शनिवार, 30 सितंबर 2017

कृष्णनाम् का महत्त्व

    गोकोटिदानं   ग्रहणेषु   काशी,  
                                 प्रयागगंगायुतकल्पवासः।
    यज्ञायुतं          मेरूसुवर्णदानं,
                      गोविंदनाम्ना  न  कदापि  तुल्यम्।।

    दानौ में सर्वश्रेष्ठ, गौ दान का महत्व काशीजी में है, यदि ग्रहण काल में गौ दान काशी में किया जाये तो वह अक्षय हो जाता है। यदि काशी में चंद्र ग्रहण के समय करोड़ों गायों का दान किया जाये तो उस पुन्य का कुछ ठिकाना ही नहीं।
   तीर्थराज प्रयाग में स्नान का ही बड़ा महत्व है। यदि प्रयागराज ( गंगा, यमुना, सरस्वती का मिलन स्थल ) में जीवन भर कल्पवास किया जाये तो फिर उस पुण्य का वर्णन करना संभव नहीं है। ऐसे कल्पवास यदि 10,000 बर्ष किये जायें तो वह अक्षय है।
    यज्ञ तो भगवान् का ही स्वरूप है, "यज्ञो वै विष्णुः"। ऐसे यज्ञ दस हजार किये जायें तो सबसे अधिक पुण्य कर्म वे ही मानें जायेंगे।
    स्वर्ण दान करना महापुण्य है, सुमेरू पर्वत सबसे बड़ा पर्वत है। यदि सुमेरू पर्वत के बराबर स्वर्ण दान किया जाये। तो उसके पुण्य का अनुमान भी नहीं किया जा सकता।
    ऊपर जितने भी पुण्यप्रद कर्म गिनाए गए हैं। ये सब मिलकर एक गोबिंद ( कृष्ण ) नाम के समान नहीं हो सकते। कृष्ण (गोपालसहत्र नाम में अपने प्रिय कोई एक ) नाम का महत्व इन सबसे बढ़कर है। क्योंकि ये सारे पुण्य अनंत सुखों की प्राप्ति तो देते हैं। पर समय के साथ ( भोगमान भोगने के बाद) नष्ट हो जाते हैं। और इनसे संसार बंधन छूटता नहीं है।
यदि हरि नाम मरते समय निकाल जाये तो संसार बंधन से मुक्त हो हरि धाम प्राप्त कर लेता है।
      पर मृत्यु के समय या अंत काल आने पर मुख से हरि नाम तभी प्रगट होगा जब जीव जीवन परयंत निष्ठा पूर्वक निश्छल प्रेम सहित हरि ध्यान करते हुए हरि नाम उच्चारण में आनंदित होयेगा।
            

जन्मनाब्राह्मणोगुरू


जाति कर्म से नहीं जन्म से ही होती है(जनि प्रादुर्भावे धातु से)हम कहते हैं जन्म और कर्म दोंनों से जो ब्राह्मण है वह सर्वश्रेष्ठ है,जो जन्म से ब्राह्मण है,किन्तु से कुछ न्यूनतायें है तो वह भी (अप्रशस्त)ब्राह्मण ही है,,,छिन्ने पुच्छेपि सिंहे सिंहत्व व्यवहारो भवति न चाश्वः न च गर्दभः सः,,किसी
सिंह की पूछ कटने पर भी वह घोङा या गदहा नहीं हो जाता सिंह ही कहलाता है ,,वैसे ही ब्राह्मणोचित कर्मों से रहित होने पर भी वह कहा ब्राह्मण ही जायेगा,,
कर्म से वर्ण व्यवस्था मानने बालों को ये तो निश्चित करना ही पङेगा कि उसका आधार क्या होगा,,कौन संस्था ,समीति, न्यायालय या व्यक्ति किस परिमाप से ये निर्धारित करेगा कि अमुक व्यक्ति ब्राह्मण है,अमुक क्षत्रिय ,अमुक वैश्य ,अमुक शूद्र है,,,
क्योंकि कर्म तो पल पल में वैसे ही बदलते रहते है,,जैसे मन की चिरन्तन चिन्तन परम्परा बदलती रहती है,,,,किस मीटर से हमारे बन्धु नापेंगे की अमुक व्यक्ति इतने से इतने समय तक ब्राह्मण रहा इतने से इतने तक क्षत्रिय,,,,,,हल चलाने लगा तो कृषक,,, भोजन पकाने लगा तो पाचक.., कपङे धोने लगा तो धोबी,,, दाढी बाल बनाने लगा तो नापित,,,पढाने लगा तो शिक्षक,, जूता की पालिश करने लगा तो,,,,,,.एक दिन में विचारे की 10 जातियां बन और बिगङ जायेंगी,,,आप कहते हैं कि ये तो जाति नहीं हैं,,,हम कहते हैं कि कर्म से जाति मानने बालों को इससे क्या फर्क ,,जैसा कर्म वैसी जाति तो वे मानते ही हैं,,,
कर्म से जाति मानने से तो लाख गुना बेहतर है कि जाति को मानो ही मत तो आपका निर्वाह हो जायेगा झगङा भी कोई नहीं,,परन्तु अर्ध कुक्कुटी न्याय उचित नहीं,,,,
मनुस्मृति में लिखा है कि बाह्मण बालक का यज्ञोपवीत संस्कार गर्भ से आठवे वर्ष में करना चाहिए,(((गर्भाष्टमेब्दे कुर्वीत,ब्राह्मणस्योपनायनम्,,))) ,,क्षत्रिय बालक का संस्कार गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में करना चाहिये (((गर्भादेकादशे राज्ञो))) ,,,,वैश्य बालक का संस्कार गर्भ से बारहबें वर्ष में करना चाहिये(((गर्भात्तु द्वादशे विशः)))मनुस्मृति 2,36 ,,,आप मनु स्मृति प्रोक्त इस व्यवस्था को जन्म से स्वीकार करेंगे या कर्म से ,,यदि कर्म से तो सिद्ध करें कैसे,,,
ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे।
राज्ञो बलार्थिनःषष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोष्टमे।।2।37
अप्रतिम ब्रह्म वर्चस्व की कामना से ब्राह्मण बालक का संस्कार गर्भ से पांचवे वर्ष में,अनुपम बलैश्वर्य प्राप्ति के लिये क्षत्रिय का संस्कार छटे वर्ष में,विपुल धनैश्वर्य कामना से वैश्य का संस्कार आठवे वर्ष में करें,,
इसी प्रकार इनके दण्ड,मेखला,यज्ञोपवीत, आदि का भेद शास्त्रों में स्पष्ट है,,,तब कैसे इन व्यवस्थाओं को निर्वाह आपके पक्ष में हो पायेगा,,,,
भवत्पूर्वं चरेत् भैक्षं,उपनीतो द्विजोत्तमः।
भवन्मध्यं तु राजन्यःवैश्यस्तु भवदुत्तरम्।।
विप्र बटु ऐसा बोलकर भिक्षा मागें,,, भवति भिक्षां देहि,,
क्षत्रिय ,, ,, ,, ,, ,,,भिक्षां भवति देहि,,
वैश्य ,, ,,, ,,, ,,,,भिक्षां देहि भवति,,,
कैसे करेंगे आप समाधान,,,,जबकि जन्म से वर्ण व्यवस्था मानने में कोई क्लेश नहीं ,,,
नाम करण संस्कार के समय तक तो कर्म से जाति के निर्धारण का कोई औचित्य ही नहीं,,,जबकि मनुजी कहते हैं,,
मंगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्,क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धन संयुक्तं,शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्।।2।31
शर्मवत् ब्राह्मणस्य स्यात्,राज्ञो रक्षा समन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टि संयुक्तं,शूद्रस्य प्रैष्य संयुतम्।।2।32
यथा ,,शुभ शर्मा,, दिव्य प्रताप,, वसुभूति,, दीनदास,,आदि
यम स्मृति,, शर्म देवश्च विप्रस्य,वर्म त्राता च भूभुजः।
भूरिःदत्तश्च वैश्यस्य,दासः शूद्रस्य कारयेत्।।
विष्णु पुराण,, शर्मवत् ब्राह्मणस्योक्तं,वर्मेति क्षत्र संयुतम्।
गुप्त दासात्मकं नाम,प्रशस्तं वैश्य शूद्रयोः।।3,10,9
आप कैसे निर्धारित करेंगे कि कौन ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य है,,,हम स्वयं को द्विवेदी,त्रिवेदी, चतुर्वेदी,अग्निहोत्री,याज्ञिक, आदि लिखते हैं ये जन्म के कारण लिखते हैं या कर्म के कारण,,,,हम गोरे या काले या सांवले हैं जन्म से हैं या कर्म से,,,,हम श्रेष्ठ माता पिता की संतान हैं जन्म से या कर्म से,,,हम अल्पज्ञ या बहुज्ञ हैं जन्म से या कर्म से,,,,,,,,अरे भाई काक को कितना भी अभ्यास कराओ वो नहीं गा पायेगा ,,जबकि कोयल को मत सिखाओ तब भी उसका गान दिव्य होगा,,,,
पशुओं,पक्षियों,फलों,वृक्षों तक की,जाति सुनिश्चित है,तब मनुष्य की जाति जन्म से मानने में क्या हठ बाधा पहुंचाता है,,सिंह के घर सिंह ही पैदा होता आया है,लाखों वर्षों से,,गदहे का बच्चा गदहा ही होता है,हंस के घर हंस ही होगा, गौ गौ को ही जन्म देती है,,
देखो आप भी कहते हैं कि जाति कर्म से होती है ,,हम भी कहते हैं जाति कर्म से ही होती है,,,फिर अन्तर क्या रहा,,,अन्तर सिर्फ समझ का है,,आप इस जन्म के गुण कर्म को जाति में कारण बताते हैं,,,जबकि भगवान श्री कृष्ण पूर्व जन्म के गुण कर्म को जाति में में कारण कह रहे हैं
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं,गुण कर्म विभागश।।
यहां जो सृष्टं पद है,,ये भूतकालिक क्त प्रत्ययान्त पद है,, अर्थात् चारों वर्णों की सृष्टि मैंने की पूर्व जन्मों के गुण कर्मों के आधार पर,,अब तो आ गया समझ में या अब भी अपनी जिद नहीं छोङनी ,,,,,भाई हमको आपको सबको आज जो भी कुछ(रूप,गुण,विद्या,वैभव,यश,पद,प्रतिष्ठा,जन्मभूमि,पङौसी,सुख,दुख,रोग,राग,) मिला है वह सब पूर्व जन्म के पाप पुण्यों के आधार पर ही मिला है,तब जाति के मिलने में ही क्यों शंका है,,जिस जाति के माता पिता उस जाति का बालक,,अब ये उस बालक के ऊपर निर्भऱ करता है कि वह कैसे कर्म करके आदर या अनादर का ,यश या अपय़श का भागी होता है,,,
विश्वामित्र आदि के उदाहरण अपवाद मात्र है,,उंगलियों पर गिने जा सकते है,,,उतने परभी विश्वामित्र का जन्म मैथुनी सृष्टि से नहीं हुआ,,आप महाभारत या श्रीमद्भागवतम् पढे तो ,,,सत्य सामने आ जायेगा,,ऋचीक मुनि ने दो पात्रों में चरु पकाया,एक चरु पकाते समय ब्राह्मतेज समन्वित ऋचाओं का अभिमन्त्रण किया,दूसरे में क्षात्र तेज समन्वित ऋचाओं अभिमन्त्रित चरु पकाया,,,माताओं का स्वभाव कहो या नियति की व्यवस्था ,,चरु परिवर्तन हो गया ,,,ये कथा विस्तार से प्रकरण ग्रन्थों में ही देखे,,
जहां भी विद्या हीन ब्राह्मण की निन्दा है,कि वह शूद्र हो जाता है,,आदि इसका तात्पर्य है,,कि वह शूद्र वत हो जाता है नाकि शूद्र,,,गुण शील संपन्न शूद्र की प्रशस्ति का उद्देश्य ये नहीं कि वह बाह्मण हो गया अपितु,, आदर का पात्र है,,
1 आप अपनी पुत्री या बहन का विवाह करना कहां उचित समझेंगे,,,जन्मना या कर्मणा,,,
2 श्राद्ध के समय आप कैसे ब्राह्मण को निमन्त्रित करना उचित समझेंगे,जन्मना या कर्मणा,,
एक न्याय है,,,जो शास्त्रों को समझने में बङा उपकारी है,,
न हि निन्दा निन्द्यं निन्दयितुं प्रवर्तते,अपितु प्रशस्तं स्तोतुं अभिगच्छति,,,
निन्दा का उद्देश्य निन्द्य की निन्दा करने में नहीं होता,,अपितु जो प्रशस्त है उसकी प्रशंसा में होता 

करूणासागर

एक बाबा जी नंदग्राम में यशोदा कुंड के
पीछे निष्किंचन भाव से एक गुफा में बहुत काल से वास करते थे, दिन में केवल एक बार संध्या के समय गुफा से बाहर
शौचादि और मधुकरी के लिए निकलते थे.

 वृद्ध हो गए थे, इसलिए नंदग्राम छोड़कर कही नहीं जाते थे.एक बार हठ करके बहुत से बाबा जीश्री गोवर्धन में नाम 'यज्ञ महोत्सव' में ले गए.तीन दिन बाद जब संध्याकाल में लौटे तो अन्धकार होगया था,

गुफा में जब घुसे, तब वहाँ करुण कंठ से
किसी को कहते सुना - ओं बाबा जी
महाशय! पिछले दो दिन से मुझे कुछ भी आहार न मिला.

बाबा जी आश्चर्य चकित हो बोले - तुम कौन हो ?
उत्तर मिला आप जिस कूकर को प्रतिदिन एक टूक मधुकरी का देते थे, मै वही हूँ.बाबा जी अप्राकृत धाम के अद्भुत अनुभव से विस्मृत
हो बोले - आप कृपा करके अपने स्वरुप का परिचय दीजिये,

वह कूकर कहने लगा - बाबा! मै बड़ा दुर्भागा जीव हूँ, पूर्वजन्म में, मै इसी नन्दीश्वर मंदिर
का पुजारी था एक दिन एक बड़ा लड्डू भोग के निमित्त आया मैंने लोभवश उसका भोग न लगाया और स्वयं खा गया,

उस अपराध के कारण मुझे यह भुत योनि मिली है. आप निष्किंचन वैष्णव है आपकी उचिछ्ष्ट मधुकरी का टूक खाकर मेरी ऊर्ध्वगति होगी

 इस लोभ से नित्यप्रति आपके यहाँ आता हूँ
तब परस्पर यह वार्ता हुई.बाबा बोले - आप तो अप्राकृत धाम के भूत है आपको तो निश्चय
ही श्री युगल किशोर के दर्शन होते होगे, उनकी लीलादी प्रत्यक्ष देखते होगे.

भूत - दर्शन तो होते है, लीला भी
देखता हूँ, लेकिन जिस प्रकार उसका आप आस्वादन करते है,मुझे इस देह में आस्वादन नहीं होता क्योकि इसमें वह योग्यता नहीं है

बाबा - तब तो मुझे भी एक बार दर्शन करा दो?
भूत - यह मेरे अधिकार के बाहर की बात है.
बाबा - अच्छा कोई युक्ति ही बता दो जिससे मुझे दर्शन हो ?
भूत - हाँ! यह मै बता सकता हूँ, कल शाम् के समय यशोदा कुंड पर जाना, संध्या समय जब ग्वालबाल गोष्ठ में वन से गौए फेर कर लायेगे, तो इन ग्वाल बालों में सबसे पीछे जो बालक होगा

वह है - 'श्री कृष्ण". इतना बताकर वह
कूकररूपी भूत अन्तहित हो गया. अब क्या था उन्मत्त की तरह बाबा इधर-उधर फिरने लगे, वक्त काटना मुश्किल हो गया. कभी रोते,
कभी हँसते, कभी नृत्य करते, अधीर थे,

बड़ी मुश्किल से वह लंबी रात्रि कटी प्रातः होते ही यशोदा कुंड के प्रान्त भाग में एक झाड़ी में छिपकर शाम कि प्रतीक्षा करने लगे, कभी भाव उठता में तो महान अयोग्य हूँ

 मुझे दर्शन मिलाना असंभव है?

 यह विचार कर रोते रोते रज में लोट जाते.
फिर सावधान हो जब ध्यान आता कि श्री कृष्ण तो करुणासागर है मुझ दीन-हीन पर
अवश्य ही वे कृपा करेगे,

 तो आनन्द मगन हो, नृत्य करने लगते ऐसे करते शाम हो गई गोधुलि रंजित आकाश देख बड़े प्रसन्न हुए, देखा कि एक-एक दो-दो ग्वालबाल अपने-अपने गौओ के यूथो को हाँकते चले आ रहे है.

