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श्रीराधारानी जी

जब सिद्धाश्रम तीर्थ में राधा रानी सभी ब्रजवासियों के साथ स्नान करने पहुँचीं तो उनके अभूतपूर्व बैभव को देखकर द्वारिका की पटरानियाँ कृष्ण से पूछने लगीं-

"हे भगवान! ये कौन स्त्री यहाँ स्नान करने आई है, जिसका वैभव ऐसा अद्भुत है और जिसके गौरव से सभी यादव जहाँ के तहाँ खड़े डर रहे हैं। यह किसकी स्त्री है, इसका नाम क्या है और ये कहाँ रहती है? हे देवकीनंदन! तुम सर्वज्ञ हो। तुम भगवान हो। सो तुम हमें बताओ।"

तब कृष्ण कहते हैं- "ये बृषभानु गोप की बेटी, कीर्तिनंदिनी साक्षात राधा है। ये ब्रज की ईश्वरी, सभी गोपियों में श्रेष्ठ और मेरी पत्नी है। ये सिद्धाश्रम में स्नान करने के लिए आई है और गोपियों के यूथों को साथ लाई है। इसके गौरव से यादव वीर भयभीत खड़े हैं क्योंकि इसका ऐसा ही वैभव है।"

कृष्ण के मुख से राधा की बड़ाई सुनकर सत्यभामा(जिन्हें अपने रूप और पद का गर्व था) बोली- "क्या केवल राधा ही रूपवती है? मैं नहीं हूँ... "

"हे सखियों! मेरे रूप , गुण, शील और स्वभाव के कारण मेरे लिए विवाह के अनेकों प्रस्ताव आये थे। मेरे रूप के प्रभाव से शतधन्वा मारा गया। मेरे कारण कृतवर्मा द्वारिका से भाग गए। मेरे पास वो समयंतक मणि है जो दिन में आठ भार सोना उगलती है, जिसके पूजन से अकाल मृत्यु, जरा, रोग, शोक पास भी नहीं आते और जिसके प्रभाव से किसी मायावी की माया नहीं चलती। वो मणि मेरे पिता ने मुझे दहेज में दी थी। इसीसे मेरा वैभव अनंत है, मैं हरि के साथ गरुण पर बैठती हूँ। मेरे ही कारण भौमासुर मारा गया। उसकी कैद से मुक्त होकर तुम्हें कृष्ण पति रूप में मेरी ही कृपा से प्राप्त हो सके हैं। मैंने अपने पतिव्रत से कृष्ण को वश में कर लिया है।"

"मेरे समान न किसी का गौरव है, न किसी का वैभव है,  न किसी का रूप है और न किसी में शील है।"

ऐसा कहकर मानवती सत्यभामा रुक्मिणी से बोली- "रुक्मिणी तुम्हारे ही कारण कृष्ण ने शिशुपाल से युद्ध तक किया; तो क्या तुम सुंदर नहीं हो? सखी! राधा तो गोपकुमारी है और तुम राजकुमारी हो। तुम मान्य हो, धन्य हो और मानवतियों में श्रेष्ठ हो।"

सत्यभामा के ये वचन सुनकर कृष्ण की आठों रानियाँ भी मानवती हो गयीं और तब रुक्मिणी कृष्ण से बोली- "प्रभु! द्वारिका में नित्य ही हमने आपके मुख से राधा के विषय में सुना है। कृपया आप हम सबको उनके दर्शन करवाइए ताकि हम देख सकें कि उनका वैभव और गौरव वैसा ही है जैसा आपने वर्णन किया है, अथवा भिन्न है। जो तुम्हारी वियोगिनी ब्रजवासी है जो तुम्हारे दर्शन की कामना से सिद्धाश्रम में तीर्थयात्रा पर आई है।"

तब कृष्ण ने उनसे "तथास्तु" कहकर उन्हें अपने साथ लिया और राधा के दर्शन के लिए उनके शिविर में गए। अति सुंदर शिविर में जहाँ राधा बैठी थीं वहाँ चमेली की सुगंध से भवरे मंडरा रहे थे। राधा की कांति हंसिनी के समान थी। उनके मकर के समान बिजली जैसी कांति वाले झुमके थे और मुखमंडल करोड़ों चंद्रमाओं के समान उज्ज्वल था। अनेकों सखियाँ राधा को पंखा झल रही थीं और सेवा कर रही थीं। अपने पैरों के अग्र भाग को कोमलता से भूमि पर रखकर राधा मंद गति से चलती थीं। दूर से ही राधा रानी के ऐसे मनोरम स्वरूप को देखकर कृष्ण की हजारों पटरानियाँ मोहित होकर मूर्छित हो गयीं और भूमि पर गिर पड़ीं।

जैसे सूर्य के उदय होने पर तारों की कांति फीकी पड़ जाती है, उसी प्रकार राधा के सामने सभी पटरानियाँ तेजहीन हो गयीं। सबका रूपवती होने का अभिमान जाता रहा और वे आपस में ही कहने लगीं- "अहो! ऐसा सुंदर रूप तो त्रिलोकी में किसी का नहीं है। हमने जैसा सुना था, राधा को उससे भी विलक्षण पाया।

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