शनिवार, 9 दिसंबर 2017

महाकाल की कथा


माटी नामका एक बड़ा शिवभक्त था. उसने संतान प्राप्ति के लिए 100 साल तक शिवजी का कठोर तप किया था. शिवजी ने उसे संतान का वरदान दिया. समय आने पर उसकी पत्नी गर्भवती हुई.
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पत्नी का प्रसव चार साल तक नहीं हुआ तो माटी को बड़ी चिंता हुई. पता चला कि गर्भ का बालक कालमार्ग नामक राक्षस के डर से बाहर ही नहीं निकल रहा.
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माटी ने सोचा कि क्यों न गर्भ में स्थित शिशु को शिवज्ञान दे दिया जाए. उसने शिशु को शिवज्ञान देना शुरू किया जिससे शिशु को बोध हुआ और वह बाहर निकला.
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माटी ने कालमार्ग से डरने के कारण अपने पुत्र का नाम रखा कालभीति. कालभीति जन्म से ही परम शिव भक्त थे. बड़ा होते ही कालभीति घोर तपस्या में लगे.
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बेल के पेड़ के नीचे पैर के अंगूठे पर खड़े हो वह सौ वर्षों तक एक बूँद भी पानी पिये बिना मंत्रों का जप करते रहे. सौ वर्ष पूरे होने पर एक दिन एक आदमी जल से भरा हुआ घड़ा लेकर आया.
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कालभीति को नमस्कार कर उसने कहा कि जल ग्रहण कीजिए. कालभीति बोले– आप किस वर्ण के हैं, आप का आचार-व्यवहार कैसा है ? यह सब जाने बिना मैं जल नहीं पी सकताच.
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पानी लाने वाला आगंतुक बोला- मैं जब अपने माता पिता को ही नहीं जानता तो अपने वर्ण का क्या कहूं ? आचार-विचार और धर्मों से मेरा कोई वास्ता ही नहीं रहा है.
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कालभीति ने कहा- मेरे गुरु के अनुसार जिसके कुल का ज्ञान न हो उसका अन्न जल ग्रहण करने वाला तत्काल कष्ट में पड़ता है. मैं पानी नहीं पिउंगा श्रीमन् !
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आगंतुक बोला– तुम्हारी बात पर हँसी आती है. जब सब में भगवान शंकर ही निवास करते हैं, तो किसी को बुरा नहीं कहना चाहिए क्योंकि इससे भगवान शंकर की ही निंदा होती है.
.यह जल अपवित्र कैसे हुआ ? घड़ा मिट्टी का बना है और आग में पका है, फिर जल से भर दिया गया. मेरे छूने से अशुद्धि आ गयी ? तो अगर मैं अशुद्ध होकर इसी धरती पर हूं तो आप यहां क्यों रहते हैं ? आकाश में क्यों नहीं रहते ?
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कालभीति ने कहा– सभी में शिव ही हैं, सब को शिव मानने वाले नास्तिक लोग खाना छोड़ कर मिट्टी क्यों नहीं खाते ? राख और धूल क्यों नही फांकते ? मैं यह नहीं कह रहा कि सब में शिव नहीं है. भगवान शिव सब में हैं ही.
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मेरी बात ध्यान से सुनिए. सोने के गहने बहुत तरह के बनते हैं. कुछ शुद्ध सोने के तो कुछ मिलावटी. खरे, खोटे सभी आभूषणों में सोना तो है ही. इसी प्रकार ऊंच, नीच, शुद्ध, अशुद्ध सब में भगवान् सदाशिव विराजमान हैं.
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जैसे खोटा सोना खरे के साथ मिलकर एक हो जाता है इसी तरह इस शरीर को भी व्रत, तपस्या और सदाचार आदि के द्वारा शोधित करके शुद्ध बना लेने पर मनुष्य निश्चय ही खरा सोना होकर स्वर्गलोक में जाता है.
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तो शरीर को खोटी अपवित्र चीजों से बिगाड़ना ठीक नहीं. जो व्रत, उपवास करके शुद्ध हो गया है, वह भी यदि इस तरह अशुद्ध होने लगे तो थोड़े ही दिनों में पतित हो जायेगा इसलिए आपका दिया पानी तो मैं कभी नहीं पिउंगा.
