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चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन 18 फ़रवरी सन
1486 की फाल्गुन, शुक्लपक्ष, पूर्णिमा को
पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस
गांव में हुआ, जिसे अब 'मायापुर' कहा जाता है।

बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु
सभी इन्हें 'निमाई' कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण
का होने के कारण लोग इन्हें 'गौरांग', 'गौर हरि',
'गौर सुंदर' आदि भी कहते थे। चैतन्य महाप्रभु के
द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की
आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ
किए गए महामन्त्र 'नाम संकीर्तन' का अत्यंत
व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी
जगत तक में है। कवि कर्णपुर कृत 'चैतन्य चंद्रोदय' के
अनुसार इन्होंने केशव भारती नामक सन्न्यासी
से दीक्षा ली थी। कुछ लोग माधवेन्द्र पुरी को
इनका दीक्षा गुरु मानते हैं। इनके पिता का नाम
जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था।
जन्म काल
चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय गौड़
के शासक थे। उनके यहाँ अलाउद्दीन हुसैनशाह
नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय
ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए
उसे रुपया दिया। हुसैनख़ाँ ने वह रकम खा पीकर
बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह
पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैनख़ाँ की पीठ
पर कोड़े लगवाये। हुसैनख़ाँ चिढ़ गया। उसने
षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा
दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था
और सुबुद्धिराय उसका कैदी। हुसैनख़ाँ की पत्नी
ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला
लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु
हुसैनख़ाँ ने ऐसा न किया। वह बहुत ही धूर्त था,
उसने राजा को जबरदस्ती मुसलमान के हाथ से
पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य
किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई
हिन्दू सुबुद्धिराय को अपने समाज में शामिल
नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धिराय को
जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए
‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैनख़ाँ हुसैनशाह बन गया।
इसके बाद तो फिर किसी हिन्दू राज-रजवाड़े में
चूँ तक करने का साहस नहीं रह गया था। वे
साधारण-से-साधारण मुसलमान से भी घबराने
लगे। फिर भी हारे हुए लोगों के मन में दिन-रात
साँप लोटते ही रहा करते थे। निरन्तर यत्र-तत्र
विस्फोट हुआ ही करते थे। इसीलिए राजा और
प्रजा में प्रबल रूप से एक सन्देहों भरा नाता पनप
गया। सन 1480 के लगभग नदिया (नवद्वीप) के
दुर्भाग्य से हुसैनशाह के कानों में बार-बार यह
भनक पड़ी कि नदिया के ब्राह्मण अपने जन्तर-
मन्तर से हुसैनशाह का तख्ता पलटने के लिए कोई
बड़ा भारी अनुष्ठान कर रहे हैं। सुनते-सुनते एक दिन
हुसैनशाह चिढ़ उठा। उसने एक प्रबल मुसलमान
सेना नदिया का धर्मतेज नष्ट करने के लिए भेज
दी। नदिया और उसके आस-पास ब्राह्मण के गाँव-
के-गाँव घेर लिये गये। उन्होंने उन पर अवर्णनीय
अत्याचार किये। उसके मन्दिर, पुस्तकालय और
सारे धार्मिक एवं ज्ञान-मूलक संस्कारों के
चिह्न मिटाने आरम्भ किये। स्त्रियों का
सतीत्व भंग किया। परमपूज्य एवं प्रतिष्ठित
ब्राह्मणों की शिखाएँ पकड़-पकड़ कर उन पर लातें
जमाईं, थूका; तरह-तरह से अपमानित किया।
हुसैनशाह की सेना ने झुण्ड के झुण्ड ब्राह्मण
परिवारों को एक साथ कलमा पढ़ने पर मजबूर
किया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक नर-नारी को होठों
से निषिद्ध मांस का स्पर्श कराकर उन्हें अपने
पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक़ न रखा।
नदिया के अनेक महापंडित, बड़े-बड़े विद्वान समय
रहते हुए सौभाग्यवश इधर-उधर भाग गये। परिवार
बँट गये, कोई कहीं, कोई कहीं। धीरे-धीरे शांति
होने पर कुछ लोग फिर लौट आये और जस-तस
जीवन निर्वाह करने लगे। धर्म अब उनके लिए
सार्वजनिक नहीं गोपनीय-सा हो गया था।
तीज-त्योहारों में वह पहले का-सा रस नहीं
रहा। पता नहीं कौन कहाँ कैसे अपमान कर दे।
लोग सहमी खिसियाई हुई ज़िन्दगी बसर कर रहे
थे।
अनास्था की इस भयावनी मरुभूमि में भी
हरियाली एक जगह छोटे से टापू का रूप लेकर
संजीवनी सिद्ध हो रही थी। नदिया में कुछ
इतने इने-गिने लोग ऐसे भी थे, जो ईश्वर और उसकी
बनाई हुई दुनिया के प्रति अपना अडिग, उत्कट
और अपार प्रेम अर्पित करते ही जाते थे।
खिसियाने पण्डितों की नगरी में ये कुछ इने-
गिने वैष्णव लोग चिढ़ा-चिढ़ा कर विनोद के
पात्र बना दिये गये थे। चारों ओर मनुष्य के लिए
हर कहीं अंधेरा-ही-अंधेरा छाया हुआ था। लोक-
लांछित वैष्णव जन तब भी हरि-भक्त थे। यह संयोग
की बात है कि श्री गौरांग (चैतन्य महाप्रभु)
का जन्म पूर्ण चन्द्रग्रहण के समय हुआ था। उस समय
नदी में स्नान, करते दबे-दबे हरे राम, हरे कृष्ण जपते,
