शनिवार, 9 दिसंबर 2017

रूपगोस्वामी जी को दिव्य अनुभूति : खीर प्रसादी



श्री रूप गोस्वामी जी लुप्त तीर्थों के उद्धार और ग्रन्थ-रचना आदि कार्यों में संलग्न रहते थे और साथ साथ आन्तरिक साधना चलती रहती थी. वे भजन की सुविधा की दृष्टि से वे अपने रहने का स्थान बदलते रहते. कभी 'भद्रवन' में रहते, कभी'नन्दीश्वर' के निकट, कभी 'गोवर्धन' की तलहटी में.कभी सनातम गोस्वामी के भजन-कुटी में, और कभी राधाकुण्ड में 'रघुनाथ दास गोस्वामी' और 'कृष्णदास' कविराज के सान्निध्य में.

इस बीच उनको अपने इष्ट राधा-कृष्ण,के प्रति बहुत सी अनुभूतियाँ भी उन्हें हुई.ऐसी ही एक बार बहुत दिन हो गये रूपगोस्वामी को धाम में रहते और धामेश्वरी का चिन्तन करते. पर उनकी साक्षात् कृपा का अनुभव उन्हें न हुआ. एक बार जब वे नन्दग्राम में रह रहे थे, उनकी कृपा न प्राप्त कर सकने के कारण उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ. क्षोभ बढ़ता गया. राधारानी का विरह असह्य हो गया. प्राण उनकी कृपा के बिना छटपट करने लगे. खाना-पीना छूट गया. मधुकरी को जाना बंद हो गया.

उसी समय उन्हें पता चला कि सनातन गोस्वामी आ रहे हैं उन्हें देखने. वे चिन्ता में पड़ गये कि गुरु-तुल्य अपने अग्रज के कैसे, क्या सेवा करें. वासना जागी कि कहीं से आवश्यक सामग्री उपलब्ध होती तो खीर बनाकर उन्हें खिलाते. पर सामग्री आती कहाँ से? किसी से कुछ मांगने का उनका नियम नहीं था. मधुकरी को जाते तो बिना मांगे रोटियों के टूक और मिलता ही क्या? वासना दबा देनी पड़ी.

उसी समय एक ब्रज-बालिका आयी दूध, चावल, शक्करादि बहुत-सा सामान लेकरं बोली- "बाबा तू मधुकरी को नाय गयौ कई दिना ते. भूखौ होयगो. माँ ने तेरे सामान भेज्यौ है. खीर बनाय के पाय लीजौं." रूप गोस्वामी अवाक! सनातन गोस्वामी को खीर खिलाने की उनकी वासना जागते ही सामान प्रस्तुत! यह कैसी राधारानी की कृपा! उन्होंने तनिक भी विलम्ब न किया. तत्काल ही बालिका की माँ को प्रेरणा देकर सामान भिजवा दिया.

रूप गोस्वामी यह सोच रहे थे और उनकी आंखों से आँसूओं का निर्झर बह रहा था. राधारानी की कृपा देख उनका हृदय द्रवित हो रहा था पर हृदय का क्षोभ फिर भी कम नहीं हो रहा था वह तो और बढ़ ही रहा था. राधारानी कृपा करती हैं तो भी दूर रहकर लुक-छिपकर दूसरों के माध्यम से करती हैं, मुझे कुपात्र जान स्वयं सामने न आना ही ठीक समझती हैं- वे सोच रहे थे. बालिका उनकी ओर विस्मय से देख रही थी.

देखते-देखते बोली- "बाबा तू रोबे कायको है? दुर्बल है, खीर बनायवे की शक्ति नहीं है इसलिए रोते हो क्या ? तो ला खीर मैं बनाय दऊँ."

"ना लाली, खीर तो मैं बना लूँगा. दुर्बल नहीं हूँ."

"बाबा, हाथ-पैरन में जान दीखे नाँय. खानो-पीनो बन्द कर राख्यौ है. मधुकरी को जाय नाँय, तो दुर्बल तो आपई होयगो. बाबा मधुकरी को क्यों नहीं जाते ?

"लाली, मधुकरी के लिये ही क्या वृज में पड़ा हूँ? व्रजेश्वरी की कृपा के लिए. जब वे कृपा करती ही नहीं, तो मधुकरी जा के क्या करूँगा?"

"बाबा, तू जाने नाँय.तुम पर तो कृपा हो रही है तभी तो यहाँ रख रखा है तुम्हे राधारानी ने. मेरी मईया कहती है उसकी कृपा के बिना कोई व्रज में रह ही नहीं सकता इसलिए दुःख मत कर मै जाती हूँ. खीर बनाय के पाय लीजों, नहीं तो राधा रानी को दुःख होगा" वह बालिका स्नेह भरी दृष्टि से बाबा की ओर देखती और मुस्कराती वहाँ से चली गयी.

मृदु-मधुर स्वर में भोली बालिका के अन्तिम शब्दों ने और उसकी स्नेहमयी मधुमयी दृष्टि ने बाबा के हृदय में एक नये आलोडन की सृष्टि की. थोड़ी देर में सनातन गोस्वामी आ गये. खीर बनाकर रूप गोस्वामी ने उन्हें खिलायीं खीर की अप्राकृत सुगंध और स्वाद से वे चमत्कृत रह गये. उसे खाकर जो अप्राकृत नशा चढ़ा, उसे देख उनका कौतूहल और भी बढ़ गया. रूप गोस्वामी से उन्होंने कहा- "रूप, ऐसी खीर तो मैंने कभी नहीं खाई! तुमने कैसे बनायी?"

रूप गोस्वामी ने सब वृतांत कह सुनाया. सुनते ही सनातन गोस्वामी के शरीर में एक सिहरन दौड़ गयी. वे अश्रुसिक्त विस्फारित नेत्रों से रूपगोस्वामी की ओर देखते रह गये. कुछ देर बाद बोले- "रूप! तुम नहीं जानते कि वह बालिका जो खीर की सामग्री लाई थी कौन थी. वे स्वयं राधारानी थीं. तुमने उन्हें इतना कष्ट दिया. वे अपने भक्त को भूखा कब देख सकती हैं? अब फिर कभी जान-बूझकर भूखे रहने की बात न सोचना."

"और देखो, अपने लिये या किसी और के लिये किसी वासना को भी हृदय में स्थान न देना. भक्त की वासना की पूर्ति के लिये ही राधारानी स्वयं चंचल हो उठती हैं. तुम्हारे हृदय में मुझे खीर खिलाने के लिए जो वासना हुई थी वह भी एक कारण है उनके स्वयं इतना कष्ट करने का."

यह सुन रूप गोस्वामी के वचनों की पुष्टि के लिये किसी बाह्य साक्ष्य की आवश्यकता तो थी नहीं. पर बाह्य साक्ष्य से भी उनकी पुष्टि अपने-आप हो गयी, जब वे दूसरे दिन उस बालिका के घर गये मधुकरी को. उसे वहाँ न देखकर घरवालों से पूछा, तो उन्होंने कहा- "वह तो बहुत दिनों से मासी के घर दूसरे गाँव गयी है. अभी आयी कहाँ है?"

अब और भी इस बात में संदेह करने का कोई अवकाश न रहा कि उस व्रज-बालिका के रूप में राधारानी ही आयी थीं खीर की सामग्री लेकर. आना तो था ही उन्हें. अपने दोनों प्रिय भक्तों की एक साथ सेवा करने का अवसर उन्हें फिर कब मिलता?

!! जय जय श्री राधे !!

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