कंजूस की मानसी सेवा

                    कंजूस की मानसी सेवा 

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एक धनवान कंजूस व्यक्ति गुंसाईजी के पास गया। उसने गुंसाईंजी से कहा–
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महाराज ! बालकृष्ण की कोई ऐसी सेवा बतलाइए जिसमें एक पैसे का भी खर्च न हो।
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गुंसाईंजी ने कहा–तुम अपने इष्टदेव बालकृष्ण की मानसी सेवा करो। इसमें तुम्हें एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ेगा।
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भगवान को स्नान कराना, वस्त्र पहनाना, माला अर्पण कर भोग लगाना। सेवा मन से ही करनी है, अत: कंजूसी से नहीं; दिल खोलकर पूरे वैभव के साथ करना।
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गुंसाईंजी के बताये अनुसार कंजूस व्यक्ति हर रोज सुबह चार बजे उठकर मानसी सेवा करने लगा।
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इस तरह बारह वर्ष व्यतीत हो गए। अब उसे सेवा में बड़ा आनन्द आने लगा..
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अब तो सभी वस्तुएं उसे प्रत्यक्ष दिखाई देने लगीं–बालकृष्ण हँसते हुए मुझे देखते हैं। ठाकुरजी प्रत्यक्ष होकर भोग अरोग रहे हैं–ऐसा अनुभव भी उसे होने लगा।
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एक बार ठाकुरजी की सेवा करते समय वह मन से ही दूध लेकर आया, गर्म किया और दूध में शक्कर डाली–शक्कर ज्यादा पड़ गई।
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उस व्यक्ति की कंजूस प्रकृति थी। सेवा में तन्मयता तो हुई पर दूध में शक्कर ज्यादा पड़ गई है–ऐसा सोचकर दूध में पड़ी अधिक शक्कर निकाल लूं, दूसरे दिन काम में आ जायेगी, वह शक्कर निकालने को तत्पर हुआ।
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वहां न दूध है, न शक्कर, न ही कटोरा। पर मानसी सेवा में तन्मय होने के कारण उसे सब कुछ का आभास हो रहा है।
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भगवान को भी मजाक करने का मन हुआ। उन्होंने देखा–यह व्यक्ति मानसी सेवा कर रहा है, एक पैसे का भी खर्च नहीं कर रहा है, फिर भी अधिक शक्कर पड़ी है तो उसे निकालने जा रहा है।
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बालकृष्ण घुटनों के बल चलते हुए आए और उसका हाथ पकड़ लिया–’अरे ! शक्कर ज्यादा पड़ गई है तो तुम्हारा क्या जाता है ?
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तूने कहां पैसे खर्च किए हैं जो इतनी माथापच्ची करता है ! तुम तो मानसी सेवा कर रहे हो। एक पैसे का भी खर्च नहीं है।’
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श्रीकृष्ण का स्पर्श हुआ और उसकी गति ही बदल गई और वह सच्चा वैष्णव बन गया।

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