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कालभीति के ऐसा कहने पर आगंतुक हंसने लगा. उसने दाहिने अंगूठे से जमीन कुरेदकर एक बहुत बड़ा गड्ढा तैयार किया. फिर उसी में वह सारा जल ढुलका दिया. गड्ढा भर गया, पानी बचा रह गया.
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फिर उसने अपने पैर से ही कुरेदकर एक तालाब बना दिया और बचे हुए जल से उस तालाब को भर दिया. यह अद्भुत दृश्य देखकर कालभूति जरा भी नहीं चौंके.
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आगंतुक बोला- ब्राह्मणदेव ! आप हैं तो मूर्ख, परन्तु बातें पंडितों सी करते हैं. लगता है आपने विद्वानों की बात नहीं सुनी, कुआँ दूसरे का, घडा दूसरे का और रस्सी दूसरे की है. एक पानी पिलाता है और एक पीता है.
.सब समान फल के भागी होते हैं. ऐसा ही मेरा भी जल है. तुम धर्म के ज्ञाता हो; फिर क्यों इसे नहीं पिओगे. कालभीति ने विचार किया,यदि एक कार्य में अनेक सहायक हों तो काम करने वाले को मिलने वाला फल बंटकर समान हो जाता है. बात तो ठीक है.
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कालभीति ने उस मनुष्य से कहा- आपका यह कहना ठीक है. कुएं और तालाब का पानी पीने में दोष नहीं है. फिर भी आपने तो अपने घड़े के जल से ही इस गड्ढे को भरा है. यह बात सामने देखकर मैं हर्गिज इसे नहीं पीयूंगा.
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कालभीति के हठ पर वह पुरुष हंसता हुआ अंतर्ध्यान हो गया. अब कालभीति को अचरज हुआ. सोचने लगे कि ये क्या किस्सा है. इतने में ही उस बेल के पेड़ के नीचे धरती फाड़ कर सुन्दर चमचमाता शिवलिंग प्रकट हो गया.
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तब कालभीति ने कहा – जो पाप के काल हैं जिनके कंठ में काला चिन्ह सुशोभित होता है तथा जो संसार के कालस्वरूप हैं, उन भगवान् महाकाल की मैं शरण लेता हूं. आप हमें शरण दीजिए. आपको बारम्बार नमस्कार है.
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कालभीति की स्तुति पर महादेव उस लिंग से प्रकट हुए और कहा– ब्राह्मण ! तुमने इस महातीर्थ में रहकर मेरी जो आराधना की है, उससे मैं संतुष्ट हूं. अब कालमार्ग से तुम निर्भय रहो.
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मैं ही मनुष्य रूप में प्रकट हुआ था. मैंने यह गड्ढा और तालाब सब तीर्थों के जल से भरा है. यह परम पवित्र जल तुम्हारे लिए ही लाया था. तुम मुझ से कोई मनोवांछित वर मांगो.
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कालभीति ने कहा – प्रभु ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो सदा यहां निवास करें. इस शिव लिंग पर जो भी दान, पूजन किया जाए, वह अक्षय हो. आपने काल से मुझे मुक्ति दिलाई है,इसलिए यह शिवलिंग महाकाल के नाम से प्रसिद्ध हो.
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भगवान बोले– जो चतुर्दशी, अष्टमी, सोमवार तथा पर्व के दिन इस सरोवर में स्नान करके इस शिवलिंग की पूजा करेगा, वह शिव को ही प्राप्त होगा. यहां किया हुआ जप, तप और रूद्र जप सब अक्षय होगा. तुम नंदी के साथ मेरे दूसरे द्वारपाल बनोगे.
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काल पर विजय पाने से तुम महाकाल के नाम से प्रसिद्द होगे. शीघ्र ही राजर्षि करन्धम यहां आएंगे उन्हें धर्म का उपदेश करके तुम मेरे लोक में चले आओ. यह कहकर भगवान रूद्र उस लिंग में ही लीन हो गए. ( स्रोत : स्कंद पुराण )

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