शनिवार, 30 सितंबर 2017

श्रीश्यामासुन्दर के 64 गुण (रूप गोस्वामी जी)

प्रभु के अनन्त गुण है । यह उनके लीला प्रधान गुण है ।

↑ सुरम्‍यांग: - अर्थात भगवान के अवयवों की रचना बड़ी सुन्‍दर है।
↑ सर्वसल्‍लक्षणान्वित: - अर्थात भगवान समस्‍त शुभ लक्षणों से युक्‍त है।
↑ रुचिर : - अर्थात भगवान अपने शरीर की कान्ति से दर्शकों के नेत्रों को आनन्‍द देने वाले है।
↑ तेजसायुक्‍त: - अर्थात भगवान का विग्रह प्रकाश-पुंज से परिवेष्टित है।
↑ बलीयान् - अर्थात भगवान महती प्राणाशक्ति से समन्वित है।
↑ वयसान्वित : - अर्थात भगवान सर्वदा किशोरावस्‍थापन्‍न ही रहते है।
↑ विविधाद्भुतभाषावित् - अर्थात भगवान अनेक अद्भुत भाषाओं का ज्ञान रखते है।
↑ सत्‍वाक्‍य : - अर्थात भगवान कभी झूठ नहीं बोलते है।
↑ प्रियंवद : - अर्थात भगवान अपराधी से भी मधुर वचन बोलते है।

↑ वावदूक : - अर्थात भगवान वक्‍तृत्‍व कला में बड़े निपुण है।
↑ सुपाण्डित्‍य : - अर्थात भगवान चौदहों विद्याओं के निधान एवं नीति विचक्षण है।
↑ बुद्धिमान् - अर्थात भगवान मेधावी (अद्भुत धारणा शक्ति सम्‍पन्‍न) और सूक्ष्‍म बुद्धियुक्‍त है।
↑ प्रतिभान्वित: - अर्थात भगवान प्रतिभा (चमत्‍कारपूर्ण बुद्धि) अथवा मौलिकता से युक्‍त है।
↑ विदग्‍ध: - अर्थात भगवान चौंसठ कलाओं में प्रवीण है।
↑ चतुर: - अर्थात भगवान एक ही काल में अनेकों का समाधान कर देते है।
↑ दक्ष: - अर्थात भगवान दुष्‍कर कार्यों को भी थोड़े ही समय में सम्‍पन्‍न कर दिया करते है।
↑ कृतज्ञ: - अर्थात भगवान की हुई सेवा इत्‍यादि को कभी नहीं भूलते है
↑ सदृढव्रत: - अर्थात भगवान सत्‍यसन्‍ध एवं अपने व्रत के पक्‍के है

