रविवार, 31 दिसंबर 2017

भगवान विष्णु के वराह अवतार की कथा


वैकुंठ में श्रीमहाविष्णु का निवास माना जाता है। उनके भवन में कोई अनाधिकार प्रवेश न करे, इसलिए जय और विजय नामक दो द्वारपाल पहरा देते रहते थे। एक बार सनक महामुनि तथा उनके साथ कुछ अन्य मुनि श्रीमहाविष्णु के दर्शन करने उनके निवास पर पहुंचे। जय और विजय ने उन्हें महल के भीतर प्रवेश करने से रोका। इस पर मुनियों ने कुपित होकर द्वारपालों को शाप दिया, "तुम दोनों इसी समय राक्षस बन जाओगे, किंतु महाविष्णु के हाथों तीन बार मृत्यु को प्राप्त करने के बाद तुम्हें स्वर्गवास की प्राप्ति होगी।"

सांयकाल का समय था। महर्षि कश्यप संध्यावंदन अनुष्ठान में निमग्न थे। उस समय महर्षि कश्यप की पत्नी दिति वासना से प्रेरित हो अपने को सब प्रकार से अलंकृत कर अपने पति के समीप पहुंची। कश्यप महर्षि ने दिति को बहुविध समझाया, "देवी! मैं प्रभु की प्रार्थना और संध्यावंदन कार्य में प्रवृत्त हूं, इसलिए काम-वासना की पूर्ति करने का यह समय नहीं है।" किंतु दिति ने हठ किया कि उसकी इच्छा की पूर्ति इसी समय हो जानी चाहिए।

अंत में विवश होकर कश्यप को उसकी इच्छा पूरी करनी पड़ी। फलत: दिति गर्भवती हुई। मुनि पत्नी दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया। जय ने हिरण्याक्ष के रूप में और विजय ने हिरण्यकशिपु के रूप में जन्म लिया। इन दोनों के जन्म से प्रजा त्रस्त हो गई। दोनों राक्षस भ्राताओं ने समस्त लोक को कंपित कर दिया। उनके अत्याचारों की कोई सीमा न रही। वे समस्त प्रकार के अनर्थो के कारण बने।

कालांतर में हिरण्याक्ष तथा देवताओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। युद्ध जब चरम सीमा पर पहुंचा, तब हिरण्याक्ष पृथ्वी की गेंद की तरह वृत्ताकार में लपेटकर समुद्र-तल में पहुंचा। भूमि के अभाव में सर्वत्र केवल जल ही शेष रह गया। इस पर देवताओं ने श्रीमहाविष्णु के दर्शन करके प्रार्थना की कि वे पुन: पृथ्वी को यथास्थान स्थिर रखें। उस वक्त ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु अपने पिता की सेवा में उपस्थित रहकर उनकी परिचर्या में निरत थे। अपने पुत्र की सेवाओं से प्रमुदित होकर ब्रह्मा ने मनु को सलाह दी, "हे पुत्र! तुम देवी की प्रार्थना करो। उनके आशीर्वाद प्राप्त करो। तुम अवश्य एक दिन प्रजापति बन जाओगे।"

स्वांयभुव ने ब्रह्मा के सुझाव पर जगदंबा देवी के प्रति निश्चल भक्ति एवं अकुंठित भाव से कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या पर प्रसन्न होकर जगदंबा प्रत्यक्ष हुईं और कहा, "पुत्र! मैं तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा और तपस्या पर प्रसन्न हूं, तुम अपना वांछित वर मांगो। मैं अवश्य तुम्हारा मनोरथ पूरी करूंगी।"

स्वायंभुव ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक जगदंबा से निवेदन किया, "माते! मुझे ऐसा वर प्रदान कीजिए जिससे मैं बिना किसी प्रकार के प्रतिबंध के सृष्टि की रचना कर सकूं।" जगदंबा ने स्वायंभुव मनु पर अनुग्रह करके वर प्रदान किया।

स्वायंभुव अपने मनोरथ की सिद्धि पर प्रसन्न होकर ब्रह्मा के पास लौट आए और कहा, "पिताजी! मुझे जगदंबा का अनुग्रह प्राप्त हो गया है। आप मुझे आशीर्वाद देकर ऐसा स्थान बताइए, जहां पर मैं सृष्टि रचना का कार्य संपन्न कर सकूं।"

ब्रह्मदेव दुविधा में पड़ गए, क्योंकि हिरण्याक्ष पृथ्वी को ढेले के रूप में लपेटकर अपने साथ जल में ले जाकर छिप गया है। ऐसी हालत में सृष्टि की रचना के लिए कहां पर वे उचित स्थान बता सकते हैं। सोच-विचारकर वे इस निर्णय पर पहुंचे कि महाविष्णु ही इस समस्या का समाधान कर सकते हैं।

फिर क्या था, बह्मदेव ने महाविष्णु का ध्यान किया। ध्यान के समय ब्रह्मा ने दीर्घ निश्वास लिया, तब उनकी नासिका से एक सूअर निकल आया। वह वायु में स्थित हो क्रमश: अपने शरीर का विस्तार करने लगा। देखते-देखते एक विशाल पर्वत के समान परिवर्तित हो गया। सूअर के उस बृहदाकार को देखकर स्वंय ब्रह्मा विस्मय में आ गए।

सूअर ने विशाल रूप धारण करने के बाद हाथी की भांति भयंकर रूप से चिंघाड़ा। उसकी ध्वनि समस्त लोकों में व्याप्त हो गई। मर्त्यलोक तथा सत्यलोक के निवासी समझ गए कि यह महाविष्णु की माया है। सबने आदि महाविष्णु की लीलाओं का स्मरण किया। उसके बाद सूअर रूप को प्राप्त आदिविष्णु चतुर्दिक प्रसन्न दृष्टि प्रसारित कर पुन: भयंकर गर्जन कर जल में कूद पड़े। उस आघात को जलदेवता वरुण देव सहन नहीं कर पाए। उन्होंने महाविष्णु से प्रार्थना की, "आदि देव! मेरी रक्षा कीजिए।" ये वचन कहकर वरुण देव उनकी शरण में आ गए।

सूअर रूपधारी जल के भीतर पहुंचे। पृथ्वी को अपने लंबे दांतों से कसकर पकड़ लिया और जल के ऊपर ले आए। महाविष्णु को पृथ्वी को उठा ले जाते देखकर हिरण्याक्ष ने उनका सामना किया। महाविष्णु ने क्रुद्ध होकर हिरण्याक्ष का वध किया। (तब जल पर तैरते हुए पृथ्वी को जल के ऊपर अवस्थित किया।) फिर पृथ्वी को सघन बनाकर जल के मध्य उसे स्थिर किया। पृथ्वी इस रूप मे अवतरित हुई। जैसे जल के मध्य कमल तैर रहा हो।
ब्रम्ह देव ने विष्णु भगवान की अनेक प्रकार से स्तुति की। इसके बाद उन्होंने अपने पुत्र स्वायम्भुव को पृथ्वी पर सृष्टि की रचना के लिए उचित स्थान पर जाने का आदेश दिया। इस प्रकार सृष्टि की निर्विघ्न रचना हुइ।
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय।।

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