जब सब निकल गए तो सबके पीछे एक ग्वाल बाल आ रहा था, कृष्णवर्ण कई जगह से शरीर को टेढ़ा करके चल रहा है, इन्होने मन में जान लिया यहीहै जल्दी से बाहर निकल आये उनको सादर दंडवत प्रणाम कर उनके चरणारविन्द को द्रढता से पकड़ लिया तब परस्पर वार्ता शुरू हुई.

बालक - रे बाबा ! मै बनिए का लाला हूँ, मुझे अपराध होगा, तु मेर पैर छोड़ दे! मैया मरेगी! मधूकारी दूँगा और जो माँगेगा दूँगा, मेरा पैर छोड़ दे.

बाबा - (सब सुनी अनसुनी कर विनय
करने लगे)
 हे प्रियतम ! एक बार दर्शन देकर मेरे तापित प्राणों को शीतल करो, हे कृष्ण! अब छल
चातुरी मत करो! मुझे अपने अभय चरणारविन्द में स्थान दो!

इस तरह तर्क-वितर्क करते-करते जब भक्त और भक्तवत्सल भगवान के बीच आधी रात हो गई और जब बाबा जी ने किसी तरह चरण न छोड़े, तो
श्री कृष्ण बोले - अच्छा बाबा मेरा स्वरुप देख!

श्री कृष्ण ने त्रिभंग मुरलीधर रूप में बाबा
जी को दर्शन दिए.तब बाबा जी ने कहा - में केवल मात्र आपका ही तो ध्यान नहीं करता, मै तो युगल रूप का उपासक हूँ,

अत: हे कृपामय! एक बार सपरिकर दर्शन देकर मेरे प्राण बचाओ ! तब श्री श्यामसुंदर,
श्री राधा जी और सखिगण परिकर के संग
यमुना पुलिन पर अलौकिक प्रकाश करते प्रकट हो गए.

बाबा जी नयन मन सार्थक करते उस रूप
माधुरी में डूब गए उनकी चिर दिन की पोषित वांछा पूर्ण हुई और तीन चार दिन पश्चात ही बाबा अप्रकट हो गए.

विदुर की नीति

विदुर की नीति

श्लोक 1 :

निषेवते प्रशस्तानी निन्दितानी न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्धान एतत् पण्डितलक्षणम्।।

अर्थ: जो अच्छे कर्म करता है और बुरे कर्मों से दूर रहता है, साथ ही जो ईश्वर में भरोसा रखता है और श्रद्धालु है, उसके ये सद्गुण पंडित होने के लक्षण हैं।

श्लोक 2 :



न ह्रश्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते।
गंगो ह्रद इवाक्षोभ्यो य: स पंडित उच्यते।।

अर्थ: जो अपना आदर-सम्मान होने पर ख़ुशी से फूल नहीं उठता, और अनादर होने पर क्रोधित नहीं होता तथा गंगाजी के कुण्ड के समान जिसका मन अशांत नहीं होता, वह ज्ञानी कहलाता है।।

श्लोक 3 :

अनाहूत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढ़चेता नराधम: ।।

अर्थ: मूढ़ चित्त वाला नीच व्यक्ति बिना बुलाये ही अंदर चला आता है, बिना पूछे ही बोलने लगता है तथा जो विश्वाश करने योग्य नहीं हैं उनपर भी विश्वाश कर लेता है।

श्लोक 4 :

अर्थम् महान्तमासाद्य विद्यामैश्वर्यमेव वा।
विचरत्यसमुन्नद्धो य: स पंडित उच्यते।।

अर्थ: जो बहुत धन, विद्या तथा ऐश्वर्यको पाकर भी इठलाता नहीं चलता, वह पंडित कहलाता है।

श्लोक 5 :



एक: पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजन: ।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते।।

अर्थ: मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत से लोग उसका आनंद उठाते हैं। आनंद उठाने वाले तो बच जाते हैं; पर पाप करने वाला दोष का भागी होता है।

श्लोक 6 :

एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रम सराजकम्।।

अर्थ: किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण संभव है किसी एक को भी मारे या न मारे। मगर बुद्धिमान द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजा के साथ-साथ सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकती है।।

श्लोक 7 :

एकमेवाद्वितीयम तद् यद् राजन्नावबुध्यसे।
सत्यम स्वर्गस्य सोपानम् पारवारस्य नैरिव।।

अर्थ: विदुर धृतराष्ट्र को समझाते हुए कहते हैं : राजन ! जैसे समुद्र के पार जाने के लिए नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिए सत्य ही एकमात्र सीढ़ी है, कुछ और नहीं, किन्तु आप इसे नहीं समझ रहे हैं।

श्लोक 8 :

एको धर्म: परम श्रेय: क्षमैका शान्तिरुक्तमा।
विद्वैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा।।

अर्थ: केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है, एकमात्र क्षमा ही शांति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम संतोष देने वाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है।

श्लोक 9 :

द्वाविमौ पुरुषौ राजन स्वर्गस्योपरि तिष्ठत: ।
प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान्।।

अर्थ: विदुर धृतराष्ट्र से कहते हैं : राजन ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं – शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देनेवाला ।

श्लोक 10 :



त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम नाशनमात्मन: ।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

अर्थ: काम, क्रोध, और लोभ – ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे हैं, अतः इन तीनो को त्याग देना चाहिए।

श्लोक 11 :

पन्चाग्न्यो मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत: ।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ।।

अर्थ: भरतश्रेष्ठ ! पिता, माता अग्नि,आत्मा और गुरु – मनुष्य को इन पांच अग्नियों की बड़े यत्न से सेवा करनी चाहिए।

श्लोक 12 :

षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।

अर्थ: ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले पुरुषों को नींद, तन्द्रा (उंघना ), डर, क्रोध,आलस्य तथा दीर्घसूत्रता (जल्दी हो जाने वाले कामों में अधिक समय लगाने की आदत )- इन छ: दुर्गुणों को त्याग देना चाहिए।

श्लोक 13 :

षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः।।

अर्थ: मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्तिका अभाव ), क्षमा तथा धैर्य – इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए।

श्लोक 14 :

षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योधिगच्छति।
न स पापैः कुतो नर्थैंर्युज्यते विजेतेँद्रियः।।

अर्थ: मन में नित्य रहने वाले छः शत्रु – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य को जो वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्त नहीं होता, फिर उनसे उत्पन्न होने वाले अनर्थों की बात ही क्या है।

श्लोक 15 :

ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्याशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुः खिताः।।

अर्थ: ईर्ष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संकित रहने वाला और दूसरों के भाग्य पर जीवन-निर्वाह करने वाला – ये छः सदा दुखी रहते हैं।

श्लोक 16 :

अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति
प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च।।

अर्थ: बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता – ये आठ गन पुरुष की ख्याति बढ़ा देते हैं।



श्लोक 17 :

प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि-
दुद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः।
दुःखं च काले सहते महात्मा
धुरन्धरस्तस्य जिताः सप्तनाः।।

अर्थ: जो धुरंधर महापुरुष आपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय पर दुःख सहता है, उसके शत्रु तो पराजित ही हैं।

श्लोक 18 :

यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं
न पौरुषेणापि विकत्थतेन्यान।
न मूर्छित: कटुकान्याह किञ्चित्
प्रियं सदा तं कुरुते जानो हि।।

अर्थ: जो कभी उद्यंडका-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की डींग नही हांकता, क्रोध से व्याकुल होने पर भी कटुवचन नहीं बोलता, उस मनुष्य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं।

श्लोक 19 :

अनुबंधानपक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु।
सम्प्रधार्य च कुर्वीत न वेगेन समाचरेत्।

अर्थ: किसी प्रयोजन से किये गए कर्मों में पहले प्रयोजन को समझ लेना चाहिए। खूब सोच-विचार कर काम करना चाहिए, जल्दबाजी से किसी काम का आरम्भ नहीं करना चाहिए।

श्लोक 20 :

भक्ष्योत्तमप्रतिच्छन्नं मत्स्यो वडिशमायसम्।
लोभाभिपाती ग्रस्ते नानुबन्धमवेक्षते।।

अर्थ: मछली बढ़िया चारे से ढकी हुई लोहे की कांटी को लोभ में पड़कर निगल जाती है, उससे होने वाले परिणाम पर विचार नहीं करती।

दूब


दूब घास (दुर्वा) --------------

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दूब या 'दुर्वा' (वैज्ञानिक नाम- 'साइनोडान डेक्टीलान") वर्ष भर पाई जाने वाली घास है, जो ज़मीन पर पसरते हुए या फैलते हुए बढती है। हिन्दू धर्म में इस घास को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिन्दू संस्कारों एवं कर्मकाण्डों में इसका उपयोग बहुत किया जाता है। इसके नए पौधे बीजों तथा भूमीगत तनों से पैदा होते हैं। वर्षा काल में दूब घास अधिक वृद्धि करती है तथा वर्ष में दो बार सितम्बर-अक्टूबर और फ़रवरी-मार्च में इसमें फूल आते है। दूब सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। यह घास औषधि के रूप में विशेष तौर पर प्रयोग की जाती है।पौराणिक कथा
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"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी।भारतीय संस्कृति में महत्त्व
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'भारतीय संस्कृति' में दूब को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे विवाहोत्सव हो या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़ जाती है। दूब का पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी नम्रता को देखकर गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है-नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूबऔर घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।हिन्दू धर्म के शास्त्र भी दूब को परम-पवित्र मानते हैं। भारत में ऐसा कोई मांगलिक कार्य नहीं, जिसमें हल्दी और दूब की ज़रूरत न पड़ती हो। दूब के विषय में एक संस्कृत कथन इस प्रकार मिलता है-ज़मीन पर उगती दूब
"विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।"अर्थात "हे दुर्वा! तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है। तुम विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो।"महाकवि तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है-
"रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।"प्रायः जो वस्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में उपलब्ध रहती है। दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी खींचने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यही कारण है कि चाहे जितनी सर्दी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इन सबका दूब पर असर नहीं होता और यह अक्षुण्ण बनी रहती है।उद्यानों की शोभा
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दूब को संस्कृत में 'दूर्वा', 'अमृता', 'अनंता', 'गौरी', 'महौषधि', 'शतपर्वा', 'भार्गवी' इत्यादि नामों से जानते हैं। दूब घास पर उषा काल में जमी हुई ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकती प्रतीत होती हैं। ब्रह्म मुहूर्त में हरी-हरी ओस से परिपूर्ण दूब पर भ्रमण करने का अपना निराला ही आनंद होता है। पशुओं के लिए ही नहीं अपितु मनुष्यों के लिए भी पूर्ण पौष्टिक आहार है दूब। महाराणा प्रताप ने वनों में भटकते हुए जिस घास की रोटियाँ खाई थीं, वह भी दूब से ही निर्मित थी।[3] राणा के एक प्रसंग को कविवर कन्हैया लाल सेठिया ने अपनी कविता में इस प्रकार निबद्ध किया है-अरे घास री रोटी ही,जद बन विला वड़ो ले भाग्यो।नान्हों सो अमरयौ चीख पड्यो,राणा रो सोयो दुख जाग्यो।औषधीय गुण
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दूब घास की शाखाअर्वाचीन विश्लेषकों ने भी परीक्षणों के उपरांत यह सिद्ध किया है कि दूब में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। दूब के पौधे की जड़ें, तना, पत्तियाँ इन सभी का चिकित्सा क्षेत्र में भी अपना विशिष्ट महत्व है। आयुर्वेद में दूब में उपस्थित अनेक औषधीय गुणों के कारण दूब को 'महौषधि' में कहा गया है। आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार दूब का स्वाद कसैला-मीठा होता है। विभिन्न पैत्तिक एवं कफज विकारों के शमन में दूब का निरापद प्रयोग किया जाता है। दूब के कुछ औषधीय गुण निम्नलिखित हैं-संथाल जाति के लोग दूब को पीसकर फटी हुई बिवाइयों पर इसका लेप करके लाभ प्राप्त करते हैं।इस पर सुबह के समय नंगे पैर चलने से नेत्र ज्योति बढती है और अनेक विकार शांत हो जाते है।दूब घास शीतल और पित्त को शांत करने वाली है।दूब घास के रस को हरा रक्त कहा जाता है, इसे पीने से एनीमिया ठीक हो जाता है।नकसीर में इसका रस नाक में डालने से लाभ होता है।इस घास के काढ़े से कुल्ला करने से मुँह के छाले मिट जाते है।दूब का रस पीने से पित्त जन्य वमन ठीक हो जाता है।इस घास से प्राप्त रस दस्त में लाभकारी है।यह रक्त स्त्राव, गर्भपात को रोकती है और गर्भाशय और गर्भ को शक्ति प्रदान करती है।कुँए वाली दूब पीसकर मिश्री के साथ लेने से पथरी में लाभ होता है।दूब को पीस कर दही में मिलाकर लेने से बवासीर में लाभ होता है।इसके रस को तेल में पका कर लगाने से दाद, खुजली मिट जाती है।दूब के रस में अतीस के चूर्ण को मिलाकर दिन में दो-तीन बार चटाने से मलेरिया में लाभ होता है।इसके रस में बारीक पिसा नाग केशर और छोटी इलायची मिलाकर सूर्योदय के पहले छोटे बच्चों को नस्य दिलाने से वे तंदुरुस्त होते है। बैठा हुआ तालू ऊपरचढ़ जाता है।

सौंफ के फायदे



मस्तिष्क संबंधी रोगों में सौंफ अत्यंत गुणकारी है। यह मस्तिष्क की कमजोरी के अतिरिक्त दृष्टि-दुर्बलता, चक्कर आना एवं पाचनशक्ति बढ़ाने में भी लाभकारी है। इसके निरंतर सेवन से दृष्टि कमजोर नहीं होती तथा मोतियाबिंद से रक्षा होती है।

* उलटी, प्यास, जी मिचलाना, पित्त-विकार, जलन, पेटदर्द, अग्निमांद्य, पेचिश, मरोड़ आदि व्याधियों में यह लाभप्रद है।

* सौंफ, धनिया व मिश्री का समभाग चूर्ण 6 ग्राम की मात्रा में भोजन के बाद लेने से हाथ-पाँव तथा पेशाब की जलन, अम्लपित्त (एसिडिटी) व सिरदर्द में आराम मिलता है।

* सौंफ और मिश्री का समभाग चूर्ण मिलाकर रखें। दो चम्मच मिश्रण दोनों समय भोजन के बाद एक से दो माह तक खाने से मस्तिष्क की कमजोरी दूर होती है तथा जठराग्नि तीव्र होती है।

* बच्चों के पेट के रोगों में दो चम्मच सौंफ का चूर्ण दो कप पानी में अच्छी तरह उबाल लें। एक चौथाई पानी शेष रहने पर छानकर ठण्डा कर लें। इसे एक-एक चम्मच की मात्रा में दिन में तीन-चार बार पिलाने से पेट का अफरा, अपच, उलटी (दूध फेंकना), मरोड़ आदि शिकायतें दूर होती हैं।

* आधी कच्ची सौंफ का चूर्ण और आधी भुनी सौंफ के चूर्ण में हींग और काला नमक मिलाकर 2 से 6 ग्राम मात्रा में दिन में तीन-चार बार प्रयोग कराएं इससे गैस और अपच दूर हो जाती है।

* भूनी हुई सौंफ और मिश्री समान मात्रा में पीसकर हर दो घंटे बाद ठंडे पानी के साथ फँकी लेने से मरोड़दार दस्त, आँव और पेचिश में लाभ होता है। यह कब्ज को दूर करती है।

* बादाम, सौंफ और मिश्री तीनों बराबर भागों में लेकर पीसकर भर दें और रोज दोनों टाइम भोजन के बाद 1 टी स्पून लें। इससे स्मरणशक्ति बढ़ती है।

* 5-6 ग्राम सौंफ लेने से लीवर ठीक रहता है और आंखों की ज्योति बढ़ती है।

* तवे पर भुनी हुई सौंफ के मिक्स्चर से अपच के मामले में बहुत लाभ होता है। दो कप पानी में उबली हुई एक चम्मच सौंफ को दो या तीन बार लेने से अपच और कफ की समस्या समाप्त होती है।

* सौंफ की ठंडाई बनाकर पीएं। इससे गर्मी शांत होगी। हाथ-पाव में जलन होने की शिकायत होने पर सौंफ के साथ बराबर मात्रा में धनिया कूट-छानकर, मिश्री मिलाकर खाना खाने के बाद 5 से 6 ग्राम मात्रा में लेने से कुछ ही दिनों में आराम हो जाता है।

* अगर गले में खराश हो गई है तो सौंफ चबाना फायदेमंद होता है।


* सौंफ चबाने से बैठा हुआ गला भी साफ हो जाता है। रोजाना सुबह-शाम खाली सौंफ खाने से खून साफ होता है जो कि त्वचा के लिए बहुत फायदेमंद होता है, इससे त्वचा चमकती है। वैसे तो सौंफ का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है। इससे कई प्रकार के छोटे-मोटे रोगों से निजात मिलती है।

