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पृथ्वी का निर्माण

महराज ध्रुव के वंश मेँ
अंग नामक राजा हुए ।अंग
का पुत्र वेन
बड़ा अधार्मिक था ,
मुनियोँ ने क्रोध पूर्वक
शाप दे दिया , जिससे
उसकी मृत्यु हो जाने से
राज्य मे उत्पात बढ़
गया ।
जो सरस्वती नदी के तट
पर बैठे ऋषियोँ को मालूम
हुआ तो सबने मिलकर "वेन"
की जंघा का मंथन
किया तब एक छोटे शरीर
का काले कौए
जैसा काला ,लम्बी दाढ़ी और
चपटी लम्बी नासिका एवं
नेत्र और केश लाल
वाला पुरुष प्रकट होकर
विनीत स्वर मे कहा - मैँ
क्या करुँ ? तब ऋषिगणोँ ने
कहा - निषीद अर्थात् बैठ
जा । वह निषाद हुआ ।
पुनः बाहु का मंथन करने
पर स्त्री पुरुष का एक
जोड़ा प्रकट हुआ ।जिसे
देखकर ऋषियोँ ने कहा यह
पुरुष लोको का पालन
करने वाली भगवान
की कला है एवं
कन्या लक्ष्मी जी की अंशावतार
है । यह पुरुष प्रसिद्ध
राजा "पृथु" होगे एवँ
कन्या "अर्चि"
नामकी पति सेविका रानी होगी ।
लोक रक्षा हेतु साक्षात्
लक्ष्मी नारायण का अंश
ही प्रकट हुआ है ।
.. . . . . . उन्ही पृथु ने एक
बार पृथ्वी के अन्न न देने
पर पृथ्वी को दण्ड देने
का निश्चय किया तब
पृथ्वी गौ का रुप धारण
करके आयी और कहा कि आप
किसी को वत्स बना कर
मेरा दोहन कीजिए । तब
राजा पृथु ने मनु
को बछड़ा बनाकर अपने
हाथ मे सब अन्न का दोहन
किया । ऋषियो ने
बृहस्पति को बछड़ा बनाकर
स्वर्ण पात्र मेँ अमृत ,
इन्द्रिय शक्ति, मन
शक्ति, और शरीर
शक्ति रुपी दूध दुहा ।
दैत्योँ ने प्रह्लाद
को बछड़ा बनाकर लौह
पात्र मे मदिरा एवं आसव
रुप दूध को निकाला ।
गन्धर्वो एवं अप्सराओँ ने
विश्वासु
को बछड़ा बनाकर कमल
पात्र मेँ सुरीली वाणी ,
एवं गान विद्या रुपी दूध
दुहा ।श्राद्ध देव ने
अर्यमा को बछड़ा बनाकर
कच्चे मृत्तिका पात्र मेँ
कव्य रुपी क्षीर ,
सिद्धोँ ने कपिल
को बछड़ा बनाकर आकाश
रुपी पात्र मेँ
सिद्धि रुपी दूध
तथा विद्याधरो नेँ
विद्या का दोहन किया ।
मायावियोँ ने मय
को बछड़ा बनाकर
मायामय विद्याओँ का और
यक्ष पिशाच आदि ने
रुधिर रुपी मद का दोहन
किया । बिच्छू , सर्प ,
नाग , पशु , सिंह ,पक्षी ,
कीट , वृक्ष , पर्वत
आदि सभी ने अपने
स्वभावानुरुप इच्छित
पदार्थो का दोहन
किया ।
राजा पृथु ने धनुष के अग्र
भाग से पर्वत शिखाओ
को तोड़कर गिराया और
पृथ्वी को समतल बनाया ।

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