↑ देशकालसुपात्रज्ञ: - अर्थात भगवान देश, काल एवं पात्र का सदा विचार रखते है
↑ शास्‍त्रचक्षु: - अर्थात भगवान का आचरण शास्‍त्र विहित होता है ।
↑ शुचि: - अर्थात भगवान स्‍वयं निर्दोष तथा दूसरों के पापों का नाश करने वाले है।
↑ वशी - अर्थात भगवान जितेन्द्रिय है।
↑ स्थिर: - अर्थात भगवान जिस काम को हाथ में लेते थे, उसे पूरा करके छोडते थे और जब तक वह पूरा न हो जाता, विश्राम नहीं लेते है।
↑ दान्‍त: - अर्थात भगवान योग्‍यता प्राप्‍त होने पर असह्य कष्‍ट को भी सहन करने में पीछे नहीं हटते है।
↑ क्षमाशील: - अर्थात भगवान अपराधियों के अपराध को सह लिया करते है।
↑ गम्‍भीर: - अर्थात भगवान इतने गम्‍भीर थे कि उनकी आकृति अथवा व्‍यवहार से उनके हृदयगत भाव को कोई नहीं जान सकता है।
↑ धृतिमान् - अर्थात भगवान पूर्णकाम थे और क्षोभ का कारण उपस्थित होने पर भी चलायमान न होकर सर्वछा प्रशान्‍तचित्‍त बने रहते है।
↑ वावदूक : - अर्थात भगवान वक्‍तृत्‍व कला में बड़े निपुण है।
↑ सुपाण्डित्‍य : - अर्थात भगवान चौदहों विद्याओं के निधान एवं नीति विचक्षण है।
↑ बुद्धिमान् - अर्थात भगवान मेधावी (अद्भुत धारणा शक्ति सम्‍पन्‍न) और सूक्ष्‍म बुद्धियुक्‍त है।
↑ प्रतिभान्वित: - अर्थात भगवान प्रतिभा (चमत्‍कारपूर्ण बुद्धि) अथवा मौलिकता से युक्‍त है।
↑ विदग्‍ध: - अर्थात भगवान चौंसठ कलाओं में प्रवीण है।
↑ चतुर: - अर्थात भगवान एक ही काल में अनेकों का समाधान कर देते है।
↑ दक्ष: - अर्थात भगवान दुष्‍कर कार्यों को भी थोड़े ही समय में सम्‍पन्‍न कर दिया करते है।
↑ कृतज्ञ: - अर्थात भगवान की हुई सेवा इत्‍यादि को कभी नहीं भूलते है।
↑ सदृढव्रत: - अर्थात भगवान सत्‍यसन्‍ध एवं अपने व्रत के पक्‍के है।
↑ देशकालसुपात्रज्ञ: - अर्थात भगवान देश, काल एवं पात्र का सदा विचार रखते है।
↑ शास्‍त्रचक्षु: - अर्थात भगवान का आचरण शास्‍त्र विहित होता है।
↑ शुचि: - अर्थात भगवान स्‍वयं निर्दोष तथा दूसरों के पापों का नाश करने वाले है।
↑ वशी - अर्थात भगवान जितेन्द्रिय है।
↑ स्थिर: - अर्थात भगवान जिस काम को हाथ में लेते है, उसे पूरा करके छोडते थे और जब तक वह पूरा न हो जाता, विश्राम नहीं लेते है।
↑ दान्‍त: - अर्थात भगवान योग्‍यता प्राप्‍त होने पर असह्य कष्‍ट को भी सहन करने में पीछे नहीं हटते है।
↑ क्षमाशील: - अर्थात भगवान अपराधियों के अपराध को सह लिया करते है।
↑ गम्‍भीर: - अर्थात भगवान इतने गम्‍भीर थे कि उनकी आकृति अथवा व्‍यवहार से उनके हृदयगत भाव को कोई नहीं जान सकता है।
↑ धृतिमान् - अर्थात भगवान पूर्णकाम थे और क्षोभ का कारण उपस्थित होने पर भी चलायमान न होकर सर्वछा प्रशान्‍तचित्‍त बने रहते है।
↑ सम: - अर्थात भगवान का किसी के प्रति रागद्वेष नहीं थ, शत्रु और मित्र में उनकी समबुद्धि है।
↑ वदान्‍य: - अर्थात भगवान बड़े दानवीर है।
↑ धार्मिक: - अर्थात भगवान स्‍वयं धर्मानुकूल आचरण करते है और दूसरों से भी वैसा ही आचरण करवाते है
↑ शूर: - अर्थात भगवान युद्ध में बड़ी शूरवीरता दिखलाते है और अस्‍त्र-शस्‍त्रों के चलाने में बड़े कुशल है।
↑ करुण: - अर्थात भगवान बड़े पर-दु:खकातर दयालु है।
↑ मान्‍यमानकृत –अर्थात भगवान गुरु, ब्राह्मण और अपने बडों का बड़ा आदर करते है।
↑ दक्षिण: - अर्थात भगवान बड़े सुशील एवं सौम्‍य आचरण वाले है।
↑ विनयी - अर्थात भगवान बड़े नम्र तथा औद्धत्‍य शून्‍य है।
↑ ह्रीमान् - अर्थात भगवान को अपने मुँह पर अपनी प्रशंसा सुनकर बड़ा संकोच होता है।
↑ शरणागतपालक: - अर्थात भगवान शरण में आये हुए की सदा रक्षा करते है।
↑ सुखी - अर्थात भगवान कभी लेशमात्र दु:ख का अनुभव नहीं करते थे और उन्‍हें सब प्रकार के भोग प्राप्‍त है।
↑ भक्‍तसुहृत् - अर्थात भगवान भक्‍तों के अकारण प्रेमी है और थोडी सेवा से ही सन्‍तुष्‍ट हो जाते है।
↑ प्रेमवश्‍य: - अर्थात भगवान केवल प्रेम से प्रेमी के वश में हो जाते है ।
