रविवार, 3 दिसंबर 2017

"गौ सेवा का फल"



अयोध्या के राजा दिलीप बड़े त्यागी, धर्मात्मा, प्रजा का ध्यान रखने वाले थे। उनके राज्य में प्रजा संतुष्ट और सुखी थी। राजा की कोई संतान नहीं थी। अतः एक दिन वे रानी सुदक्षिणा सहित गुरु वसिष्ठ के आश्रम में पहुंचे और उनसे निवेदन किया कि भगवन् ! आप कोई उपाय बतायें, जिससे मुझे कोई संतान हो।

गुरु वसिष्ठ ने ध्यानस्थ होकर कुछ देखा और फिर वे बोले - राजन, यदि आप मेरे आश्रम में स्थित कामधेनु की पुत्री नन्दिनी गौ की सेवा करें, तो उसकी सेवा से आपको संतान अवश्य प्राप्त होगी।
राजा ने अपने सेवकों को अयोध्या वापस भेज दिया और स्वयं रानी सुदक्षिणा सहित महर्षि के तपोवन में गौ सेवा करने लगे। प्रतिदिन वे और सुदक्षिणा गाय की पूजा करते थे। राजा गाय को चरने के लिए स्वछन्द छोड़ देते थे। वह जिधर जाना चाहती, उधर उसके पीछे-पीछे छाया की तरह रहते, उसके जल पीने के पश्चात ही राजा जल पीते थे। उसे स्वादिष्ट घास खिलाते, नहलाते-धुलाते और उसकी समर्पित भाव से सेवा करते थे। संध्या के समय आश्रम में रानी सुदक्षिणा द्वार पर खड़ी उनकी प्रतिक्षा करती रहती थी। आते ही गौ को तिलक करती, गौदोहन के पश्चात राजा-रानी गाय की सेवा करते, स्थान की सफाई करते, उसके सो जाने पर सोते और प्रातः उसके जागने से पूर्व उठ जाते थे।

राजा और रानी २१ दिन निरन्तर छाया की भांति गौ सेवा कर चुके थे। २२ दिन जब राजा गौ चरा रहे थे, तब कहीं से आकर अचानक एक शेर गाय पर टूट पड़ा। तुरंत राजा ने धनुष-बाण चढ़ाकर सिंह को खदेड़ने का प्रयास किया पर उनके हाथ की अंगुलियां बाण पर चिपक गईं। उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही, जब सिंह मनुष्य की वाणी में राजा को चकित करते हुए बोला- "राजन, तुम्हारा बाण मुझ पर नहीं चल सकता है। मैं भगवान शंकर का सेवक कुम्भोदर हूं। इन वृक्षों की सेवा के लिए भगवान शिव ने मुझे यहां नियुक्त किया है और कहा है कि जो भी जीव आएगा, वहीं तुम्हारा आहार होगा। आज मुझे यह गाय आहार मिली है, अतः तुम लौट जाओ।"

राजा ने कहा- "सिंहराज, जैसे शंकर जी के प्रिय इस वृक्ष की रक्षा करना आपका कर्तव्य है, उसी प्रकार गुरुदेव की गौ की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। आपको आहार चाहिए, उसके लिए मैं गौ के स्थान पर अपना शरीर समर्पित करता हूं। आप मुझे खाकर अपनी भूख शांत करें। गौ को छोड़ दें। इसका छोटा बछड़ा इसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा।’

सिंह ने राजा को बहुत समझाया, पर राजा ने एक न सुनी। वे अस्त्र-शस्त्र त्याग कर सिंह के समक्ष आंखे बंद करके बैठ गए। राजा मृत्यु की प्रतिक्षा कर रहे थे, पर उन्हें नन्दिनी की अमृतवाणी सुनाई दी- "वत्स, उठो, तुम्हारी परीक्षा समाप्त हो चुकी है। मैं तुम पर प्रसन्न हूं, वरदान मांगो।"

राजा ने आंखे खोली तो सामने गौ माता को खड़ी देखा, सिंह का कोई अता-पता नहीं था। राजा ने वंश चलाने के लिए पुत्र की याचना की। गौमाता ने कहा-‘मेरा दूध दुहते ही तुम दूध पी लेना। तुम्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी।’

राजा ने कहा- ‘माता, आपके दूध का प्रथम अधिकार आपके बछड़े को है। उसके पश्चात गुरुदेव को, बिना गुरुदेव की आज्ञा के मैं दूध-पान नहीं कर सकता। आप क्षमा करें।’

राजा की बात सुन कर गौमाता प्रसन्न हुईं।

सायंकाल आश्रम में लौटकर राजा ने गुरुदेव को सारी घटना बतायी। गुरुदेव ने गौदोहन के पश्चात अपने हाथों से राजा और रानी को आशीर्वाद के साथ दूध पीने को दिया।

गौसेवा एवं दूधपान के पश्चात राजा और रानी राजमहल लौट आए। रानी गर्भवती हुई। उनके पुत्र रघु का जन्म हुआ। राजा के पुत्र रघु के नाम पर ही आगे चल कर सूर्यवंश को‘रघुवंश’ कहा जाने लगा।

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