गाय के दूध के फायदे



महर्षि चरक के अनुसार -”वयः पथ्यं यथाअमृतं”
अर्थात दूध अमृत समान भोजन है |
दूध में प्रोटीन, कार्बोहाईड्रेट,लैक्टोज [ दुग्ध शर्करा ] खनिज लवण, वसा एवं विटामिन ए.बी. सी.डी. व् ई. विद्यमान होने के कारण यह शारीर निर्माण, संरक्षण एवं पोषण हेतु अमृत तुल्य है |
धारोष्ण दूध :-
धारोष्ण दूध का अर्थ है – स्तनों से तुरंत निकला हुआ दूध | वास्तव में धारोष्ण दूध का सेवन परम उपयोगी होता है क्योंकि सामान्यतः वायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश के स्पर्श या फिर थोड़ी -थोड़ी देर में पीने से दूध का अधिकांश गुण नष्ट हो जाता है |
नियम तो यह है कि दूध पिलाने एवं पीने वाले के शरीर का तापमान समान होना चाहिए | छोटे बच्चों के लिए माँ का दूध इसीलिए सर्वोत्तम आहार कहा गया है क्योंकि बच्चे दूध को माँ के स्तन में मुंह लगाकर उसमें बिना हवा लगे प्राकृतिक रूप से ग्रहण करते हैं |
दुग्ध कल्प :-
प्राकृतिक चिकित्सा में अधिकांशतः देशी गाय जो शुद्ध प्राकृतिक आहार करती हो उसके दूध से “कल्प” कराया जाता है | ह्रदय से सम्बंधित कुछ रोगों को छोडकर कोई भी रोग ऐसा नहीं है जो “दुग्ध कल्प” से न मिट सके, परन्तु यह कल्प किसा प्राकृतिक चिकित्सालय में रहकर चिकित्सक की देखरेख में ही करना उचित है | इस लेख में ‘दुग्ध चिकित्सा’ के अंतर्गत गाय के दूध,घी,दही के कुछ अनुभूत घरेलु प्रयोग दिए जा रहे हैं |
पीलिया :-
चालीस ग्राम गाय के दही में दस ग्राम हल्दी का चूर्ण मिलाकर प्रातः खाली पेट एक सप्ताह तक सेवन करें
पेचिश:-
25 मि.ली. गाय के ताजे दूध को गुनगुना करने के बाद लगभग 10 ग्राम शहद मिलाकर रखें | तत्पश्चात एक कटोरी में एक चौथाई नींबू का रस निकल कर रखें |अब इस कटोरी में दूध को डालकर जल्दी से पी लें ताकि दूध नींबू रस के कारण पेट में पहुँचते-पहुँचते फट जाये | प्रातः सांय दोनों समय इसे प्रयोग करें | कुछ ही दिनों में पेचिश जड़ से समाप्त हो जाएगी |
बबासीर :-
पांच ग्राम गाय के घी में दो ग्राम जायफल घिसकर मिला लें | इस मिश्रण को बबासीर के मस्सों पर लगाने से उनका दर्द समाप्त हो जाता है |
पचास ग्राम गाय के मक्खन में दस ग्राम बारीक़ पिसा हुआ सेंधा नमक मिलाएं | इस मलहम को बबासीर के मस्सों पर प्रातः सांय शौच के उपरांत लगाने से मस्से नष्ट हो जाते हैं |
बीस ग्राम मक्खन के साथ चालीस ग्राम काले तिल का चूर्ण मिलाकर प्रातः खाली पेट सेवन करने से 21 दिन में बबासीर के मस्से नष्ट हो जायेंगे |
खट्टी छाछ के साथ मसूर की दाल का पानी मिलाकर पीने से बबासीर का रक्तस्राव बंद हो जाता है |
कब्ज :-
गाय का ताजा मट्ठा 250 मी.ली. के साथ 5 ग्राम अजवाईन का चूर्ण मिलाकर प्रातः खाली पेट पीने से कब्ज दूर हो जाता है |
तीन दिन का रखा हुआ 250 मी.ली खट्टा मट्ठा प्रातः खाली पेट लेने से कब्ज दूर हो जाता है |
250 मी.ली गाय के दूध में चार अंजीर एवं आठ मुनक्के डालकर उबालें | एक उफान आने के बाद उस दूध को धीरे-धीरे पियें | दूध में पड़े अंजीर एवं मुनक्के को चबा-चबाकर खाएं | कब्ज दूर होने के साथ ही आँतों को भी बल मिलेगा एवं शरीर की जीवनी शक्ति भी बढ़ेगी |
मुंह के छाले :-
रात को सोते समय छालों पर दूध की मलाई लगाने से छाले ठीक हो जाते हैं |
प्रातः खाली पेट गाय के दही के साथ पका हुआ चित्तीदार केला खाने से मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं |
बालों के पोषण हेतु :-
गाय के दही को तांबे के बर्तन में डालकर उसे तब तक घोटें जब तक दही में हरापन न आ जाये | अब इस दही को सिर पर लेप करने के पश्चात् तीस मिनट बाद सिर को धोएं | साबुन का प्रयोग न करें | इससे बालों के रोग दूर होंगे एवं गंजेपन में भी लाभ होगा |
एक दिन पुराने [बासी] मट्ठे से बाल धोने से बालों का झड़ना बंद हो जायेगा |
एग्जिमा :-
एक सूती कपड़े की पट्टी को दो-तीन तह करके गाय के कच्चे दूध में भिगोने के पश्चात् उसे एग्जिमायुक्त स्थान पर दस मिनट तक रखें लगभग एक सप्ताह में एग्जिमा की खुजली समाप्त हो जाएगी | खुजली समाप्त होने के बाद एग्जिमा पर गाय का मक्खन मल कर लगाने से कुछ दिनों में एग्जिमा समाप्त हो जाता है |
चेहरे की सुन्दरता हेतु :-
10 ग्राम मसूर की दाल, 10 ग्राम हल्दी और 10 ग्राम बेसन को रात में 60 मि.ली. कच्चे दूध में भिगो दें | प्रातः काल इन सब को पीसकर उबटन की भांति लगाने के पश्चात स्नान करें | इस प्रयोग से मुंहासे, चेचक के दाग, स्त्रियों के चेहरे के अनावश्यक बाल,झाँई आदि नष्ट हो जाते हैं |
ऊपर दिए गये सभी प्रयोग लाभदायक हैं जिन्हें व्यक्ति घर में आसानी से कर सकता है , परन्तु यदि इन प्रयोगों को करने के साथ -साथ प्राकृतिक चिकित्सा की मिटटी,पानी,धूप,हवा एवं आकाश तत्व द्वारा विकसित वैज्ञानिक उपचार विधियों के माध्यम से शरीर का शोधन कर विकार [विष] मुक्त कर लिया जाये तो

तुलसी के बीज का महत्त्व


तुलसी के बीज का महत्त्व


जब भी तुलसी में खूब फुल यानी मंजिरी लग जाए तो उन्हें पकने पर तोड़ लेना चाहिए वरना तुलसी के झाड में चीटियाँ और कीड़ें लग जाते है और उसे समाप्त कर देते है . इन पकी हुई मंजिरियों को रख ले . इनमे से काले काले बीज अलग होंगे उसे एकत्र कर ले . यही सब्जा है . अगर आपके घर में नही है तो बाजार में पंसारी या आयुर्वैदिक दवाईयो की दुकान पर मिल जाएंगे

शीघ्र पतन एवं वीर्य की कमी:: तुलसी के बीज 5 ग्राम रोजाना रात को गर्म दूध के साथ लेने से समस्या दूर होती है

नपुंसकता:: तुलसी के बीज 5 ग्राम रोजाना रात को गर्म दूध के साथ लेने से नपुंसकता दूर होती है और यौन-शक्ति में बढोतरि होती है।

मासिक धर्म में अनियमियता:: जिस दिन मासिक आए उस दिन से जब तक मासिक रहे उस दिन तक तुलसी के बीज 5-5 ग्राम सुबह और शाम पानी या दूध के साथ लेने से मासिक की समस्या ठीक होती है और जिन महिलाओ को गर्भधारण में समस्या है वो भी ठीक होती है


तुलसी के पत्ते गर्म तासीर के होते है पर सब्जा शीतल होता है . इसे फालूदा में इस्तेमाल किया जाता है . इसे भिगाने से यह जेली की तरह फुल जाता है . इसे हम दूध या लस्सी के साथ थोड़ी देशी गुलाब की पंखुड़ियां दाल कर ले तो गर्मी में बहुत ठंडक देता है .इसके अलावा यह पाचन सम्बन्धी गड़बड़ी को भी दूर करता है .यह पित्त घटाता है ये त्रीदोषनाशक , क्षुधावर्धक है .

गुड के फायदे



गुड के औषधीय गुण


गुड़ गन्ने से तैयार एक शुद्ध, अपरिष्कृत पूरी चीनी है। यह खनिज और विटामिन है जो मूल रूप से गन्ने के रस में ही मौजूद हैं। यह प्राकृतिक होता है। पर लिए ज़रूरी है की देशी गुड लिया जाए , जिसके रंग साफ़ करने में सोडा या अन्य केमिकल ना हो। यह थोड़े गहरे रंग का होगा।इसे चीनी का शुद्धतम रूप माना जाता है। गुड़ का उपयोग मूलतः दक्षिण एशिया मे किया जाता है। भारत के ग्रामीण इलाकों मे गुड़ का उपयोग चीनी के स्थान पर किया जाता है। गुड़ लोहतत्व का एक प्रमुख स्रोत है और रक्ताल्पता (एनीमिया) के शिकार व्यक्ति को चीनी के स्थान पर इसके सेवन की सलाह दी जाती है। आयुर्वेदिक चिकित्सा के अनुसार गुड़ का उपभोग गले और फेफड़ों के संक्रमण के उपचार में लाभदायक होता है।

- देशी गुड़ प्राकृतिक रुप से तैयार किया जाता है तथा कोई रसायन इसके प्रसंस्करण के लिए उपयोग नहीं किया जाता है, जिससे इसे अपने मूल गुण को नहीं खोना पड़ता है, इसलिए यह लवण जैसे महत्वपूर्ण खनिज से युक्त होता है।

- गुड़ सुक्रोज और ग्लूकोज जो शरीर के स्वस्थ संचालन के लिए आवश्यक खनिज और विटामिन का एक अच्छा स्रोत है।

- गुड़ मैग्नीशियम का भी एक अच्छा स्रोत है जिससे मांसपेशियों, नसों और रक्त वाहिकाओं को थकान से राहत मिलती है।

- गुड़ सोडियम की कम मात्रा के साथ-साथ पोटेशियम का भी एक अच्छा स्रोत है, इससे रक्तचाप को नियंत्रित बनाए रखने में मदद मिलती है।

- भोजन के बाद थोडा सा गुड खा ले ; सारा भोजन अच्छे से और जल्दी पच जाएगा।

- गुड़ रक्तहीनता से पीड़ित लोगों के लिए बहुत अच्छा है, क्योंकि यह लोहे का एक अच्छा स्रोत है यह शरीर में हीमोग्लोबिन स्तर को बढाने में मदद करता है।

- यह सेलेनियम के साथ एक एंटीऑक्सीडेंट के रूप में कार्य करता है।

- गुड़ में मध्यम मात्रा में कैल्शियम, फास्फोरस और जस्ता होता है जो बेहतर स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद करता है।

- यह रक्त की शुद्धि में भी मदद करता है, पित्त की आमवाती वेदनाओं और विकारों को रोकने के साथ साथ गुड़ पीलिया के इलाज में भी मदद करता है।

- गुड़ शरीर को विषाक्त पदार्थों से छुटकारा पाने में मदद करता है। सर्दियों में, यह शरीर के तापमान को विनियमित करने में मदद करता है।

- यह खांसी, दमा, अपच, माइग्रेन, थकान व इसी तरह की अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से निपटने में मदद करता है। - यह संकट के दौरान तुरन्त ऊर्जा देता है।

- लड़कियों के मासिक धर्म को नियमित करने यह मददगार होता है।

- गुड़ गले और फेफड़ों के संक्रमण के इलाज में फायदेमंद होता है।

- यह व्यक्ति के तंत्रिका तंत्र को मजबूत करने में सहायक होता है।

- गुड़ शरीर में जल के अवधारण को कम करके शरीर के वजन को नियंत्रित करता है।

- उपरोक्त गुणों के अतिरिक्त गुड़ उच्च स्तरीय वायु प्रदूषण में रहने वाले लोगों को इससे लड़ने में मदद करता है, संक्षेप में कहें, तो गुड़ एक खाद्य पदार्थ कम, औषधि ज्यादा है।

आंवले के प्रयोग

आंवले के प्रयोग 



वमन (उल्टी) : -*
हिचकी तथा उल्टी में आंवले का 10-20 मिलीलीटर रस, 5-10 ग्राम मिश्री मिलाकर देने से आराम होता है। इसे दिन में 2-3 बार लेना चाहिए। केवल इसका चूर्ण 10-50 ग्राम की मात्रा में पानी के साथ भी दिया जा सकता है।

* त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) से पैदा होने वाली उल्टी में आंवला तथा अंगूर को पीसकर 40 ग्राम खांड, 40 ग्राम शहद और 150 ग्राम जल मिलाकर कपड़े से छानकर पीना चाहिए।

* आंवले के 20 ग्राम रस में एक चम्मच मधु और 10 ग्राम सफेद चंदन का चूर्ण मिलाकर पिलाने से वमन (उल्टी) बंद होती है।

* आंवले के रस में पिप्पली का बारीक चूर्ण और थोड़ा सा शहद मिलाकर चाटने से उल्टी आने के रोग में लाभ होता है।

* आंवला और चंदन का चूर्ण बराबर मात्रा में लेकर 1-1 चम्मच चूर्ण दिन में 3 बार शक्कर और शहद के साथ चाटने से गर्मी की वजह से होने वाली उल्टी बंद हो जाती है।

* आंवले का फल खाने या उसके पेड़ की छाल और पत्तों के काढ़े को 40 ग्राम सुबह और शाम पीने से गर्मी की उल्टी और दस्त बंद हो जाते हैं।

* आंवले के रस में शहद और 10 ग्राम सफेद चंदन का बुरादा मिलाकर चाटने से उल्टी आना बंद हो जाती है।


संग्रहणी : -
मेथी दाना के साथ इसके पत्तों का काढ़ा बनाकर 10 से 20 ग्राम की मात्रा में दिन में 2 बार पिलाने से संग्रहणी मिट जाती है।

"मूत्रकृच्छ (पेशाब में कष्ट या जलन होने पर) : -* आंवले की ताजी छाल के 10-20 ग्राम रस में दो ग्राम हल्दी और दस ग्राम शहद मिलाकर सुबह-शाम पिलाने से मूत्रकृच्छ मिटता है।

* आंवले के 20 ग्राम रस में इलायची का चूर्ण डालकर दिन में 2-3 बार पीने से मूत्रकृच्छ मिटता है।


विरेचन (दस्त कराना) : -रक्त पित्त रोग में, विशेषकर जिन रोगियों को विरेचन कराना हो, उनके लिए आंवले के 20-40 मिलीलीटर रस में पर्याप्त मात्रा में शहद और चीनी को मिलाकर सेवन कराना चाहिए।

अर्श (बवासीर) : -*
आंवलों को अच्छी तरह से पीसकर एक मिट्टी के बरतन में लेप कर देना चाहिए। फिर उस बरर्तन में छाछ भरकर उस छाछ को रोगी को पिलाने से बवासीर में लाभ होता है।

* बवासीर के मस्सों से अधिक खून के बहने में 3 से 8 ग्राम आंवले के चूर्ण का सेवन दही की मलाई के साथ दिन में 2-3 बार करना चाहिए।

* सूखे आंवलों का चूर्ण 20 ग्राम लेकर 250 ग्राम पानी में मिलाकर मिट्टी के बर्तन में रात भर भिगोकर रखें। दूसरे दिन सुबह उसे हाथों से मलकर छान लें तथा छने हुए पानी में 5 ग्राम चिरचिटा की जड़ का चूर्ण और 50 ग्राम मिश्री मिलाकर पीयें। इसको पीने से बवासीर कुछ दिनों में ही ठीक हो जाती है और मस्से सूखकर गिर जाते हैं।

* सूखे आंवले को बारीक पीसकर प्रतिदिन सुबह-शाम 1 चम्मच दूध या छाछ में मिलाकर पीने से खूनी बवासीर ठीक होती है।

* आंवले का बारीक चूर्ण 1 चम्मच, 1 कप मट्ठे के साथ 3 बार लें।

* आंवले का चूर्ण एक चम्मच दही या मलाई के साथ दिन में तीन बार खायें।

शुक्रमेह : -
धूप में सुखाए हुए गुठली रहित आंवले के 10 ग्राम चूर्ण में दुगनी मात्रा में मिश्री मिला लें। इसे 250 ग्राम तक ताजे जल के साथ 15 दिन तक लगातार सेवन करने से स्वप्नदोष (नाइटफॉल), शुक्रमेह आदि रोगों में निश्चित रूप से लाभ होता है।

