रविवार, 31 दिसंबर 2017

कामविकार

श्री आद्य शंकराचार्य कहते हैं -

आयु ढलने पर कामविकार कैसा ? जल सूखने पर जलाशय क्या ? तथा धन नष्ट होने पर परिवार ही क्या ? इसी प्रकार,  तत्त्वज्ञान होने पर संसार ही कहॉ रह सकता है ।
 अतः अरे मूढ !  तू सदा गोविन्द के  ही भजन में लग, (क्योंकि मृत्यु आ जाने पर फिर  अभ्यास रक्षा नहीं करेगा ) ।

वयसि गते  कः कामविकारः,  शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारः,  ज्ञाते तत्त्वे कः संसार ।।

भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।।

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जिसने जीवन भर  जैसा स्वयं को बनाया है , मृत्युकाल में वह  वैसा ही  हो  कर रह जाता है ,

उत्तराखण्ड   में एक प्रेरणा कथा प्रचलित है ।  कहा जाता है एक बार एक व्यक्ति मरने लगा , तो लोगों ने  मन में सोचा कि इसने जीवन भर तो भगवान् का नामलिया नहीं , तो क्यों न अन्त में ही इसके मुख से  हरि नाम निकलवाया जाये ,   बहुत प्रयास किया नातेदारों ने हरिनाम मुख से निकलवाने का  , पर वह बोल नहीं पाया ,

पहाड़ में ठंडे हिमालयी  प्रदेशों में  ककड़ी बहुत प्रसिद्ध आहार रहती है । वो पहले  हरी रहती है , फिर पीली फिर भूरी हो जाती है । 

उसको हरी ककड़ी बहुत पसन्द थी , जिसे पहाड़ों  में हरिया ककडी  कहते हैं, क्योंकि उसमें स्वादिष्ट रस रहता है , पक कर भूरी हो जाने पर  बाद में खट्टापन आ जाता है  ।   तो लोगों ने सोचा क्यों न इससे  हरिया ककड़ी  का ही नाम   निकलवा लिया जाये , तो कम इस बहाने तो  हरि शब्द  आ जायेगा ।

तो उससे पूछा कि दादा ! ककड़ी खाओगे ?  तो वो बोला हॉ !पूछा कौन सी ?  तो हरिया न कह कर उसके मुखसे निकला  भूरी  ककड़ी  और  प्राण छूट गए  ।

इसलिए जो सोचते हैं  कि जीवन के  अन्त में  भगवत्प्रपन्न बनेंगे  ,   अन्त में  तो चाह कर भी नहीं  हो  सकेगा  !

शंका -  अजामिल ने अन्त में नारायण कहा ।

समाधान -  अजामिल की पत्नी को अजामिल के अन्त के  कल्याण हेतु विशेष  सन्त- वरदान सन्तान के रूप में प्राप्त हुआ था । उसी के बल से नामोच्चार हो सका था ,  जिसके फलस्वरूप वह पुनः भगवत् साधना कर पाया ।

शंका - खटवाङ्ग नामक राजा ने अन्त की दो घड़ी में आत्मकल्याण किया ।

 समाधान - खटवाङ्ग नामक राजा के सम्बन्ध में भी ध्यातव्य  है कि , पूरे जीवन स्वधर्म पालन किया था , युद्ध धर्मपालन करते हुए आजीवन उन्होंने  देवताओं की सेवा की थी ।

इसलिये भगवान् शंकर कहते हैं , बालक तो खेलकूद में आसक्त रहता है ,तरुण स्त्री में आसक्त है और वृद्ध भी नाना प्रकार की चिन्ताओं  में मग्न रहता है , परब्रह्म में तो कोई संलग्न नहीं होता ।

अतः अरे मूढ !  तू सदा गोविन्द के  ही भजन में लग, (क्योंकि मृत्यु आ जाने पर फिर  अभ्यास रक्षा नहीं करेगा ) ।

बालस्तावत् क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत् तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः  पारे ब्रह्मणि कोsपि न लग्नः ।।

भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।।

।। जय  श्री राम ।।

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