आकाशचारी राहुग्रस्त चन्द्र की खैर मनाते
सर्वहारा नर-नारी जन यह नहीं जानते थे कि
उन्हीं के नगर की एक गली में वह चन्द्र उदय हो
चुका है, जिसकी प्रेम चाँदनी में वर्षों से छिपा
खोया हुआ विजित समाज का अनन्त श्रद्धा से
पूजित, मनुष्य के जीने का एकमात्र सहारा–ईश्वर
उन्हें फिर से उजागर रूप में मिल जायगा। अभी
तो वह घुट-घुट कर रह रहा है, वह अपने धर्म को, धर्म
और ईश्नर को ईश्वर नहीं कह पाता है, यानि
अपने अस्तित्व को खुलकर स्वीकार नहीं कर
पाता है। श्री चैतन्य ने एक ओर तो ईश्वर को
अपने यहाँ के कर्मकाण्ड की जटिलताओं से मुक्त
करके जन-जन के लिए सुलभ बना दिया था, और
दूसरी ओर शासक वर्ग की धमकियों से लोक-
आस्था को मुक्त किया।
बचपन
निमाई (चैतन्य महाप्रभु) बचपन से ही विलक्षण
प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व
भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को
देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम
उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत
हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल
स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया।
निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद चिंतन में
लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे
थे। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह
लक्ष्मी देवी के साथ हुआ। सन 1505 में सर्पदंश से
पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता
के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के
राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के
साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके
पिता का निधन हो गया। चैतन्य के बड़े भाई
विश्वरूप ने बाल्यावस्था में ही संन्यास ले
लिया था, अत: न चाहते हुए भी चैतन्य को अपनी
माता की सुरक्षा के लिए चौबीस वर्ष की
अवस्था तक गृहस्थ आश्रम का पालन करना पड़ा।
कहा जाता है कि इनका विवाह वल्लभाचार्य
की सुपुत्री से हुआ था। अपने समय में सम्भवत: इनके
समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने
लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया
हो। पश्चिम बंगाल में अद्वैताचार्य और
नित्यानन्द को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और
सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार
संभलवाकर चैतन्य नीलाचल (कटक) में चले गए और
वहाँ 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति
और पूजा में लगे रहे। महाप्रभु के अन्तकाल का
आधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से
उपलब्ध नहीं होता है। 48 वर्ष की अल्पायु में
उनका देहांत हो गया। मृदंग की ताल पर कीर्तन
करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज
भी पूरे भारत में पर्याप्त है।
कृष्ण भक्ति
चैतन्य को इनके अनुयायी कृष्ण का अवतार भी
मानते रहे हैं। सन 1509 में जब ये अपने पिता का
श्राद्ध करने बिहार के गया नगर में गए, तब वहाँ
इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई।
उन्होंने निमाई से 'कृष्ण-कृष्ण' रटने को कहा।
तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर
समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने
लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य
निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य
अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व
अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन
दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र
गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों
शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे
आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-
गाकर 'हरि नाम संकीर्तन' करना प्रारंभ
किया। हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-
राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे नामक सोलह
शब्दीय कीर्तन महामन्त्र निमाई की ही देन है।
इनका पूरा नाम 'विश्वम्भर मिश्र' और कहीं
'श्रीकृष्ण चैतन्यचन्द्र' मिलता है। चौबीसवें वर्ष
की समाप्ति पर इन्होंने वैराग्य ले लिया। वे
कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति
आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम
'गौडीय वैष्णव मत' भी है। चैतन्य ने अपने जीवन का
शेष भाग प्रेम और भक्ति का प्रचार करने में
लगाया। उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला
था। हिन्दू और मुसलमान सभी ने उनका शिष्यत्व
ग्रहण किया। इनके अनुयायी चैतन्य को 'विष्णु
का अवतार' मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष
उन्होंने उड़ीसा में बिताये। छह वर्ष तक वे
दक्षिण भारत, वृन्दावन आदि स्थानों में विचरण
करते रहे। छ: वर्ष मथुरा से जगन्नाथ तक के
सुविस्तृत प्रदेश में अपने सिद्धांतों का प्रचार
किया तथा कृष्ण भक्ति की ओर लोगों को
प्रवृत्त किया।

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