खूनी अतिसार (रक्तातिसार) : -
यदि दस्त के साथ अधिक खून निकलता हो तो आंवले के 10-20 ग्राम रस में 10 ग्राम शहद और 5 ग्राम घी मिलाकर रोगी को पिलायें और ऊपर से बकरी का दूध 100 ग्राम तक दिन में 3 बार पिलाएं।

रक्तगुल्म (खून की गांठे) : -
आंवले के रस में कालीमिर्च डालकर पीने से रक्तगुल्म खत्म हो जाता है।

प्रमेह (वीर्य विकार) : -*
आंवला, हरड़, बहेड़ा, नागर-मोथा, दारू-हल्दी, देवदारू इन सबको समान मात्रा में लेकर इनका काढ़ा बनाकर 10-20 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम प्रमेह के रोगी को पिला दें।

* आंवला, गिलोय, नीम की छाल, परवल की पत्ती को बराबर-बराबर 50 ग्राम की मात्रा में लेकर आधा किलो पानी में रातभर भिगो दें। इसे सुबह उबालें, उबलते-उबलते जब यह चौथाई मात्रा में शेष बचे तो इसमें 2 चम्मच शहद मिलाकर दिन में 3 बार सेवन करने से पित्तज प्रमेह नष्ट होती है।

पित्तदोष : -
आंवले का रस, शहद, गाय का घी इन सभी को बराबर मात्रा में लेकर आपस में घोटकर लेने से पित्त दोष तथा रक्त विकार के कारण नेत्र रोग ठीक होते हैं|

लौंग के फायदे


चाहे भोजन का जायका बढ़ाना हो या फिर दर्द से छुटकारा, छोटी सी लौंग को न सिर्फ अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल किया जा सकता है बल्कि इसके फायदे भी अनेक हैं। साधारण से सर्दी-जुकाम से लेकर कैंसर जैसे गंभीर रोग के उपचार में लौंग का इस्तेमाल किया जाता है। इसके गुण कुछ ऐसे हैं कि न सिर्फ आयुर्वेद बल्कि होम्योपैथ व एलोपैथ जैसी चिकित्सा विधाओं में भी बहुत अधिक महत्व आंका जाता है।

भोजन में फायदेमंद
मसाले के रूप में लौंग का इस्तेमाल शरीर के लिए बहुत फायदेमंद है। इसमें प्रोटीम, आयरन, कार्बोहाइड्रेट्स, कैल्शियम, फॉस्फोरस, पोटैशियम, सोडियम और हाइड्रोक्लोरिक एसिड भरपूर मात्रा में मिलते हैं। इसमें विटामिन ए और सी, मैग्नीज और फाइबर भी पाया जाता है।

दर्दनाशक गुण
लौंग एक बेहतरीन नैचुरल पेनकिलर है। इसमें मौजूद यूजेनॉल ऑयल दांतों के दर्द से आराम दिलाने में बहुत लाभदायक है। दांतो में कितना भी दर्द क्यों न हो, लौंग के तेल को उनपर लगाने से दर्द छूमंतर हो जाता है। इसमें एंटीबैक्टीरियल विशेषता होती है जिस वजह से अब इसका इस्तेमाल कई तरह के टूथपेस्ट, माउथवाश और क्रीम बनाने में किया जाता है।

गठिया में आराम
गठिया रोग में जोड़ों में होने वाले दर्द व सूजन से आराम के लिए भी लौंग बहुत फायदेमंद है। इसमें फ्लेवोनॉयड्स अधिक मात्रा में पाया जाता है। कई अरोमा एक्सपर्ट गठिया के उपचार के लिए लौंग के तेल की मालिश को तवज्जो देते हैं।

श्वास संबंधी रोगों में आराम
लौंग के तेल का अरोमा इतना सशक्त होता है कि इसे सूंघने से जुकाम, कफ, दमा, ब्रोंकाइटिस, साइनसाइटिस आदि समस्याओं में तुरंत आराम मिल जाता है।

बेहतरीन एंटीसेप्टिक
लौं व इसके तेल में एंटीसेप्टिक गुण होते हैं जिससे फंगल संक्रमण, कटने, जलने, घाव हो जाने या त्वचा संबंधी अन्य समस्याओं के उपचार में इसका इस्तेमाल किया जाता है। लौंग के तेल को कभी भी सीधे त्वचा पर न लगाकर किसी तेल में मिलाकर लगाना चाहिए।

पाचन में फायदेमंद
भोजन में लौंग का इस्तेमाल कई पाचन संबंधी समस्याओं में आराम पहुंचाता है। इसमें मौजूद तत्व अपच, उल्टी गैस्ट्रिक, डायरिया आदि समस्याओं से आराम दिलाने में मददगार हैं।

कैंसर
शोधकर्ताओं का मानना है कि लौंग के इस्तेमाल से फेफड़े के कैंसर और त्वचा के कैंसर को रोकने में काफी मदद मिल सकती है। इसमें मौजूद युजेनॉल नामक तत्व इस दिशा में काफी सहायक है।

अन्य फायदे
इतना ही नहीं, लौंग का सेवन शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाता है और रक्त शुद्ध करता है। इसका इस्तेमाल मलेरिया, हैजा जैसे रोगों के उपचार के लिए दवाओं में किया जाता है। डायबिटीज में लौंग के सेवन से ग्लूकोज का स्तर कम होता है। लौंग का तेल पेन किलर के अलावा मच्छरों को भी दूर भगाने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है।

पपीते का फायदा


पपीता एक ऐसा मधुर फल है जो सस्ता एवं सर्वत्र सुलभ है। यह फल प्राय: बारहों मास पाया जाता है। किन्तु फरवरी से मार्च तथा मई से अक्तूबर के बीच का समय पपीते की ऋतु मानी जाती है। कच्चे पपीते में विटामिन ‘ए’ तथा पके पपीते में विटामिन ‘सी’ की मात्रा भरपूर पायी जाती है।

आयुर्वेद में पपीता (पपाया) को अनेक असाध्य रोगों को दूर करने वाला बताया गया है। संग्रहणी, आमाजीर्ण, मन्दाग्नि, पाण्डुरोग (पीलिया), प्लीहा वृध्दि, बन्ध्यत्व को दूर करने वाला, हृदय के लिए उपयोगी, रक्त के जमाव में उपयोगी होने के कारण पपीते का महत्व हमारे जीवन के लिए बहुत अधिक हो जाता है।

पपीते के सेवन से चेहरे पर झुर्रियां पड़ना, बालों का झड़ना, कब्ज, पेट के कीड़े, वीर्यक्षय, स्कर्वी रोग, बवासीर, चर्मरोग, उच्च रक्तचाप, अनियमित मासिक धर्म आदि अनेक बीमारियां दूर हो जाती है। पपीते में कैल्शियम, फास्फोरस, लौह तत्व, विटामिन- ए, बी, सी, डी प्रोटीन, कार्बोज, खनिज आदि अनेक तत्व एक साथ हो जाते हैं। पपीते का बीमारी के अनुसार प्रयोग निम्नानुसार किया जा सकता है।

१) पपीते में ‘कारपेन या कार्पेइन’ नामक एक क्षारीय तत्व होता है जो रक्त चाप को नियंत्रित करता है। इसी कारण उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) के रोगी को एक पपीता (कच्चा) नियमित रूप से खाते रहना चाहिए।

२) बवासीर एक अत्यंत ही कष्टदायक रोग है चाहे वह खूनी बवासीर हो या बादी (सूखा) बवासीर। बवासीर के रोगियों को प्रतिदिन एक पका पपीता खाते रहना चाहिए। बवासीर के मस्सों पर कच्चे पपीते के दूध को लगाते रहने से काफी फायदा होता है।

३) पपीता यकृत तथा लिवर को पुष्ट करके उसे बल प्रदान करता है। पीलिया रोग में जबकि यकृत अत्यन्त कमजोर हो जाता है, पपीते का सेवन बहुत लाभदायक होता है। पीलिया के रोगी को प्रतिदिन एक पका पपीता अवश्य खाना चाहिए। इससे तिल्ली को भी लाभ पहुंचाया है तथा पाचन शक्ति भी सुधरती है।

४) महिलाओं में अनियमित मासिक धर्म एक आम शिकायत होती है। समय से पहले या समय के बाद मासिक आना, अधिक या कम स्राव का आना, दर्द के साथ मासिक का आना आदि से पीड़ित महिलाओं को ढाई सौ ग्राम पका पपीता प्रतिदिन कम से कम एक माह तक अवश्य ही सेवन करना चाहिए। इससे मासिक धर्म से संबंधित सभी परेशानियां दूर हो जाती है।

५) जिन प्रसूता को दूध कम बनता हो, उन्हें प्रतिदिन कच्चे पपीते का सेवन करना चाहिए। सब्जी के रूप में भी इसका सेवन किया जा सकता है।

६) सौंदर्य वृध्दि के लिए भी पपीते का इस्तेमाल किया जाता है। पपीते को चेहरे पर रगड़ने से चेहरे पर व्याप्त कील मुंहासे, कालिमा व मैल दूर हो जाते हैं तथा एक नया निखार आ जाता है। इसके लगाने से त्वचा कोमल व लावण्ययुक्त हो जाती है। इसके लिए हमेशा पके पपीते का ही प्रयोग करना चाहिए।

७) कब्ज सौ रोगों की जड़ है। अधिकांश लोगों को कब्ज होने की शिकायत होती है। ऐसे लोगों को चाहिए कि वे रात्रि भोजन के बाद पपीते का सेवन नियमित रूप से करते रहें। इससे सुबह दस्त साफ होता है तथा कब्ज दूर हो जाता है।

८) समय से पूर्व चेहरे पर झुर्रियां आना बुढ़ापे की निशानी है। अच्छे पके हुए पपीते के गूदे को उबटन की तरह चेहरे पर लगायें। आधा घंटा लगा रहने दें। जब वह सूख जाये तो गुनगुने पानी से चेहरा धो लें तथा मूंगफली के तेल से हल्के हाथ से चेहरे पर मालिश करें। ऐसा कम से कम एक माह तक नियमित करें।

९) नए जूते-चप्पल पहनने पर उसकी रगड़ लगने से पैरों में छाले हो जाते हैं। यदि इन पर कच्चे पपीते का रस लगाया जाए तो वे शीघ्र ठीक हो जाते हैं।

१०) पपीता वीर्यवर्ध्दक भी है। जिन पुरुषों को वीर्य कम बनता है और वीर्य में शुक्राणु भी कम हों, उन्हें नियमित रूप से पपीते का सेवन करना चाहिए।

११) हृदय रोगियों के लिए भी पपीता काफी लाभदायक होता है। अगर वे पपीते के पत्तों का काढ़ा बनाकर नियमित रूप से एक कप की मात्रा में रोज पीते हैं तो अतिशय लाभ होता है।

सोंठ के फायदे


सौंठ में अदरक के सारे गुण मौजूद होते हैं। सौंठ दुनिया की सर्वश्रेष्ठवातनाशक औषधि है. आम का रस पेट में गैस न करें इसलिए उसमें सौंठ और घी डाला जाता है। सौंठ में उदरवातहर (वायुनाशक) गुण होने से यह विरेचन औषधियों के साथ मिलाई जाती है। यह शरीर में समत्व स्थापित कर जीवनी शक्ति और रोग प्रतिरोधक सामर्थ्य को बढ़ाती है ।
बहुधा सौंठ तैयार करने से पूर्व अदरख को छीलकर सुखा लिया जाता है । परंतु उस छीलन में सर्वाधिक उपयोगी तेल (इसेन्शयल ऑइल) होता है, छिली सौंठ इसी कारण औषधीय गुणवत्ता की दृष्टि से घटिया मानी जाती है । वेल्थ ऑफ इण्डिया ग्रंथ के विद्वान् लेखक गणों का अभिमत है कि अदरक को स्वाभाविक रूप में सुखाकर ही सौंठ की तरह प्रयुक्त करना चाहिए । तेज धूप में सुखाई गई अदरक उस सौंठ से अधिक गुणकारी है जो बंद स्थान में कृत्रिम गर्मी से सुखाकर तैयार की जाती है ।
गर्म प्रकृति वाले लोगो के लिए सौंठ अनुकूल नहीं है.
- भोजन से पहले अदरक को चिप्स की तरह बारीक कतर लें। इन चिप्स पर पिसा काला नमक बुरक कर खूब चबा-चबाकर खा लें फिर भोजन करें। इससे अपच दूर होती है, पेट हलका रहता है और भूख खुलती है।
- सौंठ और उड़द उबालकर इसका पानी पीने से लकवा ठीक हो जाता है |
- सौंठ मिलाकर उबाला हुआ पानी पीने से पुराना जुकाम खत्म होता है। सौंठ के टुकड़े को रोजाना बदलते रहना चाहिए।
- सोंठ, पीपल और कालीमिर्च को बराबर की मात्रा में लेकर पीस लें। इसमें 1 चुटकी त्रिकुटा को शहद के साथ चाटने से जुकाम में आराम आता है।
- सौंठ, सज्जीखार और हींग का चूर्ण गर्म पानी के साथ सेवन करने से सारे तरह के दर्द नष्ट हो जाते हैं।
- सौंठ और जायफल को पीसकर पानी में अच्छी तरह मिलाकर छोटे बच्चों को पिलाने से दस्त में आराम मिलता है।
- सौंठ, जीरा और सेंधानमक का चूर्ण ताजा दही के मट्ठे में मिलाकर भोजन के बाद सेवन करने से पुराने अतिसार (दस्त) का मल बंधता है। आम (कच्ची ऑव) कम होता है और भोजन का पाचन होता है।
- सौंठ को पानी या दूध में घिसकर नाक से सूंघने से और लेप करने से आधे सिर के दर्द में लाभ होता है।
- लगभग 12 ग्राम की मात्रा में सौंठ को गुड़ के साथ मिलाकर खाने से शरीर की सूजन खत्म हो जाती है।
- सोंठ, कालीमिर्च और हल्दी का अलग-अलग चूर्ण बना लें। प्रत्येक का 4-4 चम्मच चूर्ण लेकर मिला लें और इसे कार्क की शीशी में भरकर रख लें। इसे 2 ग्राम (आधा चम्मच) गर्म पानी के साथ दिन में 2 बार सेवन करना चाहिए। इससे श्वासनली की सूजन और दर्द में लाभ मिलता है। ब्रोंकाइटिस के अतिरक्त यह खांसी, जोड़ों में दर्द, कमर दर्द और हिपशूल में लाभकारी होता है। इसे आवश्यकतानुसार एक हफ्ते तक लेना चाहिए। पूर्ण रूप से लाभ न होने पर इसे 4-5 बार ले सकते हैं।
सोंठ और कायफल के मिश्रित योग से बनाए गये काढे़ का सेवन करने से वायु प्रणाली की सूजन में लाभ मिलता है।
- सोंठ, हरड़, बहेड़ा, आंवला और सरसों का काढ़ा बनाकर कुल्ला करें। इससे रोजाना सुबह-शाम कुल्ला करने से मसूढ़ों की सूजन, पीव, खून और दांतों का हिलना बंद हो जाता है। सौंठ को गर्म पानी में पीसकर लेप बना लें। इससे रोजाना दांतों को मलने से दांतों में दर्द नहीं होता और मसूढे़ मजबूत होते हैं।
- सोंठ, मिर्च, पीपल, नागकेशर का चूर्ण घी के साथ माहवारी समाप्त होने के बाद स्त्री को सेवन कराने से गर्भ ठहर जाता है।
- महारास्नादि में सोंठ का चूर्ण मिलाकर सुबह-शाम पीने और रोजाना रात को 2 चम्मच एरण्ड के तेल को दूध में मिलाकर सोने से पहले सेवन करने से अंगुलियों की कंपन की शिकायत दूर हो जाती है।
- यदि दिल कमजोर हो, धड़कन तेज या बहुत कम हो जाती हो, दिल बैठने लगता हो तो 1 चम्मच सोंठ को एक कप पानी में उबालकर उसका काढ़ा बना लें। यह काढ़ा रोज इस्तेमाल करने से लाभ होता है।
- 10 ग्राम सोंठ और 10 ग्राम अजवायन को 200 मिलीलीटर सरसों के तेल में डालकर आग पर गर्म करें। सोंठ और अजवायन भुनकर जब लाल हो जाए तो तेल को आग से उतार लें। यह तेल सुबह-शाम दोनों घुटनों पर मलने से रोगी के घुटनों का दर्द दूर हो जाता है। 10 ग्राम सोंठ, 10 ग्राम कालीमिर्च, 5 ग्राम बायविडंग और 5 ग्राम सेंधानमक को एक साथ पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को एक छोटी बोतल में भर लें, फिर इस चूर्ण में आधा चम्मच शहद मिलाकर चाटने से गठिया का दर्द दूर हो जाता है।
- 6 ग्राम पिसी हुई सोंठ में 1 ग्राम नमक मिलाकर गर्म पानी से फंकी लेने से पित्त की पथरी में फायदा होता है।
- सोंठ, गुग्गुल तथा गुड़ को 10-10 ग्राम की मात्रा में लेकर काढ़ा बनाकर सोते समय पीने से मासिक-धर्म सम्बन्धी परेशानी दूर हो जाती हैं।
50 ग्राम सोंठ, 25 ग्राम गुड़ और 5 ग्राम बायविडंग को कुचलकर 2 कप पानी में उबालें। जब एक कप बचा रह जाए तो उसे पी लेना चाहिए। इससे मासिक-धर्म नियमित रूप से आने लगता है।
- गुड़ के साथ 10 ग्राम सोंठ खाने से पीलिया का रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।

- बुढ़ापे में पाचन क्रिया कमजोर पड़ने लगती है. वात और कफ का प्रकोप बढ़ने लगता है. हाथो पैरो तथा शारीर के समस्त जोड़ो में दर्द रहने लगता है. सौंठ मिला हुआ दूध पीने से बुढ़ापे के रोगों से राहत मिलती है.

