एक बाबा जी नंदग्राम में यशोदा कुंड के
पीछे निष्किंचन भाव से एक गुफा में बहुत काल से वास करते थे, दिन में केवल एक बार संध्या के समय गुफा से बाहर
शौचादि और मधुकरी के लिए निकलते थे.
वृद्ध हो गए थे, इसलिए नंदग्राम छोड़कर कही नहीं जाते थे.एक बार हठ करके बहुत से बाबा जीश्री गोवर्धन में नाम 'यज्ञ महोत्सव' में ले गए.तीन दिन बाद जब संध्याकाल में लौटे तो अन्धकार होगया था,
गुफा में जब घुसे, तब वहाँ करुण कंठ से
किसी को कहते सुना - ओं बाबा जी
महाशय! पिछले दो दिन से मुझे कुछ भी आहार न मिला.
बाबा जी आश्चर्य चकित हो बोले - तुम कौन हो ?
उत्तर मिला आप जिस कूकर को प्रतिदिन एक टूक मधुकरी का देते थे, मै वही हूँ.बाबा जी अप्राकृत धाम के अद्भुत अनुभव से विस्मृत
हो बोले - आप कृपा करके अपने स्वरुप का परिचय दीजिये,
वह कूकर कहने लगा - बाबा! मै बड़ा दुर्भागा जीव हूँ, पूर्वजन्म में, मै इसी नन्दीश्वर मंदिर
का पुजारी था एक दिन एक बड़ा लड्डू भोग के निमित्त आया मैंने लोभवश उसका भोग न लगाया और स्वयं खा गया,
उस अपराध के कारण मुझे यह भुत योनि मिली है. आप निष्किंचन वैष्णव है आपकी उचिछ्ष्ट मधुकरी का टूक खाकर मेरी ऊर्ध्वगति होगी
इस लोभ से नित्यप्रति आपके यहाँ आता हूँ
तब परस्पर यह वार्ता हुई.बाबा बोले - आप तो अप्राकृत धाम के भूत है आपको तो निश्चय
ही श्री युगल किशोर के दर्शन होते होगे, उनकी लीलादी प्रत्यक्ष देखते होगे.
भूत - दर्शन तो होते है, लीला भी
देखता हूँ, लेकिन जिस प्रकार उसका आप आस्वादन करते है,मुझे इस देह में आस्वादन नहीं होता क्योकि इसमें वह योग्यता नहीं है
बाबा - तब तो मुझे भी एक बार दर्शन करा दो?
भूत - यह मेरे अधिकार के बाहर की बात है.
बाबा - अच्छा कोई युक्ति ही बता दो जिससे मुझे दर्शन हो ?
भूत - हाँ! यह मै बता सकता हूँ, कल शाम् के समय यशोदा कुंड पर जाना, संध्या समय जब ग्वालबाल गोष्ठ में वन से गौए फेर कर लायेगे, तो इन ग्वाल बालों में सबसे पीछे जो बालक होगा
वह है - 'श्री कृष्ण". इतना बताकर वह
कूकररूपी भूत अन्तहित हो गया. अब क्या था उन्मत्त की तरह बाबा इधर-उधर फिरने लगे, वक्त काटना मुश्किल हो गया. कभी रोते,
कभी हँसते, कभी नृत्य करते, अधीर थे,
बड़ी मुश्किल से वह लंबी रात्रि कटी प्रातः होते ही यशोदा कुंड के प्रान्त भाग में एक झाड़ी में छिपकर शाम कि प्रतीक्षा करने लगे, कभी भाव उठता में तो महान अयोग्य हूँ
मुझे दर्शन मिलाना असंभव है?
यह विचार कर रोते रोते रज में लोट जाते.
फिर सावधान हो जब ध्यान आता कि श्री कृष्ण तो करुणासागर है मुझ दीन-हीन पर
अवश्य ही वे कृपा करेगे,
तो आनन्द मगन हो, नृत्य करने लगते ऐसे करते शाम हो गई गोधुलि रंजित आकाश देख बड़े प्रसन्न हुए, देखा कि एक-एक दो-दो ग्वालबाल अपने-अपने गौओ के यूथो को हाँकते चले आ रहे है.
