचड़ उछाला है।

२ भयानकवाक्य--अधर्माचरण में लगे हुए व्यक्तियों को अधर्म से हटाने के लिए जो कठोर निन्दापरक वाक्य कहे गये हैं, वे भयानकवाक्य हैं।ये भी अर्थवादके अन्तर्गत आते हैं। इनका साक्षात् रूपमें कोई अर्थ नहीं होता ,वल्कि  निंदनीय की निन्दाकरके ,उससे हटाने में ही सार्थक होते हैं। ऐसे वाक्य वेदों व इतिहास पुराणादि में भी बहुत हैं।
      ईशावास्योपनिषद् में आया है--"
अन्धं तमः प्रविशन्ति येसम्भूतिमुपासते"(शुक्ल.यजु.४०-९)--जो लोग असंभूति (प्राकृत मायिक)की उपासना करते हैं, वे अंध तमस् में प्रवेश करते हैं।
      एतानि अविदित्वा योधीते ...प्रवामीयते(कात्यायन अनुक्रमणिका-१-१)--जो मनुष्य मंत्रों के ऋषि, देवता, छंद, आदि को न जानता हुआ  वेदाध्ययन करता है, वह मर जाता है।।
      इन दोनों मंत्रों में इस बात पर जोर डाला गया है कि-माया से अवश्य ही निवृत्त होजाना चाहिए।
     वेदाध्ययन करने वाले को ऋषि छंद  देवता का ज्ञान अवश्य होना चाहिए, तभी मंत्रों का समुचित विनियोग आदि संभव होता है।
      इन मंत्रों का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि--मायोपासक किसी अंधी खाई में गिरादिये जाते हों ,, देवतादि न जानने वाले की मृत्यु ही होजाती है।।
       यहां केवल इतना अर्थ ही निकलता है कि--देवतादि को न जानकर वेदाध्ययन करने से #प्रत्यवाय होता है।अतः अवश्य ही जानना चाहिए।।इन वाक्यों में भय दिखाकर  पाप से बचने के लिए जोर दिया गया है, इस लिए ऐसे वाक्य भयानकवाक्य हैं।
      पुराणों या स्मृतियों में भी ऐसे ही अनेक स्थलों में निन्दावचन आये हैं।---
      यः पुनः कृष्णवस्त्रेण मम कर्म परायणः।
      घुणो वै पंचवर्षाणि लाजावास्तुसमाश्रयः।।(बा.पु.१३५-१५-१६)--जो काले रंग का वस्त्र पहन कर मेरे(ईश्वर के )पूजनादि कर्मों को करता है, वह पाँच वर्ष पर्यंत धान की भुनी हुई खीलों में घुण का कीड़ा बनकर रहता है।
       गत्वा च तोषितं श्राद्धे यो भुङ्क्ते यश्च गच्छति ।
      रेतोमूत्रकृताहारास्तं मासं पितरस्तयो:।।ब्रह्म.पु.२२०- १०८)--जो पुरुष स्त्री संग करके भोजन करता या कराता है, तथा भोजन करके स्त्री संग करता है, उन दोनों के पितर उस महीने वीर्य मूत्र आदि खाते हैं।।
        इन श्लोकों के साक्षात्  अर्थ के अनुसार  कोई ईश्वरं की पूजा करने वाला मात्र एक गलती से घुण कीड़ा बन जाता है, अथावा कोई श्राद्ध कर्ता पुत्रादि के स्त्रीसंगरूप  पाप से पितरों को घृणित वस्तु खाने को मिलती है, ऐसा कठोर दंड भोगना पड़ता है,"ऐसा पुरणोंका अभिप्राय कदापि नहीं है।वल्कि अभिप्राय इतना ही है कि--शुभकार्योंमें_काले_वस्त्र_पहनना_उचित_नहीं_होता। और श्राद्धादि कर्मों को करते समय ब्रह्मचर्यका_पालन_न_करना_महा_पाप_है।
      इसी प्रकार मनु आदि स्मृतियों में  भी ऐसे ही --"कान में शीशा डाला देना चाहिए", इत्यादि वचन हैं। जिनका तात्पर्य  कान में पिघलाकर शीशा डालने में कदापि नहीं है।वल्कि अनाधिकारी द्वारा वेद श्रवण के निषेध में ही है।।

मासिकधर्म के विधि- विधान :


मासिक धर्म (माहवारी/पीरियड) के काल में जीर्ण-शीर्ण ( फटे- पुराने)  वस्त्र पहन कर  गोशाला में एकान्तवास करना - ये हिन्दू धर्म की महिलाओं का पिछड़ापन नहीं वरन् गौरव है , क्योंकि ऐसा करके वह त्रिरात्रव्रत का पालन करती हैं और फिर  चौथे दिन आप्लवन  स्नान करके   बिना फटे हुए शोभित नूतन वस्त्र  पहनती हैं ।

इस विशेष व्रत के पालनकाल में स्त्री ना ही अलंकरण करती है , ना ही स्नान करती है , ना ही दिन में सोती है , ना ही दन्तधावन करती है , ना ही ग्रहादि का निरीक्षण करती है , ना हंसती है , ना ही कुछ आचरण करती है , ना ही अंजलि से जल पीती है  ना ही लोहे या कॉसे  के पात्र में भोजन करती है । वह सनातनधर्मिणी नारी   गोशाला में  भूमि पर शयन कर इस महान् व्रत को सम्यक्  परिपालन कर आत्मसंयम का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत कर  आत्मशोधन  करती हुई  देवताओं को आनन्दित करती है ।

पाश्चात्यमुखी,  धर्ममूढ़,  अज्ञानी असुरों व विधर्मियों ने   हिन्दू महिलाओं के इस महान् व्रत को  हिन्दुओं का पिछड़ापन बताकर   हिन्दू मर्यादाओं  को तहस नहस करने का भारी प्रयास किया और कर रहे हैं ।

 वस्तुतः स्त्रियों के  रजस्वला होने से पूर्वकाल में देवराज इन्द्र की विभाजित ब्रह्महत्या का इतिहास जुड़ा है ,  हिन्दू धर्म के विद्वान् मनीषी जानते हैं कि  उस दैवीय  विभाजन का ही एक भाग  स्त्रीजाति को भी प्राप्त हुआ था  , इस व्रत से उसी  ब्रह्महत्या-दोष का उपशमन होता है ।

प्राणी_स्वकृत_कर्म_का_ही_भोग_करता_है - इस दार्शनिक  सिद्धान्त  से स्पष्ट है कि  वस्तुतः रजोधर्मप्रधान स्त्री देह के माध्यम से जीव वस्तुतः अपने ही पूर्वकृत  ब्रह्महनन दोष का ही  उपशमन करता है । इसीलिये गीतोक्त  पापयोनयः विशेषण  का भाष्य  पापजन्मानः भगवान् भाष्यकार ने किया है ।

मात्र ब्राह्मण की हत्या ही  ब्रह्महत्या नहीं होती वरन् ब्राह्मण का अपमान भी ब्रह्महत्या ही होती है,  क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान उन पर मृत्युदण्ड प्रहार ही होता है ।   इसीप्रकार,  शास्त्र का विकृतिकरण भी ब्रह्महत्या ही है । अतः सदैव  शास्त्रवचनों का अनर्थ , उनमें मनमानी व  कुतर्कों  के महान् पाप करने से बचना चाहिये ।

जो स्त्री रजस्वलावस्था में त्रिरात्रव्रत रूप धर्म का परिपालन नहीं करती , वह मृत्यु के अनन्तर नरकगामिनी होती है क्योंकि अनुपशमित पाप अंकुरित बीज की भॉति बढता हुआ दुख रूप महान् फलों को पैदा करता है । हमारे महान्  क्रान्तदर्शी तपोनिष्ठ ऋषि-मुनिजन   ये सनातन  रहस्य जानते थे , इसीलिये उन्होंने  इसका आचार -प्रचार किया था ।

 वेदों के ये विधि- निषेध  मानव के  ही कल्याण के साधन होते हैं , किन्तु घोर  अज्ञान में डूबे होने व  घोर कुसंगति  के कारण उन  दुर्भागी  मानवों  को  ये  वैदिक विधान बोझ लगते हैं, जिनको धर्मपालन, ईश्वरभक्ति   व आत्मकल्याण से कोई लेना -देना नहीं ,केवल पशुओं  की तरह अन्धभोगमय जीवन यापन कर चौरासीलाख योनियों के चक्रव्यूह  में ही भटकते जाना है ।

।। जय श्री राम  ।।

भक्तराज नरसिंह जी

नरसिंह भक्त, जो जन्म से ही गूंगे थे, का जन्म 15 वीं शताब्दी के संवत 1470 में तलाजा नामक गाँव जो जिला जूनागढ़, सौराष्ट्र में स्थित है के एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता का नाम श्री कृष्ण दामोदर दास, माँ का नाम लक्ष्मीगौरी था, जो नरसिंह भक्त को 5 वर्ष की अवस्था में छोड़ कर स्वर्ग सिधार गए थे। अतः इनका पालन पोषण इनकी दादी, जयकुंवरि और इनके ज्येष्ठ भ्राता, वंशीधर की देखरेख में हुआ। दादी के सानिध्य में बालक को धार्मिक संस्कार संतों महात्माओं की सेवा का पूरा-पूरा लाभ मिला।

जब नरसिंह भक्त 8 वर्ष के हुए तो दादी ने फागुन शुक्ल पंचमी के दिन जूनागढ़ के ही हाटकेश्वर महादेव मंदिर में जाकर हमेशा की तरह नरसिंह के साथ दर्शन किये और दर्शन के बाद जब लौट रही थीं तो उनकी निगाह एक महात्मा पर पड़ी, जो मंदिर के ही एक कोने में आसन बिछाकर पद्मासन में नारायण-नारायण का जप कर रहे थे। जयकुंवरी अपने नाती संग महात्मा के निकट जाकर चरण वंदना कर अपने नाती के आज दिन तक ना बोलने के विषय में प्रार्थना करते हुए नम्रता से निवेदन करती है कि आपकी कृपा हो जाये तो यह बोलने लग जाये। महात्मा का चेहरा दैवीय शक्ति संपन्न तेज से जगमगा रहा था, उन्होंने बालक को अपनी गोदी में बिठाया और उसके कान में कहा- “बच्चा! कहो “राधेकृष्ण-राधेकृष्ण।” चमत्कार हो गया भगवान की कृपा से बच्चा राधेकृष्ण-राधेकृष्ण बोलने लगा।

नरसिंह के भाई वंशीधर जो दरोगा के पद पर थे,नरसिंह को लालन पालन के साथ-साथ शिक्षा के लिए भी प्रेरित कर रहे थे और एक संस्कृत पाठशाला में दाखिल भी करा दिया था। लेकिन नरसिंह का मन तो राधेकृष्ण भक्ति की और आकृष्ट हो चुका था, निरंतर उन्ही का जाप करते और श्री शंकर भगवान में भी श्रद्धा होने से वे मन्दिर में जाकर बहुत श्रद्धा व प्रेम के साथ उमा-महेश्वर के गुणगान करते व भोलेनाथ की पूजा-अर्चना करते। द्वारिका आने जाने वाले संत जब गाँव में आते और ठहरते, तो नरसिंह उनकी यथोचित सेवा करते व उनके उपदेश सुनते। नरसिंह के भाई वंशीधर तो ज्यादा कुछ नहीं कहते थे, पर उनकी पत्नी (दुरितगौरी) नरसिंह को बड़ी प्रतारणा देती थी, पर नरसिंह पर तो भक्ति का ऐसा रंग चढ़ चुका था कि भाभी की जली कटी, डांट, निंदा, प्रतारणा सब भगवत्प्रेम के ऊपर वार दिया करते थे।

गृहस्थ जीवन (Marital Life)
जब से नरसिंह की वाणी खुली, तभी से शीघ्रातिशीघ्र दादी उनका विवाह कराने के लिए चिंतित थीं। 9 वर्ष की आयु में ही उन्होंने नरसिंह का विवाह 7 वर्षीया सरूपवती और सुलक्षणा मणिकगौरी के साथ कर दिया। 16 वर्ष की अवस्था में नरसिंह की पत्नी माणिकगौरी को एक पुत्री कुंवरबाई व दो वर्ष बाद एक पुत्र शामलदास की प्राप्ति हुई।

भगवत प्राप्ति (Divine Achievement Of The Lord)
lord shivaएक दिन भाभी के उलाहनो से तंग आकर नरसिंह घर से निकल गए व शिवमंदिर में जा कर 7 दिन तक तक बिना खाए पिये भगवान शंकर की आराधना करने लगे, उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर सातवें दिन भोले बाबा ने भक्तराज नरसिंह से वर मांगने को कहा।

भक्तराज नरसिंह ने बड़ी विनम्रता से कहा- “मुझे किसी वरदान की जरूरत नहीं पर आपकी आज्ञा है तो आप मुझे वरदान में वो दो, जो आपको अत्यंत प्रिय हो।”

भगवान शंकर ने कहा- “वत्स! तुमने तो वरदान बड़ा ही सुन्दर माँगा। जगत्भर में भगवान श्रीकृष्ण से अधिक प्रिय मेरी दृष्टि में और कोई नहीं है। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करा दूँ।”

भक्तराज नरसिंह ने कहा-“भगवन! यही तो इस असार संसार में सारभूत और दुर्लभ है। फिर जो आपको प्रियातिप्रिय है, उन्हें अप्रिय कौन कह सकता है?”