बवासीर का इलाज


बवासीर या हैमरॉइड से अधिकतर लोग पीड़ित रहते हैं। इस बीमारी के होने का प्रमुख कारण अनियमित दिनचर्या और खान-पान है। बवासीर में होने वाला दर्द असहनीय होता है।

बवासीर मलाशय के आसपास की नसों की सूजन के कारण विकसित होता है। बवासीर दो तरह की होती है, अंदरूनी और बाहरी। अंदरूनी बवासीर में नसों की सूजन दिखती नहीं पर महसूस होती है, जबकि बाहरी बवासीर में यह सूजन गुदा के बिलकुल बाहर दिखती है।

बवासीर के आयुर्वेदिक उपचार
डेढ़-दो कागज़ी नींबू अनिमा के साधन से गुदा में लें। 10-15 मिनट के अंतराल के बाद थोड़ी देर में इसे लेते रहिए उसके बाद शौच जायें। यह प्रयोग 4-5 दिन में एक बार करें। इसे 3 बार प्रयोग करने से बवासीर में लाभ होता है ।

हरड या बाल हरड का प्रतिदिन सेवन करने से आराम मिलता है। अर्श (बवासीर) पर अरंडी का तेल लगाने से फायदा होता है।
नीम का तेल मस्सों पर लगाइए और इस तेली की 4-5 बूंद रोज़ पीने से बवासीर में लाभ होता है।
करीब दो लीटर मट्ठा लेकर उसमे 50 ग्राम पिसा हुआ जीरा और थोडा नमक मिला दें। जब भी प्यास लगे तब पानी की जगह यह छांछ पियें। चार दिन तक यह प्रयोग करेने से मस्सा ठीक हो जाता है।
इसबगोल भूसी का प्रयोग करने से से अनियमित और कड़े मल से राहत मिलती है। इससे कुछ हद तक पेट भी साफ रहता है और मस्सा ज्यादा दर्द भी नही करता।

बवासीर के उपचार के लिये आयुर्वेदिक औषधि अर्शकल्प वटी का प्रयोग चिकित्सक की सलाह अनुसार कर सकते हैं

जीरे का फायदा


जीरा एक ऐसा मसाला है जिसके छौंक से दाल और सब्जियों का स्वाद बहुत बढ़ जाता है। चाट का चटपटा स्वाद भी जीरे के बिना अधूरा सा लगता है। अंग्रेजी में इसे क्यूमिन कहा जाता है। इसका वानस्पतिक नाम क्यूमिनम सायमिनम है। यह पियेशी परिवार का एक पुष्पीय पौधा है। मुख्यत: पूर्वी भूमध्य सागर से लेकर भारत तक इसकी पैदावार अधिक होती है।

दिखने में सौंफ के आकार का दिखाई देने वाला जीरा सिर्फ खाने का स्वाद ही नहीं बढ़ाता यह बहुत उपयोगी भी है। यही कारण है कि कई रोगों में दवा के रूप में भी जीरे का उपयोग किया जा सकता है। आइए देखते हैं घरेलू नुस्खे के रूप में किन रोगों के उपचार के लिए जीरा उपयोगी है......

- जीरा आयरन का सबसे अच्छा स्रोत है। इसे नियमित रूप से खाने से खून की कमी दूर हो जाती है। गर्भवती महिलाओं के लिए जीरा अमृत का काम करता है।

- जीरा, अजवाइन, सौंठ, कालीमिर्च, और काला नमक अंदाज से लेकर इसमें घी में भूनी हींग कम मात्रा में मिलाकर खाने से पाचन शक्ति बढ़ती है। पेट का दर्द ठीक हो जाता है।

- जीरा, अजवाइन और काला नमक का चूर्ण बनाकर रोजाना एक चम्मच खाने से तेज भूख लगती है।

- 3 ग्राम जीरा और 125 मि.ग्रा. फिटकरी पोटली में बांधकर गुलाब जल में भिगो दें। आंख में दर्द होने पर या लाल होने पर इस रस को टपकाने से आराम मिलता है।

- दही में भुने जीरे का चूर्ण मिलाकर खाने से डायरिया में आराम मिलता है।

- जीरे को नींबू के रस में भिगोकर नमक मिलाकर खाने से जी मिचलाना बंद हो जाता है।

- जीरा में थोड़ा-सा सिरका डालकर खाने से हिचकी बंद हो जाती है।

- जीरे को गुड़ में मिलाकर गोलियां बनाकर खाने से मलेरिया में लाभ होता है।

- एक चुटकी कच्चा जीरा खाने से एसिडिटी में तुरंत राहत मिलती है।

- डायबिटीज को नियंत्रित करने के लिए एक छोटा चम्मच पिसा जीरा दिन में दो बार पानी के साथ लेने से लाभ होता है।

- कब्जियत की समस्या हो तो जीरा, काली मिर्च, सौंठ और करी पाउडर को बराबर मात्रा में लें और मिश्रण तैयार कर लें। इसमें स्वादानुसार नमक डालकर घी में मिलाएं और चावल के साथ खाएं।राहत मिलेगी।

- पके हुए केले को मैश करके उसमें थोड़ा-सा जीरा मिलाकर रोजाना रात के खाने के बाद लें। अनिद्रा की समस्या दूर हो जाएगी।

- इसमें एंटीसेप्टिक तत्व भी पाया जाता है। सीने में जमे हुए कफ को बाहर निकलने के लिए जीरे को पीसकर फांक लें। यह सर्दी-जुकाम से भी राहत दिलाता है।

- हींग को उबाल लें। इस पानी में जीरा, पुदीना, नींबू और नमक मिलाकर पिलाने से हिस्टीरिया के रोगी को तत्काल लाभ होता है।

- थायराइड (गले की गांठ) में एक कप पालक के रस के साथ एक चम्मच शहद और चौथाई चम्मच जीरा पाउडर मिलाकर सेवन करने से लाभ होता है।

- मेथी, अजवाइन, जीरा और सौंफ 50-50 ग्राम और स्वादानुसार काला नमक मिलाकर पीस लें। एक चम्मच रोज सुबह सेवन करें। इससे शुगर, जोड़ों के दर्द और पेट के विकारों से आराम मिलेगा।

- प्रसूति के पश्चात जीरे के सेवन से गर्भाशय की सफाई हो जाती है।

- खुजली की समस्या हो तो जीरे को पानी में उबालकर स्नान करें। राहत मिलेगी।

- एक गिलास ताजी छाछ में सेंधा नमक और भुना हुआ जीरा मिलाकर भोजन के साथ लें। इससे अजीर्ण और अपच से छुटकारा मिलेगा।

- आंवले की गुठली निकालकर पीसकर भून लें। फिर उसमें स्वादानुसार जीरा, अजवाइन, सेंधा नमक और थोड़ी-सी भुनी हुई हींग मिलाकर गोलियां बना लें। इन्हें खाने से भूख बढ़ती है। इतना ही नहीं, इससे डकार, चक्कर और दस्त में लाभ होता है।

- जीरा उबाल लें और छानकर ठंडा करें। इस पानी से मुंह धोने से आपका चेहरा साफ और चमकदार होगा।

- एक चम्मच जीरा भूनकर रोजाना चबाने से याददाश्त अच्छी रहती है।

- जिनको अस्थमा, ब्रोंकाइटिस या अन्य सांस संबंधी समस्या है, उन्हें जीरे का नियमित प्रयोग किसी भी रूप में करना चाहिए।

- दक्षिण भारत में लोग अक्सर जीरे का पानी पीते हैं। उनके अनुसार, इसके सेवन से मौसमी बीमारियां नहीं होतीं और पेट भी तंदुरुस्त रहता है।

- 50 ग्राम जीरे में 50 ग्राम मिश्री मिलाकर पीसकर पाउडर बना लें। इसे सुबह-शाम एक चम्मच सेवन करें। बवासीर में आराम मिलेगा।

नींबू के फायदे

नींबू को विटामिन ''सी'' का सबसे अच्छा स्त्रोत व स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक माना जाता है। विशेषकर पेट से संबंधित समस्याओं के लिए नींबू का प्रयोग अनेक तरीकों से किया जाता है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं नींबू के ऐसे ही कुछ प्रयोगों के बारे में जिनसे आप कई छोटी-मोटी स्वास्थ्य समस्याओं से निजात पा सकते हैं।

- नींबू की शिकंजी, चीनी के बजाय सेंधा नमक डालकर पिएं कब्ज दूर हो जाएगी। स्कर्वी रोग में नींबू कारगर है एक भाग नींबू का रस और आठ भाग पानी मिलाकर रोजाना दिन में एक बार लें। नींबू के रस में थोड़ी शकर मिलाकर इसे गर्म कर सिरप जैसा बना लें। फिर इसमें थोड़ा पानी मिलाकर पीएं पित्त के लिए यह अचूक औषधि है।
- आधे नींबू का रस और दो चम्मच शहद मिलाकर चाटने से तेज खांसी व जुकाम में लाभ होता है।

- नींबू से हृदय की असामान्य धड़कन सामान्य हो जाती है।

- उच्च रक्तचाप के रोगियों की रक्तवाहिनियों को यह शक्ति देता है।
- एक नींबू के रस में तीन चम्मच शकर, दो चम्मच पानी घोलकर बालों की जड़ों में लगाकर एक घंटे बाद अच्छे से सिर धोने से रूसी दूर हो जाती है और बाल गिरना बंद हो जाते हैं। बालों में रूसी है तो बालों की जड़ों में नींबू का रस थोड़ी देर के लिए लगाकर छोड़ दें। फिर कुछ देर बाद सिर धो लें। रूसी से छुटकारा मिल जाएगा। शैम्पू करने के बाद थोड़े-से पानी में नींबू का रस मिलाकर बालों पर लगाएं। बाल चमकदार व मुलायम हो जाएंगे।
- मोटापे से परेशान हैं तो सुबह हल्के गर्म पानी में नींबू का रस डालकर पीएं। निरंतर प्रयोग से वजन कम हो जाएगा।
- मलेरिया और हैजा जैसी बीमारियों में भी नींबू पानी बहुत ही फायदेमंद है। नींबू में पिसी काली मिर्च छिड़क कर जरा सा गर्म करके चूसने से मलेरिया ज्वर में आराम मिलता है।
- काली कोहनियों को साफ करने के लिए नींबू को दो भागों में काटें और उस पर खाने वाला सोडा डालकर कोहनियों पर रगड़ें। मैल साफ हो जाएगा, कोहनियां मुलायम हो जाएंगी।
- नींबू के सेवन से सूखा रोग दूर होता है।
- नींबू का छिलका पीसकर उसका लेप माथे पर लगाने से माइग्रेन ठीक होता है।
- नींबू के बीज को पीसकर लगाने से गंजापन दूर होता है।
- बहरापन हो तो नींबू के रस में दालचीनी का तेल मिलाकर कान में डालें।
- आधा कप गाजर के रस में नींबू का रस मिलाकर पीएं,खून की कमी दूर होगी।

मूली और उसके फायदे

पौष्टिक गुणों से मालामाल मूली




औक्सिका मैक्सिको में क्रिसमस की पूर्व संध्या को मूली संध्या के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन मूली को विभिन्न पशुओं के आकार में काट कर सजाया जाता है।
अमरीकी ४०० मिलियन पाउन्ड मूली प्रतिवर्ष खा कर खतम कर देते हैं। इसमें से अधिकतर का प्रयोग सलाद के रूप में होता है।

प्राचीनकाल में जैतून के तेल के आविष्कार होने से पहले, मिस्र के लोग मूली के बीजों का तेल प्रयोग में लाते थे।
हार्स रैडिश या घोड़ा मूली, मूली नहीं बल्कि सरसों की जाति का तीखा सुगंध वाला पौधा है।
मूली कृषक सभ्यता के सबसे प्राचीन आविष्कारों में से एक है। ३००० वर्षो से भी पहले के चीनी इतिहास में इसका उल्लेख मिलता है। अत्यंत प्राचीन चीन और यूनानी व्यंजनों में इसका प्रयोग होता था और इसे भूख बढ़ाने वाली समझा जाता था। यूरोप के अनेक देशों में भोजन से पहले इसको परोसने परंपरा का उल्लेख मिलता है। मूली शब्द संस्कृत के 'मूल' शब्द से बना है। आयुर्वेद में इसे मूलक नाम से, स्वास्थ्य का मूल (अत्यंत महत्वपूर्ण) बताया गया है।
आजकल हम लोग अस्पतालों तथा अंग्रेज़ी दवाइयों की दुनिया में इतने खो गए कि उन्हें अपने आसपास उपलब्ध होने वाली, उन शाक-सब्ज़ियों की तरफ़ ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता, जो बिना किसी हानि के हमारी अनेक बीमारियों को निर्मूल करने में सक्षम हैं। प्रकृति हमारे लिए शीत ऋतु में इस प्रकार की शाक-सब्ज़ियाँ उदारतापूर्वक उत्पन्न करती है। इन्हीं में से एक है 'मूली'।
मूली में प्रोटीन, कैल्शियम, गन्धक, आयोडीन तथा लौह तत्व पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इसमें सोडियम, फॉस्फोरस, क्लोरीन तथा मैग्नीशियम भी होता है। मूली में विटामिन 'ए' भी होता है। विटामिन 'बी' और 'सी' भी इससे प्राप्त होते हैं। जिसे हम मूली के रूप में जानते हैं, वह धरती के नीचे पौधे की जड होती हैं। धरती के ऊपर रहने वाले पत्ते से भी अधिक पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। सामान्यत: हम मूली को खाकर उसके पत्तों को फेंक देते हैं। यह गलत आदत हैं। मूली के साथ ही उसके पत्तों का सेवन भी किया जाना चाहिए। इसी प्रकार मूली के पौधे में आने वाली फलियाँ 'मोगर' भी समान रूप से उपयोगी और स्वास्थ्यवर्धक है। सामान्यत: लोग मोटी मूली पसन्द करते हैं। कारण उसका अधिक स्वादिष्ट होना है, मगर स्वास्थ्य तथा उपचार की दृष्टि से छोटी, पतली और चरपरी मूली ही उपयोगी है। ऐसी मूली त्रिदोष (वात, पित्त और कफ) नाशक है। इसके विपरीत मोटी और पकी मूली त्रिदोष कारक मानी जाती है।

१०० ग्राम मूली में अनुमानित निम्न तत्व हैं : प्रोटीन - ०.७ ग्राम, वसा - ०.१ ग्राम, कार्बोहाइड्रेट - ३.४ ग्राम, कैल्शियम - ३५ मि.ग्रा., फॉस्फोरस - २२ मि.ग्रा, लोह तत्व - ०.४ मि.ग्रा., केरोटीन- ३ मा.ग्रा., थायेसिन - ०.०६ मि.ग्रा., रिवोफ्लेविन - ०.०२ मि.ग्रा., नियासिन - ०.५ मि.ग्रा., विटामिन सी - १५ मि.ग्रा.।

अनेक छोटी बड़ी व्याधियाँ मूली से ठीक की जा सकती हैं। मूली का रंग सफेद है, लेकिन यह शरीर को लालिमा प्रदान करती है। भोजन के साथ या भोजन के बाद मूली खाना विशेष रूप से लाभदायक है। मूली और इसके पत्ते भोजन को ठीक प्रकार से पचाने में सहायता करते हैं। वैसे तो मूली के पराठें, रायता, तरकारी, आचार तथा भुजिया जैसे अनेक स्वादिष्ट व्यंजन बनते हैं,मगर सबसे अधिक लाभकारी होती है कच्ची मूली। भोजन के साथ प्रतिदिन एक मूली खा लेने से व्यक्ति अनेक बीमारियों से मुक्त रह सकता है।

