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भगवान शिव के श्रृंगार

जानिए भगवान शिव के श्रृंगार और महिमा में छिपे ये रहस्य

पुराण कहते हैं कि परमात्मा के विभिन्न कल्याणकारी स्वरूपों में भगवान शिव ही महाकल्याणकारी हैं। जगत कल्याण तथा अपने भक्तों के दुख हरने के लिए वह असंख्य बार विभिन्न नामों और रूपों में प्रकट होते रहते हैं जो मनुष्य के लिए तो क्या, देवताओं के लिए भी मुक्ति का मार्ग बनता है।

इसी भावना के कारण भोले भंडारी शिव बाबा को त्रिदेवों में सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं में शिव बाबा ही ऐसे हैं जिनकी लिंग के रूप में पूजा होती है और जिन्हें उनके भक्त फक्कड़ बाबा के रूप में जानते हैं। उनकी पूजा ब्रह्मा, विष्णु, राम ने भी की है। सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने की, विष्णु जी पालक और रक्षक का दायित्व निभाते हैं इसके चलते सृष्टि में जो असंतुलन पैदा होता है उसकी जिम्मेदारी भोले बाबा संभालते हैं।
इसलिए उनकी भूमिका को ‘संहारक’ रूप में जाना जाता है। वह संहार करने वाले या मृत्यु देने वाली भूमिका निभाते नहीं हैं, वह तो मृत्युंजय हैं। वह संहार कर नए बीजों, मूल्यों के लिए जगह खाली करते हैं।

