मासिक धर्म (माहवारी/पीरियड) के काल में जीर्ण-शीर्ण ( फटे- पुराने) वस्त्र पहन कर गोशाला में एकान्तवास करना - ये हिन्दू धर्म की महिलाओं का पिछड़ापन नहीं वरन् गौरव है , क्योंकि ऐसा करके वह त्रिरात्रव्रत का पालन करती हैं और फिर चौथे दिन आप्लवन स्नान करके बिना फटे हुए शोभित नूतन वस्त्र पहनती हैं ।
इस विशेष व्रत के पालनकाल में स्त्री ना ही अलंकरण करती है , ना ही स्नान करती है , ना ही दिन में सोती है , ना ही दन्तधावन करती है , ना ही ग्रहादि का निरीक्षण करती है , ना हंसती है , ना ही कुछ आचरण करती है , ना ही अंजलि से जल पीती है ना ही लोहे या कॉसे के पात्र में भोजन करती है । वह सनातनधर्मिणी नारी गोशाला में भूमि पर शयन कर इस महान् व्रत को सम्यक् परिपालन कर आत्मसंयम का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत कर आत्मशोधन करती हुई देवताओं को आनन्दित करती है ।
पाश्चात्यमुखी, धर्ममूढ़, अज्ञानी असुरों व विधर्मियों ने हिन्दू महिलाओं के इस महान् व्रत को हिन्दुओं का पिछड़ापन बताकर हिन्दू मर्यादाओं को तहस नहस करने का भारी प्रयास किया और कर रहे हैं ।
वस्तुतः स्त्रियों के रजस्वला होने से पूर्वकाल में देवराज इन्द्र की विभाजित ब्रह्महत्या का इतिहास जुड़ा है , हिन्दू धर्म के विद्वान् मनीषी जानते हैं कि उस दैवीय विभाजन का ही एक भाग स्त्रीजाति को भी प्राप्त हुआ था , इस व्रत से उसी ब्रह्महत्या-दोष का उपशमन होता है ।
प्राणी_स्वकृत_कर्म_का_ही_भोग_करता_है - इस दार्शनिक सिद्धान्त से स्पष्ट है कि वस्तुतः रजोधर्मप्रधान स्त्री देह के माध्यम से जीव वस्तुतः अपने ही पूर्वकृत ब्रह्महनन दोष का ही उपशमन करता है । इसीलिये गीतोक्त पापयोनयः विशेषण का भाष्य पापजन्मानः भगवान् भाष्यकार ने किया है ।
मात्र ब्राह्मण की हत्या ही ब्रह्महत्या नहीं होती वरन् ब्राह्मण का अपमान भी ब्रह्महत्या ही होती है, क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान उन पर मृत्युदण्ड प्रहार ही होता है । इसीप्रकार, शास्त्र का विकृतिकरण भी ब्रह्महत्या ही है । अतः सदैव शास्त्रवचनों का अनर्थ , उनमें मनमानी व कुतर्कों के महान् पाप करने से बचना चाहिये ।
जो स्त्री रजस्वलावस्था में त्रिरात्रव्रत रूप धर्म का परिपालन नहीं करती , वह मृत्यु के अनन्तर नरकगामिनी होती है क्योंकि अनुपशमित पाप अंकुरित बीज की भॉति बढता हुआ दुख रूप महान् फलों को पैदा करता है । हमारे महान् क्रान्तदर्शी तपोनिष्ठ ऋषि-मुनिजन ये सनातन रहस्य जानते थे , इसीलिये उन्होंने इसका आचार -प्रचार किया था ।
वेदों के ये विधि- निषेध मानव के ही कल्याण के साधन होते हैं , किन्तु घोर अज्ञान में डूबे होने व घोर कुसंगति के कारण उन दुर्भागी मानवों को ये वैदिक विधान बोझ लगते हैं, जिनको धर्मपालन, ईश्वरभक्ति व आत्मकल्याण से कोई लेना -देना नहीं ,केवल पशुओं की तरह अन्धभोगमय जीवन यापन कर चौरासीलाख योनियों के चक्रव्यूह में ही भटकते जाना है ।
।। जय श्री राम ।।
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