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शास्त्रीय वाक्य

शास्त्रीय वाक्य तीन प्रकार के होते है-- १-रोचक, २-भयानक, ३-यथार्थ।
१ रोचकवाक्य--पुरुषों को धर्म में प्रवृत्ति कराने के लिए जो रुचिकर वाक्य कहे जाते हैं, वे रोचकवाक्य हैं।वैदिक प्रक्रिया में इन्हें विधि के प्रशंसक अर्थवाद कहा जाता है।जैसे----
 "गवां मंडूका ददत् शतानि--मेंढकों ने सौ गायें दान दिया।
   वनस्पतयः सत्रमासत--वनस्पतियों ने यज्ञ किया।।
   सर्पा:सत्रमासत--सर्पों ने यज्ञ किया।।
    जरद्गवो गायति मद्रकाणि--बृद्ध नीलगाय ने सामवेद का गान किया।"
इत्यादि वाक्यों का तात्पर्य केवल इतना ही है कि गोदान अवश्य करना चाहिए।जब वनस्पति या सर्प भी यज्ञ कर सकते हैं, तो मानव को अवश्य ही करना चाहिए। जब नीलगाय जैसा पशु गान कर सकता है, तो मनुष्य को अवश्य ही सामगान करना चाहिए,"
        यदि कोई इनकी अर्थवादता(रोचकता)को न समझकर वास्तवमें सर्पादि द्वारा यज्ञादि समझकर, प्रत्यक्ष में असंभव देखकर वेदोंमें  आक्षेप करे तो वह मूर्ख ही कहा जा सकता है।आजकल ऐसे लोगों की भरमार है।
      इसी प्रकार पुराणों में भी  अनेक स्थलोंमें  शुभ कार्यों में  प्रीति उत्पन करने के लिए इसी रोचक विधि का आश्रयण किया गया है।जैसे---
      पूजयित्वा रविं भक्त्या ब्रह्मा ब्रह्मत्वमागतः।
       विष्णुत्वं चापि देवेशो विष्णुराप तदर्चनात्।(भविष्य.ब्राह.१७४-०१)
अर्थ-सूर्यकी पूजा करने से ही ब्रह्मा जी ब्राह्मणत्व प्राप्त किये हैं।विष्णु को विष्णुत्व, तथा शिव जी को शिवत्व प्राप्त हुआ है।
        यावत्पदं नारो भक्त्या गच्छेत् विष्णुप्रदक्षिणे।
        तावत्कल्पसहस्राणि विष्णुना सह मोदते।।(पद्म. पु.७-११-५२)।
अर्थ--जितने पग व्यक्ति विष्णु की प्रदक्षिणा में चलता है, उतानी कल्प पर्यंत विष्णुके साथ आनन्द करता है।।
      इत्यादि वचन भी सूर्योपासना, विष्णु प्रदक्षिणा, आदि की प्रसंसार्थ ही हैं।इनके माध्यम से सूर्यपूजादि में अभिरुचि बढ़ाने का प्रयत्न किया गया है।अब इनको यथाश्रुत अर्थ लेकर कोई इनबातों पर आक्षेप करे, तो दोषी आक्षेपक ही होगा।  समाजियों ने ऐसे ऐसे वचनों को उद्धृत कर कर के बहुत कीचड़ उछाला है।

२ भयानकवाक्य--अधर्माचरण में लगे हुए व्यक्तियों को अधर्म से हटाने के लिए जो कठोर निन्दापरक वाक्य कहे गये हैं, वे भयानकवाक्य हैं।ये भी अर्थवादके अन्तर्गत आते हैं। इनका साक्षात् रूपमें कोई अर्थ नहीं होता ,वल्कि  निंदनीय की निन्दाकरके ,उससे हटाने में ही सार्थक होते हैं। ऐसे वाक्य वेदों व इतिहास पुराणादि में भी बहुत हैं।
      ईशावास्योपनिषद् में आया है--"
अन्धं तमः प्रविशन्ति येसम्भूतिमुपासते"(शुक्ल.यजु.४०-९)--जो लोग असंभूति (प्राकृत मायिक)की उपासना करते हैं, वे अंध तमस् में प्रवेश करते हैं।
      एतानि अविदित्वा योधीते ...प्रवामीयते(कात्यायन अनुक्रमणिका-१-१)--जो मनुष्य मंत्रों के ऋषि, देवता, छंद, आदि को न जानता हुआ  वेदाध्ययन करता है, वह मर जाता है।।
      इन दोनों मंत्रों में इस बात पर जोर डाला गया है कि-माया से अवश्य ही निवृत्त होजाना चाहिए।
     वेदाध्ययन करने वाले को ऋषि छंद  देवता का ज्ञान अवश्य होना चाहिए, तभी मंत्रों का समुचित विनियोग आदि संभव होता है।
      इन मंत्रों का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि--मायोपासक किसी अंधी खाई में गिरादिये जाते हों ,, देवतादि न जानने वाले की मृत्यु ही होजाती है।।
       यहां केवल इतना अर्थ ही निकलता है कि--देवतादि को न जानकर वेदाध्ययन करने से #प्रत्यवाय होता है।अतः अवश्य ही जानना चाहिए।।इन वाक्यों में भय दिखाकर  पाप से बचने के लिए जोर दिया गया है, इस लिए ऐसे वाक्य भयानकवाक्य हैं।
      पुराणों या स्मृतियों में भी ऐसे ही अनेक स्थलों में निन्दावचन आये हैं।---
      यः पुनः कृष्णवस्त्रेण मम कर्म परायणः।
      घुणो वै पंचवर्षाणि लाजावास्तुसमाश्रयः।।(बा.पु.१३५-१५-१६)--जो काले रंग का वस्त्र पहन कर मेरे(ईश्वर के )पूजनादि कर्मों को करता है, वह पाँच वर्ष पर्यंत धान की भुनी हुई खीलों में घुण का कीड़ा बनकर रहता है।
       गत्वा च तोषितं श्राद्धे यो भुङ्क्ते यश्च गच्छति ।
      रेतोमूत्रकृताहारास्तं मासं पितरस्तयो:।।ब्रह्म.पु.२२०- १०८)--जो पुरुष स्त्री संग करके भोजन करता या कराता है, तथा भोजन करके स्त्री संग करता है, उन दोनों के पितर उस महीने वीर्य मूत्र आदि खाते हैं।।
        इन श्लोकों के साक्षात्  अर्थ के अनुसार  कोई ईश्वरं की पूजा करने वाला मात्र एक गलती से घुण कीड़ा बन जाता है, अथावा कोई श्राद्ध कर्ता पुत्रादि के स्त्रीसंगरूप  पाप से पितरों को घृणित वस्तु खाने को मिलती है, ऐसा कठोर दंड भोगना पड़ता है,"ऐसा पुरणोंका अभिप्राय कदापि नहीं है।वल्कि अभिप्राय इतना ही है कि--शुभकार्योंमें_काले_वस्त्र_पहनना_उचित_नहीं_होता। और श्राद्धादि कर्मों को करते समय ब्रह्मचर्यका_पालन_न_करना_महा_पाप_है।
      इसी प्रकार मनु आदि स्मृतियों में  भी ऐसे ही --"कान में शीशा डाला देना चाहिए", इत्यादि वचन हैं। जिनका तात्पर्य  कान में पिघलाकर शीशा डालने में कदापि नहीं है।वल्कि अनाधिकारी द्वारा वेद श्रवण के निषेध में ही है।।

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