नरसिंह की ऐसी निष्ठा देखकर शंकर जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने भक्तराज को दिव्यदेह प्रदान कर, उन्हें साथ ले दिव्य द्वारिका के लिए तुरन्त प्रस्थान किया।

भगवान शंकर द्वारिकाधीश के राजमहल में पहुँचे। उस समय वहाँ भगवान की धर्मसभा बैठी हुई थी। राजराजेश्वर देवकीनन्दन श्रीकृष्ण राजसिंहासन पर विराजमान थे। उनकी सभा के सभासद परमभागवत उग्रसेन, बलराम, अक्रूर, उद्धव, विदुर, अर्जुन आदि यथास्थान बैठे थे तथा भगवान की सोलह हज़ार एक सौ आठ पटरानियाँ भी विद्यमान थीं। सभी ने उठकर शंकर जी का स्वागत किया तथा स्वयं श्रीभगवान भी आसन छोड़कर स्वागत के लिए दौड़ पड़े।

जब उन्होंने सदाशिव की विधिवत् पूजा करके आगमन का कारण पूछा तो उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। शंकर जी बोले- “प्रभु! इस भक्त ने मुझे अति प्रसन्न किया है और इसीलिए मैं इस वैष्णव भक्त को आपके पुनीत चरणकमलों में समर्पण करने के लिए लाया हूँ। आप भक्तवत्सल हैं, इस भक्त को भी स्वीकार कीजिए।”

इतना सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक भक्तराज नरसिंह के सिर पर हाथ रखकर उन्हें स्वीकार कर लिया और भगवान शंकर वहाँ से विदा हो गये।

भक्तराज ने अपने अश्रुओं से प्रभु के चरण पखारे। श्रीभगवान बोले- “वत्स! जो मनुष्य मुझे अपना स्वामी समझता है, मैं उसका दास बन जाता हूँ। तुम्हारी नैष्ठिक भक्ति देखकर आज मैं अतिप्रसन्न हुआ हूूँ” और यह कहकर भगवान नेे उन्हें अपनी सेवा में ले लिया।

शरद पूर्णिमा के दिन जब रास हुआ तो भक्तराज ने भी गोपी वेष में अपना राग छेड़ दिया और भगवद्गान में तल्लीन हो गये। श्रीभगवान ने पुरस्कार में नरसिंह को अपना पीताम्बर ओढ़ा दिया। भगवान ने नरसिंह के हाथों में एक दीपक देकर उन्हें रासमण्डल के मध्य खड़ा कर दिया। अकस्मात् दीपक की जलती हुई शिखा उनके हाथ के वस्त्र में लग गयी तथा हाथ जलने लगा। जलते-जलते उनका हाथ मशाल बन गया, परन्तु उन्हें तनिक भी सुधि न रही। मन का सम्बन्ध प्रभु के साथ ऐसा जुड़ा कि अपने शरीर के साथ उनका सम्बन्ध ही ना रहा।

lord krishna lila

“अन्त में रासलीला समाप्त होने पर स्वयं भगवान की दृष्टि उन पर पड़ी। तुरन्त उन्होंने आगे बढ़कर हाथ की आग को बुझा दिया व नरसिंह की सारी पीड़ा को दूर कर दिया। भक्तराज की इस तन्मयता को देखकर सभी रानियाँ भी आश्चर्यचकित रह गईं तथा माता रुक्मिणी ने तो अपने गले का हार ही उतार कर भक्तराज को पहना दिया।”

इस प्रकार आनन्दोत्सव भगवद् दर्शन व भगवत्सेवा में एक मास बीत गया। एक दिन भगवान ने इनकी सेवा से प्रसन्न होकर वर माँगने को कहा। धन्य है नरसिंह भक्त जिन्होंने भगवान से माँगा- “प्रभु! मुझे तो अब आप सदा अपने चरणों की सेवा में ही रखें।”

प्रभु ने कहा- “तुम्हारी निष्ठा धन्य है परन्तु जगत् में प्रत्येक गृहस्थ के ऊपर तीन ऋण होते हैं- पहला स्त्री-पुत्रादि का, दूसरा पितरों का और तीसरा देवों का। अतः तुम मेरी आज्ञा से मृत्युलोक में जाकर इन तीनों ऋणों से मुक्त हो जाओ।” भगवान नें उन्हें अपनी एक प्रतिमा और करताल सौंप दी एवं पीताम्बर और मयूरपुच्छ का मुकुट पहना दिया। नरसिंह ने बार-बार भगवान के चरणों में प्रणाम किया व भगवती प्रेरणा से तुरन्त जूनागढ़ अपने भाई वंशीधर के यहाँ जा पहुँचे।

गृह त्याग और प्रभु की शरण (Renunciation From Home And Taking Shelter Of The Lord)
devotee of lord krishnaवंशीधर नरसिंह जी को इस वेष में देखकर क्रोधित हो उठे और कहने लगे- “बहुत हो गया अब जाओ कामधंधा कर कुछ कमाओ और इस वेश को त्याग दो।” इस पर नरसिंह भक्त ने भगवद प्रसाद रूप मिली वस्तुओं को उतरने से मना कर दिया और भाइयों में कहासुनी शुरू हो गई इतने में भोजाई भी आ गई और उसने नरसिंह को परिवार सहित घर से निकल जाने का आदेश सुना दिया।

भक्तराज नरसिंह बिना कुछ प्रतिक्रिया किये अपने परिवार को लेकर गाँव से बाहर एक धर्मशाला में जाकर ठहर गए। आधी रात तक भजन करते रहे और प्रेम अश्रुओं से प्रभु के चरण पखारते रहे। तभी भगवान ने अपने दूत को भेजकर अपने भक्त के लिए समस्त सुविधाओं से सज्जित मकान, खाने पीने का व 3 वर्ष का सामान व 5000 स्वर्ण मुद्राएँ नित्य व्यय हेतु व्यवस्था करा दी। सुबह होते ही भक्तराज उस मकान में परिवार सहित चले गए।

नरसिंह भक्त का अब तो सारा समय सत्संग, भजन व कीर्तन में लगने लगा आये दिन संतों साधुओं के भंडारे होने लगे और 6 माह में ही 3 वर्ष की व्यवस्था समाप्त होने को आई। बहुत निश्चिन्त हो भजन ध्यान में अपना पूरा-पूरा मन लगाये रहते। जब-जब भी भक्तराज को गृहस्थ निर्वाह हेतु कोई भी समस्या आती वो चाहे इनकी पुत्री के विवाह के दहेज़ की व्यवस्था हो, पुत्र की शादी के खर्च की व्यवस्था हो, चाहे पुत्र की मृत्यु का कारण सामने आया, चाहे पिता के श्राद्ध के व्यय की व्यवस्था सामने आई, पत्नी के निधन की बात हो, उन्होंने एक मात्र प्रभु पर पूरा-पूरा भरोसा रखा, भजन कीर्तन सत्संग नहीं छोड़ा। इस प्रकार भक्तराज के लिए भगवान को 52 बार उनके कार्य पूर्ण करने को स्वयं आना पड़ा ।

शिवलिंग की पूजा का महत्व और शिवलिंग की महिमा


ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश में केवल शिव ही हैं जिनके लिंग स्वरुप की पूजा की जाती है. शिवलिंग पूजा का काफी महत्व है. शिवलिंग पर फूल, दूध, दही, जल आदि चढ़ाने से साधक को मनवांक्षित फलों की प्राप्ति होती है. शिव पुरान में शिव लिंग की पूजा और महत्व के बारे में बताया गया है. विभिन्न ऋषियों के यह पूछे जाने पर कि भगवान शिव की लिंग रूप में पूजा क्यों होती है जबकि किसी अन्य देवता की पूजा इस रूप में नहीं की जाती है. सूतजी कहते हैं - शिवलिंग की स्थापना और पूजन के बारे में कोई और नहीं बता सकता. भगवान शंकर ने स्वयं अपने ही मुख से इसकी विवेचना की है. इस प्रश्न के समाधान के लिये भगवान शिवने जो जो कुछ कहा है और उसे मैंने गुरूजी के मुख से जिस प्रकार सुना हैं, उसी तरह क्रमश: वर्णन करुंगा. एकमात्र भगवान शिव ही ब्रह्मरूप होने के कारण ‘निष्कल’ (निराकार) कहे गये हैं. रूपवान होनेके कारण उन्हें ‘सकल’ भी कहा गया है. इसलिए वे सकल और निष्कल दोनों हैं.
शिव के निराकार होने के कारण ही उनकी पूजा का आधारभूत लिंग भी निराकार ही प्राप्त हुआ हैं. अर्थात शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक हैं. इसी तरह शिव के सकल या साकार होने के कारण उनकी पूजा का आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता हैं अर्थात शिव का साकार विग्रह उनके साकार स्वरुप का प्रतीक होता है. सकल और अकल (समस्त अंग-आकार-सहित निराकार) रूप होने से ही वे ‘ब्रह्म’ शब्द से कहे जानेवाले परमात्मा हैं. सनतकुमार के प्रश्‍न के उत्तर में श्री नंदिकेश्‍वर ने यही जवाब दिया था. उन्होंने कहा था कि भगवान शिव ब्रह्मस्वरूप और निष्कल (निराकार) हैं, इसलिये उन्हीं की पूजा में निष्कल लिंग का उपयोग होता है.
जब भगवान शंकर ने ब्रह्मा-विष्‍णु को बताया शिवलिंग पूजा का महत्व
सनतकुमार के सवाल के जवाब में नंदिकेश्वर कहते हैं – ब्रह्मा और विष्णु भगवान शंकर को प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ उनके दायें-बायें भाग में चुपचाप खड़े हो गये, फिर उन्होंने वहां साक्षात प्रकट पूजनीय महादेव को श्रेष्ठ आसन पर स्थापित करके पवित्र पुरुष-वस्तुओं द्वारा उनका पूजन किया. इससे प्रसन्न हो भक्तिपूर्वक भगवान शिव ने वहां नम्रभाव से खड़े हुए उन दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा - आजका दिन एक महान दिन है. इसमें आप दोनों के द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं बहुत प्रसन्न हूं. इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान से महान होगा. आज की यह तिथि ‘महाशिवरात्रि’ के नामसे विख्यात होकर मेरे लिये परम प्रिय होगी. जो महाशिवरात्रि को दिन-रात निराहार एवं जितेन्द्रिय रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चलभाव से मेरी यथोचित पूजा करेगा, उसको विशेष फल मिलेगा.
भगवान कहते हैं - पहले मैं जब ‘ज्योतिर्मय स्तम्भरूप से प्रकट हुआ था, वह समय मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा है. जो पुरुष मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र होनेपर पार्वतीसहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की ही झाँकी करता हैं, वह मेरे लिये कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है. उस शुभ दिन को मेरे दर्शनमात्र से पूरा फल प्राप्त होता है. वहां पर मैं लिंगरूप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था. अत: उस लिंग के कारण यह भूतल ‘लिंगस्थान’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ. यह लिंग सब प्रकार के भोग सुलभ करानेवाला तथा भोग और मोक्षका एकमात्र साधन है. इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान किया जाय तो यह प्राणियों को जन्म और मृत्यु के कष्ट से छुडानेवाला है.