उनकी भूमिका उस सुनार व लोहार की तरह है जो अच्छे आभूषण एवं औजार बनाने के लिए सोने व लोहे को पिघलाते हैं, उसे नष्ट करने के लिए नहीं।
इस प्रक्रिया के उपरांत ही सुंदर रूप में आभूषण व उपयोगी औजार का निर्माण होता है। शिव रूप अनेकों प्रतीकों का योग है। उनके आस-पास जो वस्तुएं हैं, आभूषण हैं उनसे वह शक्ति ग्रहण करते हैं।
शिव मंगल के प्रतीक हैं। शिव संस्कृति हैं। शिव शाश्वत हैं, शिव सनातन हैं। शिव साकार हैं। शिव निराकार हैं। शिव परमात्मा हैं। शिव सृष्टि हैं। शिव पिता हैं। शिव अनादि हैं। शिव जीवन हैं। शिव मोक्ष हैं। अगर वह न होते तो सृष्टि कैसी? शिव न होते तो किसी की मृत्यु न होती।
शिव जी का अद्र्धनारीश्वर रूप उनके शक्ति रूप का प्रतीक है। वही एक मात्र देव हैं जिनका आधा रूप पुरुष और आधा स्त्री का है। शक्ति बिना सृष्टि संभव नहीं है। बिना नारी के किसी का जन्म नहीं हो सकता। शिव एवं शक्ति दोनों सृष्टि के मूलाधार हैं। शक्ति बिना शिव शव समान है।
शिव भोलेनाथ वस्त्र के रूप में बाघ की खाल का इस्तेमाल करते हैं। बाघ माता शक्ति का वाहन है। इस प्रकार यह वस्त्र अतीव ऊर्जा का प्रतीक है। चंद्र समय की निरंतरता का प्रतीक है।
सागर मंथन में निकले 14 रत्नों में से विष को देवताओं एवं राक्षसों ने जब ग्रहण नहीं किया तो संसार को विनाश से बचाने हेतु शिव ने उस विष को अपने कंठ में धारण कर उसकी गर्मी की शांति हेतु अपने मस्तक पर शापित चंद्र को सम्मान देकर ग्रहण किया।
सृष्टि निर्माण व विनाश के मूल में समय ही प्रमुख है। शिव अपने तन पर विभूति रमाते हैं। वह अपना श्रृंगार श्मशान की राख से करते हैं। उनका एक रूप सर्व शक्तिमान महाकाल का भी है। वह जीवन, मृत्यु के चक्र पर भी नियंत्रण रखते हैं।
उन्होंने श्रृंगार हेतु गले में सर्प लिपटाया होता है जो उनके योगीश्वर रूप का प्रतीक है। सांप न तो संचय करता है तथा न ही अपने रहने के लिए घर बनाता है।
वह स्वतंत्र रूप से वनों में, जंगलों में पर्वतों में विचरण करता है। शिव के गले में सांप के तीन लपेटे भूत, वर्तमान एवं भविष्य का प्रतीक हैं। शक्ति की कल्पना कुंडली जैसी आकृति होने के कारण इसे कुंडलिनी कहते हैं।
शिव के हाथों में विद्यमान डमरू नाद ब्रह्म का प्रतीक है जब वह बजता है तब आकाश, पाताल एवं पृथ्वी एक लय में बंध जाते हैं। यही नाद सृष्टि सृजन का मूल बिंदू हैं।
उनके धारण किए तीन नेत्र सृष्टि के सृजन पालन एवं संहार का केंद्र बिंदू है। एक नेत्र ब्रह्मा, दूसरा विष्णु तथा तीसरा स्वयं शिव रूप माना गया है। अन्य प्रकार से देखें तो पहला नेत्र धरती, दूसरा आकाश और तीसरा नेत्र है बुद्धि के देव सूर्य की ज्योति से प्राप्त ज्ञान अग्रि का। यही ज्ञान अग्रि का नेत्र जब खुला तो कामदेव भस्म हुआ।
शिव और शक्ति एक-दूसरे के पर्याय हैं। शिव के तीनों नेत्र शिवा के ही प्रतीक हैं जो क्रमश: गौरी के रूप में जीव को मातृत्व व स्नेह देते हैं, लक्ष्मी के रूप में उसका पोषण करते हैं तथा काली के रूप में उसकी आंतरिक तथा बाहरी बुराइयों का नाश करते हैं। शिव के ललाट पर सुशोभित तीसरा नेत्र असल में मुक्ति का द्वार है।
शिव के हाथ में त्रिशूल उनकी तीन मूल भूत शक्तियों इच्छाशक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान का प्रतीक है। इसी त्रिशूल से शिव प्राणी मात्र के दैहिक, दैविक एवं भौतिक तीनों प्रकार के शूलों का शमन करते हैं। इसी त्रिशूल से वह सत्व, रज और तम तीन गुणों तथा उनके कार्यरूप स्थूल, सूक्ष्म और कारण नामक देहत्रय का विनाश करते हैं।
शिव के शीश में अथाह वेगवान गंगा नदी समाई हैं। यदि शिव जटाजूट में गंगा को नहीं थामते तो वह धरती को तहस-नहस कर विनाश मचाती। उन्होंने गंगा को अपने शीश पर धारण कर गंगा माता की केवल एक धारा को ही प्रवाहित किया।
शिव के शीश की जटाओं को प्राचीन वट वृक्ष की संज्ञा दी जाती है जो समस्त प्राणियों का विश्राम स्थल है, वेदांत सांख्य और योग उस वृक्ष की शाखाएं हैं। कहा जाता है कि उनकी जटाओं में वायु का वेग भी समाया हुआ है। वृष अथाह शक्ति का परिचायक है वृष कामवृति का प्रतीक भी है। संसार के पुरुषों पर वृष सवारी करता है और शिव वृष की सवारी करते हैं।
शिव ने मदन का-दहन किया है। वह जितेंद्रिय हैं यदि मनुष्य अपने उदर और रसेंद्रिय पर विजय पा ले तो वह इतना शक्तिमान बन सकता है कि यदि वह चाहे तो सम्पूर्ण विश्व को जीत ले। शिव शक्ति के अनन्य स्रोत हैं। वह संसार की बुरी से बुरी, त्याज्य से त्याज्य वस्तुओं से भी शक्ति ग्रहण कर लेते हैं।
भांग, धतूरा जो सामान्य लोगों के लिए हानिकारक है वे उससे ऊर्जा ग्रहण करते हैं। यदि वह अपने कंठ में विष को धारण नहीं करते तो देवताओं को कभी अमृत न मिलता।
इस प्रकार देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाले शिव जी जब अपने रौद्र रूप में अवतरित होते हैं तब उनकी शक्ति पर नियंत्रण पाना सभी देवताओं के लिए कठिन हो जाता है।
जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता है अगर वह अपने अंदर की बुराइयों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) पर अपने तीसरे नेत्र का अंकुश रखे तो वह सदैव सुखी रहेगा। यदि वह इन पर अंकुश नहीं रखता तो यही उसका विनाश कर देती है।,

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