शनिवार, 30 सितंबर 2017

गहना कर्मणोगति:



 एक डाकू साधू के पास जाने लगा.... साधू भी भजनान्दी थे. जंगल में एक पेड़ के नीचे रहेना.

 दिन-रात धुनी के सामने बैठे बैठे प्रभु नाम लेते रहेना. न आश्रम बनाना, न चेला बनाना,

बस! प्रभु नाम में मस्त रहेना. न कोई चाह, न किसी से कोई आशा-अपेक्षा. उनके पास आनेवाले को शांति मिलती।

 अपने पास कंदमूल-फल जो हो तो उसे देना. बस. डाकू को साधू का आकर्षण हुआ.

दिन में या रात को एक बार वह जरुर आता, बैठता और फिर चला जाता. न साधु ने उसे कभी उपदेश दिया.

लेकिन डाकु साधु के आकर्षण क्षेत्र में आ गया तो अपने जीवन के बारे में सोचने लगा.

एक दिन साधु के चरणों में बंदूक रख दी और कहा कि “महाराज! मुझे अपनी शरण में ले लो.

मैंने ऐसे ऐसे कर्म किए है, न जाने कब उससे मेरा छुटकारा होगा।”

 डाकु ने पुरे जीवन की किताब खुल्ली कर दी।

 महात्मा ने कहा कि “सोच लो, साधु बनकर हमारे साथ रहेना तो बहुत कठिन काम है।”

 डाकु बोला “महाराज ! अब तो मैं जैसा आप कहोंगे वैसा करूँगा।”

 महात्मा ने सोचा कि ‘इन का तामस गुणों वाला शरीर है. बैठे बैठे उनसे भजन नहीं होगा.

’ महात्मा ने धुनें में से एक गट्ठेवाली जलती लकड़ी निकाली और उसे देकर कहा : “इस लकड़ी को लेकर तीर्थयात्रा करो.

इस लकड़ी को भी तीर्थ में स्नान तथा दर्शन कराओ.

जब यह लकड़ी हरी भरी हो जाए तब मेरे पास आना. इसको हरी भरी होने में वर्षो हो जायेंगे क्यों कि तुम्हारे सर पे पापों का ज्यादा बोझ है।”

 डाकु को दीक्षा मिल गई. दंड मिल गया. वह तो गुरु महाराज के आदेशानुसार तीर्थयात्रा करने लगा.

 कुछ महीनो के बाद एक दिन एक गाँव से भिक्षा पाकर अपने कदम आगे बढ़ाये. सायंकाल हो गया तो एक वटवृक्ष के नीचे आसन जमाकर बैठा.

बड़ा पेड़ था. उसकी शाखाएं फेली हुई थी. शाखाओं से निकली टहनियों जमीन में उतर उतर के पेड़ के थड बन गए थे.

 बड़ा घेघुर विस्तारवाला पेड़ बन गया था. कोई पेड़ पर छूप जाए तो किसीको पता भी न चले!

 जैसे ही अँधेरा छाया तभी पांच घुड़सवार आये और उस वटवृक्ष पर चढ़ गए।

वे सब आपस में बातें कर रहे थे कि ‘कैसे इस गाँव को लूटा जाए?’

 और उन लोगों ने लूट का प्लान बनाया.गाँव को तीन ओर से आग लगाई जाए।

जब जिस दिशा में आग नहीं हो उस दिशा से सब निकलेंगे तो उसे मारमार के सब लूंट लिया जाए।

 साधु ने सब सुना. इसी गाँव से उसने भिक्षा पाई थी। वहाँ के लोगों भी प्रेमाल तथा साधु प्रेमी थे। उसने मनोमय कुछ तय कर लिया.

टोली के एक एक डाकु जब पेड़ की डाली से नीचे उतरने लगे तब अपनी गट्ठेवाली लकड़ी का प्रहार कर कर के पांचो को मार दिए।

सुबह होते ही जब आगे की यात्रा के लिए कदम बढ़ाये तो देखा कि उसकी लकड़ी हरी भरी हो गई थी तुरंत उसने अपने कदम अपने गुरु महाराज की ओर बढ़ाए।

 गुरु महाराज के चरणों में प्रणाम कर के उनके चरणों में हरा भरा दंड रख दिया। महात्मा ने कहाँ “तुम तो जल्दी आ गए!”

उसने सारी बात कह दी महात्मा ने कहाँ कि “डाकु होते हुए तूने अपने स्वार्थ से कितने लोगों की जान ली थी.

लेकिन एक गाँव को बचाने के लिए तूने जो प्रहार किए उससे तेरी पापो की गठरी ही समाप्त हो गई।

 अब तू यहाँ रहकर भजन कर।”
 “गहना कर्मणोगति:... कर्म की गति गहन है।”

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