भगवान विष्णु के वराह अवतार की कथा


वैकुंठ में श्रीमहाविष्णु का निवास माना जाता है। उनके भवन में कोई अनाधिकार प्रवेश न करे, इसलिए जय और विजय नामक दो द्वारपाल पहरा देते रहते थे। एक बार सनक महामुनि तथा उनके साथ कुछ अन्य मुनि श्रीमहाविष्णु के दर्शन करने उनके निवास पर पहुंचे। जय और विजय ने उन्हें महल के भीतर प्रवेश करने से रोका। इस पर मुनियों ने कुपित होकर द्वारपालों को शाप दिया, "तुम दोनों इसी समय राक्षस बन जाओगे, किंतु महाविष्णु के हाथों तीन बार मृत्यु को प्राप्त करने के बाद तुम्हें स्वर्गवास की प्राप्ति होगी।"

सांयकाल का समय था। महर्षि कश्यप संध्यावंदन अनुष्ठान में निमग्न थे। उस समय महर्षि कश्यप की पत्नी दिति वासना से प्रेरित हो अपने को सब प्रकार से अलंकृत कर अपने पति के समीप पहुंची। कश्यप महर्षि ने दिति को बहुविध समझाया, "देवी! मैं प्रभु की प्रार्थना और संध्यावंदन कार्य में प्रवृत्त हूं, इसलिए काम-वासना की पूर्ति करने का यह समय नहीं है।" किंतु दिति ने हठ किया कि उसकी इच्छा की पूर्ति इसी समय हो जानी चाहिए।

अंत में विवश होकर कश्यप को उसकी इच्छा पूरी करनी पड़ी। फलत: दिति गर्भवती हुई। मुनि पत्नी दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया। जय ने हिरण्याक्ष के रूप में और विजय ने हिरण्यकशिपु के रूप में जन्म लिया। इन दोनों के जन्म से प्रजा त्रस्त हो गई। दोनों राक्षस भ्राताओं ने समस्त लोक को कंपित कर दिया। उनके अत्याचारों की कोई सीमा न रही। वे समस्त प्रकार के अनर्थो के कारण बने।

कालांतर में हिरण्याक्ष तथा देवताओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। युद्ध जब चरम सीमा पर पहुंचा, तब हिरण्याक्ष पृथ्वी की गेंद की तरह वृत्ताकार में लपेटकर समुद्र-तल में पहुंचा। भूमि के अभाव में सर्वत्र केवल जल ही शेष रह गया। इस पर देवताओं ने श्रीमहाविष्णु के दर्शन करके प्रार्थना की कि वे पुन: पृथ्वी को यथास्थान स्थिर रखें। उस वक्त ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु अपने पिता की सेवा में उपस्थित रहकर उनकी परिचर्या में निरत थे। अपने पुत्र की सेवाओं से प्रमुदित होकर ब्रह्मा ने मनु को सलाह दी, "हे पुत्र! तुम देवी की प्रार्थना करो। उनके आशीर्वाद प्राप्त करो। तुम अवश्य एक दिन प्रजापति बन जाओगे।"

स्वांयभुव ने ब्रह्मा के सुझाव पर जगदंबा देवी के प्रति निश्चल भक्ति एवं अकुंठित भाव से कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या पर प्रसन्न होकर जगदंबा प्रत्यक्ष हुईं और कहा, "पुत्र! मैं तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा और तपस्या पर प्रसन्न हूं, तुम अपना वांछित वर मांगो। मैं अवश्य तुम्हारा मनोरथ पूरी करूंगी।"

स्वायंभुव ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक जगदंबा से निवेदन किया, "माते! मुझे ऐसा वर प्रदान कीजिए जिससे मैं बिना किसी प्रकार के प्रतिबंध के सृष्टि की रचना कर सकूं।" जगदंबा ने स्वायंभुव मनु पर अनुग्रह करके वर प्रदान किया।

स्वायंभुव अपने मनोरथ की सिद्धि पर प्रसन्न होकर ब्रह्मा के पास लौट आए और कहा, "पिताजी! मुझे जगदंबा का अनुग्रह प्राप्त हो गया है। आप मुझे आशीर्वाद देकर ऐसा स्थान बताइए, जहां पर मैं सृष्टि रचना का कार्य संपन्न कर सकूं।"

ब्रह्मदेव दुविधा में पड़ गए, क्योंकि हिरण्याक्ष पृथ्वी को ढेले के रूप में लपेटकर अपने साथ जल में ले जाकर छिप गया है। ऐसी हालत में सृष्टि की रचना के लिए कहां पर वे उचित स्थान बता सकते हैं। सोच-विचारकर वे इस निर्णय पर पहुंचे कि महाविष्णु ही इस समस्या का समाधान कर सकते हैं।

फिर क्या था, बह्मदेव ने महाविष्णु का ध्यान किया। ध्यान के समय ब्रह्मा ने दीर्घ निश्वास लिया, तब उनकी नासिका से एक सूअर निकल आया। वह वायु में स्थित हो क्रमश: अपने शरीर का विस्तार करने लगा। देखते-देखते एक विशाल पर्वत के समान परिवर्तित हो गया। सूअर के उस बृहदाकार को देखकर स्वंय ब्रह्मा विस्मय में आ गए।

सूअर ने विशाल रूप धारण करने के बाद हाथी की भांति भयंकर रूप से चिंघाड़ा। उसकी ध्वनि समस्त लोकों में व्याप्त हो गई। मर्त्यलोक तथा सत्यलोक के निवासी समझ गए कि यह महाविष्णु की माया है। सबने आदि महाविष्णु की लीलाओं का स्मरण किया। उसके बाद सूअर रूप को प्राप्त आदिविष्णु चतुर्दिक प्रसन्न दृष्टि प्रसारित कर पुन: भयंकर गर्जन कर जल में कूद पड़े। उस आघात को जलदेवता वरुण देव सहन नहीं कर पाए। उन्होंने महाविष्णु से प्रार्थना की, "आदि देव! मेरी रक्षा कीजिए।" ये वचन कहकर वरुण देव उनकी शरण में आ गए।

सूअर रूपधारी जल के भीतर पहुंचे। पृथ्वी को अपने लंबे दांतों से कसकर पकड़ लिया और जल के ऊपर ले आए। महाविष्णु को पृथ्वी को उठा ले जाते देखकर हिरण्याक्ष ने उनका सामना किया। महाविष्णु ने क्रुद्ध होकर हिरण्याक्ष का वध किया। (तब जल पर तैरते हुए पृथ्वी को जल के ऊपर अवस्थित किया।) फिर पृथ्वी को सघन बनाकर जल के मध्य उसे स्थिर किया। पृथ्वी इस रूप मे अवतरित हुई। जैसे जल के मध्य कमल तैर रहा हो।
ब्रम्ह देव ने विष्णु भगवान की अनेक प्रकार से स्तुति की। इसके बाद उन्होंने अपने पुत्र स्वायम्भुव को पृथ्वी पर सृष्टि की रचना के लिए उचित स्थान पर जाने का आदेश दिया। इस प्रकार सृष्टि की निर्विघ्न रचना हुइ।
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय।।

कामविकार

श्री आद्य शंकराचार्य कहते हैं -

आयु ढलने पर कामविकार कैसा ? जल सूखने पर जलाशय क्या ? तथा धन नष्ट होने पर परिवार ही क्या ? इसी प्रकार,  तत्त्वज्ञान होने पर संसार ही कहॉ रह सकता है ।
 अतः अरे मूढ !  तू सदा गोविन्द के  ही भजन में लग, (क्योंकि मृत्यु आ जाने पर फिर  अभ्यास रक्षा नहीं करेगा ) ।

वयसि गते  कः कामविकारः,  शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारः,  ज्ञाते तत्त्वे कः संसार ।।

भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।।

~~~~~~~~~~~~

जिसने जीवन भर  जैसा स्वयं को बनाया है , मृत्युकाल में वह  वैसा ही  हो  कर रह जाता है ,

उत्तराखण्ड   में एक प्रेरणा कथा प्रचलित है ।  कहा जाता है एक बार एक व्यक्ति मरने लगा , तो लोगों ने  मन में सोचा कि इसने जीवन भर तो भगवान् का नामलिया नहीं , तो क्यों न अन्त में ही इसके मुख से  हरि नाम निकलवाया जाये ,   बहुत प्रयास किया नातेदारों ने हरिनाम मुख से निकलवाने का  , पर वह बोल नहीं पाया ,

पहाड़ में ठंडे हिमालयी  प्रदेशों में  ककड़ी बहुत प्रसिद्ध आहार रहती है । वो पहले  हरी रहती है , फिर पीली फिर भूरी हो जाती है । 

उसको हरी ककड़ी बहुत पसन्द थी , जिसे पहाड़ों  में हरिया ककडी  कहते हैं, क्योंकि उसमें स्वादिष्ट रस रहता है , पक कर भूरी हो जाने पर  बाद में खट्टापन आ जाता है  ।   तो लोगों ने सोचा क्यों न इससे  हरिया ककड़ी  का ही नाम   निकलवा लिया जाये , तो कम इस बहाने तो  हरि शब्द  आ जायेगा ।

तो उससे पूछा कि दादा ! ककड़ी खाओगे ?  तो वो बोला हॉ !पूछा कौन सी ?  तो हरिया न कह कर उसके मुखसे निकला  भूरी  ककड़ी  और  प्राण छूट गए  ।

इसलिए जो सोचते हैं  कि जीवन के  अन्त में  भगवत्प्रपन्न बनेंगे  ,   अन्त में  तो चाह कर भी नहीं  हो  सकेगा  !

शंका -  अजामिल ने अन्त में नारायण कहा ।

समाधान -  अजामिल की पत्नी को अजामिल के अन्त के  कल्याण हेतु विशेष  सन्त- वरदान सन्तान के रूप में प्राप्त हुआ था । उसी के बल से नामोच्चार हो सका था ,  जिसके फलस्वरूप वह पुनः भगवत् साधना कर पाया ।

शंका - खटवाङ्ग नामक राजा ने अन्त की दो घड़ी में आत्मकल्याण किया ।

 समाधान - खटवाङ्ग नामक राजा के सम्बन्ध में भी ध्यातव्य  है कि , पूरे जीवन स्वधर्म पालन किया था , युद्ध धर्मपालन करते हुए आजीवन उन्होंने  देवताओं की सेवा की थी ।

इसलिये भगवान् शंकर कहते हैं , बालक तो खेलकूद में आसक्त रहता है ,तरुण स्त्री में आसक्त है और वृद्ध भी नाना प्रकार की चिन्ताओं  में मग्न रहता है , परब्रह्म में तो कोई संलग्न नहीं होता ।

अतः अरे मूढ !  तू सदा गोविन्द के  ही भजन में लग, (क्योंकि मृत्यु आ जाने पर फिर  अभ्यास रक्षा नहीं करेगा ) ।

बालस्तावत् क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत् तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः  पारे ब्रह्मणि कोsपि न लग्नः ।।

भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।।

।। जय  श्री राम ।।

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

स्त्री को ओंकार का उच्चारण करना चाहिए या नहीं ?

🌷🌷       प्रश्न
.– स्त्री को ओंकार का उच्चारण करना चाहिए या नहीं ?
उत्तर – स्त्री को ॐ कारकी उपासना या उच्चारण नहीं करना चाहिए और जिस मंत्र में ॐ आता है उसका भी शास्त्रों में निषेध किया है | हम तो यहाँ इसके निषेध की प्रार्थना करते हैं | यदि कोई ना सुने तो हमारे को कोई मतलब नहीं | हमारे को ना तो कोई व्यक्तिगत लाभ अथवा हानि है | यह तो विनय के रूप में कहा गया है | वह माने या ना माने यह उनकी मर्जी है | वैदिक मन्त्रों का स्त्री के लिए निषेध है | वैदिक मन्त्रों में हरी ॐ होता है | स्त्री, शुद्र(द्विज को, जिनका जनेऊ संस्कार नहीं हुआ हो; उनको भी) कभी भी नहीं करना चाहिए | अच्छे-अच्छे विद्वानों की बातें सुनकर ही आपको कहा गया है | इतिहास-पुराण तो सुनने का ही नहीं, पढ़ने तक का अधिकार है |
.
एक बार हम और अच्छे-अच्छे संत आदमी, यहीं ऋषिकेश में जमा हुए थे | मैं तो एक साधारण आदमी ही हूँ | मालवीयजी का यह पक्ष था की – “स्त्रियाँ पौराणिक बातें पढ़-सुन सकती हैं |” और करपात्रीजी महाराज ने कहा – “सुन सकती हैं, किन्तु पढ़ नहीं सकती |” जब हमारे से राय ली, तब हमने तो कहा की-“दोनों ही बातें शास्त्रों में आती हैं|” 
.
शुद्र तथा स्त्री ओंकार का जप ना करें | कहीं-कहीं यह भी मिलता है की – “दंडी स्वामी ही ओंकार का जप कर सकते हैं |” किन्तु राम के नाम का उतना ही महत्व है जितना ओंकार का है | हमारे लिए तो मुक्ति का द्वार खुला हुआ है, हम क्यों ओंकार के जप की जिद करें | मैं तो कहता हूँ की – “अल्लाह-अल्लाह जिस प्रकार मुसलमान करते हैं, वे यदि प्रेम में मग्न होकर करें तो उन्हें भी उतना ही फल मिलेगा |”
.
तुलसीदासजी राम-नाम के उपासक थे | उन्होंने कहा- “राम नाम सबसे बढ़कर है|”  उन्होंने रामचरित मानस की रचना करके राम नाम को पार उतरने का साधन बता दिया | सूरदासजी ने कहा कि  कृष्ण नाम सबसे बढ़कर है | ध्रुव कहेंगे की “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” और मुसलमान कहेंगे की “अल्लाह खुदा ही सबसे बढ़कर है |”  जैसे कोई पानी को कहें – जल, कोई कहें - आप:, कोई कहें – नीर, कोई कहें – वाटर या पानी, कुछ भी क्यों ना हो, अर्थ तो जल ही होगा | ऐसे ही परमात्मा के बहुत से नाम हैं कोई भी नाम लो मुक्ति मिल सकती है |
.
बच्चा कहता है – ‘बू’ तो माँ समझकर उसे दूध पीला देती है | इसी प्रकार हम ओंकार का जप ना करके राम नामका जप करेंगे, तो राम नाम के जप से हमारा उद्धार क्यों नहीं होगा ? अवश्य होगा |
जय श्री कृष्ण
श्री जयदयाल जी गोयन्दका सेठजी
.
🌷🌷       स्त्रियों को किसी भी अन्य पुरुष से दीक्षित होने की या किसी पर-पुरुष को गुरु बनाने की आवश्यकता नही है । सिद्धमन्त्र स्वामी अपनी पत्नी को दीक्षा दे सकता है । दीक्षा न दे तो भी पति उसका परम गुरु ही है । विधवा स्त्री केवल श्रीपरमात्मा को ही गुरु समझ कर उन्ही का सेवन करे |
भाई जी श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी
.
🌷🌷      बजरंगबाण- पाठ का निषेध -
कार्य सिद्धि के लिये अपने उपास्य देव से प्रार्थना करना तो ठीक है, पर उनपर दबाव डालना, उन्हें शपथ या दोहाई देकर कार्य करने के लिये विवश करना, तंग करना सर्वथा अनुचित है | बजरंगबाण में हनुमानजीपर ऐसा ही अनुचित दबाव डाला गया है, जैसे -'इन्हें मारू, तोहि सपथ राम की |' , 'सत्य होहु हरि सपथ पाइ कै |' , 'जनकसुता - हरि - दास कहावौ | ता की सपथ, बिलंब न लावौ ||' , 'उठ, उठ, चलु, तोहि राम -दोहाई |' दबाव डालने से उपास्य देव प्रसन्न नहीं होते, उलटे नाराज होते हैं | इसलिये मैं 'बजरंगबाण' का पाठ करने के लिये मना किया करता हूँ |
.
स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज
.

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

Some Important Full -Forms

Useful information
1. PAN - permanent account number.
2. PDF - portable document format.
3. SIM - Subscriber Identity Module.
4. ATM - Automated Teller machine.
5. IFSC - Indian Financial System Code.
6. FSSAI(Fssai) - Food Safety & Standards Authority of India.
7. Wi-Fi - Wireless fidelity.
8. GOOGLE - Global Organization Of Oriented Group Language Of Earth.
9. YAHOO - Yet Another Hierarchical Officious Oracle.
10. WINDOW - Wide Interactive Network Development for Office work Solution.
11. COMPUTER - Common Oriented Machine. Particularly United and used under Technical and Educational Research.
12. VIRUS - Vital Information Resources Under Siege.
13. UMTS - Universal Mobile Telecommunicati ons System.
14. AMOLED - Active-matrix organic light-emitting diode.
15. OLED - Organic light-emitting diode.
16. IMEI - International Mobile Equipment Identity.
17. ESN - Electronic Serial Number.
18. UPS - Uninterruptible power supply.
19. HDMI - High-Definition Multimedia Interface.
20. VPN - Virtual private network.
21. APN - Access Point Name.
22. LED - Light emitting diode.
23. DLNA - Digital Living Network Alliance.
24. RAM - Random access memory.
25. ROM - Read only memory.
26. VGA - Video Graphics Array.
27. QVGA - Quarter Video Graphics Array.
28. WVGA - Wide video graphics array.
29. WXGA - Widescreen Extended Graphics Array.
30. USB - Universal serial Bus.
31. WLAN - Wireless Local Area Network.
32. PPI - Pixels Per Inch.
33. LCD - Liquid Crystal Display.
34. HSDPA - High speed down-link packet access.
35. HSUPA - High-Speed Uplink Packet Access.
36. HSPA - High Speed Packet Access.
37. GPRS - General Packet Radio Service.
38. EDGE - Enhanced Data Rates for Globa Evolution.
39. NFC - Near field communication.
40. OTG - On-the-go.
41. S-LCD - Super Liquid Crystal Display.
42. O.S - Operating system.
43. SNS - Social network service.
44. H.S - HOTSPOT.
45. P.O.I - Point of interest.
46. GPS - Global Positioning System.
47. DVD - Digital Video Disk.
48. DTP - Desk top publishing.
49. DNSE - Digital natural sound engine.
50. OVI - Ohio Video Intranet.
51. CDMA - Code Division Multiple Access.
52. WCDMA - Wide-band Code Division Multiple Access.
53. GSM - Global System for Mobile Communications.
54. DIVX - Digital internet video access.
55. APK - Authenticated public key.
56. J2ME - Java 2 micro edition.
57. SIS - Installation source.
58. DELL - Digital electronic link library.
59. ACER - Acquisition Collaboration Experimentation Reflection.
60. RSS - Really simple syndication.
61. TFT - Thin film transistor.
62. AMR- Adaptive Multi-Rate.
63. MPEG - moving pictures experts group.
64. IVRS - Interactive Voice Response System.
65. HP - Hewlett Packard.

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

श्रीशिव महिम्न: स्तोत्रम्

              __श्रीशिव महिम्न: स्तोत्रम्__


शिव महिम्न: स्तोत्रम शिव भक्तों का एक प्रिय मंत्र है| ४३ क्षन्दो के इस स्तोत्र में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है|

स्तोत्र का सृजन एक अनोखे असाधारण परिपेक्ष में किया गया था तथा शिव को प्रसन्न कर के उनसे क्षमा प्राप्ति की गई थी |
कथा कुछ इस प्रकार के है …
एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था| वो परं शिव भक्त था| उसने एक अद्भुत सुंदर बागा का निर्माण करवाया| जिसमे विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे| प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे |
फिर एक दिन …
पुष्पदंत नामक के गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहा था| उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया| मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया| अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए |
पर ये तो आरम्भ मात्र था …
बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्यक दिन पुष्प की चोरी करने लगा| इस रहश्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे| पुष्पदंत अपने दिव्या शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहा |
और फिर …
राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला| उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया| रजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पेरो से कुचल दिया| फिर क्या था| इससे पुष्पा दंत की दिव्या शक्तिओं का क्षय हो गया|
तब…
पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था | अपनी गलती का बोध होने परा उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा करा पुष्पदंत के दिव्या स्वरूप को पुनः प्रदान किया |

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः .
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ..

हे हर !!! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं| मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना करा रहा हूँ जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो| पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं| जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भे अपने यथा शक्ति आपकी आराधना करता हूँ|
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि .
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ..

हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन ना ही वचन द्वारा ही संभव है| आपके सन्दर्भ में वेदा भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं| आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन करा सकता है? ये जानते हुए भी की आप आदि अंत रहित परमात्मा का गुणगान कठीण है मैं आपका वंदना करता हूँ|

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् .
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ..

हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी, अपने सिमित क्षमता का बोध होते हुए भे मैं इस विशवास से इस स्तोत्र की रचना करा रहा हूँ के इससे मेरे वाने शुद्ध होगी तथा मेरे बुद्धी का विकास होगा |

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु .
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ..

हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं| तीनों वेद आपके ही सहिंता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे हे प्रकाशित हैं| आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है| इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फ़ैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है |

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च .
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः ..

हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिस करते हैं| वो कहते हैं की अगर कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इसा श्रिष्टी को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं| वेद ने भी स्पष्ट किया है की तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता |

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति .
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ..

हे परमपिता !!! इस श्रृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)| इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य हे की आप पर संसय का कोइ तर्क भी नहीं हो सकता |

त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च .
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ..

विवध प्राणी सत्य तक पहुचने के लिय विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं | पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में समाहित हो जाती है ठीक उसी प्रकार हरा मार्ग आप तक ही पहुंचता है |

महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् .
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ..

हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं| पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, कपाल एवं नाग्माला एवं भष्म मात्र है| अगर कोई संशय करे कि अगर आप देवों के असीम एश्वर्य के श्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है| आप इच्छा रहित हीं तथा स्वयं में ही स्थित रहते हैं |

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये .
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ..

हे त्रिपुरहंता !!! इस संसारा के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न माता हैं. कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है| अन्य इसे नित्यानित्य बताते हीं. इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है पर मेरी भक्ति आप में और दृढ होती जा रही है |

तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः .
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ..

एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश: उपर एवं नीचे की दिशा में गए| पर उनके सारे प्रयास विफल हुए| जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाए| क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है?

अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् .
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ..

हे त्रिपुरान्तक !!! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका ? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे | हे प्रभु ! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था|

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः .
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ..

हे शिव !!! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की| हे महादेव आपने अपने सहज पाँव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया| फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा| वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा| अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका|

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः .
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ..

हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक अश्वर्यशाली बन सका ताता तीनो लोकों पर राज्य किया| हे ईश्वर आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं है?

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः .
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः ..

देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुन्द्र मंथन किया| समुद्र से आने मूल्यवान वस्तुएँ परात्प हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बाट लिया| परा जब समुन्द्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो असमय ही सृष्टी समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए| हे हर तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया| वह विष आपके कंठ में निस्किर्य हो कर पड़ा है| विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया| हे नीलकंठ आश्चर्य ही है की ये विकृति भी आपकी शोभा ही बदती है| कल्याण कार्य सुन्दर ही होता है|

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः .
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः ..

हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव ही | पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तक्षण ही भष्म करा दिया| श्रेष्ठ जानो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता|

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम् .
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ..

हे नटराज !!! जब संसार कल्याण के हितु आप तांडव करने लगते हैं तो आपके पाँव के नीचे धारा कंप उठती है, आपके हाथो के परिधि से टकरा कार ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं| विष्णु लोक भी हिल जाता है| आपके जाता के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है| आशार्य ही है हे महादेव कि अनेको बार कल्याणकरी कार्य भे भय उतपन्न करते हैं |

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते .
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ..

आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बिच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती है| पर ये उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टीगोचर होती है| ये आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है|

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति .
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ..

ही शिव !!! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया| हे शम्भू इसा वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है| आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् .
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ..

जब भगवान विष्णु ने आपकी सहश्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमाल कम पाया| तब भक्ति भाव से हरी ने अपने एक आँख को कमाल के स्थान पर अर्पित कर दिया| उनकी यही अदाम्ह्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं.

क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते .
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ..

हे देवाधिदेव !!! आपने ही कर्म -फल का विधान बनाया| आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है | आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मो में आस्था बनाया रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं|

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः .
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः ..

हे प्रभु !!! यदपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेप्रित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसा परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है| दक्षप्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि समलित हुए| फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ| आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के क्ष्द्म्बेश में क्यों न हो |

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा .
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ..

एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पे ही मोहित हो गया| जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरु धारण करा भागने की कोशिस की तो कामातुर ब्रह्मा ने भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे| हे शंकर तब आप व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा की और कूच किया| आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भगा निकले तथा आजे भी आपसे भयभीत हैं|

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि .
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ..

हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहभागी बनाया तो उन्हें आपने योगी होने पे शंका उत्पन्न हुई| ये शंका निर्मुर्ल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिस की तो आपने काम को जला करा नाश्ता करा दिया|

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः .
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ..

हे भोलेनाथ!!! आप स्मशान में रमण करते हैं, भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भष्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं| ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं| तबभी हे स्मशान निवासी आपके भक्त आपके इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंदाई हे प्रतीत होता है क्योकि हे शंकर आप मनोवान्चिता फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते|

मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः .
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ..

हे योगिराज!!! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पदाति को अपनाते हैं जैसे की स्वास पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि| इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनदं, जिस सुख को प्राप्त करते हैं वो वास्तव में आपही हैं हे महादेव!!!

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च .
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि ..

हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नी, जल एवं वायु हैं | आप ही आत्मा भी हैं| हे देव मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों |

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति .
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ..

हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, माँ जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्ना, शुसुप्ता), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों, तथा त्रिदेवों को इंगित करता है| हे ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, औरो त्रिवेद के समागम हैं|

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् .