↑ सर्वशुभंकर: - अर्थात भगवान सर्व हितकारी है।
↑ प्रतापी - अर्थात भगवान की शूरता, पराक्रम तथा दुर्जेयता को सुनकर शत्रु कम्‍पायमान होते है।
↑ कीर्तिमान् - अर्थात भ्रवान्‍ के उत्‍तम सद्गुणों से उनका निर्मल यश दसों दिशाओं में फैल गया है।
↑ रक्‍तलोक: - अर्थात भगवान सदा सत्‍पुरुषों का पक्षपात करते है और उनकी सहायता करते है।
↑ साधुसमाश्रय: - अर्थात भगवान सदा सत्‍पुरुषों का पक्षपात करते है और उनकी सहायता करते है।
↑ नारीगणमनोहारी –अर्थात सुन्‍दरियां उनके अलौकिक रूप-लावण्‍य को देखकर उन पर मुग्‍ध हो जाया करती है।
↑ सर्वाराध्‍य: - अर्थात भगवान का सब लोग मान एवं पूजा करते है।
↑ समृद्धिमान् - अर्थात भगवान सब प्रकार की समृद्धियों से सम्‍पन्‍न है।
↑ वरीयान् - अर्थात भगवान सुर-मुनि सबसे श्रेष्‍ठ है और इनके द्वार पर ब्रह्मादि देवताओं तथा महर्षियों की भीड लगी रहती है।
↑ ईश्‍वर: - अर्थात भगवान की इच्‍छा में कोई बाधा नहीं डाल सकता है और उनकी आज्ञा को ही टाल सकता है
↑ सदास्‍वरूपसम्‍प्राप्‍त: - अर्थात भगवान माया के वश में नहीं है। सदा अपने स्‍वरूप में स्थित है।
↑ सर्वज्ञ: - अर्थात भगवान घट-घट कीबात जानते है और उनका ज्ञान देश, काल से अबाधित है, कोई वस्‍तु ऐसी नहीं है, जिसका उन्‍हें ज्ञान न हो।
↑ नित्‍यनूतन: - अर्थात यद्यपि उनके प्रेमीजन उनके माधुर्य रस का सदा आस्‍वादन करते है फिर भी उन्‍हें उसमें नत्‍य नया स्‍वाद मिलता है।
↑ सच्चिदानन्‍दसान्‍द्रांग: - अर्थात उनका विग्रह सच्चिदानन्‍दमय ही है, साधारण मनुष्‍यों की भाँति पंचभूतों का बना हुआ नहीं है।
↑ सर्वसिद्धिनिषेवित: - अर्थात सारी सिद्धियां उनके वश में है ।
↑ अविचिन्‍त्‍यमहाशक्ति: - अर्थात भगवान अचिन्‍त्‍य महाशक्तियों से युक्‍त है। अपने अपने संकल्‍प मात्र से ही स्‍वर्गादि दिव्‍य लोकों की रचना कर सकते है, ब्रह्मा एवं शिव आदि देवताओं को भी मोहित कर सकते है और भक्‍तों के प्रारब्‍ध का भी नाश कर सकते है।
↑ कोटिब्रह्माण्‍डविग्रह: - अर्थात उनका विग्रह असंख्‍य ब्रह्माण्‍ड-व्‍यापी है।
↑ अवतारावलीबीजम् - अर्थात सारे अवतारों को धारण करने वाले अवतारी वे ही है।
↑ हतारिगतिदायक: - अर्थात जो शत्रु उनके हाथ से मारे जाते है , वे मोक्ष को प्राप्‍त होते है
↑ आत्‍मारामगणाकर्षी –अर्थात उनकी ओर आत्‍माराम-पुरुषों का भी मन हठात्‍ आकृष्‍ट हो जाता है।
↑ सर्वाद्भुतचमत्‍कारलीलाकल्‍लोलवारिधि: - अर्थात उन्‍होंने अपने जीवन-काल में अनेक अद्भुत एवं चमत्‍कारपूर्ण लीलाएं कीं।
↑ अतुल्‍यमधुरप्रेममण्डितप्रियमण्‍डल: - अर्थात भगवान के प्रेमीजन उनके असाधरण माधुर्ययुक्‍त प्रेम से सर्वदा परिपूर्ण रहते है।
↑ त्रिजगन्‍मानसाकर्षी मुरलीकलकूजितै: - अर्थात उनकी मुरली के मधुर स्‍वर से तीनों लोकों के निवासियों का मन आकर्षित हो जाता है।
↑ असमानोध्‍वरूपश्रीविस्‍मापितचराचर: -अर्थात भगवान के असाधारण रूप लावण्‍य को देखकर चराचर जगत विस्‍मयाविष्‍ट हो जाता है।
↑ समुद्रा इव पंचाशद् दुर्विगाहा हरेरमी। जीवेष्‍वेते वसन्‍तोअपि विन्‍दुविन्‍दुतया क्‍वचित्‍।। परिपूर्णतया भान्ति तत्रैव पुरुषोत्‍तमे।

उपर्युक्‍त चौंसठ गुणों में से पहले पचास गुण अंशरूप से मनुष्‍यों मे भी रह सकते हैं यद्यपि पूर्णरूप से उनका विकास पुरुषोत्‍तम भगवान श्रीकृष्‍ण में ही हुआ है। पद्मपुराणा में शिवजी ने पार्वती जी से इन्‍हीं गुणों का वर्णन किया है और श्रीमद्भागवत के प्रथम स्‍कन्‍ध में पृथ्वी ने धर्म को भगवान के ये ही गुण बतलाये हैं। इनके अतिरिक्‍त 51 से लेकर 55 तक के गुण श्रीशिव आदि देवताओं में भी अंशरूप से पाये जाते हैं और 56 से 60 तक गुण भगवान श्रीलक्ष्‍मीश्‍वर आदि में भी होते हैं। शेष चार गुण तो असाधारण रूप से केवल भगवान श्रीकृष्‍ण में ही 

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