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नीतिश्लोक

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः । नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।

 भावार्थ :
मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसमे बसने वाला आलस्य हैं । मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका परिश्रम हैं जो हमेशा उसके साथ रहता हैं इसलिए वह दुखी नहीं रहता ।
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् । एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥

 भावार्थ :
रथ कभी एक पहिये पर नहीं चल सकता हैं उसी प्रकार पुरुषार्थ विहीन व्यक्ति का भाग्य सिद्ध नहीं होता ।
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं , मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं , सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥

 भावार्थ :
अच्छी संगति जीवन का आधार हैं अगर अच्छे मित्र साथ हैं तो मुर्ख भी ज्ञानी बन जाता हैं झूठ बोलने वाला सच बोलने लगता हैं, अच्छी संगति से मान प्रतिष्ठा बढ़ती हैं पापी दोषमुक्त हो जाता हैं । मिजाज खुश रहने लगता हैं और यश सभी दिशाओं में फैलता हैं, मनुष्य का कौन सा भला नहीं होता ।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

 भावार्थ :
तेरा मेरा करने वाले लोगो की सोच उन्हें बहुत कम देती हैं उन्हें छोटा बना देती हैं जबकि जो व्यक्ति सभी का हित सोचते हैं उदार चरित्र के हैं पूरा संसार ही उसका परिवार होता हैं ।
पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् । कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ॥

 भावार्थ :
किताबों मे छपा अक्षर ज्ञान एवम दूसरों को दिया धन यह दोनों मुसीबत में कभी काम नहीं आते ।
अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥

 भावार्थ :
जो आलस करते हैं उन्हें विद्या नहीं मिलती, जिनके पास विद्या नहीं होती वो धन नहीं कमा सकता, जो निर्धन हैं उनके मित्र नहीं होते और मित्र के बिना सुख की प्राप्ति नहीं होती ।
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः । श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ॥

 भावार्थ :
जो व्यक्ति कर्मठ नहीं हैं अपना धर्म नहीं निभाता वो शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल हैं, धनी होते हुए भी गरीब हैं और पढ़े लिखे होते हुये भी अज्ञानी हैं ।
चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः । चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ॥

 भावार्थ :
चन्दन को संसार में सबसे शीतल लेप माना गया हैं लेकिन कहते हैं चंद्रमा उससे भी ज्यादा शीतलता देता हैं लेकिन इन सबके अलावा अच्छे मित्रो का साथ सबसे अधिक शीतलता एवम शांति देता हैं ।
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥

 भावार्थ :
महर्षि वेदव्यास ने अपने पुराण में दो बाते कही हैं जिनमें पहली हैं दूसरों का भला करना पुण्य हैं और दूसरी दुसरो को अपनी वजह से दुखी करना ही पापा है ।
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन , दानेन पाणिर्न तु कंकणेन , विभाति कायः करुणापराणां , परोपकारैर्न तु चन्दनेन ॥

 भावार्थ :
कुंडल पहन लेने से कानों की शोभा नहीं बढ़ती,कानों की शोभा शिक्षा प्रद बातों को सुनने से बढ़ती हैं । उसी प्रकार हाथों में कंगन धारण करने से वे सुन्दर नहीं होते उनकी शोभा शुभ कार्यों अर्थात दान देने से बढ़ती हैं । परहित करने वाले सज्जनों का शरीर भी चन्दन से नहीं अपितु परहित मे किये गये कार्यों से शोभायमान होता हैं ।

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