मूली, शरीर से विषैली गैस कार्बन-डाई-आक्साइड को निकालकर जीवनदायी आक्सीजन प्रदान करती है। मूली हमारे दाँतों को मज़बूत करती है तथा हडि्डयों को शक्ति प्रदान करती है। इससे व्यक्ति की थकान मिटती है और अच्छी नींद आती है। मूली खाने से पेट के कीड़े नष्ट होते हैं तथा पेट के घाव ठीक होते हैं।

यह उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करती है तथा बवासीर और हृदय रोग को शान्त करती है। इसका ताज़ा रस पीने से मूत्र संबंधी रोगों में राहत मिलती है। पीलिया रोग में भी मूली अत्यंत लाभदायक है। अफारे में मूली के पत्तों का रस विशेष रूप से उपयोगी होता है।

मोटापा अनेक बीमारियाँ की जड़ है। मोटापा कम करने के लिए मूली बहुत लाभदायक है। इसके रस में थोड़ा-सा नमक और नीबू का रस मिलाकर नियमित रूप से पीने से मोटापा कम होता है और शरीर सुडौल बन जाता है। पानी में मूली का रस मिलाकर सिर धोने से जुएँ नष्ट होती हैं। विटामिन 'ए' पर्याप्त मात्रा में होने से मूली का रस नेत्रज्योति बढ़ाने में भी सहायक होता है तथा शरीर के जोड़ों की जकड़न को दूर करता है।

मूली सौन्दर्यवर्धक भी है। इसके प्रतिदिन सेवन से रंग निखरता है, खुश्की दूर होती है, रक्त शुद्ध होता है और चेहरे की झाइयाँ, कील-मुहाँसे आदि साफ़ होते हैं। सर्दी-जुकाम तथा कफ-खाँसी में मूली के बीज का चूर्ण विशेष लाभदायक होता है। मूली के बीजों को उसके पत्तों के रस के साथ पीसकर लेप किया जाए तो अनेक चर्म रोगों से मुक्ति मिल सकती है। मूली के रस में तिल्ली का तेल मिलाकर और उसे हल्का गर्म करके कान में डालने से कर्णनाद, कान का दर्द तथा कान की खुजली ठीक होते हैं। मूली के पत्ते चबाने से हिचकी बन्द हो जाती है।

मूली से अनेक रोगों में भी लाभ मिलता है, एक सप्ताह तक कांजी में डाले रखने तथा उसके बाद उसके सेवन से बढ़ी हुई तिल्ली ठीक होती है और बवासीर का रोग नष्ट हो जाता है। हल्दी के साथ मूली खाने से भी बवासीर में लाभ होता है।

मूली के पत्तों के चार तोला रस में तीन माशा अजमोद का चूर्ण और चार रत्ती जोखार मिलाकर दिन में दो बार एक सप्ताह तक नियमित रूप से लेने पर गुर्दे की पथरी गल जाती है। एक कप मूली के रस में एक चम्मच अदरक का और एक चम्मच नींबू का रस मिलाकर नियमित सेवन से भूख बढ़ती है और पेट संबंधी सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।

मूली के रस में समान मात्रा में अनार का रस मिलाकर पीने से रक्त में हीमोग्लोबिन बढ़ता है और रक्ताल्पता का रोग दूर होता है। सूखी मूली का काढ़ा बनाकर, उसमें जीरा और नमक डालकर पीने से खाँसी और दमा में राहत मिलती है।
मूली के औषधीय प्रयोग।
आज हम आपको बताने जा रहे हैं मूली के औषधीय प्रयोग। मूली जितनी स्वाद में बढ़िया हैं उतनी ही ये गुणों में भी बढ़िया हैं। आइये जानते हैं, मूली को विभिन्न रोगो में कैसे प्रयोग करे।

पेशाब के समय जलन व दर्द:
आधा गिलास मूली के रस का सेवन करने से पेशाब के साथ होने वाली जलन और दर्द मिट जाता है।

पेशाब कम बनना:
गुर्दे की खराबी से यदि पेशाब का बनना बंद हो जाए तो मूली का रस 50 मिलीलीटर रोजाना पीने से, पेशाब फिर बनने लगता है।

पेट में दर्द:
1 कप मूली के रस में नमक और मिर्च डालकर सेवन करने से पेट साफ हो जाता है और पेट का दर्द भी दूर हो जाता है।
मूली का लगभग 1 ग्राम के चौथे भाग के रस में आवश्यकतानुसार नमक और 3-4 कालीमिर्च का चूर्ण डालकर 3-4 बार रोगी को पिलाने से पेट के दर्द में लाभ मिलता है।

10 मिलीलीटर मूली का रस, 10 ग्राम यवक्षार, 50 ग्राम हिंग्वाष्टक चूर्ण, 50 ग्राम सोडा बाइकार्बोनेट, 2 ग्राम नौसादर, 10 ग्राम टार्टरी को मिलाकर चूर्ण बना लें। यह चूर्ण 3 ग्राम पानी के साथ खाने से हर प्रकार का पेट का दर्द दूर हो जाता है।

100 मिलीलीटर मूली का रस, 200 ग्राम घीकुंवार का रस, 50 मिलीलीटर अदरक का रस, 20 ग्राम सुहागे का फूल, 20 ग्राम नौसादर ठीकरी, 20 ग्राम पांचों नमक, 10-10 ग्राम चित्रकमूल, भुनी हींग, पीपल मूल, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, भुना जीरा, अजवाइन, लौह भस्म और 150 ग्राम पुराना गुड़। सभी औषधियों को पीसकर चूर्ण बनाकर मूली, घीकुंवार और अदरक के रस में मिलाकर, अमृतबान (एक बर्तन) में भरकर, अमृतबान का मुंह बंद करके 15 दिन धूप में रखें। 15 दिन बाद इसे छानकर बोतल में भर लें, आवश्यकतानुसार इस मिश्रण को 6-10 ग्राम तक लगभग 30 मिलीलीटर पानी में मिलाकर भोजन के बाद सेवन करने से पाण्डु (पीलिया), मंदाग्नि (पाचन क्रिया खराब होना), अजीर्ण (भूख न लगना), आध्यमान, कब्ज और पेट में दर्द आदि पेट से सम्बंधित रोग दूर हो जाते हैं। मासिक-धर्म के कष्ट के साथ आता हो या अनियमित हो तो इस मिश्रण को 2 चाय वाले चम्मच-भर सुबह-शाम 3 सप्ताह तक नियमित रूप से सेवन करना लाभदायक है।
मूली के रस में कालीमिर्च और 1 चुटकी काला नमक मिलाकर खाने से लाभ होता है।
मूली के रस में काला या सेंधानमक मिलाकर प्रयोग करने से पेट की पीड़ा में राहत मिलती है।

मूली की राख, करेला का रस, साण्डे की जड़ का रस, गडतूम्बा का रस को 10-10 ग्राम की मात्रा में मिलाकर रख लें। इस मिश्रण को दिन में 3 बार पीने से पीलिया, मधुमेह (डाइबिटीज), पेट का दर्द, पथरी, औरतों के वायु गोला (औरतों के पेट में गैस का गोला होना), शरीर का मोटापा, गुल्म वायु (पेट में कब्ज के कारण रूकी हुई वायु या गैस) तथा अजीर्ण आदि रोग ठीक हो जाते हैं।
मूली के रस में नींबू का रस और सेंधानमक मिलाकर सेवन करने से वायु विकार (गैस रोग) से उत्पन्न पेट दर्द समाप्त हो जाता है।

हिचकी:
मूली का जूस पीयें। सूखी मूली का काढ़ा 50 से 100 मिलीलीटर तक 1-1 घंटे पर पिलायें।
मूली के कोमल पत्ते चबाकर रस चूसने से हिचकी तुरन्त बंद हो जाती है। मूली का रस हल्का-सा गर्म करके पीने से भी हिचकी बंद हो जाती है।

मधुमेह (डायबिटिज):
मूली खाने से या इसका रस पीने से मधुमेह (डायबिटीज) में लाभ होता है।
आधी मूली का रस दोपहर के समय मधुमेह (डायबिटीज) के रोगी को देने से लाभ होता है।

पीलिया (कामला, पाण्डु):
एक कच्ची मूली रोजाना सुबह सोकर उठने के बाद ही खाते रहने से कुछ ही दिनों में ही पीलिया रोग ठीक हो जाता है।
125 मिलीलीटर मूली के पत्तों के रस में 30 ग्राम चीनी मिलाकर सुबह के समय रोगी को पिलाएं, इसे पीते ही लाभ होगा और 1 सप्ताह में रोगी को आराम मिल जाएगा।
मूली में विटामिन `सी´, लौह, कैल्शियम, सोडियम, मैग्नेशियम और क्लोरीन आदि कई खनिज लवण होते हैं, जो लीवर (जिगर) की क्रिया को ठीक करते हैं। अत: पाण्डु (पीलिया) रोग में मूली का रस 100 से 150 मिलीलीटर की मात्रा में गुड़ के साथ दिन में 3 से 4 बार पीने से लाभ होता है।
मूली का रस 10-15 मिलीलीटर 1 उबाल आने तक पकाएं। बाद में उतारकर 25 ग्राम खांड या मिश्री मिलाकर पिलाएं, साथ ही मूली और मूली का साग खिलाते रहने से पीलिया ठीक हो जाता है।
सिरके में बने मूली के अचार के सेवन से पीलिया रोग ठीक हो जाता है।
लगभग आधा से 1 ग्राम मण्डूरभस्म, लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग लौह भस्म को शहद के साथ रोगी को चटायें। फिर ऊपर से 100 मिलीलीटर मूली के रस में चीनी मिलाकर पिलायें। इसे रोजाना सुबह-शाम पिलाने से 15-20 दिनों में पीलिया रोग ठीक हो जाता है।
मूली के ताजे पत्तों को पानी के साथ पीसकर उबाल लें इसमें दूध की भांति झाग ऊपर आ जाता है, इसको छानकर दिन में 3 बार पीने से कामला (पीलिया) रोग मिट जाता है।
पत्तों सहित मूली का रस निकाल लें, फिर दिन में 3 बार 20-20 ग्राम की मात्रा में पीने से पीलिया रोग में लाभ होता हैं।

मूली के पत्तों का 80 मिलीलीटर रस निकालकर किसी बर्तन में आग पर चढ़ा दें, जब पानी उबल जाए, तब उसे छानकर उसमें शक्कर मिलाकर खाली पेट पीने से पीलिया रोग मिट जाता है।
25 मिलीलीटर मूली के रस में लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग पिसा हुआ नौसादर मिलाकर सुबह-शाम लेने से पीलिया रोग दूर हो जाता है।
1 चम्मच कच्ची मूली का रस तथा उसमें 1 चुटकी जवाखार मिलाकर सेवन करें। कुछ दिनों तक सुबह, दोपहर और शाम को लगातार पीने से पीलिया रोग ठीक हो जाता है।
पीलिया के रोगी को गन्ने के रस के साथ मूली के रस का भी सेवन करना चाहिए, मूली के पत्तों की बिना चिकनाई वाली भुजिया खानी चाहिए।

आंतों के रोग:
मूली का रस आंतों में एण्टीसैप्टिक का कार्य करता हैं।

पथरी:
30 से 35 ग्राम मूली के बीजों को आधा लीटर पानी में उबाल लें। जब पानी आधा शेष रह जाए तब इसे छानकर पीएं। यह प्रयोग कुछ दिनों तक करने से मूत्राशय की पथरी चूर-चूर होकर पेशाब के साथ बाहर आ जाएगी। यह प्रयोग 2 से 3 महीने निरन्तर जारी रखें। मूली का रस पीने से पित्ताशय की पथरी बनना बंद हो जाती है।
मूली का 20 मिलीलीटर रस हर 4 घंटे में 3 बार रोजाना पीएं तथा इसके पत्ते चबा-चबाकर खाएं। इससे मूत्राशय की पथरी चूर-चूर होकर पेशाब के साथ बाहर आ जायेगी। यह प्रयोग 2-3 महीने करें। मूली का रस पीने से पित्ताशय की पथरी (गेल स्टोन) बनना बंद हो जाती है।
80 मिलीलीटर मूली के पत्तों के रस में 30 ग्राम अजमोद मिलाकर रोजाना पीने से पथरी गलकर निकल जाती है।
मूली में गड्ढ़ा कर उसमें शलगम के बीज डालकर गुन्था आटा ऊपर लपेटकर अंगारों पर सेंक लें, जब भरता हो जाये या पक जाये तब निकालकर आटे को अलग करके मूली को खा लें। इससे पथरी के टुकड़े-टुकड़े होकर निकल जाती है।
मूली का रस निकालकर उसमें जौखार का चूर्ण (पाउडर) आधा ग्राम मिलाकर रोजाना सुबह-शाम खायें। इससे पेडू (नाभि के नीचे का हिस्सा) का दर्द और गैस दूर होती है तथा पथरी गल जाती है।
मूली के पत्तों के रस में शोरा डालकर सेवन करने से पथरी मिटती है।

कामेन्द्रिय (लिंग) का शिथिल (ढीला) हो जाना:
मूली के बीजों को तेल में पकाकर (औटाकर) उस तेल से कामेन्द्रिय पर मालिश करें। इससे कामेन्द्रिय की शिथिलता (ढीलापन) दूर होकर उसमें उत्तेजना पैदा होती है।

मासिक-धर्म की रुकावट, अनियमितता व परेशानियां:
मूली के बीजों के चूर्ण को 3 ग्राम की मात्रा में स्त्री को देने से मासिक-धर्म की रुकावट दूर होती है और मासिक-धर्म साफ होता है।
2-2 ग्राम मूली के बीज, गाजर के बीज, नागरमोथा और हथेली भर नीम की छाल को पीस-छानकर गर्म पानी के साथ सेवन करें। इसके सेवन के बाद में दूध का सेवन करना चाहिए। इससे बंद मासिकस्राव (रजोदर्शन) शुरू हो जाता है।
मासिक-धर्म (ऋतुस्राव) के रुकने के कारण चेहरे पर अधिक मुंहासे निकलते हों तो सुबह के समय मूली और उसके कोमल पत्ते चबाकर खाने से आराम मिलता है। मूली के रस का भी सेवन कर सकते हैं।
मूली, गाजर तथा मेथी के बीज 50-50 ग्राम की मात्रा में लेकर पीसकर चूर्ण तैयार कर लें। इस मिश्रण को 10 ग्राम लेकर पानी के साथ सेवन करने से मासिक-धर्म सम्बन्धी शिकायतें दूर हो जाती हैं। 3 ग्राम मूली के बीजों का चूर्ण सुबह-शाम पानी के साथ सेवन करने से ऋतुस्राव (मासिक-धर्म का आना) का अवरोध नष्ट होता है।