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते ..

हे शिव विद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र , पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान| हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामो से स्तुति करता हूँ |

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः .
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः ..

हे त्रिलोचन आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी, आप महा विशाल भी हैं तथा परम सूक्ष्म भी, आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी| आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभे कुछ से परे भी |

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः .
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ..

हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ | हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूँ| हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सबो का पालन करने वाले हैं| आपको नमस्कार है| आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं| हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूँ |

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः .
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ..

हे शिव आप गुनातीत हैं और आपका विस्तार नित बढता ही जाता है| अपनी सिमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूँ? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूँ |

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी .
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ..

यदि कोइ गिरी (पर्वत) को स्याही, सिंधु तो दवात, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं उसे छाल को पत्र की तरह उपयोग में लाए तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती अनंतकाल आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें तो भी आप के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है|

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य .
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ..

इस स्तोत्र की रचना पुश्प्दंता गंधर्व ने उन चन्द्रमोलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है तो गुनातीत हैं |

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः .
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ..

जो भी इसा स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है वो जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिवधाम को प्राप्त करता है तथा शिवातुल्या हो जाता है|

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः .
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ..

महेश से श्रेष्ठ कोइ देवा नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरू से उपर कोई सत्य नहीं.

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः .
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ..

दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इसा स्तोत्र के पाठ के सोलहवे अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते |
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः .
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः ..

कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परं भक्त था| अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वो अपने दिव्या स्वरूप से वंचित हो गया| तब उसने इस स्तोत्र की रचना करा शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्या स्वरूप को पुनः प्राप्त किया |

सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः .
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ..

जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाटा है तथा ऋषि मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है |

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् .
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् ..

पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परं सुख की प्राप्ति होती है |

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः .
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ..

ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पति है | प्रभु हमसे प्रसन्न हों|

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर .
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ..

हे शिव !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानता| हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता उसको नमस्कार है |

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः .
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ..

जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है |

श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण .
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ..

पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी अत्यंत ही प्रिय है | इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है |

.. इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः
स्तोत्रं समाप्तम् ..

इस प्रकार शिव महिम्न स्तोत्र समाप्त होता है |
जय महाकाल !

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

राधे राधे: जन्मजात स्वभाव

राधे राधे: जन्मजात स्वभाव: एक वन में एक तपस्वी रहते थे। वे बहुत पहुंचे हुए ॠषि थे। उनका तपस्या बल बहुत ऊंचा था। रोज वह प्रातः आकर नदी में स्नान करते और नदी किनारे के ...

रविवार, 10 दिसंबर 2017

माखन चोर की टोली

((((((((   ))))))))
.
एक बार की बात है भगवान अपनी टोली के साथ तैयार हुए।
.
भगवान के मित्र बने है सुबल, मंगल, सुमंगल, श्रीदामा, तोसन, आदि।
.
भगवान सोच रहे है की आज किसके घर माखन चोरी की जाये।
.
याद आया की “चिकसोले वाली” गोपी के घर चलते है।
.
भगवान पहुंच गए सुबह सुबह और जोर से दरवाजा खटखटाने लगे।
.
गोपी ने दरवाजा खोला। तो श्रीकृष्ण को खड़े देखा। बाल बिखेर रखे थे, मुह पर उबासी थी।
.
गोपी बोली – ‘अरे लाला ! आज सुबह-सुबह यहाँ कैसे ?
.
कन्हैया बोले – ‘गोपी क्या बताऊँ ! आज सुबह उठते ही, मैया ने कहा लाला तू चिकसोले वाली गोपी के घर चले जाओ....
.
और उससे कहना आज हमारे घर में संत आ गए है मैंने तो ताजा माखन निकला नहीं,
.
चिकसोले वाली गोपी तो भोर में उठ जावे है। ताजो माखन निकल लेवे है। तू उनसे जाकर माखन ले आ।
.
और कहना कि एक मटकी माखन दे दो, बदले में दो मटकी माखन लौटा दूँगी।
.
गोपी बोली – लाला ! मै अभी माखन की मटकी लाती हूँ और मैया से कह देना कि लौटने की जरुरत नहीं है संतो की सेवा मेरी तरफ से हो जायेगी।
.
झट गोपी अंदर गयी और माखन की मटकी लाई और बोली – लाला ये माखन लो और ये मिश्री भी ले जाओ।
.
कन्हैया माखन लेकर बाहर आ गए और गोपी ने दरवाजा बंद कर लिया।
.
अब भगवान ने अपने सभी दोस्तों को बुलाया है और कहते है आओ आओ श्रीदामा, मंगल, सुबल, जल्दी आओ,
.
सब-के-सब झट से बाहर आ गए भगवान बोले,” जिसके यहाँ चोरी की हो उसके दरवाजे पर बैठकर खाने में ही आनंद आता है, और वो चोरी भी नहीं कहलाती है।”
.
झट सभी गोपी के दरवाजे के बाहर बैठ गए, भगवान ने सबकी पत्तल पर माखन और मिश्री रख दी। और बीच में स्वयं बैठ गए।
.
सभी सखा माखन और मिश्री खाने लगे।
.
माखन के खाने से होंठो की पट पट और मिश्री के खाने से दाँतो के कट-कट की आवाज जब गोपी ने सुनी तो सोचा ये आवाज कहाँ से आ रही है, कोई बंदर तो घर में नही आ गयो है।
.
जैसे ही उसने दरवाजा खोला तो सारे मित्रों के साथ श्रीकृष्ण बैठे माखन खा रहे थे।
.
गोपी बोली – ‘क्यों रे कन्हैया ! माखन संतो को चाहिए था या इन संड -भुसंडान को।
.
भगवान बोले देख गोपी गाली मत दीजो। ये भी संत है, साधु है। और तो और नागा साधु है किसी के तन पर कोई वस्त्र तक नहीं है।
.
तुझे तो इनको प्रणाम करना चाहिए और वो भी दंडवत (लेट कर)।
.
गोपी बोली अच्छा अभी दण्डोत करती हूँ। एक डंडा ले आउ फिर अच्छे से डंडे से दण्डोत करुँगी।
.
भगवान बोले सबको बेटा माखन बहुत खा लिए है अब पीटने का नंबर है। भागो सभी अपने-अपने घर को।
.
इस प्रकार भगवान ब्रज में सुन्दर लीला कर रहे है और सबको अपने रूप मधुरए से सराबोर कर रहे है।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
 (((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

वैदिक वाङ्मय का परिचय


(१)  ऋग्वेद की शाखा :----
===================
महर्षि पतञ्जलि के अनुसार ऋग्वेद की २१ शाखाएँ हैं, किन्तु पाँच ही शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैं :---
(१) शाकल
(२) बाष्कल
(३) आश्वलायन
(४) शांखायन
(५) माण्डूकायन
संप्रति केवल शाकल शाखा ही उपलब्ध है !
ऋग्वेद के ब्राह्मण
=============
(१) ऐतरेय ब्राह्मण
(२) शांखायन ब्राह्मण
ऋग्वेद के आरण्यक
===============
(१) ऐतरेय आरण्यक
(२) शांखायन आरण्यक
ऋग्वेद के उपनिषद
===============
(१) ऐतरेय उपनिषद्
(२) कौषीतकि उपनिषद्
ऋग्वेद के देवता
============
तिस्र एव देवताः इति नैरुक्ताः !
(१) अग्नि (पृथिवी स्थानीय )
(२) इन्द्र या वायु (अन्तरिक्ष स्थानीय )
(३) सूर्य (द्यु स्थानीय )
ऋग्वेद में बहु प्रयोग छंद
================
(१) गायत्री ,
(२) उष्णिक्
(३) अनुष्टुप् ,
(४) त्रिष्टुप्
(५) बृहती,
(६) जगती,
(७) पंक्ति,
ऋग्वेद के मंत्रों के तीन विभाग
===================
(१) प्रत्यक्षकृत मन्त्र
(२) परोक्षकृत मन्त्र
(३) आध्यात्मिक मन्त्र
ऋग्वेद का विभाजन
==============
(१) अष्टक क्रम :----
८ अष्टक
६४ अध्याय
२००६ वर्ग
(२) मण्डलक्रम :---
१० मण्डल
८५ अनुवाक
१०२८ सूक्त
१०५८०---१/४
!!!---: यजुर्वेद का सामान्य परिचय :--!!!
==========================
यजुर्वेद यज्ञ कर्म के लिए उपयोगी ग्रन्थ है । गद्यात्मक भाग के "यजुः" कहा जाता है । यजुुस् की प्रधानता के कारण इसे "यजुर्वेद" कहा जाता है ।
यजुष् के अन्य अर्थः---
(१.) यजुर्यजतेः (निरुक्त--७.१२)
(यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को यजुष् कहते हैं ।)
(२.) इज्यते अनेनेति यजुः ।
(जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता हैं, उन्हें यजुष् कहते हैं ।)
(३.) अनियताक्षरावसानो यजुः ।
(जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती है, वे यजुष् हैं ।)
(४.) शेषे यजुःशब्दः । (पूर्वमीमांसा--२.१.३७)
(पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं ।)
(५.) एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः ।
(एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पद-समूह को यजुः कहेंगे ।)
इस वेद की दो परम्पराएँ हैं :--- कृष्ण और शुक्ल ।
शुक्ल यजुर्वेद में शुद्ध रूप में मन्त्र मात्र संकलित है, किन्तु कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों के साथ ब्राह्मण मिश्रित है ।
शाखाएँ :---
=======
महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य में यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ बताई है, किन्तु उपलब्धता कम है ।
(१) शुक्ल यजुर्वेद :---
=============
इसकी कुल १६ शाखाएँ बताईं जाती हैं , किन्तु सम्प्रति २ ही शाखाएँ उपलब्ध हैं---
 (१.) माध्यन्दिन (वाजसनेयी ) शाखा,
(२.)  काण्व शाखा ।
माध्यन्दिन-शाखा के मुख्य ऋषि याज्ञवल्क्य हैं । ये मिथिला के निवासी थे । इनके पिता वाजसनि थे, अतः याज्ञवल्क्य वाजसनेय कहलाए । उनके नाम पर इस यजुर्वेद को वाजसनेयी शाखा भी कहते हैं ।
याज्ञवल्क्य ऋषि ने आदित्य ऋषि से इसे दिन के मध्य भाग में प्राप्त किया था, अतः इसे माध्यन्दिन शाखा कहा गया । इस शाखा का सर्वाधिक प्रचार उत्तर भारत में है ।
काण्व ऋषि के पिता बोधायन थे । काण्व के गुरु याज्ञवल्क्य ही थे । काण्व-शाखा का सर्वाधिक प्रचार महाराष्ट्र में हैं ।
(२) कृष्ण यजुर्वेद :----
============
इसकी कुल ८५ शाखाएँ बताईं जाती हैं किन्तु सम्प्रति ४ शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---
