बुधवार, 13 सितंबर 2017

रूद्राष्टक

  महादेव भक्त कागभुशुण्डि महादेव को ही परमेश्वर एवं अन्य देवों से अतुल्य मानते थे । उनके गुरू श्री लोमेश , महादेव के साथ ही  श्री राम में भी वे असीम श्रद्धा रखते थे । इस बात को ले कर कागभुशुण्डि का अपने गुरू के साथ मत-भेद भी था । गुरू के समझाने पर भी , कि स्वयं महादेव भी श्री राम नाम का ही अखण्ड जाप जपते रहते हैं इसलिये श्री राम की महिमा को अस्वीकार करना तर्क संगत नही है । परंतु कागभुशुण्डि अपने गुरू को शिवद्रोही मान रूष्ट रहते थे ।

       एक बार एक महायज्ञ का आयोजन हो रहा था , कागभुशुण्डि ने इस यज्ञ की सूचना अपने गुरू को नहीं दी , फिर भी सरल हृदय गुरू अपने शिष्य भक्त के यज्ञ में सम्मलित होने पहुँचे । महादेव पूजन में बैठे कागभुशुण्डि ने गुरू को आया - देखने के उपरांत भी अपने आसन मे ही बैठे रहे और न ही उनका कोई शिष्टाचार स्वागत सत्कार ही किया । सरल हृदय गुरू ने तो शिष्य की इस नादानी का बुरा नहीं माना । परंतु महादेव इस कदाचित अनाचार को सहन न कर पाये - भविष्यवाणी हुई , हे अभिमानी मूर्ख ! तेरे सत्यज्ञानी गुरू ने उनकी सरलतावश तुझ पर क्रोध नहीं किया ! परंतु मैं तो नीति विरोधी का मैं भी विरोधी हूँ , यदि तुझे दण्ड ना मिला तो वेद मार्ग भ्रष्ट हो जाएंगे । इसलिये जा मैं तुझे श्राप देता हूँ - ' जो गुरू से ईर्ष्या करते हैं वों नर्क के भागी होते हैं  ' तू गुरू के सम्मुख भी अजगर की भांति ही बैठा रहा अतएव , जा अधोगति को पा कर अजगर ही बन जा और किसी वृक्ष की कोटर में ही रह ।

                        इस प्रचण्ड श्राप से दुःखी हो तथा अपने शिष्य को क्षमा दान हेतु कागभुशुण्डि के गुरु ने महादेव को प्रसन्न करने के हेतु रूद्राष्टक की रचना - वाचना कर आशुतोष भगवान महादेव को प्रसन्न किया । कथासार यही है कि  ' महादेव अनाचारी को भी क्षमा नहीं करते ' भले ही वह उनका परम भक्त ही क्यों न हो । श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित श्री रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में वर्णित रुद्राष्टक

नमामि शमीशान निर्वाण रूपं विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाश काशवासं भजेहम् ।।

   - हे महादेव ईशान आप ' निर्वाण ' मोक्ष ॐ स्वरूप सर्व व्यापक हैं , आप ही ब्रह्म , वेद् स्वरूप और माया , गुण, भेद , इच्छा से रहित हैं । चेतन आकाश रूप एवं अक्षरश: आकाश को ही वस्त्ररूप मे धारण करने वाले मै आपको प्रणाम करता हैूं  ।

निराकारं मोंकार मूलं  तुरीयं , गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं , गुणागार संसार-पारं नतोहम् ।।

   - हे निराकार महादेव ! आप ही तो ॐ कार के मूल मे हैं , तीनों गुणों ( सद-रज-तम ) से पृथक तथा वाणी , ज्ञान इंद्रियों से भी परे कालों के काल - महाकाल के भी काल हैं - एैसे  कृपालु गुणों के भण्डार , सृष्टि से परे आप परम देव महादेव को मैं नमस्कार करता हूँ ।

तुषाराद्रि  संकाश  गौरं  गंभीरं , मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनि चारू गंगा , लसदभालेन्दु कण्ठे-भुजंगा ।।