बवासीर:
मूली कच्ची खाएं तथा इसके पत्तों की सब्जी बनाकर खाएं। कच्ची मूली खाने से बवासीर से गिरने वाला रक्त (खून) बंद हो जाता है। बवासीर खूनी हो या बादी 1 कप मूली का रस लें। इसमें एक चम्मच देशी घी मिला लें। इसे रोजाना दिन में 2 बार सुबह-शाम पीने से लाभ होता है।
कोमल मूली के 40-60 मिलीलीटर बने काढ़े (क्वाथ) में 1-2 ग्राम पीपर का चूर्ण मिलाकर पीने से बवासीर में आराम आता है।
एक सफेद मूली को काटकर नमक लगाकर रात को ओस में रख दें। इसे सुबह खाली पेट खाएं। मलत्याग के बाद गुदा भी मूली के पानी से धोएं ,
125 मिलीलीटर मूली के रस में 100 ग्राम देशी घी की जलेबी एक घंटा भीगने दें। उसके तुरन्त बाद जलेबी खाकर पानी पी लें। इस प्रकार निरन्तर एक सप्ताह यह प्रयोग करने से जीवन भर के लिए प्रत्येक प्रकार की बवासीर ठीक हो जाएगी।
मूली के टुकड़े को घी में तलकर चीनी के साथ खाएं या मूली काटकर उस पर चीनी डालकर रोजाना 2 महीने तक खाने से भी बवासीर में लाभ होता है।
सूखी मूली की पोटली गर्म करके बवासीर के मस्सों पर सिंकाई करने से आराम आता है।
सूरन के चूर्ण को घी में भूनकर, मूली के रस में घोंटकर 1-1 ग्राम की गोलियां बना लें। फिर रोजाना सुबह-शाम 1-1 गोली ताजे पानी के साथ लेने से हर प्रकार की बवासीर नष्ट होती है।
रसौत और कलमी शोरा दोनों को बराबर लेकर, मूली के रस में घोटकर चने के बराबर गोलियां बना लें। रोजाना सुबह-शाम 1 से 4 गोली बासी पानी के साथ खाने से दोनों प्रकार की बवासीर नष्ट हो जाती है।
10-10 ग्राम नीम की निंबौली, कलमी शोरा, रसावत और हरड़ को लेकर बारीक पीस लें, फिर इसे मूली के रस में मिलाकर जंगली बेर के बराबर आकार की गोलियां बना लें। रोजाना सुबह-शाम 1-1 गोली ताजे पानी या मट्ठा के साथ खाने से खूनी बवासीर से खून आना पहले ही दिन बंद हो जाता है और बादी बवासीर 1 महीने के प्रयोग से पूरी तरह नष्ट हो जाती है।
मूली की जड़ को चाकू या छुरी से गोल-गोल चकतियां बनाकर घी में तलकर मिश्री के साथ खाने से बवासीर में बहुत लाभ होता है।
मूली के रस में नीम की निंबौली की गिरी पीसकर कपूर मिलाकर बवासीर के मस्सों पर लेप करने से मस्से सूख जाते हैं।
एक अच्छी मोटी मूली लेकर ऊपर की ओर से काटकर चाकू या छुरी से उसे खोखली करके उसमें 20 ग्राम `रसवत´ भरकर मूली के कटे हुए भाग का मुंह बंदकर कपड़े और मिट्टी से अच्छी तरह बंद कर दें। इसे कण्डों की आग में रखकर राख बना लें। दूसरे दिन रसवत निकालकर मूली के रस में खरल (कूट) कर झड़बेरी के बराबर गोलियां बना लें। 1-1 गोली सुबह-शाम ताजे पानी के साथ सेवन करने से खूनी बवासीर कुछ ही दिनों में ठीक हो जाती है।
मूली के पत्तों को छाया में सुखाकर बारीक पीस लें, फिर इसमें इसी के समान मात्रा में चीनी, मिश्री या खांड मिलाकर रोजाना बासी मुंह 10 ग्राम की मात्रा में खाने से बवासीर में आराम हो जाता है।
मूली की सब्जी बनाकर खाने से बवासीर और पेट दर्द में आराम मिलता है।
बवासीर में सूखी मूली का 20-50 मिलीलीटर सूप, पानी अथवा बकरी के मांस के सूप में मिलाकर पीने से बवासीर के रोग में आराम आता है।
सूखे हुए मूली के पत्तों का चूर्ण बनाकर उसमें मिश्री मिलाकर प्रतिदिन खाने से बवासीर ठीक होता है।
मूली का रस निकालकर इसके 20 मिलीलीटर रस में 5 ग्राम घी मिलाकर रोजाना सुबह-शाम पीने से खून का निकलना बंद हो जाता है।

बिच्छू के काटने पर:
मूली के टुकड़े पर नमक लगाकर बिच्छू के काटे स्थान पर रखने से दर्द शांत होता है। बिच्छू के काटे रोगी को मूली खिलाएं और पीड़ित स्थान पर भी मूली का रस लगाने से लाभ होता है।

दाद:
मूली के बीजों को नींबू के रस में पीसकर गर्म करके दाद पर लगाएं। पहले दिन लगाने पर जलन व दर्द होगा, दूसरे दिन यह दर्द कम होगा। ठीक होने पर कोई कष्ट नहीं होगा। यह प्रयोग सूखी या गीली दोनों प्रकार के दाद में लाभदायक है।

चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन 18 फ़रवरी सन
1486 की फाल्गुन, शुक्लपक्ष, पूर्णिमा को
पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस
गांव में हुआ, जिसे अब 'मायापुर' कहा जाता है।

बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु
सभी इन्हें 'निमाई' कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण
का होने के कारण लोग इन्हें 'गौरांग', 'गौर हरि',
'गौर सुंदर' आदि भी कहते थे। चैतन्य महाप्रभु के
द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की
आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ
किए गए महामन्त्र 'नाम संकीर्तन' का अत्यंत
व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी
जगत तक में है। कवि कर्णपुर कृत 'चैतन्य चंद्रोदय' के
अनुसार इन्होंने केशव भारती नामक सन्न्यासी
से दीक्षा ली थी। कुछ लोग माधवेन्द्र पुरी को
इनका दीक्षा गुरु मानते हैं। इनके पिता का नाम
जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था।
जन्म काल
चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय गौड़
के शासक थे। उनके यहाँ अलाउद्दीन हुसैनशाह
नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय
ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए
उसे रुपया दिया। हुसैनख़ाँ ने वह रकम खा पीकर
बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह
पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैनख़ाँ की पीठ
पर कोड़े लगवाये। हुसैनख़ाँ चिढ़ गया। उसने
षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा
दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था
और सुबुद्धिराय उसका कैदी। हुसैनख़ाँ की पत्नी
ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला
लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु
हुसैनख़ाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था,
उसने राजा को जबरदस्ती मुसलमान के हाथ से
पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य
किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई
हिन्दू सुबुद्धिराय को अपने समाज में शामिल
नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धिराय को
जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए
‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैनख़ाँ हुसैनशाह बन गया।
इसके बाद तो फिर किसी हिन्दू राज-रजवाड़े में
चूँ तक करने का साहस नहीं रह गया था। वे
साधारण-से-साधारण मुसलमान से भी घबराने
लगे। फिर भी हारे हुए लोगों के मन में दिन-रात
साँप लोटते ही रहा करते थे। निरन्तर यत्र-तत्र
विस्फोट हुआ ही करते थे। इसीलिए राजा और
प्रजा में प्रबल रूप से एक सन्देहों भरा नाता पनप
गया। सन 1480 के लगभग नदिया (नवद्वीप) के
दुर्भाग्य से हुसैनशाह के कानों में बार-बार यह
भनक पड़ी कि नदिया के ब्राह्मण अपने जन्तर-
मन्तर से हुसैनशाह का तख्ता पलटने के लिए कोई
बड़ा भारी अनुष्ठान कर रहे हैं। सुनते-सुनते एक दिन
हुसैनशाह चिढ़ उठा। उसने एक प्रबल मुसलमान
सेना नदिया का धर्मतेज नष्ट करने के लिए भेज
दी। नदिया और उसके आस-पास ब्राह्मण के गाँव-
के-गाँव घेर लिये गये। उन्होंने उन पर अवर्णनीय
अत्याचार किये। उसके मन्दिर, पुस्तकालय और
सारे धार्मिक एवं ज्ञान-मूलक संस्कारों के
चिह्न मिटाने आरम्भ किये। स्त्रियों का
सतीत्व भंग किया। परमपूज्य एवं प्रतिष्ठित
ब्राह्मणों की शिखाएँ पकड़-पकड़ कर उन पर लातें
जमाईं, थूका; तरह-तरह से अपमानित किया।
हुसैनशाह की सेना ने झुण्ड के झुण्ड ब्राह्मण
परिवारों को एक साथ कलमा पढ़ने पर मजबूर
किया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक नर-नारी को होठों
से निषिद्ध मांस का स्पर्श कराकर उन्हें अपने
पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक़ न रखा।
नदिया के अनेक महापंडित, बड़े-बड़े विद्वान समय
रहते हुए सौभाग्यवश इधर-उधर भाग गये। परिवार
बँट गये, कोई कहीं, कोई कहीं। धीरे-धीरे शांति
होने पर कुछ लोग फिर लौट आये और जस-तस
जीवन निर्वाह करने लगे। धर्म अब उनके लिए
सार्वजनिक नहीं गोपनीय-सा हो गया था।
तीज-त्योहारों में वह पहले का-सा रस नहीं
रहा। पता नहीं कौन कहाँ कैसे अपमान कर दे।
लोग सहमी खिसियाई हुई ज़िन्दगी बसर कर रहे
थे।
अनास्था की इस भयावनी मरुभूमि में भी
हरियाली एक जगह छोटे से टापू का रूप लेकर
संजीवनी सिद्ध हो रही थी। नदिया में कुछ
इतने इने-गिने लोग ऐसे भी थे, जो ईश्वर और उसकी
बनाई हुई दुनिया के प्रति अपना अडिग, उत्कट
और अपार प्रेम अर्पित करते ही जाते थे।
खिसियाने पण्डितों की नगरी में ये कुछ इने-
गिने वैष्णव लोग चिढ़ा-चिढ़ा कर विनोद के
पात्र बना दिये गये थे। चारों ओर मनुष्य के लिए
हर कहीं अंधेरा-ही-अंधेरा छाया हुआ था। लोक-
लांछित वैष्णव जन तब भी हरि-भक्त थे। यह संयोग
की बात है कि श्री गौरांग (चैतन्य महाप्रभु)
का जन्म पूर्ण चन्द्रग्रहण के समय हुआ था। उस समय
नदी में स्नान, करते दबे-दबे हरे राम, हरे कृष्ण जपते,
आकाशचारी राहुग्रस्त चन्द्र की खैर मनाते
सर्वहारा नर-नारी जन यह नहीं जानते थे कि
उन्हीं के नगर की एक गली में वह चन्द्र उदय हो
चुका है, जिसकी प्रेम चाँदनी में वर्षों से छिपा
खोया हुआ विजित समाज का अनन्त श्रद्धा से
पूजित, मनुष्य के जीने का एकमात्र सहारा–ईश्वर
उन्हें फिर से उजागर रूप में मिल जायगा। अभी
तो वह घुट-घुट कर रह रहा है, वह अपने धर्म को, धर्म
और ईश्नर को ईश्वर नहीं कह पाता है, यानि
अपने अस्तित्व को खुलकर स्वीकार नहीं कर
पाता है। श्री चैतन्य ने एक ओर तो ईश्वर को
अपने यहाँ के कर्मकाण्ड की जटिलताओं से मुक्त
करके जन-जन के लिए सुलभ बना दिया था, और
दूसरी ओर शासक वर्ग की धमकियों से लोक-
आस्था को मुक्त किया।
बचपन
निमाई (चैतन्य महाप्रभु) बचपन से ही विलक्षण
प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व
भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को
देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम
उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत
हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल
स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया।
निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद चिंतन में
लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे
थे। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह
लक्ष्मी देवी के साथ हुआ। सन 1505 में सर्पदंश से
पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता
के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के
राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के
साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके
पिता का निधन हो गया। चैतन्य के बड़े भाई
विश्वरूप ने बाल्यावस्था में ही संन्यास ले
लिया था, अत: न चाहते हुए भी चैतन्य को अपनी
माता की सुरक्षा के लिए चौबीस वर्ष की
अवस्था तक गृहस्थ आश्रम का पालन करना पड़ा।
कहा जाता है कि इनका विवाह वल्लभाचार्य
की सुपुत्री से हुआ था। अपने समय में सम्भवत: इनके
समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने
लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया
हो। पश्चिम बंगाल में अद्वैताचार्य और
नित्यानन्द को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और
सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार
संभलवाकर चैतन्य नीलाचल (कटक) में चले गए और
वहाँ 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति
और पूजा में लगे रहे। महाप्रभु के अन्तकाल का
आधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से
उपलब्ध नहीं होता है। 48 वर्ष की अल्पायु में
उनका देहांत हो गया। मृदंग की ताल पर कीर्तन
करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज
भी पूरे भारत में पर्याप्त है।
कृष्ण भक्ति
चैतन्य को इनके अनुयायी कृष्ण का अवतार भी
मानते रहे हैं। सन 1509 में जब ये अपने पिता का
श्राद्ध करने बिहार के गया नगर में गए, तब वहाँ
इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई।
उन्होंने निमाई से 'कृष्ण-कृष्ण' रटने को कहा।
तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर
समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने
लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य
निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य
अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व
अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन
दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र
गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों
शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे
आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-
गाकर 'हरि नाम संकीर्तन' करना प्रारंभ
किया। हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-
राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे नामक सोलह
शब्दीय कीर्तन महामन्त्र निमाई की ही देन है।
इनका पूरा नाम 'विश्वम्भर मिश्र' और कहीं
'श्रीकृष्ण चैतन्यचन्द्र' मिलता है। चौबीसवें वर्ष
की समाप्ति पर इन्होंने वैराग्य ले लिया। वे
कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति
आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम
'गौडीय वैष्णव मत' भी है। चैतन्य ने अपने जीवन का
शेष भाग प्रेम और भक्ति का प्रचार करने में
लगाया। उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला
था। हिन्दू और मुसलमान सभी ने उनका शिष्यत्व
ग्रहण किया। इनके अनुयायी चैतन्य को 'विष्णु
का अवतार' मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष
उन्होंने उड़ीसा में बिताये। छह वर्ष तक वे
दक्षिण भारत, वृन्दावन आदि स्थानों में विचरण
करते रहे। छ: वर्ष मथुरा से जगन्नाथ तक के
सुविस्तृत प्रदेश में अपने सिद्धांतों का प्रचार
किया तथा कृष्ण भक्ति की ओर लोगों को
प्रवृत्त किया।
श्रीश्यामासुन्दर के 64 गुण (रूप गोस्वामी जी)

प्रभु के अनन्त गुण है । यह उनके लीला प्रधान गुण है ।

↑ सुरम्‍यांग: - अर्थात भगवान के अवयवों की रचना बड़ी सुन्‍दर है।
↑ सर्वसल्‍लक्षणान्वित: - अर्थात भगवान समस्‍त शुभ लक्षणों से युक्‍त है।
↑ रुचिर : - अर्थात भगवान अपने शरीर की कान्ति से दर्शकों के नेत्रों को आनन्‍द देने वाले है।
↑ तेजसायुक्‍त: - अर्थात भगवान का विग्रह प्रकाश-पुंज से परिवेष्टित है।
↑ बलीयान् - अर्थात भगवान महती प्राणाशक्ति से समन्वित है।
↑ वयसान्वित : - अर्थात भगवान सर्वदा किशोरावस्‍थापन्‍न ही रहते है।
↑ विविधाद्भुतभाषावित् - अर्थात भगवान अनेक अद्भुत भाषाओं का ज्ञान रखते है।
↑ सत्‍वाक्‍य : - अर्थात भगवान कभी झूठ नहीं बोलते है।
↑ प्रियंवद : - अर्थात भगवान अपराधी से भी मधुर वचन बोलते है।

↑ वावदूक : - अर्थात भगवान वक्‍तृत्‍व कला में बड़े निपुण है।
↑ सुपाण्डित्‍य : - अर्थात भगवान चौदहों विद्याओं के निधान एवं नीति विचक्षण है।
↑ बुद्धिमान् - अर्थात भगवान मेधावी (अद्भुत धारणा शक्ति सम्‍पन्‍न) और सूक्ष्‍म बुद्धियुक्‍त है।
↑ प्रतिभान्वित: - अर्थात भगवान प्रतिभा (चमत्‍कारपूर्ण बुद्धि) अथवा मौलिकता से युक्‍त है।
↑ विदग्‍ध: - अर्थात भगवान चौंसठ कलाओं में प्रवीण है।
↑ चतुर: - अर्थात भगवान एक ही काल में अनेकों का समाधान कर देते है।
↑ दक्ष: - अर्थात भगवान दुष्‍कर कार्यों को भी थोड़े ही समय में सम्‍पन्‍न कर दिया करते है।
↑ कृतज्ञ: - अर्थात भगवान की हुई सेवा इत्‍यादि को कभी नहीं भूलते है
↑ सदृढव्रत: - अर्थात भगवान सत्‍यसन्‍ध एवं अपने व्रत के पक्‍के है