जब सब निकल गए तो सबके पीछे एक ग्वाल बाल आ रहा था, कृष्णवर्ण कई जगह से शरीर को टेढ़ा करके चल रहा है, इन्होने मन में जान लिया यहीहै जल्दी से बाहर निकल आये उनको सादर दंडवत प्रणाम कर उनके चरणारविन्द को द्रढता से पकड़ लिया तब परस्पर वार्ता शुरू हुई.
बालक - रे बाबा ! मै बनिए का लाला हूँ, मुझे अपराध होगा, तु मेर पैर छोड़ दे! मैया मरेगी! मधूकारी दूँगा और जो माँगेगा दूँगा, मेरा पैर छोड़ दे.
बाबा - (सब सुनी अनसुनी कर विनय
करने लगे)
हे प्रियतम ! एक बार दर्शन देकर मेरे तापित प्राणों को शीतल करो, हे कृष्ण! अब छल
चातुरी मत करो! मुझे अपने अभय चरणारविन्द में स्थान दो!
इस तरह तर्क-वितर्क करते-करते जब भक्त और भक्तवत्सल भगवान के बीच आधी रात हो गई और जब बाबा जी ने किसी तरह चरण न छोड़े, तो
श्री कृष्ण बोले - अच्छा बाबा मेरा स्वरुप देख!
श्री कृष्ण ने त्रिभंग मुरलीधर रूप में बाबा
जी को दर्शन दिए.तब बाबा जी ने कहा - में केवल मात्र आपका ही तो ध्यान नहीं करता, मै तो युगल रूप का उपासक हूँ,
अत: हे कृपामय! एक बार सपरिकर दर्शन देकर मेरे प्राण बचाओ ! तब श्री श्यामसुंदर,
श्री राधा जी और सखिगण परिकर के संग
यमुना पुलिन पर अलौकिक प्रकाश करते प्रकट हो गए.
बाबा जी नयन मन सार्थक करते उस रूप
माधुरी में डूब गए उनकी चिर दिन की पोषित वांछा पूर्ण हुई और तीन चार दिन पश्चात ही बाबा अप्रकट हो गए.
पीछे निष्किंचन भाव से एक गुफा में बहुत काल से वास करते थे, दिन में केवल एक बार संध्या के समय गुफा से बाहर
शौचादि और मधुकरी के लिए निकलते थे.
वृद्ध हो गए थे, इसलिए नंदग्राम छोड़कर कही नहीं जाते थे.एक बार हठ करके बहुत से बाबा जीश्री गोवर्धन में नाम 'यज्ञ महोत्सव' में ले गए.तीन दिन बाद जब संध्याकाल में लौटे तो अन्धकार होगया था,
गुफा में जब घुसे, तब वहाँ करुण कंठ से
किसी को कहते सुना - ओं बाबा जी
महाशय! पिछले दो दिन से मुझे कुछ भी आहार न मिला.
बाबा जी आश्चर्य चकित हो बोले - तुम कौन हो ?
उत्तर मिला आप जिस कूकर को प्रतिदिन एक टूक मधुकरी का देते थे, मै वही हूँ.बाबा जी अप्राकृत धाम के अद्भुत अनुभव से विस्मृत
हो बोले - आप कृपा करके अपने स्वरुप का परिचय दीजिये,
वह कूकर कहने लगा - बाबा! मै बड़ा दुर्भागा जीव हूँ, पूर्वजन्म में, मै इसी नन्दीश्वर मंदिर
का पुजारी था एक दिन एक बड़ा लड्डू भोग के निमित्त आया मैंने लोभवश उसका भोग न लगाया और स्वयं खा गया,
उस अपराध के कारण मुझे यह भुत योनि मिली है. आप निष्किंचन वैष्णव है आपकी उचिछ्ष्ट मधुकरी का टूक खाकर मेरी ऊर्ध्वगति होगी
इस लोभ से नित्यप्रति आपके यहाँ आता हूँ
तब परस्पर यह वार्ता हुई.बाबा बोले - आप तो अप्राकृत धाम के भूत है आपको तो निश्चय
ही श्री युगल किशोर के दर्शन होते होगे, उनकी लीलादी प्रत्यक्ष देखते होगे.