     - हे महादेव ! आप हिमालय पर्वत के समान गौर वर्ण वाले , गंभीर चित्त वाले हैं आपके शरीर की कांति करोडों कामदेवों की ज्योति को लजाने वाली ज्योति के सदृश ही  है । आपके मस्तक पर स्वंय गंगाजी लहलहा रही हैं  , ललाट पर दूज का चन्द्रमा चमचमा रहा है एवं गले में सर्पों की माला शोभायमान हो रही है ।

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं , प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीश - चर्माम्बरं मुण्डमालं , प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ।।

          - कानों में झिलमिलाते कुण्ड्ल से शोभायमान होता आप का स्वरूप जिनमे विशाल नेत्र सुन्दर भौंहें वाले हैं । हे नीलकण्ठ , हे सदा प्रसन्नचित्त रहने वाले परम दयालु हे महादेव ! मुण्डमाल मृगचर्म धारण करने वाले , सबके प्रिय सब के स्वामी हे महादेव मैं आप ही को भजता हूँ ।

प्रचण्डं , प्रकृष्टं , प्रगल्भं , परेशं , अखण्डं , अजं भानुकोटि-प्रकाशम् ।
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिं , भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम् ।।

            - हे प्रचण्ड रूद्रस्वरूप महादेव ! आप अजन्मे , उत्तम , तेजवान , ईश्वरों के भी परम ईश्वर अखण्ड परमेश्वर ,  करोडों सूर्यों के सदृश तेज़ वाले , तीनों प्रकार के दुःखो ( आधिदैविक , आधिभौतिक , आध्यात्मिक ) को हरने वाले , हाथों मे शूल ( त्रिशूल ) धारण करने वाले , एवं भक्ति द्वारा प्राप्त होने वाले - हे माँ भवानी के स्वामी मैं आप को ही भजता हैूँ ।

कलातीत-कल्याण-कल्पान्तकारी , सदा सज्जनानन्द दाता पुरारी ।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी ,  प्रसीद-प्रसीद प्रभो मन्माथारी ॥

         
              - हे महादेव आप ( सोलह - इक्कीस ) कलाओं से अलग कल्याणकारी, कल्प चक्र के नियन्ता , सज्जनों को आनन्द प्रदान करने वाले   सत-चित-आनन्द ( सच्चिदानन्द )  स्वरूप त्रिपुरारी हैं ।  हे प्रभो ! आप मुझ पर प्रसन्न होएँ , प्रसन्न होएँ  ।

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं , भजंतीह लोके परे वा नाराणम् ।
न तावत्सुखं शान्ति संताप नाशं  प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥

                - जब तक उमापति महादेव  के चरणरूप कमलों को प्राणी नहीं भजते  या उनका ध्यान नहीं करते तब तक उन्हे इस लोक या परमलोक में सुख-शांति नहीं मिलती है ।  हे समस्त प्राणियों में वास करने वाले  महादेव आप प्रसन्न हों ।

न जानामि योगं जपं नैव पूजाम् , नतोहं सदा सर्वदा शम्भु ! तुभ्यम् ।
जरा जन्म दु:खौद्य तातप्यमानं , प्रभो ! पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥

                  - हे महादेव शम्भो मैं पूजा-जप-तप-योग आदि कुछ भी नहीं जानता ,  मैं तो सदैव ही आपको प्रणाम करता हूँ ।  जन्म , ज़रा अवस्था ( बुढ़ापे ) रोग आदि दुःखों से पीडित मुझ दीन की आप रक्षा करें ! रक्षा करें ! हे प्रभु मैं आपको प्रणाम करता हूँ ! प्रणाम करता हूँ

रूद्राष्टक इदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये , ये पठंति नरा भक्त्या तेषां शम्भु प्रसीदति ॥

                 - ब्राह्मण द्वारा कही गयी यह ( आठ पदों की ) ' रूद्राष्टक ' महादेव शँभो की प्रसन्नता के लिए है , जो व्यक्ति श्रद्धा भक्ति से इसका पाठ करते हैं , उन पर महादेव सदैव प्रसन्न रहते हैं ।

                

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