(१.) तैत्तिरीय-संहिता,
(२.) मैत्रायणी -संहिता,
(३.) कठ-संहिता,
(४.) कपिष्ठल-संहिता,
शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद में अन्तर :---
=====================
(१.) शुक्लयजुर्वेद
===========
(१.) यह आदित्य सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।
(२.) इसमें यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले मन्त्र है ।
(३.) यह विशुद्ध है, अर्थात् केवल मन्त्र है, कोई मिश्रण नहीं है ।
(४.) इस ग्रन्थ की प्राप्ति आदित्य से हुई है । आदित्य शुक्ल होता है, अतः इसका नाम शुक्ल-यदुर्वेद रखा गया । शुद्धता के कारण भी इसे शुक्ल कहा गया है ।
(५.) इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है, अर्थात् विशुद्ध है ।
(२.) कृष्णयजुर्वेद
==========
(१.) यह ब्रह्म-सम्प्रदाय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है ।
(२.) इसमें मन्त्रों के साथ-साथ ब्राह्मण भी मिश्रित है, अतः मिश्रण के कारण कृष्ण कहा गया ।
(३.) आदित्य के प्रकाश के विपरीत होने से भी इसे कृष्ण कहा गया ।
(४.) यह अव्यवस्थित है ।
(५.) इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग है, अर्थात् विशुद्ध नहीं है, अस्वच्छ है, मिश्रित है ।
मन्त्र :---
=====
(१.) शुक्लयजुर्वेदः---
=============
 शुक्लयजुर्वेद की वाजसनेयी-शाखा में कुल---
४० अध्याय हैं,
१९७५ मन्त्र हैं ।
वाजयनेयी संहिता में कुल अक्षर २,८८,००० (दो लाख, अट्ठासी हजार)  हैं ।
काण्व-शाखा में भी ४० ही अध्याय हैं, किन्तु मन्त्र २०८६ हैं ।
अनुवाक---३२८ हैं ।
(२.) कृष्णयजुर्वेदः--
==========
तैत्तिरीय-शाखा में कुल ७ काण्ड हैं,
४४ प्रपाठक हैं,
६३१ अनुवाक हैं ।
मैत्रायणी-शाखा में कुल ४ काण्ड हैं,
५४ प्रपाठक हैं,
३१४४ मन्त्र हैं ।
काठक (कठ) संहिता में कुल ५ खण्ड हैं,
स्थानक ४० हैं,
वचन १३ हैं,
५३ उपखण्ड हैं,
८४३ अनुवाक हैं,
३०२८ मन्त्र हैं ।
कपिष्ठल अपूर्ण रूप में उपलब्ध है ।
इसमें ६ अष्टक ही उपलब्ध है ,
४८ अध्याय पर समाप्ति है ।
ब्राह्मण :---
=========
शुक्लयजुर्वेद ------ शतपथ ब्राह्मण
कृष्णयजुर्वेद ---- तैत्तिरीय ब्राह्मण , मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल
इन चारों संहिताओं में जो ब्राह्मण भाग हैं, वही कृष्णयजुर्वेद के ब्राह्मण है ।
आरण्यक :---
==========
शुक्लयजुर्वेद---- बृहदारण्यक
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय आरण्यक
उपनिषद् :---
========
शुक्लयजुर्वेद ---- ईशोपनिषद् , बृहदारण्यकोपनिषद् , प्रश्नोपनिषद् ।
कृष्णयजुर्वेद---- तैत्तिरीय उपनिषद् , महानारायण, मैत्रायणीय, कठोपनिषद्, श्वेताश्वरोपनिषद् ।
श्रौतसूत्र :---
=========
शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, हिरण्यकेशी (सत्याषाढ), भारद्वाज, वैखानस, वाधुल, मानव, मैत्रायणी, वाराह ।
गृह्यसूत्र :---
=======
शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन (पारस्कर)
कृष्णयजुर्वेद----आपस्तम्ब, बोधायन, सत्याषाढ, वैखानस, कठ ।
धर्मसूत्र :---
========
शुक्लयजुर्वेद---कोई नहीं ।
कृष्णयजुर्वेद----वसिष्ठ-सूत्र ।
शुल्वसूत्र :---
=============
शुक्लयजुर्वेद---कात्यायन ।
कृष्णयजुर्वेद---बोधायन, आपस्तम्ब, मानव, मैत्रायणी, वाराह और वाधुल ।
!!!---: सामवेद : सामान्य परिचय :---!!!
==========================
वैदिक वाङ्मय में सामवेद का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । गीता (१०.२२) में श्रीकृष्ण ने स्वयं के लिए सामवेद कहा है---"वेदानां सामवेदोSस्मि ।"
इस वेद का महत्त्व इस बात से अधिक है कि सामवेद को द्यु कहा गया है, जबकि ऋग्वेद को पृथिवी कहा है---"साम वा असौ द्युलोकः, ऋगयम् भूलोकः ।" (ताण्ड्य-ब्राह्मण--४.३.५)
सामवेद वेदों का सार है । सारे वेदों का रस या सार सामवेद ही है ---"सर्वेषामं वा एष वेदानां रसो यत् साम ।" (शतपथ---१२.८.३.२३) (गोपथ-ब्राह्मण--२.५.७)
सामवेद के लिए गीतियुक्त होना अनिवार्य है---"गीतिषु सामाख्या ।" (पूर्वमीमांसा--२.१.३६)
ऋग्वेद और सामवेद का अभिन्न सम्बन्ध हैं ।
सामवेद के बिना यज्ञ नहीं होता---"नासामा यज्ञो भवति ।" (शतपथ--१.४.१.१)
जो पुरुष "साम" को जानता है, वही वेद के रहस्य को जान पाता है---"सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम् ।" (बृहद्देवता)
"साम" का शाब्दिक अर्थ है---देवों को प्रसन्न करने वाला गान ।
सामवेद का प्रकाश आदित्य ऋषि के हृदय में हुआ ।
आचार्य सायण के अनुसार ऋग्वेद के गाए जाने वाले मन्त्रों को "साम" कहते हैं---"ऋच्यध्यूढं साम ।" अर्थात् ऋचाओं पर ही साम आश्रित है ।
सामवेद उपासना का वेद है ।
(१.) सामवेद के प्रमुख ऋषि---आदित्य,
सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि ।" (शतपथ--१०.५.१.५)
(२.) सामवेद के गायक ऋत्विज्---उद्गाता,
(३.) सामवेद के देवता---आदित्य ।
सामवेद की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । यह सूर्य-पुत्र है । इसमें सूर्य की शक्ति है---"सूर्यात् सामवेदः अजायत ।" (शतपथ---११.५.८.३)
(४.) ऋषि व्यास ने सामवेद का अध्ययन कराया---जैमिनि को ।
जैमिनि ने सामवेद की शिक्षा अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को दी ।
सामवेद का विस्तार इसी सुकर्मा ऋषि ने की थी । सुकर्मा के दो शिष्य थे---हिरण्यनाभ कौशल्य औ पौष्यञ्जि ।
हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था । कृत ने सामवेद के २४ प्रकार के गान स्वरों का प्रवर्तन किया था ।
कृत के बहुत से आनुयायी हुए । इनके अनुयायी सामवेदी आचार्यों को "कार्त"  कहा जाता है----
"चतुर्विंशतिधा येन प्रोक्ता वै सामसंहिताः ।
स्मृतास्ते प्राच्यसामानः कार्ता नामेह सामगाः ।" (मत्स्यपुराणः---४९.६७)
(५.) शाखाएँ---
ऋषि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की १०००  हजार शाखाएँ थीं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य) ।
सम्प्रति इसकी तीन ही शाखाएँ समुपलब्ध है---
(क) कौथुम,
(ख) राणायणीय,
(ग) जैमिनीय,
कौथुम शाखा के अनुसार सामवेद के दो भाग हैं---(क) पूर्वार्चिक , (२.) उत्तरार्चिक ।
(क) पूर्वार्चिकः----
इसमें कुल चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय, (ख) ऐन्द्र, (ग) पावमान (घ) आरण्य-काण्ड ।
परिशिष्ट के रूप में १० मन्त्र महानाम्नी आर्चिक हैं ।
पूर्वार्चिक में ६ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र ६५० हैं ।
प्रपाठकों में अध्याय है, अध्यायों में खण्ड हैं , जिन्हें "दशति" कहा जाता है, खण्डों में मन्त्र हैं ।
इसके प्रपाठकों के विभिन्न नाम हैं । जिसमें जिस देवता की प्रधानता है, उसका वही नाम है । जैसे---
(क) प्रथम प्रपाठक का नाम--"आग्नेय-पर्व" हैं, क्योंकि इसमें अग्नि से सम्बद्ध मन्त्र हैं । इसके देवता अग्नि ही है । इसमें कुल ११४ मन्त्र हैं ।
(ख) द्वितीय से चतुर्थ प्रपाठक का नाम---"ऐन्द्र-पर्व" है, क्योंकि इनमें इन्द्र की स्तुतियाँ की गईं हैं । इसके देवता इन्द्र ही है । इसमें ३५२ मन्त्र हैं ।
(ग) पञ्चम प्रपाठक का नाम ----"पवमान-पर्व" है, क्योंकि इसमें सोम की स्तुति की गई है । इसके देवता सोम ही है । इसमें कुल ११९ मन्त्र हैं ।
(घ) षष्ठ प्रपाठक का नाम---"अरण्यपर्व" है, क्योंकि इसमें अरण्यगान के ही मन्त्र है । इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम हैं । इसमें कुल ५५ मन्त्र हैं ।
(ङ) महानाम्नी आर्चिक---यह परिशिष्ट हैं । इसके देवता इन्द्र हैं । इसमें कुल १० मन्त्र हैं ।
इस प्रकार कुल मिलाकर पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र हुए ।
इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम से पञ्चम प्रपाठक तक के मन्त्रों का गान गाँवों में हो सकता है । इसलिए इन्हें "ग्रामगान" कहते हैं ।
सामगान के चार प्रकार होते हैं---
(क) ग्रामगेय गान--इसे "प्रकृतिगान"  और "वेयगान"  भी कहते हैं । यह ग्राम या सार्वजनिक स्थानों पर गाया जाता था ।
(ख) आरण्यगान या आरण्यक गेयगान---यह वनों या पवित्र स्थानों पर गाया जाता था । इसे "रहस्यगान"  भी कहते हैं ।
(ग) उहगान---"ऊह"  का अर्थ है---विचारपूर्वक विन्यास । यह सोमयाग या विशेष धार्मिक अवसरों पर गाया जाता था ।
(घ) उह्यगान या रहस्यगान---रहस्यात्मक होने के कारण यह सार्वजनिक स्थानों पर नहीं गाया जाता था ।
(ख) उत्तरार्चिक----
इसमें कुल २१ अध्याय और ९ प्रपाठक हैं । कुल मन्त्र १२२५ हैं । इसमें कुल ४०० सूक्त हैं ।
पूर्वार्चिक में ऋचाओं का छन्द देवताओं के अनुसार है, जबकि उत्तरार्चिक में यज्ञों के अनुसार है ।
पूर्वार्चिक में ६५० मन्त्र है, जबकि  उत्तार्चिक में १२२५ मन्त्र हैं । दोनों मिलाकर १८७५ हुए ।
 पूर्वार्चिक के २६७ मन्त्रों की आवृत्ति उत्तरार्चिक में हुई है । १५०४ मन्त्र ऋग्वेद से आगत है ।
साममवेदस्थ सामगान मन्त्रों के ५ भाग हैं----
(क) प्रस्ताव---इसका गान "प्रस्तोता" नामक ऋत्विक् करता है । यह "हूँ ओग्नाइ" से प्रारम्भ होता है ।
(ख) उद्गीथ---इसे साम का प्रधान ऋत्विक् उद्गाता गाता है । यह "ओम्" से प्रारम्भ होता है ।
(ग) प्रतिहार----इसका गान "प्रतिहर्ता" नामक ऋत्विक् करता है । यह दो मन्त्रों को जोडने वाली कडी है । अन्त में "ओम्"  बोला जाता है ।
(घ) उपद्रव----इसका गान उद्गाता ही करता है ।
(ङ) निधन----इसका गान तीनों ऋत्विक करते हैं---प्रस्तोता, उद्गाता और प्रतिहर्ता ।
(६.) सामवेद के कुल मन्त्र----१८७५ हैं ।
ऋग्वेद से आगत मन्त्र हैं--१७७१
सामवेद के अपने मन्त्र हैं--१०४  = १८७५
ऋग्वेद से संकलित १७७१ मन्त्रों में से भी २६७ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
सामवेद के अपने १०४ मन्त्रों में से भी ५ मन्त्र पुनरुक्त हैं ।
इस प्रकार पुनरुक्त मन्त्रों की संख्या २७२ है ।
सारांशतः---
सामवेद में ऋग्वेदीय मन्त्र १५०४ + पुनरुक्त २६७ कुल हुए= १७७१
सामवेद के अपने मन्त्र--९९ + पुनरुक्त ५, इस प्रकार कुल हुए= १०४
दोनों को मिलाकर कुल मन्त्र हुए--- १७७१ + १०४  = १८७५
सामवेद में ऋग्वेद से लिए गए अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद के ८ वें और ९ वें मण्डल के हैं ।
८ वें मण्डल से ४५० मन्त्र लिए गए हैं,
९ वें मण्डल से ६४५ मन्त्र लिए गए हैं ।
१ वें मण्डल से २३७ मन्त्र लिए गए हैं ।
१० वें मण्डल से ११० मन्त्र लिए गए हैं ।
सामवेद में कुल अक्षर ४००० * ३६ = १,४४,००० (एक लाख, चौवालीस हजार( हैं ।
सामवेद के ४५० मन्त्रों का गान नहीं हो सकता , अर्थात् ये गेय नहीं है ।
कौथुम शाखा में कुल मन्त्र १८७५ हैं, जबकि जैमिनीय शाखा में १६८७ मन्त्र ही है ।
इस प्रकार जैमिनीय-शाखा में १८८ मन्त्र कम है ।
जैमिनीय शाखा में गानों के ३६८१ प्रकार हैं, जबकि कौथुमीय में केवल २७२२ ही हैं , अर्थात् जैमिनीय-शाखा में ९५९ गान-प्रकार अधिक हैं ।
जैमिनीय-शाखा की संहिता, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र सभी उपलब्ध हैं, किन्तु कौथुमीय के नहीं ।
ब्राह्मणः--
पञ्चविंश (ताण्ड्य) महाब्राह्मण , षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, वंश, जैमिनीय, तलवकार ।
आरण्यक कोई नहीं ।
उपनिषद्---छान्दोग्य, केनोपनिषद् ।
श्रौतसूत्र---खादिर, लाट्यायन, द्राह्यायण ।
गृह्यसूत्र----खादिर, गोभिल, गौतम ।
धर्मसूत्र---गौतम ।
शुल्वसूत्र कोई नहीं ।
सामवेद से तीन प्रमुख शिक्षाएँ मिलती हैं---
(क) समत्व की भावना जागृत करना ।
(ख) समन्वय की भावना । पति-पत्नी को एकत्रित करना। समाज को एकत्रित करना । सबको मिलाना । किसी को अलग नहीं करना ।
(ग) साम प्राण है । जीवन में प्राणशक्ति का बडा महत्त्व है । प्राणी इसी से जीता है ।
!!!---: अथर्ववेद एक सामान्य परिचय :---!!!
==========================
अथर्ववेद का अर्थ--अथर्वों का वेद,
वेदों में अन्यतम अथर्ववेद एक महती विशिष्टता से युक्त है ।
अथर्ववेद का अर्थ---अथर्वों का वेद (ज्ञान), और अङ्गिरों का ज्ञान अर्थात् अभिचार मन्त्रों से सम्बन्धित ज्ञान ।
(१.) अथर्वन्--- स्थिरता से युक्त योग । निरुक्त (११.१८) के अनुसार "थर्व" धातु से यह शब्द बना है, जिसका अर्थ है---गति या चेष्टा । अतः "अथर्वन्" शब्द का अर्थ है--स्थिरता । इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता या चित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है---"अथर्वाणोSथर्वणवन्तः । थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः ।" निरुक्त (११.१८)