भूत - दर्शन तो होते है, लीला भी
देखता हूँ, लेकिन जिस प्रकार उसका आप आस्वादन करते है,मुझे इस देह में आस्वादन नहीं होता क्योकि इसमें वह योग्यता नहीं है
बाबा - तब तो मुझे भी एक बार दर्शन करा दो?
भूत - यह मेरे अधिकार के बाहर की बात है.
बाबा - अच्छा कोई युक्ति ही बता दो जिससे मुझे दर्शन हो ?
भूत - हाँ! यह मै बता सकता हूँ, कल शाम् के समय यशोदा कुंड पर जाना, संध्या समय जब ग्वालबाल गोष्ठ में वन से गौए फेर कर लायेगे, तो इन ग्वाल बालों में सबसे पीछे जो बालक होगा
वह है - 'श्री कृष्ण". इतना बताकर वह
कूकररूपी भूत अन्तहित हो गया. अब क्या था उन्मत्त की तरह बाबा इधर-उधर फिरने लगे, वक्त काटना मुश्किल हो गया. कभी रोते,
कभी हँसते, कभी नृत्य करते, अधीर थे,
बड़ी मुश्किल से वह लंबी रात्रि कटी प्रातः होते ही यशोदा कुंड के प्रान्त भाग में एक झाड़ी में छिपकर शाम कि प्रतीक्षा करने लगे, कभी भाव उठता में तो महान अयोग्य हूँ
मुझे दर्शन मिलाना असंभव है?
यह विचार कर रोते रोते रज में लोट जाते.
फिर सावधान हो जब ध्यान आता कि श्री कृष्ण तो करुणासागर है मुझ दीन-हीन पर
अवश्य ही वे कृपा करेगे,
तो आनन्द मगन हो, नृत्य करने लगते ऐसे करते शाम हो गई गोधुलि रंजित आकाश देख बड़े प्रसन्न हुए, देखा कि एक-एक दो-दो ग्वालबाल अपने-अपने गौओ के यूथो को हाँकते चले आ रहे है.
जब सब निकल गए तो सबके पीछे एक ग्वाल बाल आ रहा था, कृष्णवर्ण कई जगह से शरीर को टेढ़ा करके चल रहा है, इन्होने मन में जान लिया यहीहै जल्दी से बाहर निकल आये उनको सादर दंडवत प्रणाम कर उनके चरणारविन्द को द्रढता से पकड़ लिया तब परस्पर वार्ता शुरू हुई.
बालक - रे बाबा ! मै बनिए का लाला हूँ, मुझे अपराध होगा, तु मेर पैर छोड़ दे! मैया मरेगी! मधूकारी दूँगा और जो माँगेगा दूँगा, मेरा पैर छोड़ दे.
बाबा - (सब सुनी अनसुनी कर विनय
करने लगे)
हे प्रियतम ! एक बार दर्शन देकर मेरे तापित प्राणों को शीतल करो, हे कृष्ण! अब छल
चातुरी मत करो! मुझे अपने अभय चरणारविन्द में स्थान दो!
इस तरह तर्क-वितर्क करते-करते जब भक्त और भक्तवत्सल भगवान के बीच आधी रात हो गई और जब बाबा जी ने किसी तरह चरण न छोड़े, तो
श्री कृष्ण बोले - अच्छा बाबा मेरा स्वरुप देख!
श्री कृष्ण ने त्रिभंग मुरलीधर रूप में बाबा
जी को दर्शन दिए.तब बाबा जी ने कहा - में केवल मात्र आपका ही तो ध्यान नहीं करता, मै तो युगल रूप का उपासक हूँ,
अत: हे कृपामय! एक बार सपरिकर दर्शन देकर मेरे प्राण बचाओ ! तब श्री श्यामसुंदर,
श्री राधा जी और सखिगण परिकर के संग
यमुना पुलिन पर अलौकिक प्रकाश करते प्रकट हो गए.
बाबा जी नयन मन सार्थक करते उस रूप
माधुरी में डूब गए उनकी चिर दिन की पोषित वांछा पूर्ण हुई और तीन चार दिन पश्चात ही बाबा अप्रकट हो गए.
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