↑ देशकालसुपात्रज्ञ: - अर्थात भगवान देश, काल एवं पात्र का सदा विचार रखते है
↑ शास्‍त्रचक्षु: - अर्थात भगवान का आचरण शास्‍त्र विहित होता है ।
↑ शुचि: - अर्थात भगवान स्‍वयं निर्दोष तथा दूसरों के पापों का नाश करने वाले है।
↑ वशी - अर्थात भगवान जितेन्द्रिय है।
↑ स्थिर: - अर्थात भगवान जिस काम को हाथ में लेते थे, उसे पूरा करके छोडते थे और जब तक वह पूरा न हो जाता, विश्राम नहीं लेते है।
↑ दान्‍त: - अर्थात भगवान योग्‍यता प्राप्‍त होने पर असह्य कष्‍ट को भी सहन करने में पीछे नहीं हटते है।
↑ क्षमाशील: - अर्थात भगवान अपराधियों के अपराध को सह लिया करते है।
↑ गम्‍भीर: - अर्थात भगवान इतने गम्‍भीर थे कि उनकी आकृति अथवा व्‍यवहार से उनके हृदयगत भाव को कोई नहीं जान सकता है।
↑ धृतिमान् - अर्थात भगवान पूर्णकाम थे और क्षोभ का कारण उपस्थित होने पर भी चलायमान न होकर सर्वछा प्रशान्‍तचित्‍त बने रहते है।
↑ वावदूक : - अर्थात भगवान वक्‍तृत्‍व कला में बड़े निपुण है।
↑ सुपाण्डित्‍य : - अर्थात भगवान चौदहों विद्याओं के निधान एवं नीति विचक्षण है।
↑ बुद्धिमान् - अर्थात भगवान मेधावी (अद्भुत धारणा शक्ति सम्‍पन्‍न) और सूक्ष्‍म बुद्धियुक्‍त है।
↑ प्रतिभान्वित: - अर्थात भगवान प्रतिभा (चमत्‍कारपूर्ण बुद्धि) अथवा मौलिकता से युक्‍त है।
↑ विदग्‍ध: - अर्थात भगवान चौंसठ कलाओं में प्रवीण है।
↑ चतुर: - अर्थात भगवान एक ही काल में अनेकों का समाधान कर देते है।
↑ दक्ष: - अर्थात भगवान दुष्‍कर कार्यों को भी थोड़े ही समय में सम्‍पन्‍न कर दिया करते है।
↑ कृतज्ञ: - अर्थात भगवान की हुई सेवा इत्‍यादि को कभी नहीं भूलते है।
↑ सदृढव्रत: - अर्थात भगवान सत्‍यसन्‍ध एवं अपने व्रत के पक्‍के है।
↑ देशकालसुपात्रज्ञ: - अर्थात भगवान देश, काल एवं पात्र का सदा विचार रखते है।
↑ शास्‍त्रचक्षु: - अर्थात भगवान का आचरण शास्‍त्र विहित होता है।
↑ शुचि: - अर्थात भगवान स्‍वयं निर्दोष तथा दूसरों के पापों का नाश करने वाले है।
↑ वशी - अर्थात भगवान जितेन्द्रिय है।
↑ स्थिर: - अर्थात भगवान जिस काम को हाथ में लेते है, उसे पूरा करके छोडते थे और जब तक वह पूरा न हो जाता, विश्राम नहीं लेते है।
↑ दान्‍त: - अर्थात भगवान योग्‍यता प्राप्‍त होने पर असह्य कष्‍ट को भी सहन करने में पीछे नहीं हटते है।
↑ क्षमाशील: - अर्थात भगवान अपराधियों के अपराध को सह लिया करते है।
↑ गम्‍भीर: - अर्थात भगवान इतने गम्‍भीर थे कि उनकी आकृति अथवा व्‍यवहार से उनके हृदयगत भाव को कोई नहीं जान सकता है।
↑ धृतिमान् - अर्थात भगवान पूर्णकाम थे और क्षोभ का कारण उपस्थित होने पर भी चलायमान न होकर सर्वछा प्रशान्‍तचित्‍त बने रहते है।
↑ सम: - अर्थात भगवान का किसी के प्रति रागद्वेष नहीं थ, शत्रु और मित्र में उनकी समबुद्धि है।
↑ वदान्‍य: - अर्थात भगवान बड़े दानवीर है।
↑ धार्मिक: - अर्थात भगवान स्‍वयं धर्मानुकूल आचरण करते है और दूसरों से भी वैसा ही आचरण करवाते है
↑ शूर: - अर्थात भगवान युद्ध में बड़ी शूरवीरता दिखलाते है और अस्‍त्र-शस्‍त्रों के चलाने में बड़े कुशल है।
↑ करुण: - अर्थात भगवान बड़े पर-दु:खकातर दयालु है।
↑ मान्‍यमानकृत –अर्थात भगवान गुरु, ब्राह्मण और अपने बडों का बड़ा आदर करते है।
↑ दक्षिण: - अर्थात भगवान बड़े सुशील एवं सौम्‍य आचरण वाले है।
↑ विनयी - अर्थात भगवान बड़े नम्र तथा औद्धत्‍य शून्‍य है।
↑ ह्रीमान् - अर्थात भगवान को अपने मुँह पर अपनी प्रशंसा सुनकर बड़ा संकोच होता है।
↑ शरणागतपालक: - अर्थात भगवान शरण में आये हुए की सदा रक्षा करते है।
↑ सुखी - अर्थात भगवान कभी लेशमात्र दु:ख का अनुभव नहीं करते थे और उन्‍हें सब प्रकार के भोग प्राप्‍त है।
↑ भक्‍तसुहृत् - अर्थात भगवान भक्‍तों के अकारण प्रेमी है और थोडी सेवा से ही सन्‍तुष्‍ट हो जाते है।
↑ प्रेमवश्‍य: - अर्थात भगवान केवल प्रेम से प्रेमी के वश में हो जाते है ।
↑ सर्वशुभंकर: - अर्थात भगवान सर्व हितकारी है।
↑ प्रतापी - अर्थात भगवान की शूरता, पराक्रम तथा दुर्जेयता को सुनकर शत्रु कम्‍पायमान होते है।
↑ कीर्तिमान् - अर्थात भ्रवान्‍ के उत्‍तम सद्गुणों से उनका निर्मल यश दसों दिशाओं में फैल गया है।
↑ रक्‍तलोक: - अर्थात भगवान सदा सत्‍पुरुषों का पक्षपात करते है और उनकी सहायता करते है।
↑ साधुसमाश्रय: - अर्थात भगवान सदा सत्‍पुरुषों का पक्षपात करते है और उनकी सहायता करते है।
↑ नारीगणमनोहारी –अर्थात सुन्‍दरियां उनके अलौकिक रूप-लावण्‍य को देखकर उन पर मुग्‍ध हो जाया करती है।
↑ सर्वाराध्‍य: - अर्थात भगवान का सब लोग मान एवं पूजा करते है।
↑ समृद्धिमान् - अर्थात भगवान सब प्रकार की समृद्धियों से सम्‍पन्‍न है।
↑ वरीयान् - अर्थात भगवान सुर-मुनि सबसे श्रेष्‍ठ है और इनके द्वार पर ब्रह्मादि देवताओं तथा महर्षियों की भीड लगी रहती है।
↑ ईश्‍वर: - अर्थात भगवान की इच्‍छा में कोई बाधा नहीं डाल सकता है और उनकी आज्ञा को ही टाल सकता है
↑ सदास्‍वरूपसम्‍प्राप्‍त: - अर्थात भगवान माया के वश में नहीं है। सदा अपने स्‍वरूप में स्थित है।
↑ सर्वज्ञ: - अर्थात भगवान घट-घट कीबात जानते है और उनका ज्ञान देश, काल से अबाधित है, कोई वस्‍तु ऐसी नहीं है, जिसका उन्‍हें ज्ञान न हो।
↑ नित्‍यनूतन: - अर्थात यद्यपि उनके प्रेमीजन उनके माधुर्य रस का सदा आस्‍वादन करते है फिर भी उन्‍हें उसमें नत्‍य नया स्‍वाद मिलता है।
↑ सच्चिदानन्‍दसान्‍द्रांग: - अर्थात उनका विग्रह सच्चिदानन्‍दमय ही है, साधारण मनुष्‍यों की भाँति पंचभूतों का बना हुआ नहीं है।
↑ सर्वसिद्धिनिषेवित: - अर्थात सारी सिद्धियां उनके वश में है ।
↑ अविचिन्‍त्‍यमहाशक्ति: - अर्थात भगवान अचिन्‍त्‍य महाशक्तियों से युक्‍त है। अपने अपने संकल्‍प मात्र से ही स्‍वर्गादि दिव्‍य लोकों की रचना कर सकते है, ब्रह्मा एवं शिव आदि देवताओं को भी मोहित कर सकते है और भक्‍तों के प्रारब्‍ध का भी नाश कर सकते है।
↑ कोटिब्रह्माण्‍डविग्रह: - अर्थात उनका विग्रह असंख्‍य ब्रह्माण्‍ड-व्‍यापी है।
↑ अवतारावलीबीजम् - अर्थात सारे अवतारों को धारण करने वाले अवतारी वे ही है।
↑ हतारिगतिदायक: - अर्थात जो शत्रु उनके हाथ से मारे जाते है , वे मोक्ष को प्राप्‍त होते है
↑ आत्‍मारामगणाकर्षी –अर्थात उनकी ओर आत्‍माराम-पुरुषों का भी मन हठात्‍ आकृष्‍ट हो जाता है।
↑ सर्वाद्भुतचमत्‍कारलीलाकल्‍लोलवारिधि: - अर्थात उन्‍होंने अपने जीवन-काल में अनेक अद्भुत एवं चमत्‍कारपूर्ण लीलाएं कीं।
↑ अतुल्‍यमधुरप्रेममण्डितप्रियमण्‍डल: - अर्थात भगवान के प्रेमीजन उनके असाधरण माधुर्ययुक्‍त प्रेम से सर्वदा परिपूर्ण रहते है।
↑ त्रिजगन्‍मानसाकर्षी मुरलीकलकूजितै: - अर्थात उनकी मुरली के मधुर स्‍वर से तीनों लोकों के निवासियों का मन आकर्षित हो जाता है।
↑ असमानोध्‍वरूपश्रीविस्‍मापितचराचर: -अर्थात भगवान के असाधारण रूप लावण्‍य को देखकर चराचर जगत विस्‍मयाविष्‍ट हो जाता है।
↑ समुद्रा इव पंचाशद् दुर्विगाहा हरेरमी। जीवेष्‍वेते वसन्‍तोअपि विन्‍दुविन्‍दुतया क्‍वचित्‍।। परिपूर्णतया भान्ति तत्रैव पुरुषोत्‍तमे।

उपर्युक्‍त चौंसठ गुणों में से पहले पचास गुण अंशरूप से मनुष्‍यों मे भी रह सकते हैं यद्यपि पूर्णरूप से उनका विकास पुरुषोत्‍तम भगवान श्रीकृष्‍ण में ही हुआ है। पद्मपुराणा में शिवजी ने पार्वती जी से इन्‍हीं गुणों का वर्णन किया है और श्रीमद्भागवत के प्रथम स्‍कन्‍ध में पृथ्वी ने धर्म को भगवान के ये ही गुण बतलाये हैं। इनके अतिरिक्‍त 51 से लेकर 55 तक के गुण श्रीशिव आदि देवताओं में भी अंशरूप से पाये जाते हैं और 56 से 60 तक गुण भगवान श्रीलक्ष्‍मीश्‍वर आदि में भी होते हैं। शेष चार गुण तो असाधारण रूप से केवल भगवान श्रीकृष्‍ण में ही 

।। श्री राजराजेश्वरी अष्टकम् ।।

।। श्री राजराजेश्वरी अष्टकम् ।।


अम्बा शाँभवि चन्द्रमौलि रमलाऽपर्णा उमा पार्वती काली हैमवती शिवा त्रिनयनी कात्यायनी भैरवी ।
सावित्री नवयौवना शुभकरी साम्राज्य लक्ष्मीप्रदा चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।

अम्बा मोहिनी देवता त्रिभुवनी आनन्द सन्दायिनी वाणी पल्लव पाणि वेणु मुरली गानप्रिया लोलिनी ।
कल्याणी उडुराजबिंब वदना धूम्राक्ष संहारिणी चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।

अम्बा नूपुर रत्न कंकणधरी केयूर हारावली जाती चंपक वैजयन्ति लहरी ग्रैवेयकै राजिता ।
वीणा वेणु विनोद मण्डित करा वीरासने संस्थिता चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।

अम्बा रौद्रिणि भद्रकालि बगला ज्वालामुखी वैष्णवी ब्रह्माणी त्रिपुरान्तकी सुरनुता देदीप्यमानोज्वला ।
चामुण्डा श्रितरक्ष पोष जननी दाक्षायणी वल्लवी चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।

अम्बा शूल धनु: कशाँकु़शधरी अर्धेन्दु बिम्बाधरी वाराही मधुकैटभ प्रशमनी वाणी रमा सेविता ।
मल्लाद्यासुर मूकदैत्य मथनी माहेश्वरी चाम्बिका चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।

अम्बा सृष्टिविनाश पालनकरी आर्या विसंशोभिता गायत्री प्रणवाक्षरामृतरस: पूर्णनुसन्धी कृता ।
ओंकारी विनतासुतार्चित पदा उद्दण्ड दैत्यापहा चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।

अम्बा शाश्वत आगमादि विनुता आर्या महादेवता या ब्रह्मादि पिपलिकान्त जननी या वै जगन्मोहिनी ।
या पन्चप्रणवादि रेफजननी या चित्कला मालिनी चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।

अम्बा पालित भक्तराजमनिशं अम्बाष्टकमं य: पठेत अम्बा लोल कटाक्षवीक्ष ललितं चैश्वर्यमव्याहतम् ।
अम्बा पावन मन्त्र राज पठनात् अन्ते च मोक्षप्रदा चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी ।।

       ।। माँ हो भगवती ।।

समस्त पाप नाशक स्तोत्र

समस्त पाप नाशक स्तोत्र


भगवन वेदव्यासजी द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक ‘अग्नि पुराण’ में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दियें गये विभिन्न उपदेश हैं| इसीके अंतर्गत इस पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनता चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है| उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है| इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम ‘समस्त पापनाशक स्तोत्र’ है|

निम्नलिखित प्रकार से भगवान नारायण की स्तुति करें:


पुष्करोवाच


विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः ।
नमामि विष्णुं चित स्थमहंकारगतिं हरिम् ॥
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम् ।
विष्णुमीडयमशेषेण अनादिनिधनं विभुम् ।।
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् ।
यच्चाहंकारगो विष्णुर्यव्दिष्णुमॅयि संस्थितः ॥
करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च ।
तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते ॥
ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात् ।
तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्राणतातिॅहरं हरिम् ॥
जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः ।
हस्तावलम्बनं विष्णुं प्रणमामि परात्परम् ॥
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज ।
हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते ॥
नृसिंहानन्त गोविंद भूतभावन केशव ।
दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाधं नमोऽस्तु ते ॥
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना ।
अकार्यँ महदत्युग्रं तच्छ्मं नय केशव ॥
ब्रह्मण्यदेव गोविंद परमार्थपरायण ।
जगन्नाथ जगध्दतः पापं प्रश्मयाच्युत ॥
यथापरह्मे सायाह्मे मध्याह्मे च तथा निशि ।
कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ॥
जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।
नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम् ॥
शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।
पापं प्रशमयाध त्वं वाक्कृतं मम माधव ॥
यद् भुंजन यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः ।
कृतवान् पापमधाहं कायेन मनसा गिरा ॥
यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम् ।
तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात् ॥
परं ब्रहम परं धाम पवित्रं परमं च यत् ।
तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु ॥
यत् प्राप्य न निवतॅन्ते गन्धस्पशाॅदिवजिॅतम् ।
सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वधम् ॥
( अग्नि पुराण : १७२.)


माहात्म्यं :-
पापप्रणाशनं स्त्रोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि ।
शारीरैमॉनसैवॉग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते ॥
सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम् ।
तस्मात् पापे कृते जप्यं स्त्रोत्रं सवॉधमदॅनम्॥
प्रायश्चित्तमधौधानां स्त्रोत्रं व्रतकृते वरम् ।
प्रायश्चित्तैः स्त्रोत्रजपैर्व्रतैनॅश्यति पातकम् ॥
( अग्नि पुराण : १७२.१९ -२१ )



अर्थ: - पुष्कर बोले: “सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है| श्रीहरी विष्णु को नमस्कार है| मैं अपने चित में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरी को नमस्कार करता हूँ| मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनंत और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ| सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है| विष्णु मेरे चित में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मुझमें भी स्थित हैं|

वे श्रीविष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो| जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करनेवाले उन पापपहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ|

मैं इस निराधार जगत में अज्ञानान्धकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देनेवाले परात्परस्वरुप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूँ| सर्वेश्वर प्रभो! कमलनयन परमात्मन्! हृषिकेश! आपको नमस्कार है| इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो! आपको नमस्कार है| नृसिंह! अनंतस्वरुप गोविन्द! समस्त भूतप्राणियों की सृष्टि करनेवाले केशव! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये, आपको नमस्कार है| केशव! अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिये| परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले जगन्नाथ! जगत का भरण-पोषण करनेवाले देवेश्वर! मेरे पाप का विनाश कीजिये| मैंने मध्यान्ह, अपरान्ह, सायंकल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, ‘पुन्द्रिकाक्ष’, ‘हृषिकेश’, ‘माधव’- आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें| कमलनयन! लक्ष्मीपते! इन्द्रियों के स्वामी माधव! आज आप मेरे शारीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये| आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शारीर से जो भी नीच योनी एवं नरक की प्राप्ति करनेवाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हों जायें| जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें| जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुन: लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे संपूर्ण पापों का शमन करे|”

महात्म्य : जो मनुष्य पापों का विनाश करनेवाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है| इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें| यह स्तोत्र पापसमुहों के प्रायश्चित के समान है | कृच्छर् आदि व्रत करनेवाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है| स्तोत्र-जप और व्रत्रूप प्रायश्चित से संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं| इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए|  


गजासुर का वध

 ((((((( महादेव का वरदान ))))))) 🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸 गज और असुर के संयोग से एक असुर का जन्म हुआ. उसका मुख गज जैसा होने के कारण उसे गजासु...