पूतना > पूत का अर्थ है पवित्र।
पूत ना अर्थात जो पवित्र नही है । पवित्र क्या नहीँ है अज्ञान।
सो पूतना का अर्थ है अज्ञान , अविद्या और पवित्र है केवल ज्ञान । गीता जी > " न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।" ज्ञान सा पवित्र कुछ भी नहीँ । ज्ञान धनार्जन का साधन नही है । आत्मस्वरुप का ज्ञान ही ज्ञान है । ज्ञान पवित्र है और अज्ञान अपवित्र है । अज्ञान से वासना का जन्म होता है । पूतना वासना का ही स्वरुप है ।
पूतना चतुर्दशी के दिन क्यो आई ?
पाँच ज्ञानेन्द्रिय , पाँच कर्मेन्द्रिय , मन , बुद्धि , चित्त एवं अहंकार इन चौदह स्थान पर वासना अविद्या रहती है ।
रामायण मे कैकेयी ने राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास की माँग की थी । इसका भी कारण यही है कि इन चौदह स्थानोँ पर बसे रावण को मारने के लिए चौदह वर्ष तक तपश्चर्या की आवश्यकता है ।
नीति और धर्म के मना करने पर भी यदि आँखे परस्त्री के पीछे भागे तो समझिए कि आँखो मे पूतना आ बसी । आँखो से पाप मन मे आ बसता है ।
पूतना तीन वर्ष तक बालक (शिशु) को मारती है ।
जीवन की चार अवस्थायेँ है - 1. जागृति 2. स्वप्न 3. सुषुप्ति 4. तुर्यगा ।
जागृत अवस्था मे पूतना आँखो पर सवार हो जाती है । आँखो की चंचलता मन को चंचल करती है । इस प्रकार जागृति , स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनोँ अवस्था मेँ अज्ञान सताता है अर्थात पूतन तीन वर्ष तक के शिशु को मारती है। इन तीन अवस्थाऔ को छोड़कर तुर्यगा अवस्था मेँ जीव का संबंध ब्रह्म से होता है और तब पूतना सता नही सकती । जो व्यक्ति तुर्यगा अवस्था मे प्रभु के साथ एक हो जाता है उसे पूतना - अज्ञान मार नही सकता ।
पूतना तीन वर्ष के अन्दर के बालक को मारती है इस बात का अर्थ यह भी है कि जो सत्व , रज , और तम इन गुणोँ मे फँसा हुआ है । उसे पूतना मारती है , माया त्रिगुणात्मक है । माया मे फँसे हुए व्यक्ति को पूतना मारती है ।
संसार के मोह जाल मे फँसे हुए सभी जन बालक (शिशू) ही तो है , इनको पूतना अज्ञान मारता है । किन्तु सांसारिक मोह का त्याग करके जो ईश्वर के निर्गुण स्वरुप मेँ लीन हो गया है , गुणातीत हो गया है उसे पूतना मार नही सकती । गुणातीत अर्थात् प्रकृति से परे रहने वाले व्यक्ति का पूतना कुछ भी बिगाड़ नहीँ पाती ।
जब पूतना गोकुल आई तो उस समय गाये वन मेँ चरने गयी थी , और नन्द जी मथुरा गये थे । अर्थात् गायो का वनगमन - इन्द्रियोँ का विषय वन मे गमन । इन्द्रियाँ जब विषय वन मे घूमेँगी तो पूतना मन मे आ धमकेगी । अज्ञान मन पर सवार हो जायेगा । जब इन्द्रियाँ विषयो मे खो जाती हैँ , बर्हिमुखी हो जाती हैँ , तब वासना आ जाती है । इन्द्रियो को प्रभू की सेवा की ओर मोड़कर निरुद्ध करने से पूतना सता नही पायेगी ।
पूत ना अर्थात जो पवित्र नही है । पवित्र क्या नहीँ है अज्ञान।
सो पूतना का अर्थ है अज्ञान , अविद्या और पवित्र है केवल ज्ञान । गीता जी > " न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।" ज्ञान सा पवित्र कुछ भी नहीँ । ज्ञान धनार्जन का साधन नही है । आत्मस्वरुप का ज्ञान ही ज्ञान है । ज्ञान पवित्र है और अज्ञान अपवित्र है । अज्ञान से वासना का जन्म होता है । पूतना वासना का ही स्वरुप है ।
पूतना चतुर्दशी के दिन क्यो आई ?
पाँच ज्ञानेन्द्रिय , पाँच कर्मेन्द्रिय , मन , बुद्धि , चित्त एवं अहंकार इन चौदह स्थान पर वासना अविद्या रहती है ।
रामायण मे कैकेयी ने राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास की माँग की थी । इसका भी कारण यही है कि इन चौदह स्थानोँ पर बसे रावण को मारने के लिए चौदह वर्ष तक तपश्चर्या की आवश्यकता है ।
नीति और धर्म के मना करने पर भी यदि आँखे परस्त्री के पीछे भागे तो समझिए कि आँखो मे पूतना आ बसी । आँखो से पाप मन मे आ बसता है ।
पूतना तीन वर्ष तक बालक (शिशु) को मारती है ।
जीवन की चार अवस्थायेँ है - 1. जागृति 2. स्वप्न 3. सुषुप्ति 4. तुर्यगा ।
जागृत अवस्था मे पूतना आँखो पर सवार हो जाती है । आँखो की चंचलता मन को चंचल करती है । इस प्रकार जागृति , स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनोँ अवस्था मेँ अज्ञान सताता है अर्थात पूतन तीन वर्ष तक के शिशु को मारती है। इन तीन अवस्थाऔ को छोड़कर तुर्यगा अवस्था मेँ जीव का संबंध ब्रह्म से होता है और तब पूतना सता नही सकती । जो व्यक्ति तुर्यगा अवस्था मे प्रभु के साथ एक हो जाता है उसे पूतना - अज्ञान मार नही सकता ।
पूतना तीन वर्ष के अन्दर के बालक को मारती है इस बात का अर्थ यह भी है कि जो सत्व , रज , और तम इन गुणोँ मे फँसा हुआ है । उसे पूतना मारती है , माया त्रिगुणात्मक है । माया मे फँसे हुए व्यक्ति को पूतना मारती है ।
संसार के मोह जाल मे फँसे हुए सभी जन बालक (शिशू) ही तो है , इनको पूतना अज्ञान मारता है । किन्तु सांसारिक मोह का त्याग करके जो ईश्वर के निर्गुण स्वरुप मेँ लीन हो गया है , गुणातीत हो गया है उसे पूतना मार नही सकती । गुणातीत अर्थात् प्रकृति से परे रहने वाले व्यक्ति का पूतना कुछ भी बिगाड़ नहीँ पाती ।
जब पूतना गोकुल आई तो उस समय गाये वन मेँ चरने गयी थी , और नन्द जी मथुरा गये थे । अर्थात् गायो का वनगमन - इन्द्रियोँ का विषय वन मे गमन । इन्द्रियाँ जब विषय वन मे घूमेँगी तो पूतना मन मे आ धमकेगी । अज्ञान मन पर सवार हो जायेगा । जब इन्द्रियाँ विषयो मे खो जाती हैँ , बर्हिमुखी हो जाती हैँ , तब वासना आ जाती है । इन्द्रियो को प्रभू की सेवा की ओर मोड़कर निरुद्ध करने से पूतना सता नही पायेगी ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
If u have any query let me know.