(२.) गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार---समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना या वेद वह जिसमें आत्मा को अपने अन्दर देखने की विद्या का उपदेश हो ।
प्राचीन काल में अथर्वन् शब्द पुरोहितों का द्योतक था ।
अन्य नाम
=======
अथर्वाङ्गिरस्,
अाङ्गिरसवेद,
ब्रह्मवेद,
भृग्वाङ्गिरोवेद,
क्षत्रवेद,
भैषज्य वेद,
छन्दो वेद,
महीवेद
मुख्य ऋषि---अङ्गिरा,
ऋत्विक्---ब्रह्मा
प्रजापति ब्रह्म ने इस वेद का ज्ञान सर्वप्रथम अङ्गिरा ऋषि को दिया ।
शाखाएँ
=====
ऋषि पतञ्जलि ने महाभाष्य में इस वेद की ९ शाखाएँ बताईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार है---
(१.) पैप्लाद,
(२.) तौद,(स्तौद)
(३.) मौद,
(४.) शौनकीय,
(५.) जाजल,
(६.) जलद,
(७.) ब्रह्मवद,
(८.) देवदर्श,
(९.) चारणवैद्य ।
इनमें से सम्प्रति केवल २ शाखाएँ ही उपलब्ध हैः--शौनकीय और पैप्लाद । शेष मुस्लिम आक्रान्ताओं न नष्ट कर दी । आजकल सम्पूर्ण भारत वर्ष में शौनकीय-शाखा ही प्रचलित है और यही अथर्ववेद है ।
(१.) शौनकीय-शाखा
===========
काण्ड---२०,
सूक्त---७३०,
मन्त्र---५९८७,
(२.) पैप्लाद -शाखा---
यह अपूर्ण है । इसका प्रचलन पतञ्जलि के समय था ।
उपवेद---अर्थर्वेद
=========
गोपथ-ब्राह्मण (१.१.१०) में इसके पाँच उपवेदों का वर्णन हुआ है---
सर्पवेद,
पिशाचवेद,
असुरवेद,
इतिहासवेद,
पुराणवेद ।
शतपथ-ब्राह्मण (१३.४.३.९) में भी इन उपवेदों का नाम आया है---
सर्पविद्यावेद,
देवजनविद्यावेद, (रक्षोवेद या राक्षसवेद),
मायावेद (असुरवेद या जादुविद्यावेद),
इतिहासवेद ,
पुराणवेद
ऋषि व्यास ने इसका ज्ञान सुमन्तु को दिया
ब्राह्मण---गोपथ-ब्राह्मण
आरण्यक---कोई नहीं
उपनिषद्---मुण्डकोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद्
श्रौतसूत्र---वैतान
===========
गृह्यसूत्र---कौशिक,
========
धर्मसूत्र---कोई नहीं ।
शुल्वसूत्र---कोई नहीं ।
अथर्वा ऋषि महान् वैज्ञानिक थे । उन्होंने इस धरा-धाम पर सर्वप्रथम अग्नि का आविष्कार किया था । उन्होंने अरणि-मन्थन से अग्नि का और जल-मन्थन से जलीय-विद्युत् का आविष्कार किया था---
(१.) "अग्निर्जातो अथर्वणा" (ऋग्वेदः---१०.२१.५)
(२.) "अथर्वा त्व प्रथमो निरमन्थदग्ने ।" (यजुर्वेद--११.३२)
(३.) अथर्वा ऋषि ने ही उत्खनन के द्वारा पुरीष्य अग्नि (प्राकृतिक गैस अर्थात् Oil and Natural Gas ) का आविष्कार किया था--"पुरीष्योSसि विश्वभरा अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने ।" (यजुर्वेद---११.३२)
(4.) आज हम जिस अग्नि के द्वारा यज्ञ करते है, उस अग्नि में सर्वप्रथम अथर्वा ने यज्ञ किया था---"यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ।" (ऋग्वेदः---१.८३.५) अथर्वा ऋषि अध्यात्मवाद के प्रथम प्रचारक थे ।
अथर्वा ऋषि का दृष्टिकोण व्यापक था । उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य किया था ।
अथर्ववेद के सूक्त
===========
(१.) पृथिवी-सूक्त , अन्य नाम---भूमि-सूक्त (१२.१) कुल ६३ मन्त्र ।
(२.) ब्रह्मचर्य-सूक्त---(११.५) कुल २६ मन्त्र ।
(३.) काल-सूक्त --दो सूक्त हैं---११.५३ और ११.५४, कुल मन्त्र १५
(४.) विवाह-सूक्त---पूरा १४ वाँ काण्ड ।  इसमें २ सूक्त और १३९ मन्त्र हैं ।
(५.) व्रात्य-सूक्त--- १५ काण्ड के १ से १८ तक के सूक्तों में २३० मन्त्र है, ये सभी व्रात्य सूक्त हैं ।
(६.) मधुविद्या-सूक्त---९ वें काण्ड के सूक्त १ के २४ मन्त्रों में यह सूक्त है ।
(७.) ब्रह्मविद्या-सूक्त---अथर्ववेद के अनेक सूक्तों में ब्रह्मविद्या का विस्तृत वर्णन है ।
वैदिक सभ्यता और संस्कृति के विस्तृत ज्ञान के लिए अथर्ववेद चारों वेदों में सबसे अधिक उपयोगी है ।
अथर्ववेद सामाजिक और राजनीतिक स्थिति का सबसे सुन्दर चित्रण करता है ।
अथर्ववेद एक प्रकार का विश्वकोश है ।
यह सार्वजनीन वेद है । इसमें सभी वर्णों और सभी आश्रमों का विस्तृत वर्णन है ।
यही एक वेद है जो एक साथ लौकिक और पारलौकिक दोनों क्षेत्रों का वर्णन करता है ।*
*🌺जय राम जी की🌺*

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

श्रीआंजनेय द्वादशनामस्तोत्रम्

 हनुमानंजनासूनुः वायुपुत्रो महाबलः । रामेष्टः फल्गुणसखः पिंगाक्षोऽमितविक्रमः ॥ १॥ उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशकः । लक्ष्मण प्राणदाताच दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ २॥ द्वादशैतानि नामानि कपींद्रस्य महात्मनः । स्वापकाले पठेन्नित्यं यात्राकाले विशेषतः । तस्यमृत्यु भयंनास्ति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ जो श्रीहनुमन्त उपासक प्रतिदिन उपरोक्त बारह नामों का पाठ करता है, उसकी सर्वत्र जय होती है, मंगल होता है, यात्राकाल में भय नहीं होता, अकालमृत्यु आदि नहीं होती है।

||राम लक्ष्मण सीता स्तुति||


शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् |
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् |

सीता माता की जय !

नमामि चन्द्रनिलयां सीतां चन्द्रनिभाननां ॥
आल्हादरूपिणीम् सिद्धिं शिवाम् शिवकरीं सतीम् ॥
नमामि विश्वजननीम् रामचन्द्रेष्टवल्लभां ॥
सीतां सर्वानवद्यान्गीम् भजामि सततं हृदा ॥

जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥

जय श्री लक्ष्मण !

बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता।।
रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका।।
सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर।।

सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम।।

जय श्री हनुमान..!

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् |
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि |

संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।
दीनदयाल बिरिदु सम्भारी ! हरहु नाथ मम संकट भारी !!

मंगल भवन अमंगल हारी| द्रबहु सुदसरथ अजिर बिहारी |
दीनदयाल बिरिदु सम्भारी ! हरहु नाथ मम संकट भारी !!

राम सिया राम सिया राम जय जय राम!
राम सिया राम सिया राम जय जय राम!

जन्मजात स्वभाव

एक वन में एक तपस्वी रहते थे। वे बहुत पहुंचे हुए ॠषि थे। उनका तपस्या बल बहुत ऊंचा था। रोज वह प्रातः आकर नदी में स्नान करते और नदी किनारे के एक पत्थर के ऊपर आसन जमाकर तपस्या करते थे। निकट ही उनकी कुटिया थी, जहां उनकी पत्नी भी रहती थी।
एक दिन एक विचित्र घटना घटी। अपनी तपस्या समाप्त करने के बाद ईश्वर को प्रणाम करके उन्होंने अपने हाथ खोले ही थे कि उनके हाथों में एक नन्ही-सी चुहीया आ गिरी। वास्तव में आकाश में एक चील पंजों में उस चुहिया को दबाए उडी जा रही थी और संयोगवश चुहिया पंजो से छुटकर गिर पडी थी। ॠषि ने मौत के भय से थर-थर कांपती चुहिया को देखा।

ठ्र्षि और उनकी पत्नी के कोई संतान नहीं थी। कई बार पत्नी संतान की इच्छा व्यक्त कर चुकी थी। ॠषि दिलासा देते रहते थे। ॠषि को पता था कि उनकी पत्नी के भागय में अपनी कोख से संतान को जन्म देकर मां बनने का सुख नहीं लिखा हैं। किस्मत का लिखा तो बदला नहीं जा सकता परन्तु अपने मुंह से यह सच्चाई बताकर वे पत्नी का दिल नहीं दुखाना चाहते थे। यह भी सोचते रहते कि किस उपाय से पत्नी के जीवन का यह अभाव दूर किया जाए।

ॠषि को नन्हीं चुहिया पर दया आ गई। उन्होंने अपनी आंखें बंदकर एक मंत्र पढा और अपनी तपस्या की शक्ति से चुहिया को मानव बच्ची बना दिया। वह उस बच्ची को हाथों में उठाए घर पहुंचे और अपनी पत्नी से बोले “सुभागे, तुम सदा संतान की कामना किया करती थी। समझ लो कि ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली और यह बच्ची भेज दी। इसे अपनी पुत्री समझकर इसका लालन-पालन करो।”

ॠषि पत्नी बच्ची को देखकर बहुत प्रसन्न हुउई। बच्ची को अपने हाथों में लेकर चूमने लगी “कितनी प्यारी बच्ची है। मेरी बच्ची ही तो हैं यह। इसे मैं पुत्री की तरह ही पालूंगी।”

इस प्रकार वह चुहिया मानव बच्ची बनकर ॠषि के परिवार में पलने लगी। ॠषि पत्नी सच्ची मां की भांति ही उसकी देखभाल करने लगी। उसने बच्ची का नाम कांता रखा। ॠषि भी कांता से पितावत स्नेह करने लगे। धीरे-धीरे वे यह भूल गए की उनकी पुत्री कभी चुहिया थी।

मां तो बच्ची के प्यार में खो गई। वह दिन-रात उसे खिलाने और उससे खेलने में लगी रहती। ॠषि अपनी पत्नी को ममता लुटाते देख प्रसन्न होते कि आखिर संतान न होने का उसे दुख नहीं रहा। ॠषि ने स्वयं भी उचित समय आने पर कांताअ को शिक्षा दी और सारी ज्ञान-विज्ञान की बातें सिखाई। समय पंख लगाकर उडने लगा। देखते ही देखते मां का प्रेम तथा ॠषि का स्नेह व शिक्षा प्राप्त करती कांता बढते-बढते सोलह वर्ष की सुंदर, सुशील व योग्य युवती बन गई। माता को बेटी के विवाह की चिंता सताने लगी। एक दिन उसने ॠषि से कह डाला “सुनो, अब हमारी कांता विवाह योग्य हो गई हैं। हमें उसके हाथ पीले कर देने चाहिए।”

तभी कांता वहां आ पहुंची। उसने अपने केशों में फूल गूंथ रखे थे। चेहरे पर यौवन दमक रहा था। ॠषि को लगा कि उनकी पत्नी ठीक कह रही हैं। उन्होंने धीरे से अपनी पत्नी के कान में कहा “मैं हमारी बिटिया के लिए अच्छे से अच्छा वर ढूंढ निकालूंगा।”

उन्होंने अपने तपोबल से सूर्यदेव का आवाहन किया। सूर्य ॠषि के सामने प्रकट हुए और बोले “प्रणाम मुनिश्री, कहिए आपने मुझे क्यों स्मरण किया? क्या आज्ञा हैं?”

ॠषि ने कांता की ओर इशारा करके कहा “यह मेरी बेटी हैं। सर्वगुण सुशील हैं। मैं चाहता हूं कि तुम इससे विवाह कर लो।”

तभी कांता बोली “तात, यह बहुत गर्म हैं। मेरी तो आंखें चुंधिया रही हैं। मैं इनसे विवाह कैसे करूं? न कभी इनके निकट जा पाऊंगी, न देख पाऊंगी।”

ॠषि ने कांता की पीठ थपथपाई और बोले “ठीक हैं। दूसरे और श्रेष्ठ वर देखते हैं।”

सूर्यदेव बोले “ॠषिवर, बादल मुझसे श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी ढक लेता हैं। उससे बात कीजिए।”

ॠषि के बुलाने पर बादल गरजते-लरजते और बिजलियां चमकाते प्रकट हुए। बादल को देखते ही कांता ने विरोध किया “तात, यह तो बहुत काले रंग का हैं। मेरा रंग गोरा हैं। हमारी जोडी नहीं जमेगी।”

ॠषि ने बादल से पूछा “तुम्ही बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन हैं?”

बादल ने उत्तर दिया “पवन। वह मुझे भी उडाकर ले जाता हैं। मैं तो उसी के इशारे पर चलता रहता हूं।”

ॠषि ने पवन का आवाहन किया। पवन देव प्रकट हुए तो ॠषि ने कांता से ही पूछा “पुत्री, तुम्हे यह वर पसंद हैं?”

कांता ने अपना सिर हिलाया “नहीं तात! यह बहुत चंचल हैं। एक जगह टिकेगा ही नहीं। इसके साथ गॄहस्थी कैसे जमेगी?”

ॠषि की पत्नी भी बोली “हम अपनी बेटी पवन देव को नहीं देंगे। दामाद कम से कम ऐसा तो होना चाहिए, जिसे हम अपनी आंख से देख सकें।”

ॠषि ने पवन देव से पूछा “तुम्ही बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन हैं?”

पवन देव बोले “ॠषिवर, पर्वत मुझसे भी श्रेष्ठ हैं। वह मेरा रास्ता रोक लेता हैं।”

ॠषि के बुलावे पर पर्वतराज प्रकट हुए और बोले “ॠषिवर, आपने मुझे क्यों याद किया?”

ॠषि ने सारी बात बताई। पर्वतराज ने कहा “पूछ लीजिए कि आपकी कन्या को मैं पसंद हूं क्या?”

कांता बोली “ओह! यह तो पत्थर ही पत्थर हैं। इसका दिल भी पत्थर का होगा।”

ॠषि ने पर्वतराज से उससे भी श्रेष्ठ वर बताने को कहा तो पर्वतराज बोले “चूहा मुझसे भी श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी छेदकर बिल बनाकर उसमें रहता हैं।”

पर्वतराज के ऐसा कहते ही एक चूहा उनके कानों से निकलकर सामने आ कूदा। चूहे को देखते ही कांता खुशी से उछल पडी “तात, तात! मुझे यह चूहा बहुत पसंद हैं। मेरा विवाह इसी से कर दीजिए। मुझे इसके कान और पूंछ बहुत प्यारे लग रहे हैं।मुझे यही वर चाहिए।”

ॠषि ने मंत्र बल से एक चुहिया को तो मानवी बना दिया, पर उसका दिल तो चुहिया का ही रहा। ॠषि ने कांता को फिर चुहिया बनाकर उसका विवाह चूहे से कर दिया और दोनों को विदा किया।

सीखः जीव जिस योनी में जन्म लेता हैं, उसी के संस्कार बने रहते हैं। स्वभाव नकली उपायों से नहीं बदले जा सकते।

कुंभ महापर्व

 शास्त्रोंमें कुंभमहापर्व जिस समय और जिन स्थानोंमें कहे गए हैं उनका विवरण निम्नलिखित लेखमें है। इन स्थानों और इन समयोंके अतिरिक्त वृंदावनमें...