श्री आद्य शंकराचार्य कहते हैं -
आयु ढलने पर कामविकार कैसा ? जल सूखने पर जलाशय क्या ? तथा धन नष्ट होने पर परिवार ही क्या ? इसी प्रकार, तत्त्वज्ञान होने पर संसार ही कहॉ रह सकता है ।
अतः अरे मूढ ! तू सदा गोविन्द के ही भजन में लग, (क्योंकि मृत्यु आ जाने पर फिर अभ्यास रक्षा नहीं करेगा ) ।
वयसि गते कः कामविकारः, शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारः, ज्ञाते तत्त्वे कः संसार ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।।
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जिसने जीवन भर जैसा स्वयं को बनाया है , मृत्युकाल में वह वैसा ही हो कर रह जाता है ,
उत्तराखण्ड में एक प्रेरणा कथा प्रचलित है । कहा जाता है एक बार एक व्यक्ति मरने लगा , तो लोगों ने मन में सोचा कि इसने जीवन भर तो भगवान् का नामलिया नहीं , तो क्यों न अन्त में ही इसके मुख से हरि नाम निकलवाया जाये , बहुत प्रयास किया नातेदारों ने हरिनाम मुख से निकलवाने का , पर वह बोल नहीं पाया ,
पहाड़ में ठंडे हिमालयी प्रदेशों में ककड़ी बहुत प्रसिद्ध आहार रहती है । वो पहले हरी रहती है , फिर पीली फिर भूरी हो जाती है ।
उसको हरी ककड़ी बहुत पसन्द थी , जिसे पहाड़ों में हरिया ककडी कहते हैं, क्योंकि उसमें स्वादिष्ट रस रहता है , पक कर भूरी हो जाने पर बाद में खट्टापन आ जाता है । तो लोगों ने सोचा क्यों न इससे हरिया ककड़ी का ही नाम निकलवा लिया जाये , तो कम इस बहाने तो हरि शब्द आ जायेगा ।
तो उससे पूछा कि दादा ! ककड़ी खाओगे ? तो वो बोला हॉ !पूछा कौन सी ? तो हरिया न कह कर उसके मुखसे निकला भूरी ककड़ी और प्राण छूट गए ।
इसलिए जो सोचते हैं कि जीवन के अन्त में भगवत्प्रपन्न बनेंगे , अन्त में तो चाह कर भी नहीं हो सकेगा !
शंका - अजामिल ने अन्त में नारायण कहा ।
समाधान - अजामिल की पत्नी को अजामिल के अन्त के कल्याण हेतु विशेष सन्त- वरदान सन्तान के रूप में प्राप्त हुआ था । उसी के बल से नामोच्चार हो सका था , जिसके फलस्वरूप वह पुनः भगवत् साधना कर पाया ।
शंका - खटवाङ्ग नामक राजा ने अन्त की दो घड़ी में आत्मकल्याण किया ।
समाधान - खटवाङ्ग नामक राजा के सम्बन्ध में भी ध्यातव्य है कि , पूरे जीवन स्वधर्म पालन किया था , युद्ध धर्मपालन करते हुए आजीवन उन्होंने देवताओं की सेवा की थी ।
इसलिये भगवान् शंकर कहते हैं , बालक तो खेलकूद में आसक्त रहता है ,तरुण स्त्री में आसक्त है और वृद्ध भी नाना प्रकार की चिन्ताओं में मग्न रहता है , परब्रह्म में तो कोई संलग्न नहीं होता ।
अतः अरे मूढ ! तू सदा गोविन्द के ही भजन में लग, (क्योंकि मृत्यु आ जाने पर फिर अभ्यास रक्षा नहीं करेगा ) ।
बालस्तावत् क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत् तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोsपि न लग्नः ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।।
।। जय श्री राम ।।
आयु ढलने पर कामविकार कैसा ? जल सूखने पर जलाशय क्या ? तथा धन नष्ट होने पर परिवार ही क्या ? इसी प्रकार, तत्त्वज्ञान होने पर संसार ही कहॉ रह सकता है ।
अतः अरे मूढ ! तू सदा गोविन्द के ही भजन में लग, (क्योंकि मृत्यु आ जाने पर फिर अभ्यास रक्षा नहीं करेगा ) ।
वयसि गते कः कामविकारः, शुष्के नीरे कः कासारः ।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारः, ज्ञाते तत्त्वे कः संसार ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।।
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जिसने जीवन भर जैसा स्वयं को बनाया है , मृत्युकाल में वह वैसा ही हो कर रह जाता है ,
उत्तराखण्ड में एक प्रेरणा कथा प्रचलित है । कहा जाता है एक बार एक व्यक्ति मरने लगा , तो लोगों ने मन में सोचा कि इसने जीवन भर तो भगवान् का नामलिया नहीं , तो क्यों न अन्त में ही इसके मुख से हरि नाम निकलवाया जाये , बहुत प्रयास किया नातेदारों ने हरिनाम मुख से निकलवाने का , पर वह बोल नहीं पाया ,
पहाड़ में ठंडे हिमालयी प्रदेशों में ककड़ी बहुत प्रसिद्ध आहार रहती है । वो पहले हरी रहती है , फिर पीली फिर भूरी हो जाती है ।
उसको हरी ककड़ी बहुत पसन्द थी , जिसे पहाड़ों में हरिया ककडी कहते हैं, क्योंकि उसमें स्वादिष्ट रस रहता है , पक कर भूरी हो जाने पर बाद में खट्टापन आ जाता है । तो लोगों ने सोचा क्यों न इससे हरिया ककड़ी का ही नाम निकलवा लिया जाये , तो कम इस बहाने तो हरि शब्द आ जायेगा ।
तो उससे पूछा कि दादा ! ककड़ी खाओगे ? तो वो बोला हॉ !पूछा कौन सी ? तो हरिया न कह कर उसके मुखसे निकला भूरी ककड़ी और प्राण छूट गए ।
इसलिए जो सोचते हैं कि जीवन के अन्त में भगवत्प्रपन्न बनेंगे , अन्त में तो चाह कर भी नहीं हो सकेगा !
शंका - अजामिल ने अन्त में नारायण कहा ।
समाधान - अजामिल की पत्नी को अजामिल के अन्त के कल्याण हेतु विशेष सन्त- वरदान सन्तान के रूप में प्राप्त हुआ था । उसी के बल से नामोच्चार हो सका था , जिसके फलस्वरूप वह पुनः भगवत् साधना कर पाया ।
शंका - खटवाङ्ग नामक राजा ने अन्त की दो घड़ी में आत्मकल्याण किया ।
समाधान - खटवाङ्ग नामक राजा के सम्बन्ध में भी ध्यातव्य है कि , पूरे जीवन स्वधर्म पालन किया था , युद्ध धर्मपालन करते हुए आजीवन उन्होंने देवताओं की सेवा की थी ।
इसलिये भगवान् शंकर कहते हैं , बालक तो खेलकूद में आसक्त रहता है ,तरुण स्त्री में आसक्त है और वृद्ध भी नाना प्रकार की चिन्ताओं में मग्न रहता है , परब्रह्म में तो कोई संलग्न नहीं होता ।
अतः अरे मूढ ! तू सदा गोविन्द के ही भजन में लग, (क्योंकि मृत्यु आ जाने पर फिर अभ्यास रक्षा नहीं करेगा ) ।
बालस्तावत् क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत् तरुणीरक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोsपि न लग्नः ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।।
।। जय श्री राम ।।
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