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शंकर भगवान से कुछ सीखें


1)भागवत मे भगवान शिव प्रचेताओ को बहुत प्यारी बात कहते है की "भगवन्तं वासुदेवं प्रपन्न: स प्रियो हि मे" अर्थात् भगवान शिव कहते है की जो वासुदेव/नारायण का भक्त है वो मुझे अत्यंत प्रिय है-- यानि हमे ईस बात से शिक्षा मिलती है की जो भगवान के भक्त है उन सबके प्रति भी दास का भाव ओर प्रेम भाव रखना चाहिये -- क्योकि जो व्यक्ति दासो का भी दास होता है उसपर भगवान बहुत जल्दी प्रसन्न होते है-- भगवान ने गजेंद्र से पहले ग्राह का उद्धार किया था क्योकि ग्राह ने गजेंद्र के चरण पकडे थे--ओर भगवान शिव तो परम वैष्णव है (वैष्णवानां यथा शम्भु:)ईसलिए भगवान शिव की दासता करने पर भी हमे नारायण की प्राप्ति होगी--
2)- दुसरी बात ये सीखने को मिलती है की हमे अपने क्रोध पर विजय प्राप्त करनी चाहिये-- आजकल समाज मे अगर कोई किसी को थोडा सा भी कटु वाक्य बोल दे तो लडाई झगडा प्रारंभ हो जाता है पर भगवान शिव से सीखना चाहिये की जब दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को बहुत गालियां देकर अपमान किया तो भगवान शिव कुछ नही बोले ओर चुपचाप उठकर चले गये थे-- ईसलिए सहनशक्ति हमे भगवान शिव से सीखने को मिलती है--
3)--तीसरी बात ये भी सीखने को मिलती है की हमे दुसरो की गलतियो को शीघ्र भुलाकर उन्हे माफ भी कर देना चाहिये-- आजकल समाज मे लोग एक दुसरे के प्रति ईतना द्वेष भरकर रखते है की जीवन भर के लिए दुसरो की गलतियो को माफ नही कर पाते-- दुसरा अगर माफी भी मांगे तो तब भी लोग ह्रदय से माफ नही कर पाते-- भगवान शिव ने दक्ष प्रजापति के सिर को धड से अलग करने के बाद दक्ष प्रजापति को बकरे का सिर लगाकर जीवनदान दिया ओर दक्ष का अपराध माफ किया--
4)-- चौथी बात ये सीखने को मिलती है की हमे दुसरो के गुण/दोषो का चिन्तन छोडकर केवल भगवान मे मन लगाकर भगवान के बारे मे ही सोचना चाहिये-- तभी समय सार्थक होगा-- भगवान शिव भागवत के चतुर्थ स्कंध के सातवे अध्याय मे कहते है की "नाघं प्रजेश बालानां वर्णये नानुचिन्तये" अर्थात् दक्ष जैसे अपराधियो के अपराध का मै चिन्तन नही करता--ईसलिए शिव भगवान से शिक्षा मिल रही है की अन्य लोगो के गुण/दोष देखना छोडकर केवल भगवान मे मन लगाओ-- गोकर्ण जी महाराज ने भी यही कहा है भागवत के माहात्म मे की "अन्यस्य गुणदोषचिन्तनमाशु मुक्त्वा,,सेवाकथारसमहो नितरां पिबत्वम्"--
5)-- भगवान शिव के एसे स्वभाव के कारण ही तो रामचरितमानस मे कहा गया की " शंकर प्रिय मम द्रोही,शिव द्रोही मम दास.
ते नर करहिं कल्प भर, घोर नरक मंह वास"--- अर्थात् जो शंकर से प्रेम करता है ओर मुझसे द्रोह करता है या शंकर से द्रोह करता है ओर मुझसे प्रेम करता है एसे व्यक्ति कल्पो कल्पो तक नर्क मे गिरते है--
"शिव द्रोहि मम दास कहावा,,ते नर मोहि सपनेहु नहि पावा"-- अर्थात् जो शंकर से द्रोह करके मेरी दासता करते है वे मुझे कभी नही पा सकते-- बोलिए शंकर भगवान की जय

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