।। जय जय जगन्नाथ।।
द्वारका लीला में श्री कृष्णचंद्र की पटरानियों ने एक बार माता रोहणी के भवन में जाकर उनसे आग्रह किया कि वह उन्हें श्यामसुंदर की ब्रज लीला के गोपियों के प्रेम प्रसंग को सुनना चाहती है। हमनें सुना है कि गोपियां और श्यामसुंदर के बीच में अगाध महाप्रेममय महारास हुआ था। हम सभी पटरानियां भी श्यामसुंदर से अथाह प्रेम करती है। क्या गोपियां और श्यामसुंदर का प्रेम हमसे भी अधिक प्रगाढ़ था। कृपा करके हमें रासलीला सुनायें। माता रोहणी ने टालना चाहा, किन्तु पटरानियों के आग्रह के कारण उन्हें सुनाने के लिए प्रस्तुत होना पड़ा। पर सुभद्रा जी भी बहां उपस्थित थीं। अतः सुनाना संभव नहीं था। तो माता ने सुभद्रा जी को आदेश दिया कि वे बाहर द्वार खड़ी रहें और किसी को भी भीतर प्रवेश न करनें दें। तव माता रोहणी ने गोपियां और श्यामसुंदर की रासलीला का गान प्रारंभ किया। गान इतना सुमधुर था। कि श्यामसुंदर, बलरामजी से कहने लगे दाऊ भैया कोई हमें प्रगाढ़ प्रेम से याद कर रहा है, और उसके प्रेम से हम उनकी ओर खिंचे चले जा रहे हैं। तो दाऊ जी बोले हां कन्हैया मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। और दोनों भैया सुभद्रा जी के समीप पहुंच गए और जैसे ही दरवाजे के भीतर प्रवेश करना चाहा सुभद्रा जी ने दोनों भाइयों के कंधे पर हाथ रख कर रोक दिया। बंद द्वार के भीतर जो वार्ता चल रही थी, वह बार्ता उन्हें स्पष्ट सुनाई दे रही थी। उसे सुनकर तीनों के ही शरीर द्रवित होने लगे। उसी समय देवर्षि नारद जी वहां आ गये, नारद जी ने जो यह प्रेम द्रवित स्वरुप देखा तो प्राथना की, कि हे प्रभु आप तीनों इसी रुप में विराजमान हों, और जगत में पूजेजायें। श्री कृष्ण ने स्वीकार किया कलयुग में दारूक विग्रह में इसी रूप में हम तीनों स्थिति होंगे।
प्राचीन काल में मालव देश के नरेश इन्द्रध्दुम्न को पता चला कि उत्तर प्रदेश में कहीं नीलांचल पर भगवान् नील माधव का पूजित श्री विग्रह है। विष्णु भक्त राजा नील माधव के दर्शन के लिए प्रयत्न करने लगे। तो उन्हे स्थान का लग गया। जव वे वहां पहुंचे, देवता उस विग्रह को अपने लोक में ले गये थे। उसी समय आकाशवाणी हुई कि दारूक ब्रम्ह रूप में तुम्हें श्री जगन्नाथ जी के दर्शन होंगे।
महाराज इन्द्रध्दुम्न सपरिवार और प्रजाजन के साथ नीलांचल के पास बस गए। एक दिन समुद्र में एक बहुत बड़ा काष्ठ (महादारू) बह कर आया। राजा ने उसे निकलवा लिया। विष्णु मूर्ति के लिए। उसी समय वृध्द बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी उपस्थित हुए, उन्होंने मूर्ति बनाना स्वीकार कर लिया। और कहा जव तक वे सूचित न करें, तव तक बंद द्वार न खोला जाये। जिसमें वे मूर्ति बनायेंगे।
वे काष्ठ को लेकर एक भवन में बंद हो गये। कई दिन बीतने पर महारानी ने कहा कि मूर्तिकार भूख प्यास से मर गया होगा। भवन का द्वार खोला जाय। महाराज के आदेश पर जब द्वार खोला गया, तो बढ़ई आदृश्य हो गया था। और वही प्रेम गलित कृष्ण सुभद्रा बलराम श्री जगन्नाथ जी की प्रतिमाएँ मिली। राजा को मूर्ति के सम्पूर्ण ना होने का बड़ा दुख हुआ। उसी समय आकाशवाणी हुई, चिंता मत करो। इसी रुप में रहने की हमारी इच्छा है। मूर्तियों को पवित्र द्रव(रंग) से सज्जित कर प्रतिष्ठित कर दो।
जहां मूर्तियां तैयार हुई वह गुंडीचा मंदिर ब्रम्हलोक या जनकपुर कहते हैं।
एक बार द्वारका में सुभद्रा जी ने नगर देखना चाहा तो कृष्ण सुभद्रा बलराम अलग अलग रथ में वैठकर (आगे कृष्ण रथ बीच में सुभद्रा रथ पीछे बलराम जी का रथ) नगर दर्शन कराया। इसी घटना के स्मरण रूप रथयात्रा निकलती है।
।। जय जय जगन्नाथ।।
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