महाराज भीष्मक विदर्भ देश के अधिपति थे उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दर पुत्री थी, जिनका नाम रुक्मिणी था, वे बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण के सौंदर्य, पराक्रम, गुण, और वैभव, की प्रशंसा सुनती आ रही थी, जो उनके महल में आने वाले अतिथि प्रायः गाया करते थे. तब उन्होंने यही निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति है.
भगवान भी समझते थे कि रूक्मिणी में बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण है वह परम बुद्धिमती है उदारता, सौंदर्य, शीलस्वभाव, और गुणों में भी अद्वितीय है. इसलिए रुक्मिणी ही मेरे अनुरूप पत्नी है अतः भगवान ने रूक्मिणी जी से विवाह करने का निश्चय किया. परन्तु रुक्मिणी जी का बडा़ भाई रुक्मी श्रीकृष्णजी से द्वेष करता था और रुक्मिणी जी का विवाह अपने मित्र शिशुपाल से करने लगा. जब रुक्मिणी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है तब वे बहुत उदास हो गयी. उन्होंने बहुत कुछ सोच समझकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मणदेवता को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा.
जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारिकापुरी में पहुँचे. तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गए वह जाकर भगवान श्रीकृष्ण ने उन ब्राह्मणदेवता को अपने आसन पर बैठाकर उनकी पूजा की, कुशल-प्रश्न के अनन्तर, जब ब्राह्मण खा-पी चुके,तब भगवान ने उनसे पूछा – ब्राह्मण देवता! आप कहाँ से, किस हेतु से, और किस अभिलाषा से, इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे है? हम आप की क्या सेवा करे? भगवान श्री कृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवता से पूछा तब उन्होंने सारी बात कह सुनाई इसके बाद वे भगवान से रुक्मिणी जी का सन्देश कहने लगे- जैसे विवाह की“सप्तपदी”होती है उसी प्रकार रुक्मिणी जी ने ‘सात श्लोको’ में भगवान को सन्देश भेजा.
रुक्मिणी जी ने कहा है-
*.त्रिभुवनसुन्दर! मैंने आपको कभी देखा तो नहीं, केवल आपके गुणों को अपने कानो से सुना है और केवल श्रवण मात्र से मेरा चित्त लज्जा, शर्म, सब कुछ छोडकर आपमें ही प्रवेश कर रहा है. आपके गुण सुनने वालो के कानो के रास्ते ह्रदय में प्रवेश करके, एक-एक अंग के ताप जन्म-जन्म की जलन बुझा देते है..
*.प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर ! चाहे जिस द्रष्टि से देखे कुल, शील, स्वभाव, सौंदर्य, विद्या अवस्था, धन-धाम सभी में आप अद्वितीय है. अपने ही समान है. मनुष्य लोक में जितने भी प्राणी है, सबका मन आपको देखकर शांति का अनुभव करता है अब आप ही बताइये, ऐसी कौन-सी कुलवती, महागुणवती, और धैर्यवती कन्या होगी. जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति रूप में वरण न करेगी..
*.प्रियतम ! मैंने आपको पति रूप से वरण किया है, मै आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ. आप अंतर्यामी है. मेरे ह्रदय की बात आपसे छिपी नहीं है. आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये. कमलनयन! प्राणवल्लभ ! मै आपकी हूँ, अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाये वैसे कही शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाये ..
*.मैंने यदि जन्म-जन्म इष्ट, दान, नियम, व्रत, और देवता, ब्राह्मण और गुरु आदि की पूजा के द्वारा भगवान परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हो तो भगवान श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करे. शिशुपाल या कोई दूसरा पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके ..
*.प्रभो आप अजित है. जिस दिन मेरा विवाह होने वाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्तरूप से आ जाइये और फिर शिशुपाल और सेनाओ को मथ डालिए. बलपूर्वक राक्षस विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ..
*.यदि आप सोचते है कि मै तो अन्तःपुर में भीतर के जनान महलों में पहरे के अंदर रहती हो, मै तुम्हे कैसे ले जाऊँगा. तो इसका उपाय यह है कि हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिए दुल्हन गिरिजादेवी के मंदिर जाती है आप वही से मेरा हरण कर लेना ..
*.कमलनयन ! भगवान शंकर के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धि के लिए आपके चरणकमलो की धूलि से स्नान करना चाहते है. यदि मै आपका वह प्रसाद, आपकी चरणधूलि नहीं प्राप्त कर सकी. तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी. चाहे उसके लिए सैकड़ो जन्म क्यों न लेना पड़े. कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा..
ब्राह्मण देवता ने कहा-यदुवंश शिरोमणि ! यही रुक्मिणी के अत्यंत गोपनीय सन्देश है जिन्हें लेकर्मै आपके पास आया हूँ इसके संबध में जो कुछ करना हो विचार कर लीजिए और तुरंत ही उसके अनुसार कार्ये कीजिये .
भगवान ने कहा– ब्राह्मणदेव जैसे विदर्भ राजकुमारी मुझे चाहती है वैसे ही मै भी उन्हें चाहता हूँ मेरा चित्त उन्ही में लगा रहता है कहाँ तक कहूँ मुझे रात के समय नीद तक नहीं आती. मै राजकुमारी को निकाल लूँगा .भगवान ने तुरंत सारथी को आज्ञ दी औरएक ही रात में विदर्भ में पहुँच गए.
विदर्भ में विवाह कि तैयारिया हो रही थी उधर रुक्मिणी जी को चिंता हो रही थी कि भगवान तो दूर रहे ब्राह्मण देवता भी नहीं आये उनकी आखो में आँसू भर आये वे उसी उधेड़ बुन में थी, कि ब्राह्मण देवता आ गए. और उनका प्रसन्न मुख देखकर वे समझ गयी कि भगवान आ रहे है.
तब ब्राह्मण देव ने कहा-कि भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधार गए है.
रुक्मिणी देवी जी के मंदिर के लिए चली. बहुत से सैनिक उनकी रक्षा में नियुक्त थे. सखी-सहेली सब ओर से उन्हें घेरे हुए थी. मंदिर पहुँचकर उन्होंने माता अम्बिका माता की स्तुति की .अब वे मंदिर से बाहर निकली. उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर और पतला था. मुखमंडल पर कुण्डलो की शोभा जगमगा रही थी. उनका रूप बड़ा ही मनोहर और मोहित करने वाला था उनका रूप देखकर सारे सैनिक बेहोश हो गए .तभी भगवान श्रीकृष्ण रथ लेकर आये और रुक्मणि जी को रथ पर बैठाकर ले गए फिर भगवान ने द्वारिका पहुंचकर रुक्मिणी जी के साथ पाणिग्रहण किया. सारे द्वारिका वासियो, नर-नारियों को परम आनंद हुआ.
“जय जय श्री राधे”
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